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तिब्बत को नक्शे पर लाने वाले नैन सिंह रावत

1 अक्टूबर को  स्वर्गीय  पंडित नैन सिंह जी का जन्म दिन है। 

हमारे देश भारत में अनेक महान, साहसी तथा कर्तब्यनिष्ठ व्यक्तियों का जन्म हुआ है। जिन्होंने बिना किसी लोभ मोह लालसा के, अपने प्राणों का मोह त्याग कर अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। असाधारण कर्मठता व प्रतिभा के विरले व्यक्तित्व के महान व्यक्तियों ने भारत के प्रत्तेक कालखण्ड में जन्म लिया है। पराधीन भारत की सत्ता केन्द्र के शीर्ष में बैठे शासकों ने उनको यथा योग्य सम्मान भी दिया था। विदेशों का बौद्धिक वर्ग भी उनकी असाधारण कर्मठता एवम् विद्वता का कायल हुवाँ था। लेकिन स्वतंत्र भारत में उनको वह सम्मान नही मिला, जिस सम्मान के वह अधिकारी थे। महान विश्वविख्यात अन्वेषक पंडित नैन सिंह रावत भी देश की अनमोल व विरल विभूतियों में से एक थे। 

पंडित नैन सिंह रावत का जन्म सीमांत जिला पिथौरागढ़ के मुनस्यारी तहसील के मिलम गाँव में 21 अकटूबर सन् 1830 को हुआ । उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई । घोर आर्थिक तंगी व गरीबी के कारण वह आगे की शिक्षा ग्रहण नही कर पाए । उन दिनों भारत के सीमातं के निवासी व्यापार करने के लिए तिब्बत पैदल चलकर जाते थे, तिब्बत के व्यापारी भी भारत के सीमांत में व्यापार करने के लिए आते थे। उस समय पहाड़ों में सड़क की सुविधाओं का विस्तार नही हुवाँ था, तब सीमांत पिथौरागढ़ जिला अल्मौड़ा के अन्तर्गत एक तहसील थी, पिथौरागढ़ को सोर के नाम से अधिक जाना जाता था। उस समय सोर सड़क विहीन क्षेत्र था। मैंदानी शहरों से टनकपुर तक ही सड़क मार्ग था। सोर से टनकपुर तक पैदल चलकर जाया जाता था, टनकपुर पहुँचने में दो या तीन दिन लग जाते थे।

सीमांत क्षेत्र के निवासी तिब्बत से व्यापार करने के लिए कई दिनों तक पहाड़ के बर्फिले व दुर्गम मार्गो से होते हुए पैदल यात्रा करते थे। नैन सिंह अपने पिता अमर सिंह के साथ व्यापार करने के लिए छोटी उम्र में ही तिब्बत जाने लगे थे। अपनी कम उम्र में ही नैन सिंह व्यापार करने के कारण, तिब्बती के अनेक स्थानों को देख चुके थे व तिब्बत की भाषा सिख गए थे। जो उनके भविष्य में बहुँत अधिक काम आई।  

18वी शताब्दी का अंत होते ही भारत में राज करने करने वाली ब्रिटिश सरकार को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के भू-भाग का आधुनिक तकनिकी से मानचित्र बनाने की योजना का विचार आया था। 19वी शताब्दी के आरंभ में पूर्ण भारतीय भू-भाग का मानचित्र बनाने का क्रियान्वन आरंभ कर दिया था। लेकिन उनके समक्ष हिमालय के उत्तरी भू-भाग, तिब्बत का मानचित्र बनाने की अति समस्या आ रही थी। उस समय तिब्बत का विश्व के अन्य देशों के लिए तिब्बत में प्रवेश निषेध था। तिब्बत में अगर कोई विदेशी व्यक्ति छुपकर चले जाता था तो पकड़े जाने पर उसको मृत्युदंड दिए जाने का प्रावधान था।

