वर्तमान संदर्भों में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता: समाधान का शाश्वत दर्शन

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​मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं, केवल इतिहास का एक अध्याय नहीं हैं; वे एक शाश्वत दर्शन हैं। आज, जब दुनिया हिंसा, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक असमानता और सामाजिक विभाजन जैसी जटिल चुनौतियों से जूझ रही है, तब गांधी के सिद्धांत पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। उनके विचार, जो सत्य, अहिंसा और सादगी पर आधारित थे, आधुनिक समस्याओं के लिए अचूक उपचार प्रस्तुत करते हैं।

​सत्य और अहिंसा: वैश्विक संघर्षों का समाधान

​गांधी जी का मूल मंत्र सत्य (Truth) और अहिंसा (Non-violence) आज की दुनिया के लिए सबसे बड़ा सबक है। आज अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में झूठ, संदेह और युद्ध का माहौल है। ऐसे में, गांधी का अहिंसक प्रतिरोध (सत्याग्रह) न केवल एक राजनीतिक हथियार है, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय आंदोलनों के लिए भी एक नैतिक ढाँचा प्रदान करता है।

​हिंसा और आतंकवाद: दुनिया के कई हिस्सों में सशस्त्र संघर्ष और आतंकवाद ने मानवता को खतरे में डाल दिया है। गांधी सिखाते हैं कि किसी भी समस्या का स्थायी समाधान हिंसा से नहीं, बल्कि संवाद और मानवीय प्रेम से संभव है। उनके विचार मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं के लिए प्रेरणा बने, जिन्होंने अहिंसा के मार्ग से बड़े सामाजिक परिवर्तन लाए।

​सत्य और ईमानदारी: आज के ‘पोस्ट-ट्रुथ’ युग में, जहाँ दुष्प्रचार और फेक न्यूज़ का बोलबाला है, गांधी का सत्य के प्रति आग्रह हमें पारदर्शिता और नैतिक आचरण का मूल्य सिखाता है। वे मानते थे कि साध्य की पवित्रता के लिए साधन का पवित्र होना आवश्यक है, जो राजनीति और प्रशासन में नैतिकता को सर्वोच्च स्थान देने की बात करता है।

​सर्वोदय और न्यासधारिता: आर्थिक विषमता पर नियंत्रण

​गांधी जी का आर्थिक दर्शन भी वर्तमान समय में गहरा अर्थ रखता है, खासकर जब पूंजीवादी व्यवस्था के कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है।

​न्यासधारिता (Trusteeship): गांधी जी ने न्यासधारिता का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार धनी वर्ग को अपनी संपत्ति का मालिक नहीं, बल्कि समाज का ट्रस्टी (संरक्षक) समझना चाहिए। उन्हें यह संपत्ति अपनी निजी ज़रूरतों से अधिक समाज के कल्याण के लिए उपयोग करनी चाहिए। यह सिद्धांत कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) और परोपकार को एक नैतिक आधार प्रदान करता है, जिससे आर्थिक विषमता को कम करने में मदद मिल सकती है।

​सर्वोदय (Upliftment of All): ‘सर्वोदय’ का अर्थ है सबका उदय, या सबके जीवन स्तर में सुधार। यह अवधारणा समावेशी विकास (Inclusive Growth) की आधुनिक विचारधारा के अनुरूप है, जिसमें अंतिम व्यक्ति (अंत्योदय) का कल्याण केंद्र में होता है। यह सरकारों को केवल आर्थिक वृद्धि पर नहीं, बल्कि मानव विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा पर समान ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है।

​स्वदेशी और ग्राम स्वराज: आत्म-निर्भरता और पर्यावरण संरक्षण

​वैश्वीकरण के दौर में, गांधी के स्वदेशी और ग्राम स्वराज के विचार आत्म-निर्भरता और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए एक मॉडल प्रस्तुत करते हैं।

​स्वदेशी और आत्म-निर्भरता: ‘स्वदेशी’ का अर्थ है अपने पड़ोसी क्षेत्र में बनी वस्तुओं का उपयोग करना और अपनी स्थानीय अर्थव्यवस्था का समर्थन करना। यह विचार वर्तमान में भारत सरकार के ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान का नैतिक आधार है। यह स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देता है, ग्रामीण रोज़गार उत्पन्न करता है और लोगों को आत्म-निर्भर बनाता है।

​टिकाऊ विकास (Sustainable Development): गांधी जी ने प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीने पर जोर दिया। उनका यह प्रसिद्ध कथन कि, “पृथ्वी के पास हर व्यक्ति की ज़रूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने के लिए नहीं,” जलवायु परिवर्तन के संकट में एक चेतावनी की तरह है। वे सादा जीवन, कम उपभोग और विकेन्द्रीकृत उत्पादन (कुटीर उद्योग) का समर्थन करते थे, जो आज के टिकाऊ विकास (Sustainable Development) और पर्यावरणीय नैतिकता के सिद्धांतों का मूल है।

​सामाजिक एकता और रचनात्मक कार्यक्रम

​गांधी जी की देश सेवा केवल स्वतंत्रता तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने समाज के भीतर व्याप्त बुराइयों को भी दूर करने का प्रयास किया।

​अस्पृश्यता निवारण: उन्होंने अस्पृश्यता के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया और अछूतों को ‘हरिजन’ (ईश्वर के जन) कहकर सम्मान दिया। आज भी, जब समाज में जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर भेदभाव मौजूद है, गांधी का समानता और भाईचारे का संदेश सामाजिक न्याय के संघर्षों को दिशा देता है।

​राष्ट्रीय एकता: उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया और सांप्रदायिक सद्भाव को राष्ट्रीय जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता माना। आज भी सांप्रदायिक तनाव को कम करने और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में उनके सिद्धांत मार्गदर्शक हैं।

​उपसंहार

​महात्मा गांधी की प्रासंगिकता किसी एक देश या काल तक सीमित नहीं है। उनका दर्शन मानव स्वभाव और समाज की मूलभूत समस्याओं पर आधारित है। उनकी सादगी, निर्भीकता और आत्म-सुधार पर जोर देने वाली जीवन-शैली आज के युवाओं के लिए भी एक आदर्श है।
​गांधी को समझने का अर्थ केवल उनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण करना नहीं है, बल्कि सत्य, अहिंसा, ईमानदारी और सादगी के सिद्धांतों को अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतारना है। जब तक दुनिया में अन्याय, गरीबी, हिंसा और पर्यावरण का शोषण मौजूद रहेगा, तब तक महात्मा गांधी का दर्शन समाधान के एक शाश्वत स्रोत के रूप में प्रासंगिक बना रहेगा।

पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और उनकी देश सेवा

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सादगी के प्रतीक, दृढ़ता के पर्याय: पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और उनकी देश सेवा

​भारत के राजनीतिक क्षितिज पर कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिनकी सादगी और कर्तव्यनिष्ठा उनकी सबसे बड़ी पहचान बनी। ऐसे ही एक महान सपूत थे लाल बहादुर शास्त्री, जो भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने। उनका जीवन एक साधारण व्यक्ति के असाधारण राष्ट्र-प्रेम और देश सेवा की एक अनुपम गाथा है।

​प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी

​लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ था। एक गरीब परिवार में जन्मे ‘नन्हे’ (बचपन का नाम) को छोटी उम्र में ही पिता का साया खोना पड़ा। अभावों में पले-बढ़े शास्त्री जी ने विपरीत परिस्थितियों में भी शिक्षा के प्रति अपनी लगन बनाए रखी। वाराणसी के काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त करने के बाद, यह उपाधि उनके नाम का स्थायी हिस्सा बन गई।
​महात्मा गांधी के विचारों से गहराई से प्रभावित होकर, किशोरावस्था में ही उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में कूदने का फैसला किया। 1921 में गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया। इस दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा और उन्होंने अपने जीवन के लगभग सात वर्ष कारावास में बिताए। स्वतंत्रता संग्राम की इस अग्निपरीक्षा ने उनके व्यक्तित्व को और भी अधिक परिपक्व और दृढ़ बनाया।

​स्वतंत्रता के बाद की प्रशासनिक यात्रा

​आज़ादी के बाद, शास्त्री जी ने एक कुशल प्रशासक के रूप में अपनी योग्यता सिद्ध की। उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में कार्य करने के बाद, वे उत्तर प्रदेश के पुलिस और परिवहन मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने पुलिस को भीड़ नियंत्रण के लिए लाठी चार्ज के बजाय पानी की बौछार (वाटर जेट) का उपयोग करने का निर्देश देकर एक मानवीय पहल की। परिवहन मंत्री के रूप में, उन्होंने राज्य सड़क परिवहन सेवा का राष्ट्रीयकरण किया और महिलाओं को बस कंडक्टर के रूप में नियुक्त करने जैसा प्रगतिशील कदम उठाया।
​1951 में वे केंद्र की राजनीति में आए और केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेलवे मंत्री, परिवहन और संचार मंत्री, वाणिज्य और उद्योग मंत्री, और गृह मंत्री जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उनका रेल मंत्री के पद से इस्तीफा देना उनकी उच्च नैतिक मूल्यों और ईमानदारी का प्रमाण है, जिसने भारतीय राजनीति में शुचिता का एक नया मानदंड स्थापित किया। गृह मंत्री के रूप में, उन्होंने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए पहली औपचारिक समिति (संथानम समिति) की स्थापना करके प्रशासन में पारदर्शिता लाने का प्रयास किया।

​प्रधानमंत्री के रूप में संक्षिप्त किन्तु शानदार कार्यकाल

​पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद,नौ जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री ने भारत के दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। हालांकि उनका कार्यकाल केवल 18 महीने का था, लेकिन यह चुनौतियाँ और असाधारण नेतृत्व की मिसाल से भरा रहा।
​1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध और “जय जवान, जय किसान”
​उनके प्रधानमंत्रित्व काल की सबसे बड़ी परीक्षा 1965 में आई, जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया। एक शांत और विनम्र दिखने वाले नेता ने इस दौरान अभूतपूर्व दृढ़ता और साहस का परिचय दिया। देश में गंभीर खाद्य संकट और युद्ध के खतरे के बीच, उन्होंने ‘जय जवान, जय किसान’ का ऐतिहासिक नारा दिया। यह नारा देश के सैनिकों के पराक्रम और किसानों की मेहनत को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्र की दो सबसे महत्वपूर्ण ताकतों का सम्मान था।
​उनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को निर्णायक जवाब दिया और युद्ध में विजय हासिल की। इस दौरान उन्होंने देशवासियों से हफ्ते में एक दिन (सोमवार की शाम) उपवास रखने का आग्रह किया, ताकि बचे हुए अनाज को खाद्य संकट से जूझ रहे लोगों तक पहुँचाया जा सके। उनके इस आह्वान को पूरे देश ने सहर्ष स्वीकार किया, जो जनता और उनके नेता के बीच अटूट विश्वास को दर्शाता है।
​कृषि और आर्थिक सुधारों की नींव
​शास्त्री जी ने भारत को आत्म-निर्भर बनाने पर ज़ोर दिया। उन्होंने कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिया, जो नेहरू के कार्यकाल में कुछ हद तक उपेक्षित रहा था। उन्होंने हरित क्रांति की नींव रखी, वैज्ञानिक खेती, उच्च उपज वाले बीज और बेहतर सिंचाई सुविधाओं को बढ़ावा दिया।
​इसके अतिरिक्त, उन्होंने भारत को दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देशों में से एक बनाने के उद्देश्य से श्वेत क्रांति के विचार को भी आत्मसात किया। 1965 में उन्होंने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) की स्थापना की, जिसने आगे चलकर भारत की दुग्ध उत्पादन क्षमता को बदल दिया।

​ताशकंद समझौता और दुखद अंत

​10 जनवरी 1966 को, उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ शांति समझौता करने के लिए ताशकंद (तत्कालीन सोवियत संघ) की यात्रा की। इस समझौते पर हस्ताक्षर करके उन्होंने युद्ध की समाप्ति की घोषणा की, जिसके एक दिन बाद ही, 11 जनवरी 1966 को, रहस्यमय परिस्थितियों में उनका निधन हो गया।

​विरासत और सम्मान

​लाल बहादुर शास्त्री का जीवन सादगी, ईमानदारी और दृढ़ संकल्प की एक अमर कहानी है। वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने कभी अपने पद का दुरुपयोग नहीं किया और हमेशा आम आदमी की तरह जीवन जिया। उनकी ईमानदारी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी उनके पास एक साधारण कार खरीदने के लिए कर्ज लेना पड़ा था।
​उनकी सेवाओं के लिए, उन्हें 1966 में मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। ‘जय जवान, जय किसान’ का उनका नारा आज भी भारत की राष्ट्रीय भावना और आत्म-निर्भरता की प्रेरणा बना हुआ है। लाल बहादुर शास्त्री भारतीय राजनीति में एक ऐसे ‘छोटे कद के बड़े नेता’ के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे, जिन्होंने अपने थोड़े से कार्यकाल में भी देश को विपरीत परिस्थितियों में भी एक नई दिशा और आत्मविश्वास प्रदान किया।

कैसे हो गया यह सब…क्यों मर गया रावण

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व्यंग्य

कैसे हो गया यह सब…क्यों मर गया रावण

सीन-1

“कैसे हुआ यह सब। सुनकर बहुत दुख हुआ।”

-जी। रात में अच्छे भले सोये थे। सवेरे चले गए।

“कुछ बताया नहीं किसी को।”

जी नहीं। हम तो सब सो रहे थे।

-“कोई तकलीफ…?”

-हुई भी होगी तो पता नहीं ।

-“अच्छा”

-हमारे तो पिता ही सहारे थे ।

-“पिता तो सबकुछ होते हैं। अब क्या करोगे..?”

-देखते हैं।

-“बिना पिता के रहना तो मुश्किल है। कुछ तो सोचना पड़ेगा । आज नहीं तो कल।”

सीन-2

-“कैसे चली गईं माता जी…”

-जी, बीमार थीं। अचानक हार्ट अटैक हुआ था।

-“पहले पता नहीं चला था क्या…?हार्ट अटैक आएगा”

-पता चलता तो बचा ही लेते…?

“हां। हार्ट अटैक में कहां बचता है…”

( अब पिता जी क्या करेंगे..? कुछ तो करना पड़ेगा। अकेले कब तक रहेंगे..?)

सीन-3

“भाभी जी को क्या हुआ था…?”

