प्रोफेसर हरगोबिंद खुराना

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जन्म 9 जनवरी, 1922 ( रायपुर, पंजाब, ब्रिटिश भारत ) – मृत्यु 9 दिसंबर, 2011 (कॉनकॉर्ड, मैसाचुसेट्स, संयुक्त राज्य अमेरिका)

खुराना उन पहले वैज्ञानिकों में से एक थे जिन्होंने प्रोटीन संश्लेषण में न्यूक्लियोटाइड्स की भूमिका को प्रदर्शित किया और आनुवंशिक कोड को समझने में मदद की। उन्होंने कृत्रिम जीन के विशिष्ट रूप से डिज़ाइन किए गए टुकड़ों और विधियों को विकसित करने में भी मदद की, जिनसे पॉलीमरेज़ चेन रिएक्शन (पीसीआर) प्रक्रिया का आविष्कार हुआ, जो एक जैव रासायनिक तकनीक है जिसका उपयोग डीएनए के एक टुकड़े की एक या कुछ प्रतियों को प्रवर्धित करने के लिए किया जाता है।

1960 के दशक के अंत में, विस्कॉन्सिन-मैडिसन स्थित अपनी प्रयोगशाला में काम करते हुए हर गोबिंद खुराना। (फोटो साभार: विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय)

परिवार

हर गोबिंद खुराना पाँच बच्चों, एक लड़की और चार लड़कों, में सबसे छोटे थे। उनके माता-पिता हिंदू थे और रायपुर में रहते थे, जो 100 लोगों की आबादी वाला एक छोटा सा गाँव है, जो पंजाब में स्थित है, ब्रिटिश भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान को आवंटित एक क्षेत्र। यहीं खुराना का जन्म हुआ था। खुराना के पिता, गणपत राय, एक पटवाई (गाँव के कृषि कराधान क्लर्क) थे, जो ब्रिटिश भारत सरकार के लिए काम करते थे।

बहुत गरीब होते हुए भी खुराना के पिता ने अपने बच्चों को उच्चतम स्तर की शिक्षा देने का प्रयास किया। उन्होंने न केवल उन्हें पढ़ना सिखाया, बल्कि गाँव में एक कमरे का स्कूल भी स्थापित किया। परिणामस्वरूप खुराना और उनके भाई-बहन गाँव के मुट्ठी भर साक्षर लोगों में से थे। बचपन में खुराना हर सुबह जल्दी उठकर घर में खाना पकाने के लिए अंगारे की तलाश करते थे।

1952 में खुराना ने स्विस महिला एस्तेर एलिजाबेथ सिबलर से विवाह किया, जिनसे उनकी मुलाकात 1947 में प्राग की यात्रा के दौरान हुई थी। खुराना एस्तेर द्वारा अपने जीवन में लाई गई स्थिरता को बहुत महत्व देते थे, क्योंकि उन्होंने पिछले 6 साल अपने परिवार और गृह देश से दूर रहकर बिताए थे। एस्तेर ने उन्हें पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से परिचित कराया, जिसके प्रति उनमें जुनून पैदा हो गया और उनका घर चित्रों और विज्ञान, कला और दर्शन पर कई पुस्तकों से भरा था। खुराना की प्रकृति में भी गहरी रुचि थी और वे नियमित रूप से लंबी पैदल यात्रा और तैराकी के लिए जाते थे। अक्सर वे वैज्ञानिक समस्याओं पर विचार करने के लिए लंबी सैर के एकांत का उपयोग करते थे। उनके और एस्तेर के तीन बच्चे थे: जूलिया एलिजाबेथ (जन्म 1953), एमिली ऐनी (जन्म 1954; मृत्यु 1979) और डेव रॉय (जन्म 1958)।

शिक्षा

खुराना ने अपने पहले चार साल की शिक्षा एक गांव के शिक्षक से एक पेड़ के नीचे बैठकर प्राप्त की। इसके बाद खुराना ने मुल्तान (अब पश्चिमी पंजाब) के पास के शहर डीएवी हाई स्कूल में दाखिला लिया और फिर लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य और रसायन विज्ञान का अध्ययन करने के लिए आवेदन किया, जो पंजाब विश्वविद्यालय से संबद्ध था। अंततः उन्होंने रसायन विज्ञान का अध्ययन करने का निर्णय लिया और 1943 में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। दो साल बाद उन्होंने उसी संस्थान से मास्टर डिग्री पूरी की।

1945 में खुराना को इंग्लैंड में डॉक्टरेट करने के लिए भारत सरकार की फेलोशिप मिली, जिसका उपयोग उन्होंने कीटनाशकों और कवकनाशकों का अध्ययन करने के लिए करने का इरादा किया। हालांकि, वे लिवरपूल विश्वविद्यालय में रोजर जेएस बीयर की देखरेख में मेलेनिन के रसायन विज्ञान का अध्ययन करने लगे।

आजीविका

खुराना शुरू से ही विषयों की कठोर सीमाओं में नहीं बंधे रहे और उनका काम उन्हें रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान और भौतिकी के क्षेत्रों में ले जाना था। यह उनकी पीढ़ी के वैज्ञानिकों के लिए असामान्य था। जब भी वे कोई नया प्रोजेक्ट शुरू करते, खुराना दूसरी प्रयोगशालाओं में समय निकालते ताकि वे उस विचार को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक तकनीकों में निपुणता हासिल कर सकें।

अपनी डॉक्टरेट की पढ़ाई पूरी करते ही, जर्मन वैज्ञानिक साहित्य के महत्व को देखते हुए, खुराना ने फैसला किया कि उन्हें जर्मन भाषी देश में पोस्ट-डॉक्टरल शोध करने से लाभ होगा। इसके लिए उन्होंने 1948 और 1949 के बीच ज्यूरिख में स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (ETH) की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री प्रयोगशाला में 11 महीने बिताए, जहाँ उन्होंने व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ एल्कलॉइड रसायन विज्ञान पर शोध किया। खुराना प्रेलॉग द्वारा इस दौरान दिए गए दर्शन और कार्य नैतिकता को बहुत महत्व देते थे।

दुर्भाग्य से खुराना को अपनी स्विट्जरलैंड यात्रा बीच में ही छोड़नी पड़ी क्योंकि उनके पास कोई वजीफा नहीं था और उनकी बचत खत्म हो रही थी। इसके बाद, खुराना अपनी भारत सरकार की छात्रवृत्ति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पंजाब लौट आए। हालाँकि, ब्रिटिश भारत के हालिया विभाजन के कारण उत्पन्न उथल-पुथल के कारण उन्हें नौकरी ढूँढ़ने में कठिनाई हुई।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में फ़ेलोशिप का प्रस्ताव उनके काम आया। यह प्रस्ताव उन्हें कैम्ब्रिज स्थित वैज्ञानिक जी.डब्ल्यू. केनर की मदद से मिला, जिनसे उनकी मुलाक़ात ज्यूरिख में हुई थी। 1950 में, खुराना अपने जहाज़ के किराए के लिए अपने परिवार द्वारा जमा किए गए पैसों से इंग्लैंड लौट आए। अगले दो वर्षों तक खुराना ने अलेक्जेंडर टॉड के साथ मिलकर न्यूक्लिक अम्लों की रासायनिक संरचना को परिभाषित करने का प्रयास किया। कैम्ब्रिज में यह एक रोमांचक समय था क्योंकि उस समय फ्रेड सेंगर इंसुलिन, जो कि पहला अनुक्रमित प्रोटीन था, के अनुक्रमण की प्रक्रिया में थे, और मैक्स पेरुट्ज़ और जॉन केंड्रू मायोग्लोब्युलिन और हीमोग्लोबिन का पहला एक्स-रे कर रहे थे। इस काम ने खुराना को प्रोटीन और न्यूक्लिक अम्लों का अध्ययन शुरू करने के लिए प्रेरित किया।

1952 में, खुराना को वैंकूवर में एक नई गैर-शैक्षणिक अनुसंधान प्रयोगशाला शुरू करने के लिए एक पद की पेशकश की गई, जो टॉड द्वारा ब्रिटिश कोलंबिया अनुसंधान परिषद के प्रमुख गॉर्डन एम. श्रुम को की गई सिफारिश पर आधारित थी। वैंकूवर स्थित प्रयोगशाला में सुविधाओं का अभाव होने के बावजूद, खुराना को इस नौकरी से मिली आज़ादी का पूरा फ़ायदा था जिससे उन्हें अपना शोध जारी रखने में मदद मिली। उन्होंने जल्द ही फ़ॉस्फ़ेज एस्टर और न्यूक्लिक अम्लों पर शोध से संबंधित कई परियोजनाएँ शुरू कीं। इस काम के लिए उन्हें लघु ऑलिगोन्यूक्लियोटाइडों के संश्लेषण की विधियाँ विकसित करनी पड़ीं। इन तकनीकों के उनके प्रकाशन ने जल्द ही आर्थर कोर्नबर्ग और पॉल बर्ग जैसे प्रसिद्ध जैव रसायनज्ञों का ध्यान आकर्षित किया, जो उनसे सीखने और उनके अभिकर्मकों को प्राप्त करने के लिए उनसे मिलने के लिए उत्सुक थे।

1960 में खुराना विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय के एंजाइम संस्थान चले गए, जहाँ उन्होंने आनुवंशिक कोड और ट्रांसफर आरएनए जीन के रासायनिक संश्लेषण पर काम करना शुरू किया। इस दौरान उन्होंने और उनके सहयोगियों ने यह निर्धारित किया कि न्यूक्लिक अम्लों में न्यूक्लियोटाइड द्वारा प्रोटीन संश्लेषण कैसे नियंत्रित होता है। 1970 में खुराना मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी चले गए, जहाँ उन्होंने दृष्टि के कोशिका संकेतन मार्गों को नियंत्रित करने वाले आणविक तंत्र की जाँच शुरू की। 2007 में अपनी सेवानिवृत्ति तक उन्होंने इसी विषय पर काम किया।

उपलब्धियों

1968 में खुराना को कॉर्नेल विश्वविद्यालय के मार्शल डब्ल्यू. निरेनबर्ग और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के रॉबर्ट डब्ल्यू होली के साथ फिजियोलॉजी या मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार दिया गया। उन्हें यह पुरस्कार आनुवंशिक कोड और प्रोटीन संश्लेषण में इसके कार्य की व्याख्या के लिए दिया गया था। खुराना के कार्य ने निरेनबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि एक नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य इस बात से निर्धारित होते हैं कि डीएनए अणु की सर्पिल ‘सीढ़ी’ पर चार न्यूक्लियोटाइड कैसे व्यवस्थित होते हैं। उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि न्यूक्लियोटाइड कोड हमेशा तीन के समूहों में प्रसारित होता है, जिन्हें कोडॉन कहते हैं, और ये कोडॉन कोशिका को प्रोटीन का उत्पादन शुरू करने और रोकने का निर्देश देते हैं। खुराना जीन हेरफेर की संभावना को रेखांकित करने वाले पहले लोगों में से एक थे। उन्होंने यह कार्य किसी भी जीव के किसी भी व्यक्तिगत जीन का लक्षण-निर्धारण किए जाने से पहले किया था।

खुराना को सिंथेटिक डीएनए ऑलिगोन्युक्लियोराइड्स के निर्माण की तकनीक विकसित करने का श्रेय भी दिया जाता है, जिसने कृत्रिम जीन और डीएनए पोलीमरेज़ के लिए प्राइमर और टेम्प्लेट के निर्माण के लिए आधारशिला प्रदान की। इस कार्य ने पॉलीमरेज़ चेन रिएक्शन (पीसीआर) के विकास की नींव रखी, एक ऐसी तकनीक जो डीएनए के छोटे टुकड़ों को कुछ ही घंटों में अरबों प्रतियों में प्रवर्धित करने में सक्षम बनाती है।

1976 में खुराना और एमआईटी में उनके सहयोगियों ने एक जीवित कोशिका में कृत्रिम जीन का पहला संश्लेषण किया। जीन को रासायनिक रूप से संश्लेषित करने की उनकी विधि ने इस बात के नियंत्रित, व्यवस्थित अध्ययन को सुगम बनाने में मदद की कि आनुवंशिक संरचना कार्य को कैसे प्रभावित करती है।

अपने नोबेल पुरस्कार के साथ, खुराना को 1968 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से लुईसा ग्रॉस हॉरविट्ज़ पुरस्कार और बेसिक मेडिकल रिसर्च के लिए लास्कर फाउंडेशन पुरस्कार; 1974 में अमेरिकन केमिकल सोसाइटी के शिकागो अनुभाग का विलार्ड गिब्स पदक; और 1987 में रेटिना अनुसंधान में पॉल कैसर इंटरनेशनल अवार्ड ऑफ मेरिट। 2007 में विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय, भारत सरकार और इंडो-यूएस विज्ञान और प्रौद्योगिकी फोरम ने विश्वविद्यालय और भारतीय शोध संस्थानों के बीच छात्रों के आदान-प्रदान की सुविधा के लिए खुराना के सम्मान में खुराना कार्यक्रम की स्थापना की।

हेमा मालिनी: ड्रीम गर्ल

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16 अक्तूबर जन्म दिवस पर

​हेमा मालिनी: ‘ड्रीम गर्ल’ जिसने भारतीय सिनेमा को एक नया आयाम दिया
​भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ ही व्यक्तित्व ऐसे हैं जिन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा, अद्वितीय सुंदरता और दशकों तक चली शानदार यात्रा से दर्शकों के दिलों पर राज किया है। इन्हीं में से एक हैं हेमा मालिनी, जिन्हें प्यार से ‘ड्रीम गर्ल’ के नाम से जाना जाता है। एक सफल अभिनेत्री, प्रशिक्षित शास्त्रीय नृत्यांगना, फिल्म निर्देशक, निर्माता और सक्रिय राजनेता के रूप में, हेमा मालिनी ने भारतीय कला और सार्वजनिक जीवन के कई क्षेत्रों में अमिट छाप छोड़ी है।
​प्रारंभिक जीवन और अभिनय की शुरुआत
​हेमा मालिनी का जन्म 16 अक्टूबर, 1948 को अम्मानकुडी, मद्रास (अब चेन्नई), तमिलनाडु में हुआ था। एक तमिल भाषी परिवार में पली-बढ़ी, उन्हें बचपन से ही कला और संस्कृति का माहौल मिला। उनकी माँ, जया चक्रवर्ती, एक फिल्म निर्माता थीं, जिन्होंने उनकी कलात्मक यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
​अभिनय में आने से पहले, हेमा मालिनी ने भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी और ओडिसी जैसे शास्त्रीय नृत्यों में गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। नृत्य में उनकी महारत बाद में उनके फिल्मी करियर की एक पहचान बन गई।
​हेमा मालिनी ने 1960 के दशक के अंत में तमिल फिल्म ‘इधु साथियम’ (1962) में एक नर्तकी के रूप में अपनी शुरुआत की, लेकिन हिंदी सिनेमा में उनकी पहली बड़ी सफलता 1968 में आई। हिंदी फिल्म ‘सपनों का सौदागर’ में उन्होंने राज कपूर के साथ मुख्य भूमिका निभाई। यह फिल्म भले ही बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफल न हुई हो, लेकिन राज कपूर ने ही उन्हें ‘ड्रीम गर्ल’ का उपनाम दिया, जो हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया।
​भारतीय सिनेमा की ‘ड्रीम गर्ल’ का उदय
​1970 और 1980 का दशक हेमा मालिनी के करियर का स्वर्ण युग था। उन्होंने उस समय के लगभग सभी बड़े अभिनेताओं के साथ काम किया, जिनमें धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, देव आनंद और अमिताभ बच्चन शामिल थे।
​उनकी कुछ सबसे यादगार फिल्में हैं:

