
बिहार में तीन व्यंजन बड़े लोकप्रिय हैं । पहला है चौड़ा पोहा या चिवड़ा और दही , दूसरा लिट्टी चोखा और तीसरा सर्वाधिक लोकप्रिय सत्तू । हमारे नगर में अनेक बिहारी रहते हैं , भेल बनने पर आए उनमें से कईं मित्र भी हैं । 150 साल पहले जब कर्नल प्रॉबी काटले ने हरिद्वार से कानपुर तक नहर बनाने का काम कानपुर से हरिद्वार की ओर उल्टा शुरू किया था ।
नतीजा यह निकला कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से हजारों मजदूर हरिद्वार रुड़की आ बसे । नहर बन जाने के बाद ठेले चलाने लगे और अनाज मंडी , घास मंडी आदि में पल्लेदारी करने लगे । सावन भादों में दोपहर बाद ढोलक की थाप पर गीत गाते थे । एक लोकगीत बड़ा प्रचलित और पसंदीदा था । वह था —
आई सतुवन की बहार मुंछवा मुंडाए डालो … बरसात के मौसम में कटोरे भर भर सत्तू पियेंगे , मूंछें कटोरे में न डूब जाएं सो मुंडा डालो ।
आजकल बिहार में बड़ी रौनक है । लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व चुनाव जो आ गया त्यौहारों के मौसम में , तो रौनक तो होगी ही । आइए अब बिहार की उस खिचड़ी की बात करें जो इन दिनों चूल्हों पर चढ़ी है , राजनीति के गलियारों में खुदबुदा रही है । बेशक अभी तक पकी नहीं है । आपको पता है न , इंटरनेशनल लेबल पर भारत के सबसे लोकप्रिय दो डिशेज क्या हैं ? तो बता दें कि वे हैं कढ़ी और खिचड़ी । जी हां , ठीक सुना आपने खिचड़ी ! समझ जाइए कथित बिरयानी नहीं सीधी सादी खिचड़ी ।
भारत के फाइव स्टार होटलों में भी मिलती है । लेकिन हम बात उस राजनैतिक खिचड़ी की कर रहे हैं जिसे चंद्रगुप्त , अशोक और चाणक्य के बिहार में सत्तर पार्टियां मिलकर पकाना चाहती हैं । परन्तु अभी तक सलीके से पका नहीं पा रही । पक तो जाएगी एक दिन , अब किसकी पकेगी , बताना मुश्किल । लगाते रहिए गणित और फैलाते रहिए आंकड़े ? खिचड़ी पकेगी , किसी की तो पकेगी , जो पकेगी , वह सरकार बनने के बाद भी पकती रहेगी । कईं दालों ही नहीं , पतले , मोटे , लम्बे , छोटे ; कईं किस्म के दाल चावलों से बनीं मशहूर बिहारी खिचड़ी । कईं तरह के छौंके और तड़के वाली खिचड़ी ।
तो साहब ! लिट्टी चोखा खाइए , सत्तू पीजिए या पोहा दही खाइए , आपकी मर्जी । चुनाव का मैदान सजा है , मुंछवा ” बढ़ाए ” डालो ?
…..कौशल सिखौला


