बच्चों और युवाओं का दुश्मन कुपोषण नहीं ,मोटापा है

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बाल मुकुन्द ओझा
यूनिसेफ की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों और युवाओं को अब कुपोषण के स्थान पर मोटापा ने जकड़ लिया है, जिसके दुष्परिणामों से पूरी दुनिया चिंतित है। यूनिसेफ ने अपनी 2020 से 2022 तक की एक रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि मोटापा ने कुपोषण को पीछे छोड़ दिया है। कम वज़न का स्थान मोटापा ने ले लिया है। मोटापा के कारण डायबिटीज, ह्रदय रोग और कैंसर जैसी असाध्य बीमारियों का खतरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है। रिपोर्ट में 2035 तक मोटापे को बड़ी चुनौती बताई गई है। आज दुनियाभर में दस में से एक बच्चा या किशोर मोटापे का शिकार है।
विश्व मोटापा एटलस 2024 के अनुमानों के मुताबिक 2035 तक लगभग 330 करोड़ व्यस्क मोटापे से ग्रस्त होंगे। साथ ही 5 से 19 साल की आयु सीमा के 77 करोड़ से अधिक किशोर और युवाओं को मोटापा घेर लेगा। भारत की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2022 तक सवा सात प्रतिशत से अधिक व्यस्क मोटापे की चपेट में थे। नेशनल फैमिली हेल्थ और मेडिकल पत्रिका लेसेन्ट आदि के अनेक प्रमाणिक सर्वेक्षणों में भी कहा गया है कि हमारे देश में पेट के मोटापे की समस्या सर्वाधिक है। यह समस्या महिलाओं में 40 और पुरुषों में 12 प्रतिशत पाई गई है। स्वास्थ्य के प्रति इस गंभीर खतरें को हमने समय रहते सख्ती से नहीं रोका तो यह देश में नशे से भी अधिक भयावह स्थिति उत्पन्न कर देगा और इसके जिम्मेदार केवल केवल हम ही होंगे।
आयातित और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के अत्यधिक सेवन ने देश के नौनिहालों से लेकर किशोर, युवा और बुजुर्ग तक को अपने आगोश में ले लिया है। इसके फलस्वरूप देश और दुनियाभर में मोटापे की समस्या गंभीर रूप से उत्पन्न हो गई है। विशेषकर वयस्क आबादी इसकी चपेट में आ गई है। प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को हानिकारक इसलिए माना जाता है क्योंकि इनमें स्वाद और स्वाद को बेहतर बनाने के लिए बहुत सारे कृत्रिम योजक या रसायन होते हैं। आप प्रत्येक पैकेज के पीछे लगे लेबल को पढ़कर किसी विशेष खाद्य उत्पाद को बनाने में प्रयुक्त सामग्री की पहचान कर सकते हैं।
भारत की बात करे तो हमारे यहां मोटापा बड़ी समस्या बन गया है। शरीर में जब एक्स्ट्रा फैट जमा हो जाता है, तब यह मोटापे का रूप ले लेता है। यही मोटापा लोगों को कम उम्र में ही बीमारियों का मरीज बना देता है। मोटापे की बीमारी फिजिकल हेल्थ के साथ-साथ मेंटल हेल्थ पर भी असर डालती है। हमारे देश में मोटापे की समस्या हर उम्र के लोगों में फैल रही है और मोटापे के कारण ही अन्य लाइफस्टाइल से जुड़ी बीमारियों का खतरा भी बढ़ रहा है।
स्वास्थ्य संगठनों और चिकित्सकों का मानना है पिछले कुछ वर्षों से आयातित और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के अत्यधिक सेवन ने देश के नौनिहालों से लेकर किशोर, युवा और बुजुर्ग तक को अपने आगोश में ले लिया है। इसके फलस्वरूप देश और दुनियाभर में मोटापे की समस्या गंभीर रूप से उत्पन्न हो गई है। विशेषकर वयस्क आबादी इसकी चपेट में आ गई है। प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को हानिकारक इसलिए माना जाता है क्योंकि इनमें स्वाद और स्वाद को बेहतर बनाने के लिए बहुत सारे कृत्रिम योजक या रसायन होते हैं। आप प्रत्येक पैकेज के पीछे लगे लेबल को पढ़कर किसी विशेष खाद्य उत्पाद को बनाने में प्रयुक्त सामग्री की पहचान कर सकते हैं। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत एक स्वास्थ्य संकट का सामना कर रहा है। इसमें कुल रोगों का 56.4 प्रतिशत हिस्सा असंतुलित आहार के कारण है। अनहेल्दी खाने की आदतें, जिनमें नमक, चीनी और वसा से भरपूर प्रोसेस्ड फूड का सेवन शामिल है। फास्ट-फूड चेन और पैकेज्ड स्नैक्स की आसान उपलब्धता के कारण यह आदतें तेजी से बढ़ रही हैं।
देश में मोटापा की बढ़ती समस्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता जायज है। उन्होंने कहा कि आज की तारीख में बहुत से लोग मोटापा से त्रस्त हैं। मोदी ने कहा कि आंकड़े कहते हैं कि हमारे देश में मोटापे की समस्या तेजी से बढ़ रही है। मोटापे की वजह से डायबिटीज और ह्रदय रोग जैसी बीमारियों का रिस्क बढ़ रहा है। हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि इस समस्या के बीच मुझे इस बात का भी संतोष है कि आज देश फिट इंडिया मुवमेंट के माध्यम से फिटनेस और हेल्दी लाइफस्टाइल के लिए जागरूक हो रहा है। प्रधानमंत्री ने कहा कि मोटापा दूर करने के लिए अपने खाने में अनहेल्दी फैट और तेल को थोड़ा कम करें। मोदी की टिप्स के अनुसार रोजाना थोड़ा समय निकालकर एक्सरसाइज जरूर करें।यह शरीर में जमा फैट को कम करने में मदद करेगा। रोजाना वॉक पर जाएं और वर्कआउट करें। फिजिकली एक्टिव रहने से मोटापा बढ़ने का रिस्क कम होता है।
बाल मुकुन्द ओझा


वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
, मालवीय नगर, जयपुर

नेपाल का लोकतंत्र: पुराने वर्चस्व से नई चुनौती तक

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क्या नई पीढ़ी बालेन शाह जैसे चेहरों के साथ जातीय ढांचे को बदल पाएगी?

1990 में लोकतंत्र की बहाली के बाद नेपाल ने अब तक 13 प्रधानमंत्री देखे। इनमें 10 पहाड़ी ब्राह्मण और 3 क्षत्रिय रहे। मधेशी, जनजातीय, दलित और महिला समुदाय से कोई भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया। संसद और नौकरशाही में भी इन समुदायों की भागीदारी बेहद सीमित है। नेपाल की लगभग 35 प्रतिशत आबादी मधेशियों की है, लेकिन सत्ता में उनका प्रभाव लगभग नगण्य है। इस पृष्ठभूमि में काठमांडू के मेयर बालेन शाह का उदय केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि जातीय असमानता के खिलाफ एक प्रतीकात्मक चुनौती है, जिसे युवा पीढ़ी खुले दिल से अपना रही है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

नेपाल हिमालय की गोद में बसा छोटा-सा देश है। आकार में भले छोटा हो, लेकिन राजनीति और जातीय समीकरण के लिहाज से इसकी जटिलता किसी बड़े देश से कम नहीं। नेपाल पिछले तीन दशकों से लोकतंत्र का प्रयोग कर रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि यह लोकतंत्र अब भी अधूरा है। सत्ता और संसाधनों पर एक ही वर्ग का कब्ज़ा है—पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियाँ। संसद से लेकर प्रशासन और सेना तक, हर जगह यही जातियाँ हावी हैं। मधेशी, जनजातीय, दलित और महिलाएँ अब भी सत्ता की सीढ़ियों के निचले पायदान पर खड़ी हैं।

1990 में नेपाल में बहुदलीय लोकतंत्र की वापसी हुई थी। जनता को उम्मीद थी कि अब सत्ता में विविधता आएगी और हर समुदाय को बराबरी का अवसर मिलेगा। लेकिन हुआ इसके ठीक उल्टा। 1990 से अब तक नेपाल ने 13 प्रधानमंत्री देखे। इनमें से 10 पहाड़ी ब्राह्मण और 3 क्षत्रिय रहे। यानी 35% मधेशियों की आबादी होने के बावजूद एक भी मधेशी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया। जनजातीय और आदिवासी समूह संसद में मौजूद हैं, लेकिन उनके नेता केवल प्रतीकात्मक पदों तक सीमित रहे। दलित और महिलाएँ तो आज भी सत्ता के सबसे हाशिये पर खड़ी हैं। यह तस्वीर बताती है कि नेपाल का लोकतंत्र कितनी गहरी जातीय असमानता से ग्रस्त है। लोकतंत्र के नाम पर चेहरे तो बदले, लेकिन सत्ता का चरित्र वही रहा—ब्राह्मण और क्षत्रिय केंद्रित।

