एससीओ 2025 और भारत की तीन-स्तंभ रणनीति : सुरक्षा, संपर्क और अवसर

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भारत की भूमिका और तियानजिन घोषणा की उपलब्धियों का मूल्यांकन

तियानजिन में आयोजित 25वें एससीओ शिखर सम्मेलन 2025 ने भारत की सक्रिय भूमिका को रेखांकित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की तीन-स्तंभ रणनीति—सुरक्षा, संपर्क और अवसर—प्रस्तुत करते हुए आतंकवाद पर शून्य-सहनशीलता, संप्रभुता-सम्मानजनक संपर्क और तकनीक व संस्कृति में अवसरों को बढ़ावा देने पर बल दिया। तियानजिन घोषणा में “एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य” का भारत-प्रस्तावित दृष्टिकोण शामिल किया गया, साथ ही आतंकवादी हमलों की निंदा और वैश्विक सुधारों का समर्थन भी किया गया। 

— डॉ. प्रियंका सौरभ

वर्ष 2001 में स्थापित शंघाई सहयोग संगठन मूल रूप से सुरक्षा केंद्रित मंच के रूप में अस्तित्व में आया। चीन, रूस और मध्य एशियाई देशों के लिए यह संगठन आतंकवाद और सीमाई स्थिरता का साझा मंच था। किंतु दो दशकों में यह संगठन धीरे-धीरे बहुआयामी स्वरूप ग्रहण कर चुका है।इसमें सुरक्षा के साथ-साथ आर्थिक सहयोग, संपर्क, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की स्थापना जैसे मुद्दे प्रमुख हो गए हैं। भारत, जिसने 2005 में प्रेक्षक के रूप में इसमें प्रवेश किया और 2017 में पूर्ण सदस्यता प्राप्त की। भारत इस संगठन में एक ओर अवसर देखता है तो दूसरी ओर चुनौतियों का सामना भी करता है।संगठन की 25वीं वर्षगांठ पर वर्ष 2025 का तियानजिन शिखर सम्मेलन, इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर भारत की भागीदारी की रूपरेखा तीन स्तंभों—सुरक्षा, संपर्क और अवसर—के रूप में प्रस्तुत की। यह केवल भाषणबाज़ी नहीं थी, बल्कि एक स्पष्ट और संतुलित रणनीति थी, जिसके द्वारा भारत ने अपनी सुरक्षा चिंताओं को रेखांकित किया, संगठन में असंतुलनों को संतुलित करने का प्रयास किया । स्वयं को भविष्य-निर्माता शक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। इन तीन स्तंभों की गूंज तियानजिन घोषणा में स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुई, जहाँ पहली बार “एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य” का भारत-प्रस्तावित दृष्टिकोण औपचारिक रूप से शामिल किया गया।

पहला स्तंभ, सुरक्षा, भारत की प्राथमिक चिंता है। मोदी ने आतंकवाद के प्रति “शून्य सहनशीलता” का सिद्धांत दोहराते हुए दोहरे मानदंडों को अस्वीकार किया। यह स्पष्ट संदेश पाकिस्तान की ओर निर्देशित था, जो आतंकवादी संगठनों को शरण और समर्थन देने के बावजूद स्वयं को आतंकवाद-रोधी शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है। भारत ने सुनिश्चित  किया कि तियानजिन घोषणा में कश्मीर के पुलवामा-पहलगाम हमले सहित पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हाल के बड़े आतंकवादी हमलों का स्पष्ट उल्लेख हो। यह भारत की कूटनीतिक जीत थी, क्योंकि पहले की घोषणाएँ अक्सर सामान्य शब्दों में ही सीमित रहती थीं। भारत ने क्षेत्रीय आतंकवाद-रोधी संरचना (RATS) को सशक्त बनाने, खुफिया साझाकरण बढ़ाने, आतंक वित्तपोषण पर रोक और डिजिटल कट्टरपंथ पर नियंत्रण के उपायों की आवश्यकता पर जोर दिया। अफगानिस्तान की अस्थिरता को लेकर भी भारत ने चेतावनी दी कि यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो पूरा क्षेत्र असुरक्षा की चपेट में आ जाएगा।

दूसरा स्तंभ, संपर्क, भारत के लिए रणनीतिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। मध्य एशिया ऊर्जा-संपन्न और रणनीतिक रूप से अहम क्षेत्र है, किंतु भारत का सीधा भौगोलिक संपर्क सीमित है। मोदी ने चाबहार बंदरगाह और अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे जैसे परियोजनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने वाले संपर्क ढांचे का समर्थन करता है। यह चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की अप्रत्यक्ष आलोचना थी, विशेषकर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा, जो भारतीय क्षेत्र गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुजरता है। भारत ने यह स्पष्ट किया कि विकास का मार्ग किसी देश की संप्रभुता से समझौता करके नहीं बनाया जा सकता।

तियानजिन शिखर सम्मेलन में भारत-चीन संबंधों में आंशिक संवाद भी देखने को मिला। मोदी और शी जिनपिंग की संक्षिप्त मुलाकात में सीमा स्थिरता, वीज़ा बहाली और कैलाश-मानसरोवर जैसी तीर्थयात्राओं के पुनः प्रारंभ की संभावनाओं पर चर्चा हुई। यह इंगित करता है कि भारत के लिए संपर्क केवल भौतिक अवसंरचना तक सीमित नहीं है, बल्कि लोगों के बीच संबंध, व्यापार सामान्यीकरण और सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

तीसरा स्तंभ, अवसर, भारत की दूरदर्शिता और रचनात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है। मोदी ने कहा कि एससीओ केवल सुरक्षा और भू-राजनीति तक सीमित न रहकर नवाचार, युवाओं के सशक्तिकरण और सतत विकास का मंच बने। भारत ने एससीओ स्टार्टअप फोरम को सशक्त बनाने, समावेशी डिजिटल शासन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के जिम्मेदार उपयोग पर सहयोग का प्रस्ताव रखा। पर्यावरणीय स्थिरता, हरित ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संयुक्त प्रयासों की भी वकालत की। साथ ही, भारत ने एससीओ में “सभ्यतागत संवाद मंच” स्थापित करने का सुझाव दिया ताकि एशियाई देशों की साझा सांस्कृतिक धरोहर को उजागर किया जा सके। यह स्तंभ भारत को मात्र सुरक्षा केंद्रित राष्ट्र से आगे बढ़ाकर सांस्कृतिक और नैतिक नेतृत्वकर्ता की भूमिका प्रदान करता है।

तियानजिन घोषणा में भारत की इन पहलों की गूंज साफ दिखाई दी। पहली बार घोषणा में “एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य” जैसे भारतीय दृष्टिकोण को अपनाया गया। यह वही विचार है जिसे भारत ने अपने जी20 अध्यक्षता काल में भी प्रस्तुत किया था। घोषणा में आतंकवादी घटनाओं की स्पष्ट निंदा की गई और एससीओ विकास बैंक की स्थापना पर सहमति बनी। इस बैंक में चीन ने 1.4 अरब डॉलर की प्रारंभिक पूंजी देने का वादा किया। यद्यपि इससे चीन की आर्थिक प्रभुत्व की आशंका बनी रहती है, किंतु यह एससीओ को एक ठोस आर्थिक मंच बनाने की दिशा में कदम है। घोषणा में बहुध्रुवीयता, संयुक्त राष्ट्र सुधार और विकासशील देशों की अधिक भागीदारी का समर्थन किया गया। शिक्षा, संस्कृति और सभ्यतागत संवाद को बढ़ावा देने का संकल्प भी इसमें शामिल था, जो भारत की पहल से मेल खाता है।

भारत की इन उपलब्धियों के बावजूद चुनौतियाँ बनी हुई हैं। पाकिस्तान लगातार कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की कोशिश करता है, हालांकि उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिलती। चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना अब भी कई देशों को आकर्षित करती है, जिससे भारत का असहमति का रुख संगठन में अंतर्विरोध पैदा करता है। अफगानिस्तान की स्थिति को लेकर कोई ठोस सामूहिक रणनीति अब भी नहीं बन पाई है। साथ ही, भारत को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए पश्चिमी मंचों जैसे क्वाड और हिंद-प्रशांत पहलों के साथ संतुलन साधना पड़ता है।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में, एससीओ की प्रासंगिकता तेजी से बढ़ रही है। यह संगठन विश्व की लगभग आधी आबादी और पाँचवें हिस्से की अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे समय में जब रूस-यूक्रेन युद्ध, अमेरिका-चीन प्रतिस्पर्धा और पश्चिम एशिया की अस्थिरता अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर छाई हुई है, एससीओ बहुध्रुवीयता का प्रतीक बनकर उभरा है। भारत की सक्रिय भूमिका इस संगठन को लोकतांत्रिक और विकासोन्मुखी आयाम प्रदान करती है।

भविष्य की राह में भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि आतंकवाद-रोधी सहयोग केवल कागज़ी न रहे, बल्कि खुफिया साझा करने और वित्तीय निगरानी जैसी ठोस व्यवस्थाओं में परिणत हो। चाबहार और उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे जैसे वैकल्पिक संपर्क ढाँचों को शीघ्र लागू करना होगा। आईटी और स्टार्टअप क्षेत्र में भारत की ताक़त एससीओ को वैश्विक मंच पर प्रासंगिक बना सकती है। योग, आयुर्वेद, शिक्षा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से भारत अपनी सॉफ्ट पावर और मज़बूत कर सकता है। सबसे अहम चुनौती चीन और रूस के साथ संतुलित संबंध बनाए रखने की होगी, ताकि भारत अपनी संप्रभुता सुरक्षित रखते हुए स्वतंत्र भूमिका निभा सके।

अंततः, तियानजिन शिखर सम्मेलन केवल एससीओ की वर्षगांठ भर नहीं था, बल्कि भारत की कूटनीति की परिपक्वता का प्रतीक भी था। सुरक्षा, संपर्क और अवसर—ये तीन स्तंभ मिलकर भारत की राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और क्षेत्रीय अपेक्षाओं को जोड़ते हैं। तियानजिन घोषणा में भारत की दृष्टि का शामिल होना इसका प्रमाण है। चुनौतियाँ चाहे जितनी भी हों, भारत अब केवल सहभागी नहीं, बल्कि एससीओ की दिशा तय करने वाला एक प्रमुख वास्तुकार बन चुका है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

जीएसटी पर सियासत या राहत 

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जीएसटी दरों में कटौती जनता के लिए राहत का संकेत है, लेकिन बार-बार बदलते तर्क सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े करते हैं।

जीएसटी लागू होने के बाद सरकार ने नौ साल तक ऊँची दरों को ज़रूरी बताते हुए उनके फायदे गिनाए। अब दरें घटाने पर वही तर्क उलटे रूप में दिए जा रहे हैं। नवरात्र से लागू होने वाली टैक्स राहत निश्चित रूप से उपभोक्ताओं और व्यापार जगत के लिए सकारात्मक संदेश है, परंतु नीतियों में यह विरोधाभास जनता के विश्वास को कमजोर करता है। टैक्स नीति को राजनीति या त्योहारों से जोड़ने के बजाय दीर्घकालिक दृष्टि से स्थिर और न्यायपूर्ण बनाना ज़रूरी है, ताकि “एक देश, एक टैक्स” की असली भावना सार्थक हो सके।

– डॉ सत्यवान सौरभ

भारतीय कर व्यवस्था में वर्ष 2017 से लागू हुआ जीएसटी यानी “गुड्स एंड सर्विस टैक्स” उस समय एक ऐतिहासिक सुधार माना गया था। इसे “एक देश, एक टैक्स” की संकल्पना के रूप में प्रस्तुत किया गया और जनता को विश्वास दिलाया गया कि इससे कर व्यवस्था सरल होगी, भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और व्यापारियों को सुविधा मिलेगी। शुरुआत में ही सरकार और उसके आर्थिक सलाहकारों ने ऊँचे टैक्स की दरों को जायज़ ठहराते हुए बताया था कि यह राष्ट्रहित में है और दीर्घकाल में इससे राजस्व बढ़ेगा, विकास दर तेज़ होगी तथा राज्यों को भी मज़बूती मिलेगी।

लेकिन बीते नौ वर्षों में जनता ने देखा कि जीएसटी का बोझ केवल आम उपभोक्ताओं पर बढ़ता गया। ज़रूरी सामानों से लेकर रोज़मर्रा की वस्तुओं पर टैक्स दरें ऊँची बनी रहीं। महँगाई लगातार बढ़ती रही और हर घर का बजट बिगड़ता गया। व्यापारी समुदाय ने भी कई बार शिकायत की कि जीएसटी की जटिल व्यवस्था और ऊँचे टैक्स स्लैब ने उनके कारोबार को प्रभावित किया। छोटे और मझोले उद्योगों को तो कई बार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ी।

अब अचानक वही सरकार यह कह रही है कि जीएसटी की दरें घटाई जाएंगी और इससे जनता को सीधी राहत मिलेगी। नवरात्र के अवसर पर इस घोषणा को “टैक्स राहत की दिवाली” कहा जा रहा है। निश्चित ही यह कदम आम उपभोक्ता के लिए सुकून भरा संदेश है। जूते, कपड़े, टीवी, डीटीएच जैसी वस्तुओं पर टैक्स घटाना हर परिवार को सीधे प्रभावित करेगा। लोग त्योहारों के समय खरीदारी कर पाएंगे और बाज़ार में चहल-पहल बढ़ेगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि जो तर्क पहले ऊँचे टैक्स के समर्थन में दिए गए थे, वही तर्क आज घटाने के समर्थन में क्यों दिए जा रहे हैं?

यह विरोधाभास केवल टैक्स दरों तक सीमित नहीं है। यह सरकार की आर्थिक नीतियों की सोच पर भी सवाल खड़े करता है। अगर ऊँचे टैक्स ही विकास का आधार थे, तो नौ साल बाद अचानक उन्हें कम करना कैसे विकास के लिए आवश्यक हो गया? और यदि वास्तव में कम टैक्स से बाज़ार और जनता को राहत मिल सकती है, तो इतने वर्षों तक जनता को ऊँचे टैक्स का बोझ क्यों झेलना पड़ा?

आम नागरिक इन सवालों का जवाब चाहता है। वह देख रहा है कि टैक्स नीतियाँ कई बार राजनीति और चुनावी रणनीतियों से जुड़कर बदल जाती हैं। त्योहारों के अवसर पर टैक्स कटौती की घोषणा निश्चित रूप से लोगों को आकर्षित करती है, लेकिन क्या यह दीर्घकालिक समाधान है? कर नीति को समय-समय पर बदलना और हर बार इसे जनता के हित में बताना, पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है।

आज जब सरकार कहती है कि टैक्स घटाने से अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलेगी, तो यह बात सही भी है। टैक्स बोझ कम होने पर लोगों की क्रयशक्ति बढ़ती है, उपभोग बढ़ता है और बाज़ार में रौनक आती है। इससे उत्पादन बढ़ता है और रोजगार सृजन भी होता है। लेकिन फिर वही प्रश्न—तो इतने वर्षों तक टैक्स ऊँचे रखकर किस उद्देश्य को साधा गया? क्या उस दौरान जनता केवल राजस्व संग्रह की मशीन बनकर रह गई?

सच्चाई यह है कि भारत जैसे विकासशील देश में कर नीति केवल राजस्व जुटाने का साधन नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह सामाजिक-आर्थिक संतुलन का आधार भी होनी चाहिए। ज़रूरी सामानों और रोज़मर्रा की वस्तुओं पर टैक्स बोझ कम से कम रखा जाना चाहिए ताकि गरीब और मध्यम वर्ग को राहत मिले। जबकि विलासिता की वस्तुओं पर अपेक्षाकृत ऊँचे टैक्स लगाए जा सकते हैं। लेकिन पिछले वर्षों में हमने देखा कि कई बार यह संतुलन बिगड़ गया और आम नागरिक की जेब पर सीधा असर पड़ा।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि टैक्स में राहत से सरकार के राजस्व पर भी असर पड़ता है। जब राजस्व घटता है तो सरकार या तो घाटा बढ़ाती है या फिर कहीं और से वसूली करती है। ऐसे में जनता को राहत वास्तव में कितनी मिलती है, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। यदि बिजली, ईंधन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर सीधे या परोक्ष रूप से टैक्स का बोझ बना रहेगा, तो बाकी वस्तुओं पर टैक्स घटाने का असर सीमित ही होगा।

जीएसटी के नाम पर जिस “एक देश, एक टैक्स” का सपना दिखाया गया था, वह आज भी अधूरा है। अलग-अलग वस्तुओं पर अलग-अलग स्लैब, राज्यों की शिकायतें, जटिल रिटर्न फाइलिंग और बार-बार नियमों का बदलना, ये सब मिलकर इसे जटिल बनाते रहे हैं। अब जबकि टैक्स दरों को घटाने का निर्णय लिया गया है, तो ज़रूरत इस बात की है कि इसे केवल त्योहारों तक सीमित राहत न बनाया जाए, बल्कि पूरी व्यवस्था को स्थिर और संतुलित बनाया जाए।

सरकार को चाहिए कि वह टैक्स नीतियों को राजनीति से ऊपर उठाकर, दीर्घकालिक आर्थिक दृष्टि से तय करे। लोगों को यह महसूस होना चाहिए कि टैक्स वास्तव में राष्ट्र निर्माण में उनका योगदान है, न कि केवल बोझ। इसके लिए आवश्यक है कि टैक्स से मिलने वाले राजस्व का सही और पारदर्शी उपयोग हो। यदि जनता देखेगी कि उसके द्वारा दिए गए टैक्स का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आधारभूत संरचना पर हो रहा है, तो वह टैक्स चुकाने में संकोच नहीं करेगी।

आज की टैक्स राहत का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी उठाना ज़रूरी है कि क्या यह केवल तात्कालिक आकर्षण है या फिर एक दीर्घकालिक सुधार की शुरुआत। जीएसटी जैसे बड़े सुधार को राजनीति और चुनावी लाभ से जोड़कर देखने के बजाय इसे जनता और अर्थव्यवस्था के वास्तविक हित में आगे बढ़ाना होगा। तभी वास्तव में “टैक्स राहत की दिवाली” हर नागरिक के जीवन में रोशनी ला सकेगी।

– डॉ सत्यवान सौरभ

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

पश्चिम बंगाल विधानसभा में हंगामा

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पश्चिम बंगाल विधानसभा में गुरुवार को बंगाली प्रवासियों पर हो रहे अत्याचारों पर चर्चा के दौरान जमकर हंगामा हुआ। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रस्ताव पर बोल रहीं थीं। तभी विपक्ष (भाजपा) ने नारेबाजी शुरू कर दी।

भाजपा विधायक दो सितंबर को किये गए विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी के निलंबन का विरोध कर रहे थे। टीएमसी विधायकों ने इन्हें रोकने की कोशिश की। विपक्ष के विधायकों के वेल तक पहुंचने तो स्पीकर बिमान बनर्जी ने अव्यवस्था फैलाने के आरोप में भाजपा के चीफ व्हिप शंकर घोष को विधानसभा से सस्पेंड कर दिया।

घोष के बाहर जाने से इनकार करने पर मार्शलों को बुलाया गया। शंकर घोष को घसीटकर सदन से बाहर निकाला गया। बाहर निकालते समय वो गिरकर बेहोश हो गए। उन्हें एंबुलेंस से अस्पताल ले जाया गया। घोष के अलावा दो अन्य भाजपा विधायक अग्निमित्र पॉल और मिहिर गोस्वामी को भी सदन से निलंबित कर दिया गया है।

वहीं, स्पीच के दौरान सीएम ममता बनर्जी ने मोदी चोर और वोट चोर के नारे लगाए। पश्चिम बंगाल विधानसभा का तीन दिन का विशेष सत्र एक सितंबर को शुरू हुआ था। तीन सितंबर को करम पूजा के कारण राजकीय छुट्टी थी। आज सत्र का आखिरी दिन है।

बंगाल भाजपा प्रवासियों पर हमलों पर विधानसभा में चर्चा के खिलाफ है, क्योंकि ये घटनाएं भगवा पार्टी शासित राज्यों में हो रही हैं। हम हिंदी या किसी अन्य भाषा के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन भाजपा बंगाली विरोधी है।भाजपा की तानाशाही और औपनिवेशिक मानसिकता है, वह बंगाल को अपना उपनिवेश बनाना चाहती है। भाजपा ने विदेशी ताकतों के सामने भारत का सम्मान बेच दिया है। केंद्र कभी अमेरिका के सामने, तो कभी चीन के सामने भीख मांगता है।भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी ने कहा कि ममता ने सदन में पूरे मोदी समुदाय को गाली दी है। उनके खिलाफ केस करेंगे।

यूपी के अटल विश्व विद्यालय का पहला दीक्षांत समारोह, नया मेडिकल कॉलेज शुरू करने का एलान

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लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेई मेडिकल यूनिवर्सिटी के गुरुवार को संपन्न पहले दीक्षांत समारोह में प्रदेश भर से नर्सिंग, पैरामेडिकल और एमबीबीएस छात्र-छात्राओं ने शिरकत की। डिप्टी सीएम बृजेश पाठक ने कहा कि अटल यूनिवर्सिटी में आने वाले दिनों में नया मेडिकल कॉलेज शुरू होगा। यहां पर पढ़ाई संग मरीजों का इलाज मिलेगा।

विश्व विद्यालय प्रेक्षागृह में आयोजित कार्यक्रम में कुलाधिपति व राज्यपाल आनंदी बेन पटेल 70 से अधिक मेधावियों छात्र−छात्राओं को मेडल प्रदान किया। कार्यक्रम में कुलाधिपति व राज्यपाल आनंदी बेन पटेल, डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक, चिकित्सा शिक्षा राज्य मंत्री मयंकेश्वर शरण सिंह समेत अन्य कई अधिकारी कार्यक्रम में मौजूद हैं। कुलपति डॉ. संजीव मिश्र ने विश्व विद्यालय के एक साल की रिपोर्ट पेश की।

चिकित्सा शिक्षा राज्यमंत्री मयंकेश्वर शरण सिंह ने कहा कि उत्तर प्रदेश बीते आठ वर्षों में चिकित्सा के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ा है। आधुनिक तकनीक से अस्पतालों में मरीजों को इलाज मुहैया कराया जा रहा है। रोबोटिक जैसी आधुनिक सर्जरी भी शुरू हो गई है। उन्होंने मेडल पाने वाले छात्र-छात्राओं को बधाईं। आप सभी उत्तर प्रदेश को स्वस्थ बनाने में सहयोग करें।

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने कहा कि अटल मेडिकल यूनिवर्सिटी का मकसद मेडिकल कॉलेज, पैरामेडिकल और नर्सिंग कॉलेजों को संबद्धता प्रदान करना है ताकि तय समय पर प्रवेश, परीक्षा और परिणाम घोषित किए जा सकें। शैक्षित सत्र की गाड़ी पटरी पर लाई जा सके। इससे पहले मेडिकल कॉलेज अलग-अलग यूनिवर्सिटी से संबद्ध था।

ट्रंप के टैरिफ बम का विरोध क्यों नही करते अमेरिकी प्रवासी भारतीय

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अक्सर देखा जाता है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे अवसरों पर अमेरिका में बसे भारतीय और भारतीय मूल के लोग बड़े जोश के साथ इंडिया डे परेड या अन्य सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करते हैं। इसी तरह जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की यात्रा पर जाते हैं, तो बड़ी संख्या में भारतीय-अमेरिकी उनके स्वागत में उमड़ पड़ते हैं और भारत माता की जय के नारों से माहौल गूंज उठता।

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लेकिन प्रश्न यह है कि जब वास्तविक चुनौतियाँ सामने आती हैं— जैसे डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत विरोधी रुख अपनाना और भारतीय सामानों पर भारी टैरिफ लगाना, तो वही प्रवासी भारतीय समुदाय चुप क्यों हो जाता है? यही खामोशी गंभीर सवाल खड़े करती है। देखा जाये तो देशभक्ति केवल उत्सवों और नारों तक सीमित नहीं होनी चाहिए। यदि भारतीय-अमेरिकी समुदाय अमेरिकी राजनीति, मीडिया और नीतिगत हलकों में प्रभावशाली है तो इस प्रभाव का इस्तेमाल भारत की छवि और हितों की रक्षा में क्यों नहीं किया जाता? जब भारत के खिलाफ नीतिगत फैसले लिए जा रहे हैं या अमेरिकी मीडिया में भारत-विरोधी नैरेटिव सामने आ रहे हैं, तब सामूहिक और मुखर आवाज़ का अभाव कहीं न कहीं “प्रवासी देशभक्ति” की सीमाओं को उजागर करता है।

संभव है कि यह चुप्पी दोहरी निष्ठा के आरोपों से बचने की व्यावहारिक रणनीति हो। यह भी हो सकता है कि भारतीय-अमेरिकी अपने कॅरियर और सामाजिक सुरक्षा को दांव पर नहीं लगाना चाहते। लेकिन तब सवाल यह उठता है कि क्या देशभक्ति केवल सुरक्षित अवसरों तक ही सीमित रहेगी?

