शिक्षा और जागरूकता बढ़ाने में टेलीविजन की महत्वपूर्ण भूमिका

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बाल मुकुन्द ओझा

संयुक्त राष्ट्र  की ओर से हर साल 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाया जाता है। यह दिन हमें प्रेरित करता है कि हम इस शक्तिशाली माध्यम का सही उपयोग करें और इसे शिक्षा, मनोरंजन एवं जागरूकता के साथ स्वस्थ और सशक्त भारत के निर्माण का एक सशक्त स्रोत बनाएं। निश्चय ही टेलीविज़न ने दुनियाभर के लोगों को जोड़ने,  शिक्षित और जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सोशल मीडिया के युग में भी इसकी महत्ता कम नहीं हुई है। बदलते अत्यधुनिक दौर में पारंपरिक टीवी से लेकर स्मार्ट टीवी और डिजिटल प्लेटफॉर्म तक का शानदार सफर हमें इस माध्यम की प्रासंगिकता और महत्व को समझने का मौका देता है।

टेलीविज़न का आविष्कार सबसे पहले 1927 में फिलो टेलर फ़ार्नस्वर्थ ने किया था। उस समय किसी को भी नहीं पता था कि टेलीविजन वैश्विक सूचना के प्रसार को बढ़ावा देने वाले अंतर्राष्ट्रीय दिवस का प्रतीक बन जाएगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1996 में विश्व टेलीविजन दिवस की शुरुआत की थी। संयुक्त राष्ट्र ने पहला विश्व टेलीविजन फोरम 21 और 22 नवंबर 1996 को आयोजित किया था, जहां प्रमुख मीडिया हस्तियों ने संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में आज की बदलती  दुनिया में टेलीविजन के बढ़ते महत्व पर चर्चा करने और इस बात पर विचार करने के लिए मुलाकात की कि वे अपने आपसी सहयोग को कैसे बढ़ा सकते हैं। इसीलिए महासभा ने 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस के रूप में घोषित करने का निर्णय लिया। संयुक्त राष्ट्र  के मुताबिक टेलीविजन दुनिया में वैश्वीकरण और संचार के प्रतीक का प्रतिनिधित्व करता है। टेलीविजन ने लोगों का मनोरंजन करने के साथ-साथ परिवार को एक सूत्र में बांधे रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। टेलीविजन से परिवार के लोग एक दूसरे के करीब आ गए। दुनिया भर में अभी भी ऐसे बहुत से देश हैं, जहां लोगों को एक- दूसरे से जुड़ने में कई बाधाएं आती हैं। संचार में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए ही यह दिवस मनाया जाने लगा। टेलीविजन सूचना और शिक्षा का  सशक्त माध्यम है।  यह लोगों की निर्णय लेने की क्षमता को भी प्रभावित करता है। दुनिया में हो रहे  विकास के साथ संघर्षों से लोगों को अवगत करता है।  है। टेलीविजन अपने प्रारम्भ काल से से ही आम लोगों के जीवन में शिक्षा और मनोरंजन का महत्वपूर्ण स्थान है। टेलीविजन के माध्यम से लोग कई सालो से शिक्षा, समाचार, राजनीति, मनोरंजन और गपशप का आनंद लेते आ रहे हैं। विश्व टेलीविजन दिवस मनाने का उद्देश्य दुनियाभर में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से परे टेलीविजन के महत्व पर जोर देना है। टेलीविजन को सूचना, प्रणाली और जनमत को प्रभावित करने के लिए एक प्रमुख स्रोत के रूप में स्वीकार किया गया। टेलीविजन वर्तमान में संचार और वैश्वीकरण का प्रतिनिधित्व भी करता है।

भारत में पहली बार 15 सितंबर 1959 को टेलीविजन लॉन्च किया गया था। उस समय टेलीविजन ने देश को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस दौरान टेलीविजन पर ‘हम लोग, ‘बुनियाद, ‘रामायण’ और ‘महाभारत जैसे लोकप्रिय शो आते थे, जिन्हें देखने के लिए टीवी के सामने लोगों की भीड़ इकट्ठा हो जाया करती थी। हमारे देश में टेलीविजन को  हिंदी भाषा को जन जन तक पहुँचाने का श्रेय दिया जा सकता है। आजादी के बाद प्रगति और विकास का सजीव माध्यम बना टेलीविजन । बड़े बड़े नेता और महत्वपूर्ण व्यक्ति अपनी बात टेलीविजन के माध्यम से देशवासियों के समक्ष रखते थे। प्रसारण का महत्वपूर्ण साधन  होने से देश में इसकी महत्ता और स्वीकार्यता बढ़ी । मगर धीरे धीरे निजी क्षेत्र में प्रसारण माध्यम शुरू हुए। निजी चैनलों से चौबीसों घंटे समाचार और मनोरंजन की सामग्री प्रसारित होने लगी।  टेलीविज़न ने देश में आमजन को एक दूसरे से जोड़ने के लिए शिक्षा और  मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित किया वहीं न्यूज चैनलों पर घृणा और नफरत की मारकाट मची है। जब से टीवी न्यूज चैनलों ने हमारी जिंदगी में दखल दिया है तब से हम एक दूसरे के दोस्त कम दुश्मन अधिक बन रहे है। समाज में भाईचारे के स्थान पर घृणा का वातावरण ज्यादा व्याप्त हो रहा है। प्रिंट मीडिया आज भी अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन कर रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर हो रही बहस घृणास्पद और निम्नस्तरीय है। ऋषि मुनियों की इस पावन धरा को घृणा के विष बीज से मुक्ति नहीं मिली तो भारत को पतन के मार्ग पर जाने से कोई भी ताकत नहीं रोक पायेगी।

न्यूज चैनलों पर विभिन्न सियासी दलों के प्रतिनिधि जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते है उन्हें देखकर लगता नहीं है की यह गाँधी, सुभाष, नेहरू, लोहिया और अटलजी का देश है। देश की सर्वोच्च अदालत कई बार इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर नियामकीय नियंत्रण की कमी पर अफसोस ज़ाहिर कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नफरत फैलाने वाली बातें एक ‘बड़ा खतरा  हैं और भारत में  स्वतंत्र एवं संतुलित प्रेस की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि एंकरों और न्यूज़ चैनल के प्रबंधकों के खिलाफ कार्रवाई हो तो सब लाइन पर आ जाएंगे। 

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

      

अमेरिका से डिपोट किए लारेंस के भाई को एएनआई ने किया गिरफ्तार

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गैंग्स्टरर लॉरेंस बिश्नोई के भाई और उसके करीबी अनमोल बिश्नोई को अमेरिका से लौटने के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने गिरफ्तार कर लिया। अनमोल को अमेरिका ने मंगलवार को भारत डिपोर्ट कर दिया था। उसके दिल्ली पहुंचते ही एनआईए ने उसे पकड़ लिया। अनमोल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता बाबा सिद्दीकी की हत्या के मामले में आरोपी है। उसके खिलाफ कई राज्यों में गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं। 

एनआईए ने इस मामले की जांच के बाद माना कि अनमोल ने 2020-2023 की अवधि के दौरान देश में विभिन्न आतंकवादी कृत्यों को अंजाम देने में नामित आतंकवादी गोल्डी बरार और लॉरेंस बिश्नोई की सक्रिय रूप से सहायता की । मार्च 2023 में एनआईए ने अनमोल के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया था। 

अनमोल ने बिश्नोई गिरोह के विभिन्न सहयोगियों के साथ मिलकर काम करते हुए लॉरेंस बिश्नोई गिरोह के लिए अमेरिका से आतंकवादी सिंडिकेट चलाया साथ ही आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना जारी रखा। इसके लिए उसने जमीनी स्तर पर गुर्गों का इस्तेमाल किया। जांच से यह भी पता चला है कि अनमोल बिश्नोई ने गिरोह के शूटरों और गुर्गों को आश्रय और रसद सहायता प्रदान की थी। वह अन्य गैंगस्टरों की मदद से विदेशी धरती से भारत में जबरन वसूली भी कराता था।


नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP) के नेता बाबा सिद्दीकी की 12 अक्तूबर 2024 को मुंबई के बांद्रा स्थित कार्यालय के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। मुंबई पुलिस इस मामले में अब तक 26 आरोपियों को गिरफ्तार कर चुकी है। चार्जशीट में अनमोल को ‘मुख्य साजिशकर्ता’ बताया गया है और उसे वांछित आरोपियों की सूची में रखा गया है। पुलिस के अनुसार कई गिरफ्तार आरोपियों के फोन से मिले वॉइस क्लिप्स की जांच करने पर उनकी आवाज अनमोल की रिकॉर्डिंग से मेल खाती पाई गई थी

जांच में यह सामने आया था कि अनमोल ने विदेश में रहते हुए हत्या की योजना को दिशा दी। बरामद ऑडियो क्लिप्स में वह कथित तौर पर अपने सहयोगियों को हत्या करने के निर्देश देता सुना गया है। जांच एजेंसियों का मानना है कि उसने विदेश से ही घटनाक्रम को नियंत्रित किया । पूरी साजिश को अंजाम दिलाया। इन प्रमाणों को पुलिस ने चार्जशीट में शामिल किया है।

राजनीति के फलते फूलते और दरकते सियासी परिवार

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बाल मुकुन्द ओझा

कभी देश के प्रधानमंत्री के पद के नज़दीक पहुंचे लालू प्रसाद यादव का सियासी परिवार अब बिखरने के कगार पर है। बिहार चुनाव में करारी हार के बाद लालू परिवार की एकता छिन्न भिन्न हो गई है। बिहार में परिवारवाद कोई नया मुद्दा नहीं है मगर सबसे शक्तिशाली परिवार में अंदरूनी झगड़ा खुलकर सामने आ गया है। लालू परिवार में जयचंदों को लेकर भी सियासत गर्म हो रही है। चुनाव से पहले बड़े बेटे तेज प्रताप को परिवार से निकाल बाहर कर दिया गया था। चुनाव के बाद हार की जिम्मेदारी तय करने के मामले में लालू को किडनी देने वाली बेटी रोहिणी आचार्य ने रोते हुए घर छोड़ दिया और परिवार से नाता तोड़ने और राजनीति छोड़ने का ऐलान किया। उन्होंने आरोप लगाया था कि चुनाव हारने के बाद उनके भाई तेजस्वी यादव और उनके दो करीबी सहयोगी संजय यादव और रमीज ने उन्हें अपमानित किया है। रोहिणी ने यह भी आरोप लगाया कि उन्हें चप्पल उठा कर मारने की भी कोशिश की।  कल एक बेटी, एक बहन, एक शादीशुदा महिला, एक मां को जलील किया गया, गंदी गालियां दी गयीं, मारने के लिए चप्पल उठाया गया, मैंने अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं किया, सच का समर्पण नहीं किया, सिर्फ और सिर्फ इस वजह से मुझे बेइज्जती झेलनी पड़ी। कल एक बेटी मजबूरी में अपने रोते हुए मां-बाप बहनों को छोड़ आयी, मुझसे मेरा मायका छुड़वाया गया. मुझे अनाथ बना दिया गया। आप सब मेरे रास्ते कभी ना चलें, किसी घर में रोहिणी जैसी बेटी – बहन पैदा ना हो ।

देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक राजनीतिक परिवारों में सियासी फूट और कलह का लंबा इतिहास रहा है। देश में अनेक सियासी परिवार जहां फले फुले है वहां अनेक परिवार टूट फूट का शिकार होकर दरकते भी गए है। इस समय देश में डेढ़ दर्ज़न परिवार राजनीति में सक्रीय है। इनमें अनेक बड़े परिवार समय के साथ फलते फूलते और बिखरते रहे। देश के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित नेहरू गांधी परिवार में भी स्व. संजय गांधी की पत्नी मेनका और बेटे वरुण गांधी ने परिवार से अलग राह पकड़कर भाजपा का दामन थाम रखा है। दूसरा बड़ा परिवार पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल का है जिसकी चौथी पीढ़ी इस समय सियासी समर में संघर्षरत है। हरियाणा में देवीलाल की विरासत की जंग में परिवार बिखर गया। देवीलाल के बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री स्व.ओपी चौटाला के दोनों बेटों ने सियासत की अलग अलग पगडंडियां पकड़ रखी है। पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के निधन के बाद उनका परिवार भी बिखर गया है। बेटे और भाई ने अलग अलग राह पकड़ रखी है। इसी भांति यूपी में सोने लाल पटेल के परिवार के सदस्यों की राह भी जुदा जुदा है। इनमें एक सदस्य मोदी मंत्री मंडल में शामिल है तो दूसरा मोदी विरोधी धड़े के साथ है। कल तक मुलायम सिंह यादव का परिवार भी अलग थलग था। भाई शिवपाल और बेटे अखिलेश की राह अलग अलग थी  मगर शिवपाल फिर अपने भतीजे के साथ हो गए है मगर परिवार के एक बहू अपर्णा आज भी भाजपा खेमे से जुडी है। आंध्र में पूर्व मुख्यमंत्री रामाराव का परिवार भी बिखरा हुआ है। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ने अपने भतीजे राज ठाकरे के स्थान पर अपने बेटे उद्धव को पार्टी की सत्ता सौंप दी थी। भतीजे राज ने अपने चाचा से बगावत कर अलग पार्टी बना ली थी। शरद पवार का उदहारण भी हमारे सामने है। उन्होंने अपने भाई के स्थान पर बेटी को तरजीह दी थी। राजनीति के चाणक्य समझे जाने वाले शरद पवार के भतीजे अजीत ने अपने चाचा को पटकनी देकर भाजपा सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद संभाल परिवार को तोड़ दिया था ।

आंध्र प्रदेश में वाईएस राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद परिवार में भाई जगनमोहन रेड्डी और बहन वाईएस शर्मिला में भी टकराव हुआ। 2021 में बहन शर्मिला ने अपनी अलग पार्टी बनाई। इसके बाद उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया। KCR के नाम से चर्चित के. चंद्रशेखर राव की पार्टी में कलह खुलकर सामने आ चुकी है। पूर्व मुख्यमंत्री की बेटी के. कविता को भाइयों के खिलाफ आवाज उठाने का खामियाजा भुगतना पड़ा है। एच.डी. देवेगौड़ा के परिवार के भीतर सत्ता और टिकट वितरण को लेकर समय-समय पर मतभेद सामने आते रहे हैं। खासकर उनके बेटे एच.डी. कुमारस्वामी और एच.डी. रेवन्ना के बीच कई बार सार्वजनिक मंचों पर भी असहमति देखी गई है। तमिलनाडू में एम. करुणानिधि के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत के लिए परिवार में घमासान हुआ। करुणानिधि के दो बेटों एम.के. स्टालिन और एम.के. अलागिरी के बीच पार्टी के उत्तराधिकार को लेकर लंबे समय तक विवाद रहा। करूणानिधि ने बड़े बेटे अलागिरी को पार्टी से अलग कर स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। पिता के इस एक्शन से बड़ा बेटा राजनीति के बियावान में खो गया। अंत में अलागिरी को पार्टी और परिवार से बाहर का रास्ता दिखाया गया।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी . 32 मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

क्या अब पूरे देश में शुरू होगी चुनाव पूर्व ‘रेवड़ी वितरण’ नीति ?                             

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− निर्मल रानी

 बिहार चुनाव परिणाम आ चुके हैं। परिणामों को लेकर तरह तरह से समीक्षाएँ की जा रही हैं। विपक्ष तो इस चुनाव को जनादेश के बजाये ‘ज्ञानादेश ‘ कहकर चुनाव आयोग की निष्पक्षता व विश्वसनीयता पर ही सीधा सवाल खड़ा कर रहा है। कुछ समीक्षकों की नज़रों में धर्म निरपेक्ष मतों के विभाजन के कारण ऐसे परिणाम आये तो कुछ का आंकलन है कि महिला मतों ने चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा की। मगर सच तो यह है कि जिसतरह के चुनाव परिणाम आये हैं उसका अंदाज़ा स्वयं भारतीय जनता पार्टी को भी नहीं था क्योंकि गृह मंत्री अमितशाह ने भी ‘अब की बार 160’ की विजय सीमा निर्धारित की थी जबकि 202 सीटों पर ‘राजग’ ने फ़तेह हासिल की। महिलाओं द्वारा राजग के पक्ष में किये गए बंपर मतदान को लेकर यही कहा जा रहा है कि जिस समय चुनाव की घोषणा के दिन आचार संहिता का सरेआम उल्लंघन करते हुये बिहार में लगभग 1 करोड़ 51 लाख महिलाओं के खाते में 10000 रुपये डाले गए थे उसी समय से यह अंदाज़ा लगाया जाने लगा था कि चुनाव का रुख़ नितीश सरकार के पक्ष में जा सकता है। कहा यह भी जा रहा है कि विश्व बैंक से किसी अन्य परियोजना के लिए प्राप्त धनराशि को केंद्र सरकार ने बिहार विधानसभा चुनाव के लिए ‘डायवर्ट’ किया और उन्हीं पैसों को राज्य की महिला मतदाताओं में बांट दिया गया। यही पैसे लगभग डेढ़ करोड़ महिला मतदाताओं के खाते में 10,000 रुपये प्रति खाते की दर से हस्तानांतरित कर दिये गये। गोया लगभग 40 हज़ार करोड़ रुपयों की भारी अनुमानित रक़म रेवड़ियों की तरह बाँट दी गयी। चुनाव पूर्व ‘रेवड़ी आवंटन’ का यही फ़ार्मूला जिसे सीधे शब्दों में पैसे देकर वोट ख़रीदना भी कहा जा सकता है, पूर्व में मध्य प्रदेश,हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली में विभिन्न योजनाओं के नाम पर  और अब बिहार में नक़द वितरण के रूप में सफलता पूर्वक आज़माया जा चुका है। चुनाव घोषित होने के बावजूद आचार संहिता का सरेआम उल्लंघन करते हुये सरकारी ख़ज़ाने से लोगों के खातों में बड़ी राशि डालने का सीधा अर्थ है वोट ख़रीदना। और चिंताजनक यह है कि यह अनैतिक व ग़ैर क़ानूनी काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,भाजपा व उनके सहयोगी दलों द्वारा खुले तौर पर किया गया।  

                      सवाल यह है की पूर्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘रेवड़ी बांटने’ के इस चलन को लेकर दिये गये ‘प्रवचन ‘ क्या केवल विपक्ष के लिये ही थे स्वयं उनकी भाजपा या राजग दलों के लिये नहीं ? याद कीजिये जब जुलाई 2022 को लखनऊ में एक कार्यक्रम में मोदी जी फ़रमाते हैं कि “ये रेवड़ी बाँटने की संस्कृति देश के लिए बहुत ख़तरनाक है। जो रेवड़ी बाँट रहे हैं, वो आपके बच्चों का हक़ मार रहे हैं। यह रेवड़ी संस्कृति देश के विकास को खा जाएगी। फ़्री की रेवड़ी बांटकर वोट लेने की होड़ देश को दीवालिया बना देगी। यह आने वाली पीढ़ियों के साथ बहुत बड़ा अन्याय है।” प्रधानमंत्री तो मुफ़्त के रेवड़ी कल्चर से इतना आहत थे कि 15 अगस्त 2022 को लाल क़िले से अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी उन्हें  इसका ज़िक्र करते हुये कहना पड़ा था कि हमें “रेवड़ी कल्चर से बचना होगा जो देश को तबाह कर देगा। उस समय उन्होंने राज्य सरकारों विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों पर निशाना साधते हुए कहा था कि मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी,मुफ़्त बस यात्रा आदि जैसी योजनाएँ चुनावी लाभ के लिए लाई जा रही हैं, जो राज्यों की आर्थिक स्थिति को कमज़ोर कर रही हैं।” उनकी यह टिप्पणी ख़ासतौर पर उस समय की दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि की ग़ैर बीजेपी सरकारों की मुफ़्त योजनाओं के संदर्भ में की गई थी।

                 परन्तु उपरोक्त योजनाएं जिसे प्रधानमंत्री ‘रेवड़ी ‘ बता रहे थे इसमें बिजली पानी बस यात्रा जैसी सुविधाएँ तो थीं परन्तु बिहार की तरह 10 हज़ार रूपये बिना किसी योजना के बैंक खतों में डालना, जिसे सीधे तौर पर पैसे देकर वोट ख़रीदने के सिवा और क्या कहा जा सकता है ऐसी कोई योजना नहीं थी ? फिर मोदी जी का रेवड़ी संस्कृति को लेकर लाल क़िले तक से रुन्दन करना आख़िर बिहार में कहाँ चला गया ? क्या केवल विपक्षी दलों के लिये ही प्रधानमंत्री की ये नसीहत थी ? और इन सबसे बड़ा सवाल अब भविष्य के चुनावों के लिए खड़ा हो गया है कि क्या अब भविष्य के चुनाव का आधार भी चुनाव पूर्व नक़द वितरण ही हुआ करेगा ? क्या बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ, क़ानून व्यवस्था व भ्रष्टाचार जैसे अनेक जनहितकारी मुद्दे अब चुनावी मुद्दे नहीं हुआ करेंगे ? नैतिक रूप से तो क़र्ज़ मुआफ़ी मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, मुफ़्त बस यात्रा जैसी सुविधाएँ देना भी मुनासिब नहीं परन्तु आश्चर्य तो यह है कि प्रधानमंत्री को इस तरह की योजनायें रेवड़ी नज़र आ रही थीं तो बिहार में चुनाव के दौरान ही बिना किसी योजना के नक़द पैसे बांटकर सीधे तौर पर वोट ख़रीदना कहाँ की नैतिकता है ? बिहार में सरकार तो ज़रूर बन गयी है परन्तु सरकार बनाने के लिये मुफ़्त बांटे गये लगभग 40 हज़ार करोड़ रुपयों के बाद राज्य की आर्थिक स्थिति पर क्या फ़र्क़ पड़ेगा, क्या रेवड़ी बांटने वालों द्वारा इसका भी आंकलन किया गया है ? और चुनाव आयोग द्वारा मूक दर्शक बनकर इस अनैतिक व ग़ैर क़ानूनी काम को देखते रहना क्या सीधे तौर पर यह सन्देश नहीं देता कि यह सारा खेल सत्ता व चुनाव आयोग की सामूहिक मर्ज़ी से रचा गया ?  

                  बिहार के चुनावों में हुई इसतरह की मुफ़्त रेवड़ी बाँट ने भविष्य के चुनावों के लिये एक ऐसा ख़तरा पैदा कर दिया है जो न केवल देश की अर्थव्यवस्था को संकट में डाल सकता है बल्कि विश्व के उस सबसे बड़े लोकतंत्र के लिये भी ख़तरा व शर्मिन्दिगी का कारक है जिस पर प्रत्येक भारतवासी नाज़ करता है। यही भारतीय चुनाव हैं जिसकी व्यापक प्रक्रिया को देखने के लिये प्रायः दुनिया के नेता व अधिकारी आते रहते हैं। क्या अब हम दुनिया को यही बातयेंगे कि भारत में चुनाव नीतिगत आधार पर नहीं होते बल्कि यहाँ वोट ख़रीदे जाते हैं ? और क्या अब कुर्सी से चिपके रहने के सत्ता की चुनाव पूर्व ‘ नक़द रेवड़ी वितरण’ नीति बिहार की ही तरह पूरे देश में शुरू होगी?                                                                   

 निर्मल रानी  

“प्रदूषण की कीमत: क्या भारत को चाहिए एक व्यापक ‘प्रदूषण कर’?

