“समय के साथ बदलती पीढ़ियाँ और उनका समाज पर असर”

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समय और समाज के बदलते माहौल के साथ हर पीढ़ी की सोच, जीवनशैली और चुनौतियाँ बदलती हैं। ग्रेटेस्ट जनरेशन और साइलेंट जनरेशन ने युद्ध और कठिनाई का सामना किया। बेबी बूमर्स ने औद्योगिकीकरण देखा, जेन-एक्स ने तकनीकी शुरुआत अनुभव की, और मिलेनियल्स ने इंटरनेट और वैश्वीकरण के साथ युवा जीवन जिया। जेन-ज़ी डिजिटल नेटिव हैं, आत्मनिर्भर और तेज़ सोच वाले, जबकि जेन अल्फा पूरी तरह डिजिटल माहौल में पले-बढ़ रहे हैं। मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक जुड़ाव और रोजगार की अनिश्चितता इनकी प्रमुख चुनौतियाँ हैं। संतुलन, रचनात्मकता और अनुभव-साझा करके भविष्य संवेदनशील और प्रगतिशील बनाया जा सकता है।

– डॉ प्रियंका सौरभ

समाज में समय-समय पर होने वाले परिवर्तन केवल राजनीति या तकनीकी तक सीमित नहीं रहते, बल्कि इंसान की सोच, जीवनशैली और संस्कृति पर गहरा असर डालते हैं। यही कारण है कि अलग-अलग वर्षों में जन्म लेने वाले लोगों को अलग-अलग “जनरेशन” के रूप में पहचाना जाता है। आजकल स्कूलों, कॉलेजों और यहाँ तक कि कॉरपोरेट दुनिया में भी “जेन-जी” और “जेन अल्फा” जैसे शब्द आम हो गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि ये पीढ़ियाँ हैं क्या, इनकी सोच और चुनौतियाँ किन मायनों में अलग हैं और क्या यह फर्क समाज को मज़बूत बना रहा है या विभाजन पैदा कर रहा है?

जनरेशन दरअसल वह समूह है जो लगभग समान समयावधि में जन्म लेता है और अपने बचपन व युवावस्था में समान सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों का अनुभव करता है। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में जन्मे बच्चे और आज के डिजिटल युग में जन्मे बच्चों की सोच और जीवनशैली में ज़मीन-आसमान का फर्क है। यही फर्क हर पीढ़ी की पहचान बन जाता है। अमेरिका और यूरोप में बीसवीं सदी की शुरुआत में पीढ़ियों को वर्गीकृत करने का चलन शुरू हुआ और अब भारत सहित पूरी दुनिया में इसे अपनाया जा रहा है।

बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक कई पीढ़ियाँ सामने आई हैं। 1901 से 1927 के बीच जन्म लेने वाली “ग्रेटेस्ट जनरेशन” ने प्रथम विश्व युद्ध और महामंदी की कठिन परिस्थितियों का सामना किया। इनकी ज़िंदगी अनुशासन और त्याग से भरी रही। इसके बाद 1928 से 1945 तक जन्मे लोग “साइलेंट जनरेशन” कहलाए। यह वह पीढ़ी थी जिसने द्वितीय विश्व युद्ध, गरीबी और विस्थापन के बीच अपना बचपन गुज़ारा। भारत में यही पीढ़ी स्वतंत्रता और विभाजन दोनों की गवाह बनी। 1946 से 1964 के बीच जन्म लेने वाली पीढ़ी “बेबी बूमर्स” के नाम से जानी गई। युद्ध के बाद जन्म दर में तेज़ी से वृद्धि हुई और दुनिया पुनर्निर्माण की ओर बढ़ी। भारत में यह वही लोग थे जिन्होंने पहली बार स्वतंत्र नागरिक का दर्जा पाया और औद्योगिकीकरण तथा हरित क्रांति के दौर को देखा।