अंग्रजों को तिब्बत के भू-भाग की कोई जानकारी नही मिल रही थी। इस कारण मानचित्र में तिब्बत के क्षेत्र वाले स्थान को उनको रिक्त छोड़ना पड़ रहा था। औपनिवेशिक भारत की ब्रिटिश सरकार तिब्बत के मानचित्र के निर्माण के बिना अपने कार्य को अपूर्ण मान रही थी। अंग्रेज स्वयं तिब्बत जा नही सकते थे। चतुर अंग्रेजों ने हिमालय पर्वत की श्रृंखललाओं की तलहटी में तिब्बत के निकट निवास करने वाली भारतीय भूभाग के लद्दाख, हिमांचल प्रदेश, गढ़वाल, कुमाउ व आसाम क्षेत्र तक के निवासियों में अपनी दूरदर्शी दृष्टी डाली। अंग्रेज चाहते थे कि तिब्बत के निवासियों की तरह का रंगरुप, तिब्बत की भाषा, तिब्बत की संस्कृति का ज्ञानी व शिक्षित ब्यक्ति उनको इन हिमालयी क्षेत्रों में मिल जाय तो उसको गुप्त प्रकार से, चोरी छिपे तिब्बत की भूगोलिक जानकारी लेने के लिए भेजा जाए। 

ब्रिटिश सरकार अपने इस गोपनीय योजना को मूर्तरुप देने के लिए किसी शिक्षित व्यक्ति की खोज आरंभ की। इस खोज अभियान में ब्रिटिश सरकार कुमाउ के मुनस्यारी निवासी पंडित नैन सिंह रावत को ढूढनें में सफल हो गई थी। उस समय नैन सिंह रावत अब 33 वर्ष के वयस्क पुरुष थे। वह अपने गाँव की प्राथमिक पाठशाला में शिक्षक के रुप में कार्यरत थे। सन् 1860 में भारतीय सर्वेक्षण विभाग के कुशल व योग्य अधिकारी कैप्टन थामस जार्ज मॉण्टगुमरी की पारखी नजरों ने पंडीत नैन सिंह रावत की असाधारण योग्यता को पहचान लिया था। 

ब्रिटिश सरकार ने शिक्षक पंडित नैन सिंह रावत तथा उनके चचेरे भाई माना सिंह रावत को खोजकर उनको सन् 1863 में देहरादून स्थित भारतीय सर्वेक्षण विभाग में 20 रुपया प्रतिमाह वेतन में नियुक्त किया गया था। उसके पश्चात उनको थर्मामीटर, कम्पास आदी दिशासूचक आधुनिक उपकरणों का प्रशिक्षण दिया गया। साथ ही उनको इस बात का भी प्रशिक्षण दिया कि चाहे भूमी की बनावट किसी भी प्रकार की हो, एक कदम 31.5 का निश्चय किया जाय। साथ उनको एक 100 दानों की एक माला गणना करने में सहायक के तौर पर  दी थी। पैदल चलते हुए जैसे 100 कदम पूरे हाने पर माला के एक दाने को आगे खिसका दिया जाय। माला के 100 दानों का एक चक्र पूर्ण होते ही दस हजार कदम होते थे, जो पाँच मील की दूरी को प्रमाणित करता था। 

प्रशिक्षण पूर्ण करने के पश्चात सन् 1865 में पंडित नैन सिंह रावत नेपाल की राजधानी काठमांठू व उनका भाई माना सिंह लद्दाख के मार्ग से अपने अभियान में तिब्बत जाने के लिए प्रस्थान कर गए। नैन सिंह ने काठमांठू से तिब्बत जाने के लिए उन्होंने तिब्बत के लामाओं की तरह का भेष धारण किया और गुप्त रुप से तिब्बत की सीमा के अन्दर प्रवेश करने में सफल हो गए थे। प्रशिक्षण में मिले निर्देश के अनुसार, उनको मार्ग में बर्फ से ढके हुए ऊँचे पर्वत शिखरों, गहरी संकरी खाईयों से, सूखे पहाड़ों व निर्जन क्षेत्रों से होकर गुजरना पढ़ा। उन क्षेत्रों में वह पानी उबालकर तापमान से उस स्थान की ऊँचाई ज्ञात कर लेते थे। दिनभर में पैदल चले गए कदमों की सहायता से वह दूरी की गणना कर लते थे। उनका चचेरा भाई माना सिंह पश्चिमी मार्ग से तिब्बत जाने में प्रयास करने में सफल नही हो पाया था, अतः वह वापस आ गया था। लेकिन पंडित नैन सिंह अद्वितीय साहस के साथ गुप्त रुप से तिब्बत भ्रमण करते रहे और वहाँ की भौगोलिक जानकारियों को जुटाते रहे। दिन भर वह शहर से शहर घूमते रहते थे, रात में उन स्थानों का भौगोलिक आंकलन कर लिख लेते थे।