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पर्यावरणीय आपातकाल और सीमित राजस्व—क्या आर्थिक दंड ही हरित भविष्य का मार्ग बना सकता है?**

भारत विश्व के उन देशों में है जहाँ वायु, जल और मिट्टी का प्रदूषण तीव्र स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी सबसे प्रदूषित नगरों की सूची में भारत के अनेक नगर शामिल हैं। जल-प्रदूषण से प्रतिवर्ष लाखों लोग रोगग्रस्त होते हैं। दूसरी ओर, स्वच्छ ऊर्जा, हरित अवसंरचना और प्रदूषण नियंत्रण हेतु सरकार के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं। ऐसे समय में “प्रदूषण कर”—अर्थात् प्रदूषण फैलाने पर आर्थिक दंड—को एक समुचित समाधान के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि इससे प्रदूषण में कमी और पर्यावरण-रक्षा के लिए स्थायी राजस्व दोनों प्राप्त हो सकते हैं।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत आज उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ तेज आर्थिक विकास और बिगड़ते पर्यावरण के संकट के बीच संतुलन बनाना अत्यंत कठिन चुनौती बन गया है। शहरों की हवा दिन–प्रतिदिन जहरीली होती जा रही है, नदियाँ औद्योगिक कचरे से भर रही हैं, भूमिगत जल स्तर घट रहा है, ठोस कचरे के पहाड़ महानगरों की पहचान बनते जा रहे हैं, वहीं जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या अब भारत को प्रदूषण फैलाने वालों पर प्रत्यक्ष आर्थिक दंड लगाने—अर्थात् विस्तृत “प्रदूषण कर” लागू करने—की आवश्यकता है?

प्रदूषण कर का विचार नया नहीं, परन्तु इसकी आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है। अर्थशास्त्र में यह माना जाता है कि जब कोई उद्योग, वाहन या गतिविधि प्रदूषण फैलाती है तो उसका दुष्परिणाम पूरे समाज को भुगतना पड़ता है, न कि केवल उसे जो प्रदूषण फैला रहा है। यह बाज़ार व्यवस्था की वह गंभीर विफलता है जिसे “बाह्य लागत” कहा जाता है—अर्थात् नुकसान तो समाज को होता है, पर उसका मूल्य न तो वस्तु की कीमत में जुड़ता है, न ही प्रदूषण फैलाने वाला उसे भरता है। ऐसे में “प्रदूषण कर” इसी असंतुलन को सुधारने का प्रयास करता है, जहाँ जो जितना अधिक प्रदूषण फैलाए, वह उतनी अधिक आर्थिक कीमत चुकाए।

भारत में कोयले पर लगाया गया “स्वच्छ ऊर्जा उपकर” इसका एक प्रारंभिक स्वरूप था, परंतु आज देश में वायु, जल, ध्वनि, ठोस कचरा और औद्योगिक उत्सर्जन का ऐसा मिश्रित संकट है कि केवल किसी एक क्षेत्र पर कर लगाना पर्याप्त नहीं। आवश्यकता एक सर्वसमावेशी और वैज्ञानिक पद्धति से तैयार प्रदूषण कर की है, जो प्रदूषण को कम करने और स्वच्छ विकल्पों को बढ़ावा देने में सहायक हो।

प्रदूषण कर का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह प्रदूषण को महँगा बनाता है और स्वच्छता को सस्ता। जब किसी उद्योग को प्रति इकाई उत्सर्जन पर कर देना पड़ेगा, तो वह स्वाभाविक रूप से ऐसी तकनीक अपनाने की ओर अग्रसर होगा जो कम प्रदूषण करे। यूरोप जैसे क्षेत्रों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है जहाँ कार्बन-आधारित दंड के बाद ऊर्जा-संरक्षण और हरित तकनीक का उपयोग अत्यधिक बढ़ा। भारत में भी यह परिवर्तन संभव है, बशर्ते नीति दीर्घकालिक, पारदर्शी और लक्ष्य-उन्मुख हो।

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि भारत को आने वाले वर्षों में पर्यावरण-रक्षा और स्वच्छ ऊर्जा पर बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता होगी। नदियों की सफाई, स्वच्छ परिवहन व्यवस्था, नवीकरणीय ऊर्जा, प्रदूषण नियंत्रण उपकरण, ठोस कचरे के वैज्ञानिक प्रबंधन तथा हरित भवनों के विकास पर अत्यधिक वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होगी। ऐसे में प्रदूषण कर एक स्थायी और अनुमानित राजस्व स्रोत बन सकता है, जिसे एक स्वतंत्र “हरित निधि” के माध्यम से केवल पर्यावरण संरक्षण पर व्यय किया जा सकता है।

वैश्विक स्तर पर भी प्रदूषण कर का महत्व बढ़ रहा है। कई विकसित देश अब उन आयातित वस्तुओं पर अतिरिक्त शुल्क लगा रहे हैं जो अधिक प्रदूषणकारी स्रोतों से बनती हैं। यदि भारत घरेलू स्तर पर प्रदूषण पर उचित कर लागू करता है, तो भारतीय निर्यातकों को विदेशी बाज़ारों में अतिरिक्त शुल्क से राहत मिल सकती है। इस प्रकार प्रदूषण कर केवल पर्यावरण-हित में नहीं, बल्कि भारत की निर्यात प्रतिस्पर्धा की रक्षा में भी सहायक सिद्ध हो सकता है।

परंतु इन सबके बीच सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या प्रदूषण कर गरीबों पर भारी पड़ सकता है? यह चिंता बिल्कुल वास्तविक है। यदि ईंधन और बिजली की लागत बढ़ेगी, तो उसके साथ ही परिवहन, खाद्य पदार्थ और आवश्यक वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ सकती हैं। इसका सीधा प्रभाव निम्न-आय वर्ग पर पड़ता है, जिनके पास विकल्प सीमित होते हैं। इसलिए प्रदूषण कर को न्यायपूर्ण बनाने के लिए यह अनिवार्य होगा कि निम्न-आय वाले परिवारों को प्रत्यक्ष नकद सहायता, ऊर्जा सब्सिडी और रसोई गैस जैसी आवश्यकताओं पर राहत दी जाए।

उद्योग जगत की चिंताएँ भी कम नहीं। विशेषकर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग ऊर्जा-प्रधान होते हैं और किसी भी अतिरिक्त कर का प्रभाव उनकी लागत पर पड़ता है। अतः प्रदूषण कर को चरणबद्ध ढंग से लागू करना होगा—पहले बड़े उद्योगों पर, फिर धीरे-धीरे छोटे उद्योगों को तकनीकी और वित्तीय सहायता के साथ इस दायरे में लाना होगा। हरित मशीनरी पर अनुदान, ब्याज रहित ऋण, और तकनीकी उन्नयन के लिए मार्गदर्शन इस परिवर्तन को सुगम बना सकते हैं।

भारत की प्रशासनिक क्षमता भी एक महत्वपूर्ण कारक है। प्रदूषण का सटीक मापन, डेटा की विश्वसनीयता और निगरानी तंत्र की पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक होगी। छोटे उद्योगों और गैर-प्रमाणित स्रोतों की निगरानी आज भी चुनौतीपूर्ण है। यदि उत्सर्जन मापन ही विश्वसनीय न हो, तो कर प्रणाली पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए भारत को आधुनिक सेंसर-तकनीक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित निगरानी, डिजिटल उत्सर्जन-पंजीकरण तथा रियल-टाइम निगरानी प्रणाली को मजबूत करना होगा।