देखा जाये तो भारत आज वैश्विक मंच पर उभरती शक्ति है और उसे प्रवासी भारतीयों की सक्रिय भागीदारी और समर्थन की ज़रूरत है। ऐसे में भारतीय-अमेरिकियों को यह तय करना होगा कि उनकी देशभक्ति केवल परेड और नारे तक सीमित है या फिर वे कठिन समय में भी भारत के पक्ष में खड़े होने का साहस दिखाएँगे।

लेकिन भावनाओं से परे इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। देखा जाये तो भारतीय-अमेरिकी बड़ी संख्या में अमेरिका की कॉर्पोरेट दुनिया, आईटी सेक्टर, मेडिकल प्रोफेशन और वित्तीय संस्थाओं में ऊंचे पदों पर हैं। लेकिन इन सबके बावजूद वे अमेरिकी राजनीतिक तंत्र में अभी भी अल्पसंख्यक माने जाते हैं। किसी भी राजनीतिक विवाद पर खुलकर बोलना उनके लिए कॅरियर और सामाजिक हैसियत पर असर डाल सकता है। खासकर, ट्रंप जैसे नेता जिनकी राजनीति आक्रामक और विभाजनकारी रही है, उनके खिलाफ बोलना भारतीय-अमेरिकियों को असुरक्षित कर सकता है।

भारतीय-अमेरिकी समुदाय को अमेरिका में अक्सर “Model Minority” कहा जाता है— यानि एक अनुशासित, मेहनती और कानून का पालन करने वाला समुदाय। इस छवि को बनाए रखना उनके लिए सामाजिक पूंजी का हिस्सा है। यदि वे अमेरिकी नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं, तो यह छवि टूट सकती है और उन्हें “असहज अल्पसंख्यक” के रूप में देखा जा सकता है। अधिकांश भारतीय-अमेरिकी यह मानते हैं कि राजनीतिक बयानों और नीतिगत असहमति के बावजूद, अमेरिका में उनकी प्राथमिक पहचान एक पेशेवर और नागरिक की है। भारत के प्रति सहानुभूति तो है, लेकिन वे अपने कॅरियर और आर्थिक सुरक्षा को दांव पर लगाकर राजनीतिक बयानबाज़ी से बचते हैं। उनके लिए मौन ही सुरक्षित रास्ता है।

भारतीय-अमेरिकियों के लिए यह भी चुनौती है कि यदि वह भारत के समर्थन में खुलकर बोलें तो उन पर “दोहरी निष्ठा” (Dual Loyalty) का आरोप लग सकता है। अमेरिकी राजनीति में यह एक संवेदनशील मुद्दा है। जैसे-जैसे भारत की वैश्विक भूमिका बढ़ रही है, भारतीय-अमेरिकी खुद को एक “संतुलनकारी स्थिति” में रखना चाहते हैं— जहाँ न अमेरिका की मुख्यधारा उनसे असहज हो और न ही वे अपनी जन्मभूमि के प्रति उदासीन दिखाई दें।

कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारतीय-अमेरिकियों की यह खामोशी “रणनीतिक मौन” है। वह सार्वजनिक रूप से प्रतिक्रिया न देकर पर्दे के पीछे लॉबिंग और नेटवर्किंग के जरिए भारत के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करते हैं। यह उनकी अमेरिकी राजनीति में परिपक्वता का भी संकेत है— जहाँ शोर-शराबे से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है प्रभावी लॉबिंग। हालांकि कई लोग इससे विपरीत मत भी रखते हैं। भारतीय वायुसेना के पूर्व अधिकारी संजीव कपूर ने अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों की कड़ी आलोचना करते हुए आरोप लगाया है कि यह समुदाय “चुप” है और “मातृभूमि का साथ देने में नाकाम” रहा है। उन्होंने तर्क दिया कि भारतीय डायस्पोरा “जब सबसे ज़रूरी समय होता है तो चुप हो जाता है” और भारत की विकास गाथा को केवल “ड्राइंग रूम की चर्चा” तक सीमित कर देता है।

बहरहाल, भारतीय-अमेरिकियों की खामोशी को केवल डर या कायरता के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। यह कहीं न कहीं उनकी दोहरी ज़िम्मेदारी का परिणाम है— एक ओर अमेरिका में सुरक्षित और सम्मानित जीवन, दूसरी ओर भारत के साथ भावनात्मक जुड़ाव। वह जानते हैं कि राजनीति में बयानबाज़ी से ज्यादा असर संगठित लॉबिंग और चुपचाप किए गए प्रयासों का होता है। इसलिए यह खामोशी दरअसल रणनीतिक चुप्पी भी हो सकती है, जो समय आने पर भारत-अमेरिका संबंधों में पुल बनाने का काम करे।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)

बाढ़ भूस्खलन की घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट का संज्ञान

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 दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ कई राज्यों में बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया है। कोर्ट ने कहा कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में पेड़ों की अवैध कटाई के कारण आपदाएं आई हैं।कोर्ट ने आपदाओं का संज्ञान लेकर इन मामलों में केंद्र सरकार, एनडीएमए और चार राज्यों को नोटिस जारी किया है। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा है कि दो हफ्ते में जवाब दाखिल किया जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई दो सप्ताह बाद निर्धारित की और सॉलिसिटर जनरल से सुधारात्मक उपाय सुनिश्चित करने को कहा है।मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर और पंजाब की सरकारों को भी नोटिस जारी किए है। 

छात्रों के सर्वांगीण विकास में शिक्षक की भूमिका कितनी कारगर

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(राष्ट्रीय शिक्षक दिवस विशेष 5 सितंबर 2025)

शिक्षक को माता-पिता तुल्य माना जाता है।अभिभावकों के बाद बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षक ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार होते हैं। कहते है कि देश के आनेवाले पीढी का विकास होगा या विनाश, यह दोनों बातें शिक्षक की भूमिका पर निर्भर करते है, क्योंकि शिक्षक अपने ज्ञानरूपी अध्यापन से छात्रों के बुद्धिकौशल्य को पहचानकर उन्हें योग्यतापूर्वक निखारता है। वहीं अगर शिक्षक अपनी भूमिकाओं को और अपने पद की गरिमा को भूल जाता है, तो सम्पूर्ण समाज को इसकी सजा लंबे समय तक भुगतनी पड़ती है। शिक्षक गुणों की खान कहलाते है, जिनमें विषयज्ञान, संचार कौशल, शिक्षण के प्रति जुनून, सकारात्मक भाव, रचनात्मक विचार, शोधकर्ता, धैर्यवान, चरित्रवान, बुद्धिमान, कर्मठ, सहनशील, मृदुभाषी, समय का मोल जाननेवाले, बिना किसी भेदभाव के सभी छात्रों को एक नजर से देखनेवाले, उनके कलागुणों को समझनेवाले, हमेशा छात्रों के भलाई और उनके उज्वल भविष्य के लिए संघर्षरत रहने जैसे गुण शिक्षक में होते है। यही गुण एक सच्चे शिक्षक की पहचान होती है। शिक्षक छात्रों के लिए आदर्श मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत और मित्र होते है, जो छात्रों के सर्वांगीण विकास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। छात्रों के नैतिक और चारित्रिक विकास में भी शिक्षक योगदान देते है अर्थात छात्रों को पढ़ा-लिखाकर उन्हें बेहतर जीवनयापन के योग्य बनानेवाले व सुजान नागरिक में तब्दील करनेवाले शिक्षक ही होते है। शिक्षा का सही अर्थ केवल किताबी ज्ञान या तकनीकी कौशल प्राप्त करना नहीं है, बल्कि एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षमताओं का समग्र विकास होता है। इसका उद्देश्य ज्ञान और अनुभव के माध्यम से व्यक्ति को बुद्धिमान, संवेदनशील और समाज के लिए उपयोगी बनाना है, ताकि वह जीवन की समस्याओं का समाधान कर सके और एक सभ्य नागरिक बन सके।