1965 से 1980 के बीच जन्म लेने वाली “जेनरेशन एक्स” तकनीकी क्रांति की आहट के साथ बड़ी हुई। टीवी और रेडियो इनके जीवन का हिस्सा बने। भारत में इस पीढ़ी ने आपातकाल और आर्थिक संकट का समय देखा, इसलिए यह व्यावहारिक और आत्मनिर्भर मानी जाती है। इसके बाद 1981 से 1996 तक जन्म लेने वाली पीढ़ी “मिलेनियल्स” या “जेन-वाई” कहलायी। इसने इंटरनेट और वैश्वीकरण का दौर देखा। नई महत्वाकांक्षाओं और सपनों से भरे इन युवाओं ने आईटी क्रांति और मोबाइल तकनीक का लाभ उठाया।

1997 से 2012 तक जन्म लेने वाली “जेनरेशन-ज़ी” डिजिटल नेटिव कहलाती है। इन बच्चों ने बचपन से ही इंटरनेट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। इनकी पहचान आत्मविश्वास, रचनात्मकता और तेज़ सोच है, लेकिन अधीरता और प्रतिस्पर्धा भी इनमें साफ़ दिखाई देती है। इसके बाद 2013 से 2025 के बीच जन्म लेने वाले बच्चे “जेनरेशन अल्फा” के नाम से पहचाने जाते हैं। ये बच्चे ऐसे माहौल में पले-बढ़ रहे हैं जहाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, वर्चुअल रियलिटी और रोबोटिक्स रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। इनके खिलौने भी स्मार्ट डिवाइस हैं और शिक्षा पूरी तरह ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर आधारित होती जा रही है।

जेनरेशन-ज़ी की कुछ खास विशेषताएँ इन्हें औरों से अलग करती हैं। यह पहली पीढ़ी है जिसने बचपन से ही डिजिटल आईडी बनाई। किताबों और अख़बारों की जगह यूट्यूब, इंस्टाग्राम और नेटफ्लिक्स इनकी पसंद बन गए। ये मल्टीटास्किंग में माहिर हैं, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र सोच रखते हैं, लेकिन इनकी सबसे बड़ी चुनौती ध्यान केंद्रित करने की क्षमता का कम होना है। सोशल मीडिया से होने वाली तुलना इनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है और कई बार चिंता व अवसाद जैसी समस्याएँ भी पैदा करती है।

जेनरेशन अल्फा का भविष्य और भी अनोखा होगा। यह मानव इतिहास की पहली पूरी तरह डिजिटल नेटिव पीढ़ी है। इनके खिलौने रोबोट हैं, शिक्षा वर्चुअल क्लासरूम में हो रही है और इनके खेल का मैदान मेटावर्स तथा ऑगमेंटेड रियलिटी है। ये वैश्विक स्तर पर सोचेंगे क्योंकि इन्हें बचपन से ही दुनिया से जुड़े प्लेटफ़ॉर्म मिल रहे हैं, लेकिन साथ ही यह खतरा भी रहेगा कि इनका वास्तविक दुनिया से जुड़ाव कमजोर हो जाए।

हर पीढ़ी पिछली से अलग रही है। बेबी बूमर्स नौकरी और स्थिरता को महत्व देते थे, जेन-एक्स ने संतुलन साधा, मिलेनियल्स ने उद्यमिता और सपनों पर ध्यान दिया, जबकि जेन-जी और अल्फा तेज़ी, सुविधा और त्वरित संतुष्टि को महत्व देते हैं। यही अंतर कभी-कभी संवाद की खाई भी पैदा कर देता है।

भारतीय संदर्भ में पीढ़ियों का असर और भी विविध है। गाँव और शहर में अनुभव अलग हैं। गाँव के बच्चे आज भी पारंपरिक खेलों और सामाजिक आयोजनों से जुड़े रहते हैं, जबकि शहरों के बच्चे मोबाइल और लैपटॉप की दुनिया में खोए रहते हैं। जेन अल्फा में यह अंतर और भी गहरा होगा। आर्थिक असमानता और शिक्षा का स्तर भी इस खाई को बढ़ाता है।

