
’पंजाब के गांधी’ के नाम से विख्यात बाबा खड़क सिंह (6 जून 1867 – 6 अक्टूबर 1963) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक महान और निडर सेनानी, सिख राजनीतिक नेता, और एक प्रमुख राष्ट्रवादी थे। उन्होंने न केवल ब्रिटिश राज के विरुद्ध लड़ाई लड़ी बल्कि सिख धार्मिक संस्थानों, विशेष रूप से गुरुद्वारों, के सुधार और प्रबंधन के लिए अकाली आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जीवन त्याग, समर्पण और अडिग राष्ट्रवाद का प्रतीक था।
बाबा खड़क सिंह का जन्म 6 जून 1867 को सियालकोट, पंजाब (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। उनके पिता, राय बहादुर सरदार हरि सिंह, एक समृद्ध ठेकेदार और उद्योगपति थे, जिससे खड़क सिंह को एक आरामदायक पृष्ठभूमि मिली। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूलों से पूरी की और फिर लाहौर विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। बाद में, उन्होंने लॉ कॉलेज, इलाहाबाद में प्रवेश लिया, लेकिन अपने पिता के निधन के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर पारिवारिक व्यवसाय और संपत्ति की देखभाल के लिए वापस लौटना पड़ा।प्रारंभिक सार्वजनिक जीवन: शिक्षा पूरी न कर पाने के बावजूद, वह जल्द ही सिख मुद्दों और व्यापक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो गए। 1915 में, उन्होंने लाहौर में आयोजित सिख शैक्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता की, जिससे उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत हुई।
बाबा खड़क सिंह का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान बहुआयामी और अद्वितीय था। उन्हें उनके साहसी रुख और ब्रिटिश सरकार के सामने न झुकने के लिए जाना जाता था। वह अपने विचारों में नरमपंथियों से अधिक चरमपंथी थे और उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सीधी कार्रवाई पर जोर दिया।
सेंट्रल सिख लीग के अध्यक्ष: वह सेंट्रल सिख लीग के अध्यक्ष बने, एक ऐसा मंच जिसके माध्यम से उन्होंने पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य में सिखों को संगठित किया और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की।
असहयोग आंदोलन में भूमिका: उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का सक्रिय रूप से समर्थन किया। इस दौरान, उन्होंने ब्रिटिश उपाधियाँ, सम्मान, और सरकारी अदालतों का बहिष्कार करने का आह्वान किया।
जेल और यातना: अपने राष्ट्रवादी कार्यों के कारण उन्हें कई बार कैद किया गया और लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा। ब्रिटिश दमन के बावजूद, उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया।
राष्ट्रीय एकता पर जोर: बाबा खड़क सिंह ने हमेशा राष्ट्रीय एकता पर बल दिया। उन्होंने मुस्लिम लीग द्वारा प्रस्तावित पाकिस्तान की मांग और सिखों के लिए एक अलग पंजाब की मांग का भी कड़ा विरोध किया, जिससे यह सिद्ध होता है कि वह अखंड भारत के प्रबल समर्थक थे।
अकाली आंदोलन और धार्मिक सुधार
बाबा खड़क सिंह का एक और महत्वपूर्ण योगदान अकाली आंदोलन में था, जिसका उद्देश्य गुरुद्वारों को भ्रष्ट और ब्रिटिश-समर्थक मंहतों (पुजारियों) के चंगुल से मुक्त कराना और उनका प्रबंधन सिख समुदाय के हाथों में सौंपना था।
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC): अकाली आंदोलन के परिणामस्वरूप शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC) का गठन हुआ, जो सिख गुरुद्वारों के प्रबंधन और नियंत्रण के लिए जिम्मेदार है।
SGPC के पहले अध्यक्ष: बाबा खड़क सिंह SGPC के वस्तुतः पहले अध्यक्ष थे। उन्होंने गुरुद्वारा सुधार के लिए अथक प्रयास किया, जिसमें स्वर्ण मंदिर (Golden Temple) की चाबियों को अंग्रेजों से वापस लेने का प्रसिद्ध संघर्ष शामिल है।
स्वर्ण मंदिर की चाबी का मोर्चा (Key Affair): 1921 में, ब्रिटिश अधिकारियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की चाबियाँ जब्त कर ली थीं। बाबा खड़क सिंह के नेतृत्व में एक शक्तिशाली और सफल आंदोलन चलाया गया। आखिरकार, ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और चाबियाँ वापस करनी पड़ीं। इस जीत को महात्मा गांधी ने “भारत की स्वतंत्रता की पहली निर्णायक लड़ाई” कहा था।
सिख गुरुद्वारा अधिनियम, 1925: अकाली आंदोलन की परिणति 1925 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम के अधिनियमन में हुई, जिसने कानूनी तौर पर निर्वाचित सिख प्रतिनिधियों द्वारा गुरुद्वारों के प्रबंधन को सुनिश्चित किया।
सांप्रदायिक पुरस्कार (Communal Award) का विरोध
1932 में, ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक पुरस्कार की घोषणा की, जिसमें भारतीय अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचक मंडल (separate electorates) प्रदान किए गए थे। बाबा खड़क सिंह ने इसका भी मुखर विरोध किया, क्योंकि उनका मानना था कि यह भारत की राष्ट्रीय और सांप्रदायिक एकता को भंग कर देगा। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ मिलकर इस पुरस्कार का विरोध किया, जब गांधीजी पुणे की यरवदा जेल में उपवास पर थे।
अंतिम वर्ष और विरासत
भारत की स्वतंत्रता के बाद भी बाबा खड़क सिंह ने सक्रिय राजनीति में भागीदारी जारी रखी। उन्होंने 6 अक्टूबर 1963 को 96 वर्ष की आयु में दिल्ली में अंतिम सांस ली।
विरासत: बाबा खड़क सिंह को उनकी असाधारण बहादुरी, निस्वार्थता, और राष्ट्रवाद के लिए याद किया जाता है। उन्हें अक्सर ‘पंजाब के गांधी’ कहा जाता था क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान गांधीजी के समान ही महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक था, खासकर पंजाब में।
स्मारक: नई दिल्ली के कनॉट प्लेस क्षेत्र की एक प्रमुख सड़क का नाम उनके सम्मान में बाबा खड़क सिंह मार्ग रखा गया है। 1988 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था।
बाबा खड़क सिंह का जीवन इस बात का प्रमाण है कि राष्ट्रीय आंदोलन में धार्मिक सुधार और राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई साथ-साथ लड़ी जा सकती है। उन्होंने सिख समुदाय को न केवल राजनीतिक रूप से जागरूक किया, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा में भी सफलतापूर्वक एकीकृत किया।