“संत दुर्बलनाथ जी महाराज : सत्य, साधना और समरसता के प्रकाशस्तंभ”

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संत दुर्बलनाथ जी महाराज ने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि सत्य का पालन, साधना का अभ्यास और समाज में समरसता का प्रसार ही वास्तविक धर्म है। उन्होंने आडंबरों और भेदभाव का विरोध किया तथा शिक्षा, नैतिकता और सेवा को मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बताया। आज जब समाज भौतिकता और विभाजन की ओर बढ़ रहा है, तब उनकी शिक्षाएँ हमें ठहरकर सोचने और सही मार्ग चुनने की प्रेरणा देती हैं। उनका जीवन और विचार आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत बने रहेंगे।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत की महान संत परंपरा में संत दुर्बलनाथ जी महाराज का नाम विशेष आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। उनका जीवन एक साधक का ही नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक, शिक्षक और आध्यात्मिक पथप्रदर्शक का था। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि साधना का अर्थ केवल व्यक्तिगत मुक्ति नहीं, बल्कि पूरे समाज को प्रकाशमय करना है। उनका संदेश था कि सत्य की राह कठिन हो सकती है, लेकिन वही मनुष्य को उच्चतम शिखर तक ले जाती है।

संत दुर्बलनाथ महाराज (जन्म 1918 ग्राम बिचगाँव, जिला अलवर, राजस्थान) ने अपने जीवन को अध्यात्म, तप और साधना के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, ऊंच-नीच और असमानताओं को समाप्त करने का बीड़ा उठाया। उनका संदेश था कि ईश्वर एक है और हर व्यक्ति ईश्वर की संतान है। संत दुर्बलनाथ जी महाराज ने खटीक समाज को नई दिशा और प्रेरणा दी। उन्होंने इस समाज को शिक्षा, संगठन और एकता के महत्व को समझाया। उनका मानना था कि यदि समाज को प्रगति करनी है, तो उसे ज्ञान और नैतिकता दोनों में आगे बढ़ना होगा।

आज खटीक समाज जिन क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दे रहा है, उसमें संत दुर्बलनाथ जी महाराज की शिक्षाओं का सीधा प्रभाव है। शिक्षा और सेवा की दिशा में उनके बताए मार्ग पर चलकर समाज ने अपनी पहचान बनाई है।

उनकी शिक्षाओं ने खटीक समाज को आत्मसम्मान, साहस और नई सोच दी। यही कारण है कि आज यह समाज न केवल अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है, बल्कि समाज सुधार और राष्ट्र निर्माण में भी सक्रिय योगदान दे रहा है।

संत दुर्बलनाथ जी महाराज ने अपने जीवन में तप, त्याग और सेवा को आधार बनाया। उन्होंने कभी भी दिखावे या आडंबर को महत्व नहीं दिया। उनके लिए भक्ति का अर्थ केवल मंदिरों की परिक्रमा नहीं था, बल्कि मानवता की सेवा करना था। वे मानते थे कि हर प्राणी में परमात्मा का अंश है और उसकी सेवा ही सच्ची पूजा है। उनकी साधना न केवल आत्मिक उन्नति की साधना थी, बल्कि समाज के उत्थान की भी साधना थी।

उनकी शिक्षाओं का एक केंद्रीय बिंदु था — सत्य। वे कहा करते थे कि झूठ पर आधारित कोई भी व्यवस्था टिक नहीं सकती। चाहे वह व्यक्ति का जीवन हो, परिवार हो या समाज, उसकी नींव सत्य पर ही टिकी रहनी चाहिए। यही कारण है कि उन्होंने अपने अनुयायियों को सदैव सत्य बोलने, सत्य स्वीकार करने और सत्य का पालन करने की प्रेरणा दी। उनका यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है कि “सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं और असत्य से बड़ा कोई पाप नहीं।”

संत दुर्बलनाथ जी महाराज ने सामाजिक समरसता को अपने जीवन का मिशन बना लिया। वे जाति, वर्ग और धर्म के भेदभाव के खिलाफ थे। उनका मानना था कि जब तक समाज में विभाजन रहेगा, तब तक सच्ची शांति स्थापित नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि मनुष्य का मूल्य उसकी जाति या जन्म से नहीं, बल्कि उसके कर्म और आचरण से तय होता है। उनके प्रवचनों में हमेशा यह संदेश गूँजता था कि हमें हर इंसान को समान दृष्टि से देखना चाहिए, तभी समाज में समरसता स्थापित हो सकती है।

उनकी शिक्षाओं का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू शिक्षा था। वे मानते थे कि शिक्षा ही वह साधन है, जिससे अज्ञान का अंधकार दूर हो सकता है। लेकिन शिक्षा का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान नहीं था, बल्कि नैतिक शिक्षा, मानवता का बोध और कर्तव्यपरायणता भी उसमें शामिल थी। वे चाहते थे कि हर बालक और हर युवा अपने भीतर ज्ञान का दीप जलाए और उसी ज्ञान से समाज का मार्ग प्रशस्त करे। आज जब शिक्षा केवल नौकरी पाने का साधन बन गई है, तब संत दुर्बलनाथ जी की शिक्षा संबंधी दृष्टि हमें मूल्यों की ओर लौटने की प्रेरणा देती है।

संत दुर्बलनाथ जी महाराज ने अपने जीवन से यह संदेश भी दिया कि साधना केवल पहाड़ों, जंगलों या मठों तक सीमित नहीं है। साधना वही है, जो जीवन के हर क्षण में, हर कार्य में की जाए। उन्होंने कहा था कि खेतों में हल चलाना भी साधना है, यदि वह ईमानदारी और परिश्रम से किया जाए। परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाना भी साधना है, यदि उसमें प्रेम और सत्य का भाव हो। उनका यह दृष्टिकोण जीवन को धर्म और धर्म को जीवन से जोड़ता है।

आज के दौर में जब समाज भौतिकता और उपभोग की दौड़ में उलझा हुआ है, तब संत दुर्बलनाथ जी महाराज की शिक्षाएँ हमें ठहरकर सोचने पर मजबूर करती हैं। वे हमें याद दिलाती हैं कि धन और पद की चमक क्षणिक है, लेकिन सत्य, साधना और सेवा अमर हैं। यदि हम केवल भौतिक सुख की खोज करेंगे तो भीतर से खाली हो जाएँगे। लेकिन यदि हम संतों की शिक्षाओं का पालन करेंगे तो जीवन में संतोष, शांति और उद्देश्य मिलेगा।

संत दुर्बलनाथ जी महाराज का जीवन यह भी सिद्ध करता है कि एक साधक केवल अपने लिए नहीं जीता, वह पूरे समाज के लिए जीता है। उनकी साधना का फल केवल उनके शिष्यों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि समाज के हर वर्ग ने उससे लाभ पाया। आज भी उनके अनुयायी शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं, जो उनके विचारों की जीवंत धारा है।

हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है — असत्य, अन्याय और असमानता। समाज में विभाजन, कट्टरता और स्वार्थ की राजनीति बढ़ रही है। ऐसे समय में संत दुर्बलनाथ जी महाराज की शिक्षाएँ हमें राह दिखाती हैं। वे हमें बताते हैं कि सच्चा धर्म केवल पूजा-पाठ में नहीं, बल्कि सत्यनिष्ठा, सेवा और समरसता में है। यदि हम इन मूल्यों को अपनाएँ तो न केवल व्यक्तिगत जीवन सुधरेगा, बल्कि पूरा समाज सुख और शांति की ओर अग्रसर होगा।

उनकी विरासत को समझने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हमारी है। संत दुर्बलनाथ जी महाराज ने जो आदर्श स्थापित किए, उन्हें केवल किताबों में पढ़ने या प्रवचनों में सुनने भर से कुछ नहीं होगा। आवश्यकता है कि हम उन्हें अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ। सत्य बोलने का साहस करें, साधना को जीवन का केंद्र बनायें और समाज में समरसता के लिए काम करें। तभी हम सच्चे अर्थों में उनके अनुयायी कहलाएँगे।निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संत दुर्बलनाथ जी महाराज एक साधक मात्र नहीं थे, वे एक युगदृष्टा थे। उनका जीवन, उनके विचार और उनकी साधना आने वाली पीढ़ियों को हमेशा मार्गदर्शन देते रहेंगे। वे हमें यह सिखाते हैं कि सच्चा संत वही है, जो दूसरों के लिए जीता है और जिसकी वाणी तथा कर्म दोनों ही समाज को एक नई दिशा देते हैं। आज जब दुनिया अनिश्चितताओं से घिरी हुई है, तब उनके आदर्श और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं। सच तो यह है कि संत दुर्बलनाथ जी महाराज केवल अतीत के नहीं, बल्कि भविष्य के भी प्रकाशस्तंभ हैं।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)

लगातार बारिश में बढ़ते खतरे और हमारी जिम्मेदारी

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लगातार बारिश ने जनजीवन को चुनौती दी है। बिजली की लाइनें, खंभे और खुले तार मौत का जाल बन सकते हैं, वहीं पानी से भरी सड़कें और नालियां दुर्घटनाओं को न्योता देती हैं। ऐसे में नागरिकों की छोटी-सी लापरवाही बड़ी त्रासदी में बदल सकती है। प्रशासन ने चेतावनी दी है कि बारिश के दिनों में बिना वजह घर से बाहर न निकलें और बिजली से जुड़े उपकरणों से दूरी बनाए रखें। समाज को मिलकर जागरूकता फैलानी होगी। याद रखें – सुरक्षा ही बचाव है और ज़िंदगी है तो सब कुछ है।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

बरसात का मौसम प्रकृति की सबसे सुंदर देन है। यह धरती की प्यास बुझाता है, फसलों को जीवन देता है, नदियों और तालाबों को भरता है और वातावरण को शुद्ध करता है। लेकिन जब यह बारिश लगातार और असामान्य रूप से होती है, तो यही वरदान कभी-कभी अभिशाप का रूप भी ले लेता है। भारत जैसे देश में, जहां अब भी बुनियादी ढांचे की मजबूती पूरी तरह से नहीं हो पाई है, वहां लगातार बारिश लोगों के लिए मुसीबत बन जाती है। पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि असामान्य बारिश के कारण कई राज्यों में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हुई, सैकड़ों लोग बेघर हो गए, बिजली और पानी की आपूर्ति बाधित हो गई और जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया।

ऐसे समय में केवल सरकार या प्रशासन पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि हर नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह स्वयं भी सावधानी बरते और दूसरों को जागरूक करे। यह सच है कि प्राकृतिक आपदाएँ पूरी तरह से हमारे नियंत्रण में नहीं होतीं, लेकिन सावधानी और अनुशासन से हम उनके प्रभाव को कम कर सकते हैं।

बरसात के दिनों में सबसे बड़ा खतरा बिजली से होता है। जब जमीन गीली हो, सड़कें पानी से भरी हों और चारों ओर नमी फैली हो, तो करंट लगने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। बिजली विभाग ने समय रहते जनता को चेताया है कि इस मौसम में बिजली की तारों, खंभों, केबल और मीटर से दूरी बनाए रखें। ज़रा सी लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है। भारत में हर साल बारिश के मौसम में सैकड़ों लोग बिजली के करंट की चपेट में आकर अपनी जान गंवा बैठते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार, केवल बिजली से जुड़े हादसों में हर साल करीब 10-12 हज़ार लोगों की मौत होती है, जिनमें बड़ी संख्या बारिश के महीनों में होती है। यह आंकड़े इस बात को स्पष्ट करते हैं कि खतरा कितना गंभीर है।

गांव और कस्बों में अब भी खुले तार, ढीले खंभे और जर्जर पोल आम दृश्य हैं। लगातार बारिश में जब ये पानी में डूब जाते हैं, तो इनमें करंट फैलने की संभावना बढ़ जाती है। यह खतरा और भी बढ़ जाता है जब लोग असावधानीवश इनसे संपर्क में आ जाते हैं। कई बार बच्चे खेल-खेल में पानी के गड्ढों में उतर जाते हैं, जबकि उन्हें यह पता नहीं होता कि उसी पानी में कोई बिजली का तार गिरा हुआ है। ऐसी घटनाएं हर साल होती हैं और यह हमारे समाज की सबसे बड़ी असावधानी को दर्शाती हैं।

बरसात के दिनों में घर से बाहर निकलना भी जोखिम से खाली नहीं है। बिना वजह घर से बाहर निकलने से बचना चाहिए। आवश्यक काम भी हो तो सावधानी के साथ जाना चाहिए। फिसलन भरी सड़कें, गहरे गड्ढे और नालियां पानी में छिप जाती हैं और दुर्घटनाएं आम हो जाती हैं। कई बार तो लोग केवल जिज्ञासा या मनोरंजन के लिए पानी से भरी जगहों पर चले जाते हैं, वहां फोटो खिंचवाते हैं, वीडियो बनाते हैं और सोशल मीडिया पर डालते हैं। लेकिन यही जिज्ञासा उन्हें खतरे में डाल देती है। अनजाने में वे गहरे गड्ढे, नालों या करंट लगे पानी की चपेट में आ सकते हैं। हमें यह समझना होगा कि रोमांच या दिखावे से बड़ी चीज़ हमारी जान है। सच यही है कि ज़िंदगी है तो सब कुछ है।

