
भाजपा के वैचारिक मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत
बाल मुकुन्द ओझा
आज एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 109 वीं जन्म जयंती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के नगला चंद्रभान नामक गांव में हुआ था। जनसंघ के पितृ पुरुष प. दीनदयाल उपाध्याय एक राज नेता से ज्यादा एक महा मानव के रूप में लोगों के मन मस्तिष्क में समाये हुए थे। उनके विचारों का अध्ययन करें तो पाएंगे उन्हें सियासत से नहीं अपितु आम आदमी की जिंदगी संवारने की चिंता अधिक थी। उन्होंने इसे कभी छिपाया भी नहीं। वे एक संत स्वभाव और विचारों के राज नेता थे। एकात्म मानववाद के प्रणेता और सादगी की प्रतिमूर्ति उपाध्याय जी मानवता के उत्थान के लिए राजनीति में आये थे। उनका लक्ष्य सांसद विधायक बनना नहीं था। वे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सत्यनिष्ठा और शुचिता के साथ अंतिम व्यक्ति के सर्वांगीण उत्थान के लिए संकल्पित थे। दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था लोकतंत्र केवल बहुमत का राज नहीं। उपाध्याय के मुताबिक लोकतंत्र की मुख्यधारा सहिष्णु रही है। इसके बिना चुनाव, विधायिका आदि कुछ भी नहीं है। सहिष्णुता भारतीय संस्कृति का आधार है। उपाध्याय के विचार आज भी सामयिक है। उपाध्याय के असहिष्णुता के मुद्दे पर विचारों का उनके लेखन में कई जगह जिक्र देखने को मिलता है। उन्होंने कहा था, वैदिक सभा और समितियां लोकतंत्र के आधार पर आयोजित की जाती हैं और मध्यकालिन भारत के कई राज्य पूरी तरह से लोकतांत्रिक थे। उन्होंने कहा था, ‘आपने जो कहा मैं उसे नहीं मानता, लेकिन आपके विचारों के अधिकार की मैं आखिरी वक्त तक रक्षा करूंगा।
भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक और संगठनकर्ता थे। भारतीय जनसंघ पार्टी की स्थापना साल 1951 में हुई थी। अपने राजनीतिक जीवन में वे भारतीय जनसंघ पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। सनातन विचारधारा से संबंध रखने वाले दीन दयाल सशक्त भारत का सपना देखते थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत में लोकतंत्र के उन पुरोधाओं में से एक हैं, जिन्होंने इसके उदार और भारतीय स्वरूप को गढ़ा है। वर्ष 1937 में वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े। जहां उन्होंने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार से बातचीत की और संगठन के प्रति अपनी सच्ची निष्ठा व्यक्त की।
उन्होंने भारत की उच्च स्तरीय परीक्षा “सिविल सेवा” की परीक्षा पास की, लेकिन आम जनता की सेवा के लिए दीनदयाल ने सिविल सेवा परीक्षा का परित्याग कर दिया। वर्ष 1942 में कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद दीनदयाल ने न तो कोई नौकरी की और न ही विवाह किया, बल्कि संघ की शिक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए 40 दिवसीय शिविर में भाग लेने नागपुर चले गए। 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो दीनदयाल उपाध्याय को प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया था। उन्होंने 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की। तत्पश्चात दिसंबर 1967 में, भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन कालीकट में उन्हें भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उपाध्याय प्रखर विचारक, चिंतक, अर्थ शास्त्री, लेखक, इतिहासकार और पत्रकार थे। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई। उनकी कार्यक्षमता, और सांगठनिक क्षमता से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से नहीं थकते कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं। परंतु अचानक वर्ष 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के युवा कंधों पर आ गयी। प. उपाध्याय कहते थे भारत को पूंजीवाद या साम्यवाद की नहीं अपितु मानववाद की जरूरत है। दीनदयाल उपाध्याय का ये भी कहना था कि हिंदू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति है।
देश के आम आवाम तक जनसंघ की राजनीतिक विचारधारा पहुंचाने में पंडित दीन दयाल का बहुत बड़ा योगदान रहा। यही वजह है कि बाद में भारतीय जनता पार्टी ने भी उनके विचारों को अपना लिया। दीन दयाल उपाध्याय के बारे में कहा जाता है कि वह कार्यकर्ताओं को सादा जीवन और उच्च विचार के लिए प्रेरित करते थे। खुद को लेकर अक्सर कहते थे कि दो धोती, दो कुरते और दो वक्त का भोजन ही मेरी संपूर्ण आवश्यकता है। दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रधर्म (मासिक), पांचजन्य (साप्ताहिक), स्वदेश (दैनिक) के साथ साहित्य सृजन भी किया। उनकी प्रमुख रचनाओं में सम्राट चंद्रगुप्त, जगतगुरु शंकराचार्य, भारतीय अर्थनीति-विकास की एक दिशा, राष्ट्र चिंतन राष्ट्र-जीवन की दिशा, इनटिगरल ह्यूमनिज्म प्रमुख हैं।
बाल मुकुन्द ओझा
डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर