जेल की दीवारों के भीतर दिव्यांगता : गरिमा, अधिकार और राज्य की जिम्मेदारी

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– डॉ सत्यवान सौरभ

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किसी भी लोकतांत्रिक समाज में कारागार व्यवस्था केवल अपराध और दंड का प्रतीक नहीं होती, बल्कि वह राज्य की संवेदनशीलता, मानवीय दृष्टि और संवैधानिक प्रतिबद्धता की भी कसौटी होती है। भारतीय संविधान व्यक्ति की गरिमा को सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्वीकार करता है और यह गरिमा अपराधी या कैदी बनने के बाद समाप्त नहीं हो जाती। इसी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्देश, जिनमें जेलों में दिव्यांग कैदियों के लिए सहायता, सुविधाओं के ऑडिट और दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के प्रभावी अनुपालन पर बल दिया गया है, भारतीय कारागार व्यवस्था की एक गंभीर लेकिन लंबे समय से उपेक्षित सच्चाई को सामने लाते हैं। ये निर्देश इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि कारागारों में बंद दिव्यांग व्यक्ति न केवल स्वतंत्रता से वंचित होते हैं, बल्कि अक्सर अपने बुनियादी मानवीय अधिकारों से भी वंचित रह जाते हैं।

भारतीय जेलें ऐतिहासिक रूप से ऐसे ‘सामान्य’ शारीरिक और मानसिक मानकों पर आधारित रही हैं, जिनमें दिव्यांगता को एक अपवाद या प्रशासनिक असुविधा के रूप में देखा गया। परिणामस्वरूप, शारीरिक, संवेदी, बौद्धिक या मनोसामाजिक दिव्यांगता से ग्रस्त कैदियों की आवश्यकताओं को जेल प्रशासन के ढांचे में समुचित स्थान नहीं मिल पाया। प्रवेश के समय दिव्यांगता की पहचान और पंजीकरण का अभाव, आवश्यकताओं के आकलन की कमी और अलग से किसी नीति का न होना, इन कैदियों को अदृश्य बना देता है। यह अदृश्यता ही आगे चलकर उपेक्षा, असमान व्यवहार और कभी-कभी अमानवीय स्थितियों में बदल जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश इस स्थिति को बदलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 कारागारों पर भी समान रूप से लागू होता है और ‘उचित समायोजन’ तथा ‘सुलभता’ कोई दया या विशेष सुविधा नहीं, बल्कि कानूनी अधिकार हैं। इसके साथ ही, जेल परिसरों में दिव्यांगता संबंधी सुविधाओं का नियमित ऑडिट, स्वास्थ्य सेवाओं तक समान पहुँच और कानूनी सहायता के प्रावधान को अनिवार्य मानते हुए न्यायालय ने प्रशासनिक जवाबदेही की नींव रखी है। यह दृष्टिकोण कारागारों को केवल अनुशासनात्मक संस्थान नहीं, बल्कि अधिकार-आधारित सुधार गृह के रूप में देखने की मांग करता है।

वास्तविकता यह है कि भारतीय जेलों में दिव्यांग कैदियों को अनेक स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सबसे पहली और बुनियादी समस्या सुलभता की है। अधिकांश जेल परिसरों में रैंप, रेलिंग, सुलभ शौचालय, समतल फर्श, स्पर्शनीय पथ या स्पष्ट संकेतकों का अभाव है। व्हीलचेयर उपयोग करने वाले कैदियों के लिए सीढ़ियाँ रोजमर्रा की गतिविधियों को भी असंभव बना देती हैं, जबकि दृष्टिबाधित कैदियों के लिए असमान फर्श और दिशासूचक संकेतों की कमी दुर्घटनाओं का जोखिम बढ़ाती है। यह स्थिति ‘समान पहुँच’ के संवैधानिक सिद्धांत का सीधा उल्लंघन है।

इसके साथ ही, चिकित्सा उपेक्षा एक गंभीर समस्या के रूप में उभरती है। नियमित स्वास्थ्य जांच, विशेषज्ञ डॉक्टरों की उपलब्धता और सहायक उपकरणों की समयबद्ध व्यवस्था का अभाव दिव्यांगता को और अधिक कष्टदायक बना देता है। कई मामलों में श्रवण यंत्र, व्हीलचेयर, छड़ी या अन्य सहायक साधनों की अनुपलब्धता कैदियों को पूरी तरह दूसरों पर निर्भर बना देती है। उपचार में विलंब से न केवल दिव्यांगता की तीव्रता बढ़ती है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