इसके अतिरिक्त, प्रदूषण कर की सफलता इस बात पर भी निर्भर करेगी कि सरकार इसके राजस्व का उपयोग कहाँ करती है। यदि यह धन सामान्य बजट में विलीन हो गया, तो जनता में अविश्वास बढ़ेगा और नीति का उद्देश्य कमजोर पड़ेगा। इसके लिए एक स्वतंत्र “हरित कोष” का गठन आवश्यक है, जो केवल प्रदूषण नियंत्रण, स्वच्छ ऊर्जा, हरित परिवहन और पर्यावरण संरक्षण के कार्यों पर व्यय हो तथा जिसकी वार्षिक लेखा-परीक्षा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो।

राजनीतिक दृष्टि से यह एक साहसिक कदम होगा। किसी भी प्रकार की मूल्य-वृद्धि जनता के बीच असंतोष उत्पन्न कर सकती है। परंतु यह भी सत्य है कि पर्यावरणीय संकट अब इतना गंभीर हो चुका है कि उससे निपटने के लिए कठोर, दीर्घकालिक और दूरदर्शी आर्थिक सुधार आवश्यक हैं। भारत की युवा पीढ़ी सुरक्षित जल, स्वच्छ वायु और स्वस्थ जीवन की मांग कर रही है। इस मांग को नज़रअंदाज़ करना अब संभव नहीं।

अंततः यह कहा जा सकता है कि प्रदूषण कर भारत के लिए केवल राजस्व-संग्रह का साधन नहीं, बल्कि एक व्यापक हरित परिवर्तन की दिशा में आवश्यक कदम है। इसे न्यायपूर्ण, पारदर्शी, चरणबद्ध और वैज्ञानिक आधार पर लागू करने से भारत न केवल प्रदूषण कम कर पाएगा, बल्कि अपने विकास मॉडल को भी टिकाऊ, स्वस्थ और पर्यावरण-सम्मत बना सकेगा।

यदि इसे सही नीतिगत ढंग से लागू किया गया, तो यह भारत के इतिहास में वह मोड़ साबित हो सकता है जहाँ देश ने आर्थिक विकास और पर्यावरणीय संरक्षण को एक-दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि सहयोगी सिद्ध किया।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

24 नवंबर को शाम से ही रामलला के दर्शन बंद रहेंगे

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राम मंदिर के शिखर पर ध्वजारोहण कार्यक्रम के कारण 24 नवंबर को शाम से ही श्रद्धालुओं के लिए रामलला के दर्शन बंद कर दिए जाएंगे. ये ध्वजारोहण कार्यक्रम 25 नवंबर को होगा. इस दिन राम मंदिर के मुख्य शिखर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ध्वजारोहण करेंगे.

राम मंदिर के शिखर पर ध्वजारोहण कार्यक्रम के कारण 24 नवंबर को शाम से ही श्रद्धालुओं के लिए रामलला के दर्शन बंद कर दिए जाएंगे. इसके बाद 26 नवंबर से दोबारा अपने निर्धारित समय से सुबह सात बजे से श्रद्दालु अपने रामलला के दर्शन कर सकेंगे. ये जानकारी श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय की ओर से दी गई है

स्वच्छता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का एक वैश्विक प्रयास

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विश्व शौचालय दिवस

 बाल मुकुन्द ओझा

विश्व शौचालय दिवस हर साल 19 नवंबर को मनाया जाता है। यह महत्वपूर्ण दिवस केवल एक जन जाग्रति का अभियान या मिशन नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में स्वच्छता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का एक वैश्विक प्रयास है। शौचालय मानव की पहली और बुनियादी जरुरत है। यह नागरिकों के मूलभूत अधिकारों से जुड़ी सर्वोच्च आवश्यकता है। मगर आज भी लाखों करोड़ों लोगों के पास यह सुविधा सुलभ नहीं होने से वे खुले में शौच को मज़बूर है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की 3.6 अरब से अधिक आबादी के पास अभी भी सुरक्षित स्वच्छता की सुविधा नहीं है। जबकि 673 मिलियन लोग खुले में शौच करते हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सिंगापुर द्वारा प्रस्ताव पेश करने के बाद साल 2013 में  विश्व शौचालय दिवस को संयुक्त राष्ट्र दिवस घोषित किया था। इससे पहले 2001 में सिंगापुर की एनजीओ ‘वर्ल्ड टॉयलेट ऑर्गनाइजेशन’ द्वारा अनौपचारिक रूप से विश्व शौचालय दिवस की स्थापना की गई थी। इस दिवस को मनाने के पीछे यही उद्देश्य और संदेश है कि विश्व के तमाम लोगों को 2030 तक शौचालय की सुविधा मुहैया करा दी जाए। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र के 6 सतत विकास लक्ष्यों में से एक यह भी है। इस दिवस की 2024 की थीम स्वच्छता और जल प्रबंधन है, जो यह दर्शाती है कि स्वच्छ शौचालय जल सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं।

भारत की बात करें तो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता संभालते ही महिलाओं का दुःख दर्द समझा और बड़े पैमाने पर शौचालयों का निर्माण कर महिलाओं और लड़कियों की गरिमा की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया। मोदी ने 2014 में स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से उन महिलाओं की दुर्दशा के बारे में बात की थी, जिन्हें घर में शौचालय नहीं होने के कारण भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। शौचालय नहीं होने के कारण महिलाओं के साथ हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाएं हुई क्योंकि वो खुले में शौच करने को मजबूर हैं। इससे एक महत्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत हुई। इसका  मुख्य उद्देश्य खुले में शौचमुक्त करना, गंदे शौचालयों को ठीक करना, हाथ से मैला ढोने प्रथा खत्म करना, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन को बढ़ावा देना और स्वच्छता के संबंध में लोगों के व्यवहार परिवर्तन की दिशा में कार्रवाई करना।

भारत का स्वच्छता कवरेज 2014 में 39 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 100 प्रतिशत हो गया- जो अपने आप में एक उल्लेखनीय और ऐतिहासिक  उपलब्धि है। इसलिए, स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण की सफलता को कई तरीकों से मापा जा सकता है। सरकार का उद्देश्य अब गांवों को ओडीएफ प्लस बनाने का है और इसके लिए ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली की भी जरूरत है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक दस साल पहले तक भारत की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी शौचालयों की कमी के कारण खुले में शौच करने के लिए मजबूर थी। वर्तमान में  देश में 12 करोड़ से अधिक शौचालय बनाए गए और शौचालय कवरेज का दायरा पहले के 40 प्रतिशत से बढ़कर 100 प्रतिशत हो गया। यह भारत की ऐतिहासिक उपलब्धि है।

मोदी ने देशवासियों से स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेने और मन की बात के माध्यम से स्वच्छ भारत मिशन को लागू करने में मदद करने के लिए कहा, तो देश के सभी हिस्सों के लोगों ने उनके आह्वान का जवाब दिया और बड़ी संख्या में भाग लिया। स्वच्छ भारत मिशन से हर साल 60 से 70 हजार बच्चों की जान बच रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2014 से 2019 के बीच 3 लाख लोगों की जान बचाई गई, जो डायरिया के कारण गवां दी जाती। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में बताया कि घर में शौचालय बनने से अब 90 प्रतिशत से अधिक महिलाएं सुरक्षित महसूस करती हैं और स्वच्छ भारत मिशन के कारण महिलाओं में संक्रमण से होने वाली बीमारियों में भी काफी कमी आई है। इसी भांति लाखों स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय बनने से, स्कूल छोड़ने की दर में कमी आई है। यूनिसेफ के एक अन्य अध्ययन में बताया कि स्वच्छता के कारण गांवों में परिवारों को हर साल औसतन 50 हजार रुपये की बचत हो रही है, जो पहले बीमारियों के इलाज पर खर्च हो जाते थे।

– बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

D 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

सीएम होकर भी अब उछल−कूद नही कर सकेंगे नीतीश कुमार

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अशोक मधुप

वरिष्ठ पत्रकार

प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी का ये कथन  इस बार के बिहार के जनादेश पर सही उतरता है कि बिहार दुनिया को राजनीति सिखाता है। इस जनादेश ने जहां विपक्षी दलों को उनकी औकात बता दी,वहीं नीतीश कुमार को भी  बता दिया कि अगले पांच साल भाजपा के बिना गुजारा नही है। मुख्यमंत्री बने रहना है तो भाजपा को साथ लेकर चलना होगा। उसे नजर अंदाज कर मुख्यमंत्री नही रह सकते। इस बार आप  पाला नही बदल पाओगे।  भाजपा के दबाव में काम करना होगा।

बिहार में नई सरकार गठन को लेकर तस्वीर अब काफी हद तक साफ होती दिख रही है। एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार की ही ताजपोशी होगी, जबकि बीजेपी को दो डिप्टी सीएम दिए जाने की चर्चा तेज है।

इस बार भाजपा न सिर्फ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, बल्कि जेडीयू के बगैर भी वह एनडीए के अन्य सहयोगियों के साथ जादुई आंकड़े को पार कर गई । ऐसे में नीतीश कुमार के लिए भाजपा के साथ किसी तरह का बिहार में बार्गेनिंग करना अब सरल नहीं रह गया है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से यह बार-बार दोहराया गया है कि चुनाव के बाद भी परिणाम चाहे जो भी आएं, गठबंधन के चेहरे नीतीश कुमार ही बने रहेंगे। जेडीयू की ओर से भी यह बात दोहराई गई है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। वैसे ये तय है कि ज्यादा सीट मिलने   के कारण नीतीश कुमार के मंत्री मंडल में भी भाजपा के मंत्रियों की संख्या भारी होगी।

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की ऐतिहासिक जीत ने एक बार फिर बता दिया कि ये चमत्कार  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व, गृहमंत्री अमित शाह की चुनावी रणनीति की देन है। एनडीए की जीत के पीछे उनके 10 प्रमुख वादे पंचामृत गारंटी, रोजगार सृजन, ,महिलाओं के लिए योजनाएं, मुफ्त शिक्षा, कृषि सुधार तथा बुनियादी ढांचे का विकास आदि शामिल है। इस बार के चुनाव की विशेषता यह भी है कि  बिहार की 243 सीट में एनडीए गठबंधन को 202 ,महांगठबंधन को 35, एआईएमआईएम को पांच और अन्य को एक सीट मिली। भाजपा को 89 सीट मिली और वह प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। नीतीश कुमार की जदयू को 85 सीट मिली।  1951 के बाद बिहार में इस बार सबसे ज्यादा  67.13 प्रतिशत मतदान हुआ। ये मतदान  पिछले विधानसभा चुनाव से 9.6 प्रतिशत ज्यादा है। इस बार के मतदान में पुरुषों की हिस्सेदारी 62.98 प्रतिशत रही और महिलाओं की 71.78 प्रतिशत। पुरुषों की तुलना में महिलाओं का मतदान 8.15 प्रतिशत ज्यादा रहा । ऐसा लगता   है कि एनडीए ने एकतरफा बिहार की महिलाओं का विश्वास जीता  है। महागठबंधन की करारी हार बताती है कि चुनावी रैलियों में भीड़ जरूर इकट्ठी हुई, भाषणों में तीखे हमले भी हुए, लेकिन विपक्ष जनता का विश्वास नही जीत सका। इन चुनावों की  बड़ी देन  चिराग पासवान का उभार रहा। उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे  भविष्य के निर्णायक खिलाड़ी हैं। सीटों पर उनकी मजबूत पकड़ ने यह बता दिया कि वे आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति को नए सिरे से लिखेंगे।

इस बार के चुनाव में पहली बार जन सुराज पार्टी ‘ नामक एक नया राजनैतिक दल ने भी बिहार की राजनीति में अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराने के लिए सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए।बड़ी बात यह है कि इस पार्टी के लगभग सभी उम्मीदवार शिक्षित,बुद्धिजीवी,पूर्व नौकर शाह,पूर्व आई ए एस,आई पी एस,वैज्ञानिक,गणितज्ञ तथा शिक्षाविद हैं, किंतु किसी को विजय  नही मिली। जन सुराज पार्टी ‘ के संस्थापक व अकेले रणनीतिकार व स्टार प्रचारक वही प्रशांत किशोर हैं, जो नरेंद्र मोदी व भाजपा से लेकर देश के अधिकांश राजनैतिक दलों व नेताओं के लिये एक पेशेवर के रूप में चुनावी रणनीति तैयार करने के बारे में जाने जाते हैं। पार्टी की बुरी हार ने यह साबित कर दिया कि उनके दावों में कोई दम नही था।

इस बार ऐतिहासिक जीत के बाद बिहार की जनता को एनडीए से अपेक्षाएं भी बहुत हैं। देखना है कि एनडीए  सरकार उनकी अपेक्षाओं पर कैसे खरी उतरती है। एनडीए को सुशासन लाने, रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए काम करने के साथ साथ राज्य में ऐसी भी व्यवस्था करनी होगी कि बिहार में तस्करी से शराब न आ सके। शराब बंदी पूरी तरह और सख्ती से लागू हो। कुल मिलाकर बिहार की जनता ने जो भारी मतदान किया वह जंगलराज, परिवारवाद तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ है। मतदान सुशासन, स्त्री सुरक्षा और पलायन रोकने के पक्ष में है। विपक्ष ने बिहार के जेन- जी को भड़काने का प्रयास किया लेकिन उसने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताया। बिहार के चुनाव परिणाम साधारण  नहीं है। इनका परिणाम भारत के भविष्य के निर्माण की दिशा तय करने वाला है।इस चुनावी जनादेश को जनविश्वास की कसौटी से देखना होगा। विश्लेषकों द्वारा बिहार विधानसभा 2025 चुनाव में  राजग की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी तथापि महागठबंधन की इतनी करारी हार की आशंका किसी को नहीं थी,  राजग और महागठबंधन  के नेताओं को भी नहीं। इन परिणामों ने सभी को चौंकाया है। राजग की अप्रत्याशित जीत, भाजपा नीत मोदी सरकार तथा बिहार में नीतीश सरकार पर जनता के भरोसे की जीत है। बीस वर्ष बाद भी लालू के शासनकाल का जंगलराज जनता भूल नहीं पाई है । बिहार की जनता ने जातिवाद, परिवारवाद, मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीतिक को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। गरीब, महिला, किसान और युवा मतदाता का नया समीकरण स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

बिहार के 2025 विधानसभा चुनाव न केवल एक राजनीतिक जीत है बल्कि लोकतांत्रिक पुनर्पुष्टि का संकेत हैं। एनडीए की जीत स्पष्ट और व्यापक है, जो महिलाओं, जातिगत गठजोड़, संगठनात्मक मजबूती और मजबूत कल्याण नीतियों के मिश्रण से संभव हुई। वहीं, विपक्ष को यह सोचना होगा कि उसका जनसंवाद आखिर कहाँ चूक गया और भविष्य में उसे कैसे समायोजित किया जाए। यह परिणाम बिहार की राजनीति के अगले अध्याय की शुरुआत हो सकती है — लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र अब और अधिक सक्रिय, उत्तरदायी और बहुआयामी होता जा रहा है। भविष्य में न सिर्फ पार्टियों की राजनीतिक रणनीतियाँ, बल्कि उनके विकास मॉडल और सामाजिक संकल्प भी इस मतदाता-जनादेश द्वारा परख की जाएँगी।

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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समाज को बदलने की शुरुआत: बच्चों को नई दृष्टि देने का संकल्प

“समाज बदलने की पहली शर्त यही है कि हम अपने बच्चों को दुनिया को देखने की नई दृष्टि दें—

दृष्टि जो केवल देखना न सिखाए, बल्कि समझना, परखना और सुधारना भी सिखाए।”

– डॉ प्रियंका सौरभ

समाज परिवर्तन की सबसे कठिन, सबसे लंबी और सबसे महत्त्वपूर्ण यात्रा हमेशा अपने मूल में उन छोटे-छोटे बीजों से शुरू होती है, जिन्हें हम बच्चे कहते हैं। दुनिया की कोई भी क्रांति—विचारों की हो, नैतिकता की हो, तकनीक की हो या इंसानी मूल्यों की—तब तक स्थायी नहीं हो सकती जब तक वह अगली पीढ़ियों के जीवन-दर्शन में अपनी जड़ें न जमा ले। यही कारण है कि बुद्ध, विवेकानंद, गांधी, टैगोर, नेल्सन मंडेला जैसे विचारकों ने मानव सभ्यता में किसी स्थायी परिवर्तन के लिए शिक्षा, संस्कार और बाल मानस की संवर्धन को सबसे महत्वपूर्ण आधार माना। आज जब समाज अनेक स्तरों पर मूल्य-संकट, हिंसा, असहिष्णुता, उपभोक्तावाद, कट्टरता और सामाजिक विघटन की चुनौतियों से गुजर रहा है, तब यह प्रश्न और भी तीखा हो उठता है—क्या हम अपने बच्चों को वह दृष्टि दे पा रहे हैं, जिसके आधार पर वे वर्तमान से बेहतर भविष्य बना सकें?

बच्चों के भीतर समाज को देखने का दृष्टिकोण केवल पाठ्यपुस्तकों से नहीं बनता, बल्कि परिवार, परिवेश, विचारों, संवाद, उदाहरणों और सबसे अधिक—व्यस्कों के व्यवहार से बनता है। बच्चा, दरअसल, समाज का सबसे संवेदनशील दर्पण होता है। जिस प्रकार की भाषा, सोच, सह-अस्तित्व, सामाजिक व्यवहार, संवेदनशीलता और दृष्टि वह अपने आस-पास देखता है, वही धीरे-धीरे उसके भीतर किसी अनलिखी किताब की तरह अंकित हो जाती है। यही कारण है कि यदि हम समाज को बदलना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार, अपने पारिवारिक वातावरण और अपने सामाजिक आचरण को बदलना होगा—क्योंकि बच्चा वही बनता है, जो वह देखता है; वही नहीं बनता, जिसे वह सुनता है।

आज के समय में बच्चों के सामने समाज को समझने के दो बड़े स्रोत मौजूद हैं—एक परिवार, दूसरा डिजिटल दुनिया। दुर्भाग्य यह है कि दोनों में से किसी में भी वह स्पष्ट और संतुलित दृष्टि नहीं मिल पाती, जिसकी उसे आवश्यकता है। परिवारों में संवाद कम हो गया है, समय घट गया है और साथ बैठने की संस्कृति लगभग लुप्त होती जा रही है। वहीं डिजिटल दुनिया बच्चों को सूचना का असीमित सागर तो देती है, परंतु विवेक और दिशा का दीपक नहीं देती। ऐसे में बच्चे जानकारी तो बहुत पा लेते हैं, परंतु समझ की कमी के कारण वह जानकारी उनके भीतर भ्रम, असुरक्षा और अव्यवस्थित दृष्टिकोण पैदा कर देती है।

इसीलिए यह आवश्यक है कि हम बच्चों को समाज को देखने के लिए एक ऐसी दृष्टि दें जो संवेदनशील हो, विवेकपूर्ण हो, वैज्ञानिक हो, नैतिक हो और सबसे अधिक—मानवतावादी हो। बच्चा यदि सीख जाए कि समाज केवल भीड़ नहीं, बल्कि व्यक्तित्वों का एक जीवंत तानाबाना है; कि हर व्यक्ति की अपनी संघर्ष-कथा है; कि हर निर्णय का कोई संदर्भ होता है; और कि सहानुभूति किसी भी सभ्यता का सबसे बड़ा आधार है—तो वह न केवल एक बेहतर नागरिक बनेगा, बल्कि समाज को भी बेहतर दिशा देगा।

समाज परिवर्तन का यह बीज तभी पनप सकता है जब हम अपने बच्चों को प्रश्न पूछना सिखाएं। भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में बच्चों को प्रश्न पूछने से अधिक उत्तर रटने की आदत डाली जाती है। जबकि सच्चा ज्ञान, सच्चा चिंतन और सच्ची प्रगति वहीं से जन्म लेती है जहाँ प्रश्नों की स्वतंत्रता होती है। यदि बच्चा अपने घर, स्कूल और समाज में यह महसूस करे कि वह निडर होकर प्रश्न कर सकता है, विचार व्यक्त कर सकता है, असहमति जता सकता है, और गलतियों से सीख सकता है—तो उसके भीतर रचनात्मकता और मौलिकता विकसित होती है। यही रचनात्मकता समाज को आगे ले जाती है।

समाज को देखने का नया दृष्टिकोण बच्चों को तभी मिलेगा जब हम उन्हें विविधता को स्वीकार करना सिखाएँ। आज के समय में विभाजन, ध्रुवीकरण और एकांगी सोच के कारण समाज के भीतर खाईयाँ बढ़ रही हैं। बच्चे स्कूलों में साथ पढ़ते हैं, खेलते-कूदते हैं, लेकिन बड़े होने पर अक्सर उन दीवारों को अपना लेते हैं जो समाज ने खड़ी की होती हैं। इसलिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि हम बच्चों को यह समझाएँ कि विविधता समाज की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी सबसे बड़ी ताकत है। यदि वह यह समझ जाए कि हर संस्कृति, हर भाषा, हर परंपरा, हर विचार और हर व्यक्ति समाज की सामूहिक पहचान का हिस्सा है—तो वह न केवल एक बेहतर नागरिक बनेगा, बल्कि वह उन दीवारों को भी तोड़ पाएगा जो नफरत और संकीर्णता खड़ी करती हैं।

समाज बदलने की इस प्रक्रिया में शिक्षा प्रणाली की भूमिका निर्णायक है। शिक्षा केवल परीक्षा पास कराने का साधन नहीं हो सकती; वह बच्चों को जीवन और समाज को समझने की कला भी सिखाए। उन्हें यह बताया जाए कि सफलता केवल अंकों से नहीं, बल्कि इंसानियत, सत्यनिष्ठा, सहयोग, साहस और संवेदनशीलता से भी मापी जाती है। यह भी समझाया जाए कि समाज केवल लिए जाने की चीज़ नहीं, बल्कि कुछ देने की जिम्मेदारी भी है। जब बच्चा अपने जीवन में ‘कर्तव्य’ का भाव समझता है, तभी वह समाज के लिए कुछ करने का संकल्प लेता है।

बच्चों को नई दृष्टि देने के लिए पहला कदम है—उन्हें सही आदर्श देना। आदर्श का मतलब सिर्फ बड़े-बड़े व्यक्तित्व नहीं, बल्कि रोजमर्रा के जीवन में ऐसे छोटे-छोटे उदाहरण भी हैं, जो उनके व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालते हैं। जैसे—किसी भूखे को भोजन देना, किसी बुज़ुर्ग की सहायता करना, प्रकृति की रक्षा करना, सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता रखना, सत्य बोलना, स्त्री-पुरुष समानता मानना, जाति-भेद समाप्त करना और कानून का सम्मान करना। जब बच्चा यह सब अपने घर और समाज में जीवन्त रूप में देखता है, तब उसमें भी वैसा ही चरित्र-विकास होता है।