नेपाल की आधी से ज़्यादा आबादी 35 साल से कम उम्र की है। यही वह नई पीढ़ी है जिसे जनरेशन-Z कहा जाता है। यह सोशल मीडिया, पॉप कल्चर और वैश्विक राजनीति से जुड़ी हुई है। इनके लिए जाति और वंश की राजनीति पुरानी और अप्रासंगिक है। यह पीढ़ी पारदर्शिता चाहती है, समान अवसर चाहती है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह बदलाव को केवल सोचती नहीं बल्कि मांग भी करती है। यही कारण है कि काठमांडू के मेयर बालेन शाह आज नेपाल के युवाओं के बीच परिवर्तन का प्रतीक बन चुके हैं।

2022 में जब बालेन शाह ने काठमांडू के मेयर का चुनाव जीता तो यह केवल एक चुनाव नहीं था, बल्कि सत्ता की पुरानी धारणाओं पर सीधी चोट थी। काठमांडू दशकों से मुख्यधारा की पार्टियों—नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी केंद्र—का गढ़ माना जाता था। लेकिन शाह ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में सबको चौंका दिया। वे न तो परंपरागत राजनीति से आए थे और न ही किसी जातीय वंश से जुड़े थे। उनकी पृष्ठभूमि हिप-हॉप कलाकार और इंजीनियर की थी। वे मधेशी भी हैं और बौद्ध भी। यानी हर लिहाज से नेपाल की मुख्यधारा की राजनीति से बिल्कुल अलग। उनकी जीत ने यह संदेश दिया कि जनता अब विकल्प चाहती है। खासकर युवा पीढ़ी, जो बार-बार जातीय गणित से चलने वाली राजनीति से ऊब चुकी है।

बालेन शाह का असर केवल राजनीति तक सीमित नहीं है। वे सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं और सीधा संवाद करने का तरीका जानते हैं। नेपाल की मौजूदा राजनीति जहाँ अभी भी भाषण और रैलियों पर निर्भर है, वहीं शाह डिजिटल युग की राजनीति कर रहे हैं। उनका संगीत, उनकी स्पष्ट बातें और उनकी स्वतंत्र छवि युवाओं को तुरंत आकर्षित करती है। यह फर्क बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि नेपाल की राजनीति में पहली बार कोई ऐसा चेहरा सामने आया है जो राजनीति को कूल बना रहा है।

लेकिन सवाल यही है कि क्या नेपाल की पुरानी सत्ता संरचना इतनी आसानी से टूट जाएगी? नेपाली कांग्रेस, UML और माओवादी जैसे दल दशकों से सत्ता पर काबिज हैं। इनके नेता ब्राह्मण और क्षत्रिय समुदाय से आते हैं और इनकी पकड़ प्रशासन, सेना और नौकरशाही तक फैली हुई है। यह पूरा ढांचा बालेन शाह जैसे किसी नेता के लिए दीवार की तरह खड़ा हो सकता है। संभावना है कि शाह को “अनुभवहीन” या “पॉपुलिस्ट” कहकर खारिज करने की कोशिश की जाएगी। उनकी स्वतंत्र पहचान पर सवाल उठाए जाएंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग कभी आसानी से अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते।

अगर नेपाल बालेन शाह जैसे नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका देता है, तो यह केवल एक व्यक्ति की जीत नहीं होगी, बल्कि ऐतिहासिक होगा। नेपाल पहली बार किसी गैर-ब्राह्मण/क्षत्रिय प्रधानमंत्री को देखेगा। यह संदेश जाएगा कि लोकतंत्र केवल नाम का नहीं बल्कि वास्तविक रूप से समावेशी है। मधेशी, जनजातीय और दलित समुदाय को यह विश्वास मिलेगा कि सत्ता में उनकी भी हिस्सेदारी है। युवाओं को लगेगा कि उनकी आवाज़ मायने रखती है।

लेकिन अगर बदलाव की इस मांग को दबाया गया, तो इसके नतीजे गंभीर होंगे। युवा पीढ़ी पहले ही अधीर है। वे सोशल मीडिया पर अपनी नाराज़गी और सपनों को साझा कर रहे हैं। अगर उनकी आवाज़ दबाई गई, तो असंतोष सड़क पर आंदोलन में बदल सकता है। नेपाल ने पहले भी जनआंदोलन देखे हैं और इतिहास गवाह है कि जब जनता चाहती है, तो कोई भी सत्ता ढांचा स्थायी नहीं रह पाता।

नेपाल आज दो राहों पर खड़ा है। एक तरफ पुरानी राजनीति है, जहाँ सत्ता कुछ जातियों के बीच बंटी हुई है। दूसरी तरफ नई राजनीति है, जो समावेशी, पारदर्शी और युवाओं से जुड़ी है। बालेन शाह इस बदलाव का प्रतीक हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि शाह प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं। असली सवाल यह है कि क्या नेपाल जातीय ढांचे वाली राजनीति से आगे बढ़ पाएगा या नहीं।

अगर नेपाल यह कदम उठाता है, तो वह दक्षिण एशिया में एक मिसाल बन सकता है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में भी राजनीति अक्सर वंशवाद और जातीय समीकरण में उलझी रहती है। नेपाल अगर इस ढांचे से बाहर निकलता है, तो यह पूरे क्षेत्र के लिए प्रेरणा होगी। लेकिन अगर पुरानी सत्ता संरचना कायम रहती है, तो लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा। युवाओं का भरोसा टूटेगा और यह भरोसा टूटना किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक स्थिति होती है।

नेपाल की राजनीति दशकों से पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों के कब्ज़े में रही है। लोकतंत्र आया, चेहरे बदले, लेकिन चरित्र वही रहा। आज की पीढ़ी इसे चुनौती दे रही है। बालेन शाह इसका चेहरा हैं। यह पीढ़ी जाति, वंश और सत्ता के पुराने ढांचे को स्वीकार नहीं करना चाहती। नेपाल का लोकतंत्र अब एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। या तो यह समावेशी होकर सबको बराबरी देगा, या फिर पुरानी असमानता को जारी रखेगा।

भविष्य का फैसला अब नेपाल की नई पीढ़ी के हाथ में है और उनकी मांग साफ है—अबकी बार राजनीति सबकी, सिर्फ ब्राह्मण-छत्री की नहीं।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

शिक्षक सम्मान: सच्चे समर्पण की पहचान और पारदर्शिता की आवश्यकता

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सच्चे पुरस्कार का मूल्य उस कार्य में निहित है, जो किसी व्यक्ति ने समाज और समुदाय के लिए किया है। पुरस्कार का असली उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत पहचान या नौकरी बढ़ाने के लिए नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, यह उन लोगों को सम्मानित करना चाहिए, जो समाज में सार्थक बदलाव लाने में सफल रहे हैं, चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में हो या किसी अन्य क्षेत्र में। ऐसे पुरस्कार समाज के वास्तविक विकास और भले के लिए होना चाहिए, न कि केवल एक व्यक्तिगत सम्मान का प्रतीक।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

शिक्षक सम्मान, जो हमेशा से समाज में एक उच्च स्थान प्राप्त है, आजकल कुछ बदलावों का सामना कर रहा है। शिक्षा के प्रति कुछ शिक्षकों का जूनून और उनका समर्पण वाकई शिक्षा की नींव को मजबूत करता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया ट्रेंड देखने को मिला है—”गैर सरकारी संगठन” द्वारा शिक्षकों को सम्मानित करने की प्रक्रिया। जहां एक ओर यह कदम सराहनीय है, वहीं दूसरी ओर इसमें पक्षपात और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का भी असर देखा जा रहा है। विद्यालयों या महाविद्यालयों के प्रिंसिपल द्वारा नाम लेने के दौरान अक्सर यह देखा गया है कि कुछ मेहनती शिक्षकों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिससे उनका मनोबल गिरता है।

आजकल “गैर सरकारी संगठन” और अन्य संस्थाएं शिक्षक सम्मान समारोहों का आयोजन करती हैं, लेकिन इन आयोजनों में पारदर्शिता की कमी साफ़ तौर पर महसूस होती है। शिक्षक का चयन कई बार पक्षपात या व्यक्तिगत निर्णयों के आधार पर किया जाता है। यह उन शिक्षकों के लिए निराशाजनक होता है, जो वर्षों से अपनी मेहनत और समर्पण से शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टता को बढ़ावा दे रहे होते हैं, लेकिन उन्हें उचित सम्मान नहीं मिलता। ऐसे में उनका मनोबल प्रभावित हो सकता है, और यह उनके कार्यों की गुणवत्ता पर भी असर डाल सकता है।

शिक्षक-सम्मान देने वाली संस्थाओं और सरकार को इस प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनाना चाहिए। जब पुरस्कार दिए जाते हैं, तो यह जरूरी है कि प्रत्येक स्तर पर पात्रता की जांच की जाए, और यह जांच सिर्फ स्कूल या महाविद्यालय के प्रिंसिपल तक सीमित न हो। इसमें विद्यार्थियों, अभिभावकों और आसपास के निवासियों का भी योगदान होना चाहिए, क्योंकि वे ही उस शिक्षक के वास्तविक प्रभाव को समझते हैं। यह परख पूरे वर्ष भर चलनी चाहिए, ताकि चयन प्रक्रिया में कोई भी भेदभाव न हो और सभी को समान अवसर मिले।

आज के समाज में पुरस्कार और सम्मान एक प्रतिष्ठा के प्रतीक माने जाते हैं। राज्य शिक्षक पुरस्कार हो या महामहिम राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार, इन पुरस्कारों का चयन एक निश्चित प्रक्रिया से होता है। शिक्षक को पुरस्कार प्राप्ति के लिए स्वयं आवेदन करना पड़ता है, जिसमें ऑनलाइन आवेदन, तस्वीरें, विडियो, विभागीय आख्या, पुलिस वेरिफिकेशन और इंटरव्यू जैसी प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। इसके बावजूद, बहुत से पुरस्कार इस रूप में प्रचारित होते हैं जैसे यह केवल कार्य के कारण मिले हैं, जबकि असल में इसे प्राप्त करने के लिए कुछ शिक्षक अपनी व्यक्तिगत पहुंच और प्रभाव का सहारा लेते हैं।

वास्तव में, यह चयन प्रक्रिया इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि पुरस्कार के लिए योग्य शिक्षक स्वयं आगे आएं, क्योंकि पहले जब अधिकारियों द्वारा चयन किया जाता था, तो निष्पक्षता या भाई-भतीजावाद का खतरा बना रहता था। लेकिन यहीं पर एक गंभीर समस्या उत्पन्न होती है। हर नियम और प्रक्रिया को बिगाड़ने वाले लोग हर क्षेत्र में होते हैं। इनकी वजह से कभी-कभी वे लोग पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं जो शायद उतने योग्य नहीं होते, बल्कि उनकी पहुंच और गलत तरीके से पुरस्कार प्राप्त करने की कला उन्हें सफल बना देती है। यही कारण है कि अच्छे शिक्षक भी कभी-कभी आलोचना का शिकार हो जाते हैं।

यहां पर एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या सच में हमें पुरस्कार के लिए आवेदन करना चाहिए? मेरी विचारधारा से यह मेल नहीं खाता कि मैं स्वयं पुरस्कार मांगूं। पुरस्कार प्राप्त करना एक सम्मान की बात है, लेकिन क्या उसे प्राप्त करने के लिए स्वयं आगे आना सही है? एक शिक्षक का असली उद्देश्य अपनी शिक्षा और छात्रों के विकास में योगदान करना होता है, न कि अपनी नौकरी या वेतन बढ़ाने के लिए पुरस्कार प्राप्त करना।

जब हम पुरस्कारों को केवल व्यक्तिगत फायदे के रूप में देखते हैं, तो यह सवाल उठता है कि इस पुरस्कार से स्कूल, बच्चों, समाज और समुदाय को क्या फायदा होता है? क्या इसका कोई वास्तविक प्रभाव समाज में दिखता है, या यह सिर्फ एक सम्मान और पहचान का प्रतीक बनकर रह जाता है? अक्सर हम यह नहीं देख पाते कि पुरस्कार मिलने से स्कूल के बुनियादी ढांचे, विद्यार्थियों की शिक्षा, या समग्र समाज के भले के लिए कुछ ठोस बदलाव आया हो।

जहां तक पुरस्कार की बात है, मैं पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों का पूरी तरह सम्मान करती हूं, लेकिन मेरा मानना है कि पुरस्कार का असली उद्देश्य कभी भी व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं होना चाहिए। यदि पुरस्कार के माध्यम से किसी स्कूल को बेहतर संसाधन, रास्ता, मैदान, कमरे या कोई अन्य जरूरी सुविधाएं मिल सकती हैं, तो मैं हाथ जोड़कर पुरस्कार हेतु आवेदन करूंगी, ताकि स्कूल और बच्चों का भला हो सके। लेकिन मैं किसी पुरस्कार के लिए खुद को कभी आगे नहीं बढ़ाऊंगी, यदि वह पुरस्कार केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए हो।

सच्चे पुरस्कार का मूल्य उस कार्य में निहित है, जो किसी व्यक्ति ने समाज और समुदाय के लिए किया है। पुरस्कार का असली उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत पहचान या नौकरी बढ़ाने के लिए नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, यह उन लोगों को सम्मानित करना चाहिए, जो समाज में सार्थक बदलाव लाने में सफल रहे हैं, चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में हो या किसी अन्य क्षेत्र में। ऐसे पुरस्कार समाज के वास्तविक विकास और भले के लिए होना चाहिए, न कि केवल एक व्यक्तिगत सम्मान का प्रतीक।

-प्रियंका सौरभ 

स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

नेपाल आंदोलन की जमीनी हकीकत

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−मुकुन्द हरि

अभी करीब आधे घंटे तक नेपाल में अपने एक सूत्र से बातें होती रहीं क्योंकि वहां की जमीनी हकीकत और नेपाली जनों की सोच को जानना, समझना जरूरी लगा।

दरअसल, कम से कम एक साल पहले से ही वहाँ के भ्रष्ट राजनेताओं और उनकी अकूत संपत्ति और उनके बच्चों के विदेश में पढ़ने को लेकर जनाक्रोश पनप चुका था।

आठ तारीख को जेन जेड ने जो प्रदर्शन किया, उसकी पूर्व सूचना सोशल मीडिया के माध्यम से तीन-चार दिन पहले ही पूरे नेपाल में फैल चुकी थी। और नेपाल की कम्युनिस्ट सरकार ने जिन सोशल मीडिया के माध्यमों पर रोक लगाई, वो अमेरिकी थे किन्तु किसी चीनी सोशल मीडिया पर रोक नहीं लगाई।

नेपाल के लोग यह समझ चुके हैं कि इन कम्युनिस्टों ने नेपाल को चीन की कठपुतली बना दिया है और भारत को केवल ब्लैक मेल करते रहना इन नेताओं की प्रवृत्ति बन चुकी है।मामला इतना इसलिए बिगड़ा कि गोलीबारी की गई। इससे दर्जनों लोग मारे गए।

इसी अराजकता की आड़ में नेपाल के काठमांडू, धरान, पोखरा जैसे कई शहरों की जेलों में कैदियों ने खुद आग लगाई और जेल से भाग निकले।अकेले काठमांडू में 3 जेलें हैं और वहां से करीब 1200 कैदी भी भाग्र गए। बिहार बोर्डर पर 10 कैदियों को हमारे सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने पकड़ा।

नेपाल की सेना ने भारत सरकार से भारतीय सेना भेजने का अनुरोध किया लेकिन भारत ने स्पष्ट कहा कि ये आपकी आंतरिक परेशानी है। यदि हम अपनी सेना को वहां भेजेंगे तो वहां की जनता, भारत को अपना विरोधी मानेगी।

यही गलती राजीव गांधी से हुई या करवाई गई थी, जब उन्होंने श्री लंका में शांति सेना भेजी थी। गनीमत से, इस बार भारत सरकार ने इसे दुहराया नहीं।

के पी शर्मा ओली की पहचान, नेपाल में पुराने तस्कर की रही है।

उसके काठमांडू समेत नेपाल में कम से कम 4 मकान हैं और अभी उसके जिस घर में आक्रोशित लोगों ने आग लगाई, आग बुझने के बाद वहां से 2 किलो सोना बरामद हुआ है और उसके एक निकटतम सम्बन्धी के घर से 80 किलो सोना बरामद हुआ है।

सोचिए, कि वहां क्या चल रहा था !

नेपाल के लोगों के मुताबिक, इस जनाक्रोश के पीछे अमरीका के साथ पुष्प दहल प्रचंड के माओवादी नेता और दामाद का हाथ होने की भी बात सामने आई है।

हालांकि, प्रचंड की अपनी बेटी का घर भी जलाया गया है और उसमें एक व्यक्ति का जला हुआ शव मिला है, जिसकी पहचान नहीं हो पाई है।

इस जनाक्रोश के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने से फिलहाल नेपाली लोग नकार रहे हैं क्योंकि उनके मुताबिक पाकिस्तान खुद बदहाल है और ऐसे जनाक्रोश की फंडिंग करना अब उसके वश की बात नहीं है।

बांग्लादेश में जो हुआ, वह भी अमरीका ने ही करवाया था। जो बाइडेन ने तो अलग से बांग्लादेश में अनरेस्ट के लिए फंडिंग करवाई थी, जिसे बाद में ट्रंप ने रोक दिया।

आज शाम 5 बजे से कल सुबह 6 बजे तक पूरे नेपाल में कर्फ्यू लागू है।

एक अच्छी बात यह है कि भारत या भारतीय लोगों के प्रति किसी नकारात्मक भावना की कोई बात अभी तक नेपाल से सामने नहीं आई है।

दूसरी बात यह हो रही है कि नेपाल की सेना, आंदोलनकर्ता मिलकर आगे का रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे हैं।

वहां, एक अंतरिम सरकार बनाने पर चर्चा हो रही है, जिसमें पार्टी विहीन और सिविल सोसाइटी के पढ़े-लिखे लोगों को जगह देने की बात चल रही है।

साथ ही, राजा को पुनः एक संवैधानिक संरक्षक के तौर पर स्थान देने और नेपाल को पुनः हिन्दू राष्ट्र घोषित करने जैसे विषयों पर भी चर्चाएं हो रही हैं।

  • मुकुन्द हरि जी की फेसबुक वॉल से साभार

डीप स्टेट का नया वेपन जेन −जेड

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©हर्यश्व सिंह ‘सज्जन’
दक्षिण एशिया पिछले कुछ सालों से कई तख्तापलट का गवाह रहा है। तख्तापलट की इन घटनाओं में कई समानताएं नजर आती है। राजनीतिक अस्थिरता के दौर में दक्षिण एशिया की विकास दर खासी प्रभावित हुई है। 2021 से अब तक भारत के लगभग सभी पड़ोसी देशों में सत्ता के खिलाफ आंदोलन हुए। लेकिन, सबसे ज्यादा चितांजनक यह है कि सत्ता परिवर्तन के बाद इन देशों को अब तक बेहद अराजक स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। भारत के लिहाज से पड़ोस में अस्थिरता बेहद चिंताजनक है।

करीब 20 साल तक अफगानिस्तान में रहने के बाद यूएस आर्मी ने 2020 में वापसी की। मार्च-अप्रैल 2021 से तालिबान ने निर्वाचित सरकार पर हमले तेज कर दिए। अगस्त 2021 में तालिबान ने निर्वाचित सरकार को गिराकर सत्ता पर कब्जा कर दिया। तत्कालीन राष्ट्रपति अशरण गनी को विदेश में शरण लेनी पड़ी। फरवरी 2021 में म्यांमार में सेना ने ही तख्तापलट कर दिया। निर्वाचित पीएम आंग सान सू की को जेल में डाल दिया गया। तब से ही वहां लोकतंत्र बहाली की मांग उठ रही है। घनघोर आर्थिक संकट से जूझ रहा श्रीलंका भी इससे नहीं बच पाया। 2022 में महंगाई, ईंधन के संकट और बिजली किल्लत जैसे मुद्दों को लेकर जनता सड़क पर आ गई। कोलंबो में कई दिन हालात खराब रहे। अंततः राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे को रातोंरात मालदीव भागना पड़ा। उन्होंने अपना इस्तीफा भी ईमेल से भेजा। 2023 में पाकस्तिान में पीएम इमरान खान को जेल में डाल दिया गया। सेना के हस्तक्षेप से अंतरिम सरकार का गठन हुआ। तब से इमरान समर्थक लगातार उनकी रिहाई के लिए आंदोलन कर रहे है।

बांग्लादेश में 2009 से सत्ता में बनी शेख हसीना की आवामी लीग सरकार का विरोध 2024 में चरम पर पहुंचा। विरोध को दबाने के लिए हुई गोलीबारी में सैकड़ों लोगों की मौत हुई। जिसके बाद प्रदर्शनकारी भड़क उठे। 5 अगस्त को शेख हसीना को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। तब से वहां सेना के सहयोग से मोहम्मद युनूस सत्ता संभाल रहे है। छात्र लोकतंत्र बहाली की मांग कर रहे है। मालदीव में भी अगस्त 2024 में राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू की सरकार को गिराने का असफल प्रयास किया गया था।

हालिया घटनाक्रम नेपाल का है। जहां पिछले दो दिनों में सोशल मीडिया बैन के खिलाफ आक्रोशित जेन-जेड युवाओं ने सत्ता पलट दी। नेपाल के राजनेताओं को पीटा गया। पीएम केपी ओली, राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल समेत कई नेताओं के देश छोड़ने की खबर आ रही है। कई नेताओं की पिटाई हुई। पूर्व पीएम की पत्नी की जलने से मौत हुई।

दक्षिण एशिया की इन सभी घटनाओं के विश्लेषण में कुछ समानताएं सामने आती है। पहली है सेना की भूमिका। पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार के मामले में सेना की भूमिका हमेशा संदिग्ध रही है। नेपाल और श्रीलंका में भी कमोवेश यही देखने को मिला है। दूसरा है आर्थिक असंतुलन। इस रीजन में दुनिया में कुल आबादी का अधिकांश हिस्सा निवास करता है। विकास के लिहाज से यह देश थर्ड वर्ल्ड का हिस्सा हैं। भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, अवसरों में कमी भी कारण हैं। संचार युग में यहां के युवा पश्चिम की तुलना में अपने को कमतर पाकर जल्द आक्रोशित हो रहे है। इसलिए आंदोलनों में हिंसा चरम पर पहुंच रही है। जहां भी सत्ता परिवर्तन हुआ, वहां प्रदर्शनकारियों ने न केवल जमकर हिंसा की वरन ऐतिहासिक विरासत और राष्ट्रीय संपति तक को क्षति पहुंचाई।

इन कारणों के इतर श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल के मामले में नई चीजें भी सामने आई है। वह है जेन-जेड, एक ऐसी पीढ़ी जो अभी 13 से 28 साल की है, की भागीदारी। टीवी और इंटरनेट पर बांग्लादेश और नेपाल के फुटेज देखिए, स्कूली यूनिफार्म पहने बच्चे प्रदर्शनों में शामिल दिखाई देंगे। सोशल मीडिया के मकड़जाल में उलझी इस पीढ़ी में कोई स्पष्ट राजनीतिक समझ होना संदेहास्पद लगता है। कही ऐसा तो नहीं कि इनको राजनीतिक हथियार बनाया जा रहा हो। छात्रों ने बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन किया, लेकिन अब अधिकांश छात्र आंदोलनकारी सरकार से बाहर हो गए है। नेपाल में पीएम ओली के देश छोड़ने की खबर के बाद यूनिफार्म पहने छात्रों की जगह खुलेआम हथियार लहराते युवाओं की तस्वीरें सामने आने लगी। कही दुनिया का डीप स्टेट इंटरनेट पर चारा परोसकर इन युवाओं को अपना नया हथियार तो नहीं बना रहा।

बांग्लादेश में सत्ता पलट के बाद भारत के कुछ नेताओं के बयानों को याद कीजिए। नेपाल में छात्रों के नारे ‘केपी चोर, गद्दी छोड़’ पर भी ध्यान दीजिए। आपको कुछ समानताएं दिखेंगी। डीप स्टेट के प्रभाव में कुछ लोग भारत को भी राजनीतिक अस्थिरता के दौर में धकेलने का प्रयास कर रहे हैं। हम सबसे तेज बढ़ती अर्थवयवस्था है। इसने पूरी दुनिया को चौंकाया है। डीप स्टेट ऐसे किसी प्रयोग को कर भारत में भी राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर सकता है। एनआरसी और सीएए को लेकर शाहीन बाग में जिस तरह घेराबंदी की गई। किसान कानूनों को लेकर राजधानी की न केवल घेराबंदी की गई, बल्कि 26 जनवरी को लाल किले पर किसान प्रदर्शनकारियों की आड़ में तोड़फोड़ की गई, इस बात की गवाही दे रहे है कि डीप स्टेट भारत में भी ऐसे प्रयोगों के लिए जमीन तैयार करने का प्रयास कर रहा है। ऐसे में भारत को विशेष सावधान रहने की जरूरत है।

डीप स्टेट की नई चाल, छात्रों को बनाया ढाल
डीप स्टेट की टूल किट का नया पैंतरा देखिए, अब सत्ता विरोधी संघर्ष में शामिल युवाओं को सिर्फ छात्र कहा जा रहा है। कही भी बेरोजगार युवा का जिक्र नहीं है, जबकि इन देशों में शिक्षा के बाद रोजगार के अवसरों में लगातार कमी दर्ज की जा रही है। दरअसल, छात्र कहकर आंदोलनकारियों के प्रति दुनिया के आम जनमानस में एक साफ्ट कॉर्नर बनाने की कोशिश की जा रही है। श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल में हुए तख्तापलट में मुख्य रूप से बेरोजगार युवा शामिल रहे हैं। पिछले अनुभव बताते रहे हैं कि बेरोजगार युवा आसानी से हिंसा का रास्ता अपना लेते है। इसी के चलते डीप स्टेट उनको निर्दोष छात्रों के रूप में परिभाषित कर रहा है, ताकि इन तख्तापलट की घटनाओं को दुनिया की सहानुभूति हासिल हो सके।