पंडित नैन सिंह रावत तिब्बती भिक्षु के रुप में एक हाथ में  धर्मचक्र लिए हुए रहते थे। धर्मचक्र में वह वह अपनी धरातलीय गणना को छुपाने के लिए करते थे। एक स्थान से दूसरे स्थान तक की दूरी, उस स्थान की समुद्र तल से ऊँचाई, नदी, झील व वहाँ पाए जाने वाली फसलों का विवरण वह कागज में लिखकर धर्मचक्र में छिपा देते थे। कई बार नैन सिंह रावत तिब्बत में एक भेदिये के तौर पकड़े जाने से अपने बुद्धि कौशल से बाल-बाल बचे। असाधारण साहस के धनी, परिश्रमी, लगनशील अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, रात दिन अपने कार्य को पूर्ण करने की धुन में ब्यापारियों के साथ सन् 1866 में तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँचने में सफल हो गए थे। 

तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँचने वाले पंडित नैन सिंह रावत प्रथम ब्रिटिश भारतीय सर्वेयर बने। तिब्बत देश अंग्रेज सरकार के एक रहस्यमय देश बना हुवाँ था। पंडीत नैन सिंह रावत की जीवटता व अतुलनीय साहस से भरी हुई गोपनीय तरीके से की गई यात्रा से प्राप्त जानकारियों से तिब्बत का रहस्य छिपा नही रह गया था। सांगपो नदी की उपरी घाटी में 18 माह तक पैदल चलते हुए, एक-एक कदम की गणना करते हुए 2000 किलोमीटर की यात्रा अपने 25,00,000 नपे तुले कदमों से पूर्ण किये। पंडीत नैन सिंह रावत ने ही प्रथम बार यह रहस्योद्घाटन किया कि तिब्बत में बहने वाली सांगपो नदी को भारत में ब्रह्मपुत्र नदी के नाम से जाना जाता है।

पंडित नैन सिंह रावत ने एक उच्च शिक्षित सिद्धहस्त अन्वेषक की तरह बिना आधुनिक उपकरणों से अपनी प्रखर वैज्ञानिक दृष्टी के साथ तापमान, क्वथनांक, अक्षांश, देशान्तर व समुद्रतल से ऊँचाई की गणना बहुत शुद्धता के साथ किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने तिब्बत में स्थित सोना, सुहागा तथा नमक की खानों को बहुत गहराई से भौगोलिक स्थिति को मानचित्र में दर्शाया।

उस कालखंड में तिब्बत ने भारतवर्ष में अधिकार जमाकर बैठे मुगलों, भारतियों व अंग्रेजों को अपने देश में प्रवेश नही करने दिया था। वही असाधारण व्यक्तित्व के धनी पंडीत नैन सिंह रावत ने तिब्बत के भू-भाग को अपने कदमों से नाप कर, कविता के रुप में वहाँ के शहरों, नदियों व झीलों को याद कर विश्वमानचित्र में तिब्बत को दर्शा कर एक अद्वितीय कार्य किया। पंडीत नैन सिंह रावत की उस समय स्वयं के प्रयास से अकेले रात के समय तारों को देखकर दिशा का अनुमान लगाकर, पैदल चलते हुए अपने एक-एक कदम को ध्यान में रखते हुए, माला के मानकों के सहारे गणना करते हुए, मानसरोवर के मार्ग से 1200 मील की यात्रा को पूर्ण करके सन् 1866 के अंत में सफलता पूर्वक भारत लौट आए। 

तिब्बत के भौगोलिक जानकारी लेने के प्रवास में पंडित नैन सिंह रावत तिब्बत के धरातलीय ज्ञान, वहाँ की संस्कृति, रहन सहन व भाषा में अत्यधिक पारंगत हो चुके थे। ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत की ओर अधिक भौगोलिक जानकारियों को लेने के लिए पंडीत नैन सिंह रावत को पुनः द्वितीय अभियान में सन् 1867 में तिब्बत भेजा। पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी द्वितीय तिब्बत यात्रा चमोली में स्थित भारत के अंतिम गाँव माणा से तिब्बत में प्रवेश किया था। तिब्बत के थोक जालूंम क्षेत्र में जाकर सोने की खानों के बारे जानकारी एकत्र की। उन्होंने प्रथम यात्रा के अनुभव की सहायता से पश्चिम तिब्बत की भौगोलिक जानकारियां प्राप्त की।  

पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी तृतीय और अंतिम तिब्बत यात्रा भिक्षु के वेश में लद्दाख से तिब्बत की सीमा के अन्दर गुप्त तरीके प्रवेश किया था। तिब्बत की पश्चिमी सीमा से लेकर ल्हासा होकर पूर्वी सीमा तक की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करके अरुणाचल प्रदेश के तवांग तक पैदल यात्रा करके अपनी तृतीय यात्रा को समाप्त किया। पंडित नैन सिंह रावत से प्रेरित होकर उनके चचेरे भाईयों किशन सिंह व कल्याण सिंह ने भी तिब्बत की गुप्त रुप से यात्रायें की और कई महत्वपूर्ण भौगोलिक जानकारी जुटाकर सर्वेक्षण विभाग के कैप्टन मॉण्टगुमरी को तिब्बत का सटीक मानचित्र निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया।

असाधारण विलक्षण प्रतिभा के धनी पंडित नैन सिंह रावत का तीन बार तिब्बत की यात्रा की, इन यात्राओं में तिब्बत की भौगोलिक जानकारी के साथ ही वहाँ के समाजिक परिवेश, प्राकृतिक स्थिति, कृषी संबधित तथा उपलब्ध खनिज संपदा के बारे में ज्ञान अर्जित किया। वह अपनी आँखों से जो देख लेते थे उसको वह अपनी डायरी में लिख लेते थे। तिब्बत में सोने की खानों के बारे में विश्व पटल में सर्वप्रथम पंडीत नैन सिंह रावत ने जानकारी उपलब्ध कराई। पर्वतों के शिखर की ऊँचाई हो या सड़कांे की दूरी या किसी शहर की अक्षांश व देशान्तर की गणना की सटीक थी। उस समय इस प्रकार की गणना करने में अत्यधिक समय, धैर्य व एकाग्रता की अवश्यकता होती थी। पंडीत नैन सिंह रावत की तब की गई गणना और वर्तमान समय के आधुनिक उपकरणों से की गई गणना के लगभग एक समान है।

औपनिेवेशिक भारत के सर्वेक्षण विभाग के एक कर्मचारी पंडीत नैन सिंह रावत को इंग्लैन्ड के लंदन स्थित रॉयल जियाग्रोफिकल सोसाईटी ने हमारे देश के महान खोजकर्ता, मानचित्रकार व असाधारण प्रतिभा के धनी पंडीत नैन सिंह रावत को अपना विशेष पदक देते हुए उस समय के विख्यात विद्वान व साहित्यकार सर हेनरी यूले ने कहा था,

“पंडित नैन सिंह रावत ने एशिया का मानचित्र पूर्ण करने जो भौगोलिक जानकारियां उपलब्ध कराई है वह किसी अन्य खोजकर्ता से बहुत अधिक है।”

वास्तव में पंडित नैन सिंह रावत ने एक असंभव समझे गए कार्य को अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, शासन के आदेश का आज्ञापालन का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करते हुए, एक असाधारण अन्वेषण का अभूतपूर्व कार्य किया था। पंडीत नैन सिंह रावत को ब्रिटिश शासकों ने अपने शासनकाल में भरपूर सम्मान दिया था।

ब्रिटिश शासकों ने पंडित नैन सिंह रावत को पुरूस्कार स्वरुप बरेली में एक गाँव की जागीर तथा नकद धनराशि देकर उनको सम्मानित किया था। यूरोपीय देश फ्रांस की राजधानी पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उनको स्वर्ण जड़ीत घड़ी उपहार स्वरुप दी। 

पंडित नैन सिंह रावत ने अपने जीवन का अधिकांश समय खोज यात्राओं एवम् मानचित्र बनाने में व्यतित किया था। एक फरवरी सन् 1895 में दिल का दौरा पढ़ने से महान अन्वेषक, सर्वेयर व मानचित्रकार  पंडित नैन सिेह रावत की मृत्यु हो गयी थी।