लगातार बारिश केवल व्यक्तिगत सुरक्षा को ही नहीं, बल्कि प्रशासन के लिए भी बड़ी चुनौती लेकर आती है। बिजली विभाग को चौबीसों घंटे सतर्क रहना पड़ता है ताकि लोगों तक बिजली की आपूर्ति बनी रहे और हादसों से बचा जा सके। नगर निगम और पंचायतों को जलभराव की समस्या से निपटना होता है। स्वास्थ्य विभाग को डेंगू, मलेरिया और पानी से फैलने वाली बीमारियों से लड़ना पड़ता है। बारिश के बाद मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाता है, जिससे अस्पतालों में मरीजों की संख्या अचानक कई गुना हो जाती है। यातायात विभाग को भी सड़क दुर्घटनाओं और ट्रैफिक जाम से जूझना पड़ता है। प्रशासन का यह प्रयास तभी सफल हो सकता है जब नागरिक भी जिम्मेदारी समझें और सहयोग करें।

बरसात जैसी प्राकृतिक चुनौती का सामना केवल प्रशासनिक उपायों से नहीं किया जा सकता। समाज को भी जागरूक होकर अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। मोहल्ले और गांव के लोग मिलकर नालियां साफ रखें ताकि जलभराव न हो। बिजली के खंभों और तारों की जानकारी विभाग तक पहुँचाएं। बच्चों को सिखाएं कि बारिश में खुले तार या पोल के पास न जाएं। सोशल मीडिया पर केवल सही जानकारी फैलाएं, अफवाहें नहीं। कई बार झूठी खबरें और अफवाहें स्थिति को और गंभीर बना देती हैं।

बरसात हमें केवल संकट ही नहीं देती, बल्कि यह हमें कई सबक भी सिखाती है। यह हमें बताती है कि हमें अपने बुनियादी ढांचे को और मजबूत करना चाहिए। यह याद दिलाती है कि बिजली और पानी जैसे प्राकृतिक तत्वों से खिलवाड़ करना जानलेवा हो सकता है। यह हमें सिखाती है कि अनुशासन और सावधानी ही जीवन की रक्षा करते हैं। अगर लोग थोड़ी सी सावधानी बरतें तो बड़ी से बड़ी आपदा का असर भी कम किया जा सकता है।

हमारे देश में कई बार देखा गया है कि जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है, तो लोग मिलकर उसका सामना करते हैं। बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए स्वयंसेवी संगठन आगे आते हैं, लोग एक-दूसरे को आश्रय और भोजन देते हैं। यही सामूहिकता और सहयोग भारतीय समाज की सबसे बड़ी ताकत है। बरसात जैसी स्थिति में भी यही सहयोग और जागरूकता जरूरी है।

बरसात का मौसम जितना सुंदर और जीवनदायी है, उतना ही खतरनाक भी हो सकता है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसे वरदान बनाएँ या अभिशाप। यदि हम सावधान रहेंगे, प्रशासन की चेतावनियों को गंभीरता से लेंगे और सामाजिक जिम्मेदारी निभाएँगे, तो यह मौसम हमारे लिए आनंद और ताजगी लेकर आएगा। लेकिन अगर हम लापरवाही करेंगे, बिजली के तारों और खंभों के पास जाएंगे, बिना वजह घर से निकलेंगे और अफवाहें फैलाएँगे, तो यह मौसम दुख और त्रासदी में बदल सकता है।

आज जरूरत इस बात की है कि हम सब मिलकर बरसात के इस मौसम को सुरक्षित बनाएं। बिजली के तार, खंभे और खुले मीटर से दूरी बनाए रखें। बिना वजह बाहर न निकलें और अगर निकलना भी पड़े तो पूरी सावधानी बरतें। प्रशासन का सहयोग करें, समाज में जागरूकता फैलाएं और अनुशासन बनाए रखें। याद रखिए – सुरक्षा ही बचाव है। और अंततः यही सच है कि ज़िंदगी है तो सब कुछ है।

-प्रियंका सौरभ 

क्वेटा में रैली के बाद आत्मघाती हमला, 14 मरे

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पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत की राजधानी क्वेटा में मंगलवार को देर रात हुए बम धमाके में कम से कम 14 लोग मारे गए। 35 के आसपास घायल हुए। धमाका बलूच नेशनल पार्टी (बीएनपी) ने एक राजनीतिक रैली के बाद हुआ। यह रैली सरदार अत्ताउल्लाह मेंगल की चौथी पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित की गई। यह बम धमाका शाहवानी स्टेडियम के पास उस समय हुआ जब लोग रैली के समापन के बाद लोग पार्किंग क्षेत्र से जा रहे थे।

इस बम धमाके से हाहाकार मच गया। बम। इस धमाके में 14 लोगों की मौत हो गई। इनमें से कुछ ने मौके पर ही दम तोड़ दिया, तो कुछ ने अस्पताल ले जाते समय या अस्पताल में अपनी आखिरी सांस ली।

अधिकारियों ने पुष्टि की है कि यह एक आत्मघाती हमला था। पुलिस के अनुसार, विस्फोट रैली समाप्त होने के लगभग 15 मिनट बाद हुआ।हमलावर ने पार्किंग क्षेत्र में विस्फोटकों से लदी अपनी जैकेट में कथित तौर पर उस समय विस्फोट कर दिया, जब लोग रैली में भाग लेने के बाद वहां से निकल रहे थे।

‘डॉन’ के अनुसार, रैली का नेतृत्व कर रहे बीएनपी प्रमुख अख्तर मेंगल को कोई चोट नहीं आई, क्योंकि विस्फोट उस समय हुआ जब वह घर के लिए निकल रहे थे।पख्तूनख्वा मिल्ली अवामी पार्टी के प्रमुख महमूद खान अचकजई, अवामी नेशनल पार्टी के असगर खान अचकजई और नेशनल पार्टी के पूर्व सीनेटर मीर कबीर मुहम्मद शाई भी रैली में मौजूद थे, लेकिन उन्हें कोई चोट नहीं आई। प्रांतीय असेंबली (एमपीए) के पूर्व बीएनपी सदस्य मीर अहमद नवाज बलूच और पार्टी के केंद्रीय श्रम सचिव मूसा जान सहित कई पार्टी कार्यकर्ता और समर्थक घायल हो गए।बीएनपी प्रमुख मेंगल ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में पुष्टि की कि वह सुरक्षित हैं, लेकिन ‘‘अपने कार्यकर्ताओं की मौत से बेहद दुखी हैं।’’ उन्होंने दावा किया कि विस्फोट में 15 बीएनपी कार्यकर्ताओं की जान चली गई।विस्फोट के बाद एक विशेष जांच समिति का गठन किया गया है और क्वेटा और उसके आसपास सुरक्षा बढ़ा दी गई है।

बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री मीर सरफराज बुगती ने हमले की निंदा करते हुए इसे ‘‘मानवता के दुश्मनों द्वारा किया गया कायराना कृत्य’’ बताया।

