नारायण दत्त तिवारी, जन्म के दिन ही मरे

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1 8 अक्टूबर — तारीख वही थी, जिस दिन उनका जन्म हुआ था, और संयोग देखिए, उसी दिन उन्होंने दुनिया को अलविदा भी कह दिया। 1925 में नैनीताल में जन्मे नारायण दत्त तिवारी भारतीय राजनीति के ऐसे अध्याय हैं, जिन्हें जितना पढ़िए, उतना नया मोड़ सामने आता है। उनके जीवन में सत्ता, संघर्ष, दोस्ती, विवाद — सब कुछ था, जो एक फिल्मी कहानी को भी मात दे सके।

मिट्टी से उठे, मुख्यमंत्री तक पहुंचे

एन.डी. तिवारी का राजनीतिक सफर किसी रोलरकोस्टर से कम नहीं रहा। 1952 में महज़ 26 साल की उम्र में वो उत्तर प्रदेश विधानसभा के सबसे युवा विधायक बने। उनके पहले भाषण ने सत्ता और विपक्ष — दोनों को चौंका दिया। वो नेता नहीं, वक्ता थे, और वक्ता नहीं, सोचने वाला मस्तिष्क। यहीं से शुरू हुआ वो सफर, जो उन्हें दो राज्यों का मुख्यमंत्री बनाने वाला था — पहले उत्तर प्रदेश, फिर उत्तराखंड। भारतीय राजनीति में यह कारनामा आज तक किसी और के नाम नहीं हुआ।

‘नथिंग डूइंग तिवारी’ और ‘ना नर, ना नारी’ — फिर भी सबके प्रिय

उनके विरोधी मज़ाक उड़ाते थे — “ये न नर हैं, ना नारी, ये हैं नारायण दत्त तिवारी।”
अपनी ही पार्टी के लोग उन्हें कहते थे — “नथिंग डूइंग तिवारी।”
लेकिन तिवारी मुस्कुरा देते थे। शायद यही उनकी ताकत थी — मुस्कराहट। वो जानते थे, राजनीति में सबसे बड़ा हथियार क्रोध नहीं, संयम है।

हर नाम याद रखने वाला मुख्यमंत्री

तिवारी की एक अद्भुत खासियत थी — उन्हें हर व्यक्ति का नाम याद रहता था। चाहे वो सचिवालय का क्लर्क हो या चपरासी, वो उसे नाम से पुकारते थे। यही वजह थी कि अफसर से लेकर आम जनता तक, हर कोई उनसे जुड़ा महसूस करता था। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप अवस्थी ने कहा था — “उनके दिमाग में मानो एक कंप्यूटर फिट था, जो हर व्यक्ति की कहानी याद रखता था।”

ओलोफ पाम की ‘टूटी चिड़िया’ और एक यादगार मुलाकात

बहुत कम लोग जानते हैं कि तिवारी स्वीडिश भाषा में निपुण थे। 1959 में वो स्वीडन गए थे और वहां के प्रधानमंत्री ओलोफ पाम से उनकी गहरी दोस्ती हो गई थी। 25 साल बाद जब वो फिर मिले, तो पाम ने एक टूटी हुई सीप की बनी चिड़िया दिखाते हुए कहा — “तुम्हें याद है, ये वही है जो तुमने मुझे 1959 में दी थी।”
इतनी बारीकी से दोस्ती निभाना, शायद आज के नेताओं में दुर्लभ है।

प्रधानमंत्री बनने का मौका, जो हाथ से निकल गया

1987 में राजीव गांधी बोफोर्स मामले में घिर गए। कांग्रेस में चर्चा हुई कि कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री पद किसी और को सौंप दिया जाए। दो नाम सामने आए — नरसिम्हा राव और नारायण दत्त तिवारी। उत्तर भारत के समीकरण देखते हुए तिवारी आगे थे। लेकिन जब प्रस्ताव उनके सामने आया, तो उन्होंने मना कर दिया।
उन्होंने कहा — “अगर मैं ये पद ले लूं, तो जनता सोचेगी कि राजीव गांधी भाग रहे हैं।”
राजनीति में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले — जब कोई सत्ता से ऊपर उठकर सोचता हो।

18 घंटे काम, मुस्कान से फैसले

तिवारी अपने अनुशासन और ऊर्जा के लिए जाने जाते थे। रोज़ 18 घंटे काम करते, रात में दो बजे सोते और सुबह छह बजे फिर सक्रिय हो जाते।
उनके प्रधान सचिव योगेंद्र नारायण कहते हैं — “वो किसी भी वक्त दिल्ली के लिए उड़ान भर लेते थे, चाहे हम फिल्म देख रहे हों या खाना खा रहे हों।”
उनकी गंभीरता का आलम ये था कि वो हर फाइल का एक-एक शब्द खुद पढ़ते थे और लाल निशान खुद लगाते थे।

राजभवन का सबसे बड़ा विवाद

जब वो आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने, तब एक टेलीविज़न चैनल ने ऐसा वीडियो दिखाया जिसने उनकी छवि हिला दी — उन पर महिलाओं के साथ संबंधों के आरोप लगे। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
फिर 2008 में रोहित शेखर नामक युवक ने अदालत में दावा किया कि तिवारी उसके पिता हैं। DNA टेस्ट ने यह सच साबित किया।
लोगों ने कहा — “89 की उम्र में भी तिवारी ने अपनी ज़िंदगी को अधूरा नहीं छोड़ा।”
2014 में उन्होंने रोहित की मां उज्ज्वला तिवारी से शादी कर ली — एक ऐसा अंत, जो किसी उपन्यास से कम नहीं।

अगर 1991 में जीत जाते…

राजीव गांधी की हत्या के बाद अगर तिवारी चुनाव जीत जाते, तो शायद भारत के प्रधानमंत्री वही होते। लेकिन वो 5,000 वोटों से हार गए — और इतिहास ने करवट बदल ली।
नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, और तिवारी हमेशा के लिए “सबसे योग्य, पर कभी प्रधानमंत्री न बने” नेता बन गए।

राजनीति का वो दौर, जो अब नहीं लौटेगा

एन.डी. तिवारी का जीवन भारतीय राजनीति की वो किताब है, जिसमें हर पन्ने पर एक सबक है —
कैसे संयम से संकट को संभाला जा सकता है,
कैसे विरोध को मुस्कान से हराया जा सकता है,
और कैसे सत्ता पाने के बजाय, गरिमा से जिया जा सकता है।

18 अक्टूबर 2018 को उन्होंने उसी दिन विदा ली, जिस दिन 93 साल पहले उन्होंने जन्म लिया था।
शायद इसलिए कहा जाता है — कुछ लोग जन्म और मृत्यु दोनों में अपने समय को चुनते हैं।
नारायण दत्त तिवारी — ऐसे ही विरले इंसान थे।

किस्सा18 अक्टूबर — तारीख वही थी, जिस दिन उनका जन्म हुआ था, और संयोग देखिए, उसी दिन उन्होंने दुनिया को अलविदा भी कह दिया। 1925 में नैनीताल में जन्मे नारायण दत्त तिवारी भारतीय राजनीति के ऐसे अध्याय हैं, जिन्हें जितना पढ़िए, उतना नया मोड़ सामने आता है। उनके जीवन में सत्ता, संघर्ष, दोस्ती, विवाद — सब कुछ था, जो एक फिल्मी कहानी को भी मात दे सके।

मिट्टी से उठे, मुख्यमंत्री तक पहुंचे

एन.डी. तिवारी का राजनीतिक सफर किसी रोलरकोस्टर से कम नहीं रहा। 1952 में महज़ 26 साल की उम्र में वो उत्तर प्रदेश विधानसभा के सबसे युवा विधायक बने। उनके पहले भाषण ने सत्ता और विपक्ष — दोनों को चौंका दिया। वो नेता नहीं, वक्ता थे, और वक्ता नहीं, सोचने वाला मस्तिष्क। यहीं से शुरू हुआ वो सफर, जो उन्हें दो राज्यों का मुख्यमंत्री बनाने वाला था — पहले उत्तर प्रदेश, फिर उत्तराखंड। भारतीय राजनीति में यह कारनामा आज तक किसी और के नाम नहीं हुआ।

‘नथिंग डूइंग तिवारी’ और ‘ना नर, ना नारी’ — फिर भी सबके प्रिय

उनके विरोधी मज़ाक उड़ाते थे — “ये न नर हैं, ना नारी, ये हैं नारायण दत्त तिवारी।”
अपनी ही पार्टी के लोग उन्हें कहते थे — “नथिंग डूइंग तिवारी।”
लेकिन तिवारी मुस्कुरा देते थे। शायद यही उनकी ताकत थी — मुस्कराहट। वो जानते थे, राजनीति में सबसे बड़ा हथियार क्रोध नहीं, संयम है।

हर नाम याद रखने वाला मुख्यमंत्री

तिवारी की एक अद्भुत खासियत थी — उन्हें हर व्यक्ति का नाम याद रहता था। चाहे वो सचिवालय का क्लर्क हो या चपरासी, वो उसे नाम से पुकारते थे। यही वजह थी कि अफसर से लेकर आम जनता तक, हर कोई उनसे जुड़ा महसूस करता था। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप अवस्थी ने कहा था — “उनके दिमाग में मानो एक कंप्यूटर फिट था, जो हर व्यक्ति की कहानी याद रखता था।”

ओलोफ पाम की ‘टूटी चिड़िया’ और एक यादगार मुलाकात

बहुत कम लोग जानते हैं कि तिवारी स्वीडिश भाषा में निपुण थे। 1959 में वो स्वीडन गए थे और वहां के प्रधानमंत्री ओलोफ पाम से उनकी गहरी दोस्ती हो गई थी। 25 साल बाद जब वो फिर मिले, तो पाम ने एक टूटी हुई सीप की बनी चिड़िया दिखाते हुए कहा — “तुम्हें याद है, ये वही है जो तुमने मुझे 1959 में दी थी।”
इतनी बारीकी से दोस्ती निभाना, शायद आज के नेताओं में दुर्लभ है।

प्रधानमंत्री बनने का मौका, जो हाथ से निकल गया

1987 में राजीव गांधी बोफोर्स मामले में घिर गए। कांग्रेस में चर्चा हुई कि कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री पद किसी और को सौंप दिया जाए। दो नाम सामने आए — नरसिम्हा राव और नारायण दत्त तिवारी। उत्तर भारत के समीकरण देखते हुए तिवारी आगे थे। लेकिन जब प्रस्ताव उनके सामने आया, तो उन्होंने मना कर दिया।
उन्होंने कहा — “अगर मैं ये पद ले लूं, तो जनता सोचेगी कि राजीव गांधी भाग रहे हैं।”
राजनीति में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले — जब कोई सत्ता से ऊपर उठकर सोचता हो।

18 घंटे काम, मुस्कान से फैसले

तिवारी अपने अनुशासन और ऊर्जा के लिए जाने जाते थे। रोज़ 18 घंटे काम करते, रात में दो बजे सोते और सुबह छह बजे फिर सक्रिय हो जाते।
उनके प्रधान सचिव योगेंद्र नारायण कहते हैं — “वो किसी भी वक्त दिल्ली के लिए उड़ान भर लेते थे, चाहे हम फिल्म देख रहे हों या खाना खा रहे हों।”
उनकी गंभीरता का आलम ये था कि वो हर फाइल का एक-एक शब्द खुद पढ़ते थे और लाल निशान खुद लगाते थे।

राजभवन का सबसे बड़ा विवाद

जब वो आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने, तब एक टेलीविज़न चैनल ने ऐसा वीडियो दिखाया जिसने उनकी छवि हिला दी — उन पर महिलाओं के साथ संबंधों के आरोप लगे। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
फिर 2008 में रोहित शेखर नामक युवक ने अदालत में दावा किया कि तिवारी उसके पिता हैं। DNA टेस्ट ने यह सच साबित किया।
लोगों ने कहा — “89 की उम्र में भी तिवारी ने अपनी ज़िंदगी को अधूरा नहीं छोड़ा।”
2014 में उन्होंने रोहित की मां उज्ज्वला तिवारी से शादी कर ली — एक ऐसा अंत, जो किसी उपन्यास से कम नहीं।

अगर 1991 में जीत जाते…

राजीव गांधी की हत्या के बाद अगर तिवारी चुनाव जीत जाते, तो शायद भारत के प्रधानमंत्री वही होते। लेकिन वो 5,000 वोटों से हार गए — और इतिहास ने करवट बदल ली।
नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, और तिवारी हमेशा के लिए “सबसे योग्य, पर कभी प्रधानमंत्री न बने” नेता बन गए।

राजनीति का वो दौर, जो अब नहीं लौटेगा

एन.डी. तिवारी का जीवन भारतीय राजनीति की वो किताब है, जिसमें हर पन्ने पर एक सबक है —
कैसे संयम से संकट को संभाला जा सकता है,
कैसे विरोध को मुस्कान से हराया जा सकता है,
और कैसे सत्ता पाने के बजाय, गरिमा से जिया जा सकता है।

18 अक्टूबर 2018 को उन्होंने उसी दिन विदा ली, जिस दिन 93 साल पहले उन्होंने जन्म लिया था।
शायद इसलिए कहा जाता है — कुछ लोग जन्म और मृत्यु दोनों में अपने समय को चुनते हैं।
नारायण दत्त तिवारी — ऐसे ही विरले इंसान थे

ओल्ड इज गोल्ड से साभार

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