एक वक्त था जब शिक्षा समाजसेवा का एक भाग हुआ करता था। शिक्षा की लौ जलाने के लिए समाजसुधारक संघर्ष करते हुए समाज में नयी क्रांति लाते थे। लेकिन आज के बाजारीकरण के युग में शिक्षा को व्यवसाय के रूप में देखा जाता है। देश के बड़े-बड़े सरकारी अधिकारी, नेता, कर्मचारी यहाँ तक की खुद सरकारी शिक्षक भी अपने बच्चों को महँगी निजी शिक्षा संस्थानों में पढ़ाने के लिए प्राथमिकता देते है क्योंकि वे सरकारी शिक्षा प्रणाली से शायद संतुष्ट नहीं है और अमीर घर के बच्चें तो सीधे विदेशों में पढ़ना पसंद करते है। लाख-डेढ़ लाख रुपये माह का वेतन पाने वाले सरकारी शिक्षक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाते है, आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या सरकारी शिक्षकों को खुद के शिक्षा प्रणाली पर ही भरोसा नहीं है? देश में शिक्षक जैसे सबसे पवित्र पेशे में भी बहुत ज्यादा घृणास्पद घटनाएं शिक्षा जगत को कलंकित करती रही है, आज वर्तमान में भी यह स्थिति कुछ खास बदली नहीं है। अभी महाराष्ट्र राज्य में सरकारी शालार्थ आयडी घोटाला भी खूब चर्चा में है, सैकड़ो सरकारी अनुदानित स्कूलों में शिक्षकों के झूठे आंकड़े दिखाकर बरसों से वेतन के नाम पर सरकार के करोड़ों रुपयों का गबन किया जा रहा था।

शिक्षा में भ्रष्टाचार का बोलबाला भी चरम पर नजर आता है, पता सबको होता है, लेकिन इसके विरुद्ध बोलना कोई नहीं चाहता। महाराष्ट्र राज्य के सरकारी अनुदानित वरिष्ठ महाविद्यालयों में शिक्षक भर्ती के नाम पर अक्सर भ्रष्टाचार की खबरें देखने-सुनने-पढ़ने मिलती है, यह भर्ती एक गठित समिति द्वारा की जाती है, विश्वविद्यालय के कुलगुरु और राज्य सरकार के मंत्रियो से शिकायत करने के बावजूद सुधार के नाम पर केवल आश्वासन ही सुनने मिलता है। अब तक यह भर्तियां सरकार ने पूर्णत अपने जिम्मे नहीं ली है। ऐसी प्रणाली से योग्यता होने के बावजूद गरीबों और ईमानदार का प्रोफेसर बनने का सपना संघर्ष और भ्रष्टाचार में दब जाता है।

देश के आर्थिक रूप से सक्षम कुछ निजी शिक्षा संस्थानों की हालत संतोषजनक है, परंतु अधिकतम निजी शिक्षा संस्थानों में शायद सबसे ज्यादा शिक्षित शिक्षक सबसे कम वेतन में काम करते है। बहुत से निजी स्कूल, महाविद्यालय में शिक्षक एक दिहाड़ी मजदुर से भी कम वेतन मेहनताना पाता है, साथ ही एक पद पर कार्य करते हुए संस्थान के अन्य कार्य भी उन्हें जबरदस्ती करने होते है। इस क्षेत्र में बेरोजगारी का आलम भी सर्वोच्च है। आज के महंगाई के समय में ढाई-तीन हजार रुपये माह का वेतन कोई मायने नहीं रखता, फिर भी बड़ी संख्या में शिक्षक इस वेतन में भी कार्य कर रहे है, ये बड़े ही शर्म और दुःख की बात है हमारे लिए। अनेक शिक्षा संस्थानों में संस्थानों के मालिक शिक्षकों से गैर व्यवहार करते है, अपने निजी कार्य में शिक्षकों को व्यस्त करते है। अनेक संस्थानों में तो महीनों-सालों तक शिक्षकों का वेतन बकाया रखा जाता है, तो कहीं जगह पदोन्नति रोकी जाती है, मानसिक यातनाएं भी दी जाती है, इसलिए शिक्षकों में आत्महत्याओं की घटनाएं भी बहुत हो रही है।

शिक्षा जगत में छात्रों का भी अब नया रूप देखने मिल रहा है, छोटे-छोटे बच्चे भी अपने स्कूली बैग में अवांछित वस्तुएँ लेकर घूमते मिलते है, जिसमे घातक हथियार भी होते है। पहले शिक्षक छात्रों को गलती पर पीट देते थे तो भी अभिभावक कुछ ख़ास ऐतराज नहीं करते थे, अब छात्रों को शिक्षकों द्वारा गलती पर मारना तो दूर डांटना भी गुनाह जैसा महसूस होता है, कुछ माह पूर्व पंजाब, हरियाणा में स्कूली छात्रों ने अपने प्रधानाचार्य को चाकू घोप कर मार दिया। अब छात्र भी शिक्षा संस्थानों में अपने शिक्षकों को धमकाने की घटनाएं उजागर हो रही है। हमारे देश में वैसे ही नाबालिग अपराधियों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, अभिभावक व्यस्तता दर्शाते है, शिक्षक व्यावसायिक होते जा रहे है, फिर देश की पीढ़ी तो अपराधों की दलदल में फसना लाजमी है। महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने राज्यसभा में दी गई जानकारी अनुसार, साल 2022 के आंकड़ों द्वारा पता चलता है कि, नाबालिग अपराधियों में महाराष्ट्र राज्य देश में अव्वल स्थान पर है, फिर इसके बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु राज्य का नंबर आता है।

लोग कहते है कि सरकारी स्कूलों की हालत खराब है, जबकि वहां शिक्षकों का वेतन भरपूर है, दूसरी ओर देश के अधिकतर निजी संस्थानों में शिक्षकों का वेतन बेहद कम है, तो फिर ऐसी स्थिति में देश की शिक्षा प्रणाली मजबूत कैसे बनेगी? शैक्षणिक गुणवत्ता का स्तर कैसे बढ़ेगा? निजी संस्थानों में क्या छोटी सी तनख्वाह में शिक्षक पूरे जी-जान से देश का उज्वल भविष्य को बना सकता है, जबकि खुद उस शिक्षक का वर्तमान अंधकारमय है। देश में अधिकतर जगह यही स्थिति है, यह सब देखते हुए क्या सच में आज का शिक्षक देश के पीढ़ी का उज्वल भविष्य का शिल्पकार कहलाने योग्य भूमिका में है। केन्द्रीय विद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, एम्स जैसे शिक्षा संस्थान हर गाँव, हर शहर की जरुरत है, प्रत्येक विद्यार्थी को बिना आर्थिक भेदभाव के समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मौका मिलना चाहिए।

बिहार के निजी कोचिंग सेंटर के मशहूर शिक्षक खान सर ने हाल ही में अपने एक मुलाखत में बताया था, कि देश में सरकारी शिक्षा प्रणाली बेहद ख़राब स्थिति से गुजर रही है।इसका सबूत यह है कि निजी कोचिंग सेंटर छात्रों से भरे होते है। शिक्षा हेतु छात्रों की निर्भरता निजी कोचिंग सेंटर पर बेहद बढ़ रही है। कहने को तो सब छात्रों के पास शायद नाममात्र की डिग्री आ भी जाएं, लेकिन छात्रों का सर्वांगीण विकास अपने लक्ष्य से कोसों दूर रहेगा। जीवन का सबसे बड़ा कार्यकाल तन मन धन के साथ हम शिक्षा में खर्च करते है, अगर वो शिक्षा हमें बेहतर जीवनमान का स्तर उपलब्ध कराने में योग्य साबित होती है तो वह सही है, वरना जीवन एक संघर्ष बनकर रह जाता है। शिक्षक जब तक समाज सुधारक की भूमिका में अपने कार्य को नहीं समझेंगे तब तक देश के उज्वल भविष्य पर सवाल उठते रहेंगे।

लेखक – डॉ. प्रितम भि. गेडाम

शिक्षक दिवस विशेष ,बेसिक शिक्षा में गुरू जी को क्लर्क मत बनाइए

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अशोक मधुप

उत्तर प्रदेश के  बेसिक शिक्षा विभाग में गुरू जी को क्लर्क बनाने का अभियान चल रहा है। इसे रोका जाना  चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ  जी को इसमें दख्ल देना चाहिए। गुरू  की गरिमा बचाने के लिए उन्हें आगे आना चाहिए।नहीं रोका गया तो प्रदेश की बेसिक शिक्षा को पतन की ओर जाने से नही रोका  जा सकेगा।

