सर्दियों में रेवड़ियां बड़ी अच्छी लगती हैं । मेरठ में गुड और देसी घी से बने रेवड़ी और गजक दुनिया भर में मशहूर है । गुदड़ी बाजार को हम कभी नहीं भुला सकते चूंकि वह तो पूरा बाजार ही रेवड़ी बाजार है । बुढ़ाना गेट पर गोकुल और रामचंद्र कृष्णचंद्र सहाय की दुकानें तो उस समय देश में रेवड़ियों का सबसे बड़ा ब्रांड बन गई थीं , आज भी हैं ।
खांड और चीनी वाली रेवड़ी गजक शायद ही लखनऊ से बढ़िया कहीं बनती हों । गुलाब की खुशबू वाली ये रावड़ियाँ खाना शुरू करें तो जब तक डिब्बा आधा न हो जाए , काम नहीं चलता था । लखनऊ की गजक तो और भी लाजवाब है । मुरैना , आगरा और इंदौर में भी रेवड़ियाँ खूब बनती हैं । लेकिन मेरठ और लखनऊ के रेवड़ी गजक का आज भी कोई जवाब नहीं । यह और बात है कि रेवड़ी हजारों जगह बनती होंगी । बिकती तो देश भर में हैं ।
जी हां , हम असली रेवड़ियों की बात कर रहे हैं दोस्तों । आजकल राजनैतिक रेवड़ियाँ भी खूब बंट रही हैं । मुफ़्त की रेवड़ियों के जनक तो चचा केजरीवाल थे । आज तो पता नहीं कहां लुप्त हो गए । क्या करें हांकते ही इतनी बड़ी बड़ी थे कि बिग बॉस की बड़बोली तान्या मित्तल भी गश खाकर गिर पड़े । यद्यपि आजकल तो सभी हांक रहे हैं ।
केजरी बाबू को पीछे छोड़ने में लगे हैं अपने तेजस्वी बबुआ । लालू के फरजंद तेजस्वी ने तो लम्बे चौड़े बिहार के प्रत्येक घर को ही सरकारी नौकरी बांट डाली है । अब कौन नहीं जानता कि बिहारियों के लिए सरकारी नौकरी पाना जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य होता है । तो बबुआ ने फेंक दी रेवड़ियाँ । साथ में थमा दिया तेजस्वी प्रण । अपने नाम से इसलिए चूंकि लालू की चारा मंडी का एड्रेस तो सारे बिहारियों के पता है ?
तो रेवड़ियों की बात चली तो बता दें कि गुड तिल से बनीं रेवड़ियां होती लाजवाब हैं । जवानी में बड़ा मजा देती हैं । बुढ़ापे में जाड़ दांत साथ देना छोड़ दें तो गजक खाइए । गजक खाने में दांत की कम मुंह हिलाने और चबाने की ज्यादा जरूरत होती है , बाकी काम मसूड़े कर देते हैं । फिर आजकल बे दांत है ही कौन । ये गली गली बैठे डेंटिस्ट किसी को बे दांत छोड़ते कहां हैं । दांत नए उगा देते हैं ।
मोदी के आयुष्मान कार्ड तो 5 लाख के इलाज की बात थी । तेजस्वी व्रत में तो 25 लाख सालाना का इलाज होगा । तो रेवड़ियां खाने के लिए दांत भी उसी कार्ड में कवर करा देंगे । तब शौंक से खाना जमकर खाना रेवड़ियां । मेरठ और लखनऊ की खस्ता गजक रेवड़ियां ? कुछ कमी पड़ जाए तो संकोच न करना । अभी तक गायब थे । अब आ गए हैं दिल्ली वाले विदेश यात्री । वे भी तो दे जाएंगे थोड़ी बहुत फटाफट रेवड़ियां ? लेते जाइए , वोट जिसे देना हो देते जाइए ?
भारत की बेटियों ने इतिहास रच दिया! महिला क्रिकेट विश्वकप 2025 के सेमीफाइनल में भारत ने ऑस्ट्रेलिया को हराकर फाइनल में प्रवेश किया। यह जीत केवल खेल की नहीं, बल्कि नारी शक्ति, संघर्ष और आत्मविश्वास की प्रतीक है। स्मृति मंधाना, हरमनप्रीत कौर और दीप्ति शर्मा जैसी खिलाड़ियों के उत्कृष्ट प्रदर्शन ने दिखा दिया कि भारतीय महिलाएँ अब विश्व क्रिकेट की नई पहचान हैं। यह जीत हर उस बेटी के सपने का प्रमाण है जो सीमित साधनों में भी ऊँचा उड़ने का हौसला रखती है। अब कप दूर नहीं — जय हो भारतीय नारी शक्ति!
– डॉ. प्रियंका सौरभ
आज का दिन भारतीय खेल इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। महिला क्रिकेट विश्वकप 2025 के सेमीफाइनल में भारत ने विश्वविजेता ऑस्ट्रेलिया को हराकर फाइनल में शानदार प्रवेश किया है। यह केवल एक जीत नहीं, बल्कि उस साहस, समर्पण और संघर्ष की कहानी है जिसने भारत की बेटियों को क्रिकेट की दुनिया में सबसे ऊँचे मुकाम पर पहुँचा दिया है।
कभी वह दौर था जब महिला क्रिकेट को केवल औपचारिकता समझा जाता था। मैदान पर मैच तो होते थे, पर दर्शक नहीं आते थे। खिलाड़ियों को सामान्य सुविधाएँ मिलती थीं और पहचान लगभग न के बराबर थी। लेकिन इन बेटियों ने हार नहीं मानी। उन्होंने खेलना जारी रखा — धूप, धूल और कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए। मिथाली राज, झूलन गोस्वामी, हरमनप्रीत कौर और स्मृति मंधाना जैसी खिलाड़ियों ने उस दौर में भारतीय महिला क्रिकेट की नींव को मजबूत किया, जब समर्थन और साधन बहुत सीमित थे। आज उन्हीं के संघर्ष का परिणाम है कि भारत की युवा टीम आत्मविश्वास और जोश के साथ विश्व की सबसे शक्तिशाली टीम ऑस्ट्रेलिया को परास्त कर रही है।
यह जीत केवल एक मैच की सफलता नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और संयम की प्रतीक है। ऑस्ट्रेलिया, जिसने कई बार विश्वकप अपने नाम किया, के सामने भारतीय टीम ने बेहतरीन बल्लेबाज़ी, सटीक गेंदबाज़ी और चुस्त फील्डिंग का अद्भुत प्रदर्शन किया। हर चौके, हर विकेट पर पूरा मैदान “भारत माता की जय” से गूंज उठा। दर्शकों की आँखों में खुशी के आँसू थे, क्योंकि यह सिर्फ़ खेल की जीत नहीं, बल्कि भारतीय नारी शक्ति की प्रतिध्वनि थी। कप्तान ने निर्णायक क्षणों में जो साहसिक निर्णय लिए, उन्होंने साबित कर दिया कि यह टीम मानसिक रूप से भी उतनी ही सशक्त है जितनी शारीरिक रूप से।
यह सफलता अचानक नहीं आई। यह वर्षों की मेहनत, असफलताओं से सीखे गए सबक और अटूट लगन का परिणाम है। भारतीय महिला क्रिकेट अब केवल भावनात्मक प्रेरणा नहीं, बल्कि पेशेवर उत्कृष्टता का उदाहरण बन चुका है। खेल के मैदान में अब महिलाएँ सिर्फ़ भाग नहीं ले रही हैं — वे इतिहास रच रही हैं। क्रिकेट, जिसे कभी केवल पुरुषों का खेल माना जाता था, अब भारतीय बेटियों के नाम से गूंज रहा है। स्मृति मंधाना की शानदार बल्लेबाज़ी, हरमनप्रीत कौर की कप्तानी, शेफाली वर्मा की तेज़ शुरुआत और दीप्ति शर्मा की ऑलराउंड क्षमता ने साबित कर दिया कि भारतीय महिला टीम किसी भी परिस्थिति में जीत दर्ज करने का दम रखती है।
यह जीत केवल मैदान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन का संकेत भी है। गाँव-कस्बों से निकलकर, सीमित संसाधनों में पली-बढ़ी बेटियों ने यह दिखा दिया कि अगर संकल्प दृढ़ हो और अवसर मिले, तो कोई सपना असंभव नहीं। यह सफलता उन माता-पिताओं के लिए भी प्रेरणा है जो बेटियों को खेल में आगे बढ़ाने से हिचकते हैं। अब वे निश्चिंत होकर कह सकते हैं — “हमारी बेटी भी खेल सकती है, जीत सकती है और देश का नाम रोशन कर सकती है।”
भारतीय महिला क्रिकेट को आज जो लोकप्रियता और समर्थन मिल रहा है, वह ऐतिहासिक है। स्टेडियम की भीड़, टीवी चैनलों की टीआरपी और सोशल मीडिया के ट्रेंड यह दर्शाते हैं कि अब महिला क्रिकेट केवल खेल नहीं, बल्कि भावना बन चुका है। दर्शकों और मीडिया के इस समर्थन ने खिलाड़ियों का आत्मविश्वास कई गुना बढ़ा दिया है। अब बेटियाँ न केवल खेल रही हैं, बल्कि देश की नई पहचान गढ़ रही हैं।