जेन-जी और अल्फा बच्चों के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी होंगी। सबसे पहली चुनौती मानसिक स्वास्थ्य है। लगातार स्क्रीन टाइम और सोशल मीडिया के दबाव ने चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं को जन्म दिया है। दूसरी चुनौती सामाजिक जुड़ाव की है। वर्चुअल दुनिया में रिश्ते तो बनते हैं, लेकिन असली संबंध कमजोर पड़ जाते हैं। तीसरी चुनौती रोज़गार की अनिश्चितता है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन पारंपरिक नौकरियों को खत्म कर रहे हैं। ऐसे में नई स्किल्स सीखना बच्चों के लिए अनिवार्य होगा।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए समाधान भी संभव हैं। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को डिजिटल और वास्तविक जीवन का संतुलन सिखाएँ। शिक्षा प्रणाली को केवल अंकों तक सीमित न रखकर रचनात्मकता, सहयोग और भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर जोर देना होगा। सबसे ज़रूरी यह है कि बच्चों को प्रकृति और समाज से जोड़ा जाए। अगर पुरानी पीढ़ियों का अनुभव और नई पीढ़ियों की ऊर्जा आपस में मिल जाए, तो यह पीढ़ियाँ न केवल तकनीकी रूप से सक्षम होंगी बल्कि मानवीय दृष्टि से भी संवेदनशील बनेंगी।

अंत में कहा जा सकता है कि जेनरेशन-जी और अल्फा केवल नाम नहीं बल्कि समाज और राष्ट्र का भविष्य हैं। पीढ़ियाँ बदलना स्वाभाविक है, लेकिन हर पीढ़ी की ताक़त और सीख को समझना ज़रूरी है। अगर हम अनुभव और ऊर्जा का मेल कर पाए, तो समाज संतुलित और प्रगतिशील बनेगा। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम आने वाली पीढ़ियों को तकनीकी रूप से दक्ष और मानवीय दृष्टि से संवेदनशील बनाकर सही दिशा दें।

-प्रियंका सौरभ 

पानी से नहीं, नीतियों से हारी ज़िंदगी”

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बार-बार दोहराई गई त्रासदी, बाढ़ प्रबंधन क्यों है अधूरा सपना?

हरियाणा और उत्तर भारत के कई राज्य बार-बार बाढ़ की विभीषिका झेलते हैं, लेकिन हर बार नुकसान झेलने के बावजूद स्थायी समाधान की दिशा में ठोस पहल नज़र नहीं आती। 2023 की बाढ़ के बाद भी करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद नदियों की सफाई, नालों की निकासी और जल प्रबंधन की योजनाएं अधूरी पड़ी रहीं। नतीजा यह कि 2025 में एक बार फिर लाखों किसान अपनी मेहनत की फसल डूबते देख मजबूर हुए। सवाल यह है कि जब बाढ़ का खतरा बार-बार दस्तक देता है तो हमारी नीतियां क्यों स्थायी हल नहीं तलाश पातीं?

– डॉ सत्यवान सौरभ

हरियाणा में 2025 की बाढ़ कोई अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदा नहीं थी। यह वही त्रासदी है, जिसकी पुनरावृत्ति राज्य 1978, 1988, 1995, 2010 और हाल ही में 2023 में झेल चुका है। आंकड़े चौंकाने वाले हैं। केवल पिछले दो वर्षों में 657 करोड़ रुपये बाढ़ प्रबंधन पर खर्च किए गए, फिर भी इक्कीस जिलों के सैकड़ों गांव पानी में डूबे रहे, साढ़े चार लाख से अधिक किसानों की छब्बीस लाख एकड़ से ज्यादा फसल बर्बाद हो गई, हजारों परिवार बेघर हो गए और तेरह लोगों की जान चली गई। हर बार यह सवाल उठता है कि आखिर सरकारें और तंत्र क्यों एक ही गलती बार-बार दोहराते हैं और पिछले अनुभवों से सबक क्यों नहीं लेते।

