बाल मुकुन्द ओझा
जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते है वैसे वैसे राजनीतिक पार्टियां अपने सिद्धांत और विचार त्याग कर जीत हासिल करने के लिए सभी प्रकार के जायज नाजायज हथकंडे अपनाना शुरू कर देती है। रेवड़ी संस्कृति लोकतंत्र और अर्थतंत्र का बेड़ा गर्क कर रही है। यह वही संस्कृति है, जिसे मुफ्तखोरी की राजनीति भी कहा जाता है। सच तो यह है रेवड़ी संस्कृति के कारण हमारे देश की अनेक राज्य सरकारें लगभग दीवालिया होने की कगार पर हैं। उनका बजट घाटा बढ़ता जा रहा है, लेकिन वे मुफ्तखोरी की सियासत को छोड़ने को तैयार नहीं है। क्योंकि चुनाव जो जीतना है। इस साल बिहार और अगले साल बंगाल विधान सभा के चुनाव प्रस्तावित है। चुनाव आते ही मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियों और घोषणाओं का बिगुल बज जाता है। कहा जाता हैं चुनाव जीतने के लिए सब कुछ जायज है। इस कार्य में कोई भी सियासी पार्टी पीछे नहीं रहती। इसकी शुरुआत बिहार से शुरू हो गई है। बिहार में आगामी चुनाव से पहले मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की होड़ शुरू हो गई है। बिहार पर पहले से ही 4 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज है, ऊपर से चुनावी सीजन में मुफ्त योजनाओं के लिए बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं।
बिहार में महिलाओं को साधने के लिए बड़ा धमाका किया गया है। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत प्रधानमंत्री ने 75 लाख ग्रामीण महिलाओं को पहली किस्त के तौर पर 10,000- 10,000 रुपये की राशि ट्रांसफर की। योजना के तहत आगे चलकर प्रत्येक महिला को कुल दो लाख तक की आर्थिक सहायता मिलेगी। इसे महिलाओं के लिए चुनावी सौगात भी कहा जा रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक हाल फिलहाल राजनीतिक पार्टियों द्वारा करीब 33 हजार करोड़ के मुफ्त के वादे किये जा चुके है। चुनाव आते आते 33 हजार करोड़ में कई गुना वृद्धि की संभावनाएं व्यक्त की जा रही है। यानि अभी तो फ्री बीज की यह शुरुआत है, पिक्चर अभी बाकी है। आरजेडी और इंडिया ब्लॉक का आरोप है कि मुख्यमंत्री ने दरअसल उन्हीं वादों की नकल की है, जिन्हें विपक्ष ने जनता से करने का दावा किया था।
मुख्यमंत्री नीतिश कुमार फ्री बीज की योजनाओं के विरुद्ध रहे है है। उन्होंने दिल्ली चुनाव के दौरान अरविन्द केजरी वाल की मुफ्त बिजली की अवधारणा को ‘गलत काम’ करार देते हुए कहा था कि यह दीर्घकालिक विकास के लिए हानिकारक है और आज वे खुद ही फ्री बीज के रास्ते पर चल निकले है। नीतीश कुमार ने 2022 में केजरीवाल की मुफ्त बिजली योजना को अव्यवहारिक और गलत बताकर तंज कसा था, आज तीन साल बाद खुद ऐसी ही फ्री बिजली योजना लागू कर अपनी सियासी रणनीति बदल ली है। उनका यह कदम न केवल उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि नीतिगत निर्णयों और सिद्धांतों की राजनीति से किनारा करने की स्थिति को भी बताता है। इसीलिए कहा जाता है हाथी के दांत दिखाने के कुछ और होते है। इससे पूर्व आरजेडी नेता तेजस्वी मुफ्तखोरी की अनेक घोषणाएं की घोषणा कर दी थी। चुनावों के दौरान सियासी पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए तरह तरह के वादे और प्रतिवादे करती है। सरकार बनने के बाद चुनावी वादे पूरा करने में पार्टियों के पसीने छुट जाते है। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था तो चौपट तक हो जाती है जिसके कारण सम्बध सरकारों को अपने कर्मचारियों के वेतन आदि चुकाने के लाले पड़ जाते है। राजनैतिक पार्टियों द्वारा मत हासिल करने के लिए राजकीय कोष से मुफ्त सुविधाएं देने का प्रकरण सियासी हलकों में गर्माने लगा है। देश की प्रबुद्ध जमात का मानना है इससे हमारे लोकतंत्र की बुनियाद हिलने लगी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस प्रकार की योजनाओं की आलोचना की थी। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान इस तरह के वादे करने का चलन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक पार्टियां आम लोगों से अधिक से अधिक वायदे करती हैं। इसमें से कुछ वादे मुफ्त में सुविधाएं या अन्य चीजें बांटने को लेकर होती हैं। यह देखा गया है कुछ सालों से देश की चुनावी राजनीति में मुफ्त बिजली—पानी, मुफ्त राशन, महिलाओं को नकद राशि, सस्ते गैस सिलेंडर आदि आदि अनेक तरह की घोषणाओं का चलन बढ़ गया है। विशेषकर चुनाव आते ही वोटर्स को लुभाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू कशमीर के चुनाव इसके ज्वलंत उदाहरण है। मुफ्त का मिल जाये तो उसका जी भर उपयोग करना। ये मुफ्त की नहीं है अपितु जनता के खून पसीनें की कमाई है जो राजनीतिक दलों और सरकारों द्वारा दी जा रही है ताकि चुनाव की बेतरणी आसानी से पार की जा सके। देश के प्रधानमंत्री रेवड़ी कल्चर का विरोध कर चुके है मगर चुनावों में उनकी पार्टी भाजपा सहित कांग्रेस और आप सहित सभी पार्टियां रेवड़ी कल्चर में डुबकियां लगा रही है।
बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर