धर्म बदलकर SC/ST लाभ हड़पने वालों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का करारा प्रहार: अब संविधान से खिलवाड़ नहीं

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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया है। जिसने पूरे उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में हलचल मचा दी है। कोर्ट ने साफ और दो-टूक शब्दों में कहा कि हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म को छोड़कर किसी अन्य धर्म में जाने वाले व्यक्ति को SC/ST का लाभ लेने का कोई अधिकार नहीं है। जस्टिस प्रवीण कुमार गिरि की एकल पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि धर्म परिवर्तन के बावजूद अनुसूचित जाति का लाभ लेना केवल बेईमानी ही नहीं, बल्कि संविधान के साथ सीधा विश्वासघात है। यह टिप्पणी उन लाखों फर्जी लाभार्थियों पर करारा तमाचा है। जिन्होंने वर्षों से धर्म और पहचान की आड़ में सरकारी योजनाओं को लूटने का काम किया। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में उत्तर प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को चार महीने की सख्त समय सीमा देकर निर्देश दिया है कि वे ऐसे सभी लोगों की पहचान करें, जो हिंदू धर्म छोड़ चुके हैं, लेकिन SC/ST के लाभ उठा रहे हैं। यह आदेश किसी सलाह या अपील की तरह नहीं, बल्कि अब बस बहुत हुआ जैसी सख्त चेतावनी है। जिला प्रशासन को पहली बार इस तरह का स्पष्ट निर्देश मिला है कि वे इस वर्ग की पूरी छानबीन कर कार्रवाई करें। यह कदम उन असली दलितों की जीत के रूप में देखा जा रहा है जो वर्षों से देखते थे कि उनकी सीटें, उनका हक, उनकी स्कॉलर्शिप और उनकी नौकरियां उन लोगों द्वारा हड़पी जा रही थीं। जिनका न तो सामाजिक उत्पीड़न से संबंध था और न ही जाति व्यवस्था से। इस फैसले का सबसे बड़ा असर उन लोगों पर पड़ने वाला है जो धर्म परिवर्तन करने के बाद भी SC प्रमाण पत्रों का गलत इस्तेमाल करते रहे। कोर्ट का कहना है कि SC/ST व्यवस्था केवल हिंदू सामाजिक संरचना के कारण अस्तित्व में आई थी। जातियों का ढांचा, सामाजिक दमन, भेदभाव और ऐतिहासिक उत्पीड़न..इन सबकी नींव हिंदू समाज में थी न कि उन धर्मों में जहाँ जाति का कोई आधिकारिक ढांचा ही नहीं। ऐसे में धर्म बदल चुके लोगों का अनुसूचित जाति के लाभ लेना किसी भी दृष्टिकोण से न्यायसंगत नहीं है। इस फैसले ने यह भी साफ कर दिया कि वे लोग जो स्वयं को ‘दलित’ तो बताते थे मगर ‘हिंदू’ नहीं मानते थे। अब कानून की नजर में दो टूक साफ कर दिया गया है कि दलित पहचान हिंदू सामाजिक संरचना से ही जुड़ी है। जिसे उस संरचना से बाहर जाना है उसे उसके लाभ-सुविधाएं भी छोड़नी होंगी। यह कथन उन राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों के लिए बड़ा झटका है जो दलित पहचान को धार्मिक पहचान से अलग करने की कोशिश करते रहे हैं। हालांकि इस फैसले से एक बहस भी जन्म लेगी। कुछ लोग इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर दबाव बताएंगे और तर्क देंगे कि भेदभाव धर्म बदलने के बाद भी जारी रहता है। परन्तु सवाल यह है कि यदि कोई व्यक्ति उस समाज से निकल चुका है जिसने भेदभाव किया तो वह उसी समाज से मिलने वाले लाभ को किस तर्क से जारी रखेगा। यही कोर्ट का सवाल है और इसका जवाब ढूंढना आसान नहीं। राजनीतिक हलकों में भी यह फैसला बड़ा मुद्दा बनेगा। विपक्ष इसे धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास बताएगा। जबकि समर्थक इसे सामाजिक न्याय का सबसे सख्त कदम कहेंगे। पर एक बात तय है कि यह फैसला लाभ की राजनीति करने वालों की सुविधाजनक जमीन हिला चुका है। आने वाले महीनों में बड़ी संख्या में ऐसे फर्जी लाभार्थी चिन्हित होंगे जिन्होंने धर्म बदलकर भी SC/ST के नाम पर सरकारी खजाना खाली कराया है। फैसले का वास्तविक लाभ असली दलित समाज को मिलेगा। जो सदियों के दर्द, बेबसी, गरीबी और भेदभाव के कारण समान अवसरों से वंचित रहे, अब उनके हक पर कोई और कब्जा नहीं करेगा। कोर्ट का यह कदम न सिर्फ नीति-निर्माण की दिशा बदलेगा, बल्कि उन लोगों के लिए भी चेतावनी है जो जाति-धर्म को अपनी सहूलियत के हिसाब से बदलकर सरकारी लाभ की खेती करते रहे हैं। कुल मिलाकर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला केवल एक आदेश नहीं, बल्कि एक सामाजिक घोषणा है कि SC/ST का लाभ उसी को मिलेगा जो वास्तव में इस पीड़ा और सामाजिक संरचना का हिस्सा था। धर्म बदलकर दो नावों में सवारी अब संभव नहीं।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक

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