बाढ़ कोई अचानक आई विपत्ति नहीं है, बल्कि एक अनुमानित और बार-बार आने वाला खतरा है। नदियों का उफान, बरसाती नालों का रुख बदलना और निकासी व्यवस्था का ध्वस्त होना ऐसी समस्याएं हैं, जो पहले से ज्ञात हैं और जिनका समाधान वर्षों से टलता आ रहा है। 2023 की बाढ़ के बाद सरकार ने बड़े दावे किए थे कि स्थायी समाधान के लिए ड्रेनेज सुधार, तटबंध मजबूत करने और नालों की गहराई बढ़ाने का काम प्राथमिकता पर होगा। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि अधिकांश योजनाएं अधूरी रहीं और जो शुरू हुईं वे भ्रष्टाचार या लापरवाही की भेंट चढ़ गईं।

इस अव्यवस्था का सबसे गहरा असर किसानों पर पड़ा है। खरीफ सीजन की धान, बाजरा और गन्ने जैसी फसलें पूरी तरह चौपट हो गईं। औसतन एक किसान को प्रति एकड़ पंद्रह से बीस हजार रुपये का नुकसान हुआ। इसके साथ ही पशुधन की मौतें, घरों के ढहने और बुनियादी ढांचे के टूटने से हालात और बिगड़ गए। उद्योग जगत भी इससे अछूता नहीं रहा। अंबाला और यमुनानगर जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में कारखानों और गोदामों में पानी भर गया, जिससे करोड़ों का नुकसान हुआ और हजारों मजदूर रोजगार से वंचित हो गए।

इस स्थिति के पीछे प्रशासनिक लापरवाही सबसे बड़ा कारण है। हरियाणा सरकार के पास न तो गांव-स्तरीय निकासी योजना है और न ही कोई स्थायी रणनीति। मानसून से पहले नालों की सफाई करने की बजाय दिखावटी काम किए जाते हैं। कई जगह ड्रेनेज सिस्टम सालों से जाम पड़े हैं। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद नदियों और नालों का प्रवाह जस का तस है। इसके अलावा सिंचाई विभाग, आपदा प्रबंधन विभाग और स्थानीय निकायों के बीच तालमेल का अभाव स्थिति को और गंभीर बना देता है। हर विभाग अपने-अपने दायरे में काम करता है, लेकिन समन्वय के अभाव में कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आता।

जल प्रबंधन विशेषज्ञों का मानना है कि बाढ़ पर काबू पाने के लिए व्यापक और दीर्घकालिक रणनीति बनाना अनिवार्य है। डॉ. शिव सिंह राठ जैसे विशेषज्ञ स्पष्ट कहते हैं कि नदियों की नियमित ड्रेजिंग, बरसाती नालों का वैज्ञानिक पुनर्निर्माण और गांव स्तर तक जल निकासी प्रणाली का निर्माण ही स्थायी समाधान दे सकता है। पर्यावरणविदों का भी यही तर्क है कि नदियों के तटों पर अनियंत्रित अतिक्रमण और अवैध निर्माण बाढ़ की विभीषिका को और बढ़ा देते हैं। जब तक नदियों को उनका प्राकृतिक बहाव नहीं लौटाया जाएगा, तब तक यह त्रासदी बार-बार लौटकर आती रहेगी।

किसानों और आम लोगों की पीड़ा आंकड़ों से कहीं ज्यादा गहरी है। हजारों परिवार महीनों तक राहत शिविरों में रहने को मजबूर हो जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई बाधित होती है, महिलाओं और बुजुर्गों की सेहत बिगड़ती है और मजदूर वर्ग बेरोज़गारी का शिकार हो जाता है। इस बार भी छह हजार से ज्यादा गांव पानी में डूबे और करीब अट्ठाईस सौ लोग विस्थापित हुए। कल्पना कीजिए, जब इतनी बड़ी संख्या में लोग अपने घर-बार से उजड़ते हैं, तो उनकी मानसिक और सामाजिक स्थिति किस हद तक डगमगा जाती होगी।

सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब 2010 और 2023 जैसी बड़ी बाढ़ें आ चुकी थीं, तो 2025 में वही गलती दोहराने का औचित्य क्या था। असल कारण साफ हैं। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने इस मुद्दे को कभी चुनावी एजेंडा नहीं बनने दिया। सरकारों का दृष्टिकोण हमेशा अल्पकालिक रहा। हर साल राहत और पुनर्वास पर खर्च होता रहा, लेकिन स्थायी संरचनाओं पर निवेश नहीं हुआ। इसके साथ ही भ्रष्टाचार और संसाधनों की बर्बादी ने हालात और बदतर कर दिए।

अगर सचमुच स्थायी समाधान चाहिए तो राज्य को ठोस कदम उठाने होंगे। एक स्वतंत्र नदी प्रबंधन आयोग का गठन करना होगा, जो नदियों और नालों की सफाई, तटबंध निर्माण और निगरानी जैसे काम नियमित रूप से करे। हर पंचायत स्तर पर ड्रेनेज योजना तैयार की जानी चाहिए और उसका कड़ाई से पालन सुनिश्चित होना चाहिए। तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सैटेलाइट मैपिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित पूर्वानुमान और रीयल-टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम लागू करना होगा। स्थानीय लोगों की भागीदारी से नालों की सफाई और तटबंधों की देखरेख सुनिश्चित करनी होगी। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि राहत पैकेज पर अरबों रुपये खर्च करने के बजाय स्थायी ढांचे और संरचनाओं पर निवेश किया जाना चाहिए।

दरअसल बाढ़ केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है, यह मानवीय लापरवाही और नीतिगत असफलता का परिणाम भी है। हरियाणा ने नौ बार बाढ़ झेली, लेकिन हर बार केवल आंकड़े गिनने और वादे करने तक ही बात सीमित रही। किसानों की पीड़ा, उद्योगों का नुकसान और विस्थापित परिवारों की त्रासदी हमें यह बताती है कि अब आधे-अधूरे उपायों से काम नहीं चलेगा। सरकार और समाज को मिलकर व्यापक, वैज्ञानिक और दीर्घकालिक बाढ़ प्रबंधन नीति अपनानी ही होगी, वरना 2027 या 2030 में फिर यही खबर पढ़नी पड़ेगी—“एक और बाढ़, एक और नुकसान और एक और अधूरा वादा।”

– डॉ सत्यवान सौरभ

हिंदी के विकास में चुनौतियाँ और भविष्य

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​हिंदी की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद, इसे कुछ चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। आज भी भारत के कुछ हिस्सों में हिंदी को लेकर राजनीतिक और भाषाई विवाद होते हैं। इसके अलावा, शिक्षा और तकनीकी क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व हिंदी के विकास के लिए एक बड़ी चुनौती है।
​लेकिन, इन चुनौतियों के बीच भी हिंदी का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है।

​शिक्षा और प्रौद्योगिकी: सरकार और निजी संस्थानों द्वारा हिंदी को शिक्षा और तकनीकी क्षेत्रों में बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। तकनीकी शब्दावली को सरल बनाने और हिंदी में शैक्षिक सामग्री उपलब्ध कराने पर जोर दिया जा रहा है।

​सरकारी प्रयास: केंद्र सरकार का राजभाषा विभाग हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न योजनाएं और कार्यक्रम चलाता है। सरकारी कामकाज में हिंदी के उपयोग को बढ़ाने के लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जाता है।

​युवा पीढ़ी का योगदान: आज की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर हिंदी का खुलकर उपयोग कर रही है। हिंदी में साहित्य, कविता, और अन्य रचनात्मक लेखन भी बढ़ रहा है, जो भाषा को और समृद्ध बना रहा है।

​विश्व हिंदी सम्मेलन: समय-समय पर आयोजित होने वाले विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सम्मेलन हिंदी के विद्वानों, लेखकों और प्रेमियों को एक मंच पर लाते हैं, जिससे भाषा के विकास पर चर्चा होती है।

​निष्कर्ष

​हिंदी दिवस केवल एक वार्षिक उत्सव नहीं, बल्कि यह हमारी भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता का महापर्व है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि हमारी पहचान है। यह हमें गर्व महसूस कराता है कि हमारी भाषा ने न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में अपना स्थान बनाया है। हिंदी की लोकप्रियता में वृद्धि यह साबित करती है कि यह भाषा समय के साथ विकसित हो रही है और भविष्य में भी इसकी चमक बरकरार रहेगी।
​हमें हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने और इसकी समृद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए, ताकि यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी गर्व का विषय बनी रहे।

आधा नेपाल नेताओं ने लूटा, बचा प्रदर्शनकारियों ने जलाया

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−नीरज कुमार दुबे

नेपाल इन दिनों इतिहास के सबसे हिंसक और व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। राजधानी काठमांडू में युवा आंदोलनकारियों, जिन्हें ‘जेन-ज़ेड’ कहा जाता है, उन्होंने व्यापक विरोध प्रदर्शनों के जरिए प्रधानमंत्री को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया। इन प्रदर्शनों में अब तक 30 से अधिक लोगों की जान गई, 1,033 से अधिक लोग घायल हुए और 15,000 से ज्यादा कैदी जेलों से फरार हो गए। हिंसा ने केवल राजनीतिक ढांचे को नहीं हिलाया, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरे घाव दिए हैं।

जेन-ज़ेड आंदोलनकारियों ने अब ऐलान कर दिया है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की नेपाल की अंतरिम प्रधानमंत्री बनेंगी और छह महीने के भीतर देश में नए चुनाव कराए जाएंगे। 73 वर्षीय कार्की को ईमानदार, निर्भीक और अडिग नेतृत्व का प्रतीक माना जाता है। उनके नेतृत्व में यह अस्थायी सरकार नेपाल को स्थिरता की राह पर ले जाने की कोशिश करेगी, लेकिन चुनौतियाँ भी कम नहीं होंगी।

इसके अलावा, हाल ही में हुए विरोध प्रदर्शनों में सरकारी इमारतों, होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में आगजनी और तोड़फोड़ ने नेपाल की अर्थव्यवस्था को भयंकर नुकसान पहुंचाया है। पर्यटन पर निर्भर देश में पोखरा और काठमांडू के प्रमुख होटलों में आग लगी। स्कूल-कॉलेज बंद, दुकानों और बाजारों में हाहाकार और हजारों लोग रोजगार से वंचित हो गए। यह स्पष्ट है कि जेन-ज़ेड आंदोलन ने, भ्रष्टाचार और असफल राजनीतिक व्यवस्थाओं के खिलाफ आवाज उठाई, मगर उन्होंने अपने उग्र प्रदर्शन से बची-खुची अर्थव्यवस्था को भी तहस-नहस कर दिया। विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल की जीडीपी को इस अशांति से कई अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। पर्यटन, जो नेपाल की आय का प्रमुख स्रोत है, वह लंबी अवधि तक उबर नहीं पाएगा।

नई सरकार के समक्ष चुनौतियों का जिक्र करें तो आपको बता दें कि सुशीला कार्की की अंतरिम सरकार के सामने कई गहरी चुनौतियाँ हैं। कैदियों की बड़ी संख्या में जेल से फरार होना और हिंसक प्रदर्शन दर्शाते हैं कि देश में सुरक्षा व्यवस्था चरमरा गई है। इसके अलावा, पर्यटन, व्यापार और निवेश को बहाल करना और देश की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही विभिन्न राजनीतिक दलों और युवाओं के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। इसके अलावा, छह महीने में चुनाव करा कर सुनिश्चित करना होगा कि जनता की आवाज़ सही मायने में संसद तक पहुंचे।

देखा जाये तो नेपाल की हालिया घटनाएँ यह दिखाती हैं कि भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलताओं के खिलाफ युवा वर्ग खड़ा हो सकता है, लेकिन हिंसा और अराजकता सिर्फ देश को नुकसान पहुँचाती हैं। सुशीला कार्की उम्मीद की किरण जरूर है, लेकिन उनके लिए मार्ग आसान नहीं होगा। अब देश की स्थिरता और विकास इस बात पर निर्भर करेगा कि आंदोलनकारी, सेना और राजनीतिक दल मिलकर संवैधानिक और शांतिपूर्ण रास्ता अपनाते हैं या नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि नेपाल आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ जनता की आकांक्षाएँ और वास्तविक चुनौतियाँ दोनों सामने हैं। कार्की का नेतृत्व इसे सही दिशा देने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है, बशर्ते सभी हितधारक संयम और दूरदर्शिता दिखाएँ।