अब सबकी निगाहें फाइनल पर हैं। भारतीय टीम ने जिस लय, अनुशासन और जोश के साथ खेला है, वह विश्वकप को भारत की झोली में डालने के लिए पर्याप्त है। हर खिलाड़ी जानती है कि यह केवल मैच नहीं, बल्कि इतिहास रचने का अवसर है। अब यह केवल ट्रॉफी का सवाल नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के सपनों का सम्मान है। फाइनल भारतीय नारी शक्ति का उत्सव होगा — यह दुनिया को दिखाएगा कि भारत की महिलाएँ केवल परिवार और समाज में ही नहीं, बल्कि खेल के मैदान में भी नेतृत्व कर सकती हैं।
आज की यह जीत एक संदेश है — कि मेहनत, अनुशासन और आत्मविश्वास से कोई भी बाधा बड़ी नहीं होती। भारत की बेटियाँ आज मैदान में नहीं, बल्कि इतिहास के पन्नों पर खेल रही हैं। उनके हाथों में बल्ला है, आँखों में लक्ष्य है, और दिल में असीम देशप्रेम है। यही वो शक्ति है जो भारत को नए युग की ओर ले जा रही है। अब चाहे ऑस्ट्रेलिया हो, इंग्लैंड या कोई और टीम — भारतीय महिला क्रिकेट अब किसी से डरना नहीं जानती। यह वह पीढ़ी है जो सपनों को साकार करने के लिए पैदा हुई है।
अब कप दूर नहीं। यह जीत एक नई सुबह की शुरुआत है। यह उन अनगिनत छोटी-छोटी बेटियों की प्रेरणा है जो किसी कोने में बल्ला थामे अपने सपनों को आकार दे रही हैं। यह जीत हर उस माँ की मुस्कान है जिसने अपनी बेटी को उड़ान भरने की आज़ादी दी। यह जीत हर उस पिता का गर्व है जिसने समाज की सोच से ऊपर उठकर अपनी बेटी को मैदान तक पहुँचाया।
भारतीय महिला टीम की इस ऐतिहासिक विजय को शत-शत नमन। यह केवल खेल की जीत नहीं, बल्कि राष्ट्र के आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना है। अब जब भारतीय तिरंगा फाइनल में लहराएगा, तो वह हर बेटी की मेहनत और हर माँ की प्रार्थना का परिणाम होगा।
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने 2026 की 12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा की अंतिम समय-सारिणी जारी कर दी है। इस बार बोर्ड ने जेईई मेन (JEE Main 2026) के अभ्यर्थियों से कहा है कि वे अपने आवेदन पत्र में 11वीं कक्षा की जानकारी भी दें, ताकि परीक्षा तिथियों में कोई टकराव न हो।
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड परीक्षा 2026 में कक्षा 12वीं की परीक्षाएं 17 फरवरी से 9 अप्रैल तक आयोजित होंगी। बोर्ड ने बताया कि इस शेड्यूल को बनाते समय विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं की तारीखों का ध्यान रखा गया है। परीक्षाएं सुबह 10:30 बजे से दोपहर 1:30 बजे तक चलेंगी। सीबीएसई ने यह भी स्पष्ट किया है कि परीक्षा में शामिल होने के लिए छात्र की कम से कम 75प्रतिशत उपस्थिति और आंतरिक मूल्यांकन स्कोर होना जरूरी है।
भारतीय सिनेमा का इतिहास जब-जब रचनात्मकता, सामाजिक संदेश और तकनीकी नवाचार की बात करता है, तो एक नाम सदा उज्ज्वल रूप से सामने आता है — वी. शांताराम। वे केवल अभिनेता या निर्देशक नहीं थे, बल्कि भारतीय फिल्म उद्योग के ऐसे शिल्पी थे जिन्होंने सिनेमा को मनोरंजन से आगे बढ़ाकर सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया। उनकी फिल्में कला, तकनीक और मानवीय संवेदना का अद्भुत संगम थीं।
प्रारंभिक जीवन
वी. शांताराम का पूरा नाम वैष्णव देवई शांताराम भाऊराव राजाराम भोसले था। उनका जन्म 18 नवंबर 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ। बचपन से ही वे कला और अभिनय में रुचि रखते थे। उनका जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा। वे एक साधारण परिवार से थे, लेकिन अपनी प्रतिभा, मेहनत और दूरदर्शिता से उन्होंने भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी।
अभिनय और निर्देशन की शुरुआत
शांताराम ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत 1920 के दशक में की। वे “महाराष्ट्र फिल्म कंपनी” से जुड़े, जो तत्कालीन मराठी फिल्मों के लिए प्रसिद्ध थी। उन्होंने 1921 में “सुरेखा हरन” फिल्म में एक छोटे से किरदार से अभिनय शुरू किया।
लेकिन उनका असली परिचय निर्देशक के रूप में हुआ, जब उन्होंने 1929 में मूक फिल्म “नेटाजी पालकर” का निर्देशन किया। इसके बाद उन्होंने “आयुध”, “माया मच्छिंद्र” जैसी फिल्मों से अपनी पहचान मजबूत की।
प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना
1930 में वी. शांताराम ने अपने साथियों के साथ मिलकर प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना की, जो भारत की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म स्टूडियो में से एक बनी। प्रभात फिल्म कंपनी ने भारतीय सिनेमा को सामाजिक और नैतिक विषयों पर केंद्रित फिल्में दीं।
शांताराम की शुरुआती फिल्मों में “अमर ज्योति” (1936), “दुनिया ना माने” (1937), और “आदमी” (1939) जैसी फिल्में शामिल थीं, जो महिलाओं की सामाजिक स्थिति, समानता और आत्मसम्मान जैसे विषयों पर आधारित थीं। उनकी फिल्में समाज को सोचने पर मजबूर करती थीं।
सामाजिक विषयों की फिल्मों के अग्रदूत
वी. शांताराम ने फिल्मों को मनोरंजन का साधन भर नहीं माना। उन्होंने फिल्मों को सामाजिक सुधार और जन-जागरण का माध्यम बनाया।
“दुनिया ना माने” में उन्होंने बाल विवाह और महिला उत्पीड़न जैसे मुद्दों को उठाया।
“डॉ. कोटनीस की अमर कहानी” (1946) में भारत-चीन मित्रता और मानवीय सेवा की भावना दिखाई।
“दो आंखें बारह हाथ” (1957) में उन्होंने अपराधियों के पुनर्वास की कहानी बताई — यह फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराही गई और बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार प्राप्त किया।
“जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली” (1971) उनकी बाद की रंगीन फिल्मों में से एक थी, जिसने तकनीकी दृष्टि से भारतीय सिनेमा को नई ऊंचाई दी।
उनकी फिल्में केवल कहानी नहीं थीं, बल्कि सामाजिक दस्तावेज़ थीं, जिनमें यथार्थ, संवेदना और संदेश का सुंदर मेल था।
अभिनय में विशिष्टता
वी. शांताराम ने जहाँ निर्देशन में अपनी पहचान बनाई, वहीं अभिनय में भी वे उतने ही कुशल थे। फिल्म “दो आंखें बारह हाथ” में उन्होंने स्वयं जेलर का किरदार निभाया, जिसमें उनका अभिनय सादगी और दृढ़ता से भरपूर था। उनकी आँखों और आवाज़ में वह असर था जो सीधे दर्शक के दिल तक पहुँचता था।
फिल्म निर्माण में प्रयोगशीलता
शांताराम भारतीय सिनेमा के प्रयोगशील फिल्मकार थे। उन्होंने ध्वनि, कैमरा और रंगों के साथ निरंतर प्रयोग किए। वे पहले भारतीय निर्देशकों में से एक थे जिन्होंने रंगीन फिल्मों का निर्माण किया। उनकी फिल्म “झनक झनक पायल बाजे” (1955) भारतीय रंगीन फिल्मों में मील का पत्थर मानी जाती है। इस फिल्म में नृत्य, संगीत, परंपरा और आधुनिक तकनीक का अद्भुत संगम था।
संगीत और सौंदर्य का संगम
वी. शांताराम की फिल्मों में संगीत का विशेष स्थान था। वे मानते थे कि संगीत केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। उनके निर्देशन में वसंत देसाई, सी. रामचंद्र और लता मंगेशकर जैसे कलाकारों ने यादगार काम किया।
“झनक झनक पायल बाजे”, “नवरंग” और “गीत गाया पत्थरों ने” जैसी फिल्मों के गीत आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में बसे हुए हैं।
पुरस्कार और सम्मान
वी. शांताराम के योगदान को देखते हुए उन्हें अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले।
पद्म भूषण (1992) से सम्मानित किया गया।
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार (1985) — जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है।
उनकी फिल्में “दो आंखें बारह हाथ” और “झनक झनक पायल बाजे” को राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए।
उनकी स्मृति में भारतीय फिल्म उद्योग ने “वी. शांताराम पुरस्कार” की स्थापना की है, जो उत्कृष्ट फिल्म निर्माण के लिए प्रतिवर्ष दिया जाता है।
व्यक्तिगत जीवन
वी. शांताराम का निजी जीवन भी उनके फिल्मों की तरह रोचक रहा। उन्होंने तीन विवाह किए। उनकी पत्नियों में प्रसिद्ध अभिनेत्री जयश्री गडकर और संध्या शामिल थीं, जो उनकी कई फिल्मों में नायिका रहीं। संध्या के साथ उनकी जोड़ी को “नवरंग” और “झनक झनक पायल बाजे” जैसी फिल्मों में दर्शकों ने बेहद पसंद किया।
निधन और विरासत
30 अक्टूबर 1990 को वी. शांताराम का निधन हुआ। उनके निधन के साथ भारतीय सिनेमा ने एक ऐसे युगपुरुष को खो दिया जिसने फिल्मों को कला, समाज और नैतिकता से जोड़ा।
आज भी उनके द्वारा स्थापित “राजकमल कलामंदिर” स्टूडियो भारतीय सिनेमा की ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है।
निष्कर्ष
वी. शांताराम केवल एक फिल्मकार नहीं थे — वे एक दर्शनशास्त्री, समाज सुधारक और कलाकार थे, जिन्होंने कैमरे को समाज का दर्पण बना दिया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि मानवता का संदेश देने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है।
उनकी हर फिल्म अपने आप में एक विचार, एक प्रेरणा और एक सामाजिक क्रांति थी। भारतीय सिनेमा की आत्मा में आज भी वी. शांताराम के सुर, दृश्य और विचार गूंजते हैं — वे सिनेमा के उस स्वर्ण युग के प्रतीक हैं जहाँ कला, समाज और सत्य एक साथ चलते थे।
वी. शांताराम — एक नाम, एक युग, और भारतीय सिनेमा का अमर अध्याय।प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता और निर्देशक वी. शांताराम : भारतीय सिनेमा के युगपुरुष
भारतीय सिनेमा का इतिहास जब-जब रचनात्मकता, सामाजिक संदेश और तकनीकी नवाचार की बात करता है, तो एक नाम सदा उज्ज्वल रूप से सामने आता है — वी. शांताराम। वे केवल अभिनेता या निर्देशक नहीं थे, बल्कि भारतीय फिल्म उद्योग के ऐसे शिल्पी थे जिन्होंने सिनेमा को मनोरंजन से आगे बढ़ाकर सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया। उनकी फिल्में कला, तकनीक और मानवीय संवेदना का अद्भुत संगम थीं।
प्रारंभिक जीवन
वी. शांताराम का पूरा नाम वैष्णव देवई शांताराम भाऊराव राजाराम भोसले था। उनका जन्म 18 नवंबर 1901 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ। बचपन से ही वे कला और अभिनय में रुचि रखते थे। उनका जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा। वे एक साधारण परिवार से थे, लेकिन अपनी प्रतिभा, मेहनत और दूरदर्शिता से उन्होंने भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी।
अभिनय और निर्देशन की शुरुआत
शांताराम ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत 1920 के दशक में की। वे “महाराष्ट्र फिल्म कंपनी” से जुड़े, जो तत्कालीन मराठी फिल्मों के लिए प्रसिद्ध थी। उन्होंने 1921 में “सुरेखा हरन” फिल्म में एक छोटे से किरदार से अभिनय शुरू किया।
लेकिन उनका असली परिचय निर्देशक के रूप में हुआ, जब उन्होंने 1929 में मूक फिल्म “नेटाजी पालकर” का निर्देशन किया। इसके बाद उन्होंने “आयुध”, “माया मच्छिंद्र” जैसी फिल्मों से अपनी पहचान मजबूत की।
प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना
1930 में वी. शांताराम ने अपने साथियों के साथ मिलकर प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना की, जो भारत की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म स्टूडियो में से एक बनी। प्रभात फिल्म कंपनी ने भारतीय सिनेमा को सामाजिक और नैतिक विषयों पर केंद्रित फिल्में दीं।
शांताराम की शुरुआती फिल्मों में “अमर ज्योति” (1936), “दुनिया ना माने” (1937), और “आदमी” (1939) जैसी फिल्में शामिल थीं, जो महिलाओं की सामाजिक स्थिति, समानता और आत्मसम्मान जैसे विषयों पर आधारित थीं। उनकी फिल्में समाज को सोचने पर मजबूर करती थीं।
सामाजिक विषयों की फिल्मों के अग्रदूत
वी. शांताराम ने फिल्मों को मनोरंजन का साधन भर नहीं माना। उन्होंने फिल्मों को सामाजिक सुधार और जन-जागरण का माध्यम बनाया।
“दुनिया ना माने” में उन्होंने बाल विवाह और महिला उत्पीड़न जैसे मुद्दों को उठाया।
“डॉ. कोटनीस की अमर कहानी” (1946) में भारत-चीन मित्रता और मानवीय सेवा की भावना दिखाई।
“दो आंखें बारह हाथ” (1957) में उन्होंने अपराधियों के पुनर्वास की कहानी बताई — यह फिल्म अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराही गई और बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार प्राप्त किया।
“जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली” (1971) उनकी बाद की रंगीन फिल्मों में से एक थी, जिसने तकनीकी दृष्टि से भारतीय सिनेमा को नई ऊंचाई दी।
उनकी फिल्में केवल कहानी नहीं थीं, बल्कि सामाजिक दस्तावेज़ थीं, जिनमें यथार्थ, संवेदना और संदेश का सुंदर मेल था।
अभिनय में विशिष्टता
वी. शांताराम ने जहाँ निर्देशन में अपनी पहचान बनाई, वहीं अभिनय में भी वे उतने ही कुशल थे। फिल्म “दो आंखें बारह हाथ” में उन्होंने स्वयं जेलर का किरदार निभाया, जिसमें उनका अभिनय सादगी और दृढ़ता से भरपूर था। उनकी आँखों और आवाज़ में वह असर था जो सीधे दर्शक के दिल तक पहुँचता था।
फिल्म निर्माण में प्रयोगशीलता
शांताराम भारतीय सिनेमा के प्रयोगशील फिल्मकार थे। उन्होंने ध्वनि, कैमरा और रंगों के साथ निरंतर प्रयोग किए। वे पहले भारतीय निर्देशकों में से एक थे जिन्होंने रंगीन फिल्मों का निर्माण किया। उनकी फिल्म “झनक झनक पायल बाजे” (1955) भारतीय रंगीन फिल्मों में मील का पत्थर मानी जाती है। इस फिल्म में नृत्य, संगीत, परंपरा और आधुनिक तकनीक का अद्भुत संगम था।
संगीत और सौंदर्य का संगम
