पर्यावरण संकट : नीतियों से नहीं, नागरिक चेतना से बचेगी प्रकृति

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सरकारों की विफलता के साथ-साथ हमारी जीवन-शैली भी पर्यावरण विनाश की सबसे बड़ी ज़िम्मेदार है। 

पेड़ लगाने की बात आए तो उत्साह केवल सरकारी अभियानों और फोटो अवसरों तक सीमित रह जाता है। वृक्षारोपण दिवस पर पौधे लगाए जाते हैं और अगले दिन भुला दिए जाते हैं। संरक्षण की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता। यही कारण है कि आँकड़ों में लाखों पौधे लगते हैं, पर धरातल पर जंगल घटते जाते हैं। एक पुरानी कहावत है—मनुष्य जीवन भर नौ मन लकड़ी लेकर जाता है, तो कम से कम अपने पीछे नौ मन पेड़ छोड़ जाना चाहिए। यह कहावत आज के समय में कहीं अधिक प्रासंगिक है। हम अपने जीवन में जितने संसाधन उपभोग करते हैं, क्या उनके बराबर कुछ लौटाने का प्रयास करते हैं?

— डॉ. प्रियंका सौरभ

पर्यावरण संरक्षण की बहस अक्सर एक सुविधाजनक दिशा में मोड़ दी जाती है—सरकारें नीतियाँ नहीं बनातीं, मंत्रालय निष्क्रिय हैं, क़ानून काग़ज़ों तक सीमित हैं। यह आलोचना पूरी तरह ग़लत नहीं है। केंद्रीय और राज्य स्तर पर पर्यावरण मंत्रालयों का रिकॉर्ड देखें तो विकास परियोजनाओं के सामने प्रकृति अक्सर सबसे पहले बलि चढ़ती दिखती है। जंगलों की कटाई, नदियों का प्रदूषण, ज़हरीली हवा और भूजल का संकट—इन सबके लिए नीतिगत विफलता ज़िम्मेदार है। पर यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि पर्यावरण संकट की जड़ें हमारी अपनी जीवन-शैली में गहरी धँसी हुई हैं।

हमने पर्यावरण को सरकार का विषय मान लिया है, जैसे वह नागरिक जीवन से अलग कोई विभागीय फाइल हो। यह मानसिकता ही सबसे बड़ा संकट है। हवा, पानी, मिट्टी और जंगल किसी मंत्रालय की संपत्ति नहीं, बल्कि सामूहिक उत्तरदायित्व हैं। जब नागरिक स्वयं को इस उत्तरदायित्व से अलग कर लेता है, तब कोई भी नीति प्रभावी नहीं रह जाती।

आज प्रदूषण का बड़ा हिस्सा किसी कारख़ाने से नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के घरेलू व्यवहार से पैदा हो रहा है—अत्यधिक निजी वाहन, बेहिसाब प्लास्टिक, अनियंत्रित कचरा, पानी और बिजली की फिजूलखर्ची। हम सुविधाओं को अधिकार मानते हैं और उनके दुष्परिणामों को व्यवस्था की समस्या। यही सोच पर्यावरण को धीरे-धीरे बर्बादी की ओर धकेल रही है।

भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण संरक्षण को अक्सर विकास विरोधी बताकर खारिज कर दिया जाता है। यह एक कृत्रिम और भ्रामक बहस है। सच्चाई यह है कि प्रकृति का विनाश स्वयं विकास के ख़िलाफ़ है। बाढ़, सूखा, गर्मी की चरम लहरें, जल संकट और बीमारियाँ—ये सब उसी “विकास” की देन हैं, जो प्रकृति के संतुलन को नज़रअंदाज़ करता है।

लेकिन इस बहस में भी नागरिक की भूमिका गौण बना दी जाती है। हम यह नहीं पूछते कि हमारे विकास के मॉडल में हमारी व्यक्तिगत आदतें कितनी ज़िम्मेदार हैं। क्या हर छोटी दूरी के लिए कार निकालना ज़रूरी है? क्या हर शादी, समारोह और त्योहार में अनावश्यक दिखावा आवश्यक है? क्या एकल-उपयोग प्लास्टिक के बिना जीवन असंभव है? इन सवालों से हम बचते हैं, क्योंकि इनके जवाब हमें असहज करते हैं।

पर्यावरण संरक्षण केवल क़ानूनों और नियमों से संभव नहीं। यह नागरिक चरित्र और सामाजिक संस्कार का प्रश्न है। जिन देशों में पर्यावरणीय अनुशासन दिखाई देता है, वहाँ केवल सख़्त क़ानून नहीं, बल्कि नागरिकों की आदतें भी अनुशासित हैं। भारत में समस्या यह है कि हम अधिकारों को लेकर अत्यंत सजग हैं, पर कर्तव्यों को लेकर लगभग उदासीन।