हर्यश्व सिंह ‘सज्जन’

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

नेपाली आंदोलनकारियों ने अपनी मांगे रखीं

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संविधान को फिर से लिखने / संशोधन करने, शासन में व्यापक सुधार और पिछले तीन दशकों में राजनेताओं की ओर से लूटी गई संपत्तियों की जांच हो

प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के त्याग पत्र के बाद नेपाल के जेनरेशन जेड (जेन जी या Gen Z) प्रदर्शनकारियों के हौसले बुलंंद हैं।अब जेनरेशन जेड प्रदर्शनकारियों  ने कई राजनीतिक और सामाजिक मांगें रखी हैं। इन मांगों में संविधान को फिर से लिखने या संशोधन करने, शासन में व्यापक सुधार और पिछले तीन दशकों में राजनेताओं की ओर से लूटी गई संपत्तियों की जांच शामिल है।

आंदोलन के दौरान एलान किया गया कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान जान गंवाने वाले सभी लोगों को आधिकारिक तौर पर शहीदों का दर्जा दिया जाएगा और उनके परिवारों को राजकीय सम्मान, सम्मान और राहत दी जाएगी। आयोजकों ने बेरोजगारी से निपटने, पलायन पर अंकुश लगाने और सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए विशेष कार्यक्रमों का भी वादा किया है।प्रदर्शनकारियों ने एक बयान में कहा है, ‘यह आंदोलन किसी पार्टी या व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी पीढ़ी और देश के भविष्य के लिए है। शांति जरूरी है, लेकिन यह एक नई राजनीतिक व्यवस्था की नींव पर ही संभव है।’ समूह ने उम्मीद जताई कि राष्ट्रपति और नेपाली सेना उनके प्रस्तावों को सकारात्मक रूप से लागू करेंगे।

इससे पहले नेपाल में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतरे प्रदर्शनकारियों ने मंगलवार को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कई मंत्रियों व शीर्ष नेताओं के सरकारी व निजी आवासों पर हमला कर तोड़फोड़ और आगजनी की। संसद भवन और सुप्रीम कोर्ट को भी आग के हवाले कर दिया। कई बैंकों में तोड़फोड़ और लूटपाट की गई। आंदोलनकारियों ने प्रदर्शन कर रहे युवाओं पर गोली चलाने का आदेश देने वाले डीएसपी की भी पीट-पीट कर हत्या कर दी। पूर्व प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा, उनकी पत्नी व विदेश मंत्री आरजू राणा देउबा को घर में घुसकर पीटा। पूर्व प्रधानमंत्री झालानाथ खनल की पत्नी राजलक्ष्मी चित्रकार को घर के अंदर बंदकर जिंदा जला दिया गया। वित्त मंत्री विष्णु पौडेल को भी घर के सामने सड़कों पर दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। वायरल वीडियो में प्रदर्शनकारी पौडेल को लातें मारते नजर आ रहे हैं। तनावपूर्ण स्थिति में त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे को बंद कर दिया गया है। सेना ने सुरक्षा की कमान संभाल ली है। राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल और सेना प्रमुख अशोक राज सिगदेल ने आंदोलनकारियों से संयम बरतने और वार्ता के लिए आगे आने की अपील की है।

नेपाल में तख्ता पलट के बाद भी युवाओं का गुस्सा शांत होता नहीं दिख रहा। सत्तारूढ़ वर्ग के प्रति जेन जी का आक्रोश सोशल मीडिया पर दिख रहा है। नेताओं के बच्चों व सगे-संबंधियों की विलासितापूर्ण जिंदगी, परिवारवाद व भ्रष्टाचार ने नेपाल के युवाओं के आक्रोश की आग में घी डालने का काम किया है।सोशल मीडिया पर युवाओं ने नेताओं के बच्चों की ऐशो-आराम वाली जिंदगी की तस्वीरें और वीडियो शेयर किए। संसद परिसर तक पहुंचे युवाओं ने नारे लगाए कि हमारा टैक्स, तुम्हारी रईसी नहीं चलेगी। नेपाल की राजनीति में परिवारवाद राजधानी से लेकर गांव-कस्बों तक फैला हुआ है। नेपाली कांग्रेस में देउबा परिवार के कई सदस्य राजनीति में हैं। उदाहरण के तौर पर केपी ओली की रिश्तेदार अंजन शक्य को नेशनल असेंबली सदस्य बनाने की सिफारिश की गई और राष्ट्रपति ने उनकी नियुक्ति भी कर दी।युवाओं ने ऑस्ट्रेलिया, कतर, बांग्लादेश और स्पेन के लिए नेपाल के राजदूत के चुनाव पर गंभीर सवाल उठे। आरोप हैं कि इनमें से कई नेताओं के रिश्तेदार या नजदीकी थे, जबकि योग्य लोगों की अनदेखी कर दी गई। महेश दहाल को ऑस्ट्रेलिया का राजदूत बनाया गया, जो माओवादी नेता प्रचंड (पुष्प कमल दहाल) के करीबी रिश्तेदार बताए जाते हैं। नारद भारद्वाज को कतर भेजा गया। वह केपी शर्मा ओली के भरोसेमंद बताए जाते हैं।

राष्ट्रपति और सेना प्रमुख ने की संयम बरतने व वार्ता की अपील
राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने आंदोलनकारियों से शांतिपूर्ण समाधान के लिए संयम बरतने और वार्ता में शािमल होने की अपील की है। उन्होंने कहा, देश कठिन हालात से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री ओली का इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया है, इसलिए गतिरोध का समाधान खोजने के लिए देश, लोगों और लोकतंत्र से प्रेम करने वाले सभी पक्षों के सहयोग की जरूरत है।

जेलों से कैदी फरार

 18 ज़िलों की जेलों से 6,000 से ज़्यादा कैदी फरार हो गए हैं। रिपोर्टों से पता चलता है कि कई जगहों पर कैदियों ने जेल के दरवाज़े तोड़ दिए, जबकि कुछ जगहों पर उन्होंने बाहर निकलने के लिए चारदीवारी तोड़ दी। इस सामूहिक जेल ब्रेक ने देश में पहले से ही व्याप्त अराजकता को और बढ़ा दिया है। इससे अधिकारियों को नियंत्रण पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।नेपाल की दिल्लीबाजार जेल से बाहर आने के बाद, बड़ी संख्या में कैदियों को काठमांडू में सेना ने हिरासत में ले लिया है। कैदी जेल से रिहाई की मांग कर रहे हैं। हाल ही में हुए हिंसक भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों के बाद, पुलिस मुख्यालय को छोड़कर, बाकी जगहों पर पुलिसकर्मी हट गए हैं। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए नेपाली सेना को तैनात किया गया है।

भारतीय सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) ने नेपाल की एक जेल से भागे पांच कैदियों को भारत में घुसने की कोशिश करते हुए गिरफ्तार कर लिया है। यूपी के सिद्धार्थनगर इलाके में भारत-नेपाल सीमा पर ये गिरफ्तारियां की गईं और बाद में कैदियों को आगे की जांच के लिए पुलिस को सौंप दिया गयाकाठमांडू का हिल्टन होटल जलकर खाक हो गया है। प्रदर्शनकारियों ने मंगलवार को होटल समेत कई संपत्तियों को आग लगा दी थी। 

टिटहरी:सात बात पते की?

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−दिनेश गंगराड़े,इंदौर

टिटहरी गावों का सर्वाधिक लोकप्रिय, सक्रिय,पक्षी है।इसे कुछ कुकरी, कुछ टिटिभ, कुछ टीटोड़ी भी कहते है।जलाशय के पास रहने वाली ये जलचर पक्षी है।टिटहरी की दिनचर्या, उसका प्रजनन चक्र किसानों को कई देशी फंडे बताता है जिसके आगे कई वैज्ञानिक फेल है।इस बार टिटहरी ने कई जगह छत पर अंडे दिये, ये पिछले पचास वर्ष में राजस्थान में पहली बार देखा गया है कि टिटहरी ने चार अंडे दिये तो समझो चार माह बारिश होगी,भरपूर होगी। टिटहरी ने ऊँचाई पर जमीन पर अंडे दिये तो समझो बहुत अच्छी बारिश की प्रबल संभावना रहेगी।भरपूर आनंद रहेगा।टिटहरी पेड़, दीवार, खम्बे, रस्सी या जहाँ तक हो छत पर नही बैठती है।अक्सर टिटहरिया जमीन पर ही रहती और चलती है।
यदि टिटहरी ने छत पर अंडे दे दिये तो समझो पानी से तबाही है।पानी कम और रुला-रुला कर आएगा।कभी आप टिटहरी को कुरुक्षेत्र के अलावा देश मे मृत नही देख सकते?टिटहरी जिस खेत मे अंडे देती है वो खेत खाली नही रहता।फसल से हराभरा,भरपूर रहता है।
जिस वर्ष टिटहरी अंडे न दे समझ लो भयंकर अकाल है।प्रकृति इनसे है,ये प्रकृति के पोषक है। जब विज्ञान नही था तब ये थे, प्रभु ने इसलिये इन्हें बनाया, हम खो रहे भुगत रहे है ।अचेत है इनको इग्नोर कर, संभलो मुह नही बोलते पर सन्देश अटल है।टिटहरी के बोलने पर भी संकेत है।यदि ये रात में तेज बोलना शुरु करें तो वर्षा,मौसम के बदलाव का संकेत है।लगातार बोले तो अंडों को बचाने का प्रयास है।अंडे की सुरक्षा हेतु ये पैर ऊपर कर सोती है।कहा जाता है कि टीटोड़ी के पास पारस पत्थर होता है जिससे वो अपना अंडा फोड़ती है।धारणा है कि इस पारस पत्थर की रखवाली या तो जिन्न करता है अथवा टीटोड़ी करती है।अक्सर टिटहरी जोड़ा समुद्र किनारे रहता है।

#दिनेश गंगराड़े,इंदौर

सोशल मीडिया पर प्रतिबंध का परिणाम है नेपाल की अराजकता

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नेपाल में युवाओं का आक्रोश और विरोध प्रदर्शन यह संकेत देते हैं कि सरकार और जनता के बीच विश्वास का संकट गहरा रहा है। अगर यह स्थिति और बिगड़ी तो चीन अपना प्रभाव वहां और बढ़ाने का प्रयास कर सकता है। चीन पहले से ही नेपाल में अपनी पकड़ बनाये हुए है। ऐसे में नेपाल के लोकतांत्रिक संस्थानों में अविश्वास और अशांति बढ़ी तो यह भारत के लिए रणनीतिक चुनौती बन सकती है।

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-नीरज कुमार दुबे

नेपाल में सरकार द्वारा प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर लगाए गए प्रतिबंध ने देश के राजनीतिक, सामाजिक और कूटनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया है। यह केवल डिजिटल नीति का सवाल नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और युवा चेतना के लिए एक गंभीर चुनौती है। फेसबुक, यूट्यूब, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स, जिन्हें युवा पीढ़ी अपने विचार व्यक्त करने, दोस्तों से जुड़ने और वैश्विक घटनाओं से अपडेट रहने के लिए इस्तेमाल करती है, उन पर बैन लगाने से युवाओं में गहरी नाराजगी और असंतोष पैदा हुआ है।

युवा पीढ़ी पहले ही देश की कमजोर स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से तंग आ चुकी है। ऐसे समय में सोशल मीडिया पर पाबंदी ने उनकी निराशा को और बढ़ा दिया है। हाल ही में ‘नेपो किड्स’ यानि राजनीतिक परिवारों के बच्चों के विरुद्ध उभरे गुस्से और काठमांडू में जेनरेशन ज़ेड के युवाओं का प्रदर्शन यह दर्शाता है कि वह अब अन्याय को चुपचाप सहन नहीं करेंगे। यह चेतावनी है कि यदि सरकार युवा वर्ग की भावनाओं को समझने में विफल रही, तो राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ सकती है।

देखा जाये तो इस घटनाक्रम का भारत और दक्षिण एशिया के लिए भी महत्वपूर्ण संदेश है। नेपाल भारत का निकटतम पड़ोसी और रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण देश है। वहां की अस्थिरता न केवल सीमा सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकती है, बल्कि चीन जैसे बाहरी प्रभावों को बढ़ावा देने का अवसर भी दे सकती है। हाल ही में ओली सरकार का चीन के प्रति झुकाव, पश्चिम और जापान से दूरी और सीमा विवादों में आक्रामक रुख ने यह संकेत दिया है कि नेपाल अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता के बावजूद विदेशी प्रभावों के जाल में फंसता जा रहा है।सही कदम गलत तरीके से उठाया

यह ठीक है कि सोशल मीडिया को कानूनी और सामाजिक वास्तविकताओं के अनुरूप नियंत्रित करना आवश्यक था, लेकिन इसे कैबिनेट निर्णय के माध्यम से लागू करना और विवादास्पद प्रावधान लागू करना— जैसे ‘समस्याग्रस्त सामग्री’ को 24 घंटे में हटाना, जैसी नीति को थोपना गलत था। पहले ही दक्षिण एशिया में लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। श्रीलंका, पाकिस्तान और अब नेपाल के हालात यह संदेश देते हैं कि लोकतंत्र केवल चुनाव तक सीमित नहीं रह सकता; इसे जीवित बनाए रखने के लिए नागरिकों की स्वतंत्रता, उनके अधिकार, शासन में पारदर्शिता और संवेदनशील कूटनीति की रक्षा आवश्यक है।

नेपाल की सरकार को अब यह समझना होगा कि विदेशी ऐप्स को कानूनी दायरे में लाना उचित है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है कि वह अपने युवाओं और नागरिकों की भावनाओं का सम्मान करें। युवा पीढ़ी देश के भविष्य के निर्माता हैं; उनकी आवाज़ को दबाना, उन्हें अपमानित करना और डिजिटल माध्यमों पर नियंत्रण लगाना केवल अस्थायी समाधान होगा, जबकि अस्थिरता और सामाजिक तनाव स्थायी रूप से बढ़ सकते हैं।

इसमें भी कोई दो राय नहीं कि नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता, सोशल मीडिया पर पाबंदी और युवा विरोध प्रदर्शन न केवल वहां की आंतरिक राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि यह भारत के लिए भी चिंता का विषय बन गए हैं। नेपाल भारत का सबसे नजदीकी पड़ोसी और रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण देश है। दोनों देशों के बीच खुले सीमावर्ती संबंध, सामाजिक-सांस्कृतिक मेलजोल और आर्थिक संबंध गहरे हैं। ऐसे में नेपाल में बढ़ती अस्थिरता का सीधे प्रभाव भारत की सीमा सुरक्षा, सीमावर्ती इलाकों की स्थिरता और वहां रहने वाले भारतीय नागरिकों पर पड़ सकता है।

नेपाल में युवाओं का आक्रोश और विरोध प्रदर्शन यह संकेत देते हैं कि सरकार और जनता के बीच विश्वास का संकट गहरा रहा है। अगर यह स्थिति और बिगड़ी तो चीन अपना प्रभाव वहां और बढ़ाने का प्रयास कर सकता है। चीन पहले से ही नेपाल में अपनी पकड़ बनाये हुए है। ऐसे में नेपाल के लोकतांत्रिक संस्थानों में अविश्वास और अशांति बढ़ी तो यह भारत के लिए रणनीतिक चुनौती बन सकती है।

इसके अलावा, नेपाल में सामाजिक असंतोष और राजनीतिक अशांति सीमा पार अपराध, तस्करी और अवैध गतिविधियों को भी बढ़ावा दे सकते हैं। नेपाल में मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगना युवाओं में निराशा और विद्रोह की भावना को और बढ़ाता है, जो लंबे समय में भारत के लिए सुरक्षा और राजनीतिक स्थिरता की दृष्टि से जोखिम बन सकता है।

इसलिए भारत को नेपाल के हालात पर सतर्क नजर रखनी चाहिए। यह सतर्कता केवल सीमा सुरक्षा तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसमें कूटनीतिक संवाद, आर्थिक सहयोग और सांस्कृतिक संपर्क के माध्यम से नेपाल के लोकतांत्रिक ढांचे और सामाजिक स्थिरता को बनाए रखने का प्रयास शामिल होना चाहिए। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि नेपाल के अंदरूनी संकट भारत-नेपाल संबंधों को प्रभावित न करें और क्षेत्रीय संतुलन बना रहे। देखा जाये तो नेपाल में बिगड़ते हालात भारत के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा, सामरिक संतुलन और क्षेत्रीय स्थिरता से जुड़ा मामला भी है। इसलिए भारत को सक्रिय, सतर्क और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य है।

नेपाल सरकार को इस स्थिति को संभालने के लिए संतुलित और पारदर्शी रुख अपनाना होगा। सबसे पहले, युवा नेताओं और प्रदर्शनकारियों के साथ खुले संवाद की आवश्यकता है। सोशल मीडिया एप्स पर प्रतिबंध का उद्देश्य और कानूनी आधार स्पष्ट करना जरूरी है ताकि जनता को यह विश्वास हो कि यह कदम सिर्फ डिजिटल सुरक्षा और कानूनी संगति के लिए उठाया गया है, न कि युवाओं की आवाज़ दबाने के लिए। इसके साथ ही, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों को नियंत्रित करने के लिए एक समग्र और न्यायसंगत कानून तैयार किया जाना चाहिए, न कि केवल कैबिनेट निर्णय या तात्कालिक आदेश पर जोर देना चाहिए। विवादास्पद प्रावधानों की समीक्षा और विशेषज्ञ सलाह से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कानून निष्पक्ष और संतुलित हो।

इसके अलावा, युवाओं की भागीदारी और उनके सुझावों को नीति निर्माण प्रक्रिया में शामिल करना भी आवश्यक है। उनके दृष्टिकोण को गंभीरता से लेने से यह संदेश जाएगा कि सरकार उनकी आवाज़ को महत्व देती है। साथ ही, प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई से बचना चाहिए और शांतिपूर्ण संवाद के माध्यम से समाधान खोजा जाना चाहिए। डिजिटल शिक्षा और जागरूकता बढ़ाने के कार्यक्रमों के जरिए युवा समाज को जिम्मेदार इंटरनेट उपयोग की ओर प्रेरित किया जा सकता है।

बहरहाल, देखा जाये तो नेपाल सरकार के सामने यह चुनौती केवल सोशल मीडिया नियंत्रण की नहीं है, बल्कि लोकतंत्र और युवा चेतना को बनाए रखने की भी है। संतुलित, पारदर्शी और संवादात्मक रुख अपनाकर ही सरकार युवा नाराजगी को शांत कर सकती है और देश में राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता सुनिश्चित कर सकती है।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)

दवाएं नहीं फिजियोथेरेपी देगी दर्द से राहत

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बाल मुकुन्द ओझा
हाल ही विश्व फिजियोथेरेपी दिवस मनाया गया। लोग आज भी फिजियोथेरेपी को सिर्फ चोट या दर्द के इलाज तक सीमित मानते हैं, जबकि वास्तव में यह एक संपूर्ण और संतुलित जीवनशैली का अहम हिस्सा है। घुटनों के दर्द, पीठ की तकलीफ और स्ट्रोक के बाद की स्थिति में अब लोग दवा के बजाय फिजियोथेरेपी पर ज्यादा भरोसा जता रहे हैं। फिजियोथैरेपी यानी शरीर की मांसपेशियों, जोड़ों, हड्डियों-नसों के दर्द या तकलीफ वाले हिस्से की वैज्ञानिक तरीके से आधुनिक मशीनो, एक्सरसाइज, मोबिलाइजेशन,टेपिंग के माध्यम से मरीज को आराम पहुंचाना। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि योगा और कसरतें ही फिजियोथैरेपी होती हैं लेकिन यह सही नहीं है। फिजियोथेरेपी न सिर्फ इलाज का जरिया है, बल्कि यह बीमारियों की रोकथाम और लंबे समय तक शरीर को सक्रिय बनाए रखने का सबसे आसान और सुरक्षित तरीका भी है। फिजियोथैरेपी में विशेषज्ञ कई तरह के व्यायाम और नई तकनीक वाली मशीनों की मदद से इलाज करते हैं। आज की जीवनशैली में हम लंबे समय तक अपनी शारीरिक प्रणालियों का सही ढंग से उपयोग नहीं कर पा रहे हैं और जब शरीर की सहनशीलता नहीं रहती है तो वह तरह-तरह की बीमारियों व दर्द की चपेट में आ जाता है। फिजियोथैरेपी को हम अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाकर दवाइयों पर निर्भरता कम करके स्वस्थ रह सकते हैं।
फिजियोथेरेपी एक स्वास्थ्य प्रणाली है, जिसमे लोगों का परीक्षण कर उपचार किया जाता हैं। फिजियोथेरेपी वह विज्ञान है जिसमें शरीर के अंगों को दवाइयों के बिना ही ठीक ढंग से कार्य कराया जाता है। एक फिजियोथेरेपिस्ट का मुख्य काम शारीरिक कामों का आकलन, मेंटिनेंस और रिस्टोरेशन करना है। फिजियोथेरेपिस्ट वाटर थेरेपी, मसाज आदि अनेक प्रक्रियाओं के द्वारा रोगी का उपचार करता है। दवा रहित उपचार जिसमें मशीनों की सहायता से मांसपेशियों को रिलेक्स कर सूजन व दर्द में राहत दी जाती है। मशीनी तरंगें दर्द वाले प्रभावित हिस्से पर सीधे काम करती हैं। इसमें ठंडा-गर्म सेक, मैकेनिकल ट्रैक्शन (खिंचाव) से इलाज होता है।
अगर दवा, इंजेक्शन और ऑपरेशन के बिना दर्द से राहत पाना चाहते हैं तो फिजियोथेरेपी को अपनाना होगा। चिकित्सा और सेहत दोनों ही क्षेत्रों के लिए यह तकनीक उपयोगी है। जानकारी की कमी की चाह में लोग दर्द निवारक दवाएं लेते रहते हैं। मरीज तभी फिजियोथेरेपिस्ट के पास जाते हैं, जब दर्द असहनीय हो जाता है। फिजियोथेरेपी कमजोर पड़ते मसल्स और नसों को मजबूत करता है। यही वजह है कि अब इसकी जरूरत कॉडिर्यो रिलेटेड बीमारी से लेकर प्रेगनेंसी तक में जरूरत महसूस की जा रही है। हर प्रकार के क्रोनिक डिजीज में यह काम करता है।
फिजियोथेरेपी से कुछ दर्द में तो तुरंत आराम मिलता है, पर स्थायी परिणाम के लिए थोड़ा वक्त लग जाता है। दर्द निवारक दवाओं की तरह इससे कुछ ही घंटों में असर नहीं दिखाई देता। खासकर फ्रोजन शोल्डर, कमर व पीठ दर्द के मामलों में कई सिटिंग्स लेनी पड़ सकती हैं। कई मामलों में व्यायाम भी करना पड़ता है और जीवनशैली में बदलाव भी। इलाज की कोई भी पद्धति तभी कारगर साबित होती है, जब उसका पूरा कोर्स किया जाए। फिजियोथेरेपी के मामले में यह बात ज्यादा मायने रखती है। फिजियोथेरेपी में दर्द की मूल वजहों को तलाशकर उस वजह को ही जड़ से खत्म कर दिया जाता है। मसलन यदि मांसपेशियों में खिंचाव के कारण घुटनों में दर्द है तो स्ट्रेचिंग और व्यायाम के जरिये इलाज किया जाता है।
बैठने, खड़े होने या चलने के खराब पॉस्चर की वजह से या मांसपेशियों में खिंचाव के कारण या फिर आर्थ्राइटिस की वजह से कमर व पीठ में दर्द बढ़ जाता है। पीठ दर्द के इलाज के लिए फिजियोथेरेपी में कुछ सामान्य तरीके आजमाए जाते हैं। इनमें से एक है शरीर का वजन कम करना, ताकि जोड में पड़ने वाले अतिरिक्त भार को कम किया जा सके। दूसरा, मांसपेशियों की मजबूती और तीसरा तरीका है, री-पैटर्निग ऑफ मसल्स यानी किसी खास हिस्से में मांसपेशियों के पैटर्न को व्यायाम के जरिये ठीक करना। हमारी पीठ व कूल्हे के निचले हिस्से में करीब दो दर्जन से ज्यादा मांसपेशियां होती हैं, जिनका ठीक रहना जरूरी है।
लाइफस्टाइल संबंधी परेशानी (मोटापा, ब्लड प्रेशर, डायबिटीज), क्लाइमेट चेंज से जुड़ी तकलीफें (लंबे समय तक दफ्तर के एसी में रहना, धूप के बिना रहना, लंबी सिटिंग आदि, ऎसा वातावरण जो परेशानी को बढ़ाता है), मैकेनिकल एवं ऑर्थोपेडिक डिसऑर्डर (पीठ, कमर, गर्दन, कंधे, घुटने का दर्द या दुर्घटना के कारण भी), आहार-विहार (जोड़ों का दर्द, हार्मोनल बदलाव, पेट से जुड़ी समस्याएं), खेलकूद की चोटें, ऑर्गन डिसऑर्डर, ऑपरेशन से जुड़ी समस्याएं, न्यूरोलॉजिकल बीमारियां (मांसपेशियों का खिंचाव व उनकी कमजोरी, नसों का दर्द व उनकी ताकत कम होना), चक्कर आना, कंपन, झनझनाहट, सुन्नपन और लकवा, बढ़ती उम्र संबंधी बीमारियों के कारण चलने-फिरने में दिक्कत, बैलेंस बिगड़ना, टेंशन, हैडेक और अनिद्रा में फिजियोथैरेपी को अपना सकते हैं।
फिजियोथैरेपी में तुरंत इलाज संभव नहीं होता। मरीज को धैर्य रखते हुए एक्सपर्ट के बताए अनुसार व्यायाम करने और जीवनशैली में बदलाव लाने से न सिर्फ दीर्घकालिक लाभ होता है बल्कि एक्सरसाइज भी उसकी जीवनशैली का नियमित हिस्सा बन जाते हैं। ये दोनों चीजें दवा रहित जीवन व बीमारियों को दूर रखने में मददगार होती हैं।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

दक्षिण एशिया की अस्थिरता और भारत की चुनौतियाँ

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दक्षिण एशिया इस समय राजनीतिक अस्थिरता की चपेट में है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार और मालदीव में हालिया घटनाओं ने भारत की सुरक्षा और रणनीतिक हितों पर सीधा प्रभाव डाला है। चीन और अमेरिका अपनी-अपनी टूलकिट के जरिए क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहे हैं। भारत के लिए केवल प्रतिक्रियात्मक नीति पर्याप्त नहीं है; उसे कूटनीतिक सक्रियता, आर्थिक निवेश, सुरक्षा सहयोग और सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करना होगा। साथ ही आंतरिक एकजुटता को बनाए रखना अनिवार्य है। भारत अब मूकदर्शक नहीं रह सकता; उसे निर्णायक भूमिका निभाकर क्षेत्रीय स्थिरता और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों को सुरक्षित करना होगा।

 डॉ. सत्यवान सौरभ

दक्षिण एशिया आज जिस अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, वह केवल स्थानीय राजनीति का परिणाम नहीं है, बल्कि वैश्विक शक्तियों के गहरे हस्तक्षेप का दुष्परिणाम भी है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार और मालदीव जैसे देशों में हाल के वर्षों में जिस तरह राजनीतिक हलचलें और जनआंदोलन सामने आए हैं, उन्होंने पूरे क्षेत्र की स्थिरता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। नेपाल में युवाओं की भीड़ का संसद पर धावा, बांग्लादेश में सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक विरोध, म्यांमार में लगातार जारी सैन्य शासन और उसके विरुद्ध संघर्ष, मालदीव में भारत विरोधी राजनीतिक धारा का उभरना—ये सभी घटनाएँ भारत के लिए गंभीर चिंतन का विषय हैं। इसका कारण साफ है, क्योंकि इन घटनाओं का सीधा असर भारत की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और सामरिक संतुलन पर पड़ता है।

इन घटनाओं की जड़ में अमेरिका और चीन जैसे महाशक्तियों की टकराहट है। अमेरिका अपने लोकतंत्र और मानवाधिकार की टूलकिट से काम करता है, जहाँ युवा असंतोष, चुनावी धांधली और भ्रष्टाचार को हथियार बनाकर स्थानीय सरकारों पर दबाव डाला जाता है। दूसरी ओर चीन अपने कर्ज़, बुनियादी ढाँचे और निवेश परियोजनाओं के माध्यम से इन देशों को अपनी ओर खींचता है। नेपाल और मालदीव जैसे छोटे देश चीनी निवेश के जाल में फँस चुके हैं, वहीं बांग्लादेश और म्यांमार में अमेरिका और चीन की खींचतान खुलकर दिखाई देती है। यह परिदृश्य केवल इन देशों की राजनीति को नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई भू-राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर रहा है।

भारत इस पूरे परिदृश्य में सबसे महत्वपूर्ण हितधारक है। अगर नेपाल अस्थिर होता है तो वहाँ से आने वाला सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भारत की सीमा तक पहुँचता है। अगर बांग्लादेश में उथल-पुथल होती है तो पूर्वोत्तर भारत असुरक्षित हो जाता है। अगर म्यांमार में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनती है तो शरणार्थियों और तस्करी की समस्या भारत के लिए चुनौती बनती है। यदि मालदीव में चीन-समर्थित ताकतें हावी होती हैं तो हिंद महासागर में भारत की सामरिक स्थिति कमजोर हो सकती है। इन सभी घटनाओं का सीधा असर भारतीय सुरक्षा, कूटनीति और आर्थिक हितों पर पड़ना तय है।

भारत की अब तक की नीति अधिकतर प्रतिक्रियात्मक रही है। जब भी कोई संकट पड़ोसी देशों में गहराता है, भारत अस्थायी कदम उठाता है, पर दीर्घकालिक रणनीति का अभाव साफ दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, नेपाल के साथ खुली सीमा का लाभ उठाकर वहाँ के राजनीतिक समीकरणों में चीन की पैठ ने भारत की स्थिति कमजोर की। मालदीव में भी लंबे समय तक भारत-प्रथम नीति का लाभ लेने के बाद जब नई सरकार चीन के करीब चली गई तो भारत चौकन्ना हुआ। इसी तरह बांग्लादेश में भी हालिया घटनाक्रम ने यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या भारत की विदेश नीति केवल अल्पकालिक सहयोग तक सीमित है या उसमें दूरगामी दृष्टि भी है।

आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भारत को केवल अपनी सीमाओं तक नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्रीय परिदृश्य में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। क्षेत्रीय स्थिरता के बिना भारत का विकास और सुरक्षा अधूरा है। चीन और अमेरिका जैसे देश दक्षिण एशिया को केवल अपनी सामरिक प्रतिस्पर्धा का मैदान मानते हैं, जबकि भारत के लिए यह अस्तित्व और भविष्य का प्रश्न है। इसीलिए भारत को अब “मूकदर्शक” की भूमिका से बाहर निकलकर निर्णायक भूमिका निभानी होगी।

भारत की विदेश नीति के हालिया कदमों में संभावनाएँ भी दिखती हैं। जी-20 की अध्यक्षता के दौरान भारत ने वैश्विक दक्षिण की आवाज़ बनने की कोशिश की और विश्व मंच पर अपनी पहचान को मज़बूत किया। क्वाड के जरिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक संतुलन कायम करने का प्रयास हुआ। ब्रिक्स के विस्तार से भारत ने यह संदेश दिया कि वह बहुपक्षीय ढाँचों में संतुलन साध सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये वैश्विक पहल पड़ोस की अस्थिरता को सुलझाने में मददगार साबित हो रही हैं? सच तो यह है कि पड़ोस की राजनीति में भारत को और अधिक सक्रिय, लचीला और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

सिर्फ कूटनीति ही नहीं, भारत को अपनी आंतरिक एकजुटता भी मज़बूत करनी होगी। इतिहास गवाह है कि भारत पर सबसे बड़ी चोटें बाहर से तब आईं जब अंदर से समाज बंटा हुआ था। आज भी जातिवाद, धर्म, आरक्षण, बेरोजगारी और क्षेत्रीय असमानता जैसे मुद्दों को भड़काकर बाहरी ताकतें भारत को अस्थिर करने का प्रयास कर रही हैं। सोशल मीडिया और फंडेड आंदोलनों के जरिए लोगों के बीच अविश्वास पैदा करना इस टूलकिट का अहम हिस्सा है। ऐसे में भारत के नागरिकों के लिए यह समझना जरूरी है कि राजनीतिक मतभेद अपनी जगह हैं, लेकिन राष्ट्रीय हित और सुरक्षा सर्वोपरि हैं।

भारत के लिए आगे की राह स्पष्ट है। सबसे पहले उसे पड़ोसी देशों में दीर्घकालिक निवेश और साझेदारी बढ़ानी होगी। शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचे में सहयोग से ही भारत वहाँ अपनी स्थायी पैठ बना सकता है। दूसरा, भारत को अपनी खुफिया और सुरक्षा साझेदारी को मज़बूत करना होगा ताकि किसी भी बाहरी हस्तक्षेप या षड्यंत्र को समय रहते नाकाम किया जा सके। तीसरा, जन-से-जन संबंधों को गहरा करने की जरूरत है, क्योंकि यही भारत की असली ताकत है जो चीन या अमेरिका कभी हासिल नहीं कर सकते। चौथा, भारत को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दक्षिण एशिया की स्थिरता को वैश्विक मुद्दा बनाना होगा ताकि विश्व समुदाय इस ओर ध्यान दे।

निष्कर्ष यही है कि दक्षिण एशिया की मौजूदा अस्थिरता भारत के लिए केवल कूटनीतिक या सामरिक चुनौती नहीं है, बल्कि अस्तित्व का प्रश्न है। भारत अगर समय रहते निर्णायक रणनीति नहीं अपनाता, तो वह उन्हीं मुश्किलों में फँस सकता है जिनसे उसके पड़ोसी गुजर रहे हैं। इसलिए आज सबसे बड़ी आवश्यकता है आस्था और सजगता का संतुलन। जनता का विश्वास और नेतृत्व की दूरदृष्टि मिलकर ही भारत को बाहरी टूलकिट से सुरक्षित रख सकते हैं।