-कुछ खास नहीं। बस चली गई

-“लड़ाई तो नहीं हुई थी…?”

थोड़ी बहुत तो हर घर में होती है। यूं तो कोई नहीं चला जाता।

-“आजकल वक्त बहुत खराब है। लोग चले भी जाते हैं। लेकिन । अपनी सोचो। जिंदगी पड़ी है। रिमैरिज तो करनी पड़ेगी।”

-वो बाद की बात है। अभी तो तेरहवीं भी नहीं हुई है।

-“हम उसके बाद आते हैं। बैठकर बातें करते हैं ।”

कल्पना कीजिए। घर में किसी की मृत्यु हुई। कैसे हुई…यह बताने में पसीने आ जाते हैं। जो भी आता है, उसी को बताना पड़ता है, कैसे गए । वर्मा जी हों या शर्मा जी, सभी की हालत एक सी है। वीआईपी डेथ पर तो और हाल बुरा है। शोक व्यक्त करने वाले रैली की तरह आते हैं । सबको बारी-बारी से पूरा विवरण दो।

क्या ही अच्छा हो….एक ऑडियो चला दी जाए…..”शर्मा जी या वर्मा जी बीमार थे। रात को अच्छे भले सोये थे। पानी पिया था। सुबह बिना बताये चले गए। घर के हम सब सोये पड़े थे। आपकी संवेदनाओं के प्रति हार्दिक आभार।”

लेकिन हम लोग इतने से भी कहां मानते हैं। एक बस अड्डे पर पान की दुकान थी। उस पर बोर्ड लगा था….”यहां बसों के आने-जाने का समय नहीं बताया जाता।” तभी एक बंदा आया….”क्यों, दिल्ली वाली बस आई या नहीं।” दूसरा बंदा आया….”क्या फतेहपुर की बस चली गई ।” दुकानदार परेशान। उसने लगे बोर्ड की तरफ इशारा कर दिया। पूछने वाले कहां चुप होते हैं? बस की पूछताछ करते रहे।

कुछ दिन बाद पान वाले ने बोर्ड को पलट दिया….”यहां बसों के आने-जाने का समय बताया जाता है।” उस दिन से उसके पास कोई नहीं आया।

यहां उलटी ही रीति है। रावण हर साल फूंका जाता है। बुराइयों का अंत करो। टीवी अखबार वाले चिल्लाते हैं….रावण के दस मुंह यानी ये 10 बुराई। बुराई क्या गिनाते हैं ये भी देखिए…प्रदूषण, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार, बलात्कार, रोजगार, महामारी, जाम और गड्ढे।अगर रावण के 20 मुंह होते तो बुराई की तलाश अंतरिक्ष तक पहुंच जाती।

अब कोई पूछे…रावण के इन दस सिरों का इससे क्या मतलब ? रावण राज में इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता कि जीडीपी क्या थी? रोजगार कितना था ? वह रावण क्यों बना ? सीता हरण की रिपोर्ट किस थाने में दर्ज हुई। आदि आदि ।

हमारे सवाल आदि अनादि और आदी हैं। पंडित बताते हैं–भद्रा और पंचक में रावण को नहीं फूंकते । जो खुद बुराई का प्रतीक है । वह अशुभकाल में चला जाए तो क्या होगा…? लेकिन नहीं । हम परंपराएं ढोते हैं। हमारा हाल हर उस दुखी आत्मा की तरह है जो यह सवाल करता है….मिस्टर फलांना कैसे चला गया ?

रावण की डेथ के बाद महिलाएं पल्लू से मुंह छिपाए मंदोदरी के पास आई..”बहन! ये सब कैसे हो गया? तुमने समझाया क्यों नहीं? सीता को लौटा देते.. भाईसाहब? अब आगे क्या करोगी? पूरी जिंदगी पड़ी है? तुम्हारा तो खानदान ही मिट गया।”

( इतिहास भी नहीं बताता । रावण के बाद मंदोदरी का क्या हुआ ।)।

अच्छा हुआ, बड़े लोग समय से चले गए। वरना शोकसंतप्त आत्माओं/ टीवी वालों को कौन बताता….”क्या, क्यों और कैसे चले गए गांधी जी….शास्त्री जी ।” रावण चला गया। और हम राम पथ से क्यों दूर हो गए।

सूर्यकांत

वरिष्ठ पत्रकार,सामाजिक चिंतक, साहित्यकार

सऊदी–पाक रक्षा समझौता: भारत की सुरक्षा और कूटनीति पर मंडराता खतरा

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सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच सितंबर 2025 का रक्षा समझौता भारत के लिए केवल एक पड़ोसी की सैन्य मज़बूती का संकेत नहीं है, बल्कि उसकी कूटनीतिक और ऊर्जा सुरक्षा पर भी गहरा असर डाल सकता है। चीन–पाक–सऊदी धुरी का उभरना, सऊदी निवेश का संभावित विचलन, पाकिस्तान की सैन्य क्षमताओं में वृद्धि और परमाणु सहयोग की आशंका—ये सभी मिलकर भारत की “पश्चिम की ओर सक्रियता” नीति को चुनौती देते हैं। ऐसे समय में भारत को खाड़ी देशों के साथ संबंध और मज़बूत करने, ऊर्जा स्रोतों का विविधीकरण करने और प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय रणनीति अपनानी होगी।

— डॉ प्रियंका सौरभ

सितंबर 2025 में सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ सामरिक पारस्परिक रक्षा समझौता केवल दो देशों का द्विपक्षीय करार नहीं है, बल्कि यह बदलते वैश्विक समीकरणों और खाड़ी की असुरक्षाओं का प्रतीक है। जब दोहा में हमास के कार्यालय पर इज़राइली हमला हुआ और अमेरिका सुरक्षा की गारंटी देने में कमजोर दिखाई दिया, तब खाड़ी देशों के भीतर यह सवाल गहराने लगा कि उनकी सुरक्षा आखिर किस पर टिकेगी। सऊदी अरब ने इस असुरक्षा की घड़ी में पाकिस्तान को सहयोगी चुना, और पाकिस्तान ने अपनी कमजोर होती अर्थव्यवस्था के सहारे के लिए इस मौके का स्वागत किया।

सऊदी–पाक रिश्ते वैसे भी नए नहीं हैं। 1951 से ही दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग मौजूद रहा है और 1979–89 के दौरान तो 20,000 पाकिस्तानी सैनिक सऊदी धरती पर तैनात थे, जिन्होंने पवित्र हरमों की रक्षा की और ईरान तथा यमन से आने वाले खतरों का सामना किया। उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने आज की स्थिति को सहज बना दिया। लेकिन मौजूदा समझौते की पृष्ठभूमि में कई नई परिस्थितियाँ हैं। अमेरिका की विश्वसनीयता पर संदेह, ईरान का लगातार बढ़ता खतरा, हूती विद्रोहियों और हिज़बुल्लाह जैसे प्रॉक्सी संगठनों की गतिविधियाँ और पाकिस्तान की डगमगाती अर्थव्यवस्था, सभी मिलकर इस करार को आवश्यक बना रहे थे।