छत्तीसगढ़ में बांध टूटा, सात मरे

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  पूरे देश मे अतिवृष्टि और बाढ का प्रकोप जारी है। छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले विश्रामनगर स्थित धनेशपुर गांव में एक बांध टूटने से हाहाकार मच गया। जलाशय में भरा पानी रास्ते में आने वाले दो घरों को अपने साथ बहा ले गया। इस घटना में सात लोगों की मौत होने की आशंका जताई जा रही है। इन सात में छह लोग एक ही परिवार के हैं।

पुलिस ने देर रात तीन लाशें बरामद कर ली। मृतकों में सास-बहू भी शामिल हैं। वहीं, दो बच्चों समेत एक ग्रामीण अभी तक लापता है। इस घटना से पूरे इलाके में हड़कंप मच गया है।बांध टूटने की सूचना मिलते ही पुलिस और बचाव दल समेत अधिकारी मौके पर पहुंचे। गांव के लोग भी लापता ल की तलाश कर रहे हैं। यह हादसा बलरामपुर के विश्रामनगर स्थित धनेशपुर गांव का है। 1980-81 में यहां जलाशय बनाने के लिए बांध का निर्माण किया गया था।

तो क्या यही “ज्ञान ” हमें विश्व गुरु बनायेंगे ?

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निर्मल रानी
हमारा देश भारतवर्ष कभी न कभी ज़रूर विश्व गुरु रहा होगा। इसके लक्षण तो आप आज भी देख सकते हैं। जगह जगह लोग आपको सलाह देने वाले, घरेलु नुस्ख़ा या टोटका बताने वाले मिल जायेंगे। जो स्वयं अपने ही भविष्य के बारे में अनजान हैं, ऐसे तमाम लोग फ़ुट पाथ से लेकर बड़े बड़े आधुनिक कार्यालयों तक में बैठे भविष्य वक्ता आपको पूरे देश में बैठे मिल जायेंगे। । भारत चूँकि अपना भविष्य जानने वाले जिज्ञासुओं का एक बड़ा बाज़ार है। इसलिये तमाम बाबाओं व ज्योतषियों की ‘दुकानदारी ‘ इसी पर चल रही है। हमारे देश का एक काफ़ी बड़ा वर्ग इन अवैज्ञानिक व ग़ैर तार्किक बातों पर विश्वास भी करता है। आप देखिये कि भारत ही अकेला ऐसा देश है जहाँ करोड़ों रूपये कोठी निर्माण पर ख़र्च करने के बाद कोठी के मस्तक पर नज़रबट्टू ‘भूत ‘ लगाना नहीं भूलते,कहीं जूता या काला टायर भी लटका मिल जायेगा। यह हमारे देश के शिक्षित व संपन्न लोगों का हाल है तो ग़रीबों या अशिक्षित लोगों की बौद्धिकता पर सवाल ही क्या उठाना ?
बहरहाल,चूँकि हमारे देश के अधिकांश जनता अशिक्षित परन्तु धार्मिक प्रवृति की है इसलिये स्वयं को पढ़े लिखा कहने वाले कुछ चतुर्बुद्धि लोग उनकी सादगी,शराफ़त,भोलेपन,धार्मिक आस्था व विश्वास का लाभ उठाकर तरह तरह की धार्मिक व पौराणिक बातें बताकर उन्हें यह जताने की कोशिश करते हैं की हम चूँकि समान आस्था विश्वास व विचार वाले हैं इसलिये हम ही तुम्हारे शुभचिंतक हैं। लिहाज़ा हमें वोट दो और हमें सत्ता में बने रहने दो। परन्तु वैज्ञानिक व तार्किक सोच रखने वाले लोग जब इन्हें व इनके तर्कों को ख़ारिज करते हैं तो यह लोग बड़ी चतुराई व शातिरपने से सही बातों को झुठलाने के लिये इस पढ़े लिखे व तर्कशील वर्ग को अधार्मिक,धर्मद्रोही और ज़रूरत पड़ने पर राष्ट्रद्रोही भी बता देता है। गोया सच को झूठ और झूठ को सच बताने लगता है। और इससे बड़ा दुर्भाग्य यह कि लालची प्रोपेगंडा गोदी मीडिया भी इस घातक मिशन में ऐसे लोगों का साथ देता है।
उदाहरण के तौर पर इस्लामी यहूदी व ईसाई धर्म में समान रूप से माने जाने वाले पैग़ंबर हज़रत मूसा के बारे में एक क़िस्सा प्रचलित है कि उन्होंने अल्लाह के हुक्म से चमत्कारिक रूप से लाल सागर को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया था । बताया जाता है कि जब फ़िरऔन की सेना ने मूसा और उनके अनुयायियों को मारने के लिये उनका पीछा किया, तो मूसा ने अपने असा (एक प्रकार की छड़ी ) को समुद्र पर मारा। उसी समय अल्लाह ने समुद्र को दो भागों में बाँट दिया, जिससे मूसा व उनके समर्थक समुद्र पार कर गये परन्तु जब समुद्र के बीच बने इसी रस्ते से फ़िरऔन की सेना ने उनका पीछा किया, तो समुद्र फिर से मिल गया, और फ़िरऔन की सेना डूब गयी । इस घटना का उल्लेखन केवल कुरान नहीं बल्कि बाइबिल में भी मौजूद है। परन्तु क्या इस बात पर इस्लामी यहूदी व ईसाई धर्म के लोगों के अलावा किसी अन्य धर्म से सम्बन्ध रखने वाले तार्किक व वैज्ञानिक सोच के लोग विशवास करेंगे ? बिल्कुल नहीं क्योंकि उसके संस्कारों शिक्षा और उसके विश्वास या मान्यताओं में यह बातें हैं ही नहीं।
इस्लाम धर्म की ही एक क़िस्सा है जिसे पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के जीवन का एक सर्व प्रमुख चमत्कार माना जाता है। इसे इस्लामी इतिहास में “शक्क-ए-क़मर” यानी चाँद का दो टुकड़ों में बँटना,के नाम से जाना जाता है। मक्का की इस घटना के बारे में कहा जाता है कि जब कुरैश क़बीले के कुछ लोगों ने पैग़ंबर हजरत मुहम्मद की सिद्धि को परखने के लिये उनसे इस बड़े चमत्कार की माँग की। तब पैगंबर मुहम्मद ने अल्लाह की इजाज़त से चाँद को दो हिस्सों में बाँट दिया। कुछ देर तक अलग-अलग रहने के बाद चाँद फिर एक हो गया। इस ‘चमत्कार’ का उल्लेख क़ुरआन में भी है। परन्तु इतिहास के दौर में घटी इस घटना और इसकी व्याख्या पर भी विद्वानों और इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ की नज़रों में यह चमत्कार है जबकि कुछ की नज़रों में यह प्रतीकात्मक या आध्यात्मिक अर्थ की घटना।
इसी तरह पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है,हनुमान जी सूर्य निगल गये थे,चाहे समुद्र में वानरों द्वारा पत्थर फ़ेंक फ़ेंक कर लंका जाने का पुल तैयार कर देना हो,या फिर भगवान भोले शंकर द्वारा अपने ही पुत्र का सिर तन से जुदा कर उस पर हाथी का सर लगाने की बात हो,गणेश जी की सवारी चूहा हो या मछली के पेट से पैदा होने या घड़े से पैदा होने,मैल से पैदा होने की घटना या संजीवनी के लिये हनुमान जी द्वारा पूरा पर्वत उठा लाना,पुष्पक विमान होना और न जाने इस तरह की अनगिनत बातें जो हमें हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ या धार्मिक पुस्तकें हमें बताती आई हैं ।उन पर हम आस्था वश या बचपन से मिले संस्कारों व धार्मिक ज्ञानों के नाते विश्वास तो ज़रूर कर करते हैं, परन्तु यह बातें विज्ञान की कसौटी पर आज के वैज्ञानिक युग में क़तई खरी नहीं उतरतीं। इसलिये हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब मुंबई के एक अस्पताल के उद्घाटन के समय यह कहते हैं कि भगवान गणेश का हाथी का सिर मनुष्य के शरीर पर लगाना प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी के अस्तित्व का प्रमाण है। जब वे कहते हैं कि “हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं, जिनका सिर हाथी का है। इसका मतलब है कि हमारे पूर्वजों को प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान था।” प्रधानमंत्री का यह कथन निश्चित रूप से पौराणिक कथाओं पर आधारित है, परन्तु न तो इस घटना के ऐतिहासिक प्रमाण हैं न ही पुरातात्विक प्रमाण। वैज्ञानिक रूप से असमर्थित दावा होने की वजह से ही प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान की उस समय बहुत आलोचना हुई थी। क्योंकि उनका यह बयान आधुनिक विज्ञान को मिथकों से जोड़कर अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाला माना गया था।
प्रधानमंत्री मोदी ने ही उन्हीं दिनों कहा था कि “महाभारत में कर्ण अपनी मां के गर्भ से बाहर पैदा हुआ था, इसका मतलब है कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था।” वैज्ञानिक समुदाय ने इसे अस्वीकार किया, क्योंकि यह भी पौराणिक कहानी पर आधारित है और आधुनिक जेनेटिक्स से इसका कोई संबंध नहीं है। मोदी वैसे भी नाली के गैस से चाय बनाना बादलों में रडार का काम न करना जैसे न जाने कितने हास्यास्पद दावे करते रहे हैं जो हमारे देश के शिक्षार्थियों व वैज्ञानिक सोच रखने वालों के लिये ख़तरनाक हैं। दुनिया भी ऐसी बातों का मज़ाक़ उड़ाती है। इसी तरह गत दिनों केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने हिमाचल प्रदेश के ऊना ज़िले के पीएम श्री स्कूल में राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस के अवसर पर छात्रों को संबोधित करते हुए छात्रों से पूछा: “अंतरिक्ष में यात्रा करने वाला पहला यात्री कौन था?” उस समय अधिकांश छात्रों ने “नील आर्मस्ट्रॉन्ग” का नाम लिया जो अंतरिक्ष में नहीं बल्कि चंद्रमा पर पहला क़दम रखने वाले पहले यात्री थे। हालांकि कुछ छात्रों ने रूस के यूरी गागरिन का नाम भी लिया जो अंतरिक्ष में पहले मानव यात्री थे। परन्तु अनुराग ठाकुर ने बच्चों का जवाब सुनकर कहा “मुझे तो लगता है हनुमान जी थे।” साथ ही उन्होंने यह ज्ञान भी दिया कि छात्रों को टेक्स्टबुक से बाहर निकलकर अपनी प्राचीन परंपरा, वेदों और संस्कृति की ओर देखना चाहिए, क्योंकि “जब तक हमें अपनी हज़ारों वर्ष पुरानी परंपरा, व संस्कृति का ज्ञान नहीं होगा, तब तक अंग्रेज़ों ने जो हमें दिखाया है, वहीं तक हम सीमित होकर रह जाएंगे।”
अब ज़रा बताइये देश का नेतृत्व करने वाले प्रधानमंत्री व केंद्रीय मंत्री स्तर के लोगों के ‘ज्ञान ‘ से प्रेरित कोई बच्चा यदि नासा में या अन्य किसी वैज्ञानिक मंच पर अपने साक्षात्कार में यही सब बताने लगेगा तो क्या उसे सफलता मिलेगी ? वैसी भी सीधे सादे लोगों में स्वयं को धर्म और आस्था का बहुत बड़ा पैरोकार बताकर लोगों को अज्ञान में धकेलने की कोशिश करना देश के युवाओं के भविष्य के साथ बड़ा धोखा है। वास्तव में इस तरह का ‘महाज्ञान ‘ सभी धर्मों में उनके धर्मगुरुओं के मुंह से तो शोभा दे सकता है राजनेताओं के मुंह से क़तई नहीं। ज़रा सोचिये कि क्या इसी तरह के “ज्ञान ” हमें विश्व गुरु बनायेंगे ?


