60 साल पहले अमेरिका जा बसी महिला  अपने पूर्वजों के पद चिन्ह खोजने  बिजनौर आई

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पूर्णिमा गुप्ता

राजकीय इंटर कालेज बिजनौर के पुराने निष्प्रयेाज्य भवन में दादा चरण दास मित्तल के नाम पर बने उद्यान के पत्थर के पास अशाेक मधुप और पूर्णिमा गुप्ता

राजकीय इंटर कालेज बिजनौर में प्रधानाचार्यधर्मवीर सिंह से बात करती श्रीमती पुर्णिमा गुप्ता

राजकीय इंटर कालेज लैंसीडाउन में प्रधानाचार्यों के नाम के बोर्ड पर पूर्णिमा गुप्ता के दादा चरणदास मित्तल जी का लिखा नाम । यहां से ट्रांस्वर पर मित्तल साहब बिजनौर आए

लगभग  60 साल पूर्व  अमेरिका जा बसीं  पूर्णिमा गुप्ता आजकल  भारत आई हुई हैं। यहां वह अपने पूर्वजों के पद चिन्ह और पहचान खोजने में लगी हैं। पिछले दो दिन  से वह बिजनौर में अपने नाना और दादाजी के कार्य स्थल और  निवास का पता लगा   रही  हैं। यहां राजकीय इंटर कालेज बिजनौर में प्रधानाचार्य पद पर तैनाती के दौरान छात्रों ने इनके नाना कृपाराम और दादा चरण दास मित्तल का कत्ल कर दिया था।

इलाहाबाद में 13 अगस्त 1946 को जन्मी  पूर्णिमा गुप्ता ने आईआईटी रुड़की से 1968 बी.आर्क किया। उसके बाद ये अमेरिका चली गईं और वहीं सैटिल हो गई। यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनॉय से इन्होंने 1970 में एम.आर्क किया। इन्होंने AXA इक्विटेबल कंपनी में वित्तीय प्रोफेशनल के रूप में कार्य किया और वर्ष 2000 में सेवानिवृत्त हुईं। अमेरिका में वह  सामाजिक जीवन और गतिविधियों में ये शामिल रहीं। वे  बताती हैं कि उनके नाना  कृपाराम और दादा चरण दास मित्तल  बिजनौर के राजकीय  इंटर काँलेज में प्रधानाचार्य  रहे। अपनी सेवा  के दौरान इन दोनों का बिजनौर में ही उनके छात्रों ने कत्ल कर दिया था । वे कहती हैं की उनके परिवार में  दादा और  नाना के बारे में कोई  जिक्र नही होता था। दादी रूकमणी देवी और नानी मायावती देवी की निरीह हालत उन्होंने देखी है।  दादा जी की मौत पर उनके  पिता को गुस्सा जरूर होता था , किंतु उनके हत्यारे को फंसी होने  की बात आते ही वह शांत हो जाते थे।

वह कहती हैं कि अमेरिका के लगभग 50 साल से जीवन में वह अपनी नानी और दादी के मुर्झाए  चेहरे को नही भूल पाईं  और अब नाना जी और दादा जी के निशान खोजने बिजनौर आ गईं। वे कहती हैं कि अपने रूडकी इंजीनियरिंग काँलेज के जूनियर चांदपुर निवासी उद्योगपति श्री अरविंद मित्तल जी के कहने पर बिजनौर के इतिहास के बड़े जानकार  और  सीनियर पत्रकार अशोक मधुप  से मिलीं।

अशोक मधुप ने उनके नाना कृपाराम और दादा  चरण दास मित्तल के बारे में विस्तार से जानकारी दी। इन दोनों  की मौत  पर चिंगारी सांध्य  दैनिक में छपा अपना लेख भी  उपलब्ध कराया। उन्होंने मुझे  राजकीय इंटर काँलेज भी दिखाया। यहां उनके  नाना जी और दादाजी प्रधानाचार्य रहे। दादा की के कत्ल की जगह नार्मल स्कूल ( आज के राजकीय अंबेडकर बालिका छात्रावास) की बाउंड़ी दिखाई । वहां दादा जी का चाकू मारकर कत्ल किया गया था। वह बताती हैं कि मैंने आज का जिला जज का निवास और उनका पुराना कोर्ट देखा। बिजनौर वालों के अनुसार यह पहले कांशीपुर हाउस था। इसी कांशीपुर हाउस में मेरे नानाजी और  दादाजी  रहा करते थे। 

दादाजी कृपाराम जी का 41 साल की आयु में 1928 में बिजनौर काँलेज के एक कक्ष में कत्ल कर दिया गया था। अशोक मधुप के लेख के अनुसार  उस समय विद्यालय में अनुशासन बहुत सख्त था। प्रतिदिन पीटी और सायंकाल में खेल अनिवार्य था। फूलसिंह नामक छात्र विद्यालय के व्यायाम शिक्षक से नाराज था। वार्षिक परीक्षाएं चल रही थी। पीटीआई महोदय कक्षा सात के कक्ष निरीक्षक थे। उर्दू का पेपर था। प्रधानाध्यापक श्री कृपाराम जी पेपर में कुछ संशोधन करा रहे थे। फूलसिंह अपने पिता की लाइसेंसी बन्दूक लेकर कक्ष में आ गया। व्यायाम शिक्षक पर निशाना साधकर उसने जैसे ही फायर किया कि व्यायाम शिक्षक को बचाने के लिए प्रधानाचार्य कृपाराम उनके सामने आ गए। उन्होंने फूल सिंह को कक्षा में प्रवेश करते देख लिया था। फलस्वरूप व्यायाम शिक्षक तो बच गए पर प्रधानाचार्य को गोली लग गई। इससे उनकी मौत हो गई। वरिष्ठ शिक्षक और पत्रकार वीपी गुप्ता बतातें हैं कि प्रधानाचार्य कृपाराम मुजफ्फरनगर के रहने वाले  उनके रिशतेदार होते थे। छात्र  फूल सिंह को कुछ साल की सजा हुई। बाद में वह छूट गया।

  सन उन्नीस सौ बयालिस में चरणदास मित्तल गवर्नमेंट कॉलेज के प्रधानाध्यापक होते थे। वे अनुशासन के बड़े सख्त थे। होली का अवसर था। कुछ माह पूर्व ही उन्होंने कार्य संभाला था। विद्यालय की लिस्ट में होली से पहले पड़ने वाली रंग की एकादशी का अवकाश नही था। कुछ छात्र एकादशी के अवकाश कराना चाहते थे। छात्र मित्तल साहब से मिले। मित्तल साहब ने कहा कि विद्यालय की अवकाश सूची में रंग की इकादशी के अवकाश की व्यवस्था नही है। अतः अवकाश करना संभव नहीं है। छात्र छुट्टी की जिद कर बैठे । उन्होंने छोटे छात्रों को कक्षाओं से भगा दिया। छुट्टी चाहने वाले छात्र स्कूल के गेट पर लेट उन्होंने गेट पर बैठने वाले सभी  11 छात्रों को निलंबित कर दिया। इन छात्रों में अधिकांश हिंदू छात्र थे। इनके साथ मुस्लिम छात्र जमील अहमद पुत्र शब्बीर हुसैन (मुख्तार )भी था। शहर के प्रमुख लोगों के अनुरोध पर जमील और दो अन्य हिंदू छात्रों को छोड़कर शेष सभी आठ छात्रों का निलंबन रद्द कर दिया गया ।

कालेज की पत्रिका के अनुसार मित्तल साहब वर्तमान जजी (पूर्व काशीपुर हाउस)  में रहते थे । लोग कहते हैं कि जमील उनके घर पहुंचा और उनकी बहुत अनुनय −विनय की। कहा कि उनका और उनके साथियों का निलंबन रद्द कर दिया जाए । अगले दिन पांच मार्च 1942 को प्रधानाचार्य मित्तल साइकिल से स्कूल आ रहे थे। दो चपरासी भी उनके साथ थे। पत्रकार स्वर्गीय राजेंद्र पाल सिंह कश्यप और वरिष्ठ  पत्रकार  वीपी गुप्ता बताते थे कि घटना पूर्व नार्मल स्कूल के सामने की है। नार्मल स्कूल की बांउड्री की जगह उस समय खाई बनी थी। जमील ने मित्तल साहब की साइकिल को धक्का देकर खाई में गिरा दिया। जब तक मित्तल साहब संभलते चाकू से उन्हें बुरी तरह गोद दिया गया। इससे उनकी मौत हो गई । पुलिस में दर्ज  रिपोर्ट के अनुसार  मित्तल साहब को पांच चाकू मारे गए। छह मार्च को टीकम सिंह सब इंस्पैक्टर ने जमील को नजीबाबाद से गिरफतार कर लिया ।  इस केस का ट्रायल बीबी लाल स्पेशल जज के कोर्ट में हुआ। 31 जुलाई 1942 को  न्यायालय ने  जमील को फांसी की सजा सुनाई। इस केस की अपील उच्च् न्यायालय में हुई। अपील को निरस्त कर दिया गया। 31 जुलाई  1944 को जमील को बरेली जेल मे फांसी दे दी गई। विशेष  बात यह रही कि कृपा राम के केस में फूल सिंह की ओर से और चरण दास मित्तल के केस में सरकार की और से उस समय के प्रसिद्ध वकील और आज के सिविल के अधिवक्ता अभय कृषण सक्सैना के पिता जी ने पैरवी की थी। 

पूर्णिमा गुप्ता लैंसीडाउन के जहरीखाल के राजकीय इंटर काँलेज भी गईं। यहां से चरण दास मित्तल 1942 में ट्रांसवर होकर  बिजनौर आए और यहां कत्ल कर दिये गए। उन्होंने  राजकीय इंटर काँलेज  बिजनौर  के पुराने कंडम हो चुके भवन में चरण दास मित्तल के उद्यान परिसर में लगे के पत्थर के पास खडे होकर कुछ फोटो भी कराईं। काँलेज के प्रधानाचार्य धर्मवीर सिंह से कुछ पुरानी जानकारी भी ली। 

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क्या यही है ‘संघ’ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सच्चाई ?              

              −निर्मल  रानी 

 गत 2 अक्टूबर यानी विजय दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस ) की स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो गये। संघ की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में विजय दशमी के दिन राष्ट्र निर्माण और सामाजिक ज़िम्मेदारी के ‘घोषित उद्देश्य’ से की गयी थी। संग्ठन की स्थापना के समय यही बताया गया था कि संघ एक स्वयंसेवी संगठन है, जिसका उद्देश्य देशवासियों में संस्कृति के प्रति जागरूकता, अनुशासन, सेवा और सामाजिक ज़िम्मेदारी की भावना को बढ़ाना है। शताब्दी वर्ष के इस अवसर पर देश भर में अनेक आयोजन हुये जिसमें संघ का गुणगान किया गया। संघ समर्थक सत्ताधारियों द्वारा संघ का क़सीदा पढ़ने वाले अनेक लेख लिखे गये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोकि स्वयं भी  संघ प्रचारक रह चुके हैं, ने  राष्ट्र निर्माण में आर एस एस के योगदान की सराहना की। मोदी ने संघ के शताब्दी समारोह में कहा कि -‘संघ ने पिछली एक सदी में अनगिनत जीवनों को दिशा दी और मज़बूत बनाया। जिस तरह सभ्यताएं महान नदियों के किनारे विकसित होती हैं, उसी तरह संघ की धारा के साथ सैकड़ों जीवन खिले और आगे बढ़े हैं। RSS का उद्देश्य हमेशा एक ही रहा राष्ट्र निर्माण।” इस अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा संघ के नाम पर स्मारक सिक्के और डाक टिकट भी जारी किए गये। संघ के लोग इसे विश्व का सबसे बड़ा समाजसेवी संगठन बताते हैं। आज देशभर में लाखों स्वयंसेवकों के माध्यम से संघ अपने ‘घोषित व अघोषित’ कार्यों में सक्रिय है।

                    परन्तु यह भी सच है कि स्थापना के समय से ही संघ विवादों में घिरा रहा है। इतना बड़ा संगठन होने के बावजूद संघ पर संस्था के रजिस्टर्ड संस्था न होने के साथ साथ इस पर साम्प्रदायिकता फैलाने व धर्म जाति के आधार पर नफ़रत फैलाने का भी आरोप लगता रहा है। देश का एक बड़ा वर्ग महात्मा गाँधी की हत्या में संघ की साम्प्रदायिक विचारधारा को भी ज़िम्मेदार मानता है। इस बात के भी ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि बापू की हत्या के बाद संघ कार्यालय में जश्न मनाया गया था और मिठाइयां बांटी गयीं थीं। देश के विभाजन से लेकर आज तक देश में हुये अनेकानेक साम्प्रदायिक दंगों में संघ के कार्यकर्ता आरोपित रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि संघ के अनेक कार्यकर्ताओं पर चरित्रहीन होने,बलात्कार व बाल व्यभिचारी होने तक के आरोप लगते रहे हैं। और इसे भी अजीब संयोग समझा जाना चाहिये कि संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर जब संघ,सत्ता व भाजपा संघ के शताब्दी वर्ष के जश्न में डूबे हुये हैं इसी दौरान संघ द्वारा संचालित शाखाओं में जहां बच्चे “संस्कार” के नाम पर भेजे जाते हैं,केरल के एक युवक द्वारा संघ व इसके अनेक सदस्यों द्वारा उसके साथ बार-बार किये गये यौन शोषण के बाद आत्महत्या कर लेने जैसे क़दम ने संघ के वास्तविक चाल चरित्र और चेहरे को उजागर कर दिया है। केरल के कोट्टायम ज़िले के एलिकुलम निवासी 26 वर्षीय आईटी प्रोफ़ेशनल युवक, अनंदु आजी ने 9 अक्टूबर 2025 को तिरुवनंतपुरम के थंपानूर स्थित एक होटल के कमरे में आत्महत्या कर ली। अनंदु आजी की आत्महत्या के बाद उनके द्वारा मलयालम भाषा में लिखा गया 7 से 15 पेज लंबा सुसाइड नोट सार्वजनिक हुआ। इस नोट में अनंदु ने बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं।  जिसमें आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के सदस्यों द्वारा बचपन से उसके साथ लगातार किये जा रहे यौन शोषण और बलात्कार का ज़िक्र है। मलयालम भाषा में सुसाइड से पूर्व लिखा गया उसका अंतिम पत्र अथवा सन्देश संघ के शताब्दी वर्ष पर संघ के मुँह पर कालिख पोतने का काम कर रहा है। 

                  26 वर्षीय आईटी प्रोफ़ेशनल युवक सुसाइड से पूर्व लिखे गये अपने अंतिम नोट में लिखता है कि — “मैं अनंदु आजी हूं, कोट्टयम के थम्पल काड से। मैं हमेशा से ही एक शांत और अंतर्मुखी व्यक्ति रहा हूं। लेकिन बचपन से ही मुझे जो दर्द सहना पड़ा, उसने मेरी ज़िंदिगी को तबाह कर दिया। मैं अपनी ज़िंदिगी ख़त्म कर रहा हूं क्योंकि एंग्यज़ायटी और लगातार पैनिक अटैक ने मुझे जीना मुश्किल बना दिया है। यह ट्रॉमा का नतीजा है जो मुझे 4 साल की उम्र से सता रहा है। मुझे 4 साल की उम्र से ही एक पड़ोसी व्यक्ति द्वारा लगातार यौन शोषण का शिकार बनाया गया। वह मेरे परिवार के क़रीब था और मुझे धमकाता था। यह शोषण सालों तक चला। मैं एक रेप विक्टिम हूं। बचपन में ही मेरी मासूमियत छीन ली गई। मेरे पिता ने मुझे 3-4 साल की उम्र में ही आरएसएस में शामिल करा दिया। मैं शाखा और कैंपों में जाता रहा। वहां मुझे कई आरएसएस सदस्यों के द्वारा यौन शोषण और बलात्कार का सामना करना पड़ा। मैं नामित करता हूं ‘एन.एम.’ को, जो आरएसएस और भाजपा का प्रमुख सदस्य है। उसने मुझे कई बार शोषित किया, ख़ासकर कैंपों के दौरान। मैं अकेला नहीं हूं—कई अन्य लड़के भी इसी तरह के दोहन के शिकार हुए हैं। आरएसएस कैंपों में यह एक सिस्टमैटिक पैटर्न है, जहां बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। आरएसएस के कई सदस्यों ने मुझे छुआ, शोषित किया। मैं उनके नाम नहीं जानता क्योंकि डर के मारे चेहरा भी याद नहीं। लेकिन एन.एम.का नाम मैं कभी नहीं भूलूंगा। वह मेरे लिए एक भयानक स्मृति है।”

                अनंदु आजी आगे लिखते हैं कि -“इन घटनाओं ने मुझे डिप्रेशन और एंग्यज़ायटी का मरीज़ बना दिया। मैं थेरेपी ले रहा था, लेकिन ट्रामा इतना गहरा था कि मैं रोज़ पैनिक अटैक से जूझता। बचपन का दर्द मुझे कभी शांति नहीं देता। मैंने लड़ने की कोशिश की, लेकिन अब हार मान ली।” मेरे माता-पिता को दोष न दें। उन्होंने मुझे अच्छा जीवन दिया, लेकिन वे नहीं जानते थे कि क्या हो रहा था। मैंने कभी कुछ नहीं बताया क्योंकि डर था। समाज को पता चलना चाहिए कि ऐसे संगठनों में बच्चे सुरक्षित नहीं। लाखों बच्चे शाखाओं में जाते हैं—कुछ को बचाना ज़रूरी है।” अंत में वे लिखते हैं कि -“मैं अपनी मौत के लिए किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा रहा, लेकिन सच्चाई सामने आनी चाहिए। कृपया जांच करें और दोषियों को सज़ा दें। पॉक्सो एक्ट के तहत कार्रवाई हो।” मैं थक गया हूं। अब विदा हो रहा हूं। कृपया मेरी कहानी को दबाएं नहीं। न्याय हो। अलविदा।” अनंदु आजी 

               राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने के जश्न के दौरान एक आईटी प्रोफेशनल युवक द्वारा संगठन के लोगों पर अति गंभीर आरोप लगाते हुये आत्महत्या तक कर लेना निश्चित रूप से यह सवाल ज़रूर खड़ा करता है कि क्या यही है संघ के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की सच्चाई ?

                                                               निर्मल  रानी    

हरियाणा को बचाना है, तो नफरत को हराना होगा

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(संकट का समय है साथियो — नफरत नहीं, भरोसा ज़रूरी है। समझदारों को आगे आना होगा। राजनीति नहीं, संवेदना चाहिए। हमारे समाज की असली ताकत है— भाईचारा। यह दो जातियों की नहीं, दो इंसानों की त्रासदी है।) 

दो पुलिस अधिकारियों की आत्महत्याएँ हरियाणा के लिए चेतावनी हैं। यह जातीय टकराव नहीं, व्यवस्था पर से भरोसे का टूटना है। समाज को अब संयम और समझ की जरूरत है। नफरत फैलाने से इंसाफ़ नहीं मिलेगा, बल्कि हालात और बिगड़ेंगे। जरुरी है कि व्यवस्था पारदर्शी और न्यायसंगत बने, लोगों में विश्वास लौटे और संवाद कायम रहे। समझदारों को आगे आकर नफरत को हराना होगा — तभी भाईचारा बचेगा और हरियाणा मजबूत बनेगा।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

हरियाणा इस समय गहरे संकट से गुजर रहा है। एक नहीं, दो पुलिस अधिकारियों की आत्महत्याएँ हमारे समाज, हमारी व्यवस्था और हमारी सोच — तीनों पर सवाल उठा रही हैं। इंसाफ़ का रास्ता जब लोगों को बंद दिखाई देता है, तो वे जिंदगी से भी हार मान लेते हैं। यह सिर्फ दो जवानों की मौत नहीं, बल्कि उस तंत्र की पराजय है, जिस पर नागरिक भरोसा करते हैं।

आज जब चारों ओर ग़ुस्सा, अफ़वाहें और जातीय बहसें हैं, तब सबसे ज़रूरी है संयम और समझ। क्योंकि अगर समाज भावनाओं में बह गया, तो यह सिर्फ दो परिवारों की त्रासदी नहीं रहेगी, बल्कि हरियाणा का सामाजिक ताना-बाना टूट जाएगा।

दोनों आत्महत्याएँ दिल को झकझोर देने वाली हैं। आईपीएस पूरन कुमार की मौत ने पूरे प्रदेश को हिला दिया था, और फिर एएसआई संदीप लाठर की आत्महत्या ने इस दर्द को और गहरा कर दिया। दोनों ने अपने वीडियो या संदेशों में जो दर्द व्यक्त किया, वह किसी जातीय नफ़रत का परिणाम नहीं था, बल्कि उस व्यवस्था के प्रति मोहभंग का परिणाम था जिसमें उन्हें इंसाफ़ का रास्ता दिखाई नहीं दिया।

हर आत्महत्या एक चीख़ होती है — ऐसी चीख़ जो कहती है कि “सुनो, अब और नहीं।” और जब सरकारी सिस्टम से जुड़े लोग खुद अपनी जान दे देते हैं, तो यह संकेत होता है कि भीतर कुछ बहुत गंभीर रूप से सड़ चुका है।

आज सोशल मीडिया और राजनीति दोनों इस मामले को जातीय चश्मे से देखने में लगे हैं। कोई इसे एक जाति बनाम दूसरी जाति के संघर्ष की तरह दिखा रहा है, तो कोई इसे अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन सच्चाई इससे कहीं गहरी है — यह दो जातियों की नहीं, दो इंसानों की त्रासदी है।

पूरन कुमार और संदीप लाठर, दोनों ही अपने-अपने परिवारों, अपने-अपने समाजों और अपनी-अपनी ड्यूटी के लिए समर्पित थे। दोनों का उद्देश्य था न्याय और आत्मसम्मान। परंतु जब व्यवस्था में उन्हें विश्वास नहीं मिला, तो उन्होंने वह रास्ता चुना, जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए सबसे दर्दनाक होता है।

हमें समझना होगा कि अगर हम इन घटनाओं को जातीय बहस में बदल देंगे, तो असली मुद्दा — व्यवस्था में गिरता विश्वास — हमेशा के लिए दब जाएगा। ऐसा करना न केवल इन आत्महत्याओं की पीड़ा का अपमान होगा, बल्कि यह समाज को और गहरे अंधकार में धकेल देगा।

हर आत्महत्या के पीछे एक कहानी होती है — कभी चुप रह जाने की, कभी आवाज़ न सुने जाने की, और कभी अन्याय से लड़ते-लड़ते थक जाने की। पूरन कुमार और संदीप लाठर की मौतें इसी थकान का परिणाम हैं। दोनों के पास शायद अभी बहुत वक्त था, बहुत संभावनाएँ थीं, लेकिन उन्होंने अपनी ज़िंदगी उस वक्त खत्म की जब उन्हें लगा कि अब उनकी बात कोई नहीं सुनेगा।

यही सबसे खतरनाक स्थिति होती है — जब कोई नागरिक यह मान ले कि व्यवस्था अब उसके लिए नहीं बनी। और जब लोग न्याय की उम्मीद छोड़ देते हैं, तब समाज अराजकता की ओर बढ़ता है।

इतिहास गवाह है कि जब भी समाज ने नफरत के रास्ते पर चलना शुरू किया, उसने खुद को कमजोर किया। चाहे वह धर्म के नाम पर हो, भाषा के नाम पर हो या जाति के नाम पर — अंत में नुकसान हर बार समाज को ही हुआ है।

अगर आज हम इस दर्दनाक घटना को जातीय टकराव की शक्ल देंगे, तो हम फिर उसी पुराने गढ्ढे में गिर जाएंगे, जिससे निकलने में हमें दशकों लगे। नफरत का जवाब नफरत नहीं हो सकता। इसका जवाब है — संवाद, सुधार और सहानुभूति।

हरियाणा पुलिस, प्रशासन और सरकार — सभी को अब आत्ममंथन करने की जरूरत है। सवाल यह नहीं है कि कौन किस जाति से था, बल्कि यह कि क्यों एक अफ़सर और एक एएसआई को आत्महत्या जैसा कदम उठाने की नौबत आई? क्या हमारे सिस्टम में शिकायत दर्ज करने और सुनवाई की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि कोई अधिकारी भी न्याय की उम्मीद खो देता है? क्या हमारे उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों की आवाज़ सुनने को तैयार नहीं? क्या हमारे समाज में किसी की परेशानी को समझने का धैर्य खत्म हो गया है?

इन सवालों के जवाब ढूँढना ज़रूरी है। क्योंकि अगर यह सिस्टम दो अपने अफसरों का दर्द नहीं सुन पाया, तो आम जनता का क्या हाल होगा? सुधार वहीं से शुरू होता है जहाँ गलती स्वीकार की जाए। और यह समय वही है — गलती स्वीकार कर सुधार का रास्ता चुनने का।

दोनों आत्महत्याएँ एक सन्देश छोड़ गई हैं — कि व्यवस्था पर विश्वास लौटाना अब सबसे बड़ा सामाजिक कार्य है। पुलिस विभाग, प्रशासनिक तंत्र, मीडिया और समाज — सभी को मिलकर ऐसा वातावरण बनाना होगा, जहाँ कोई व्यक्ति यह न सोचे कि उसकी आवाज़ दब जाएगी।

भरोसा तभी लौटेगा जब न्याय तेज़ और निष्पक्ष हो, जांच पारदर्शी हो, राजनीतिक प्रभाव से मुक्त हो। संवेदनशील नेतृत्व सामने आए जो केवल बयान न दे, बल्कि संस्थागत सुधार करे। मीडिया जिम्मेदारी निभाए जो सनसनी नहीं, सच्चाई दिखाए। और समाज संयम रखे जो अफवाहों और जातीय टिप्पणियों से दूर रहे।

भरोसा एक दिन में नहीं बनता, लेकिन एक गलत फैसले से वह पल में टूट जाता है। अब समय है उसे फिर से जोड़ने का। हर समाज में कुछ लोग होते हैं जो कठिन समय में दिशा दिखाते हैं। आज हरियाणा को ऐसे ही समझदार साथियों की जरूरत है — जो नफरत की आग में घी डालने के बजाय पानी डालें।

यह वक्त है कि हम सब मिलकर इस पीड़ा को जातीय नहीं, मानवीय नजरिए से देखें। समाज को समझाना होगा कि जो मरे हैं, वे किसी जाति के नहीं, इस प्रदेश के बेटे थे। उनकी मौत से अगर हमें कुछ सीखना है, तो वह यही कि कभी भी न्याय और संवाद के रास्ते बंद नहीं करने चाहिए।

इन घटनाओं के बाद कुछ राजनीतिक बयान आए — किसी ने कहा दोषी फलां जाति का है, किसी ने कहा जांच पक्षपातपूर्ण है। परंतु राजनीति का यही चेहरा समाज में जहर घोल देता है। जरूरत इस समय बयानबाजी की नहीं, बल्कि संवेदना की है। राजनीति के बजाय अगर नेता व्यवस्था सुधार की मांग करें, तो यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी। क्योंकि जो मरे हैं, वे राजनीति के लिए नहीं, न्याय के लिए लड़े थे।

हरियाणा की पहचान उसकी मेहनतकश जनता, किसानों, जवानों और भाईचारे से रही है। अगर हम जातीय विभाजन में बँट गए, तो यह ताकत खो जाएगी। हमें याद रखना होगा — जो समाज नफरत में उलझता है, वह विकास में पिछड़ जाता है।

इसलिए यह वक्त नफरत के खिलाफ खड़े होने का है। जो लोग सोशल मीडिया पर उकसाने वाली बातें फैला रहे हैं, उन्हें पहचानिए और उनसे दूरी बनाइए। हमारा उद्देश्य होना चाहिए — हरियाणा को एक बार फिर भरोसे, एकता और शांति की राह पर लाना।

किसी समाज की परिपक्वता का पैमाना यह नहीं होता कि उसके पास कितनी ताकत या संपत्ति है, बल्कि यह होता है कि वह अपने पीड़ितों के प्रति कितना संवेदनशील है। आज अगर हम इन आत्महत्याओं को एक सबक की तरह लें और अपने संस्थानों को संवेदनशील बनाएं, तो यह इन शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

हमें ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहाँ कोई भी व्यक्ति यह महसूस न करे कि उसे न्याय पाने के लिए मरना पड़ेगा। प्रशासनिक सुधार जरूरी हैं। अफसरों की समस्याओं को सुनने और सुलझाने के लिए स्वतंत्र शिकायत मंच बने। पुलिस और प्रशासनिक कर्मचारियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य परामर्श की व्यवस्था हो। नेतृत्व ऐसा हो जो अपने अधीनस्थों को परिवार की तरह समझे। समाज में संवाद बढ़े और जातीय दूरी घटे।

जब तक ये सुधार नहीं होंगे, तब तक हर आत्महत्या के साथ हमारा सामाजिक संतुलन थोड़ा और टूटता जाएगा। पूरन कुमार और संदीप लाठर की आत्महत्याएँ हमारे लिए गहरा सबक हैं। यह जातीय नहीं, मानवीय त्रासदी है। यदि हम इसे जातीय रंग देंगे, तो हम उनके बलिदान को अपमानित करेंगे।

हमें उनका संदेश समझना होगा — न्याय, सुधार और भाईचारा ही आगे बढ़ने का रास्ता है। आज हरियाणा के हर नागरिक से एक ही अपील है — संकट के समय में संयम रखिए। अफवाहों और नफरत से दूर रहिए। क्योंकि नफरत पर आधारित समाज कभी सुखी नहीं होता। समझदार साथियों को आगे आकर इस नफरत को हराना होगा और भरोसे की नींव फिर से मजबूत करनी होगी। तभी हम उस हरियाणा को बचा पाएँगे, जो मेहनत, एकता और आपसी प्रेम की पहचान रहा है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

भूख की दुश्वारियां : विकसित देश निभाएं अपनी जिम्मेदारियां

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  बाल मुकुन्द ओझा                                                                                               

देश और दुनिया में भुखमरी एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। आबादी विस्फोट के साथ भुखमरी का आंकड़ा भी बेहद चिंताजनक स्थिति में दिन-प्रतिदिन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इसी समस्या से निपटने के लिए विश्व खाद्य दिवस 16 अक्टूबर को मनाया जाता है।  इस दिन को मनाने का मकसद यह है कि दुनिया में किसी भी व्यक्ति को भूखा न सोना पड़े और सभी को पोषक आहार मिल सके। देश और दुनिया में अभी भी करोड़ो लोग भुखमरी के शिकार है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में लगभग 73.3 करोड़ लोग प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में भोजन न मिलने के कारण भूख का सामना करते हैं, जबकि लगभग 2.8 बिलियन लोग पौष्टिक आहार का खर्च वहन नहीं कर पाते हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे देश में 81 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा 123 देशों में कुपोषण और बाल मृत्यु दर संकेतकों के आधार पर भुखमरी के स्तर को मापने और ट्रैक करने के लिए उपयोग किया जाने वाले वैश्विक भुखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2025 में भारत को 102वें स्थान पर रखा गया है। रिपोर्ट में इंडेक्स एंट्री के अनुसार बताया गया है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2025 में 25 .8 का स्कोर के साथ भारत में भूख का स्तर गंभीर है। भारत की स्थिति में वर्ष 2024 और 2023 के मुकाबले सुधार दिखाया गया है। 2024 में भारत 105 वें  और 2023 में 111 वें स्थान पर बताया गया था। यह स्थिति तो तब है जब सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दस वर्षों में देश में रहने वाले लगभग 25 करोड़ लोग ‘बहुआयामी गरीबी’ से बाहर आ गए है। तथा गरीबों के लिए 5 करोड़ घर बनाए गए। हालांकि भारत सरकार का कहना है, ग्लोबल हंगर रिपोर्ट  में इस्तेमाल किया गया भूख मापने का पैमाना बेहद “त्रुटिपूर्ण” है और यह भारत की वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाता ह।  साथ ही सरकार ने जोर देकर कहा कि वह देश में कुपोषण के मुद्दे को हल करने के लिए गंभीर प्रयास कर रही है।