​सीता और गीता (1972): इस फिल्म में दोहरी भूमिका में उनके प्रदर्शन ने उन्हें फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिलाया।

​शोले (1975): बसंती के रूप में उनका चुलबुला और साहसी चरित्र आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित किरदारों में से एक है। फिल्म के संवाद “चल धन्नो!” भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं।

​किनारा (1977), खुशबू (1975) और महबूबा (1976): इन फिल्मों में उन्होंने गंभीर और भावनात्मक भूमिकाओं में अपनी अभिनय क्षमता का प्रदर्शन किया।

​ड्रीम गर्ल (1977): इस फिल्म ने उनके उपनाम को और भी लोकप्रिय बना दिया।

​उनकी ऑन-स्क्रीन केमिस्ट्री विशेष रूप से अभिनेता धर्मेंद्र के साथ काफी लोकप्रिय हुई, जिसके बाद 1980 में दोनों ने विवाह कर लिया।
​नृत्य और कला के प्रति समर्पण
​अभिनय के शिखर पर रहते हुए भी, हेमा मालिनी ने अपनी शास्त्रीय नृत्य कला को कभी नहीं छोड़ा। वह एक उत्कृष्ट नृत्यांगना बनी रहीं और देश-विदेश में नियमित रूप से प्रदर्शन करती रहीं। उन्होंने पौराणिक कथाओं और भारतीय संस्कृति पर आधारित कई नृत्य नाटिकाओं का निर्माण और निर्देशन भी किया है, जिनमें ‘दुर्गा’, ‘राधा रास बिहारी’, और ‘मीरा’ प्रमुख हैं। उनका कला के प्रति यह समर्पण उनकी बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाता है।
​राजनीतिक सफर
​2000 के दशक में, हेमा मालिनी ने फिल्मों से धीरे-धीरे हटकर राजनीति में कदम रखा। उन्होंने 2004 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में शामिल होकर सक्रिय रूप से राजनीति शुरू की। 2014 और 2019 में, वह उत्तर प्रदेश के मथुरा निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा सांसद चुनी गईं। एक राजनेता के रूप में, वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने के लिए लगातार काम कर रही हैं।
​पुरस्कार और सम्मान
​उनके कलात्मक योगदान के लिए, हेमा मालिनी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया है।

​पद्म श्री (2000): भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान।

​फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड (2000)।

​उन्हें विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ भी प्रदान की गई हैं।

​विरासत
​हेमा मालिनी की विरासत केवल बॉक्स ऑफिस सफलता या राजनीतिक प्रभाव तक सीमित नहीं है। उन्होंने भारतीय सिनेमा में महिला नायिकाओं के लिए एक उच्च मानक स्थापित किया। उनकी सुंदरता, प्रतिभा और कला के प्रति समर्पण ने उन्हें भारतीय कला और संस्कृति की एक जीवित किंवदंती बना दिया है। ‘ड्रीम गर्ल’ के रूप में, उन्होंने पीढ़ियों को प्रेरित किया है, और एक अभिनेत्री, नृत्यांगना और राजनेता के रूप में उनका प्रभाव भारतीय समाज पर हमेशा बना रहेगा।

​लच्छू महाराज: तबले के एक अप्रतिम सम्राट

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​भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में, कुछ ही नाम ऐसे हैं जो अपनी कला और विरासत से श्रोताओं के दिलों में हमेशा के लिए अमिट छाप छोड़ गए हैं। इन्हीं में से एक हैं महान तबला वादक, पंडित लच्छू महाराज। उनका जन्म 16 अक्टूबर, 1944 को बनारस (अब वाराणसी) के पवित्र शहर में हुआ, एक ऐसा शहर जो कला, संस्कृति और आध्यात्मिकता का एक समृद्ध केंद्र है। बनारस घराने की तबला परंपरा के एक उत्कृष्ट प्रतिपादक के रूप में, लच्छू महाराज ने अपने जीवन को तबला वादन को समर्पित किया और अपनी असाधारण प्रतिभा और अद्वितीय शैली के लिए व्यापक रूप से जाने गए।
​लच्छू महाराज का बचपन संगीत से भरे माहौल में बीता। उनका परिवार बनारस घराने के प्रमुख संगीतकारों और गुरुओं से जुड़ा था, जिसने उनकी कलात्मक यात्रा की नींव रखी। उन्होंने अपने पिता, वासुदेव महाराज से तबले की प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की, जो स्वयं एक प्रतिष्ठित तबला वादक थे। अपने पिता के मार्गदर्शन में, लच्छू महाराज ने तबले की जटिलताओं और बारीकियों को सीखा, और उनकी गहरी समझ ने उन्हें इस वाद्य यंत्र पर महारत हासिल करने में मदद की। उन्होंने कम उम्र में ही अपनी असाधारण क्षमता का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था, और यह स्पष्ट था कि वे एक असाधारण कलाकार बनने के लिए पैदा हुए थे।
​बनारस घराना, जिसकी जड़ें भगवान शिव के प्राचीन शहर में हैं, तबला वादन की अपनी अनूठी शैली और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यह घराना अपनी खुली हाथ की थाप, गमकदार बोल और जटिल लयबद्ध पैटर्न के लिए जाना जाता है। लच्छू महाराज ने इस परंपरा को पूरी तरह से आत्मसात किया और इसे अपनी रचनात्मकता और नवाचार के साथ समृद्ध किया। उनकी वादन शैली में शक्ति और सूक्ष्मता का एक अनूठा मिश्रण था, जो उनके प्रदर्शनों को एक विशेष चमक प्रदान करता था। वे अपनी उंगलियों की गति, ताल पर अपनी पकड़ और तालबद्ध विचारों की सहजता के लिए विख्यात थे, जो उन्हें अन्य तबला वादकों से अलग करता था।
​लच्छू महाराज ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के लगभग सभी प्रमुख कलाकारों के साथ प्रदर्शन किया। उनकी संगत न केवल तालबद्ध समर्थन थी, बल्कि यह मुख्य कलाकार के प्रदर्शन में एक महत्वपूर्ण आयाम जोड़ती थी। उन्होंने बड़े गुलाम अली खान, भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, बिरजू महाराज और रवि शंकर जैसे दिग्गजों के साथ मंच साझा किया। इन सहयोगों ने उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। उनकी संगत की क्षमता ऐसी थी कि वे न केवल ताल को बनाए रखते थे, बल्कि वे मुख्य कलाकार के साथ संवाद करते थे, उनके विचारों को समझते थे और अपने तबले के माध्यम से उन्हें एक नई दिशा देते थे।
​हालांकि लच्छू महाराज मुख्य रूप से शास्त्रीय संगीत से जुड़े थे, उन्होंने बॉलीवुड फिल्मों में भी काम किया और कई यादगार गीतों में अपने तबले का जादू बिखेरा। उन्होंने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ और ‘पाकीज़ा’ जैसी प्रतिष्ठित फिल्मों के संगीत में योगदान दिया, जिसने उन्हें व्यापक दर्शकों के बीच पहचान दिलाई। उनका फिल्मी योगदान उनकी बहुमुखी प्रतिभा और विभिन्न शैलियों के अनुकूल होने की उनकी क्षमता का प्रमाण था।
​अपने पूरे करियर में, लच्छू महाराज को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। उन्हें 1978 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो भारत में प्रदर्शन कलाओं के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है। उन्हें भारत सरकार द्वारा 2016 में पद्म श्री पुरस्कार (मरणोपरांत) से भी सम्मानित किया गया। इन पुरस्कारों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनके अपार योगदान और कला के प्रति उनके आजीवन समर्पण को मान्यता दी।
​लच्छू महाराज का केवल एक कलाकार के रूप में ही नहीं, बल्कि एक गुरु और संरक्षक के रूप में भी गहरा प्रभाव था। उन्होंने कई छात्रों को प्रशिक्षित किया, जिन्होंने बाद में स्वयं तबला वादन के क्षेत्र में नाम कमाया। उनकी शिक्षा का दृष्टिकोण केवल तकनीकी कौशल तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने अपने छात्रों को तबले की आत्मा को समझने और उसे अपनी भावनाओं के साथ व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया।
​24 जुलाई, 2016 को, लच्छू महाराज का 71 वर्ष की आयु में निधन हो गया, जिससे भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में एक गहरा शून्य पैदा हो गया। हालांकि वे अब हमारे बीच नहीं हैं, उनकी संगीत विरासत हमेशा जीवित रहेगी। उनके द्वारा बजाई गई रचनाएं, उनकी रिकॉर्डिंग और उनके छात्रों द्वारा सिखाई गई शिक्षाएं भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।
​लच्छू महाराज केवल एक तबला वादक नहीं थे; वे एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपनी कला के माध्यम से भावनाओं, आध्यात्मिकता और संस्कृति को व्यक्त किया। उनकी वादन शैली ने बनारस घराने की परंपरा को बनाए रखा और उसे एक नया आयाम दिया। वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक सच्चे रत्न थे, और उनका योगदान हमेशा भारतीय संगीत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा।

दिल्ली के उपराज्यपाल ने पूर्व सांसदों “ विधायकों के खिलाफ सीपीसीआर और पॉक्सो अधिनियम के तहत सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के दायरे को बढ़ाने की मंजूरी दी

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दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने पूर्व सांसदों और विधायकों के खिलाफ सीपीसीआर और पॉक्सो अधिनियम के तहत मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के दायरे को बढ़ाने की मंजूरी दी है। राउज एवेन्यू स्थित ये अदालतें अब पूर्व जनप्रतिनिधियों के मामलों की भी सुनवाई करेंगी। दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग ने यह प्रस्ताव रखा था। इसका उद्देश्य बच्चों के खिलाफ अपराधों के मामलों का तेजी से निपटारा करना है।

 सीपीसीआर अधिनियम, 2005 और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 के तहत सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई करने वाली विशेष अदालतें अब पूर्व विधायकों और पूर्व सांसदों के खिलाफ भी मामलों की सुनवाई कर सकेंगी। उपराज्यपाल ने मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार द्वारा पूर्व विधायकों और पूर्व सांसदों को इसके दायरे में शामिल करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। इससे राउज एवेन्यू स्थित इन विशेष अदालतों का दायरा बढ़ गया है।

इससे पहले, जुलाई 2023 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने बाल अधिकार संरक्षण आयोग (सीपीसीआर) अधिनियम, 2005 और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 के तहत सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामलों से निपटने के लिए राजधानी के राउज एवेन्यू कोर्ट परिसर में तीन नामित/विशेष अदालतों की स्थापना को मंजूरी दी थी। यह अधिसूचना दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद 2020 में जारी की गई थी। लेकिन केजरीवाल सरकार ने बिना किसी कारण के इस अधिसूचना को तीन साल से ज़्यादा समय तक लंबित रखा।

ये तीन अदालतें बच्चों के विरुद्ध अपराधों, बाल अधिकारों के उल्लंघन और पॉक्सो अधिनियम के तहत अपराधों की सुनवाई के लिए पहले से अधिसूचित आठ अदालतों के अतिरिक्त हैं।

पॉक्सो अधिनियम की धारा 28(1) में कहा गया है कि त्वरित सुनवाई के लिए, राज्य सरकार, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से, आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, अधिनियम के तहत अपराधों की सुनवाई के लिए प्रत्येक ज़िले के लिए एक सत्र न्यायालय को विशेष न्यायालय के रूप में नामित करेगी।

सीपीसीआर अधिनियम की धारा 25 में कहा गया है कि बच्चों के खिलाफ अपराध या बाल अधिकारों के उल्लंघन के मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए, राज्य सरकार, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सहमति से, अधिसूचना द्वारा, राज्य में कम से कम एक न्यायालय या प्रत्येक जिले के लिए, उक्त अपराधों की सुनवाई के लिए एक सत्र न्यायालय को बाल न्यायालय के रूप में निर्दिष्ट कर सकती है।

दिल्ली-एनसीआर में ग्रीन पटाखे बेचने और जलाने की अनुमति

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सुप्रीम कोर्ट ने दिवाली से पहले दिल्ली-एनसीआर में ग्रीन पटाखे बेचने और जलाने की अनुमति दी है। यह अनुमति 18 अक्टूबर से 21 अक्टूबर तक के लिए है।

सीजीआई बीआर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन ने कहा कि हमने सॉलिसिटर और एमिकस के सुझावों पर विचार किया है। हमने देखा है कि इंडस्ट्री को चिंता है। पारंपरिक पटाखों की स्मगलिंग होती है। उससे ज्यादा नुकसान होता है। हमें एक बैलेंस्ड तरीका अपनाना होगा। हरियाणा के 22 जिलों में से 14 जिले एनसीआर में आते हैं। कोर्ट ने कहा कि पेट्रोल टीमें पटाखे बनाने वालों की रेगुलर जांच करेंगी और उनके क्यूआर कोड साइट पर अपलोड करने होंगे।

ज्ञातव्य है कि बैन लगाते समय कोविड पीरियड को छोड़कर एयर क्वालिटी में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था। अर्जुन गोपाल केस में फैसले के बाद ग्रीन क्रैकर्स का कॉन्सेप्ट लाया गया। छह सालों में ग्रीन क्रैकर्स ने एमिशन को काफी कम कर दिया है। इसमें एनईईआरआई का भी योगदान रहा है। 14.10.2024 से 1.1.2025 तक इन्हें बनाने पर पूरा बैन लगा दिया गया।

दुर्गा भाभी − आज जिनकी पुण्य तिथि है

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प्रारंभिक जीवन, विवाह और क्रांति से जुड़ाव

दुर्गा भाभी /दुर्गावती देवी (7 अक्टूबर, 1907- 15 अक्टूबर, 1999) भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं।प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह के साथ इन्हीं दुर्गावती देवी ने 18 दिसम्बर, 1928 को वेश बदलकर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी।चन्द्रशेखर आज़ाद के अनुरोध पर ‘दि फिलॉसफी ऑफ़ बम’ दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा की पत्नी दुर्गावती बोहरा क्रांतिकारियों के बीच ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से मशहूर थीं।सन 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी।तत्कालीन बम्बई के गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज़ अफ़सर घायल हो गया था, जिस पर गोली दुर्गा भाभी ने ही चलायी थी।

‘दुर्गा भाभी’ से जुड़ी आजादी की खास बातें

1- उत्तर प्रदेश के सिराथू तहसील क्षेत्र के शहजादपुर गांव में जन्मीं दुर्गा भाभी ने क्रांतिकारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर फिरंगियों से मोर्चा लिया।इस महान वीरांगना का जन्म सात अक्टूबर 1907 को शहजादपुर गांव में पं. बांके बिहारी के यहां हुआ था।

2- क्रांतिकारियों के संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन (एचआरएसए) के मास्टर ब्रेन प्रो. भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा का परिवार और मायका दोनों सम्पन्न थे।उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे।

3- 10 साल की उम्र में ही उनका विवाह एक रेलवे अधिकारी के बेटे से हो गया।शुरू से ही पति भगवती चरण वोहरा का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों में था,भगवती को ना सिर्फ बम बनाने में महारथ हासिल थी बल्कि वो अपने संगठन के ब्रेन भी कहे जाते थे।

4- भगत सिंह के संगठन ‘नौजवान भारत सभा’ का मेनीफेस्टो भगवती ने ही तैयार किया था।

5- जब चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के रूप में दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में फिर से गठन हुआ,तो भगवती को ही उसके प्रचार की जिम्मेदारी दी गई।

6- 19 दिसम्बर 1928 का दिन था,भगत सिंह और सुखदेव सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे थे।

7- दुर्गा भाभी ने अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए पंजाब प्रांत के एक्स गवर्नर लॉर्ड हैली पर हमला करने की योजना बनाई,दुर्गा ने उस पर 9 अक्टूबर 1930 को बम फेंका।