निर्मल रानी

(यह लेखक के अपने विचार हैं)

सात सितंबर को चंद्र ग्रहण, नही होंगे राम लला के दर्शन

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सात सितंबर को चंद्र ग्रहण लगेगा। चंद्र ग्रहण के चलते रामनगरी अयोध्या की धार्मिक दिनचर्या पर बड़ा असर पड़ेगा। दोपहर 12:57 बजे से सूतक लग जाएगा। इसके चलते दोपहर बाद से रामलला के दर्शन बंद हो जाएंगे। सूतक लगने के साथ ही राम मंदिर समेत अयोध्या धाम के प्रमुख मठ-मंदिरों के कपाट श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाएंगे।

ग्रहण की समाप्ति के बाद विधि-विधान से मंदिर और देवालयों का शुद्धिकरण होगा। इसके बाद आठ सितंबर की सुबह से श्रद्धालु फिर रामलला और अन्य देवालयों के दर्शन कर सकेंगे। ज्योतिषाचार्यों का कहना है कि ग्रहण काल में मंदिरों के कपाट बंद रखना सनातन परंपरा का हिस्सा है। इस अवधि में श्रद्धालु घर पर रहकर मंत्र-जप, भजन-कीर्तन और धार्मिक पाठ कर पुण्य लाभ अर्जित कर सकते हैं।चंद्रग्रहण का स्पर्श रात नौ बजकर 57 मिनट पर होगा, मध्य रात 11: 42 पर और मोक्ष रात 01:27 पर होगा। ग्रहण पूरे देश में दिखाई देगा। चंद्र ग्रहण का सूतक काल नौ घंटे पहले शुरू हो जाएगा। चंद्रग्रहण का सूतक काल दिन में 12:57 से शुरू होगा।

चारधाम और हेमकुंड साहिब यात्रा पांच सितंबर 2025 स्थगित

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उत्तराखंड में लगातार हो रही भारी बारिश और भूस्खलन के चलते चारधाम और हेमकुंड साहिब यात्रा को पांच सितंबर 2025 तक स्थगित कर दिया गया है।गढ़वाल मंडल आयुक्त, विनय शंकर पांडे ने मौसम विभाग द्वारा जारी रेड व ऑरेंज अलर्ट के मद्देनज़र  यह निर्णय लिया।

आयुक्त ने बताया कि मौसम की गंभीर परिस्थितियों को देखते हुए यात्रियों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है। पर्वतीय क्षेत्रों में हो रहे भूस्खलन, रास्तों के क्षतिग्रस्त होने और बारिश के कारण बढ़े खतरे को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया  है।उन्होंने श्रद्धालुओं से अपील की है कि वे फिलहाल यात्रा स्थलों की ओर रुख न करें । स्थानीय प्रशासन व मौसम विभाग की चेतावनियों का पालन करें।

विधायिका : गरिमा और हंगामे का कड़वा सच

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बाल मुकुन्द ओझा
राजस्थान विधानसभा के चौथे सत्र का पहला ही दिन सोमवार को हंगामे की भेंट चढ़ गया। दिल्ली की तर्ज़ पर राज्यों में भी कांग्रेस और सहयोगी दलों का एक सूत्री प्रोग्राम भाजपा शासित राज्यों में निर्वाचित सदनों को ठप्प करना है। ऐसा लगता है कांग्रेस ने अब तय कर लिया है कि वोट चोरी के आरोप को गरमाये रखना है। बिहार से शरू हुआ ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ का यह अभियान अब राजस्थान में भी जोर-शोर से पहुंच गया है। कांग्रेस विधायकों के जोरदार हंगामे और नारेबाजी के बीच विधानसभा स्पीकर वासुदेव देवनानी ने हालांकि कड़ा रुख अपनाते हुए नाराजगी जाहिर की, मगर हंगामा करने वाले सदस्यों पर कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने विधायकों को शांत रहने की हिदायत दी । कहा कि सदन की गरिमा बनाए रखना सभी की जिम्मेदारी है, यह कोई बाजार या चौराहा नहीं है। आधे घंटे के भारी शोर शराबे के बाद आखिर स्पीकर ने तीन सितम्बर तक सदन स्थगित कर दिया। आगे भी कार्यवाही शांति से चलेगी और जनता की समस्याओं को उठाया जायेगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।
राहुल गाँधी ने एटम बम के बाद हाइड्रोजन बम के विस्फोट का ऐलान कर दिया है। पटना में उन्होंने ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के समापन के मौके पर यह दावा किया कि वोट चोरी का “हाइड्रोजन बम” आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता को अपना चेहरा नहीं दिखा पाएंगे। राहुल गाँधी पिछले कई सालों से मोदी सहित अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर सनसनी खेज आरोप लगाते रहे है। अब राजस्थान के कांग्रेसी कहां पीछे रहने वाले थे, उन्होंने भी अपने नंबर बढ़ाने के लिए वोट चोरी का मुद्दा लपक लिया। देश की संसद और राज्यों की विधानसभाएं आजकल लगातार हंगामे की शिकार हो रही है। विधायिका की सार्थकता पर अब सवाल उठने लगे हैं। समूचे देश की विधायिकाओं में स्वस्थ और रचनात्मक वाद विवाद और बहस के बजाय हंगामा ही हो रहा है।
लगता है विपक्ष का एकमात्र काम हंगामा ही रह गया है। किसी न किसी बहाने हंगामा करना स्वस्थ बहस से ज्यादा जरुरी हो गया है। विरोध का भी एक तरीका होता है। कहावत है पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए और हंगामा करने वाले को हंगामे का बहाना चाहिए और बहाना मिल गया है वोट चोरी का। साफ है कि विपक्ष को विधान सभा ठप करने का बहाना चाहिए। सच तो यह है कांग्रेस उन मसलों की खोज करती दिख रही है जिनके जरिये हंगामा किया जा सके और अब हंगामे का मतलब किसी मसले पर सरकार से जवाब मांगना या किसी मसले पर कार्रवाई करना नहीं, बल्कि ऐसे हालात पैदा करना होता है जिससे वहां कोई काम ही न हो सके। इसके भरे-पूरे आसार हैं कि अगर कांग्रेस हंगामा करने लायक कोई मसले नहीं खोज पाई तो उसे ऐसे मसले उपलब्ध करा दिए जाएंगे। अब यह मसला बिहार चुनाव और वोट चोरी के कथित आरोप ने कांग्रेस के हाथों में थमा दिया है। इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती कि देश और प्रदेश विधायकी चलने की बाट जोहे और कुछ राजनीतिक दल अपना सारा जोर निर्वाचित सदनों को न चलने देने में लगाएं। यह सही है कि विधायकी सत्र पहले भी बर्बाद हुए हैं। मगर अब हर छोटी मोटी बात पर संसद में हंगामा मामूली बात रह गया है।
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पक्ष और विपक्ष में जो कटुता देखने को मिली वह लोकतंत्र के हित में नहीं कही जा सकती। इससे हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली का ह्रास हुआ है। आज सत्ता और विपक्ष के आपसी सम्बन्ध इतने खराब हो गए है की आपसी बात तो दूर एक दूसरे को फूटी आँख भी नहीं सुहाते। दुआ सलाम और अभिवादन भी नहीं करते। औपचारिक बोलचाल भी नहीं होती। लोकतंत्र में सत्ता के साथ विपक्ष का सशक्त होना भी जरुरी है मगर इसका यह मतलब नहीं है की कटुता और द्वेष इतना बढ़ जाये की गाली गलौज की सीमा भी लाँघी जाये। हमारे देश में राजनीतिक माहौल इतना कटुतापूर्ण हो गया है कि लोकतांत्रिक राजनीति के इतिहास में कहीं नहीं हुआ होगा।
भारतीय राजनीति में विपक्ष का अर्थ, जो सत्ता में नहीं है, से है। विपक्ष के रूप में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। स्वस्थ विपक्ष का कार्य सरकार की सकारात्मक तरीके से आलोचना करना होना चाहिए। स्वस्थ विपक्ष के रूप में विपक्ष को जनता के हित से जुड़े मुद्दों पर सरकार की आलोचना व बहस करना चाहिए। आज स्थिति बिलकुल उलट है। वर्तमान के विपक्षी दलों में न तो विचारों के साथ चलने को लेकर कोई उत्साह है, न प्रतिबद्धता।


बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

‘एजुकेट गर्ल्स’ को वर्ष 2025 के रेमन मैग्सेसे पुरस्कार

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लड़कियों की शिक्षा के लिए काम करने वाली भारतीय संस्था ‘एजुकेट गर्ल्स’ को वर्ष 2025 के रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेताओं में शामिल किया गया है। एशिया का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली भारतीय संस्था बनकर इसने इतिहास रच दिया है।यह संस्था दूरदराज के गांवों में स्कूल न जाने वाली लड़कियों की शिक्षा के माध्यम से सांस्कृतिक रूढ़िवादिता को दूर करने का प्रयास करती है।

एशिया के सबसे बड़े अवार्ड का नाम रेमन मैग्सेसे अवार्ड (Ramon Magsaysay Award) है। रेमन मैग्सेसे अवार्ड की तुलना दुनिया के सबसे बड़े अवार्ड नोबेल अवार्ड से की जाती है। दुनिया के ज्यादातर नागरिकों का स्पष्ट मत है कि एशिया में रेमन मैग्सेसे अवार्ड की हैसियत वही है जो विश्व में नोबेल अवार्ड की है।

‘एजुकेट गर्ल्स ’भारत की बेटियों को शिक्षित करने का काम कर रही है। भारत की जो बेटियां किसी भी कारण से शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाती हैं उन बेटियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने का बीड़ा ‘एजुकेट गल्र्स’ ने उठा रखा है। ‘एजुकेट गर्ल्स’ की स्थापना सफीना हुसैन ने की थी। शुरूआती दिनों में संस्था मुस्लिम समाज में अधिक सक्रिय थी। धीरे-धीरे इस संस्था ने भारत के हर वर्ग में कामकाज शुरू कर दिया।

एजुकेट गर्ल्स की संस्थापक सफीना हुसैन ने कहा – यह उपलब्धि हमारी टीम, बालिका स्वयंसेवकों, पार्टनर्स, समर्थकों और सबसे बढक़र उन बच्चियों के नाम है, जिन्होंने अपनी सबसे बड़ी ताकत, शिक्षा को फिर से हासिल किया। आने वाले दस वर्षों में एजुकेट गर्ल्स एक करोड़ से भी ज़्यादा शिक्षार्थियों तक पहुँचने का है।

एजुकेट गर्ल्स की सीईओ गायत्री नायर लोबो ने कहा – हमारे लिए शिक्षा सिर्फ़ विकास का साधन नहीं, बल्कि हर लडक़ी का बुनियादी अधिकार है। यह सम्मान इस बात का प्रमाण है कि जब सरकार, कॉरपोरेट, डोनर्स और समुदाय मिलकर काम करते हैं, तो गहरी सामाजिक और संरचनात्मक चुनौतियों को बदला जा सकता है। हम भारत सरकार के प्रयासों और सहयोग के लिए आभारी हैं, जिन्होंने इस मिशन को संभव बनाया।

2007 में स्थापित एजुकेट गर्ल्स आज तक 30,000 से अधिक गाँवों में अपनी पहुँच बना चुकी है। 55,000 से ज्यादा सामुदायिक स्वयंसेवकों के सहयोग से संस्था ने 20 लाख से अधिक बशिक्षा से जोडऩे के लिए प्रेरित किया है और 24 लाख से ज्यादा बच्चों की पढ़ाई को बेहतर बनाया है। आने वाले समय में एजुकेट गर्ल्स का लक्ष्य एक करोड़ से अधिक बच्चों तक पहुँचना है, ताकि शिक्षा के माध्यम से गऱीबी और अशिक्षा के चक्र को तोड़ा जा सके। एजुकेट गर्ल्स एक सामाजिक संस्था है जो राज्य सरकारों के साथ मिलकर ग्रामीण और शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देती है। इसका काम ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उद्देश्यों के अनुरूप है। 2007 से अब तक, संस्था ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के 30 हज़ार से अधिक गांवों में 20 लाख से ज़्यादा लड़कियों का स्कूल में दाखिला करवाने मे मदद की है। इसके साथ ही 55,000 से अधिक सामुदायिक वालंटियर्स का नेटवर्क भी खड़ा किया है।

यह पुरस्कार हर साल 31 अगस्त को फिलीपींस के पूर्व राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे की जयंती पर दिया जाता है। आरएमएएफ का न्यासी बोर्ड एक गोपनीय नामांकन प्रक्रिया और अपनी जांच के बाद विजेताओं का चयन करता है। विजेताओं को एक प्रमाण पत्र और एक पदक प्रदान किया जाता है।

सफीना हुसैनके नेतृत्व में एक छोटी स्थानीय टीम ने राजस्थान के पाली जिले के 50 स्कूलों में प्रारंभिक परीक्षण परियोजना का संचालन किया । यह 50-स्कूल परियोजना राजस्थान शिक्षा पहल (आरईआई) के तत्वावधान में शुरू की गई थी। यह पहल 2008 में 500 स्कूलों से शुरू होकर 2013 में 4,425 से अधिक स्कूलों तक पहुँच गई, जिसका उद्देश्य ग्रामीण राजस्थान में लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देना था और सफीना ने एक स्थायी मॉडल तैयार किया जहाँ पूरा समुदाय लड़कियों को सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाने के लिए हाथ से काम करता है और सामुदायिक भागीदारी के कारण यह पहल सफल हुई। 

खतरनाक मौसम में भी स्कूल क्यों बंद नही होते?

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आज पूरे देश में बाढ़ का प्रकोप है। नदियों की बाढ़ से रास्ते बंद हैं।सड़कों में पानी भरा है।स्कूल भवनों की हालत बहुत खराब है। ऐसे में स्कूल खोलकर बच्चों और शिक्षकों की जान से खिलवाड़ किया जा रहा है। बच्चों को देश का भविष्य बताया जाता है।, किंतु इस देश के भविष्य की चिंता किसी को नही। देश और समाज की पहली चिंता बच्चों की सुरक्षख होनी चाहिए, किंतु इस विषय पर किसी का ध्यान नहीं।बारिश और बाढ़ की स्थिति में बच्चों और शिक्षकों को स्कूल बुलाना उनकी जान से खिलवाड़ है। जर्जर इमारतें, गंदगी, जलभराव और यातायात बाधाएँ पहले से ही खतरनाक हालात पैदा कर चुकी हैं। ऐसे में पढ़ाई से ज़्यादा बच्चों की सुरक्षा पर ध्यान देना ज़रूरी है। शिक्षा तभी सार्थक है जब बच्चे सुरक्षित माहौल में सीखें। सरकार को चाहिए कि संकट की घड़ी में औपचारिकताओं से ऊपर उठकर तुरंत अवकाश घोषित करे, ताकि संभावित हादसों से बचा जा सके।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

बरसात का मौसम बच्चों के लिए रोमांच और खेलने का समय माना जाता है, लेकिन जब यही मौसम बाढ़, गंदगी और जीवन-जोखिम का कारण बन जाए, तब सवाल उठता है कि हमारी व्यवस्था आखिर बच्चों और शिक्षकों की सुरक्षा के प्रति कितनी संवेदनशील है। हाल ही में हरियाणा प्रदेश के 18 जिलों में बाढ़ का हाई अलर्ट घोषित होने के बावजूद स्कूलों को बंद न करने का निर्णय इस संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है।

स्कूल भवनों की जर्जर हालत किसी से छिपी नहीं है। कई जगहों पर दीवारों में दरारें हैं, छतों से पानी टपकता है और फर्श गीले होकर दुर्घटनाओं को न्यौता देते हैं। जिन इमारतों में सामान्य दिनों में पढ़ाई मुश्किल हो, वहां लगातार बारिश के दौरान बच्चों और स्टाफ की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जा सकती है? कई सरकारी और ग्रामीण स्कूल तो वैसे भी मरम्मत और रखरखाव के अभाव में खंडहर जैसी स्थिति में हैं।

साफ-सफाई की समस्या भी गंभीर है। गंदगी, पानी भराव और खुले नाले स्कूल परिसरों को अस्वस्थ और खतरनाक बना देते हैं। बारिश के दिनों में मच्छरों और संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में बच्चों को स्कूल बुलाना केवल उनकी जान से खिलवाड़ करना है।

यही नहीं, बाढ़ और जलभराव के कारण परिवहन व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो जाती है। बच्चे और शिक्षक स्कूल तक पहुँचने में भारी कठिनाइयों का सामना करते हैं। कई इलाकों में सड़कों पर घुटनों-घुटनों पानी भरा होता है, कहीं पुल टूटे हैं तो कहीं नदियाँ उफान पर हैं। बच्चों का ऐसे हालात में रोज़ाना आना-जाना केवल प्रशासन की संवेदनहीनता का उदाहरण है।

सबसे हैरानी की बात यह है कि सरकार और उच्च अधिकारी जानते हुए भी स्कूल बंद करने का आदेश नहीं देते। यह निर्णय किसी मजबूरी से अधिक औपचारिकता जैसा लगता है—जैसे केवल आदेश देकर अपनी ज़िम्मेदारी निभा दी गई हो। सवाल यह उठता है कि क्या बच्चों की सुरक्षा से बढ़कर भी कोई औपचारिकता हो सकती है? अगर हादसा हो जाए तो क्या प्रशासन की यह चुप्पी और लापरवाही माफ़ की जा सकेगी?

दुनिया भर में आपदा और संकट के समय शिक्षा व्यवस्था पर अस्थायी रोक लगाना कोई नई बात नहीं है। कोरोना काल में महीनों तक स्कूल बंद रहे और वैकल्पिक माध्यमों से शिक्षा को आगे बढ़ाया गया। जब महामारी के दौर में बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि मानी गई, तो बाढ़ और प्राकृतिक आपदा की स्थिति में वही संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाई जाती?

यहाँ तर्क दिया जा सकता है कि पढ़ाई का नुकसान न हो, इसलिए स्कूल बंद नहीं किए जा सकते। लेकिन क्या पढ़ाई का महत्व बच्चों और शिक्षकों की जान से बड़ा है? शिक्षा तभी सार्थक है जब छात्र और शिक्षक सुरक्षित हों। गीली और टूटती छतों के नीचे, पानी से भरे आंगनों में और बीमारी के खौफ में पढ़ाई कराने का निर्णय शिक्षा नहीं, बल्कि मजबूरी और लापरवाही कहलाएगी।

दरअसल, असली समस्या हमारी नीति और नीयत दोनों की है। जिन अधिकारियों को स्थानीय हालात देखकर तुरंत निर्णय लेना चाहिए, वे केवल ऊपर से आए आदेशों का इंतज़ार करते रहते हैं। और ऊपर बैठे नीति-निर्माता आमतौर पर कागज़ी रिपोर्टों और फाइलों के आधार पर निर्णय लेते हैं। नतीजा यह होता है कि जमीनी हालात और सरकारी आदेशों के बीच बड़ा अंतर रह जाता है।

आज ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षा विभाग और आपदा प्रबंधन विभाग मिलकर एक स्पष्ट नीति बनाएँ। इसमें यह तय हो कि किन परिस्थितियों में स्वतः स्कूल बंद माने जाएँगे। जैसे – जब किसी जिले में बाढ़ का हाई अलर्ट जारी हो, जब लगातार बारिश से जीवन अस्त-व्यस्त हो जाए, या जब भवनों की सुरक्षा संदिग्ध हो। इससे निचले स्तर के अधिकारी समय रहते फैसला ले सकेंगे और बच्चों को जोखिम से बचाया जा सकेगा।इसके साथ-साथ स्कूल भवनों की नियमित मरम्मत और रखरखाव पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए। हर बरसात में छत टपकना और दीवारें गिरना हमारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल देता है। यदि बच्चों के लिए सुरक्षित भवन तक उपलब्ध नहीं करा सकते तो फिर शिक्षा के अधिकार की बातें खोखली साबित होती हैं।

एक और पहलू पर ध्यान देना ज़रूरी है। जब सरकारें ‘स्मार्ट क्लास’, ‘डिजिटल एजुकेशन’ और ‘न्यू एजुकेशन पॉलिसी’ की बात करती हैं, तो क्यों न आपदा के समय ऑनलाइन या वैकल्पिक शिक्षा का सहारा लिया जाए? बच्चों की पढ़ाई बिना उनकी सुरक्षा से समझौता किए जारी रखी जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसे दूरदर्शी कदमों की जगह केवल आदेश जारी करने की औपचारिकता निभाई जाती है।

बच्चे देश का भविष्य हैं—यह वाक्य हम बार-बार सुनते हैं। लेकिन जब इस भविष्य को सुरक्षित रखने का समय आता है, तो हमारी व्यवस्था सबसे ज्यादा असफल साबित होती है। बारिश और बाढ़ जैसे हालात में स्कूलों को खुला रखना बच्चों और शिक्षकों दोनों की जान को खतरे में डालने जैसा है। यह केवल संवेदनहीनता ही नहीं, बल्कि लापरवाही की पराकाष्ठा है।अब समय आ गया है कि सरकारें औपचारिकताओं से आगे बढ़कर वास्तव में बच्चों की सुरक्षा को प्राथमिकता दें। स्कूलों को तुरंत बंद किया जाए और हालात सामान्य होने पर ही पुनः खोला जाए। शिक्षा का असली उद्देश्य तभी पूरा होगा जब बच्चे सुरक्षित माहौल में पढ़ें और सीखें। यदि यह न्यूनतम सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं की जा सकती, तो शिक्षा व्यवस्था पर गहन प्रश्नचिह्न खड़े होते हैं।

संवेदनशील शासन वही है जो संकट की घड़ी में अपने नागरिकों—खासकर बच्चों—की सुरक्षा सुनिश्चित करे। यदि इस बुनियादी दायित्व में भी हम असफल रहते हैं, तो विकास, शिक्षा और प्रगति के सारे दावे केवल खोखले नारे भर रह जाएंगे।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार