भारत देश में त्यौहारों का मौसम हमेशा रौनक और रंगीनियों से भरा होता है। दशहरा से लेकर दीपावली तक, हर घर में खुशियों की मिठास बिखरती है। बाजारों में दुकानों की सजावट, झिलमिलाती रोशनियाँ और घर-घर में मिठाइयों की खुशबू, यही तो हैं हमारे त्यौहार की असली पहचान। बच्चे उत्साह से खिलखिलाते हैं, बड़े अपने रिश्तेदारों को याद करते हैं और पूरा समाज मिलकर इन पर्वों की तैयारी में जुट जाता है। यही हमारी संस्कृति की खूबसूरती है, जो हमें मिल जुलकर खुशियाँ बाँटना सिखाती है, लेकिन यही दृश्य जब थोड़ा करीब से देखें तो पीछे छुपा हुआ सच भी सामने आता है।
दशहरे और दीपावली जैसे बड़े पर्वों पर बाजारों में मिठाई और मावा तैयार करने वालों की लापरवाही और मिलावटखोरी का खेल भी जोर पकड़ लेता है। नकली मिठाई, मिलावटी मावा, रंग-रोगन से भरे गुड़ और तेल में डूबी हलवाई की दुकानें, ये सब सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं और इससे सीधे ग्राहक की सेहत खतरे में पड़ जाती है। ग्राहक की बेफिक्री और दुकानदार की लालच में ही यह बुरी आदत जन्म लेती है। वह मिठाई जो बच्चों की मुस्कान और रिश्तों की मिठास लाने के लिए बनती है, वही अब घातक मिलावट का माध्यम बन जाती है। नकली मावा, रसायनों से भरी लड्डू और ढीली चॉकलेट। ये केवल स्वास्थ्य के लिए खतरा नहीं, बल्कि हमारे त्यौहारों की असली पहचान को भी नुकसान पहुँचाते हैं। नकारात्मक पक्ष केवल दुकानदार और मिठाई तक ही सीमित नहीं है। खाद्य विभाग की लापरवाही और कानून की ढील भी इस समस्या को और बढ़ावा देती है। औपचारिक कार्यवाही अक्सर टालमटोल और दिखावे तक सीमित रहती है। ठेकेदारों और दुकानदारों को संरक्षण मिलना, जांच में ढिलाई और नियमों में लचीलापन, ये सब मिलकर भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। ग्राहक की शिकायतें अक्सर अनसुनी रह जाती हैं। परिणामस्वरूप त्यौहार की खुशी के साथ-साथ स्वास्थ्य का खतरा भी घर-घर पहुँचता है, लेकिन हर कहानी का एक सकारात्मक पहलू भी होता है। आजकल कई जागरूक ग्राहक और समाजसेवी संगठनों ने इस बुराई के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है। सोशल मीडिया पर नकली मिठाई, मिलावटखोरी और असुरक्षित खाद्य सामग्री की खबरें फैल रही हैं। लोग अब केवल मिठाई के स्वाद से संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि उसकी शुद्धता और गुणवत्ता के प्रति भी सजग हो रहे हैं। इसके अलावा कुछ छोटे और जिम्मेदार हलवाई ऐसे हैं जो पारंपरिक तरीकों और शुद्ध सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। इनकी मिठाई में सिर्फ स्वाद ही नहीं, बल्कि भरोसे और संस्कृति की मिठास भी मिलती है। ये व्यवसाय धीरे-धीरे ग्राहकों के विश्वास के कारण तरक्की कर रहे हैं। इस पहलू से देखा जाए तो समस्या के बावजूद उम्मीद की किरण भी दिखाई देती है।त्यौहारों का असली मकसद खुशियाँ बांटना, रिश्तों को मजबूत करना और संस्कृति को जीवित रखना है। यदि हम समाज के रूप में सचेत हो, दुकानदार जिम्मेदार हों और प्रशासन नियमों का पालन करें तो यह खतरा काफी हद तक कम किया जा सकता है। मिलावटखोरी और भ्रष्टाचार पर कड़ी नजर रखी जाए। औपचारिक कार्रवाई समय पर हो और ग्राहक को जागरूक किया जाए। तभी दशहरा और दीपावली का असली रंग लौट सकता है। सच तो यह भी है कि हमारे त्यौहार और बाजार दोनों ही हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। एक तरफ मिठाई, रोशनी और उत्साह हैं, वहीं दूसरी तरफ मिलावट, भ्रष्टाचार और लापरवाही भी हैं। इस सामूहिक परिदृश्य को देखकर हमें यह समझना होगा कि त्यौहार केवल बाहर दिखावे के लिए नहीं होते, बल्कि असली मिठास और खुशियाँ तभी कायम रहेंगी जब हम जिम्मेदारी और सच्चाई को भी त्यौहार में शामिल करें।समाज की सजगता, प्रशासन की पारदर्शिता और ग्राहक की सतर्कता.. यही तीन स्तंभ हैं, जो हमारी मिठाई को केवल स्वादिष्ट ही नहीं, बल्कि सुरक्षित और सच्ची भी बनाए रख सकते हैं। तभी दशहरा और दीपावली का असली मज़ा, बिना किसी मिलावट और धोखे के हर घर में महसूस होगा।
भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)