आज पूरे देश में बाढ़ का प्रकोप है। नदियों की बाढ़ से रास्ते बंद हैं।सड़कों में पानी भरा है।स्कूल भवनों की हालत बहुत खराब है। ऐसे में स्कूल खोलकर बच्चों और शिक्षकों की जान से खिलवाड़ किया जा रहा है। बच्चों को देश का भविष्य बताया जाता है।, किंतु इस देश के भविष्य की चिंता किसी को नही। देश और समाज की पहली चिंता बच्चों की सुरक्षख होनी चाहिए, किंतु इस विषय पर किसी का ध्यान नहीं।बारिश और बाढ़ की स्थिति में बच्चों और शिक्षकों को स्कूल बुलाना उनकी जान से खिलवाड़ है। जर्जर इमारतें, गंदगी, जलभराव और यातायात बाधाएँ पहले से ही खतरनाक हालात पैदा कर चुकी हैं। ऐसे में पढ़ाई से ज़्यादा बच्चों की सुरक्षा पर ध्यान देना ज़रूरी है। शिक्षा तभी सार्थक है जब बच्चे सुरक्षित माहौल में सीखें। सरकार को चाहिए कि संकट की घड़ी में औपचारिकताओं से ऊपर उठकर तुरंत अवकाश घोषित करे, ताकि संभावित हादसों से बचा जा सके।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
बरसात का मौसम बच्चों के लिए रोमांच और खेलने का समय माना जाता है, लेकिन जब यही मौसम बाढ़, गंदगी और जीवन-जोखिम का कारण बन जाए, तब सवाल उठता है कि हमारी व्यवस्था आखिर बच्चों और शिक्षकों की सुरक्षा के प्रति कितनी संवेदनशील है। हाल ही में हरियाणा प्रदेश के 18 जिलों में बाढ़ का हाई अलर्ट घोषित होने के बावजूद स्कूलों को बंद न करने का निर्णय इस संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है।
स्कूल भवनों की जर्जर हालत किसी से छिपी नहीं है। कई जगहों पर दीवारों में दरारें हैं, छतों से पानी टपकता है और फर्श गीले होकर दुर्घटनाओं को न्यौता देते हैं। जिन इमारतों में सामान्य दिनों में पढ़ाई मुश्किल हो, वहां लगातार बारिश के दौरान बच्चों और स्टाफ की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जा सकती है? कई सरकारी और ग्रामीण स्कूल तो वैसे भी मरम्मत और रखरखाव के अभाव में खंडहर जैसी स्थिति में हैं।
साफ-सफाई की समस्या भी गंभीर है। गंदगी, पानी भराव और खुले नाले स्कूल परिसरों को अस्वस्थ और खतरनाक बना देते हैं। बारिश के दिनों में मच्छरों और संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में बच्चों को स्कूल बुलाना केवल उनकी जान से खिलवाड़ करना है।
यही नहीं, बाढ़ और जलभराव के कारण परिवहन व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो जाती है। बच्चे और शिक्षक स्कूल तक पहुँचने में भारी कठिनाइयों का सामना करते हैं। कई इलाकों में सड़कों पर घुटनों-घुटनों पानी भरा होता है, कहीं पुल टूटे हैं तो कहीं नदियाँ उफान पर हैं। बच्चों का ऐसे हालात में रोज़ाना आना-जाना केवल प्रशासन की संवेदनहीनता का उदाहरण है।
सबसे हैरानी की बात यह है कि सरकार और उच्च अधिकारी जानते हुए भी स्कूल बंद करने का आदेश नहीं देते। यह निर्णय किसी मजबूरी से अधिक औपचारिकता जैसा लगता है—जैसे केवल आदेश देकर अपनी ज़िम्मेदारी निभा दी गई हो। सवाल यह उठता है कि क्या बच्चों की सुरक्षा से बढ़कर भी कोई औपचारिकता हो सकती है? अगर हादसा हो जाए तो क्या प्रशासन की यह चुप्पी और लापरवाही माफ़ की जा सकेगी?
दुनिया भर में आपदा और संकट के समय शिक्षा व्यवस्था पर अस्थायी रोक लगाना कोई नई बात नहीं है। कोरोना काल में महीनों तक स्कूल बंद रहे और वैकल्पिक माध्यमों से शिक्षा को आगे बढ़ाया गया। जब महामारी के दौर में बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि मानी गई, तो बाढ़ और प्राकृतिक आपदा की स्थिति में वही संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाई जाती?
यहाँ तर्क दिया जा सकता है कि पढ़ाई का नुकसान न हो, इसलिए स्कूल बंद नहीं किए जा सकते। लेकिन क्या पढ़ाई का महत्व बच्चों और शिक्षकों की जान से बड़ा है? शिक्षा तभी सार्थक है जब छात्र और शिक्षक सुरक्षित हों। गीली और टूटती छतों के नीचे, पानी से भरे आंगनों में और बीमारी के खौफ में पढ़ाई कराने का निर्णय शिक्षा नहीं, बल्कि मजबूरी और लापरवाही कहलाएगी।
दरअसल, असली समस्या हमारी नीति और नीयत दोनों की है। जिन अधिकारियों को स्थानीय हालात देखकर तुरंत निर्णय लेना चाहिए, वे केवल ऊपर से आए आदेशों का इंतज़ार करते रहते हैं। और ऊपर बैठे नीति-निर्माता आमतौर पर कागज़ी रिपोर्टों और फाइलों के आधार पर निर्णय लेते हैं। नतीजा यह होता है कि जमीनी हालात और सरकारी आदेशों के बीच बड़ा अंतर रह जाता है।
आज ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षा विभाग और आपदा प्रबंधन विभाग मिलकर एक स्पष्ट नीति बनाएँ। इसमें यह तय हो कि किन परिस्थितियों में स्वतः स्कूल बंद माने जाएँगे। जैसे – जब किसी जिले में बाढ़ का हाई अलर्ट जारी हो, जब लगातार बारिश से जीवन अस्त-व्यस्त हो जाए, या जब भवनों की सुरक्षा संदिग्ध हो। इससे निचले स्तर के अधिकारी समय रहते फैसला ले सकेंगे और बच्चों को जोखिम से बचाया जा सकेगा।इसके साथ-साथ स्कूल भवनों की नियमित मरम्मत और रखरखाव पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए। हर बरसात में छत टपकना और दीवारें गिरना हमारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल देता है। यदि बच्चों के लिए सुरक्षित भवन तक उपलब्ध नहीं करा सकते तो फिर शिक्षा के अधिकार की बातें खोखली साबित होती हैं।
एक और पहलू पर ध्यान देना ज़रूरी है। जब सरकारें ‘स्मार्ट क्लास’, ‘डिजिटल एजुकेशन’ और ‘न्यू एजुकेशन पॉलिसी’ की बात करती हैं, तो क्यों न आपदा के समय ऑनलाइन या वैकल्पिक शिक्षा का सहारा लिया जाए? बच्चों की पढ़ाई बिना उनकी सुरक्षा से समझौता किए जारी रखी जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसे दूरदर्शी कदमों की जगह केवल आदेश जारी करने की औपचारिकता निभाई जाती है।
बच्चे देश का भविष्य हैं—यह वाक्य हम बार-बार सुनते हैं। लेकिन जब इस भविष्य को सुरक्षित रखने का समय आता है, तो हमारी व्यवस्था सबसे ज्यादा असफल साबित होती है। बारिश और बाढ़ जैसे हालात में स्कूलों को खुला रखना बच्चों और शिक्षकों दोनों की जान को खतरे में डालने जैसा है। यह केवल संवेदनहीनता ही नहीं, बल्कि लापरवाही की पराकाष्ठा है।अब समय आ गया है कि सरकारें औपचारिकताओं से आगे बढ़कर वास्तव में बच्चों की सुरक्षा को प्राथमिकता दें। स्कूलों को तुरंत बंद किया जाए और हालात सामान्य होने पर ही पुनः खोला जाए। शिक्षा का असली उद्देश्य तभी पूरा होगा जब बच्चे सुरक्षित माहौल में पढ़ें और सीखें। यदि यह न्यूनतम सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं की जा सकती, तो शिक्षा व्यवस्था पर गहन प्रश्नचिह्न खड़े होते हैं।
संवेदनशील शासन वही है जो संकट की घड़ी में अपने नागरिकों—खासकर बच्चों—की सुरक्षा सुनिश्चित करे। यदि इस बुनियादी दायित्व में भी हम असफल रहते हैं, तो विकास, शिक्षा और प्रगति के सारे दावे केवल खोखले नारे भर रह जाएंगे।

– डॉ. सत्यवान सौरभ
स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
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