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मन के रावण को भी मारने की जरूरत!

हमारे देश में दशहरा हर वर्ष मनाया जाता है। यह असत्य पर सत्य और अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व है। गांव-गांव और शहर-शहर मनाए जाने वाले इस त्योहार के अवसर पर लाखों-करोड़ों रावण मारे और जलाए जाते हैं। समाज में दो प्रकार के लोग पाए जाते हैं। प्रथम सत्य पर आधारित स्वच्छ, स्वस्थ और न्याय प्रिय समाज की परिकल्पना करने वाले मनुष्य हैं और द्वित्तीय असत्य की बुनियाद पर कलुषित, अस्वस्थ और अन्याय की अवधारणा पर निर्मित समाज को बढ़ावा देने वाले लोग। मानव और दानव के बीच का अंतर और संघर्ष हजारों सदियों से चला आ रहा है। पर्व कोई सा भी हो, वह हमें कुछ न कुछ सीखने, समझने और उसे अंगीकार करने का मौका मुहैया कराता है।
यूं तो, सभी धार्मिक और राष्ट्रीय पर्व खुशी पर आधारित होते हैं, लेकिन दशहरा एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसे रावण वध के तौर पर मनाया जाता है। राजा दशरथ के वचनों को पूरा करने के लिए चौदह साल के वन गमन कर रहे राम के साथ पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण भी जिद करके साथ चले जाते हैं। जंगल में भटकने वाले इस तीन सदस्यीय परिवार को अनेक प्रकार के दुखों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। रावण की बहन शूर्पणखा राम पर मोहित होकर उनसे विवाह करना चाहती थी। राम के इनकार पर उसका आकर्षण लक्ष्मण की ओर हो जाता है। बार-बार परेशान करने से क्रोधित लक्ष्मण उसकी नाक काट देता है। इससे अपमानित शूर्पणखा अपने भाई रावण को भड़काती है। बहन के अपमान का बदला लेने के लिए लंकेश छल से सीता का अपहरण कर लंका ले आता है। इस दौरान राम को हनुमान और सुग्रीव जैसे नए वानर साथियों का भरपूर सहयोग मिलता है। दोनों ओर से जंग होती है। अंत में अन्याय पर न्याय की जीत होती है। पुरुषोत्तम राम द्वारा अहंकारी रावण का वध कर सीता को सकुशल वापस ले आने पर खुशी मनाना स्वभाविक था। तब से रावण पर राम की विजय को एक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। राम और रावण में धरती आकाश का अंतर था। राम मृदु भाषी और सरल स्वभाव के आज्ञाकारी व्यक्तित्व का नाम है, जबकि रावण सख्त मिजाज़, अधर्मी और अहंकारी स्वभाव का फरेबी राक्षस था। अयोध्या के राम को दूसरे की वस्तु और साम्राज्य में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जबकि सोने की लंका में रहने वाला रावण दूसरे की चीज़, स्त्री, धन, संपत्ती और राज्यों के प्रति आकर्षित रहता था। हर साल रावण के अनगिनत पुतले जलाए जाना बुराई पर अच्छाई, झूठ पर सच और रावणत्व पर रामत्व की जीत का प्रतीक है, किंतु क्या रावण वास्तव में मर जाता है,? यदि हांॅ, तो समाज में इस कद्र बुराइयांॅ क्यों मौजूद हैं? और यदि नहीं मरता है, तो हमने रावण के पुतले में आग लगाकर किसे मारते हैं? सोचना होगा कि हम चौदह वर्ष फूस की झोंपड़ी या खुले आसमान के नीचे दिन बिताने के बावजूद कभी शिकायत नहीं करने वाले राम के अनुयायी हैं या फिर सोने के महलों में रहने वाले धन लोलुप्त, अहंकारी, हरण और अपहरण करने वाले रावण के साथ खड़े हैं? क्या आज का मानव झोंपड़ी के सुख और प्रेमत्व को त्यागकर हर समय येन केन प्रकारेण नौ के सौ करने की जुगत में नहीं लगा है? लक्ष्मण ने अपनी भाभी सीता के पैरों से ऊपर कभी नजर नहीं उठाई? लेकिन आज का मानव पवित्र रिश्तों का खून करने से तनिक भी नहीं हिचक रहा है। पतिव्रता सीता रावण के विवाह प्रस्ताव को ठुकराकर सदा रामभक्ति में लीन रही, जबकि पाश्चात्य सभ्यता की दीवानी आज की महिलाओं के कलुषित किस्से और कहानियां रोजाना प्रकाशित होने वाले अख्बारों की सुर्खियां बनती हैं।
रावण को दशानन कहा गया है। क्या हमने भी बुराइयों के प्रतीक दस सिरों के मुखौटे नहीं लगा रखे हैं? अपने लिए हमारा मुखौटा कुछ होता है और दूसरे के लिए कुछ। हम सुबह और शाम ही नहीं, दिन भर न जाने कितनी बार अपना मुखौटा तब्दील करते हैं। मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन क्रोध हमारे सिर में छिपा है। परोपकार हाशिए पर चला गया है। लालच और धन लोलुप्ता आज भी हमारा पीछा करती है। हम रोजाना स्कूलों में होने वाली प्रार्थना में छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड, झूठ, अन्याय से निशि दिन दूर रहने की ईश्वर से कामना करते हैं, लेकिन इस पर कितना अमल करते हैं? यह बताने की जरूरत नहीं है। भूख, प्यास, भय, असुरक्षा, मंहगाई, बेरोजगारी और आर्थिक अनिश्चितता के वातावरण में जी रहे लोगों की किसी को चिंता नहीं है। राम के चरित्र और रामत्व का संदेश दूसरों तक पहुंचाने के लिए अपने मन के भीतर छिपे रावण को मारे बिना हम न तो मानवता को आम कर सकते हैं और न ही मानवता की सेवा कर सकते हैं।

एमए कंवल जाफरी

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