देश में ब्रिटिश शासन समाप्त होने पश्चात स्वतंत्रत भारत में महान खोजकर्ता, मानचित्रकार एवम् सर्वेयर पंडित नैन सिंह रावत का किया गया असाधारण अन्वेषण कार्य दस्तावेजों में दबा रह गया। सूदूर सीमांत जिला पिथौरागढ़ के मुनस्यारी के रहने वाले महान अन्वेषक, मानचित्रकार, विज्ञानी सोच को रखने वाले कर्मठ व अद्वितीय साहस के पर्याय पंडीत नैन सिंह रावत गुमनाम रह गए। असाधारण कार्य करने वालों को भले ही शासन भूल जाता है, लेकिन जिस भूमि में वह जन्म लेते है, उस भूमि में निवास करने वालों की वंश पीढ़ी उनको याद करते रहती है। असाधारण कर्म करने वालों की कर्मठता का प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है।

असाधारण कर्म की कर्मठता का प्रकाश जब किसी विद्वान व्यक्ति तक पहुँचता है, तो वह विद्वान व्यक्ति उस प्रकाश के स्त्रोत को ओर अधिक उर्जा देकर उसके प्रकाश को सर्वत्र फैला देता है। पिथौरागढ़ के  विद्वान शिक्षाविद्, साहित्यकार एवम् इतिहासकार डाक्टर राम सिंह ने महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत की तिब्बत की गुप्त रुप से भौगोलिक जानकारी लेने के बारे में तथ्य परख लेख लिखकर, हमारे देश के बुद्धिजिवियों के समक्ष एक महान अन्वेषक की कर्मठता, त्याग व जोखिम से भरी जीवन यात्रा को प्रकाशित किया।

डाक्टर राम सिंह ने सर्व प्रथम दो अक्टूबर व 26 अक्टूबर सन् 1967 को पंडीत नैन सिंह रावत की डायरी को “एक प्रख्यात भौगोलिक अन्वेषक की डायरी-।,।।” शीर्षक नाम से अरुणोदय सोविनियर पिथौरागढ़ में प्रकाशित किया।

डाक्टर राम सिंह ने सन् 1999 में ‘पंडीत नैन सिंह रावत का यात्रा साहित्स’ विश्वविख्यात भौगोलिक अन्वेषक की स्व हस्त लिखित डायरी का प्रथम बार प्रकाशन किया प्रेम ग्रन्थ भनार टनकपुर जिला चंपावत से किया था। डाक्टर राम सिंह, पंडीत नैन सिंह रावत की तिब्बत की भौगोलिक अन्वेषण की जिजीविषा को आम जन तक पहुँचाने का हर संभव प्रयास करते रहे।

डाक्टर राम सिंह ने 26 सितंबर सन् 2001 में आम जन को जाग्रत करने व शासकों की कुंभ कर्णी नींद से जगाने के लिए  ‘पं. नैन सिंह रावत : एक विस्मृत महान् भौगोलिक अन्वेषक’  शीर्षक नाम से पिथौरागढ़ के स्थानीय समाचार पत्र, पर्वत पीयूस, में लेख लिखा।

डाक्टर राम सिंह ने अनेक राष्ट्र स्तर की पत्रिकाओं में महान अन्वेषक पंडित नैन सिंह रावत के कर्मठ कार्यो को अपने लेखन से आम जनता को अवगत कराया। डाक्टर राम सिंह के लिखे लेखों के द्वारा पंडित नैन सिंह रावत के बारे में देश का आम नागरिक परिचित हुवा। 

उसके पश्चात विद्वान लेखक शेखर पाठक व विदुषी उमा भट्ट ने पंडीत नैन सिंह रावत के बारे में गहन अध्यन व शोध के पश्चात सयुक्त रुप से ‘एशिया की पीठ पर’ नाम की पुस्तक लिखी। यह पुस्तक बहुत अच्छी लिखी गयी है। अध्यनशील पाठकों को यह पुस्तक बहुत अधिक पसंद आयी है। अन्वेषण के क्षेत्र में इस पुस्तक को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है।

अवकाश प्राप्त आई.ए.एस. अधिकारी एस एस पांगती ने भी ‘सागा ऑफ नेटिव एक्सफ्लोरर’ पुस्तक लिखी है। डरेक वालेर ने भी ‘द पंडीत्स’ शीर्षक नाम से पंडीत नैन सिंह रावत के बारे पुस्तक की रचना की है।