हम अपने घर के बाहर गंदगी फैलाने में संकोच नहीं करते, पर स्वच्छता की अपेक्षा सरकार से करते हैं। हम नदियों को पूजा के नाम पर प्रदूषित करते हैं, फिर उनकी सफ़ाई के लिए आंदोलन करते हैं। यह विरोधाभास हमारी सामाजिक मानसिकता को उजागर करता है।

पेड़ लगाने की बात आए तो उत्साह केवल सरकारी अभियानों और फोटो अवसरों तक सीमित रह जाता है। वृक्षारोपण दिवस पर पौधे लगाए जाते हैं और अगले दिन भुला दिए जाते हैं। संरक्षण की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता। यही कारण है कि आँकड़ों में लाखों पौधे लगते हैं, पर धरातल पर जंगल घटते जाते हैं।

एक पुरानी कहावत है—मनुष्य जीवन भर नौ मन लकड़ी लेकर जाता है, तो कम से कम अपने पीछे नौ मन पेड़ छोड़ जाना चाहिए। यह कहावत आज के समय में कहीं अधिक प्रासंगिक है। हम अपने जीवन में जितने संसाधन उपभोग करते हैं, क्या उनके बराबर कुछ लौटाने का प्रयास करते हैं?

आज पेड़ लगाना कोई महान कार्य नहीं रहा, बल्कि एक न्यूनतम नैतिक दायित्व बन चुका है। इसके बावजूद हम इसे टालते हैं। जगह, समय, पानी और देखभाल—हर चीज़ का बहाना हमारे पास है। सच्चाई यह है कि हमने सुविधा को प्राथमिकता और ज़िम्मेदारी को बोझ मान लिया है।

पेड़ न लगाना केवल पर्यावरणीय लापरवाही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के जीवन के साथ अन्याय है। यह एक ऐसा अपराध है, जिसकी सज़ा हमारे बच्चे चुकाएँगे—गंदी हवा, जहरीला पानी और असुरक्षित भविष्य के रूप में।

यह कहना भी सही नहीं होगा कि सरकारों की कोई भूमिका नहीं है। पर्यावरणीय क़ानूनों का सख़्ती से पालन, परियोजनाओं का ईमानदार पर्यावरणीय आकलन, प्रदूषकों पर कठोर दंड और स्थानीय निकायों को सशक्त करना—ये सब अनिवार्य हैं। पर इतिहास गवाह है कि जब समाज निष्क्रिय हो, तब सबसे अच्छे क़ानून भी निष्प्रभावी हो जाते हैं।

स्वच्छ भारत अभियान इसका उदाहरण है। जहाँ नागरिकों ने भागीदारी दिखाई, वहाँ परिणाम दिखे। जहाँ इसे केवल सरकारी योजना समझा गया, वहाँ स्थिति जस की तस रही। पर्यावरण संरक्षण भी इसी सिद्धांत पर काम करेगा।

पर्यावरण संकट का समाधान किसी एक बड़े निर्णय में नहीं, बल्कि लाखों छोटे नागरिक निर्णयों में छिपा है। घर-घर कचरा पृथक्करण, वर्षा जल संचयन, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग, ऊर्जा-सक्षम उपकरण, स्थानीय स्तर पर वृक्षारोपण—ये सभी कदम साधारण हैं, पर प्रभावशाली हैं।

स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा को केवल पाठ्यक्रम तक सीमित न रखकर व्यवहार में उतारना होगा। बच्चों को प्रकृति से जोड़ना होगा, ताकि वे केवल जानकारी नहीं, संवेदना भी विकसित करें। मीडिया और सामाजिक संगठनों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। पर्यावरण को केवल आपदा या दिवस के रूप में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की चिंता के रूप में प्रस्तुत करना होगा।

अंततः पर्यावरण संकट का सबसे ईमानदार उत्तर हमें स्वयं से पूछना होगा—हम प्रकृति को क्या दे रहे हैं? जब तक यह प्रश्न हर नागरिक के मन में नहीं उठेगा, तब तक नीतियाँ आती-जाती रहेंगी और प्रकृति चुपचाप नष्ट होती रहेगी।

प्रकृति किसी मंत्रालय की जिम्मेदारी नहीं, यह हमारे सामूहिक चरित्र की परीक्षा है। और इस परीक्षा में अब तक हम असफल ही रहे हैं। अब भी समय है—यदि हम सच में विकास चाहते हैं, तो उसे प्रकृति के साथ सामंजस्य में गढ़ना होगा, वरना आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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