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कृषि उत्पादक देश है, फिर भी भुखमरी और कुपोषण यहाँ एक बड़ी समस्या है। आजादी के 78 वर्ष  बाद भी देश को भूख और कुपोषण जैसी समस्याओं से छुटकारा नहीं मिल पाया है। बच्चे, महिलाएं और वंचित समाज के लोग इन समस्याओं का सबसे अधिक सामना कर रहे हैं। एक तरफ हम खाद्यान्न के मामले में न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि अनाज का एक बड़ा हिस्सा निर्यात करते हैं साथ ही 81 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन दे रहे है, वहीं दूसरी ओर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कुपोषित आबादी भारत में है। इन्हीं चुनौतियों का सामना करने के लिए हर साल  विश्व खाद्य दिवस 16 अक्टूबर को मनाया जाता है। 

विश्व खाद्य दिवस 2025 की थीम खाद्य सुरक्षा: क्रियाशील विज्ञान रखी गई है। यह विषय इस बात पर केंद्रित है कि विज्ञान, नवाचार और डेटा किस प्रकार से खाद्य जनित रोगों के खतरों को कम कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने आधिकारिक तौर पर 1979 में 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस के रूप में घोषित किया। इस वर्ष  विश्व खाद्य दिवस हम ऐसे समय में मनाने जारहे है जब भारत भूख और गरीबी के दल दल से बाहर निकलने के लिए प्रयासरत है।

दुनिया भर में हर साल जितना भोजन तैयार होता है उसका लगभग एक-तिहाई बर्बाद हो जाता है। बर्बाद किया जाने वाला खाना इतना होता है कि उससे दो अरब लोगों के भोजन की ज़रूरत पूरी हो सकती है। दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है। यह संख्या आज भी तेजी से बढ़ती जा रही है। अब तो यह मानने वालों की तादाद कम नहीं है कि जब तक धरती और आसमान रहेगा तब तक आदमजात अमीरी और गरीबी नामक दो वर्गों में बंटा रहेगा। शोषक और शोषित की परिभाषा समय के साथ बदलती रहेगी मगर भूख और गरीबी का तांडव कायम रहेगा। अमीरी और गरीबी का अंतर कम जरूर हो सकता है मगर इसके लिए हमें अपनी मानसिकता बदलनी पड़ेगी। प्रत्येक संपन्न देश और व्यक्ति को संकल्पबद्धता के साथ गरीब की रोजी और रोटी का माकूल प्रबंध करना होगा। बिना इसके खाध दिवस मनाना बेमानी और गरीब के साथ एक क्रूर मजाक होगा। भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बावजूद कुपोषण लगातार एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भूख के कारण कमजोरी के शिकार बच्चों में बीमारियों से ग्रस्त होने का खतरा लगातार बना रहता है।

    −बाल मुकुन्द ओझा                                                   

  वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार 

   D 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

 “सेवा, सुरक्षा, सहयोग… या आत्मघात? हरियाणा पुलिस का संकट काल”

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शहीद कौन है — आईपीएस पूरन कुमार या एएसआई संदीप लाठर? 

हरियाणा पुलिस एक गहरे संकट से गुजर रही है। पहले आईपीएस पूरन कुमार और अब एएसआई संदीप लाठर की आत्महत्या ने विभाग की कार्यसंस्कृति, मनोबल और आंतरिक तनाव पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। लगातार आत्महत्याओं से यह स्पष्ट है कि वर्दी के पीछे इंसान टूट रहा है। राजनीतिक दबाव, जातिगत खींचतान और मानसिक अवसाद पुलिस व्यवस्था को खोखला बना रहे हैं। अब ज़रूरत है उच्च स्तरीय जांच के साथ-साथ जिला स्तर पर काउंसलिंग व्यवस्था की, ताकि खाकी का आत्मविश्वास लौट सके और “सेवा, सुरक्षा, सहयोग” का आदर्श दोबारा जीवित हो।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा इन दिनों एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहाँ पुलिस महकमे की साख, मनोबल और संवेदनशीलता तीनों एक साथ संकट में दिखाई दे रहे हैं। पहले आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार की आत्महत्या ने पूरे राज्य को झकझोर दिया और अब एएसआई संदीप लाठर की खुदकुशी ने इस त्रासदी को और गहरा कर दिया है। दोनों घटनाएँ न केवल पुलिस विभाग के भीतर की बेचैनी को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि कानून के रखवाले ही जब अपने जीवन से हार मानने लगें, तो समाज की बुनियाद कितनी डगमगा जाती है।

एएसआई संदीप लाठर ने आत्महत्या से पहले जो वीडियो जारी किया, उसमें उसने अपने अफसरों और सिस्टम के रवैये पर सवाल उठाए। इससे पहले आईपीएस पूरन कुमार की मौत के बाद भी कई सवाल अनुत्तरित रह गए थे। अब इन दो आत्महत्याओं ने मिलकर एक ऐसा सिलसिला शुरू कर दिया है, जिसने हरियाणा पुलिस की छवि पर गहरा धब्बा छोड़ दिया है। आम जनता यह सोचने पर मजबूर है कि जो विभाग सुरक्षा और न्याय का प्रतीक माना जाता है, उसके भीतर इतना असंतोष, अविश्वास और भय कैसे पनप गया।

हरियाणा पुलिस देश की सबसे अनुशासित और जुझारू पुलिस बलों में गिनी जाती रही है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हालात ऐसे बने हैं कि इस बल के भीतर मनोबल टूटने लगा है। कहीं राजनीतिक दबाव है, कहीं जातिगत खींचतान, तो कहीं अफसरों के बीच अंतर्विरोध। आईपीएस पूरन कुमार की आत्महत्या के मामले में कई लोगों ने सवाल उठाया था कि क्या उन्हें किसी साजिश का शिकार बनाया गया? और अब संदीप लाठर की मौत के बाद यह सवाल और भी गंभीर रूप ले चुका है।

यह पूरा घटनाक्रम किसी वेब सीरीज़ की तरह उलझा हुआ प्रतीत होता है, जिसमें हर पात्र का अपना दर्द है और हर मोड़ पर नया रहस्य खुलता है। परंतु यह कोई काल्पनिक कथा नहीं, बल्कि एक वास्तविक त्रासदी है — उन परिवारों की जिनके सदस्य कानून के रक्षक थे और अब उनकी आत्माएं न्याय की पुकार लगा रही हैं।

कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी जिन लोगों के कंधों पर होती है, जब वही खुद अवसाद, निराशा और असहायता के शिकार हों, तो यह किसी भी राज्य के लिए चेतावनी की घंटी है। हरियाणा में हाल के वर्षों में कई बार पुलिस कर्मियों ने खुले मंच से यह स्वीकार किया है कि उनकी कार्यस्थितियाँ बेहद तनावपूर्ण हैं। लंबी ड्यूटी, छुट्टियों की कमी, ऊपरी आदेशों का दबाव और समाज की नकारात्मक धारणा – ये सभी कारण एक पुलिसकर्मी के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालते हैं।

चिंता की बात यह है कि आत्महत्या जैसे चरम कदम का सिलसिला अब पुलिस में आम होता जा रहा है। पहले चंडीगढ़, अब रोहतक — हर बार एक नई जगह से वही खबर आती है कि एक और वर्दीधारी ने अपनी जान दे दी। यह सवाल उठाना लाजमी है कि आखिर पुलिस विभाग में ऐसा माहौल क्यों बन रहा है जहाँ मनोबल इतना कमजोर पड़ रहा है कि जीवन ही बोझ लगने लगे।

कुछ लोगों का तर्क है कि इन घटनाओं के पीछे जातिवाद और राजनीति की भूमिका है। हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ जातीय समीकरण राजनीति से लेकर प्रशासन तक गहराई से जुड़े हुए हैं, यह संभावना पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकती। किसी अधिकारी के साथ भेदभाव या दबाव, चाहे वह जातिगत हो या राजनीतिक, मानसिक रूप से तोड़ सकता है। यह वही आग है जो धीरे-धीरे पूरे सिस्टम को निगल रही है। हरित प्रदेश हरियाणा का सामाजिक ताना-बाना तभी सुरक्षित रहेगा, जब प्रशासन जातिवाद से ऊपर उठकर ईमानदार और निष्पक्ष कार्रवाई करेगा।

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि शहीद कौन है — आईपीएस पूरन कुमार या एएसआई संदीप लाठर? दोनों ही अपने-अपने स्तर पर सिस्टम से लड़ते हुए हार गए। अगर कोई पुलिसकर्मी अपने अफसरों से न्याय की उम्मीद खो दे, तो वह किससे उम्मीद करेगा? जब “सेवा, सुरक्षा और सहयोग” का आदर्श वाक्य ही खोखला लगने लगे, तो यह न केवल संस्थागत विफलता है बल्कि मानवीय करुणा का भी अंत है।

इस पूरे घटनाक्रम में मुख्यमंत्री नायब सैनी और डीजीपी ओपी सिंह की जिम्मेदारी बेहद अहम हो जाती है। उच्च स्तरीय जांच तो जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है एक ऐसा सिस्टम तैयार करना जो पुलिसकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करे। जिला स्तर पर काउंसलिंग सत्र आयोजित किए जाने चाहिए ताकि कर्मचारी अपने तनाव, दबाव और व्यक्तिगत समस्याओं को साझा कर सकें। यदि किसी पुलिसकर्मी की मानसिक स्थिति अस्थिर पाई जाए तो उसे तुरंत मनोवैज्ञानिक सहायता दी जानी चाहिए और जब तक वह पूरी तरह सक्षम न हो, उसे सर्विस रिवॉल्वर न दिया जाए।

यह सुझाव किसी सजा की तरह नहीं, बल्कि एक सुरक्षा कवच की तरह देखा जाना चाहिए। पुलिस की नौकरी आसान नहीं होती। हर दिन अपराधियों से सामना, समाज की उम्मीदें, और ऊपर से आदेशों की जटिलता – इन सबके बीच इंसानियत को बचाए रखना कठिन है। अगर मानसिक स्थिरता को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो ऐसी आत्महत्याओं की श्रृंखला आगे भी जारी रह सकती है।

हरियाणा सरकार को यह भी समझना होगा कि पुलिस सिर्फ कानून लागू करने वाली एजेंसी नहीं, बल्कि समाज का आईना है। जब उसमें दरारें पड़ती हैं, तो समाज की छवि भी टूटती है। पुलिस के भीतर आपसी सहयोग, सम्मान और संवाद की संस्कृति को मजबूत करना बेहद आवश्यक है। अफसरों और अधीनस्थों के बीच संवाद की कमी ही सबसे बड़ा कारण बनती है मनोबल गिरने का।

राज्य के गृह मंत्रालय को चाहिए कि वह एक स्वतंत्र “पुलिस मानसिक स्वास्थ्य प्रकोष्ठ” स्थापित करे, जो केवल पुलिसकर्मियों की भावनात्मक और मानसिक स्थिति पर निगरानी रखे। साथ ही, विभाग के भीतर जवाबदेही तय हो कि कोई भी अफसर अपने अधीनस्थों पर अनावश्यक दबाव या अपमानजनक व्यवहार न करे।

आज हरियाणा पुलिस एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ उसे अपने अस्तित्व और आदर्श दोनों को बचाना है। यह समय आत्ममंथन का है — कि आखिर कहाँ गलती हुई, किस बिंदु पर वह ‘सेवा और सुरक्षा’ से ‘संदेह और संदेहास्पद मौतों’ तक पहुँच गई।

राजनीतिक हस्तक्षेप, जातिवादी खींचतान, मीडिया ट्रायल और सोशल मीडिया के दबाव ने पहले ही खाकी की गरिमा को कमजोर किया है। अब जरूरत है उस आत्मविश्वास को लौटाने की जो कभी हरियाणा पुलिस की पहचान हुआ करता था।

सत्ता में बैठे लोगों को यह समझना होगा कि पुलिस केवल आदेश मानने वाली मशीन नहीं, बल्कि संवेदनशील मनुष्य हैं। जब तक उन्हें सम्मान, न्याय और सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक कानून का शासन भी सुरक्षित नहीं रहेगा।

आख़िर में राहत साहब के शब्द इस पूरे घटनाक्रम का सटीक बयान करते हैं —

“चराग़ों को उछाला जा रहा है, हवा पर रौब डाला जा रहा है,

न हार अपनी, न अपनी जीत होगी, मगर सिक्का उछाला जा रहा है।”

हरियाणा पुलिस के लिए यह वक्त आत्ममंथन का है — एक तरफ़ व्यवस्था की सच्चाई है, दूसरी तरफ़ वर्दीधारियों की टूटती हिम्मत। अगर इस सच्चाई को स्वीकार कर सुधार के रास्ते नहीं खोले गए, तो यह ‘सेवा, सुरक्षा, सहयोग’ नहीं बल्कि ‘संघर्ष, संदेह और आत्मघात’ की परंपरा बन जाएगी।

हरियाणा को आत्मघाती पुलिस नहीं, आत्मसम्मान से भरी पुलिस की जरूरत है — ताकि लोग जब “खाकी” देखें, तो डर नहीं, भरोसा महसूस करें।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

“कुर्सी नहीं, भरोसे की राजनीति: रमेश वर्मा का सफ़र

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(समाज सेवा विशेष) 

(स्वयं विधायक पद का चुनाव नहीं लड़ा, पर कई विधायकों की डूबती नैया पार लगवाई।) 

भिवानी के गाँव बड़वा में जन्में रमेश वर्मा की राजनीतिक यात्रा एक ऐसे जननेता की कहानी है जिसने सत्ता नहीं, सेवा को साधन बनाया। चार दशक से अधिक समय में उन्होंने पंचायत से लेकर विधानसभा तक अपनी पहचान ईमानदारी, पारदर्शिता और जनसेवा से बनाई। गांवों में विकास, महिलाओं का सशक्तिकरण और युवाओं को दिशा देने के उनके प्रयास ग्राम राजनीति को नई परिभाषा देते हैं। भले ही उन्होंने स्वयं विधायक पद का चुनाव नहीं लड़ा, पर कई विधायकों की डूबती नैया पार लगवाई। वे यह याद दिलाते हैं कि राजनीति केवल चुनाव जीतने का खेल नहीं, बल्कि समाज के प्रति एक सतत जिम्मेदारी है।  रमेश वर्मा का नेतृत्व केवल निर्णयों में नहीं, बल्कि संवाद में दिखता है। वे लोगों की समस्याएँ सुनते हैं, अधिकारियों से समाधान करवाते हैं और परिणाम सामने आने तक उसका फॉलोअप करते हैं। इस व्यवहारिक राजनीति ने उन्हें एक भरोसेमंद चेहरा बना दिया है।

✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ

गांव की राजनीति को अक्सर स्वार्थ, गुटबाज़ी और जातिगत समीकरणों के चश्मे से देखा जाता है। लेकिन कभी-कभी उसी मिट्टी से ऐसे लोग भी निकलते हैं, जो यह साबित कर देते हैं कि राजनीति केवल सत्ता पाने का माध्यम नहीं, बल्कि जनसेवा का सच्चा रास्ता भी हो सकती है। हरियाणा के भिवानी ज़िले के छोटे से गांव बड़वा से निकलने वाले रमेश वर्मा इसी सोच का जीवंत उदाहरण हैं। उनके चार दशक से अधिक लंबे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सत्ता की लालसा नहीं, बल्कि सेवा का संस्कार दिखाई देता है।

रमेश वर्मा की यात्रा उस पीढ़ी से शुरू होती है, जब पंचायत केवल निर्णय का मंच नहीं बल्कि संवाद का प्रतीक हुआ करती थी। वर्ष 1983 में उनके पिता किशना राम सिंहमार के ग्राम सरपंच चुने जाने के समय से ही उन्होंने प्रशासनिक कार्य, गांव के विकास की जरूरतों और जनहित के मुद्दों को करीब से देखा। यही अनुभव उनकी राजनीतिक सोच की नींव बना। उस दौर में युवा रमेश ने पंचायत के कार्यों में सहयोग कर यह सीखा कि जनता का विश्वास सबसे बड़ी पूंजी होती है। राजनीति में यह सीख उन्हें आगे भी दिशा देती रही।

वर्ष 1996 में उन्होंने पहली बार जिला परिषद सदस्य के चुनाव में भाग लिया। 10 उम्मीदवारों में द्वितीय स्थान प्राप्त करना उस समय न केवल व्यक्तिगत उपलब्धि थी, बल्कि यह संकेत भी कि बड़वा का यह युवा अपने गांव से आगे सोचने लगा था। तीन साल बाद, 1999 में, जब उन्हें हरियाणा सरकार द्वारा मार्केट कमेटी सिवानी (हल्का बवानी खेड़ा) का चेयरमैन नियुक्त किया गया, तब उन्होंने प्रशासनिक जिम्मेदारी को जनकल्याण की दृष्टि से निभाया। उस कार्यकाल में स्थानीय किसानों के हित, मंडी व्यवस्था की पारदर्शिता और व्यापारियों की सुविधाओं पर उनका ध्यान विशेष रहा।

रमेश वर्मा की राजनीति का दूसरा चरण 2005 में शुरू होता है, जब वे दोबारा अपने गांव के सरपंच चुने गए। पांच वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने जिस समर्पण से ग्राम पंचायत को विकास के मार्ग पर अग्रसर किया, वह आज भी चर्चा का विषय है। सड़क, पानी, स्ट्रीट लाइट, नालियां, स्कूल भवन और मंदिर-पार्क जैसी परियोजनाओं में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। लोगों का कहना है कि उन्होंने राजनीति को दिखावे का साधन नहीं, बल्कि समाज निर्माण का माध्यम बनाया।

2016 में जब वे पंचायती चुनाव में मात्र 71 वोटों से दूसरे स्थान पर रहे, तब भी उन्होंने इसे पराजय नहीं, बल्कि जनता के नए मिज़ाज का सम्मान माना। यह विनम्रता और आत्मस्वीकार ही उन्हें आम नेताओं से अलग बनाती है। उस हार के बाद भी उन्होंने समाजसेवा का कार्य जारी रखा और अगले तीन वर्षों में लोहारू विधानसभा चुनाव (2019) में सक्रिय रूप से संगठन और प्रचार कार्य संभालकर यह साबित किया कि उनकी निष्ठा पद से नहीं, उद्देश्य से जुड़ी है। भले ही उन्होंने स्वयं विधायक पद का चुनाव नहीं लड़ा, पर कई विधायकों की ‘डूबती नैया’ पार लगवाई। यह उनकी रणनीतिक सूझबूझ और जनसंपर्क कौशल का प्रमाण था — वे हर मोर्चे पर पार्टी और समाज के हित में मजबूती से खड़े रहे।

सिर्फ राजनीति ही नहीं, रमेश वर्मा की पहचान एक समाजसेवी के रूप में भी गहरी है। “स्वच्छ भारत अभियान” के दौरान उन्होंने न केवल गांव में सफाई अभियान चलाया, बल्कि लोगों को व्यवहारिक रूप से स्वच्छता की आदत डालने की प्रेरणा दी। महिलाओं के लिए उन्होंने स्वयं सहायता समूह (SHG) की शुरुआत की, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें। कोविड-19 महामारी के कठिन दौर में उन्होंने राशन, मास्क और सैनिटाइज़र वितरण में सक्रिय भागीदारी निभाई, जबकि अधिकांश लोग भय से घरों में सीमित थे। उनके लिए सेवा किसी अवसर की प्रतीक्षा नहीं करती — वह जीवन का हिस्सा है।

युवाओं के लिए रमेश वर्मा ने कई खेलकूद प्रतियोगिताओं और करियर काउंसलिंग शिविरों का आयोजन करवाया। उनका मानना है कि गांव का युवा यदि सही दिशा और प्रेरणा पाए, तो उसे शहर की ओर पलायन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यही सोच उन्हें स्थानीय स्तर पर शिक्षा और रोजगार को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करती है।

उनकी राजनीतिक शैली में सबसे उल्लेखनीय बात है पारदर्शिता और जवाबदेही। उन्होंने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि किसी भी योजना या विकास कार्य में जनता की भागीदारी हो। गांव की बैठकों में हर मुद्दे पर खुलकर चर्चा होती रही। उनका यह विश्वास कि “राजनीति लोगों पर हुकूमत नहीं, बल्कि लोगों के बीच रहकर सेवा करने का नाम है” — उनकी पहचान बन गया है।

रमेश वर्मा का नेतृत्व केवल निर्णयों में नहीं, बल्कि संवाद में दिखता है। वे लोगों की समस्याएँ सुनते हैं, अधिकारियों से समाधान करवाते हैं और परिणाम सामने आने तक उसका फॉलोअप करते हैं। इस व्यवहारिक राजनीति ने उन्हें एक भरोसेमंद चेहरा बना दिया है। यही कारण है कि वे 40 से अधिक गांवों में विकास योजनाओं के लिए बजट स्वीकृत करवाने में योगदान दे पाए।

वर्ष 1983 से 2025 तक का उनका सामाजिक जीवन सम्मान और सीख दोनों से भरा है। हिसार और भिवानी के कई गांवों में उन्हें विभिन्न सामाजिक संगठनों और सांस्कृतिक मंचों द्वारा सम्मानित किया गया। 2024 में स्थानीय अख़बारों में उन पर विशेष लेख प्रकाशित हुए, जिनमें उन्हें “जागरूक नेता और समाजसेवी” कहा गया।

रमेश वर्मा की राजनीति में जो सबसे अलग दिखाई देता है, वह है ईमानदारी की निरंतरता। अक्सर नेता चुनाव के समय जनता के बीच दिखते हैं, फिर पांच साल गायब रहते हैं, लेकिन रमेश वर्मा के मामले में यह पैटर्न उलटा है। वे हर परिस्थिति में अपने क्षेत्र के लोगों के बीच मौजूद रहते हैं — चाहे कोई समस्या हो या उत्सव। यह निरंतर जुड़ाव ही उन्हें “जनता का आदमी” बनाता है, न कि सिर्फ “पद का व्यक्ति।”

उनकी दृष्टि साफ है — राजनीति में पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ-साथ शिक्षा, रोजगार, किसानों की सुरक्षा और महिलाओं-युवाओं के सशक्तिकरण को प्राथमिकता देना। वे मानते हैं कि गांव और शहर के बीच विकास की खाई तभी पाटी जा सकती है, जब स्थानीय स्तर पर संसाधनों और अवसरों का समान वितरण हो।

आज जब राजनीति का बड़ा हिस्सा प्रदर्शन, बयानबाज़ी और प्रचार तक सिमट गया है, तब रमेश वर्मा जैसे नेता यह याद दिलाते हैं कि “नेतृत्व का मतलब लोकप्रियता नहीं, जिम्मेदारी होता है।” वे जनता को वोट बैंक नहीं, परिवार समझते हैं। यही कारण है कि उनके समर्थक उन्हें “नेता” नहीं बल्कि “सेवक” कहकर बुलाते हैं।

हरियाणा की राजनीति में जहां युवा पीढ़ी में तेज़ी से बढ़ते स्वार्थ और लाभवाद के बीच ईमानदार नेतृत्व की कमी महसूस की जा रही है, वहां रमेश वर्मा जैसे जनप्रतिनिधि उम्मीद की एक नई किरण हैं। उनकी यात्रा यह संदेश देती है कि गांव की गलियों से भी ऐसे नेता निकल सकते हैं जो प्रदेश और देश के स्तर पर नये मानक स्थापित करें।

आज जब लोकतंत्र को फिर से जनसंपर्क से जोड़ने की जरूरत महसूस हो रही है, तब रमेश वर्मा जैसे लोगों की कहानियाँ लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत करती हैं। वे उस परंपरा के प्रतिनिधि हैं जिसमें नेता जनता से दूर नहीं, बल्कि जनता के साथ चलता है।

अगर भारत को सचमुच गांवों का देश कहा जाए, तो ऐसे नेताओं की भूमिका और भी बड़ी हो जाती है। क्योंकि गांव के नेता ही लोकतंत्र की पहली सीढ़ी होते हैं। और जब वह सीढ़ी मजबूत होती है, तभी ऊपर खड़ा ढांचा स्थायी रह सकता है। रमेश वर्मा जैसे जनप्रतिनिधि यही सुनिश्चित करते हैं कि लोकतंत्र की जड़ें केवल संविधान में नहीं, बल्कि गांव की मिट्टी में भी गहराई तक फैली रहें।

अंततः, रमेश वर्मा की कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस सोच की कहानी है जो राजनीति को नैतिकता से जोड़ती है। वे यह साबित करते हैं कि “राजनीति में रहकर भी साफ़ रहा जा सकता है, यदि नीयत साफ़ हो।” उनका जीवन इस बात का साक्ष्य है कि जनसेवा यदि ईमानदारी से की जाए तो वह केवल गांव नहीं, बल्कि समाज की आत्मा को भी उजाला देती है।

 -डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत ने पकड़ी ई-कॉमर्स की रफ़्तार :ऑनलाइन बाजार हुए गुलज़ार

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बाल मुकुन्द ओझा

देश और दुनिया में इस समय ई-कॉमर्स यानी कि इलेक्ट्रॉनिक कॉमर्स सुर्खियों में है। यह ऑनलाइन व्यापार करने का एक तरीका है। इसके अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम के द्वारा इंटरनेट के माध्यम से वस्तुओं और सेवाओं की खरीद-बिक्री की जाती है। इस साल ऑनलाइन और ऑफलाइन प्लेटफॉर्म पर करीब छह लाख करोड़ रुपए का कारोबार होने का अनुमान है, जिसमें ऑनलाइन पर 1.20 लाख करोड़ रुपए के कारोबार का अनुमान लगाया जा रहा है, जो हमारे देश की जीडीपी का 3.2 प्रतिशत आंका गया है। नामी गिरामी ई-कॉमर्स कंपनियों ने त्योहारी सीज़न और जीएसटी में हालिया बदलाव का फायदा उठाना भी शुरू कर दिया है। उन्होंने पहले ही डिस्काउंट ऑफर देने शुरू कर दिए थे। कई कंपनियों के विज्ञापन में 50 से 80 प्रतिशत  डिस्काउंट का ऑफर दिया जा रहा है। अनुसंधान फर्म ‘डेटम इंटेलिजेंस’ की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2025 में जीएसटी दरों को आमजन के अनुकूल और सुविधाजनक बनाने से इस साल त्योहारी बिक्री 27 प्रतिशत से बढ़कर 1.20 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकती है, क्योंकि टैक्स स्लैब को कम करने से कई जरूरी उत्पादों की कीमत में कमी आई है, जिससे बिक्री में 15 से 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी की आशा है। नई जीएसटी व्यवस्था में अब सिर्फ 5 और 18 प्रतिशत के 2 टैक्स स्लैब रखे गए हैं और कुछ दरों को पूरी तरह से हटा दिया गया है, जिससे ग्राहकों को 10 प्रतिशत तक की बचत होने का अनुमान है। नई जीएसटी व्यवस्था में टीवी, एसी, इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स पर विशेष तौर पर बचत होगी।

आज के समय में ऑनलाइन ख़रीदारी करना लोगों विशेषकर युवाओं द्वारा बहुत पसंद किया जा रहा है। इंटरनेट के माध्यम से खरीदारी को ही ई-कॉमर्स कहते है। घरेलू उत्पादों सहित मोबाइल, ग्रोसरी, फर्नीचर, कपडे एवं इलेक्ट्रानिक का सामान आदि खरीदने के लिए बाजार नहीं जाना पड़ता है अपितु घर बैठे ही इंटरनेट ऑनलाइन शॉपिंग के द्वारा एक क्लिक से आप घर पर ही सामान मंगवा सकते है। ऑनलाइन शॉपिंग का व्यवसाय आज के समय में बहुत लोकप्रिय बन चुका है। ऑनलाइन खरीदारी में आपको उत्पाद के विषय में सम्पूर्ण जानकारी दी जाती है तथा मोल-भाव भी नहीं होता जिससे आपसे अधिक पैसे सामान के लिए नहीं लिए जा सकते। जहां लोग पहले खुद दुकानों पर जाकर खरीददारी करते थे। वहीं लोग अब अपनी सुविधा को मद्देनज़र रखते हुए ऑनलाइन खरीद फरोख्त करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। इसी कारण अमेज़न, फ्लिपकार्ट, मिंत्रा, मीशो, ब्लिंकिट,स्नेपडील, शॉपक्लूज, बिगबास्केट, ग्रोफर्स, डील शेयर, स्विगी और जेप्टो जैसे ब्रांड तेजी से अपने पैर जमा रहे हैं। ऑनलाइन व्यापार चार महत्वपूर्ण बाजार वर्गों में काम करता है और इसे सेल फोन, टैबलेट और अन्य शानदार गैजेट्स के माध्यम से चलाया जा सकता है। आज के समय में ई-कॉमर्स के लिये इंटरनेट सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से एक है। यह बुनियादी ढाँचे के साथ-साथ उपभोक्ता और व्यापार के लिये कई अवसर भी प्रस्तुत करता है। इसके उपयोग से उपभोक्ताओं के लिये समय और दूरी जैसी बाधाएँ बहुत मायने नहीं रखती हैं। ई-कॉमर्स के ज़रिये सामान सीधे उपभोक्ता को प्राप्त होता है। इससे बिचौलियों की भूमिका तो समाप्त होती ही है, सामान भी सस्ता मिलता है। इससे बाज़ार में भी प्रतिस्पर्द्धा बनी रहती है और ग्राहक बाज़ार में उपलब्ध सामानों की तुलना भी कर पाता है जिसके कारण ग्राहकों को उच्च गुणवत्ता वाला सामान मिल पाता है।

भारत में अधिकतर लोग सामान खरीदने के लिए ई-कॉमर्स प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर रहे हैं। मोबाइल फ़ोन्स और इंटरनेट डाटा में हो रहे निरंतर विकास से भारत में ई-कॉमर्स इंडस्ट्री बढ़ती जा रही है, यही कारण है कि आज ई-कॉमर्स से जुड़े कई सारे नए नए ऐप्स मार्केट में आ गए हैं। भारत का ऑनलाइन कॉमर्स सेक्टर 2020 में 30 बिलियन डॉलर के आधार से शुरू होकर दशक के अंत तक 2030 में 300 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है, जो देश में 1 ट्रिलियन डॉलर के डिजिटल अवसर में महत्वपूर्ण योगदान होगा। आज भारत ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल करने में दुनिया में छठे नंबर पर आता है। भारत में ई-कॉमर्स तेजी से लोगों के बीच लोकप्रिय हो रहा है। आज शहरी ही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल किया जा रहा है।

ई कामर्स व्यवसाय खुदरा विक्रेताओं और ग्राहकों को संभावित प्रतिस्पर्धात्मक लाभ प्रदान करता है। आज के समय में, जब ज्यादातर लोग ऑनलाइन शॉपिंग का सहारा ले रहे हैं, ईकामर्स की वर्तमान स्थिति बेहद सकारात्मक दिखती है क्योंकि अधिक लोग जाते हैं अपने ईकामर्स स्टोर के साथ ऑनलाइन, और यह आने वाले वर्षों में अपने चरम पर होने की उम्मीद है। ऑनलाइन सेल में सामान सस्ता जरूर मिल रहा है मगर उपभोक्ता को सावधानी रखनी पड़ेगी क्योकि ठगी करने वाले गिरोह भी सक्रीय हो गए है। जो भोले भले लोगों को सस्ते माल के चक्कर में फंसा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे है। अधिकृत प्लेटफॉर्म का उपयोग करें। बैंक स्टेटमेंट और पासवर्ड सुरक्षा सुनिश्चित करें। कैश ऑन डिलीवरी अपनाएँ और फर्जी ऑफर्स से बचें। ऐसे में लोगों ने सतर्कता नहीं रखी तो सस्ते में माल खरीदना महंगा भी पड़ सकता है।

  

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32 मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

मो.- 9414441218

लालू यादव एंड कंपनी कोर्ट के निशाने पर

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लालू यादव , राबड़ी देवी और तेजस्वी की कल दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट में बड़ी भारी बेइज्जती हुई । सीबीआई की जांच के बाद दायर हुई चार्जशीट में तीनों को घोर भ्रष्टाचारी , धोखेबाज और गरीब जनता के शोषक के रूप में इंगित किया गया था । कोर्ट ने रेलवे खानपान और पर्यटन निगम घोटाले में न केवल तत्कालीन रेल मंत्री लालू अपितु उनकी बीबी , बेटे सहित रेलवे के अनेक अधिकारियों को पूर्ण भ्रष्ट एवं दोषी ठहराया ।

दूसरे मामले में कोर्ट ने पाया कि लालू के रेल मंत्री रहते हुए गरीब बिहारियों की जमीन कुछ सौ रुपए में खरीदकर गरीबों को अनैतिक रूप से खलासी और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नौकरियां थमा दी गई । वह भी बगैर कोई परीक्षा दिए और बगैर कोई साक्षात्कार लिए । शेष अभ्यर्थियों का हक छीनकर लालू खानदान ने गरीबों की जमीनों के बदले शहरी क्षेत्रों में मंहगी सरकारी जमीनें मुफ्त हासिल की । फिर उन्हें बेचकर हजारों करोड़ रुपए कमाए । तेजस्वी की प्रार्थना पर इस मुद्दे पर अब 10 नवम्बर को आरोप तय होंगे ।

बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए पशुओं का करोड़ों का चारा डकारने वाले लालू के ये दोनों कारनामें भारत ही नहीं पूरे विश्व में अनूठे हैं । कोई और देश होता तो लालू , राबड़ी , तेजस्वी जैसे नेताओं को बिहार में एक वोट न मिलता ? वैसे अपने नोटिस किया क्या ? बिहार में कांग्रेस ने आज तक तेजस्वी को सीएम फेस क्यों नहीं माना ? शायद यही कारण रहा हो । वैसे कांग्रेस ही कौनसी दूध की धुली है । उसके अनेक बड़े शीर्ष नेता खुद भी भ्रष्टाचार के मामलों में जमानत पर चल रहे हैं ।

इसके बावजूद कांग्रेस को उम्मीद थी 13 अक्टूबर का फैसला आते ही लालू खानदान को जेल जाना पड़ सकता है । खैर तेजस्वी की दरख़्वास्त पर कोर्ट ने गंभीर आरोप तो तय कर दिए पर फैसला 10 नवम्बर तक टाल दिया । लेकिन तीनों की भारी किरकिरी हो गई । जैसे ही कांग्रेस तेजस्वी को नेता मानेगी , बिहार में इंडी गठबंधन का भी कबाड़ा हो सकता है । यकीन न हो तो आजमा लीजिए । यह काफी मुश्किल घड़ी है , देखते जाइए । भाजपा पर टाइमिंग के आरोप मढ़ने से भी कुछ नहीं होगा चूंकि कार्रवाई न्यायालय में चल रही है ।

आपको बता दें कि जमीन के बदले नौकरी का महाघोटाला 2004 से 2009 के बीच लगातार चलता रहा । तब केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी । वे नाम के पीएम थे , प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मजबूरन सोनिया गांधी की सैंडल या खड़ाऊँ रखकर सरकार चला रहे थे । देश में जब भारी बवाल हुआ तब कांग्रेस सरकार को लालू के घोटाले के खिलाफ 2005 में सीबीआई जांच बैठानी पड़ी । सीबीआई ने 2013 में चार्जशीट फाइल की जिस पर कल कोर्ट ने आरोप तय किए ।

बाद में कुछ मामलों में 2017 , 2018 और 2022 में भी चार्जशीट आईं । उन सभी पर कार्रवाई चल रही है । इंडी गठबन्धन अब बीजेपी पर आरोप लगाने की स्थिति में है तो नहीं । पर आदतन लगा रहा है और मात खा रहा है । कुछ भी हो , लालू परिवार चुनावी मझधार में बुरी तरह घिर गया है । गरीबों की जमीनों पर लालू खानदान द्वार खड़े किए गए मॉल , कमर्शियल कॉम्प्लेक्स और रियायशी टॉवर चुनावी माहौल में आरजेडी नेताओं के चेहरों पर कालिख पोत रहे हैं । साथ ही गठबन्धन की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं । तेजस्वी यदि सीएम बने तो ढाई करोड़ नौकरियां भी क्या इसी प्रकार जमीनों मकानों के बदले बांटी जाएंगी .

…कौशल सिखौला

विवेकहीन समाज की एक त्रासदी−जातीय भेदभाव

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सदियों से भारतीय समाज जातीय भेदभाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। यह नफरत केवल सामाजिक संरचना को नहीं, बल्कि इंसान के विवेक और संवेदना को भी कुंद कर चुकी है। हर निर्णय, हर दृष्टिकोण, हर न्याय आज जाति के तराज़ू पर तोला जाता है। जब तक समाज जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर न्याय-अन्याय के बीच अंतर करना नहीं सीखेगा, तब तक कुछ स्वार्थी और धूर्त लोग इस विभाजन की साज़िश में हमें अपनी सर्कस बनाते रहेंगे।

– डॉ प्रियंका सौरभ

भारतीय समाज की जड़ें हजारों वर्षों पुरानी हैं। पर इन जड़ों में कई ऐसी गांठें भी हैं, जिन्होंने इंसानियत को बाँट दिया है। जाति का विचार शुरुआत में शायद एक सामाजिक संगठन का ढांचा था, पर समय के साथ यह व्यवस्था अन्याय, भेदभाव और शोषण का औजार बन गई। ऊँच-नीच की मानसिकता ने समाज को वर्गों में बाँट दिया और इस बंटवारे ने इंसान की पहचान को उसके कर्म से हटाकर उसकी जाति से जोड़ दिया।

जब कोई समाज अपने नैतिक विवेक को खो देता है, तब वह अन्याय को सामान्य मानने लगता है। यही आज की सबसे बड़ी समस्या है। जातीय सोच इतनी गहराई से हमारी मानसिकता में समा गई है कि लोग अन्याय को भी “अपनों के पक्ष में” देखकर सही ठहराने लगते हैं। किसी अपराधी की जाति अगर अपनी है, तो लोग उसे निर्दोष मान लेते हैं; और अगर पीड़ित किसी अन्य जाति का है, तो उसके दर्द के प्रति संवेदना गायब हो जाती है। यह वह बिंदु है जहां इंसानियत मर जाती है और जातिवाद जीत जाता है।

राजनीति ने जातिवाद को जीवित रखा है, बल्कि उसे हवा दी है। हर चुनाव में उम्मीदवारों की योग्यता नहीं, उनकी जातीय पहचान का हिसाब लगाया जाता है। नेता जानते हैं कि जातीय गोलबंदी उनकी सत्ता की नींव है, इसलिए वे समाज को एकजुट करने के बजाय बांटे रखना चाहते हैं। वोट के लिए जाति को हथियार बनाना सबसे खतरनाक प्रवृत्ति है, क्योंकि यह विभाजन न केवल लोकतंत्र की भावना को कमजोर करता है, बल्कि पीढ़ियों के मन में अविश्वास और घृणा बो देता है।

जातीय पूर्वाग्रहों से बाहर निकलने का सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शिक्षा का प्रसार भी कई बार समान अवसरों के बिना अधूरा रह जाता है। जब तक हर वर्ग को समान अवसर, समान मंच और समान सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक जातीय सोच का अंत संभव नहीं है। सच्ची शिक्षा वही है जो मनुष्य को स्वतंत्र सोचने और दूसरों के दुःख को समझने की क्षमता दे।

मीडिया समाज का दर्पण होता है। पर जब दर्पण ही धुंधला हो जाए, तो सच्चाई कैसे दिखाई देगी? जातीय हिंसा या भेदभाव की खबरें अक्सर राजनीतिक दृष्टिकोण से तो दिखाई जाती हैं, पर उनमें इंसानियत की करुणा का अभाव होता है। जरूरत है कि मीडिया समाज में संवाद का माध्यम बने, न कि विभाजन का। पत्रकारिता का मूल धर्म है सत्य को सामने लाना — चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म के विरुद्ध क्यों न हो।

हर युग में कुछ ऐसे चालाक और धूर्त लोग रहे हैं जो समाज की कमजोरियों को भुनाते हैं। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर — वे हमें बाँटकर अपनी कुर्सी और शक्ति को सुरक्षित करते हैं। हम वही जनता हैं जो उनके शो में दर्शक बन बैठे हैं। वे खेल दिखाते हैं, हम ताली बजाते हैं — और हर बार यह सर्कस चलता रहता है। अगर हम सच में बदलाव चाहते हैं, तो हमें दर्शक नहीं, निर्णायक बनना होगा।

न्याय का अर्थ तभी पूरा होता है जब वह बिना किसी पूर्वाग्रह के किया जाए। न्याय का कोई रंग, धर्म या जाति नहीं होती। समाज को चाहिए कि वह “हम बनाम वे” की मानसिकता से बाहर निकलकर “सबके लिए न्याय” की भावना को अपनाए। यही लोकतंत्र का आधार है। अगर हर व्यक्ति अपने स्तर पर जाति से ऊपर उठकर सोचने लगे, तो यह बदलाव किसी क्रांति से कम नहीं होगा।

जातिवाद केवल एक सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि एक मानसिक गुलामी है। यह हमें विवेकहीन, असंवेदनशील और विभाजित बनाता है। आज समय की सबसे बड़ी मांग यही है कि हम अपने भीतर झाँकें और समझें कि असली पहचान हमारी जाति नहीं, बल्कि हमारा कर्म और हमारा चरित्र है। सदियों से जो दीवारें हमें बाँटती आई हैं, उन्हें तोड़ने की शुरुआत हमें खुद से करनी होगी। जब समाज न्याय के पक्ष में खड़ा होना सीख लेगा — बिना यह देखे कि पीड़ित या अपराधी किस जाति का है — तभी हम कह सकेंगे कि हमने सच्चे अर्थों में सभ्यता की ओर कदम बढ़ाया है। अन्यथा यह जातीय सर्कस यूँ ही चलता रहेगा, और हम अनजाने में उसके दर्शक बने रहेंगे।

-प्रियंका सौरभस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

सूफ़ी संगीत का सम्राट−नुसरत फ़तेह अली ख़ान

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जब सूफ़ी संगीत की बात होती है तो दुनिया में सबसे पहले जिस नाम की गूंज सुनाई देती है, वह है नुसरत फ़तेह अली ख़ान। उन्होंने न केवल पाकिस्तान बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप और विश्व स्तर पर कव्वाली को एक नई पहचान दी। उनकी आवाज़ में जो जादू था, वह सरहदों, भाषाओं और धर्मों की सीमाओं से परे था। नुसरत ने संगीत को भक्ति, प्रेम और ईश्वर के प्रति आत्मिक समर्पण का माध्यम बना दिया।


प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि

नुसरत फ़तेह अली ख़ान का जन्म 13 अक्टूबर 1948 को फ़ैसलाबाद (तब का लायलपुर), पाकिस्तान में एक प्रसिद्ध कव्वाल परिवार में हुआ था। उनके पिता उस्ताद फतेह अली ख़ान स्वयं एक प्रख्यात कव्वाल और संगीतज्ञ थे। नुसरत के परिवार की कव्वाली परंपरा छह सौ वर्षों से चली आ रही थी — यानी वे “कव्वाल बच्चा” परिवार से थे, जिनका उद्देश्य सूफ़ी संगीत को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखना था।

शुरुआत में नुसरत के पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा संगीत में आए, क्योंकि उन्होंने देखा था कि इस कला को समाज में उचित सम्मान नहीं मिलता। परंतु नुसरत में बचपन से ही संगीत के प्रति अद्भुत लगाव था। वे स्कूल के दिनों में ही सुरों से खेलते थे और पिता की महफ़िलों में छिपकर सुनते थे। पिता की मृत्यु (1964) के बाद, उनके चाचा उस्ताद मुबारक अली ख़ान ने उन्हें प्रशिक्षित किया और इस प्रकार एक नयी यात्रा शुरू हुई।


संगीतिक यात्रा की शुरुआत

नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने पहली बार सार्वजनिक मंच पर 1971 में प्रदर्शन किया। उनके स्वर में ऐसी ताक़त और गहराई थी कि सुनने वाले तुरंत मुग्ध हो जाते। उनकी आवाज़ का विस्तार — निचले सुर से ऊँचे सुर तक — अद्भुत था। वे सुरों को इतने सहज रूप में बदलते कि ऐसा लगता जैसे ईश्वर खुद उनके गले में बसता हो।

उनकी प्रारंभिक कव्वालियाँ पारंपरिक सूफ़ी रचनाओं पर आधारित थीं — जैसे हज़रत अमीर ख़ुसरो, बुल्ले शाह, वारिस शाह, और निज़ामुद्दीन औलिया की वाणी। धीरे-धीरे उन्होंने अपने अंदाज़ में लय, ताल और स्वर का ऐसा संगम रचा कि कव्वाली एक वैश्विक कला बन गई।


कव्वाली का नुसरत अंदाज़

नुसरत फ़तेह अली ख़ान की कव्वाली पारंपरिक सीमाओं को तोड़ती है। उन्होंने पुराने ढांचे में आधुनिकता का रंग भरा। उनकी कव्वालियों में ताल की विविधता, ताली और हारमोनियम का उत्कृष्ट तालमेल, और गायन की ऊँचाई पर पहुँचने की क्षमता असाधारण थी।

उनकी प्रसिद्ध कव्वालियाँ जैसे —

“अल्लाह हू, अल्लाह हू”

“ताजदार-ए-हरम”

“ये जो हल्का हल्का सुरूर है”

“दमादम मस्त कलंदर”

“आफरीन आफरीन”

“किंना सोहणा तैनूं रब ने बनाया”

“मेरे रश्के क़मर”
आज भी सूफ़ी संगीत के भक्तों के लिए भक्ति और प्रेम का प्रतीक हैं।

नुसरत की कव्वालियाँ केवल धार्मिक भावना तक सीमित नहीं थीं, उनमें मानवीय प्रेम, ईश्वर से संवाद और आत्मा की तड़प भी झलकती थी।


अंतरराष्ट्रीय पहचान

1980 के दशक में नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने विश्व मंच पर कदम रखा। उन्होंने पीटर गैब्रियल जैसे पश्चिमी संगीतकारों के साथ काम किया और “रियल वर्ल्ड रिकॉर्ड्स” के तहत अपनी रिकॉर्डिंग्स जारी कीं। यह पहला अवसर था जब किसी दक्षिण एशियाई सूफ़ी गायक को पश्चिमी संगीत मंच पर इतनी लोकप्रियता मिली।

उनकी प्रसिद्ध एलबम “Shahen-Shah” (1989), “Devotional and Love Songs” (1992), और “Mustt Mustt” (1990) ने अंतरराष्ट्रीय संगीत जगत में तहलका मचा दिया।

ब्रिटिश संगीतकार माइकल ब्रुक के साथ उनके सहयोग ने “Fusion Qawwali” को जन्म दिया — एक ऐसा प्रयोग जिसमें पूर्व और पश्चिम दोनों की संगीत परंपराएँ मिल गईं।

उनकी आवाज़ हॉलीवुड फिल्मों तक पहुँची — Dead Man Walking, Natural Born Killers और The Last Temptation of Christ जैसी फिल्मों में उनके स्वर गूंजे।


भारत से आत्मिक रिश्ता

नुसरत फ़तेह अली ख़ान का भारत से गहरा जुड़ाव था। वे अक्सर दिल्ली, मुंबई और अजमेर शरीफ़ की दरगाह में अपनी कव्वाली प्रस्तुत करने आते थे। उन्होंने भारतीय संगीत निर्देशकों जैसे ए.आर. रहमान, आनंद-मिलिंद, और जतिन-ललित के साथ भी काम किया।

रहमान के साथ उनकी रचना “गुरु नालो इश्क़ मीठा” और “आफरीन आफरीन” आज भी भारतीय युवाओं के बीच लोकप्रिय है। रहमान खुद स्वीकार करते हैं कि नुसरत साहब उनके लिए “आवाज़ के दरवेश” थे।


आवाज़ की विशेषता

नुसरत की आवाज़ में एक ऐसी “रूहानियत” थी जो हर धर्म और संस्कृति के श्रोता को अपनी ओर खींच लेती थी। वे ऊँचे सुर में भी स्पष्टता बनाए रखते और एक ही पंक्ति को बार-बार दोहराकर श्रोता को ध्यान की अवस्था में पहुँचा देते।

उनकी आवाज़ में न कोई बनावट थी, न प्रदर्शन — वह सिर्फ़ “इश्क़-ए-हक़ीक़ी” (ईश्वर का प्रेम) का संप्रेषण था। यही कारण है कि उन्हें “शहंशाह-ए-कव्वाली” कहा गया।


पुरस्कार और सम्मान

नुसरत फ़तेह अली ख़ान को दुनिया भर में अनेक पुरस्कार मिले।

यूनेस्को म्यूज़िक अवॉर्ड (1995)

ग्रैमी अवॉर्ड के लिए नामांकन (1996)

पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान “निशान-ए-इम्तियाज़”

ब्रिटिश म्यूज़िक अवार्ड्स में विशेष सम्मान

फ्रांस, कनाडा और अमेरिका के कई संगीत विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी।

उनकी रचनाएँ आज भी विश्व के संगीत संस्थानों में अध्ययन का विषय हैं।


अंतिम दिन और निधन

नुसरत फ़तेह अली ख़ान का जीवन जितना उज्जवल था, उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो गया। 1997 में वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। लंदन के एक अस्पताल में इलाज के दौरान 16 अगस्त 1997 को उन्होंने अंतिम साँस ली। उस समय वे केवल 48 वर्ष के थे।

उनके निधन पर दुनिया भर में शोक की लहर दौड़ गई। लंदन, दिल्ली, लाहौर, न्यूयॉर्क और पेरिस तक सूफ़ी प्रेमियों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।


विरासत और प्रभाव

नुसरत फ़तेह अली ख़ान के बाद कव्वाली केवल एक धार्मिक संगीत नहीं रहा — वह विश्व संगीत (World Music) का हिस्सा बन गया। उनके शिष्यों और अनुयायियों में रहात फ़तेह अली ख़ान (उनके भतीजे) ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

आज उनकी आवाज़ इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में भी उतनी ही जीवंत है। चाहे भारतीय फिल्म “बजरंगी भाईजान” का “भर दो झोली मेरी” हो या रहमान के संगीत में “ख्वाजा मेरे ख्वाजा” — इन सब में नुसरत की सूफ़ियाना आत्मा महसूस होती है।

उनकी कव्वाली सिर्फ़ सुरों का संगम नहीं, बल्कि ईश्वर से आत्मा का संवाद थी।


निष्कर्ष

नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत किसी एक धर्म, भाषा या सीमा का बंधक नहीं होता। उनकी आवाज़ आज भी दिलों को जोड़ती है, आस्था जगाती है और प्रेम की भाषा सिखाती है।

उनकी कव्वाली “अल्लाह हू, अल्लाह हू” जब गूंजती है तो लगता है कि इंसान खुद से परे किसी दिव्यता से जुड़ गया है। यही है नुसरत फ़तेह अली ख़ान की सबसे बड़ी पहचान — एक ऐसी आवाज़ जो रूह से बात करती है।