गुरूजी का पद समाज में सम्मान का पद है। गुरू जी शिक्षा की महत्वपूर्ण  कड़ी हैं। वह बच्चों को शिक्षा  देने के साथ आदर्श, नैतिकता, मानवता के गुण विकसित करते हैं।इसीलिए गुरू को गोविंद से बड़ा दर्जा दिया गया है।दोहा है− गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाएं,  बलिहारी गुरू  आपने , गोविंद दियो बताए।  गुरू सम्मान और गुरू  परंपरा का पतन  महाभारत काल से होना  शुरू  हुआ। जब गुरू राज दरबारी होने लगे।  बाद में मुस्लिम काल और ब्रिटिश काल में उनकी जीविका की जिम्मेदारी सरकार  ने संभाल ली।  जो  उन्हें अधोनत  करती चली गई। इसके बावजूद समाज में आज भी गुरू जी का बड़ा सम्मान है। आदर है।आज की पीढ़ी भी अपने गुरू के चरण स्पर्श करते देखी जा सकती है। हालाकि समाज के पतन का असर सब क्षेत्र में आया है।  इससे गुरू जी बचे रहें, यह कहना गलत होगा,  फिर भी यहां अभी   बहुत धर−भर है ।

पिछले कुछ साल से देखा जा रहा है कि निरीक्षण  पर आने वाले विभागीय  और प्रशासनिक अधिकारी बच्चों के सामने शिक्षकों का  अपमान करते नहीं  चूकते। छात्रों के सामने उनसे उल्टे− सीधे प्रश्न पूछते हैं।  न बताने पर छात्रों के सामने उन्हें अपमानित करते हैं।सोचिए अपने  सामने डांट और अपमानित हुए शिक्षक को   उनके छात्र  कैसे सम्मान देंगेॽशिक्षको से  अलग बुलाकर भी तो पूछताछ हो सकती है।वेसे भी निरीक्षण में आए  अधिकारियों को समझना चाहिए कि अब शिक्षक योग्यता के बल पर रखे जा रहे हैं। मैरिट पर उनका चयन हो रहा है।    उनका सम्मान बनाये रखने की सबकी जिम्मेदारी है।

बेसिक शिक्षा को सुधारने की बात चलती है। बच्चों को स्कूल लाने के लिए मिड डे मील, छात्रवृति और ड्रेस आदि देकर उन्हें स्कूल लाने  की बात की जा रही है।इनसे बच्चे स्कूल नही आएंगे।  आएंगे तो  सिर्फ परिषदीय स्कूलों में शिक्षा का माहौल बनाने से।माहौल बनाने पर कोई ध्यान नही दे रहा।  शिक्षक को कामचोर, बेइमान , नाकारा बताने और अपमानित करने का काम हो रहा है। यदि शिक्षा को बेसिक शिक्षा को सुधारना  होगा, तो  गुरू का सम्मान बहाल करना पड़ेगा।

आज स्थिति यह है कि परिषदीय  शिक्षक से पढ़ाई  कम कराई जारही है,उससे  पढ़ाई  से  ईतर ज्यादा कार्य लिए जा रहे हैं।जनगणना में शिक्षकों की डयूटी लगाई  जाती है।पल्स पोलियो अभियान को कामयाब बनाने घरों से बच्चे बूथ तक बुलाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी जाती है।  वोटर लिस्ट बनाने,  उनके संशोधन और प्रदर्शन और चुनाव में   शिक्षकों की डयूटी  लगाई जाती है।  एक शिक्षक ने अपना  नाम न छापने की शर्त पर बताया कि पिछले डेढ़ साल से डीबीटी के काम में उलझे हुए हैं।इसमें  प्रत्येक छात्र की सूचनांए  संकलित करनी होती हैं ।इसके लिए छात्र के  अभिभावकों के आधार नंबर तथा अकाउंट नंबर से आधार और मोबाइल का लिंक होना जरूरी है।गांव के लोग त्रुटिपूर्ण आधार बनवाए हुए हैं ।इनके करेक्शन के लिए अभिभावकों को बैंक या ब्लॉक कार्यालय भेजना शिक्षक के काम में शामिल हो गया  है।अभिभावक प्रायः अपनी दिहाड़ी छोड़कर  नहीं जाते। अभिभावकों के आधार कार्ड ठीक कराने के लिए  शिक्षकों  पर दबाव बनाया जाता है। अक्सर शिक्षक अपनी जेब से किराया खर्च करके उन्हें आधार कार्ड ठीक कराने भेजते हैं ।ऐप ठीक से काम नहीं करता और शिक्षक परेशान होते रहते हैं।इसके अलावा कोरोना काल में जब स्कूल बंद थे तो उन दिनों के कन्वर्जन कॉस्ट का भुगतान करने के लिए एक −एक बच्चे के बैंक खाते आईएफएससी कोड आदि की डिटेल बनाकर बैंक में भेजनी पड़ती है।उन दिनों के मिड डे मील के खाद्यान का कैलकुलेशन करना पड़ता था कि कौन बच्चा कितने दिन विद्यालय में रहा। उतने ही किलोग्राम चावल और गेहूं की क्वांटिटी तैयार करके राशन डीलर को देनी होती है । सरकार द्वारा दिए गए एक राशन वितरण प्रपत्र पर 10−12 तरह की डिटेल्स प्रत्येक बच्चे की भरकर उन्हें देनी होती है। इसे दिखाकर वह राशन प्राप्त करते हैं।विद्यालय की पुताई कराना, पाठ्य पुस्तकें बीआरसी से या न्याय पंचायत केंद्र से उठाकर लाना  उनकी डयूटी में शामिल हो गया है।रोजाना तरह− तरह की सूचनाएं विभाग द्वारा मांगी जाती हैं, वह तैयार करके भेजनी होती हैं।सड़क सुरक्षा सप्ताह हो या संचारी रोग पखवाड़ा, जल संरक्षण हो या भूमि संरक्षण ,टीवी के मरीज को गोली लेना हो या कितने अभिभावकों ने कोविड-19 की वैकसीन लगवाई, यह डाटा पता करना सब शिक्षक के जिम्मे है।बच्चों को लंबे समय से आयरन और अल्बेंडाजोल की गोली खिलाई जारही हैं। फिर  भी गोली खिलाने के  लिए एक दिन का प्रशिक्षण उन्हें बदस्तूर हर साल दिया जाता है।अभी  प्रतापगढ़ के डीएम ने आदेश किया है कि गांव के टीबी मरीजों को उपचार होने तक परीषदीय शिक्षक उन्हें गोद लेंगे।डीएम का आदेश  है।अब टीचर क्या −क्या करेॽ

होना यह चाहिए कि गैर शिक्षेतर कार्य के लिए संविदा पर व्यक्ति रखें जाए।  उनसे कार्य लिया जाए।इससे बहुत से बेरोजगार युवाओं को रोजगार मिलेगा, उधर शिक्षक सब चीजों से मुक्त होकर बच्चों को पढ़ाने के कार्य में लगेंगे।  इससे इन विद्यालयों में शिक्षा का माहौल  बन सकेगा।    उत्तर प्रदेश के स्कूल शिक्षा महानिदेशक विजय किरन आनंद का एक आदेश सोशल मीडिया पर चल रहा है। इसमें इन्होंने जिला बेसिक शिक्षाधिकारियों से कहा है कि  मानिटरिंग से पता चलता है कि परिषदीय स्कूल के शिक्षक अवकाश नही ले रहे।इससे  लगता है कि आप उनकी उपस्थिति की सही से जांच नही कर रहे।यह स्वीकारीय   नही है।आपको निर्देशित किया जाता है कि आप क्षेत्र के विद्यालयों का नियमित निरीक्षण करें।स्कूल से गैर हाजिर शिक्षकों की अनुपस्थिति  लगांए।

अब इन महानिदेशक महोदय को कौन समझाए कि शिक्षक को साल में 14 आकस्मिक अवकाश मिलते हैं। उन्हें वह आड़े सयम  के लिए संभाल कर रखता है। मजबूरी में ही ये अवकाश लिए जाते हैं।छोटी −मोटी बीमारी में भी वह डयूटी पर जातें हैं।  गैर हाजरी लगने के डर से भयंकर  बारिश भी उन्हें नही रोकती।

जब तक बेसिक शिक्षा में  उच्च पद पर बैठे अधिकारी सही स्थिति नही समझेंगे,  हालात में सुधार होने वाला  नही हैं। गुरू को क्लर्क बनाने से काम नही चलेगा। अधिकारियों को उसका सम्मान कराना सिखाना होगा।

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं)

“किताबों से स्क्रीन तक: बदलते समय में गुरु का असली अर्थ”

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*शिक्षक दिवस विशेष

(ज्ञान के साथ संस्कार और संवेदनशीलता ही शिक्षक की सबसे बड़ी पहचान है) 

डिजिटल युग में शिक्षा का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। किताब से लेकर स्क्रीन तक की यह यात्रा ज्ञान तो दे रही है, लेकिन संस्कार और मानवीय मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं। ऐसे समय में शिक्षक का महत्व और भी बढ़ जाता है। शिक्षक ही वह पुल हैं जो बच्चों को वर्तमान से जोड़कर सुरक्षित भविष्य तक पहुँचाते हैं। मशीनें जानकारी दे सकती हैं, परंतु संवेदनशीलता और चरित्र निर्माण केवल गुरु ही कर सकता है। इस शिक्षक दिवस पर संकल्प यही हो कि तकनीक की दौड़ में संस्कारों की नदियाँ कभी सूखने न पाएं।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

शिक्षक दिवस केवल एक औपचारिक अवसर नहीं है, बल्कि यह समाज और राष्ट्र की आत्मा को समझने का दिन है। जब भी हम गुरु या शिक्षक का नाम लेते हैं तो हमारे मन में एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है, जो केवल पढ़ाने वाला नहीं बल्कि जीवन को दिशा देने वाला होता है। भारतीय संस्कृति में शिक्षक को ‘आचार्य’ कहा गया है, जिसका अर्थ है आचरण से शिक्षा देने वाला। इसी दृष्टि से देखा जाए तो आज के दौर में शिक्षकों की जिम्मेदारी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है, क्योंकि यह वह समय है जब तकनीक और स्क्रीन बच्चों की सोच और संवेदनाओं को प्रभावित कर रही है।

आज से कुछ दशक पहले शिक्षा का स्वरूप केवल पुस्तकों, कक्षा और संवाद तक सीमित था। विद्यार्थी शिक्षक की बातों को ध्यानपूर्वक सुनते थे और वही बातें उनके जीवन का आधार बनती थीं। लेकिन डिजिटल क्रांति ने इस परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है। मोबाइल फोन, इंटरनेट और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के बढ़ते प्रभाव ने विद्यार्थियों के लिए अनगिनत अवसर तो खोले हैं, परंतु इसके साथ ही कई चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। जानकारी का महासागर अब हर बच्चे की उंगलियों पर उपलब्ध है, परंतु उसी महासागर में गलत जानकारी, भ्रामक सामग्री और असीमित मनोरंजन का जाल भी बिछा है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस विशाल और असंतुलित सूचना-संसार में बच्चों को सही मार्ग कौन दिखाएगा? इसका उत्तर है – शिक्षक।

शिक्षक की भूमिका अब केवल पाठ्यपुस्तक तक सीमित नहीं रह गई है। वह एक मार्गदर्शक, मूल्यनिर्माता और व्यक्तित्व निर्माता है। जब बच्चा मोबाइल पर स्क्रीन की दुनिया में खोया रहता है, तब शिक्षक का दायित्व है कि वह उसे वास्तविक जीवन की चुनौतियों से परिचित कराए। शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री पाना या नौकरी करना नहीं होना चाहिए, बल्कि यह भी होना चाहिए कि बच्चा समाज का जिम्मेदार नागरिक बने, उसमें करुणा, संवेदनशीलता और विवेक विकसित हो।

शिक्षक ही वह कड़ी है जो घर और समाज के बीच संतुलन कायम करता है। घर बच्चे को प्यार और संस्कार देता है, लेकिन उन्हें स्थायी बनाने का काम शिक्षक करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को केवल गणित या विज्ञान नहीं पढ़ाता, बल्कि यह भी सिखाता है कि कठिनाइयों का सामना कैसे करना है, असफलताओं से कैसे सीखना है और जीवन में ईमानदारी तथा सत्य का महत्व क्या है।

आज की शिक्षा प्रणाली पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इसमें प्रतिस्पर्धा और अंकों की दौड़ हावी हो गई है। बच्चे अधिक अंक लाने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, अभिभावक भी उन्हें उसी दिशा में धकेलते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में मानवीय मूल्यों की नींव कमजोर हो रही है। यही कारण है कि समाज में आत्मकेंद्रित प्रवृत्तियाँ, नैतिक पतन और संवेदनहीनता बढ़ रही है। इस कमी को दूर करने वाला कोई है तो वह शिक्षक ही है। शिक्षक यदि चाहे तो बच्चों में सहयोग, सेवा, सहानुभूति और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना विकसित कर सकता है।

स्क्रीन का प्रभाव इतना गहरा हो गया है कि बच्चे वास्तविक संवाद से दूर होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर वे हजारों मित्र बना लेते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। इस स्थिति से बाहर निकालने का काम केवल शिक्षक कर सकता है। कक्षा में जब शिक्षक बच्चों से संवाद करता है, तो वह केवल पढ़ाने का कार्य नहीं करता, बल्कि बच्चों की भावनाओं को भी छूता है। एक सच्चा शिक्षक वही है जो विद्यार्थियों को यह महसूस कराए कि वे महत्वपूर्ण हैं, उनकी समस्याएँ सुनी जाती हैं और उनका मार्गदर्शन किया जाएगा।

शिक्षक का महत्व केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं है। राष्ट्रनिर्माण में शिक्षक की भूमिका अत्यंत निर्णायक होती है। यह कहावत बार-बार दोहराई जाती है कि किसी देश का भविष्य उसके कक्षाओं में गढ़ा जाता है। यह कथन केवल आदर्श नहीं है, बल्कि कठोर सत्य है। यदि कक्षाओं में अच्छे शिक्षक होंगे, जो बच्चों को नैतिकता, ज्ञान और आत्मविश्वास से भरेंगे, तो वही बच्चे आगे चलकर अच्छे नागरिक, नेता, वैज्ञानिक और प्रशासक बनेंगे। लेकिन यदि शिक्षक केवल परीक्षा पास कराने तक सीमित रह गया, तो समाज का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।

आज आवश्यकता है कि शिक्षक स्वयं को भी समयानुकूल बनाएं। तकनीक से भागना समाधान नहीं है, बल्कि उसे सकारात्मक ढंग से अपनाना जरूरी है। शिक्षक यदि चाहे तो स्क्रीन और डिजिटल माध्यमों को शिक्षा के सहयोगी बना सकता है। ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, शैक्षिक वीडियो, वर्चुअल प्रयोगशालाएँ और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी तकनीकें बच्चों की जिज्ञासा को बढ़ा सकती हैं। लेकिन इन सबके बीच मानवीय संवाद की जगह कोई नहीं ले सकता। मशीनें ज्ञान दे सकती हैं, परंतु संस्कार और संवेदनशीलता केवल शिक्षक ही दे सकता है।

शिक्षक दिवस पर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शिक्षक का सम्मान केवल औपचारिक कार्यक्रमों तक सीमित न रहे। यह सम्मान तभी सार्थक होगा जब हम उन्हें उचित सुविधाएँ, प्रशिक्षण और प्रेरणादायक वातावरण दें। आज भी कई शिक्षक सीमित संसाधनों में चमत्कार कर रहे हैं। वे अपने विद्यार्थियों के लिए अतिरिक्त समय निकालते हैं, नई विधियाँ खोजते हैं और बच्चों के जीवन को संवारते हैं। ऐसे शिक्षकों को न केवल प्रणाम करना चाहिए, बल्कि उनकी मेहनत को राष्ट्र की सबसे बड़ी संपत्ति मानना चाहिए।

महान दार्शनिक और शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि शिक्षक ही समाज की आत्मा होते हैं। उनकी शिक्षाएँ पीढ़ियों को प्रभावित करती हैं और उनके व्यक्तित्व से आने वाली रोशनी दूर-दूर तक फैलती है। आज जब हम शिक्षक दिवस मना रहे हैं, तो हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने शिक्षकों का सम्मान करेंगे, उनकी भूमिका को और सशक्त बनाएंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि आने वाली पीढ़ियाँ केवल जानकारी ही नहीं, बल्कि विवेक, संवेदनशीलता और संस्कार भी हासिल करें।

अंततः, स्क्रीन और तकनीक की इस तेज़ रफ्तार दुनिया में शिक्षक ही वह संतुलन हैं, जो ज्ञान और संस्कार की नदियों को सूखने नहीं देंगे। वे ही वह पुल हैं जो बच्चे को आज से जोड़कर भविष्य तक पहुँचाते हैं। इसलिए इस अवसर पर हमें केवल शिक्षक का सम्मान ही नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके संदेश को जीवन में उतारना भी चाहिए। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी उस गुरु परंपरा को, जिसने हमें सिखाया है कि शिक्षा केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि जीवन को सार्थक और समाज को उज्ज्वल बनाने का माध्यम है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर

“नेताओं को सब, कर्मचारियों को कब?”

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“जनता और कर्मचारियों की एक पेंशन ही जीवनभर का सहारा, पर नेताओं के लिए अनेक पेंशन और असीमित सुविधाएँ – यही है लोकतंत्र की असली विसंगति।”

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विधायक या सांसद एक दिन के लिए भी सदन में बैठ जाए तो उसकी पेंशन पक्की। वहीं एक सरकारी कर्मचारी अगर एक दिन कम सेवा पूरी करता है तो उसकी पेंशन ही कट सकती है। संविधान की यही विसंगति नेताओं को “सुपर क्लास” बना देती है। जनता टैक्स चुकाती है, सरकारी खज़ाना भरती है, और उसी पैसे से नेताओं की आलीशान रिटायरमेंट ज़िंदगी चलती है।

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-डॉ. सत्यवान सौरभ

स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, कवि

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जनता सर्वोपरि मानी जाती है। संविधान में समानता, न्याय और समान अवसर की बात कही गई है। लेकिन जब बात नेताओं और आम जनता की सुविधाओं की आती है तो तस्वीर बिल्कुल उलट दिखती है। जिस देश में करोड़ों लोग बुढ़ापे की लाठी के तौर पर केवल एक मामूली सी पेंशन पर निर्भर हैं, वहां नेताओं के लिए पेंशन और सुविधाओं की भरमार है। स

वाल उठता है कि आखिर लोकतंत्र में यह असमानता क्यों?

बार-बार पेंशन, सुविधा पर सुविधा, यात्रा भत्ता, सुरक्षा, मेडिकल, स्टाफ़ और आवास—all free. दूसरी ओर, कर्मचारी चाहे 35–40 साल तक ईमानदारी से काम करे, रिटायरमेंट के बाद पेंशन का इंतज़ार करता है और अक्सर अदालतों व आंदोलन का सहारा लेना पड़ता है।

मान लीजिए एक आम कर्मचारी 35 साल नौकरी करता है। सेवा पूरी होने के बाद उसे मुश्किल से इतनी पेंशन मिलती है कि घर का राशन-पानी चल सके। महँगाई, दवाइयों और बच्चों की ज़िम्मेदारी के बीच वह पेंशन अपर्याप्त साबित होती है। अब ज़रा नेताओं का हाल देखिए—उपराष्ट्रपति की पेंशन ₹2.25 लाख मासिक, सांसद की पेंशन ₹27,500 मासिक और विधायक की पेंशन ₹42,000 मासिक। यानी एक ही व्यक्ति अगर अलग-अलग पदों पर रहा है तो उसे तीन-तीन पेंशन मिलेगी। और यह यहीं नहीं रुकती। उसे जीवनभर सरकारी गाड़ी, स्टाफ़, सुरक्षा, हवाई और रेल यात्रा पर छूट, मेडिकल का पूरा ख़र्च और न जाने क्या-क्या मुफ्त मिलता रहता है।

कर्मचारी वर्ग को देखिए—महँगाई राहत का हिसाब सालों तक लटकता है, पेंशन रिवीजन की माँग दशकों तक पूरी नहीं होती। दो-दो वेतन आयोग आ चुके हैं, फिर भी पेंशन सुधार की फ़ाइल धूल खा रही है।

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि विधायक या सांसद एक दिन के लिए भी सदन में बैठ जाए तो उसकी पेंशन पक्की। वहीं एक सरकारी कर्मचारी अगर एक दिन कम सेवा पूरी करता है तो उसकी पेंशन ही कट सकती है। संविधान की यही विसंगति नेताओं को “सुपर क्लास” बना देती है। जनता टैक्स चुकाती है, सरकारी खज़ाना भरती है, और उसी पैसे से नेताओं की आलीशान रिटायरमेंट ज़िंदगी चलती है।

अगर हम नैतिकता की बात करें तो किसी भी संवैधानिक पद या जनप्रतिनिधि को एक ही पेंशन मिलनी चाहिए। पूर्व उपराष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री या पूर्व सांसद—सबको एक पेंशन। लेकिन आज हालत यह है कि वही नेता कई पेंशन ले रहा है और आम जनता एक पेंशन के लिए तरस रही है। नैतिक दृष्टि से देखें तो जब आम आदमी को एक ही पेंशन पर जीवन बिताना पड़ता है तो नेताओं को क्यों विशेषाधिकार मिले? यह सीधी-सीधी असमानता है और लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है।

वास्तविकता यह है कि यह मुद्दा केवल पेंशन का नहीं, बल्कि राजनीति की लूट का है। नेता जानते हैं कि जनता स्मृति-विलोप की शिकार है। जनता को आज गुस्सा आता है लेकिन कल भूल जाती है। इसी भूलने की आदत पर भरोसा करके नेता कभी अपने भत्ते बढ़ाते हैं, कभी सुविधाएँ जोड़ते हैं और कभी पेंशन के नए नियम बना लेते हैं। दूसरी तरफ़, कर्मचारियों और पेंशनरों को हर सुविधा के लिए संघर्ष करना पड़ता है। धरना, प्रदर्शन, ज्ञापन और याचिका—फिर भी सुनवाई नहीं होती।

लोकतंत्र में नेता जनता के सेवक माने जाते हैं। लेकिन आज की सच्चाई यह है कि नेता सेवक कम और शासक ज़्यादा बन गए हैं। उन्हें अपने लिए हर सुविधा चाहिए, चाहे जनता पर कितना भी बोझ क्यों न पड़े। जनता टैक्स देती है इस उम्मीद में कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और आधारभूत ढाँचे में सुधार होगा। लेकिन टैक्स का बड़ा हिस्सा नेताओं की पेंशन और सुविधाओं पर खर्च हो रहा है।

इस स्थिति को बदलने के लिए ज़रूरी है कि एक पद, एक पेंशन का नियम लागू हो। जिस तरह सैनिकों और कर्मचारियों पर यह नियम लागू है, उसी तरह नेताओं पर भी होना चाहिए। किसी भी पदाधिकारी की पेंशन एक निश्चित सीमा से अधिक न हो। रिटायरमेंट के बाद हवाई यात्रा, मेडिकल, गाड़ी और स्टाफ़ जैसी मुफ्त सुविधाएँ बंद की जाएँ। जनप्रतिनिधियों की पेंशन की समीक्षा संसद और विधानसभाओं के बाहर एक स्वतंत्र आयोग से हो। सबसे अहम बात यह कि जनता को जागरूक किया जाए ताकि यह मुद्दा हर चुनाव में उठे और राजनीतिक दलों को इसे अपने घोषणा पत्र में शामिल करना पड़े।

भारत में पेंशन का यह दोहरा मानदंड लोकतंत्र की आत्मा को आहत करता है। एक ओर जनता और कर्मचारी वर्ग अपनी बुढ़ापे की सुरक्षा के लिए संघर्षरत हैं, वहीं नेता टैक्स के पैसों पर ऐश कर रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि देश में “एक पद, एक पेंशन” का नियम बने। नेता भी वही पेंशन लें जो एक आम नागरिक लेता है। लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा जब जनता और नेताओं के बीच बराबरी का भाव होगा, न कि विशेषाधिकार का फर्क।

आज देश के युवाओं, कर्मचारियों और पेंशनरों को एक स्वर में यह सवाल पूछना चाहिए—“जब हमें एक पेंशन काफ़ी है तो नेताओं को कई पेंशन क्यों?”

भारत में नेताओं को अनेक पेंशन और असीमित सुविधाएँ प्राप्त हैं, चाहे वे एक दिन ही सदन में बैठे हों। वहीं करोड़ों कर्मचारी दशकों तक सेवा करने के बाद भी पेंशन के लिए तरसते हैं। दो-दो वेतन आयोग आने के बावजूद वर्षों से पेंशन संशोधन लंबित है। आम नागरिक एक पेंशन पर जीवन यापन करता है, जबकि नेता तीन-तीन पेंशन और मुफ्त सुविधाओं का उपभोग करते हैं। लोकतंत्र की आत्मा यही कहती है कि सबके लिए नियम समान हों। अब समय आ गया है कि “एक पद, एक पेंशन” का सिद्धांत नेताओं पर भी लागू हो।