वी. शांताराम की फिल्मों में संगीत का विशेष स्थान था। वे मानते थे कि संगीत केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। उनके निर्देशन में वसंत देसाई, सी. रामचंद्र और लता मंगेशकर जैसे कलाकारों ने यादगार काम किया।
“झनक झनक पायल बाजे”, “नवरंग” और “गीत गाया पत्थरों ने” जैसी फिल्मों के गीत आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में बसे हुए हैं।
पुरस्कार और सम्मान
वी. शांताराम के योगदान को देखते हुए उन्हें अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले।
पद्म भूषण (1992) से सम्मानित किया गया।
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार (1985) — जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है।
उनकी फिल्में “दो आंखें बारह हाथ” और “झनक झनक पायल बाजे” को राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए।
उनकी स्मृति में भारतीय फिल्म उद्योग ने “वी. शांताराम पुरस्कार” की स्थापना की है, जो उत्कृष्ट फिल्म निर्माण के लिए प्रतिवर्ष दिया जाता है।
व्यक्तिगत जीवन
वी. शांताराम का निजी जीवन भी उनके फिल्मों की तरह रोचक रहा। उन्होंने तीन विवाह किए। उनकी पत्नियों में प्रसिद्ध अभिनेत्री जयश्री गडकर और संध्या शामिल थीं, जो उनकी कई फिल्मों में नायिका रहीं। संध्या के साथ उनकी जोड़ी को “नवरंग” और “झनक झनक पायल बाजे” जैसी फिल्मों में दर्शकों ने बेहद पसंद किया।
निधन और विरासत
30 अक्टूबर 1990 को वी. शांताराम का निधन हुआ। उनके निधन के साथ भारतीय सिनेमा ने एक ऐसे युगपुरुष को खो दिया जिसने फिल्मों को कला, समाज और नैतिकता से जोड़ा।
आज भी उनके द्वारा स्थापित “राजकमल कलामंदिर” स्टूडियो भारतीय सिनेमा की ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है।
निष्कर्ष
वी. शांताराम केवल एक फिल्मकार नहीं थे — वे एक दर्शनशास्त्री, समाज सुधारक और कलाकार थे, जिन्होंने कैमरे को समाज का दर्पण बना दिया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि मानवता का संदेश देने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है।
उनकी हर फिल्म अपने आप में एक विचार, एक प्रेरणा और एक सामाजिक क्रांति थी। भारतीय सिनेमा की आत्मा में आज भी वी. शांताराम के सुर, दृश्य और विचार गूंजते हैं — वे सिनेमा के उस स्वर्ण युग के प्रतीक हैं जहाँ कला, समाज और सत्य एक साथ चलते थे।
वी. शांताराम — एक नाम, एक युग, और भारतीय सिनेमा का अमर अध्याय।
हिंदी सिनेमा के स्वर्ण युग में कई ऐसे कलाकार हुए जिन्होंने अपनी सादगी, गहराई और सहज अभिनय से दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी। इनमें से एक नाम था विनोद मेहरा — एक ऐसे अभिनेता जिनके अभिनय में भावनाओं की सच्चाई, चेहरे पर गजब की मासूमियत और संवादों में अद्भुत संवेदना झलकती थी। वे न तो किसी विशेष नायक की तरह ऊँची आवाज़ में संवाद बोलते थे, न ही उनका अंदाज़ आक्रामक था, पर उनकी सादगी ही उनकी सबसे बड़ी पहचान बन गई।
प्रारंभिक जीवन
विनोद मेहरा का जन्म 13 फरवरी 1945 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। उनका परिवार बाद में मुंबई आ गया, जहाँ से उन्होंने अपनी शिक्षा प्राप्त की। बचपन से ही उन्हें फिल्मों का शौक था और उनकी अभिनय यात्रा की शुरुआत बाल कलाकार के रूप में फिल्म बेहरूपिया (1952) से हुई थी। आगे चलकर उन्होंने फिल्मों में सहायक भूमिकाओं से शुरुआत की और धीरे-धीरे मुख्य अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई।
फिल्मी करियर की शुरुआत
विनोद मेहरा का पहला प्रमुख ब्रेक फिल्म “एक थी रीता” (1971) से मिला, जिसने उन्हें हिंदी सिनेमा में स्थापित कर दिया। इसके बाद उन्होंने अनेक फिल्मों में अपनी अभिनय प्रतिभा का परिचय दिया। 1970 और 1980 के दशक में वे रोमांटिक, भावनात्मक और पारिवारिक किरदारों के लिए जाने जाने लगे। उनकी अभिनय शैली बहुत स्वाभाविक थी—वे किरदारों को जीते थे, निभाते नहीं।
उनकी प्रमुख फिल्मों में “अनुराग” (1972), “लाल पत्थर” (1971), “गृहप्रवेश” (1979), “स्वयंवर” (1980), “अमर प्रेम” (1972), “नमक हराम” (1973), “घर” (1978), “जानी दुश्मन” (1979), “बेइमान”, “खूबसूरत” (1980) और “अखराई” जैसी अनेक फ़िल्में शामिल हैं।
अभिनय शैली
विनोद मेहरा की अभिनय कला का सबसे बड़ा गुण था—संवेदनशीलता और सरलता। वे अपने चेहरे के भावों से गहरी भावनाएँ व्यक्त कर देते थे। उन्हें अक्सर ऐसे किरदारों में देखा गया जो ईमानदार, दयालु, जिम्मेदार और प्रेम में सच्चे होते थे। फिल्म “घर” में रेखा के साथ उनका अभिनय आज भी याद किया जाता है, जिसमें उन्होंने एक ऐसे पति का किरदार निभाया जो अपनी पत्नी के साथ हुए अपराध के बाद मानसिक और सामाजिक संघर्ष से गुजरता है। इस फिल्म ने उन्हें समीक्षकों की सराहना दिलाई।
फिल्म “गृहप्रवेश” में उनका अभिनय एक सामान्य पति की दुविधाओं और भावनाओं को बेहद यथार्थ ढंग से पेश करता है। वहीं “अमर प्रेम” और “नमक हराम” जैसी फिल्मों में उन्होंने सहायक भूमिकाओं में भी ऐसा असर छोड़ा कि दर्शक उन्हें भूल नहीं सके।
सह-कलाकारों के साथ संबंध
विनोद मेहरा को उनके सह-अभिनेताओं द्वारा बहुत पसंद किया जाता था। वे अपने विनम्र स्वभाव और सौम्य व्यक्तित्व के कारण फिल्म जगत में सबके प्रिय थे। उन्होंने राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, रेखा, मौसमी चटर्जी, शर्मिला टैगोर, और बिंदिया गोस्वामी जैसे सितारों के साथ काम किया। खास बात यह थी कि हर बड़ी जोड़ी के बीच भी उनका अभिनय अपना अलग प्रभाव छोड़ता था।
व्यक्तिगत जीवन
विनोद मेहरा का व्यक्तिगत जीवन काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा। उन्होंने कई बार विवाह किया। उनका नाम अभिनेत्री रेखा के साथ भी जुड़ा, हालांकि यह रिश्ता कभी सार्वजनिक रूप से स्थायी नहीं हुआ। बाद में उन्होंने किरण से विवाह किया, जिनसे उन्हें दो संतानें—सोनिया मेहरा और रोहन मेहरा—हुए। रोहन मेहरा ने भी फिल्मों में कदम रखा।
अचानक मृत्यु
विनोद मेहरा का जीवन जितना सादगीपूर्ण था, उतना ही उनका अंत अचानक और दुखद था। 30 अक्टूबर 1990 को मात्र 45 वर्ष की आयु में हृदयाघात से उनका निधन हो गया। उनकी असमय मृत्यु ने फिल्म उद्योग को गहरे शोक में डाल दिया। उस समय वे कई फिल्मों की शूटिंग कर रहे थे, जिनमें कुछ फिल्में बाद में रिलीज़ हुईं, जैसे “गुरुदेव” (1993)।
विरासत और योगदान
विनोद मेहरा ने लगभग 100 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। उन्होंने फिल्मों में वह स्थान पाया जो अभिनय की सादगी और भावनात्मक गहराई का प्रतीक माना जाता है। वे उन कुछ अभिनेताओं में थे जिन्होंने अपने अभिनय से यह साबित किया कि बड़े स्टारडम के बिना भी कोई कलाकार दर्शकों के दिलों में अमर हो सकता है।