पंडित नैन सिंह रावत किसी उच्च शिक्षण संस्थान से शिक्षित नही थे। लेकिन स्वयं हिन्दी, तिब्बती, फारसी व अंग्रेजी भाषा के ज्ञानी थे। वह रोज होने वाले कार्यो का विवरण अपनी दैनंदनी में लिख लेते थे। उन्होंने ‘अक्षांश दर्पण और ‘इतिहास रावत कौम’ नामक दो पुस्तक लिखी थी। 

‘अक्षांश दर्पण’ को प्रबुद्धजन हिन्दी की प्रथम विज्ञान पुस्तक के समान महत्व देते है। उनकी यात्रा दैनंदनी को भूगोल के शोध छात्र ग्रन्थ समान मानते है। 

भारतीय डाक तार विभाग ने पंडित नैन सिंह रावत के अन्वेषण के लगभग 140 वर्ष के बाद 27 जून सन् 2004 को उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया। 

विश्व के महान अन्वेशक क्रिस्टोफर कोलंबस, वास्कोडीगामा तथा कैप्टन कुक की साहसिक अन्वेषण की कहानियां प्रत्तेक देश के नागरिकों को ज्ञात हैं। विश्व की विभिन्न भाषाओं  में इन महान अन्वेषकों के बारे में लिखा गया है। प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालयों तक पाठ्य पुस्तकों में इनकी रोमांचकारी साहस से भरी कहानियाँ दर्ज है। इसलिए यह महान अन्वेषक विश्वविख्यात है। इन महान अन्वेषकों का अन्वेषण का उद्देश्य धन संपत्ति अर्जित करना था। परन्तु हमारे देश के महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत का उद्देश्य मात्र भौगोलिक ज्ञान अर्जित करना था। 

अगर विश्व के महान अन्वेषकों व अपने देश के महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत की तुलना करै तो पंडीत नैन सिंह रावत का अन्वेषण विश्व के अन्य अन्वेषकों की अपेक्षा अधिक जोखिम पूर्ण व साहसिक था। उदाहरण के तौर पर क्रिस्टोफर कोलंबस के अन्वेषण कार्य का अवलोकन करै तो कोलंबस के साथ तीन पानी के जहाज थे, जिसमें उस समय के आधुनिक खोजी उपकरण सहीत जहाजों में उदर पूर्ती के लिए भरपूर खाद्य सामाग्री का भंडार रखा हुवाँ था, साथ में 90 कुशल नाविकों का दल साथ था। इन महान अन्वेषकों का खोज अभियान दो या तीन माह में पूर्ण हो गया था।

पंडित नैन सिंह रावत अपनी अन्वेषण यात्रा में पैदल चलते हुए, वेश बदल-बदलकर, कभी व्यापाीरयों के काफिले में सेवक बनकर, कभी बौद्ध भिक्षु बनकर तो कभी नितांत अकेले यात्रा कर रहे थे।  दुर्गम, बनस्पति विहीन गगन चुम्बी बर्फिली पर्वत श्रृंखलायें, गहरी संकरी खांईयाँ, नदी, झील तथा मानव विहीन विरान मरुस्थल को अपने कदमों से पैमाना बनाकर नांपे थे। न स्वयं के खाने का कुछ बन्दोबस्त न रहने का कोई ठौर-ठिकाना था। इनके खोज अभियान का समय एक वर्ष से अधिक की थी।

विश्व के अन्य महान अन्वेषकों की अपेक्षा हमारे देश के महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत गुमनाम रहे। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश की विभिन्न भाषाओं में, प्रत्तेक राज्य की राजभाषा की पत्र, पत्रिकाओं में पंडीत नैन सिंह रावत के असाधारण साहसिक अन्वेषण के बारे लिखा जाय। पाठ्य पुस्तकों उनके बारे में अधिक से अधिक पढ़ाया जाय। तभी हमारे देश की भावी भविष्य की पीढ़ी को पंडीत नैन सिंह रावत के साहसिक अन्वेषण के इतिहास के बारे में ज्ञान होगा।

−प्रकाश चंद्र पुनेठा 

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