गरीब की जान बचा रहे हैं वही, जिन्हें सिस्टम ‘झोलाछाप’ कहता है

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आज के टाइम में अगर कोई बात सच्चाई से कही जाए तो ये है कि जिन्हें हम “झोलाछाप डॉक्टर” बोलते हैं, वही आधे गरीबों को जिंदा रखे हुए हैं। वरना जो डिग्री वाले बड़े-बड़े डॉक्टर हैं, उनकी फीस तो सुनकर ही गरीब आदमी का ब्लड प्रेशर बढ़ जाए। पांच सौ से लेकर हजार, और कई जगह तो डेढ़ हजार तक सिर्फ एक पर्चे की फीस। अब बताओ, कोई गरीब मजदूर आदमी जो दिन भर ईंट ढोकर या ठेला चलाकर दो सौ-तीन सौ रुपये कमाता है वो इतना पैसा सिर्फ डॉक्टर की फीस में कैसे दें। दवा तो अभी बाकी है। गांव-देहात के कोने-कोने में जो झोलाछाप डॉक्टर बैठे हैं, वही असली भगवान बनकर गरीबों का इलाज कर रहे हैं। इनके पास भले डिग्री नहीं हो पर सालों का तजुर्बा है। इनको पता है कि बुखार कब खतरनाक होता है। कब दवा बदलनी है और कब मरीज को बड़े अस्पताल भेजना है। ये लोग मरीज से फीस भी उतनी ही लेते हैं जितनी गरीब दे सकता है। कई बार तो बिना पैसे के भी इलाज कर देते हैं। ऐसे डॉक्टरों की वजह से गांवों में आज भी इलाज चल रहा है, वरना सरकारी अस्पतालों की हालत तो सबको मालूम ही है। दवा नहीं, डॉक्टर नहीं और अगर डॉक्टर मिल भी गया तो “कल आना” कह देता है।अब सरकार की बात करें तो सरकारी स्वास्थ्य सुविधा बढ़ाने की सख्त जरूरत है। शहरों में तो फिर भी प्राइवेट क्लीनिक या हॉस्पिटल मिल जाते हैं, लेकिन छोटे कस्बों और गांवों में तो हाल बहुत खराब है। सबसे ज्यादा तकलीफ बच्चों, हड्डी और आंखों के डॉक्टर की कमी से है। अगर किसी बच्चे को बुखार या हड्डी में दर्द हो गया तो मां-बाप को 50–60 किलोमीटर दूर कस्बे या जिला अस्पताल भागना पड़ता है। वहां जाकर आधा दिन लाइन में और आधा दिन डॉक्टर के इंतजार में निकल जाता है।सरकार को चाहिए कि हर शहर और हर ब्लॉक में तीन जरूरी विभाग जरूर खोले। जिनमें बच्चों का डॉक्टर, हड्डी का डॉक्टर और आंखों का डॉक्टर। ये तीन चीजें हर गरीब की जिंदगी से सीधा जुड़ी हैं। बच्चों की बीमारी में मां-बाप का दिल टूट जाता है। हड्डी के दर्द में बुजुर्गों की नींद उड़ जाती है और आंखों की खराबी में बुजुर्गों की दुनिया अंधेरी हो जाती है। अब बात करते हैं डिग्री वाले डॉक्टरों की। सब एक जैसे नहीं होते। कुछ डॉक्टर आज भी ऐसे हैं जो बिना कोई पर्चे का शुल्क लिए मरीजों को देखते हैं। वो कहते हैं कि पहले मरीज ठीक हो जाए, फीस बाद में दे देना। ऐसे डॉक्टरों की वजह से ही लोगों का भरोसा बना हुआ है। जब मरीज ठीक होकर जाता है तो दिल से दुआ देता है। ऐसी दुआएं किसी पैसे से नहीं खरीदी जा सकतीं, लेकिन अफसोस ये है कि ऐसे डॉक्टर अब गिने-चुने रह गए हैं।बाकी अधिकतर डॉक्टर तो अब इलाज से ज्यादा बिजनेस करने लगे हैं। हर जांच, हर टेस्ट, हर दवा में कमीशन चलता है। मरीज के जेब से पैसा निकलता है और डॉक्टर-केमिस्ट-लैब सबका फायदा होता है। गरीब आदमी सोचता है कि क्यों न किसी झोलाछाप को दिखा लूं। कम से कम सस्ता तो पड़ेगा और सच बताऊं कई बार वही झोलाछाप सही इलाज कर देता है, जो बड़े डॉक्टर से भी छूट जाता है।इसलिए अब वक्त आ गया है कि सरकार इस सच्चाई को माने। हर झोलाछाप को अपराधी समझना भी गलत है। जो सच्चे दिल से गरीब का इलाज कर रहा है, उसे कुछ बेसिक ट्रेनिंग और लाइसेंस देकर वैध बनाया जा सकता है। इससे गरीबों को राहत मिलेगी और सरकार पर भी बोझ कम होगा। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा पर बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन असली सुधार जमीन पर नहीं दिखता। जनता पार्टी सरकार में राजनारायण के स्वास्थय मंंत्री रहने के दौरान गांव के लिए एक माह और तीन माह की ट्रैनिक देकर स्वास्थय रक्षक तैनात किए गए थे। ये गांव के मरीजों का फर्स्ट एड देते और बड़े अस्पताल भेज देेते थे। बाद की सरकारों ने ये योजना बद कर दी। कोरोना काल में जब बड़े डाक्टर घरो में छिपे थे, तब ये झोलाछाप ही मरीजों की जान बचा रहे थे। अगर हर जिले में अच्छे सरकारी अस्पताल, ईमानदार डॉक्टर और सस्ती दवा मिल जाए, तो आधी बीमारी तो ऐसे ही खत्म हो जाएगी। गरीब का हौसला बढ़ेगा और समाज में इंसानियत जिंदा रहेगी। आखिर में एक ही बात गरीब की बीमारी, डॉक्टर की फीस में नहीं, इंसान की नीयत में ठीक होती है।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

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