बच्चों में यह दृष्टि विकसित करने के लिए सबसे आवश्यक है—उन्हें स्वयं सोचने देना, स्वयं अनुभव करने देना, स्वयं सीखने देना। बच्चों पर अपनी सोच थोप देना समाज परिवर्तन का मार्ग नहीं, बल्कि समाज को जड़ता में बाध्य करने का तरीका है। यदि बच्चा स्वयं यह अनुभव करे कि समाज में समस्याएँ हैं और उन्हें बदलना संभव है, तो उसके भीतर यथार्थ की समझ और परिवर्तन का साहस जन्म लेता है।

बच्चों को नया दृष्टिकोण देना मतलब यह नहीं कि हम उन्हें आदर्शवादी कल्पनाओं में जीने दें। बल्कि उन्हें यह समझाना है कि समाज जटिल है, समस्याएँ वास्तविक हैं, लेकिन समाधान भी संभव हैं। उन्हें चुनौतियों को स्वीकार करना सिखाना है। उन्हें यह बताना है कि प्रगति के रास्ते संघर्ष से होकर गुजरते हैं, और यह कि उनके छोटे-छोटे प्रयास भी बड़े परिवर्तन का कारण बन सकते हैं।

यदि हम आने वाली पीढ़ियों को यह समझा पाएं कि समाज कोई बाहरी व्यवस्था नहीं, बल्कि ‘हम सभी’ की सामूहिक चेतना है—तो समाज को बदलने की यह यात्रा सशक्त और सफल हो सकती है। बच्चे वही समाज बनाएँगे, जो हम आज उनके भीतर बोएँगे। आज यदि हम उनके भीतर सत्य, न्याय, संवेदना, समानता, विज्ञान, विवेक और मानवीय मूल्यों के बीज बोते हैं, तो कल वे उसी समाज की फसल काटेंगे।

अंततः बात फिर उसी सिद्धांत पर आकर खड़ी होती है—समाज को बदलने के लिए सर्वप्रथम हमें अपने बच्चों को समाज को देखने का नया दृष्टिकोण प्रदान करना होगा। यह दृष्टिकोण न केवल उनके भविष्य को उजाला देगा, बल्कि हमारे समाज की सामूहिक चेतना को भी नए क्षितिजों तक ले जाएगा। क्योंकि बच्चा केवल परिवार की आशा या राष्ट्र का भविष्य ही नहीं होता—वह वह दीपक है, जिसकी रोशनी से आने वाले समय का मार्ग प्रकाशित होता है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

हिट हो गई मोदी और शाह की जोड़ी

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                                                                                                                                    बाल मुकुन्द ओझा

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए को मिली प्रचंड जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी को दिया जा रहा है। यह कहने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि मोदी और अमित शाह ने मिलकर जीत की पटकथा तैयार की। बिहार चुनाव जीतकर मोदी और शाह की जोड़ी ने भारतीय राजनीति को दिशा और दृष्टि दी। बिहार चुनाव में हिट हो गई मोदी नीतीश की जोड़ी। यह जोड़ी भाजपा की रणनीति से लेकर सफलता का आधार रही है। मोदी के निर्देशन में अमित शाह ने बिहार जीतने के लिए माइक्रो-प्लानिंग पर बहुत ध्यान दिया। उन्होंने बूथ और ब्लॉक स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ सीधी बैठकें कीं। उनकी पारखी नज़रों ने बिहार को पहचानने में देर नहीं की। उन्होंने स्पष्ट किया कि किस बूथ पर किस दल का प्रभाव है और कार्यकर्ताओं को किस तरह गठबंधन साथी के उम्मीदवार के लिए काम करना है। इस जमीनी रणनीति ने गठबंधन के वोटों को एक साथ लाने में निर्णायक भूमिका निभाई और सीटें बढ़ाने में मदद की। शाह की रणनीति के आगे विपक्ष चारो खाने चित हो गया। अमित शाह भाजपा के चाणक्य है। उनके नेतृत्व में भाजपा जीत के रिकॉर्ड कायम कर रही है। बिहार के बाद अब मोदी और शाह की जोड़ी की अग्नि परीक्षा अगले साल बंगाल विधान सभा के चुनाव में होंगी। मोदी ने घोषणा कर दी है कि बिहार के जनादेश ने अब बंगाल में भाजपा की जीत का रास्ता खोला है और पार्टी वहां भी जंगल राज खत्म करेगी। यदि इस परीक्षा में यह जोड़ी सफल हो जाती है तो 2027 में यूपी चुनाव में जीतना आसान हो जायेगा।

जनसंघ और भाजपा में अटल आडवाणी की जोड़ी कई दशकों तक छाई रही। पार्टी के सभी फैसले यह जोड़ी ही लेती थी। पार्टी के पोस्टर, बैनर और लगभग सभी स्थानों पर इन दोनों के चित्र ही लगे रहते थे। अटलजी के बीमार होने और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल आडवाणी जोड़ी का स्थान नरेंद्र मोदी अमित शाह की जोड़ी ने ले लिया। अमित शाह आज देश के गृह मंत्री है। शाह फर्श से अर्श तक पहुँचने वाले एक साधारण कार्यकर्त्ता से शक्तिशाली पद पर प्रतिष्ठित हुए है। एक राज्य स्तर के नेता का धूमकेतु की तरह इतनी जल्दी राष्ट्रीय स्तर पर छा जाना कोई कम महत्त्व नहीं है। शाह की सांगठनिक क्षमता और भाषण शैली भी गजब की है। उन्होंने अपने तार्किक और प्रभावशाली भाषण से श्रोताओं के साथ दूसरे नेताओं को भी प्रभावित किया है। उनकी इस क्षमता से प्रभावित होकर ही आर एस एस ने पहले भाजपा मुखिया फिर गृह मंत्री बनाने की मोदी की गुहार को अपनी स्वीकृति दी थी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के जानकर लोगों का कहना है कि वाजपेयी और आडवाणी की ही तरह उन्होंने नरेंद्र मोदी को राजनीति के राष्ट्रीय फलक पर लाने में भरपूर मदद की। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, मोदी और शाह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वो दशकों से एक साथ रहे हैं। वो एक जैसा सोचते हैं और एक विश्वस्त टीम की तरह काम करते हैं। अमित शाह और नरेंद्र मोदी के जीवन में कई समानता है। दोनों ने आरएसएस की शाखाओं में जाना बचपन से शुरू कर दिया था और दोनों ने अपनी जवानी में अपने जोश और कुशलता से वरिष्ठ नेताओं को प्रभावित किया था। दोनों की संवाद शैली काफी प्रभावोत्पादक है।

2001 में मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बनाये जाते हैं। तब नरेंद्र मोदी ने अमित शाह को अपने मंत्री मंडल में शामिल किया और उन्हें 17 पोर्टफोलियो दिये गये। यहीं से दोनों की दोस्ती गाढ़ी होती गई। 2003 में नरेंद्र मोदी फिर गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो नरेंद्र मोदी ने अमित शाह को प्रदेश के गृहमंत्री सहित कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी।  2014 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया तो अमित शाह ने इस चुनाव में रणनीतिकार की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चुनाव बीजेपी के पक्ष में रहा नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गये। मोदी ने भी इस विश्वास को आगे बढ़ाते हुए अमित शाह को बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। 2019  और 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने केंद्रीय मंत्री मंडल में अमित शाह को जगह देते हुए देश का गृह मंत्री बनाकर सबसे महत्वपूर्ण पद दिया। यहीं से दोनों की मित्रता के विकास की यात्रा बढ़ती गई जो आज भी कायम है। कुछ लोगों का कहना है मोदी के बाद शाह देश की कमान संभालेंगे। इसके लिए मोदी अपनी सोची समझी रणनीति पर काम कर रहे है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

 डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर