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रानी लक्ष्मीबाई की परम विश्वासपात्रः झलकारी बाई

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वीरता, त्याग और राष्ट्रभक्ति की अनगिनत गाथाओं से भरा हुआ है। इन गाथाओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम अद्वितीय है, परंतु उनके संघर्ष को विजय और गौरव की ऊँचाइयों तक ले जाने में जिन वीरों और वीरांगनाओं ने योगदान दिया, उनमें झलकारी बाई का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। झलकारी बाई केवल लक्ष्मीबाई की सहचरी नहीं थीं, बल्कि वे उनकी परछाईं, रण-सहयोगी और अनेक मौकों पर जान बचाने वाली रणनीतिक सहयोगी बनकर उभरीं। उनकी वीरता, बुद्धिमत्ता और बलिदान स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम चरण की अमर धरोहर है।

झलकारी बाई का जन्म बुंदेलखंड क्षेत्र में झांसी के समीप स्थित एक साधारण कोली परिवार में लगभग 1830–1831 के आसपास हुआ माना जाता है। उनका बचपन गरीबी और संघर्ष भरे परिवेश में बीता, परंतु इसी परिवेश ने उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से दृढ़ बनाया। बचपन में ही उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, धनुर्विद्या और युद्ध-कौशल सीख लिया था। उनके पिता सदैव उन्हें निडर, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करते थे।झलकारी बाई का स्वभाव बचपन से ही साहसी था। स्थानीय कथाओं में वर्णित है कि उन्होंने एक बार अकेले ही एक जंगली तेंदुए का सामना कर उसे मार गिराया था। इस घटना ने उनके साहस को और अधिक उजागर किया। बुंदेलखंड की संस्कृतियाँ—कुश्ती, दंगल, तलवार-कला और घुड़सवारी—उनके व्यक्तित्व में रच-बस गईं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई न्यायप्रिय, प्रजावत्सल और सैन्य प्रतिभा से सम्पन्न शासिका थीं। 1857 के विद्रोह के बाद जब झांसी अंग्रेजों के निशाने पर आ गया, तब सभी क्षेत्रों से वीरों का रानी के साथ जुड़ना प्रारंभ हुआ। झलकारी बाई की प्रसिद्धि रानी तक पहुँची और उन्हें रानी से मिलने का अवसर मिला।जब लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई की युद्ध-विद्या और साहस देखा तो वे अत्यंत प्रभावित हुईं। इसके अलावा, झलकारी बाई का व्यक्तित्व रानी से आश्चर्यजनक रूप से मिलता-जुलता था—दिखावट, कद-काठी और चेहरे की समानता ने उन्हें रानी की रणनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका के लिए उपयुक्त बना दिया।

रानी ने झलकारी बाई को अपने दुर्गा दल में शामिल किया। यह दल महिलाओं का विशेष सैन्य दल था, जिसमें प्रमुख कमांडर के रूप में झलकारी बाई ने ख्याति प्राप्त की। यह दल रानी की सुरक्षा, सैन्य संचालन और आपातकालीन रणनीति तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई के संबंध साधारण शासक–सेविका के नहीं थे। वे दोनों एक-दूसरे की शक्ति थीं। रानी उनकी सलाह पर भरोसा करती थीं, और झलकारी बाई रानी के प्रति पूर्ण निष्ठा और समर्पण से सेवा करती थीं।

झलकारी बाई के लिए रानी केवल शासक नहीं, एक आदर्श, प्रेरणा और मातृस्वरूप थीं। वहीं रानी लक्ष्मीबाई के लिए झलकारी बाई उनके संघर्ष की साथी, उनकी रक्षा कवच और विपरीत परिस्थितियों में भरोसे की दृढ़ चट्टान थीं।

1857 के विद्रोह में झांसी अंग्रेजों के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र था। जब अंग्रेजी सेना झांसी पर आक्रमण करने लगी, तब रानी ने सेना का नेतृत्व किया और झलकारी बाई दुर्गा दल की कमांडर के रूप में मोर्चे पर डटी रहीं। लड़ाई के दौरान झलकारी बाई ने कई महत्वपूर्ण अभियानों का नेतृत्व किया। उन्होंने महिलाओं और पुरुषों दोनों को युद्ध-प्रशिक्षण दिया। कई बार उन्होंने अग्रिम पंक्ति में रहकर अंग्रेजी सेना के विरुद्ध तलवार उठाई।अंग्रेजों को यह समझ आ गया था कि झांसी की मजबूती केवल रानी लक्ष्मीबाई की सैन्य समझ ही नहीं, बल्कि उनके सहयोगियों की वीरता से भी है। इन सहयोगियों में सबसे उल्लेखनीय नाम झलकारी बाई का था, जो युद्ध के मैदान में अपराजेय साहस का प्रदर्शन कर रही थीं।झांसी की लड़ाई का सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया, जब अंग्रेजी सेना ने किला लगभग घेर लिया था। रानी को सुरक्षित निकालना अनिवार्य था, ताकि वे आगे ग्वालियर जाकर पुनः संगठित होकर संघर्ष जारी रख सकें।

रानी से अत्यधिक मिलते-जुलते चेहरे और समान शारीरिक बनावट के कारण यह निर्णय लिया गया कि झलकारी बाई स्वयं रानी के वेश में दुश्मन के सामने प्रकट होंगी, ताकि अंग्रेज भ्रमित होकर मुख्य सेना का ध्यान उस ओर लगा दे, और इसी बीच रानी झांसी से बाहर निकलकर आगे की योजना बना सकें। यह योजना अत्यंत जोखिमपूर्ण थी, क्योंकि इसका अर्थ था कि झलकारी बाई को लगभग निश्चित मृत्यु का सामना करना पड़ेगा। लेकिन झलकारी बाई किसी भी हिचकिचाहट के बिना इस निर्णय पर सहमत हो गईं। उनके लिए रानी की सुरक्षा और झांसी की प्रतिष्ठा सर्वोपरि थी। वेश बदलकर झलकारी बाई अंग्रेजों के सामने प्रकट हुईं। अंग्रेजी सेना उन्हें ही रानी समझकर अपनी पूरी ताकत उन पर केंद्रित कर दी। उन्होंने अत्यंत वीरता से युद्ध किया, कई अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया और रणभूमि में अनोखी रणनीति से उन्हें उलझाए रखा।इस बीच रानी सुरक्षित मार्ग से झांसी से बाहर निकलने में सफल हो गईं। झलकारी बाई की इस असाधारण कुर्बानी ने रानी को आगे के संघर्ष के लिए सुरक्षित रखा।

कुछ कथाओं के अनुसार झलकारी बाई अंत तक लड़ती रहीं और शहीद हो गईं, जबकि कुछ में उनका जीवित बच जाना और बाद में शांतिपूर्ण जीवन बिताना बताया गया है। चाहे जो भी ऐतिहासिक सत्य हो, उनकी देशभक्ति और बलिदान की चमक भारत के स्वतंत्रता इतिहास में हमेशा अमर है।

लंबे समय तक झलकारी बाई का योगदान मुख्यधारा इतिहास में उपेक्षित रहा। इसका एक बड़ा कारण यह था कि झलकारी बाई एक दलित समुदाय से आती थीं। परंतु आज इतिहास पुनर्पाठ हो रहा है और उन्हें योग्य सम्मान मिल रहा है।आज झलकारी बाई भारत की बहादुर महिलाओं के प्रतीक के रूप में मान्य हैं। उनके नाम पर संस्थान, संग्रहालय और मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। झांसी में उनके सम्मान में झलकारी बाई स्मारक बनाया गया है। कई शोध-ग्रंथ, नाटक और काव्य उनकी वीरता को समर्पित हैं।

झलकारी बाई का व्यक्तित्व भारत की स्त्री–शक्ति का अद्वितीय उदाहरण है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वीरता किसी जाति, वर्ग या लिंग की मोहताज नहीं होती। साहस, समर्पण और राष्ट्रप्रेम किसी भी साधारण मानव को असाधारण बना सकते हैं।

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