उनकी बेटी सोनिया मेहरा ने फिल्म रागिनी एमएमएस 2 से अभिनय में कदम रखा, जबकि बेटे रोहन मेहरा ने बाजार (2018) जैसी फिल्मों में अपनी प्रतिभा दिखाई।
निष्कर्ष
विनोद मेहरा हिंदी सिनेमा के उन कलाकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने बिना किसी दिखावे, बिना किसी विवाद के, अपने सच्चे अभिनय और सौम्य व्यक्तित्व से सिनेमा को समृद्ध किया। वे एक ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने प्रेम, त्याग, संघर्ष और मानवीय भावनाओं को परदे पर इतनी ईमानदारी से उतारा कि दर्शक आज भी उन्हें याद करते हैं।
उनकी मुस्कान, उनका शांत चेहरा और उनकी भावनाओं की गहराई आज भी हिंदी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में जीवित है। विनोद मेहरा भले ही अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका योगदान हमेशा हिंदी फिल्म इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा।
भारतीय संगीत की दुनिया में जब भी ठुमरी, ग़ज़ल और दादरा की चर्चा होती है, तो सबसे पहले जिस नाम की याद आती है, वह है बेगम अख्तर। उनकी गायकी में दर्द की गहराई, सुरों की मिठास और भावों की सच्चाई थी। वे न केवल एक महान गायिका थीं, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में ग़ज़ल और ठुमरी को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाली अग्रदूत भी थीं। उन्हें संगीत प्रेमी ससम्मान “मल्लिका-ए-ग़ज़ल” यानी ग़ज़लों की रानी के नाम से जानते हैं।
प्रारंभिक जीवन
बेगम अख्तर का जन्म 7 अक्टूबर 1914 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (अब अयोध्या) में हुआ था। उनका असली नाम अख्तरी बाई फ़ैज़ाबादी था। बचपन से ही उनके भीतर संगीत के प्रति गहरी रुचि थी। परिवार में विरोध के बावजूद उन्होंने संगीत को ही अपना जीवन बना लिया। उनके संगीत गुरु उस्ताद इमरात खान, उस्ताद अताउल्ला खान, और बाद में उस्ताद झंडे खाँ साहब रहे, जिन्होंने उन्हें ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल गायन की बारीकियाँ सिखाईं।
संगीत यात्रा की शुरुआत
अख्तरी बाई ने किशोरावस्था में ही मंच पर गाना शुरू कर दिया था। उनकी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति पटना में हुई, जहाँ सरोजिनी नायडू जैसी हस्तियों ने उनकी सराहना की। इसके बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। उस दौर में महिलाओं के लिए मंच पर आना आसान नहीं था, परंतु अख्तरी बाई ने समाज की परंपराओं को तोड़कर यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा किसी बंधन की मोहताज नहीं होती।
फिल्मों से संगीत तक
1930 के दशक में अख्तरी बाई ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया। उन्होंने “एक दिन का बादशाह” (1933), “नल-दमयंती” (1933) और “रoti” (1942) जैसी फिल्मों में काम किया। “रोटी” फिल्म में उन्होंने अभिनय के साथ-साथ गीत भी गाए, जो अत्यंत लोकप्रिय हुए। लेकिन फिल्मों की दुनिया उन्हें रास नहीं आई। उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने जीवन को केवल संगीत के लिए समर्पित करेंगी। इसी समय वे “बेगम अख्तर” के नाम से प्रसिद्ध हुईं।
विवाह और व्यक्तिगत जीवन
1945 में उन्होंने लखनऊ के जाने-माने वकील इसरार अहमद अब्बासी से विवाह किया। विवाह के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए गायन से दूरी बना ली, लेकिन संगीत से उनका गहरा संबंध कभी नहीं टूटा। गायन छोड़ने के कारण वे मानसिक रूप से बहुत विचलित हो गईं, और डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें फिर से संगीत की ओर लौटने की अनुमति मिली। इसके बाद उनका गायन और भी परिपक्व, संवेदनशील और भावनाओं से भरपूर हो गया।
गायकी की विशेषता
बेगम अख्तर की गायकी का सबसे बड़ा गुण था भावनात्मक गहराई। उनके स्वर में एक अद्भुत दर्द और आत्मीयता थी। जब वे “दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे” या “ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया” जैसी ग़ज़लें गातीं, तो श्रोता उनके साथ-साथ उस दर्द को महसूस करते थे।
उनकी ठुमरी में बनारस, लखनऊ और पटियाला घराने की झलक मिलती थी। उन्होंने ठुमरी को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक साहित्यिक और भावनात्मक कला बना दिया। वे हर शब्द को जीती थीं — उनके सुर, शब्दों के अर्थ और भावों के साथ चलते थे।
उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ थीं –
“हमरी अटरिया पे आओ संवरिया”
“चराग़ दिल का जला के गया कौन”
“ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया”
“दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे”
“कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता”
“वो जो हममें तुममें क़रार था”
इन गीतों ने उन्हें अमर बना दिया।
पुरस्कार और सम्मान
बेगम अख्तर को संगीत के क्षेत्र में अनेक सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री (1968) और पद्मभूषण (1975) से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी मिला। इन सम्मानों ने उनके योगदान को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दी।
अंतिम समय और निधन
1974 में जब वे अहमदाबाद में एक कार्यक्रम के दौरान गा रही थीं, तब उन्हें अस्वस्थता महसूस हुई। इसके बावजूद उन्होंने कार्यक्रम अधूरा नहीं छोड़ा। उसी वर्ष 30 अक्टूबर 1974 को उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद पूरा संगीत जगत शोक में डूब गया।
बेगम अख्तर की विरासत
बेगम अख्तर ने भारतीय संगीत को जो दिशा दी, वह आज भी अडिग है। उन्होंने ग़ज़ल और ठुमरी को केवल दरबारी या पारंपरिक कला नहीं रहने दिया, बल्कि उसे आम जनता के दिलों तक पहुँचाया। उन्होंने महिला गायिकाओं के लिए एक राह खोली, जिसमें संगीत को सामाजिक बंधनों से मुक्त किया गया।
उनकी शिष्या शुभा मुद्गल, चित्रा सिंह, रीता गांगुली, गुलाम अली जैसे कलाकारों ने उनकी शैली से प्रेरणा पाई। आज भी जब उनकी आवाज़ गूंजती है, तो लगता है जैसे कोई दिल के सबसे गहरे कोने से पुकार रहा हो।
निष्कर्ष
बेगम अख्तर केवल एक गायिका नहीं थीं, बल्कि एक युग थीं — एक ऐसी शख्सियत जिन्होंने संगीत को अपने जीवन का धर्म बना लिया। उनके गीतों में प्रेम है, पीड़ा है, समर्पण है और आत्मा की सच्चाई है। उनकी आवाज़ में जो तड़प थी, वह शायद उनके जीवन की वास्तविकता का प्रतिबिंब थी। बेगम अख्तर ने अपने सुरों से भारतीय संगीत को अमर कर दिया। वे भले ही अब इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनकी ग़ज़लें, उनकी ठुमरियाँ आज भी हर संगीतप्रेमी के दिल में गूंजती हैं।
बेगम अख्तर सचमुच भारतीय संगीत की वह “मल्लिका” थीं, जिनकी गूँज समय की सीमाओं को पार कर अमर हो चुकी है।
आज लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की 150 वीं जयंती है। यह दिन देश की एकता, अखंडता और बहुसांस्कृतिक विविधता को समर्पित है। सरदार पटेल की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में शुक्रवार को पूरे देश में एकता दौड़ का आयोजन किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों से 31 अक्टूबर को देश भर में आयोजित होने वाली ‘रन फॉर यूनिटी’ में शामिल होने का आग्रह किया। 31 अक्टूबर से 25 नवंबर तक यूनिटी पदयात्राएं होंगी। पदयात्राओं का मुख्य उद्देश्य युवाओं को ‘ एक भारत ‘ और ‘ आत्मनिर्भर भारत ‘ के लिए प्रेरित करना है। पदयात्रा से पहले स्कूलों और कॉलेजों में निबंध प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, सरदार पटेल के जीवन पर संगोष्ठी और नुक्कड़ नाटक जैसे कार्यक्रम होंगे। इसी भांति 26 जनवरी की तर्ज़ पर भव्य परेड का आयोजन भी किया जा रहा है। इन आयोजनों से युवाओं में राष्ट्रीय गौरव की भावना जगेगी। आयोजनों के दौरान युवाओं को नशामुक्ति की शपथ दिलाई जाएगी। स्वदेशी मेलों का भी आयोजन होगा। यह पहल भारत को एक और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में है।
नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद देश की एकता, अखंडता और अस्मिता के प्रतीक सरदार वल्लभभाई पटेल की उल्लेखनीय उपलब्धियों को दुनियाभर में एक नई पहचान मिली। यहां इस सच को स्वीकार किया जाना चाहिए कि महात्मा गाँधी का प. जवाहर लाल नेहरू के प्रति असीम लगाव नहीं होता तो देश के पहले प्रधानमंत्री सरदार पटेल होते। सरदार पटेल स्वतंत्र भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बने। भारत के राजनैतिक एकीकरण में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता के अदभुत शिल्पी थे जिनके ह्रदय में भारत बसता था। वास्तव में वे भारतीय जनमानस की आत्मा थे। मोदी ने 2018 में लौह पुरुष सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा के रूप में स्टैचू ऑफ यूनिटी को देश को समर्पित कर उनकी ख्याति को जन जन तक पहुंचाने का ऐतिहासिक कार्य किया। यह स्थल आज गुजरात और देश के सबसे बड़े पर्यटन स्थलों में से एक बन गया है और अब तक करोड़ों पर्यटकों को आकर्षित कर चुका है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के एक छोटे से गाँव नाडियाड में हुआ था। स्वतंत्रता की लड़ाई में उनका महत्वपूर्ण योगदान था, जिसके कारण उन्हें भारत का लौह पुरुष भी कहा जाता है। गरीब परिवार से आते थे, इसलिए शायद उनके मन में देश के गरीबों के लिए दर्द था। वल्लभ भाई वकील बनना चाहते थे। उन्होंने अपने एक परिचित वकील से पुस्तकें उधार ली और घर पर अध्यन आरम्भ कर दिया। समय-समय पर उन्होंने अदालतों के कार्यवाही में भी भाग लिया और वकीलों के तर्कों को ध्यान से सुना। तत्पश्चात वल्लभ भाई ने वकालत की परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण कर की। सरदार पटेल ने गोधरा में अपनी वकालत शुरू की और जल्द ही उनकी वकालत चल पड़ी। अपने मित्रों के आग्रह पर पटेल ने 1917 में अहमदाबाद के सैनिटेशन कमिश्नर का चुनाव लड़ा और उसमे विजयी हुए। सरदार पटेल गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह की सफलता से काफी प्रभावित थे। 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जिससे पुरे गुजरात में आन्दोलन और तीव्र हो गया और ब्रिटिश सरकार गाँधी और पटेल को रिहा करने पर मजबूर हो गयी। इसके बाद उन्हें मुंबई में एक बार फिर गिरफ्तार किया गया। 1931 में गांधी-इरविन समझौते पर हस्ताक्षर करने के पश्चात सरदार पटेल को जेल से रिहा किया गया और कराची में 1931 सत्र के लिए उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। लंदन में गोलमेज सम्मेलन की विफलता पर गांधीजी और सरदार पटेल को जनवरी 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और येरवदा की सेंट्रल जेल में कैद किया गया। कारावास की इस अवधि के दौरान सरदार पटेल और महात्मा गांधी एक दूसरे के करीब आये और दोनों के बीच में स्नेह, भरोसे और स्पष्टवादिता का रिस्ता बना। अंततः जुलाई 1934 में सरदार पटेल को रिहा किया गया। अगस्त 1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन आरम्भ किया। सरकार ने वल्लभ भाई पटेल सहित कांग्रेस के सारे विशिष्ट नेताओ को कारावास में डाल दिया।
आजादी से पहले भारत में दो तरह का शासन था। भारत का एक हिस्सा वो था जिसपर अंग्रेजों का सीधा शासन था जबकि देश का बाकी हिस्सा 562 से ज्यादा रियासतों और रजवाड़ों के रूप में था, जहां अंग्रेजों के अधीन राजाओं और नवाबों का शासन था। भारत को विभाजित रखने की चाल के तहत अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी से आजादी के समझौते में इन रजवाड़ों के लिए दो विकल्प रखवा दिए थे। पहला विकल्प भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय करना था जबकि आजाद देश के रूप में वजूद में आने का था। उन्होंने 565 रियासतों के राजाओं को यह स्पष्ट कर दिया की अलग राज्य का उनका सपना असंभव है और भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बनने में ही उनकी भलाई है। इसके बाद उन्होंने बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के साथ छोटी रियासतों को संगठित किया। उनके इस पहल में रियासतों की जनता भी उनके साथ थी। उन्होंने हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ के नवाब को काबू में किया जो प्रारम्भ में भारत से नहीं जुड़ना चाहते थे। उन्होंने एक बिखरे हुए देश को बिना किसी रक्तपात के संगठित कर दिया। अपने इस विशाल कार्य की उपलब्धि के लिए सरदार पटेल को लौह पुरुष का खिताब मिला।
सरदार पटेल का देहांत 15 दिसम्बर 1950 को ह्रदय की गति रुक जाने के कारण हुआ। देश के प्रति उनकी सेवाओं के लिए सरदार पटेल को 1991 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
बिहार में योगी आदित्यनाथ चुनावी सभाएं कर रहे हैं तो कुछ नेता भगवा पर ही बरस पड़े ? एक महाशय ने तो 90 के दशक की याद दिला दी जब लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से राम रथ यात्रा लेकर अयोध्या जा रहे थे । चूंकि आडवाणी के साथ सैकड़ों भगवाधारी भी थे तो आगबबूला लालू एंड कम्पनी ने यूपीए बैनर तले रथ यात्रा रोक दी थी । कल यदि तेजस्वी की सरकार आई तो एक भी भगवाधारी बिहार में नहीं आ पाएगा । अजीब बात है कि जिन लोगों ने बिहार में कल तक जंगलराज फैलाया हुआ था वे उन बुलडोजर्स से डर गए जो संकेतक के रूप में योगी के पंडाल के बाहर लगाए गए थे ।
उन्हें भगवा से इतनी चिढ़ क्यूं है ?
बात केवल योगी अथवा साधु संतों के भगवा पहनने की नहीं है भगवे रंग पर एतराज की है !
जो लोग यह मानते हैं कि भगवा रंग अशांति लाएगा , यह केवल उनके दिमाग का फितूर है !
संत परंपरा से जुड़ा भगवा भारतीय संस्कृति और सभ्यता का बड़ा हिस्सा है । अध्यात्म हमारी विरासत है और केसरिया हमारे राष्ट्रीय ध्वज का शिखर पर विराजमान है !
अभी दो दिन पूर्व हुई छठ पूजा पर व्रतधारी स्त्रियों की नाक से मांग तक भरा केसरिया भगवा ही तो था ? भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु ने तो मां से अपना चोला ही बसंती मांगा था । शिवाजी और महाराणा प्रताप केसरिया की आन बान और शान के लिए आजीवन लड़ते रहे । इस देश की सन्नारियां मांग में भगवा सिंदूर भरकर शत्रु पर टूट पड़ती थीं और घिर जाने पर भगवा जौहर सजाती थीं । भगवा इस देश की ऊंचाइयों का प्रतीक है । सच कहें तो भारत का प्रतिनिधि रंग है भगवा या केसरिया । यह गौरवशाली अतीत का परिचय है । भारत की शान का प्रतिबिंब है ।
न जानें लोग भगवा से क्यों चिढ़ते हैं । यह रंग भारत की उत्सवप्रियता को दर्शाता है । भारत सदा सर्वदा से रगों और रागों से परिपूर्ण रहा है । वह केसरिया पताका ही थी जिसकी महिमा को पहले ही युद्ध में सिकंदर ने पहचान लिया था । राजा पौरस को उसने हराया जरूर , पर समझ गया कि आर्यावर्त भारतवर्ष को जीतना उसके बस में नहीं है । सिकंदर समझ गया कि आगे बढ़ा तो जगह जगह केसरिया से मुकाबला होगा । राजा पौरुष ने पहले ही युद्ध में उसे बता दिया था कि भारत को समूचा जीतना नामुमकिन है । केसरिया की ताकत ने उसे वहीं से यूनान लौटा दिया ।
अच्छा हो यदि इस देश की सांस्कृतिक विरासत से खिलवाड़ बंद हो जाए । याद रखिए , इस देश में अब बहुत कुछ नहीं चलेगा और बहुत सारा चलेगा । जी हां , भगवा तो खूब चलेगा ।
– क्योंकि शिक्षक को शिक्षण कार्य नहीं करवा कर एक बहुद्देशीय कर्मचारी बना दिया गया है। जब शिक्षक को शिक्षण कार्य छोड़कर काग़ज़ों, रिपोर्टों और आयोजनों का भार दे दिया जाता है, तो शिक्षा अपनी आत्मा खो देती ह
– डॉ. प्रियंका सौरभ
देश की शिक्षा व्यवस्था एक ऐसे दौर से गुजर रही है जहाँ सबसे बुनियादी स्तंभ — शिक्षक — स्वयं डगमगाने लगा है।
कभी यह पेशा समाज में सम्मान, स्थिरता और प्रेरणा का प्रतीक था, पर आज वही शिक्षक काग़ज़ी औपचारिकताओं, तकनीकी दबाव और प्रशासनिक आदेशों के बीच खो गया है।
वह थक चुका है, निराश है, और अनेक शिक्षक अब यह पेशा छोड़ रहे हैं। यह कोई व्यक्तिगत निर्णय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतावनी है — क्योंकि जब शिक्षक थक जाता है, तब शिक्षा मर जाती है।
आज भारतीय शिक्षा व्यवस्था एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जहाँ शिक्षक सबसे असहाय और अवमूल्यित स्थिति में पहुँच चुका है। कभी यह पेशा सम्मान, आदर्श और आत्मसंतोष का प्रतीक हुआ करता था। शिक्षक वह व्यक्ति था जो समाज की दिशा तय करता था, बच्चों के भीतर मूल्य और विवेक का बीजारोपण करता था। पर अब स्थिति यह है कि शिक्षण सेवा धीरे-धीरे एक प्रशासनिक बोझ में तब्दील हो गई है। शिक्षक का समय अब बच्चों से अधिक कागज़ों, रिपोर्टों और ऑनलाइन पोर्टलों पर बीतने लगा है। हर दिन नई योजना, नया निर्देश, नया ऐप और नए फॉर्म की मांग। शिक्षण अब नौकरी बन गया है, और नौकरी इतनी जटिल कि उसमें पढ़ाने का समय ही नहीं बचा। जब हर कार्य का प्रमाण मांगने वाला सिस्टम बन जाता है, तो भरोसा और रचनात्मकता दोनों समाप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि आज एक बड़ा वर्ग शिक्षक होने के बावजूद शिक्षण से कट गया है — और जो नई पीढ़ी है, वह अब इस पेशे को अपनाने में रुचि नहीं दिखा रही। वह देख रही है कि यह पेशा अब प्रेरणा नहीं, थकान और तनाव का प्रतीक बन चुका है।
तकनीक और प्रशासनिक निगरानी के नाम पर शिक्षा को जिस दिशा में धकेला जा रहा है, उसने शिक्षक को डेटा-कलेक्टर और इवेंट मैनेजर बना दिया है। हर महीने किसी न किसी दिवस का आयोजन — योग दिवस, मातृभाषा दिवस, साक्षरता दिवस — और हर आयोजन का फोटो, वीडियो, रिपोर्ट, लिंक… यह सब दिखावे की संस्कृति में बदल गया है। विद्यालय अब ज्ञान का केंद्र नहीं, बल्कि प्रदर्शन का मंच बन गए हैं। शिक्षक बच्चों को कम और कैमरे को ज़्यादा संबोधित करता दिखता है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह बोझ और भी भारी है। दो या तीन शिक्षक सैकड़ों बच्चों के लिए जिम्मेदार हैं। मिड-डे मील, छात्रवृत्ति, यूनिफॉर्म, साइकिल वितरण, सर्वे, जनगणना — सब कुछ उसी के सिर पर। शिक्षा धीरे-धीरे प्रबंधन बन गई है, और शिक्षक एक सरकारी कर्मचारी जो सबका आदेश माने। इस स्थिति ने न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित किया है, बल्कि शिक्षक के भीतर की सृजनात्मकता और आत्मसम्मान को भी क्षीण कर दिया है।