संचार संबंधी बाधाएँ इस समस्या को और गहरा कर देती हैं। श्रवणबाधित कैदियों के लिए सांकेतिक भाषा दुभाषियों का न होना, दृष्टिबाधितों के लिए ब्रेल या ऑडियो सामग्री का अभाव और बौद्धिक या मनोसामाजिक दिव्यांगता वाले कैदियों के लिए सरल भाषा में सूचना की कमी—इन सबका परिणाम यह होता है कि वे जेल नियमों, अनुशासनात्मक कार्यवाहियों, कानूनी प्रक्रियाओं और शिकायत निवारण तंत्र से लगभग कट जाते हैं। यह स्थिति न्याय तक समान पहुँच के अधिकार को कमजोर करती है।

दिव्यांग कैदियों की सामाजिक स्थिति उन्हें और अधिक असुरक्षित बनाती है। भीड़भाड़ वाली बैरकों में वे उपहास, उपेक्षा या हिंसा के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। मनोसामाजिक दिव्यांगता वाले कैदियों को अक्सर अनुचित रूप से एकांतवास या कठोर अनुशासनात्मक उपायों का सामना करना पड़ता है, जबकि उनकी स्थिति विशेष देखभाल और उपचार की मांग करती है। इस प्रकार, कारागार का वातावरण उनके लिए दंड से अधिक पीड़ा का स्रोत बन जाता है।

संवैधानिक दृष्टि से यह स्थिति गंभीर चिंता का विषय है। अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है, अनुच्छेद 21 गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी देता है और अनुच्छेद 39A न्याय तक समान पहुँच को राज्य का दायित्व बनाता है। ये सभी अधिकार जेल की दीवारों के भीतर भी उतने ही प्रभावी हैं। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 ‘उचित समायोजन’ और ‘सुलभता’ को कानूनी अधिकार के रूप में स्थापित करता है, जबकि संयुक्त राष्ट्र का दिव्यांगजन अधिकार अभिसमय हिरासत में दिव्यांग व्यक्तियों के संरक्षण और समावेशन की स्पष्ट रूपरेखा प्रदान करता है। इन मानकों की अनदेखी भारत की संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं दोनों को कमजोर करती है।

इस पृष्ठभूमि में, भारतीय कारागारों को दिव्यांगता-समावेशी बनाने के लिए व्यापक और संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है। बुनियादी ढाँचे को सार्वभौमिक डिज़ाइन के सिद्धांतों के अनुरूप ढालना अनिवार्य है, जिसमें रैंप, सुलभ शौचालय, रेलिंग, स्पर्शनीय फर्श और स्पष्ट संकेतक शामिल हों। यह सुधार चरणबद्ध रूप से, मौजूदा जेलों में ‘रेट्रोफिटिंग’ के माध्यम से किया जा सकता है। इसके साथ ही, प्रवेश के समय दिव्यांगता की अनिवार्य स्क्रीनिंग, आवश्यकताओं का आकलन और डिजिटल पंजीकरण व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए, ताकि किसी भी कैदी की आवश्यकता अनदेखी न रह जाए।

स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। नियमित चिकित्सीय जांच, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ, सहायक उपकरणों की उपलब्धता और विशेषज्ञों के नियमित दौरे सुनिश्चित किए जाने चाहिए। दूरस्थ जेलों में टेलीमेडिसिन एक प्रभावी समाधान हो सकता है। संचार और कानूनी पहुँच के लिए सांकेतिक भाषा दुभाषिए, ब्रेल और ऑडियो सामग्री, सरल भाषा में नियमावली और ई-मुलाकात व ई-कोर्ट जैसी डिजिटल सुविधाओं में दिव्यांग कैदियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

मानव संसाधन विकास भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जेल कर्मियों के लिए अनिवार्य दिव्यांगता-संवेदनशीलता प्रशिक्षण, व्यवहारिक दिशानिर्देश और जवाबदेही तंत्र विकसित किए जाने चाहिए। यह प्रशिक्षण केवल औपचारिक न होकर व्यवहार में संवेदनशीलता और सहानुभूति को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, जहाँ संभव हो, दिव्यांग कैदियों के लिए वैकल्पिक दंड, चिकित्सीय आधार पर रिहाई या सुधारात्मक उपायों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

अंततः, दिव्यांगता-समावेशी कारागार केवल प्रशासनिक सुधार का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह मानवीय गरिमा, संवैधानिक नैतिकता और न्यायपूर्ण शासन की कसौटी है। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्देश इस दिशा में एक अवसर प्रदान करते हैं—एक ऐसा अवसर, जिसमें भारतीय कारागार व्यवस्था को दंड-केंद्रित दृष्टिकोण से निकालकर अधिकार-आधारित और सुधारोन्मुख संस्था के रूप में पुनर्परिभाषित किया जा सकता है। यदि इन निर्देशों को ईमानदारी से लागू किया जाए, तो कारागार न केवल कानून के पालन का स्थल होंगे, बल्कि वे उस संवैधानिक आदर्श के सच्चे प्रतिनिधि बन सकेंगे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति—चाहे वह स्वतंत्र हो या हिरासत में—गरिमा और न्याय का अधिकारी है।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

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