8- 1956 में जब नेहरू को उनके बारे में पता चला तो लखनऊ में उनके स्कूल में एक बार मिलने आए।

9- सरदार भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने जाने लगे तो दुर्गा भाभी और एक अन्य वीरांगना सुशीला मोहन ने अपनी उंगुली काटकर रक्त से दोनों क्रांतिकारियों को तिलक लगाया था।

10- 14 अक्टूबर, 1999 को गाजियाबाद के एक फ्लैट में उनकी मौत हो गई,तब वो 92 साल की थीं।

दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को शहजादपुर, इलाहाबाद (वर्तमान कौशांबी, उत्तर प्रदेश) के एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित बांके बिहारी इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे। मात्र 10 वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह लाहौर के भगवती चरण वोहरा से हुआ, जो खुद एक संपन्न परिवार से थे, लेकिन उनका मन अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त कराने में लगा था।
​उनके ससुर को अंग्रेजों द्वारा ‘राय साहब’ की उपाधि मिली थी, लेकिन भगवती चरण वोहरा ने अंग्रेजों की दासता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने 1923 में नेशनल कॉलेज से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की, और वह ‘नौजवान भारत सभा’ के प्रमुख प्रचार सचिव बने, जिसकी स्थापना उन्होंने भगत सिंह और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर की थी। अपने पति के क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर, दुर्गा भाभी भी पूर्ण रूप से क्रांति में कूद पड़ीं। उन्होंने 1923 में प्रभाकर की डिग्री हासिल की और जल्द ही वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) की सक्रिय सदस्य बन गईं।

​संगठन और त्याग में भूमिका

​दुर्गा भाभी का मायका और ससुराल दोनों पक्ष संपन्न थे। उनके ससुर ने उन्हें 40 हजार रुपये और उनके पिता ने 5 हजार रुपये दिए थे, जिसे दुर्गा भाभी और उनके पति ने संकट के दिनों में देश को आजाद कराने के लिए क्रांतिकारियों पर खर्च कर दिया।
​उनका घर क्रांतिकारियों के लिए आश्रय स्थल था, जहां वह सभी का स्नेहपूर्वक सत्कार करती थीं। इसीलिए सभी क्रांतिकारी, विशेषकर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु उन्हें सम्मान से ‘भाभी’ कहकर पुकारते थे। उनकी भूमिका केवल खाना बनाने या देखभाल करने तक सीमित नहीं थी; वह गुप्त सूचनाएं पहुंचाने, चंदा इकट्ठा करने और सबसे महत्वपूर्ण, पिस्तौल और बम बनाने के सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने-ले जाने का काम करती थीं। वह पति भगवती चरण वोहरा के साथ बम बनाने में भी सहायता करती थीं।

​साहसी कारनामा: भगत सिंह को बचाना

​दुर्गा भाभी के जीवन का सबसे साहसी और यादगार अध्याय तब आया जब 18 दिसंबर 1928 को उन्होंने भगत सिंह को अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर लाहौर से बाहर निकाला।
​लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह और उनके साथियों ने जॉन सॉन्डर्स को गोली मार दी थी। इस घटना के बाद लाहौर में चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी और भगत सिंह को गिरफ्तार करने के लिए जाल बिछाया जा चुका था। ऐसे में दुर्गा भाभी ने एक असाधारण योजना बनाई।

​वेश-बदल: दुर्गा भाभी भगत सिंह की पत्नी बनीं। भगत सिंह ने अपने बाल कटवा लिए, सूट-बूट पहना और हैट लगाई, जिससे वह एक रईस और आधुनिक ‘साहब’ लगे।

​यात्रा: भगत सिंह (पति) और दुर्गा भाभी (पत्नी) फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट में अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ बैठे।

​राजगुरु की भूमिका: राजगुरु ने उनके नौकर की भूमिका निभाई, जो मैले कपड़ों में उनके सामान की देखभाल कर रहे थे।

​इस साहसी वेश-बदल और रणनीति के कारण, पांच सौ से अधिक पुलिसकर्मियों की तैनाती के बावजूद, वे सभी लाहौर रेलवे स्टेशन से कलकत्ता मेल द्वारा सकुशल बच निकलने में कामयाब रहे। दुर्गा भाभी ने इस यात्रा में अपने पति की जीवन भर की कमाई का उपयोग किया, जिससे देश के महान क्रांतिकारियों की जान बचाई जा सकी। बाद में, जब भगत सिंह असेंबली बम कांड के बाद गिरफ्तार हुए, तो उन्हें छुड़ाने के लिए दुर्गा भाभी ने अपने सारे आभूषण बेचकर वकील को 3000 रुपये दिए थे।

​प्रत्यक्ष संघर्ष और अंतिम जीवन

​लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज के बाद दुर्गा भाभी इतनी क्रोधित थीं कि उन्होंने खुद स्कॉट को मारने की इच्छा जताई थी। उन्होंने केवल सहयोग नहीं किया, बल्कि 9 अक्टूबर 1930 को उन्होंने गवर्नर हेली पर गोली भी चलाई। गवर्नर हेली तो बच गया, लेकिन उसका सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। उन्होंने मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी गोली मारी थी।
​मई 1930 में उनके पति भगवती चरण वोहरा बम का परीक्षण करते समय रावी नदी के तट पर शहीद हो गए। पति की शहादत के बावजूद, दुर्गा भाभी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं। यह वह दुर्गा भाभी ही थीं, जिन्होंने चंद्रशेखर आजाद को वह पिस्तौल लाकर दी थी, जिससे उन्होंने अंतिम समय में अंग्रेजों से लड़ते हुए खुद को गोली मारी थी।
​गिरफ्तारी और जेल की सजा काटने के बाद, दुर्गा भाभी धीरे-धीरे सक्रिय क्रांति से दूर हुईं। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद अपने जीवन को शिक्षा के प्रसार में समर्पित कर दिया। उन्होंने गाजियाबाद में एक कन्या विद्यालय में अध्यापन का कार्य किया और 1938 के अंत में वह दिल्ली कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष भी चुनी गईं।
​दुर्गा भाभी को उनके अदम्य साहस के कारण ब्रिटिश पुलिस ‘आयरन लेडी’ कहकर बुलाती थी। उनका जीवन यह दिखाता है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाली महिलाओं का त्याग और समर्पण कितना विशाल था।

वैश्विक मंच पर भारतीय सिनेमा की आवाज़: फिल्म निर्देशक मीरा नायर

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जन्म दिन पर विशेष

​मीरा नायर भारतीय मूल की एक ऐसी फिल्म निर्देशक हैं, जिन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से भारतीय और प्रवासी भारतीय जीवन की जटिलताओं को वैश्विक सिनेमा के पटल पर जीवंत किया है। 1988 में अपनी पहली फीचर फिल्म ‘सलाम बॉम्बे!’ से लेकर ‘मॉनसून वेडिंग’ और ‘द नेमसेक’ तक, मीरा नायर ने समाज के हाशिए पर पड़े लोगों, सांस्कृतिक संघर्षों और मानवीय भावनाओं को बेहद संवेदनशीलता और कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है।

​प्रारंभिक जीवन और शैक्षणिक यात्रा

​मीरा नायर का जन्म 15 अक्टूबर 1957 को ओडिशा के राउरकेला में हुआ था। उनके पिता अमृत लाल नायर भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में एक अधिकारी थे और उनकी माँ परवीन नायर एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। इस माहौल में पली-बढ़ी मीरा ने बचपन से ही सामाजिक मुद्दों के प्रति एक गहरी जागरूकता विकसित की।
​उनकी प्रारंभिक शिक्षा शिमला के लोरेटो कॉन्वेंट से हुई और उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। थिएटर में उनकी गहरी रुचि थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से स्कॉलरशिप मिली थी, लेकिन उन्होंने इसे ठुकराकर अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, जहां से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। हार्वर्ड में, उन्होंने शुरुआत में एक अभिनेत्री के रूप में कला के क्षेत्र में कदम रखा, लेकिन जल्द ही उनका रुझान फिल्म डायरेक्शन की ओर हो गया।

​फिल्म निर्माण की शुरुआत और अंतर्राष्ट्रीय पहचान

​मीरा नायर ने अपने करियर की शुरुआत डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से की, जिसमें ‘जमैका कैबरे’ और ‘इंडिया कैबरे’ जैसी फिल्में शामिल हैं। उनकी पहली बड़ी सफलता 1988 में आई उनकी पहली फीचर फिल्म ‘सलाम बॉम्बे!’ थी।

​’सलाम बॉम्बे!’ का वैश्विक प्रभाव

​’सलाम बॉम्बे!’ ने मुंबई की मलिन बस्तियों और फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों के कठोर जीवन को दर्शाया। इस फिल्म ने 25 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते और यह मीरा नायर के करियर का टर्निंग पॉइंट साबित हुई।

​कान्स फिल्म फेस्टिवल में कैमरा डी’ओर (Caméra d’Or): 1988 में यह प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतने वाली वह पहली भारतीय फिल्म निर्माता बनीं।

​ऑस्कर नामांकन: इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए अकादमी पुरस्कार (ऑस्कर) नामांकन भी मिला, जो इस श्रेणी में नामांकित होने वाली दूसरी भारतीय फिल्म थी।

​’सलाम बॉम्बे!’ ने मीरा नायर को वैश्विक मंच पर एक सशक्त और दूरदर्शी निर्देशक के रूप में स्थापित कर दिया।

​प्रमुख फिल्में और महत्वपूर्ण उपलब्धियां

​मीरा नायर की फिल्मोग्राफी उनकी बहुमुखी प्रतिभा और विभिन्न संस्कृतियों के प्रति उनकी गहरी समझ को दर्शाती है।

​’मिसिसिपी मसाला’ (1991): इस फिल्म ने भारतीय, अफ्रीकी और अमेरिकी संस्कृति के बीच प्रेम और विस्थापन की कहानी को दर्शाया। इसने वेनिस फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ पटकथा सहित तीन पुरस्कार जीते।

​’कामसूत्र: ए टेल ऑफ लव’ (1996): यह फिल्म 16वीं सदी के भारत के पृष्ठभूमि पर आधारित थी और प्रेम, वासना तथा शक्ति के जटिल समीकरणों को दर्शाती थी। यह फिल्म अपनी बोल्डनेस के कारण भारत में विवादास्पद रही, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई।

​’मॉनसून वेडिंग’ (2001): यह फिल्म उनकी सबसे चर्चित और व्यावसायिक रूप से सफल फिल्मों में से एक है। दिल्ली में एक पारंपरिक पंजाबी शादी की पृष्ठभूमि पर बनी इस कॉमेडी-ड्रामा फिल्म ने एक जटिल भारतीय परिवार के भीतर छिपे रहस्यों और आधुनिक-परंपरागत सोच के द्वंद्व को खूबसूरती से दिखाया।

​गोल्डन लॉयन पुरस्कार: इस फिल्म ने वेनिस फिल्म फेस्टिवल में सर्वोच्च सम्मान गोल्डन लॉयन जीता, जिससे वह यह प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला निर्देशक बन गईं।

​बॉक्स ऑफिस पर सफलता: यह फिल्म महज 5 करोड़ रुपये के बजट में बनी, लेकिन इसने विदेशी बाजार में 100 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई करके रिकॉर्ड बनाया।

​’द नेमसेक’ (2006): झुम्पा लाहिड़ी के उपन्यास पर आधारित यह फिल्म भारतीय प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी के सांस्कृतिक द्वंद्व और पहचान के संकट को मार्मिक रूप से चित्रित करती है।

​’एमेलिया’ (2009) और ‘द रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट’ (2012): इन फिल्मों के माध्यम से उन्होंने हॉलीवुड और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक विषयों पर भी अपनी पकड़ साबित की।

​मीरा नायर की फिल्मों में अक्सर पहचान, घर, विस्थापन, और सामाजिक अन्याय जैसे विषय प्रमुखता से दिखाई देते हैं। उनका फिल्म बनाने का दर्शन हमेशा आम मसाला फिल्मों से हटकर रहा है, जो उन्हें एक विशिष्ट फिल्म निर्माता बनाता है।

​विरासत और दृष्टिकोण

​मीरा नायर ने न केवल उत्कृष्ट फिल्में बनाई हैं, बल्कि उन्होंने एक सशक्त भारतीय महिला निर्देशक के रूप में वैश्विक सिनेमा में अपनी एक अलग जगह बनाई है। उनकी फिल्मों ने दुनिया को भारत के विभिन्न पहलुओं—चाहे वह झुग्गी का जीवन हो, पारिवारिक उत्सव हो, या सांस्कृतिक विस्थापन का दर्द—से परिचित कराया है।
​वह भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी बेबाक राय रखती हैं। उनकी सफलता की कहानी भारत से निकली एक ऐसी असाधारण नारी की है, जिसने लीक से हटकर कहानियों को बड़े पर्दे पर उतारने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते और भारतीय सिनेमा को वैश्विक पहचान दिलाई। मीरा नायर का योगदान भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जगत के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा

जनता के राष्ट्रपति और मिसाइल मैन: डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

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जन्म दिन पर लेख

का जीवन और विरासत

​भारत के 11वें राष्ट्रपति, डॉ. अवुल पकिर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम (Dr. A. P. J. Abdul Kalam) को ‘मिसाइल मैन’ और ‘जनता के राष्ट्रपति’ के रूप में जाना जाता है। उनका जीवन एक साधारण मछुआरे के बेटे से लेकर देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचने की एक अविश्वसनीय यात्रा है, जो करोड़ों भारतीयों, विशेषकर युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका सम्पूर्ण जीवन विज्ञान, शिक्षा और राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित रहा।

​प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

​डॉ. कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम में एक तमिल मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके पिता जैनुलाब्दीन एक मछुआरे और नाव मालिक थे, और माँ आशियम्मा एक गृहिणी थीं। उनका परिवार आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं था, जिसके कारण कलाम को अपनी शुरुआती पढ़ाई के लिए अखबार बेचकर भी सहयोग करना पड़ा।
​कलाम की शुरुआती शिक्षा रामनाथपुरम के श्वाटर्स हाई स्कूल से हुई। उन्होंने सेंट जोसेफ कॉलेज, तिरुचिरापल्ली से भौतिकी (Physics) में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद, उनका रुझान इंजीनियरिंग की ओर हुआ और वे 1955 में मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) गए, जहाँ से उन्होंने एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग (Aeronautical Engineering) में विशेषज्ञता हासिल की। उनके अंदर एक सफल इंजीनियर बनने की तीव्र इच्छा थी, जिसने उन्हें आगे के असाधारण करियर के लिए तैयार किया।

​वैज्ञानिक करियर और ‘मिसाइल मैन’ की उपाधि

​स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, डॉ. कलाम ने अपना करियर भारत के दो प्रमुख वैज्ञानिक संगठनों – रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) – में बिताया।

​ISRO में योगदान

​1969 में, कलाम को ISRO में स्थानांतरित कर दिया गया, जहाँ उन्होंने भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान (Satellite Launch Vehicle – SLV-III) परियोजना के निदेशक के रूप में काम किया। SLV-III ने 1980 में पृथ्वी की कक्षा में रोहिणी उपग्रह को सफलतापूर्वक स्थापित किया, जिससे भारत अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब का सदस्य बन गया। यह उनकी पहली बड़ी सफलता थी जिसने देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को मजबूती दी।

​DRDO और मिसाइल कार्यक्रम

​कलाम 1982 में DRDO में वापस आए और एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम (Integrated Guided Missile Development Programme – IGMDP) का नेतृत्व किया। इसी कार्यक्रम के तहत भारत ने पृथ्वी (Prithvi), अग्नि (Agni), आकाश (Akash), त्रिशूल (Trishul) और नाग (Nag) जैसी स्वदेशी मिसाइलों का विकास किया। इन मिसाइलों के सफल परीक्षण और विकास ने भारत को मिसाइल प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भर बनाया, और यहीं से उन्हें देश का ‘मिसाइल मैन’ कहा जाने लगा।

​परमाणु शक्ति और पोखरण-II

​1992 से 1999 तक, डॉ. कलाम प्रधानमंत्री के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार और DRDO के सचिव के रूप में कार्यरत रहे। इस दौरान उन्होंने भारत के पोखरण-II परमाणु परीक्षणों (Pokhran-II nuclear tests) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने भारत को एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।

​’जनता के राष्ट्रपति’ (2002-2007)

​2002 में, डॉ. कलाम को राजनीतिक दलों के बीच व्यापक सहमति के साथ भारत का 11वां राष्ट्रपति चुना गया। एक वैज्ञानिक का देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचना अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना थी। उन्होंने राष्ट्रपति भवन के दरवाज़े आम जनता और खासकर युवाओं के लिए खोल दिए।

​प्रेरणा और मार्गदर्शन: राष्ट्रपति के रूप में, उनका मुख्य फोकस देश के युवाओं को प्रेरित करने पर था। उन्होंने लाखों छात्रों और युवाओं के साथ बातचीत की, उन्हें विज्ञान, नवाचार और राष्ट्र निर्माण के लिए काम करने के लिए प्रेरित किया।

​सरल जीवन: राष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी उनकी सादगी और विनम्रता बरकरार रही। उन्होंने हमेशा एक साधारण जीवनशैली अपनाई और अपने पद का उपयोग केवल राष्ट्र की सेवा के लिए किया।

​’विजन 2020′: उन्होंने भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए ‘इंडिया 2020: ए विजन फॉर द न्यू मिलेनियम’ नामक एक रूपरेखा प्रस्तुत की, जिसमें अर्थव्यवस्था, प्रौद्योगिकी और शिक्षा में सुधार के माध्यम से देश को महाशक्ति बनाने का लक्ष्य था।

​शिक्षा और लेखन में योगदान

​राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त होने के बाद, डॉ. कलाम ने अपना शेष जीवन शिक्षा, अध्यापन और लेखन को समर्पित कर दिया। वह विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफेसर रहे और लगातार छात्रों को व्याख्यान देते रहे।
​उनके लेखन में विज्ञान, आध्यात्मिकता और राष्ट्रवाद का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है। उनकी आत्मकथा ‘विंग्स ऑफ फायर’ (Wings of Fire) और ‘इग्नाइटेड माइंड्स’ (Ignited Minds) जैसी किताबें युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हैं। इन किताबों में उन्होंने आशा, दृढ़ संकल्प और राष्ट्र के लिए बड़े सपने देखने का आह्वान किया है।

​पुरस्कार और सम्मान

​उनके अनुकरणीय योगदान के लिए उन्हें भारत के तीन सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया:

​पद्म भूषण (1981)

​पद्म विभूषण (1990)

​भारत रत्न (1997)

​अंतिम यात्रा और विरासत

​डॉ. कलाम का निधन 27 जुलाई 2015 को आईआईएम शिलांग में एक व्याख्यान देते समय हुआ। उनका अंतिम क्षण भी विद्यार्थियों को प्रेरित करते हुए बीता, जो उनके शिक्षा और ज्ञान के प्रति असीम प्रेम को दर्शाता है।
​डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का जीवन इस बात का प्रमाण है कि दृढ़ इच्छाशक्ति, कड़ी मेहनत और ज्ञान के प्रति समर्पण से कोई भी व्यक्ति अपने सपनों को साकार कर सकता है। वह न केवल एक महान वैज्ञानिक थे, बल्कि एक दूरदर्शी नेता, लेखक और शिक्षक भी थे। उनकी विरासत भारतीय युवाओं के दिलों में हमेशा राष्ट्र प्रेम और उत्कृष्टता की ज्वाला प्रज्वलित करती रहेगी।

अभिनेता पंकज धीर का निधन

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दानवीर कर्ण की अमर छाप: अभिनेता पंकज धीर का जीवन और फिल्मी सफर

​भारतीय टेलीविजन के इतिहास में कुछ किरदार ऐसे होते हैं जो समय की सीमा को पार कर अमर हो जाते हैं। अभिनेता पंकज धीर द्वारा निभाया गया ‘महाभारत’ (1988) में दानवीर कर्ण का किरदार उन्हीं में से एक है। अपनी दमदार आवाज, प्रभावशाली व्यक्तित्व और चरित्र की गहरी समझ के कारण पंकज धीर ने कर्ण को एक ऐसी पहचान दी, जिसे दर्शक आज भी पूजते हैं। हाल ही में, 68 वर्ष की आयु में कैंसर से लंबी जंग लड़ते हुए उनका निधन हो गया, जिसने पूरे कला जगत और उनके प्रशंसकों को शोक में डुबो दिया।

​प्रारंभिक जीवन और कला का वंश

​पंकज धीर का जन्म 9 नवंबर 1956 को मुंबई में हुआ था। कला और सिनेमा उनके खून में था, क्योंकि उनके पिता सी. एल. धीर स्वयं एक प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक थे। ऐसे पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण उनका रुझान शुरू से ही फिल्म जगत की ओर था। उन्होंने मुंबई में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और कॉलेज से स्नातक किया।
​हालांकि, उनके करियर की शुरुआत सीधे अभिनय से नहीं हुई। उन्होंने पहले सिनेमा को समझने के लिए 1970 के दशक में निर्देशक नरेंद्र बेदी को असिस्ट किया। यह सीखने का दौर था जिसने उन्हें अभिनय के हर पहलू से परिचित कराया।

​करियर का टर्निंग पॉइंट: ‘महाभारत’ का कर्ण

​पंकज धीर ने फिल्मों और टेलीविजन दोनों में काम किया, लेकिन उनके करियर को सबसे बड़ी पहचान और लोकप्रियता बी. आर. चोपड़ा के पौराणिक धारावाहिक ‘महाभारत’ से मिली।

​अर्जुन से कर्ण तक का सफर

​एक दिलचस्प तथ्य यह है कि पंकज धीर को शुरुआत में कर्ण के बजाय अर्जुन के किरदार के लिए चुना गया था। हालांकि, मेकर्स ने उनसे अर्जुन के रोल के लिए मूंछें मुंडवाने की शर्त रखी, जिसे पंकज धीर ने स्वीकार नहीं किया। उनका मानना ​​था कि मूंछें उनके व्यक्तित्व का एक अभिन्न हिस्सा हैं। इस जिद के कारण उन्हें शुरू में ‘महाभारत’ से बाहर कर दिया गया था।
​लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। कुछ महीनों बाद, उन्हें कर्ण का रोल ऑफर किया गया, जिसके लिए मूंछों की आवश्यकता नहीं थी। पंकज धीर ने इस मौके को भुनाया और कर्ण के चरित्र में पूरी तरह डूब गए।

​कर्ण का अमरत्व

​कर्ण का चरित्र महाभारत के सबसे जटिल और करुण पात्रों में से एक है—एक महान योद्धा जिसे हमेशा अपने जन्म और सामाजिक स्थिति के कारण अन्याय सहना पड़ा। पंकज धीर ने कर्ण के दानवीर स्वभाव, उनकी मित्रता (दुर्योधन के प्रति), उनके दर्द और वीरता को अपनी आवाज, आंखों और शारीरिक भाषा से जीवंत कर दिया। उनके संवाद, विशेष रूप से दुर्योधन और कुंती के साथ वाले दृश्य, आज भी भारतीय टीवी के क्लासिक पलों में गिने जाते हैं। ‘महाभारत’ की अपार सफलता ने पंकज धीर को घर-घर में एक ‘आइकॉन’ बना दिया, जिसकी छाप उनके बाकी करियर पर भी कायम रही।

​फिल्मों और टेलीविजन में बहुमुखी योगदान

​’महाभारत’ के बाद भी पंकज धीर ने अपनी अभिनय क्षमता का प्रदर्शन जारी रखा। टेलीविजन पर, उन्होंने लोकप्रिय फंतासी शो ‘चंद्रकांता’ में शिवदत्त की खलनायक भूमिका निभाई, जिसे दर्शकों ने खूब पसंद किया। इसके अलावा, उन्होंने ‘बढ़ो बहू’, ‘युग’, ‘द ग्रेट मराठा’ और ‘ससुराल सिमर का’ जैसे कई दैनिक धारावाहिकों में काम किया।
​फिल्मों में उन्होंने सहायक भूमिकाओं और नकारात्मक किरदारों से भी दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ी। उनकी कुछ उल्लेखनीय फिल्में हैं:

​’सड़क’ (1991)

​’सोल्जर’ (1998)

​’बादशाह’ (1999)

​’तुमको ना भूल पाएंगे’ (2002)

​पंकज धीर न केवल एक अभिनेता थे, बल्कि उन्होंने निर्देशक के रूप में भी काम किया। अपने भाई सतलुज धीर के साथ मिलकर उन्होंने मुंबई में ‘विजेज स्टूडियोज’ नामक एक शूटिंग स्टूडियो भी स्थापित किया, जो फिल्म उद्योग को सेवाएं प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ‘अभिन्नय एक्टिंग एकेडमी’ की स्थापना करके नई प्रतिभाओं को भी तराशा।

​व्यक्तिगत जीवन और विरासत

​पंकज धीर का विवाह अनीता धीर से हुआ था, जो स्वयं एक कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर हैं। उनके दो बच्चे हैं: बेटे निकितिन धीर, जो एक स्थापित बॉलीवुड अभिनेता हैं (जिन्हें ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ और ‘जोधा अकबर’ जैसी फिल्मों के लिए जाना जाता है), और बेटी नितिका शाह। पंकज धीर ने अपने बेटे निकितिन के करियर को संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
​पंकज धीर का निधन कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जूझने के कारण हुआ। भले ही उन्होंने कई अन्य रोल किए, लेकिन ‘कर्ण’ की छवि हमेशा उनकी सबसे बड़ी पहचान बनी रही। उनकी अभिनय कला और विशेष रूप से कर्ण के रूप में उनके शानदार चित्रण के माध्यम से वह भारतीय टेलीविजन और सिनेमा के इतिहास में हमेशा एक ‘दानवीर योद्धा’ के रूप में याद किए जाएंगे। उनका जीवन और करियर समर्पण, प्रतिभा और एक ऐसे चरित्र को अमर करने का प्रमाण है, जिसने उन्हें दर्शकों के दिल में एक खास जगह दी।

दिग्गज अभिनेत्री और नृत्यांगना मधुमती का 87 साल की उम्र में निधन

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एक जीवन चरित्र और फिल्मी सफर

​हिंदी सिनेमा की दिग्गज अभिनेत्री और मशहूर डांसर मधुमती का 87 वर्ष की आयु में निधन हो गया, जिससे फिल्म जगत में शोक की लहर दौड़ गई है। अपनी अदाकारी और खासकर शानदार नृत्य से दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली मधुमती ने भारतीय सिनेमा में एक अमिट छाप छोड़ी है। उनका जीवन और फिल्मी करियर संघर्ष, समर्पण और कला के प्रति असीम प्रेम की कहानी है।

​प्रारंभिक जीवन और नृत्य के प्रति जुनून

​मधुमती का जन्म 30 मई 1944 को मुंबई के पास ठाणे में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम हटॉक्सी रिपोर्टर था। उनके पिता एक जज थे। बचपन से ही मधुमती को नृत्य का जबरदस्त शौक था। इसी जुनून के कारण उनका मन पढ़ाई-लिखाई में कम ही लगता था, हालांकि उन्होंने 10वीं तक की शिक्षा पूरी की।
​मधुमती ने केवल आधुनिक फिल्मी नृत्य ही नहीं सीखा, बल्कि भरतनाट्यम, कथक, मणिपुरी और कथकली जैसे शास्त्रीय नृत्यों में भी महारत हासिल की। नृत्य के प्रति उनकी यह लगन ही उन्हें बॉलीवुड में एक अलग पहचान दिलाने का आधार बनी। कहा जाता है कि वह फिल्मों में आने से पहले ही नृत्य कला में पारंगत होने वाली पहली डांसरों में से थीं। 15 साल की छोटी उम्र में ही उन्होंने अपना खुद का डांस ग्रुप बना लिया था और विभिन्न शहरों में कार्यक्रम आयोजित करने लगी थीं।

​फिल्मी सफर और नृत्य सेवा

​मधुमती ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत एक मराठी फिल्म से की थी। उनके पिता ने उन्हें फिल्मों में काम करने की इजाजत इस शर्त पर दी थी कि वह केवल डांस से जुड़े ऑफर्स को ही स्वीकार करेंगी, अभिनय नहीं करेंगी। इस शर्त को उन्होंने काफी हद तक निभाया और फिल्म इंडस्ट्री में मुख्य रूप से एक डांसर के रूप में ही कार्यरत रहीं।
​मधुमती को 1960 के दशक की सबसे बेहतरीन डांसरों में गिना जाता था और अक्सर उनकी तुलना उस दौर की ‘डांस क्वीन’ हेलन से की जाती थी। उन्होंने अपने करियर में 150 से अधिक फिल्मों में काम किया। उनका डांस बॉलीवुड फिल्मों में गानों के आकर्षण को दोगुना कर देता था।
​उनकी कुछ यादगार फिल्मों में ‘आंखें’ (1968), ‘टावर हाउस’, ‘शिकारी’, ‘मुझे जीने दो’, ‘चरस’ (1976), ‘जय ज्वाला’, ‘अन्नदाता’, और ‘गदर: एक प्रेम कथा’ (2001) शामिल हैं। हालांकि उन्होंने ज्यादातर फिल्मों में डांसर या सहायक अभिनेत्री की भूमिका निभाई, लेकिन कुछ फिल्मों, जैसे ‘चले हैं ससुराल’, में उन्होंने लीड एक्ट्रेस के रूप में भी काम किया।
​अपने करियर के दौरान, मधुमती ने कई बड़े सितारों के साथ काम किया। वह सिर्फ एक परफॉर्मर नहीं थीं, बल्कि एक डांस टीचर के रूप में भी जानी जाती थीं। अभिनेता अक्षय कुमार ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए बताया कि मधुमती उनकी पहली और हमेशा के लिए गुरु थीं और उन्होंने डांस के बारे में जो कुछ भी सीखा, वह उन्हीं से सीखा।

​व्यक्तिगत जीवन

​मधुमती ने अपने करियर के दौरान ही मशहूर कोरियोग्राफर मनोहर दीपक से शादी की थी। मनोहर दीपक पहले से ही चार बच्चों के पिता थे। यह शादी उस वक्त काफी चर्चा में रही थी। मधुमती ने उनकी चार संतानों को अपनी ही औलाद की तरह पाला। वह और उनके पति सुनील दत्त और नरगिस के ‘अजंता कल्चरल ग्रुप’ का भी हिस्सा रहे थे और देश-विदेश में शो करते थे।

​विरासत और श्रद्धांजलि

​मधुमती का निधन फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक बड़ी क्षति है। वह एक ऐसी कलाकार थीं जिन्होंने अपनी प्रतिभा और मेहनत से सिनेमा को समृद्ध किया। उनके नृत्य कौशल और फिल्मों में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। उनके निधन पर अक्षय कुमार, विंदू दारा सिंह समेत कई सितारों और प्रशंसकों ने सोशल मीडिया के जरिए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी है। वह अपने पीछे एक समृद्ध कलात्मक विरासत छोड़ गई हैं।