इन परिस्थितियों का सबसे बड़ा प्रभाव शिक्षक की मानसिक स्थिति पर पड़ा है। निरंतर निगरानी, आंकड़ों की मांग, और हर कार्य का डिजिटल प्रमाण — इन सबने शिक्षा को मानवीयता से दूर कर दिया है। जो शिक्षक कभी अपने विद्यार्थियों के साथ भावनात्मक रिश्ता रखते थे, वे अब एक यंत्रवत भूमिका निभाने को विवश हैं। उनके पास न समय है, न अवसर कि वे किसी बच्चे की समस्या को समझ सकें, उसे प्रेरित कर सकें या उसके साथ संवाद कर सकें। परिणामस्वरूप, शिक्षक भावनात्मक रूप से थक रहे हैं, और विद्यार्थी भी उनसे दूर होते जा रहे हैं। छात्र अब शिक्षक को मार्गदर्शक नहीं, सेवा प्रदाता मानने लगे हैं। यह दृष्टिकोण शिक्षा की आत्मा को भीतर से तोड़ रहा है। सम्मान और भरोसे का जो रिश्ता कभी शिक्षा की नींव था, वह अब संदेह और औपचारिकता के बोझ तले दब गया है।
यह स्थिति केवल शिक्षकों की नहीं, बल्कि समाज के भविष्य की चिंता है। यदि शिक्षा का केंद्र शिक्षक और विद्यार्थी नहीं रहेंगे, तो विद्यालय केवल भवन बनकर रह जाएंगे। योजनाएँ, पोर्टल, और नीतियाँ तभी सार्थक हैं जब वे मानवीय जुड़ाव को बढ़ाएँ, न कि खत्म करें। हमें इस प्रश्न पर गंभीरता से सोचना होगा — क्या हम अपने शिक्षकों पर भरोसा करते हैं? क्या हम उन्हें वह स्वतंत्रता और सम्मान दे रहे हैं जिसकी शिक्षा को सबसे ज़्यादा आवश्यकता है? जब शिक्षक को केवल आदेश पालन करने वाला कर्मचारी बना दिया जाता है, तो वह प्रेरक नहीं रह जाता। और जब प्रेरणा खत्म होती है, तो शिक्षा का अर्थ भी समाप्त हो जाता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि शिक्षक ही वह केंद्र है जिसके इर्द-गिर्द पूरी शिक्षा व्यवस्था घूमती है। यदि वह निराश, उपेक्षित और थका हुआ है, तो आने वाली पीढ़ी भी वैसी ही बनेगी। अब समय है शिक्षक को दोबारा शिक्षा के केंद्र में लाने का — क्योंकि यदि शिक्षक चला गया, तो विद्यालय तो रह जाएगा, पर शिक्षा नहीं।
यह केवल शिक्षकों की समस्या नहीं, बल्कि समाज के भविष्य की चुनौती है। यदि शिक्षा से उसका आत्मीय तत्व — शिक्षक — कमजोर पड़ गया, तो आने वाली पीढ़ी का बौद्धिक और नैतिक विकास भी अधूरा रह जाएगा। नीतियाँ, योजनाएँ, ऐप और पोर्टल तभी उपयोगी हैं जब वे शिक्षक को सशक्त बनाएँ, न कि उसे बोझिल करें। हमें यह स्वीकार करना होगा कि शिक्षा का केंद्र शिक्षक और विद्यार्थी ही हैं — ना कि आंकड़े, फाइलें और फ़ोटो। शिक्षक को फिर से स्वतंत्रता, सम्मान और भरोसे का वातावरण देना होगा। वह केवल नौकरी नहीं कर रहा, वह भविष्य गढ़ रहा है। यदि उसे प्रेरणा और गरिमा नहीं मिली,
तो शिक्षा केवल भवनों और आंकड़ों में सीमित रह जाएगी।
हमें यह याद रखना चाहिए — जब शिक्षक चला जाएगा, विद्यालय तो रह जाएगा, पर शिक्षा नहीं।
योग साधना का लक्ष्य सिर्फ़ अधिक अभ्यास करना नहीं, बल्कि विश्राम के माध्यम से निरोगी एवं ऊर्जावान बनना है। योग में विश्राम सक्रिय ऊर्जा पैदा करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
अधिक अभ्यास के क्रम में जब मांसपेशियों को बार-बार और केवल खिंचाव का अभ्यास दिया जाता है, तो उनकी स्वाभाविक स्मृति में संतुलन की जगह केवल तनाव अंकित हो जाता है।मांसपेशियों में बना यह निरंतर खिंचाव, विशेष रूप से उन लोगों में जो योग या व्यायाम के अभ्यास में भी अधिक करने को ही लक्ष्य मानते हैं, हृदय पर अतिरिक्त दबाव उत्पन्न करता है। दीर्घकाल में यह स्थिति हृदयघात (Heart Attack) जैसे गंभीर परिणाम ला सकती है। मैंने ऐसे अनेक योग अभ्यासियों को देखा है, जो अत्यंत अनुशासित अभ्यास के बावजूद अचानक हृदय संबंधी समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं।
अधिक निरंतर अभ्यास अर्थात खिंचाव को ही साधना का उद्देश्य न मानें। वास्तविक साधना वहाँ है जहाँ मांसपेशियाँ अपने मूल, अपने भीतर के “शून्य बिंदु” — शिथिलता — की ओर लौट सकें। तभी वे न केवल शारीरिक संतुलन की ओर लौटेंगी, बल्कि हृदय को भी तनाव से मुक्त करके जीवन को दीर्घकालीन स्थिरता और शांति प्रदान करेंगी।
विशेषकर योग में, जहाँ अभ्यास को आध्यात्मिक विश्राम की ओर ले जाने का अवसर होना चाहिए, वहाँ भी यदि केवल प्रतियोगिता ही प्राथमिक बन जाए, तो इसका परिणाम विनाशकारी हो सकता है।
संक्षेप में, योग हमें यह सिखाता है कि हम अपने शरीर और मन को इस तरह से संतुलित करें कि हम कम ऊर्जा खर्च करके भी अधिक शक्तिवान और जीवंत महसूस कर सकें। इसलिए, योग अभ्यास का अंतिम उद्देश्य और अधिक आसन करना ही नहीं, बल्कि विश्राम के माध्यम से ऊर्जा का संचार करना है।
शवासन ,योग निद्रा एक गहन विश्राम और निर्देशित ध्यान तकनीक है जिसे तनाव, चिंता और अनिद्रा को कम करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह लेटकर अभ्यास करने पर जागृति और नींद के बीच एक शांत, आरामदायक अवस्था में पहुँचाती है जो प्रतिभागी को अधिक ऊर्जावान बनाती है । योग थकाने वाला नहीं ,और अधिक स्फूर्ति देने वाला,तरोताजा करने वाला होता हैं l