यह समझौता केवल रक्षा सहयोग तक सीमित नहीं है। इसमें पारस्परिक सुरक्षा गारंटी, आतंकवाद-निरोध सहयोग, खुफिया साझेदारी, संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण और आर्थिक–ऊर्जा सहयोग जैसे तत्व शामिल हैं। इससे सऊदी अरब को यह भरोसा मिलता है कि किसी भी खतरे की स्थिति में पाकिस्तान साथ खड़ा रहेगा, और पाकिस्तान को यह आश्वासन मिलता है कि उसे तेल, निवेश और कूटनीतिक सहारा मिलेगा। लेकिन यही वह बिंदु है जहाँ से भारत के लिए चिंता शुरू होती है।

भारत ने पिछले दशक में खाड़ी देशों, विशेषकर सऊदी अरब और यूएई, के साथ रिश्तों को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया था। निवेश, ऊर्जा सहयोग और प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा के लिहाज़ से भारत ने महत्वपूर्ण कूटनीतिक उपलब्धियाँ हासिल की थीं। किंतु पाकिस्तान की इस वापसी ने उस निवेश और सहयोग को चुनौती देने की स्थिति बना दी है। भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता यह है कि पाकिस्तान, सऊदी रक्षा नीति पर प्रभाव डालकर भारत के खाड़ी हितों को कमजोर कर सकता है। इससे भी अधिक गंभीर यह संभावना है कि चीन, जो पहले से ही पाकिस्तान का रणनीतिक साझेदार है, इस धुरी के माध्यम से खाड़ी क्षेत्र तक अपना प्रभाव फैला ले। यह भारत की “Act West” नीति के लिए सीधी चुनौती होगी।

सऊदी अरब ने भारत में 100 अरब डॉलर निवेश की प्रतिबद्धता जताई थी, लेकिन पाकिस्तान की जरूरतें इस निवेश को विचलित कर सकती हैं। आर्थिक दृष्टि से यह भारत की विकास योजनाओं पर असर डालेगा। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान का परमाणु दर्जा इस समझौते को और संवेदनशील बनाता है। सऊदी अरब पहले भी परमाणु तकनीक हासिल करने की महत्वाकांक्षा जता चुका है। यदि इस समझौते के माध्यम से उसे पाकिस्तान से किसी प्रकार की अप्रत्यक्ष मदद मिलती है, तो यह भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती होगी।

भारत के लिए एक और चिंता यह है कि पाकिस्तान को इस करार से उन्नत सैन्य उपकरण और प्रशिक्षण तक पहुँच मिलेगी। सऊदी और अमेरिकी सहयोग से उसकी सैन्य क्षमता और मजबूत होगी, जिसका सीधा असर भारत–पाक शक्ति संतुलन पर पड़ेगा। इसके साथ ही सऊदी अरब की वित्तीय मदद पाकिस्तान की कमजोर अर्थव्यवस्था को सहारा देगी, जिससे उसकी भारत-विरोधी नीति को स्थायित्व मिलेगा। इस्लामाबाद इस अवसर का उपयोग अपने सैन्य ढाँचे को मज़बूत करने और भारत विरोधी गतिविधियों के लिए कर सकता है।

यदि पाकिस्तान ईरान या यमन जैसे संघर्षों में गहराई से शामिल होता है, तो उसका प्रभाव दक्षिण एशिया तक महसूस किया जा सकता है। यह न केवल सामरिक अस्थिरता बढ़ाएगा बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा देगा। भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर भी यह समझौता दबाव डाल सकता है। खाड़ी से भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं का बड़ा हिस्सा पूरा होता है। यदि पाकिस्तान, सऊदी नीतियों को प्रभावित करने में सक्षम हो जाता है, तो भारत की आपूर्ति शृंखला और कीमतों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी रणनीति को और सक्रिय बनाए। भारत को खाड़ी देशों के साथ अपने संवाद और गहरे करने होंगे और यह सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान की भूमिका भारत की उपलब्धियों को कमजोर न कर सके। ऊर्जा सुरक्षा के मोर्चे पर भारत को विविधीकरण करना होगा, रूस, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे विकल्पों पर ध्यान देना होगा। हिंद महासागर और खाड़ी क्षेत्र में नौसैनिक उपस्थिति मज़बूत करके भारत को अपने हितों की रक्षा करनी होगी। अमेरिका और इज़राइल जैसे साझेदारों के साथ रक्षा सहयोग को नए स्तर पर ले जाना भी समय की माँग है।

सबसे अहम यह है कि भारत खाड़ी में बसे 80 लाख से अधिक प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विशेष तंत्र विकसित करे। क्योंकि किसी भी संघर्ष या अस्थिरता का पहला असर वहीं महसूस होगा।

अंततः, सऊदी–पाकिस्तान रक्षा समझौता एक ऐसे समय में हुआ है जब वैश्विक व्यवस्था बदल रही है। यह समझौता पाकिस्तान के लिए राहत और सऊदी अरब के लिए सुरक्षा का प्रतीक हो सकता है, लेकिन भारत के लिए यह बहुआयामी चुनौती है। ऊर्जा, कूटनीति, सुरक्षा और क्षेत्रीय प्रभाव—सभी स्तरों पर यह भारत को नई रणनीति अपनाने के लिए मजबूर करता है। इसे केवल एक द्विपक्षीय समझौता मानकर नज़रअंदाज़ करना खतरनाक होगा। भारत को इसे व्यापक भू-राजनीतिक पटल पर देखना होगा और अपने हितों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।–

-प्रियंका सौरभ 

स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

अमेरिका के चक्कर में फंस गया सऊदी अरब

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अमेरिका के चक्कर में फंस गया सऊदी अरब. डिफेंस डील पर पहले परीक्षण के तौर पे, इजरायल ने अपना हाथ साफ कर दिया है…..

अंदरखाने एक बड़ी खबर निकलकर आ रही है कि पाकिस्तान एवं सऊदी अरब के बीच जो डिफेंस डील हुई है, उसमें मुख्य किरदार अमेरिका का ही है. यानी कि अमेरिका ने ये डील कराई है! और मजे की बात ये है कि, ये डील पाकिस्तान के लिए नहीं, बल्कि सऊदी अरब के लिए हुई है.

इजरायल और गाजा के बीच जंग छिड़ी है, और डोनाल्ड ट्रंप को रिवेरा ऑफ ईस्ट बनाना है. इसलिए वहां एक रिजर्व फौज बनाई जा रही है जो मुस्लिम देशों के सैनिकों को मिलाकर बनायी जाएगी …. उसी सिलसिले में जॉर्डन, मिस्र, सऊदी अरब के साथ अमेरिका ने डील किया है! और उसी में पाकिस्तान के सैनिकों का भी इस्तेमाल किया जाएगा.! हूती विद्रोही यदि हमला करेंगे तो, पाकिस्तानी फौज सऊदी अरब में जाकर लड़ेगी.! ईरान और सऊदी अरब की लड़ाई, पाकिस्तान और भारत की लड़ाई,, इससे इस डील का कोई विशेष मतलब नहीं है.

शहबाज शरीफ ने.. जब सऊदी प्रिंस से यह डिफेंस डील साइन किया था, तब लाहौरी चूरन खाकर, मदमस्त होने वाले #भिखारियों ने बहुत उछलकूद मचाया था कि, यदि भारत.. पाकिस्तान पर हमला करता है तो.. तब उनके साथ सऊदी के सैनिक मिलकर भारत को जवाब देंगे.. परंतु सऊदी वाले यहां भिखारियों को गच्चा देते हुए, उन्हें अपने #बॉडीगार्ड के रूप में नियुक्त किया है, ना कि #पार्टनर के रूप में.

लेकिन भिखारी यह समझ रहे थे कि.. पाकिस्तान पर हमला सऊदी अरब पर हमला माना जाएगा! ऐसा इस डील में कहा गया था.. लेकिन बीते दिनों एलपीजी से भरे एक जहाज को इजरायल की तरफ से यमन के पास निशाना बनाया,, और ये खबर भी निकलकर आ रही है कि,, इजरायल ने पाकिस्तान के उस जहाज में सवार लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया है. लेकिन इस पूरे मामले में सऊदी अरब का भी कुछ अता-पता नहीं रहा है, न ही उसने इस पर अपना मुंह खोला है.. पाक का यह जहाज यमन के ‘रास अल ईशा’ पोर्ट पर खड़ा था..! तभी इस पाकिस्तानी जहाज पर इजरायली ड्रोन टूट पड़े..! पाकिस्तान पर ये इजरायल का पहला और अनोखा हमला है..!

मजे की बात देखिए कि कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान ने सऊदी अरब के साथ #डिफेंस डील किया था. जिसके तहत कहा जा रहा है कि एक देश पर हमला दूसरे देश पर भी हमला माना जाएगा, लेकिन यहां पर इजरायल ने अपने हमले में एक ऐसा #खेल कर दिया है, जिसके बाद अब तो सऊदी अरब ने भी चुप्पी साध ली है.

✍️Jiban Anand Mishra

मजरूह सुलतानपुरी ने जेल में लिखा गीत−एक दिन बिक जाएगा

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आज जिनका जन्मदिन है

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आज प्रसिद्ध फिल्मी गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का जन्मदिन है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर शहर में एक अक्टूबर, 1919 को हुआ था। उनके पिता एक पुलिस उप-निरीक्षक थे। पिता मजरूह सुल्तानपुरी को ऊंची से ऊंची तालीम देना चाहते थे। मजरूह ने लखनऊ के “तकमील उल तीब कॉलेज’ से यूनानी पद्धति की मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके बाद में वे एक हकीम के रूप में काम करने लगे थे।

बचपन

के दिनों से ही मजरूह सुल्तानपुरी को शेरो-शायरी करने का काफ़ी शौक़ था और वे अक्सर सुल्तानपुर में हो रहे मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे। इस दौरान उन्हें काफ़ी नाम और शोहरत भी मिली। उन्होंने अपनी मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी और अपना सारा ध्यान शेरो-शायरी की ओर लगाना शुरू कर दिया। इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर ‘जिगर मुरादाबादी’ से हुई।

वर्ष 1945 में ‘सब्बो सिद्धकी इंस्टीट्यूट’ द्वारा संचालित एक मुशायरे में हिस्सा लेने के लिए मजरूह सुल्तानपुरी मुम्बई गए। मुशायरे के कार्यक्रम में उनकी शायरी सुनकर मशहूर निर्माता ए.आर. कारदार उनसे काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने मजरूह सुल्तानपुरी से अपनी फ़िल्म के लिए गीत लिखने की पेशकश की। मजरूह ने कारदार साहब की इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि फ़िल्मों के लिए गीत लिखना वे अच्छी बात नहीं समझते थे।

‘जिगर मुरादाबादी’ ने मजरूह सुल्तानपुरी को तब सलाह दी कि फ़िल्मों के लिए गीत लिखना कोई बुरी बात नहीं है। गीत लिखने से मिलने वाली धन राशि में से कुछ पैसे वे अपने परिवार के खर्च के लिए भेज सकते हैं। जिगर मुरादाबादी की सलाह पर मजरूह सुल्तानपुरी फ़िल्म में गीत लिखने के लिए राजी हो गए। संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा। मजरूह ने उस धुन पर ‘गेसू बिखराए, बादल आए झूम के’ गीत की रचना की। मजरूह के गीत लिखने के अंदाज़ से नौशाद काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें अपनी नई फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी।

मजरूह ने वर्ष 1946 में आई फ़िल्म शाहजहाँ के लिए गीत ‘जब दिल ही टूट गया’ लिखा, जो बेहद लोकप्रिय हुआ। इसके बाद मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार नौशाद की सुपरहिट जोड़ी ने ‘अंदाज’, ‘साथी’, ‘पाकीजा’, ‘तांगेवाला’, ‘धरमकांटा’ और ‘गुड्डू’ जैसी फ़िल्मों में एक साथ काम किया। फ़िल्म ‘शाहजहाँ’ के बाद महबूब ख़ान की ‘अंदाज’ और एस. फाजिल की ‘मेहन्दी’ जैसी फ़िल्मों में अपने रचित गीतों की सफलता के बाद मजरूह सुल्तानपुरी बतौर गीतकार फ़िल्म जगत् में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।

अपनी वामपंथी विचार धारा के कारण मजरूह सुल्तानपुरी को कई बार कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। कम्युनिस्ट विचारों के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। मजरूह सुल्तानपुरी को सरकार ने सलाह दी कि अगर वे माफ़ी मांग लेते हैं, तो उन्हें जेल से आज़ाद कर दिया जाएगा, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी इस बात के लिए राजी नहीं हुए और उन्हें दो वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया। जेल में रहने के कारण मजरूह सुल्तानपुरी के परिवार की माली हालत काफ़ी ख़राब हो गई।

जिस समय मजरूह जेल में अपने दिन काट रहे थे, राजकपूर ने उनकी सहायता करनी चाही, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी ने उनकी सहायता लेने से इंकार कर दिया। इसके बाद राजकपूर ने उनसे एक गीत लिखने की पेशकश की। मजरूह सुल्तानपुरी ने जेल में ही ‘एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल’ गीत की रचना की, जिसके एवज में राजकपूर ने उन्हें एक हज़ार रुपये दिए। लगभग दो वर्ष तक जेल में रहने के बाद मजरूह सुल्तानपुरी ने एक बार फिर से नए जोश के साथ काम करना शुरू कर दिया। वर्ष 1953 मे प्रदर्शित फ़िल्म ‘फुटपाथ’ और ‘आरपार’ में अपने रचित गीतों की कामयाबी के बाद मजरूह सुल्तानपुरी फ़िल्म इंडस्ट्री में पुन: अपनी खोई हुई पहचान बनाने में सफल हुए।

मजरूह सुल्तानपुरी के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी संगीतकार एस.डी. बर्मन के साथ भी खूब जमी। एस.डी. बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी वाली फ़िल्मों में ‘पेइंग गेस्ट’, ‘नौ दो ग्यारह’, ‘सोलवां साल’, ‘काला पानी’, ‘चलती का नाम गाड़ी’, ‘सुजाता’, ‘बंबई का बाबू’, ‘बात एक रात की’, ‘तीन देवियां’, ‘ज्वैलथीफ़’ और ‘अभिमान’ जैसी सुपरहिट फ़िल्में शामिल हैं। मजरूह सुल्तानपुरी के महत्त्वपूर्ण योगदान को देखते हुए वर्ष 1993 में उन्हें फ़िल्म जगत् के सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से नवाजा गया। इसके अलावा वर्ष 1964 मे प्रदर्शित फ़िल्म ‘दोस्ती’ में अपने रचित गीत ‘चाहूँगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिए वह सर्वश्रेष्ठ गीतकार के ‘फ़िल्म फ़ेयर’ पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए।

जाने-माने निर्माता-निर्देशक नासिर हुसैन की फ़िल्मों के लिए मजरूह सुल्तान पुरी ने सदाबहार गीत लिखकर उनकी फ़िल्मों को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मजरूह सुल्तानपुरी ने सबसे पहले नासिर हुसैन की फ़िल्म ‘पेइंग गेस्ट’ के लिए सुपरहिट गीत लिखा। उनके सदाबहार गीतों के कारण ही नासिर हुसैन की अधिकतर फ़िल्में आज भी याद की जाती हैं। इन फ़िल्मों में ख़ासकर ‘फिर तीसरी मंजिल’, ‘बहारों के सपने’, ‘प्यार का मौसम’, ‘कारवाँ’, ‘यादों की बारात’, ‘हम किसी से कम नहीं’ और ‘जमाने को दिखाना है’ जैसी कई सुपरहिट फ़िल्में शामिल हैं।

मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने चार दशक से भी अधिक लंबे सिने कैरियर में लगभग 300 फ़िल्मों के लिए 4000 गीतों की रचना की। अपने रचित गीतों से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले इस महान् शायर और गीतकार ने 24 मई, 2000 को इस दुनिया को अलविदा दिया।

उनके कुछ बेहद लोकप्रिय गीत-

छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा

छलकाए जाम आइए आपकी आँखों के नाम

ठाड़े रहियो ओ बाँके यार रे ठाड़े रहियो

जाइए आप कहाँ जाएंगे

ले के पहला पहला प्यार

तेरे मेरे मिलन की ये रैना

रहें न रहें हम महका करेंगे

चुरा लिया है तुमने जो दिल को

ओ मेरे दिल के चैन

रसिक बलमा

हम हैं राही प्यार के

−रमाकांत शुक्ला की वॉल से साभार

पूर्व गृहमंत्री पी चिदम्बरम का कबूलनामा

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कौशल सिखौला

वरिष्ठ पत्रकार

पूर्व गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने 17 साल बाद कुबूल किया कि 26/11 के बाद भारत सरकार अमेरिकी दबाव के आगे झुक गई थी । अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय जगत ने मनमोहन सरकार पर जबरदस्त दबाव डाला कि पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्रवाई न की जाए । तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कॉलिंडिजा राइस इस सम्बन्ध में खुद भारत आईं ।

उन्होंने कहा कि तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने आतंकवादी घटना के बाद त्यागपत्र दिया था, लेकिन हमारी यूपीए सरकार देश में फैले आक्रोश के बावजूद पाकिस्तान के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा पाई । एक मीडिया चैनल को दिए साक्षात्कार में चिदंबरम ने ऐसे खुलासे किए जिसने 2008 में हुई भीषण घटना के बाद कांग्रेस की कायरता को उजागर किया है ।

अब ऑपरेशन सिंदूर के बाद ” नरेंदर सरेंडर ” जैसे शर्मनाक और फूहड़ बयान देने वाले राहुल गांधी क्या जवाब देंगे ? संसद के पूरे मानसून सत्र में सदन के भीतर बाहर छातियां पीटने वाला विपक्ष क्या कांग्रेस से सवाल पूछेगा ? भारतीय सेना पहले ही कह चुकी है 26/11 के बाद देश में उमड़े जबरदस्त आक्रोश और पाक आतंकी कसाब के जिंदा पकड़े जाने के बाद सेना बहुत बड़ी कार्रवाई करना चाहती थी । लेकिन मनमोहन सरकार ने हरी झंडी देने से इनकार कर दिया था । सेना बेबसी और अपमान का घूंट पीकर बैठी रह गई । केन्द्र की चुप्पी से पाकिस्तान को क्लीन चिट मिल गई । तमाम जिन्दा सबूतों के बावजूद सरकार कायरों की तरह कुछ भी न कर पाई । यूपीए के अन्य घटकों ने भी होंठ सिल लिए ।

चिदंबरम की स्वीकारोक्ति के बाद हमे मोदी सरकार और सेना द्वारा किए गए ऑपरेशन सिंदूर पर भारी गर्व हो चला है । बड़बोले डोनाल्ड ट्रम्प की हेकड़ी और मध्यस्थता के कोरे झूठ को सरकार ने जिस तरह नकारा वह भारत को और भी ऊंचे आसान पर बैठाने के लिए काफी है । हम नए भारत , जुझारू भारत सरकार और जांबाज सेना को साधुवाद देते हैं , सेल्यूट देते हैं । सिंदूर ऑपरेशन की सफलता से भारत की छाती फूलकर 100 इंच चौड़ी हो गई है ।

हम नहीं समझते कि कांग्रेस के नेताओं को अभी भी कोई शर्म आएगी । लेकिन धन्यवाद चिदंबरम साहब , 17 साल बाद ही सही आपकी आत्मा जागी तो ? अमेरिका में हुए 9/11 के बाद मुंबई का 26/11 दूसरी सबसे बड़ी आतंकवादी घटना थी । कांग्रेस सरकार ने थर थर कांपते हुए यदि उस समय करारा जवाब दिया होता तो पुलवामा न होता पहलगाम न होता । चलिए चिदंबरम साहब ! कम से कम आपने तो अपनी यूपीए सरकार की गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया और कायरपन भी उजागर कर ही दिया ।

−कौशल सिखौला

युद्धोन्मादी दौर में गांधी के विचार आज भी प्रासंगिक

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बाल मुकुंद ओझा

 गांधी जयंती, 2 अक्टूबर को देशभर में प्रार्थना सभाओं, विभिन्न कार्यक्रमों के साथ राजधानी दिल्ली में गांधी प्रतिमा के सामने श्रद्धांजलि अर्पित कर मनाई जाती है। महात्मा गांधी की समाधि पर राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री सहित बड़े बड़े नेता प्रार्थना सभा में शामिल होकर अपनी श्रद्धांजलि देते है। गांधी की याद में रघुपति राघव राजा राम गाकर औपचारिकता का निर्वहन करते हैं। आज भी देश और दुनिया में वंचित, शोषित और पीड़ित समुदाय अपने अधिकारों के संघर्ष के लिए महात्मा गांधी के बताये आंदोलन की राह पर चलकर अपना हक हासिल करते हैं। यह गाँधी के विचारों की सबसे बड़ी जीत है। दो अक्टूबर, अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस  के रूप में भी मनाया जाता है। आज देश और दुनिया में युद्ध, नक्सलवाद, आतंकवाद, हिंसा और प्रतिहिंसा के बादल मंडरा रहे हैं, ऐसे युद्धोन्मादी दौर में गांधी के आदर्श और सिद्धांत सबके लिए और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं।

आजादी के 78 वर्षों के बाद नई पीढ़ी के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि देश को शांति और अहिंसा के मार्ग पर ले जाने वाले गाँधी के विचारों की हत्या किसने की। झूठी सौगंध खाने वाले लोग कौन है और उनके मनसूबे क्या है। गोडसे के नाम की ताली हम कब तक पीटते रहेंगे। आखिर देश गाँधी के बताये मार्ग से क्यों भटका। आज सम्पूर्ण विश्व भारतवासियों से पूछ रहा है कि संसार को अहिंसा का पाठ पढा़ने वाले बापू के देश में बात बात पर मार काट क्यों मच रही है। हमें इस पर गहराई से चिंतन और मनन करने की जरूरत है। गांधी जयंती के मौके पर हम देश के लिए अपनी जान गंवाने वाले शहीदों को याद करते हैं। साथ ही हम उन महान पुरुषों को भी याद करते हैं जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अपना बलिदान दिया।

सच तो यह है कि गांधी जयंती के अवसर पर अहिंसा दिवस पर हम कश्मे खाते है उनके पदचिन्हों पर चलने की मगर हमारा आचरण इसके सर्वथा विपरीत होता है। आज सम्पूर्ण देश में गांधी जयंती पर अहिंसा दिवस भी मनाया जाता है। अब यह भी कागजी हो गया है। देश में कुछ असामाजिक संगठन, विभिन्न नामों से देश की शांति भंग करने पर उतारू है। ये लोग आतंकवादियों की शह पर हमारी एकता छिन्न भिन्न कर सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ रहे है। कश्मीर की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। पाकिस्तान छद्म युद्ध पर उतारू है। कुछ सियासी तत्व नेपाल, बांग्ला देश का हवाला देकर लोकतान्त्रिक देश में आग भड़काने का प्रयास भी कर रहे है। ऐसे में अहिंसा की बाते बेमानी हो गयी है।

 महात्मा गांधी त्याग और बलिदान की मूर्ति थे। सादा जीवन और उच्च विचार उनका आदर्श था और वे भारतीय जनमानस में सदैव प्रेरणा के स्त्रोत रहेंगें। अहिंसा और सादगी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के प्रमुख अलंकार थे। उनके ये दोनों गुण आज भी आमजन को एक गौरवशाली जीवन की प्रेरणा देते हैं।

एक गांधी जी थे जिन्होंने सत्य ओर अहिंसा का पाठ पढ़ाया, आत्मविश्वास ओर आत्मनिर्भरता से जीना सिखाया। आज के दिन हमें उनके बतायें मार्ग पर चलने का संकल्प लेना चाहिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सादगी, सच्चाई और अहिंसा के मार्ग पर चलकर देश की आजादी के आंदोलन में अपनी ऐतिहासिक और निर्णायक भूमिका निभाई। उन्होंने देश को स्वावलम्बन के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी और ग्राम स्वराज के साथ-साथ सुशासन और सुराज का भी मार्ग दिखाया।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

“बुराई पर विजय: क्या रावण सच में मर गए?

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क्या दशहरे का संदेश खो गया है?

दशहरा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है, लेकिन आज रावण दहन केवल मनोरंजन बन गया है। पुतले जलते हैं, पर समाज में अपराध, दुष्कर्म, घरेलू हिंसा और भ्रष्टाचार लगातार बढ़ रहे हैं। पुराना रावण विद्वान और शक्तिशाली था, पर अहंकार और वासना के कारण विनष्ट हुआ। आज के रावण और भी खतरनाक हैं, क्योंकि वे कानून और नैतिकता की परवाह किए बिना समाज में व्याप्त बुराइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दशहरे का असली संदेश यह है कि हमें अपने भीतर और समाज में व्याप्त दोषों का संहार करना चाहिए, तभी वास्तविक विजय संभव है।

– डॉ सत्यवान सौरभ

दशहरा, जिसे विजयादशमी भी कहा जाता है, हमारे समाज में बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस दिन रावण का दहन करके यह संदेश दिया जाता है कि बुराइयाँ समाप्त हो जाएँ और धर्म और नैतिकता की स्थापना हो। परंतु आज के दौर में यह पर्व केवल उत्सव और मनोरंजन का साधन बनता जा रहा है। रावण दहन के पुतले जलते हैं, मगर समाज में व्याप्त रावण – यानी अपराध, दुराचार और नैतिक पतन – लगातार बढ़ते जा रहे हैं।

हर साल दशहरे पर लोग बड़े उत्साह के साथ रावण के पुतले फोड़ते और जला देते हैं। इसका उद्देश्य हमेशा यह रहा कि बुराइयों का नाश हो और अच्छाई की विजय हो। लेकिन वर्तमान समाज में यह प्रतीकात्मक क्रिया केवल दृश्य मनोरंजन बनकर रह गई है। लोग इसे देखने आते हैं, सोशल मीडिया पर फोटो और वीडियो डालते हैं, पर भीतर अपने जीवन या समाज में व्याप्त बुराइयों को बदलने का प्रयास नहीं करते।

पुराने समय में रावण महाज्ञानी, शक्तिशाली और नीति पालन करने वाला शासक था। वह भगवान शिव का उपासक था, विद्वान था, और शूरवीर भी। उसकी एक गलती – वासना के कारण सीता का हरण – उसे नाश की ओर ले गई। रावण के जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि कोई भी व्यक्ति अपनी विद्वत्ता, शक्ति या संसाधनों के बल पर नैतिक पतन के मार्ग पर टिक नहीं सकता। यदि अहंकार और वासना हृदय पर हावी हो जाए तो विनाश निश्चित है।

आज का समाज भी इसी तरह के रावणों से भरा है। पुराना रावण केवल एक व्यक्तित्व था, जबकि आज के रावण हर घर, गली, शहर और गाँव में विद्यमान हैं। अपराध, हत्या, दुष्कर्म, घरेलू हिंसा, रिश्वत और भ्रष्टाचार की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह केवल पुलिस या कानून व्यवस्था का मुद्दा नहीं है, बल्कि समाज के नैतिक पतन का संकेत भी है।

हमारे दशहरे के पर्व में जलते पुतले यह दिखाते हैं कि बुराई का अंत हो गया। परंतु वास्तविकता यह है कि बुराई समाज में कहीं भी कम नहीं हुई। आज के “रावण” धूर्त, अहंकारी और क्रूर हैं। वह अपने लाभ के लिए किसी की भी हानि करने से नहीं हिचकिचाते। दहेज़ के लिए पत्नी को जलाना, महिलाओं का अपहरण, बलात्कार और बच्चों पर अत्याचार – ये केवल कुछ उदाहरण हैं। यह सब समाज में बड़े पैमाने पर घट रहा है।

पुराने रावण ने अपने भीतर की इच्छाओं और अहंकार के कारण ही विनाश का मार्ग अपनाया। आज के रावण और भी खतरनाक हैं, क्योंकि वे केवल बाहरी शक्ति और कानून का इस्तेमाल करके अपने स्वार्थ साधते हैं। उनमें नैतिकता, ईमानदारी या धर्म के लिए कोई श्रद्धा नहीं है। परिणामस्वरूप, समाज में विश्वास और मानवता का संकट बढ़ता जा रहा है।

रावण दहन का असली उद्देश्य केवल पुतले जलाना नहीं है। यह हमें अपने भीतर के रावणों – दोष, नकारात्मक भावनाओं और बुराइयों – को पहचानने और दूर करने की शिक्षा देता है। जब तक हम अपने भीतर के अहंकार, द्वेष, झूठ, कपट और वासना को नहीं मारेंगे, तब तक समाज में स्थायी परिवर्तन संभव नहीं है।

आपकी कविता “जलते पुतले पूछते…” इस संदेश को बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त करती है। इसमें यह दिखाया गया है कि पुतले जलते हैं, पर असली रावण समाज में बढ़ते ही रहते हैं। हर वर्ष रावण का वध होता है, लेकिन मन में रावण कहीं और पनपता है। इसका अर्थ यही है कि बाहरी उत्सव केवल प्रतीकात्मक क्रिया है, जबकि असली युद्ध हमें अपने अंदर करना है।

आज का समाज शिक्षित और जागरूक है, पर फिर भी बुराइयाँ बढ़ रही हैं। अपराध, दुष्कर्म, घरेलू हिंसा, भ्रष्टाचार, अनैतिक व्यापार – ये सभी आधुनिक रावणों के उदाहरण हैं। बच्चों और युवाओं पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है। यदि हम केवल रावण दहन के उत्सव में आनंद लेते रहेंगे और बुराइयों के खिलाफ वास्तविक प्रयास नहीं करेंगे, तो यह उत्सव खाली प्रतीक बनकर रह जाएगा।

दशहरे का असली अर्थ तब पूरा होता है जब हम अपने भीतर के दोषों का संहार करें। झूठ, कपट, अहंकार, वासना और द्वेष – इन्हें पहचानकर दूर करना ही असली विजय है। यह केवल सामाजिक और नैतिक सुधार का मार्ग नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत उन्नति का भी मार्ग है।

रावण का जीवन अत्यंत शिक्षाप्रद है। वह महाज्ञानी था, पर अहंकार और वासना के कारण विनष्ट हुआ। यही शिक्षा आज के समाज के लिए महत्वपूर्ण है। हमें यह समझना होगा कि बाहरी प्रतीक केवल मार्गदर्शन कर सकते हैं; वास्तविक परिवर्तन अंदर से होना आवश्यक है।

समाज में बदलाव केवल व्यक्तियों के प्रयास से संभव है। माता-पिता, शिक्षक, समाज के वरिष्ठ लोग और नीति निर्माता सभी को मिलकर युवाओं और बच्चों में नैतिक शिक्षा, सदाचार और मानवता का बीज बोना होगा। तभी दशहरे का वास्तविक संदेश – बुराई पर अच्छाई की विजय – साकार हो सकता है।

यदि हम चाहते हैं कि रावण दहन का पर्व केवल जलते पुतलों तक सीमित न रहे, तो हमें अपने अंदर झूठ, कपट, अहंकार और द्वेष का अंत करना होगा। अपने समाज के भीतर व्याप्त अपराध और अनैतिकता पर विजय पाना होगा। तभी दशहरे का त्योहार न केवल उत्सव बनेगा, बल्कि वास्तविक रूप से समाज सुधार और नैतिकता का प्रतीक बनेगा।

आज के समय में रावण केवल एक व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि समाज में व्याप्त उन सभी बुराइयों का प्रतीक है जो रिश्तों, परिवार और सामाजिक जीवन को नुकसान पहुंचाती हैं। जब तक हम अपने भीतर और समाज में इन रावणों का संहार नहीं करेंगे, तब तक दशहरे का असली अर्थ खोता रहेगा।

अंततः यह केवल प्रतीकात्मक पर्व नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण और सुधार का अवसर होना चाहिए। जलते पुतले हमें केवल याद दिलाते हैं कि रावण का अंत आवश्यक है, पर असली विजय अपने भीतर और समाज में व्याप्त बुराइयों पर तभी संभव है। अगर हम यह संदेश नहीं समझेंगे, तो दशहरे के हर साल रावण का वध केवल दृश्य बनकर रह जाएगा, और समाज में वास्तविक रावण बढ़ते रहेंगे।

-प्रियंका सौरभ 

ये है राष्ट्रवाद

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−कौशल सिखौला

वरिष्ठ पत्रकार

जो लोग राष्ट्रवाद का नाम सुनते ही झुलस जाते हैं , एक बार फिर देख लिया न राष्ट्रवाद ? दिक्कत यह है कि कुछ ज्वलनशील लोग राष्ट्रवाद का शब्द सुनते ही उसे हिन्दुत्व से जोड़ने लगते हैं । पता नहीं उन्हें पाकिस्तान पर भारत की जीत से पता चला या नहीं कि राष्ट्रवाद क्या होता है ?

जब पाकिस्तान को एक बार हराया तो राष्ट्रवाद उभरा । दूसरी बार हराया तो फिर से राष्ट्रवाद का उल्हास एक जुनून बनकर गली गली फैल गया । और फिर फाइनल में पाकिस्तान को जो धोया तो ऐसा धोया कि सारा पाकिस्तान पूरी रात कूक मार कर रोया । और भारत ? भारत पर दो दिनों से जुनून छाया हुआ है । राष्ट्रवाद का सैलाब ऐसा उमड़ा हुआ है कि गलियों मोहल्लों तक फैल गया है । तब तक फैला रहेगा जब तक कि हमारी एशियन ट्रॉफी और व्यक्तिगत गोल्ड मेडल लेकर भागा पीसीबी अध्यक्ष मोहसिन बीसीसीआई को उन्हें वापस नहीं भिजवा देता ।

याद दिला दें कि पीसीबी अध्यक्ष मोहसिन नकवी पाकिस्तान का गृहमंत्री भी है । पाकिस्तान के तमाम आतंकी ठिकाने उसी कट्टरवादी की अगुवाई में चल रहे हैं । बताइए ! भारत के यशस्वी कप्तान सूर्य कुमार यादव पहलगाम के उस हत्यारे के हाथों ट्रॉफी कैसे ले लेते ? पहलगाम के खून से रंगे उसके हाथ से हाथ कैसे मिलाते ? इसीलिए तो एक बार भी आतंकिस्तान से आई पाक टीम से हाथ नहीं मिलाया ?

सूर्य कुमार यादव उर्फ सूर्या ने सच्चे राष्ट्रवादी होने का परिचय दिया है । उन लोगों का यहां हम नाम भी नहीं लेना चाहते जो भगवान कृष्ण के वंशज तो हैं पर राष्ट्रवाद का नाम लेते ही उबल पड़ते हैं , इतिहास या सनातन की बात करने पर जिन्हें मिर्ची लग जाती है । क्रिकेट हो , हाकी हो , कबड्डी हो या ओलंपिक खेल । भारत जब भी विजयी होता है , 145 करोड़ देश वासियों के 290 करोड़ हाथ हिन्दुस्तान का जयकारा लगाते हुए आसमान की ओर उठ जाते हैं ।

हां , कुछ हैं सिरफिरे जो पाकिस्तान की हार पर आंसू बहाते हैं । भारत की जीत पर इस बार भी कुछ बड़े लोग इसलिए चुप रहे कि कहीं उनका वोट बैंक नाराज न हो जाए ? बहुत से इसलिए चिढ़ गए चूंकि प्रधानमंत्री ने ट्वीटकर इस जीत को मैदान पर हुए सिंदूर से जोड़ दिया ? हालांकि देश ने दिखा दिया कि राष्ट्रीय अवसरों पर देश में न कोई जाति है और न कोई धर्म है । बस एक राष्ट्र है भारत , एकध्वज है तिरंगा । यही तो परम राष्ट्रवाद है । जिनमें नहीं हैं तो घर बैठो , राष्ट्रवादियों से चिढ़ते क्यों हो ? सूर्या ! तुम्हें फिर से साधुवाद , तुमने देश को एक जुट दिखाई देने का एक और अवसर दिया ।

….कौशल सिखौला