नीरज कुमार दुबे

खैबर पख्तूनख्वा में सुरक्षाबल− आतंकियों के बीच झड़पों में 19 सैनिक , 45 आतंकी मरे

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पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में सुरक्षाबलों और आतंकियों के बीच झड़पों में कम से कम 19 सैनिक और 45 आतंकी मारे गए हैं। पाकिस्तान के उत्तर-पश्चि प्रांत खैबर पख्तूनख्वा अशांत अशांत् क्षेत्र माना जाता है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने शनिवार को कहा कि आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई पूरी ताकत से जारी रहेगी। 

पाकिस्तानी सेना के मुताबिक, 10 से 13 सितंबर के बीच खैबर पख्तूनख्वा के तीन अलग-अलग हिस्सों में हुई झड़पों में कम से कम 45 आतंकियों को ढेर किया गया।प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने सेना प्रमुख फील्ड मार्शल आसिम मुनीर के साथ बन्नू का दौरा किया ।शरीफ ने कहा कि पाकिस्तान आतंकवाद का पूरी ताकत से जवाब देना जारी रखेगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी भी तरह की अस्पष्टता या समझौता बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान में हो रहे हमलों के पीछे बैठे आतंकी सरगना और उनके मददगार अफगानिस्तान की जमीन से काम कर रहे हैं। शरीफ ने दावा किया कि कई आतंकी वारदातों में अफगान नागरिकों की संलिप्तता पाई गई है, इसलिए पाकिस्तान में रह रहे अवैध अफगान शरणार्थियों की वापसी जरूरी है।
दौरे के दौरान, पीएम शरीफ और सेना प्रमुख ने बन्नू के सैन्य अस्पताल में घायल सैनिकों से मुलाकात की और दक्षिणी वजीरिस्तान जिले में एक अभियान में बलिदान हुए एक दर्जन सैनिकों की नमाज-ए-जनाजा में भी हिस्सा लिया। 

 पाकिस्तानी सेना प्रमुख के अनुसार, खैबर पख्तूनख्वा में तीन अलग-अलग अभियानों में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के 45 आतंकवादियों को मार गिराया गया। सुरक्षा बलों ने बाजौर जिले में एक खुफिया जानकारी के आधार पर अभियान चलाया और भीषण गोलीबारी में टीटीपी के 22 आतंकवादी मार गिराए। इसके अलावा, दक्षिणी वजीरिस्तान जिले में हुई एक अन्य मुठभेड़ में, 13 टीटीपी आतंकवादी मारे गए और भीषण गोलीबारी में 12 सैनिक बलिदान हो गए। सेना के अनुसार, आतंकवादियों के पास से हथियार और गोला-बारूद भी बरामद किया गया। 


हिंदी भाषा नही, देश की एकता की डोर है

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−भूपेन्द्र शर्मा सोनू

भारत बड़ा देश है। इतना बड़ा कि यहां जो देखो वही अलग है। कहीं पर अलग धर्म है, कहीं पर अलग जाति है, कहीं पर अलग पहनावा है, कहीं पर अलग खाना है और सबसे बड़ी बात कि हर जगह अपनी-अपनी भाषा है। यही सब हमारी पहचान भी है और यही हमारी ताकत भी है, लेकिन मजे की बात यह है कि जो भाषा हमें जोड़ने का काम करती है, वही कभी-कभी लड़ाई-झगड़े का कारण भी बन जाती है। हमने कई बार देखा है कि महाराष्ट्र जैसे राज्य में अगर कोई आदमी मराठी नहीं बोलता और अगर वह हिन्दी बोलता है तो उसके खिलाफ लोग खड़े हो जाते हैं। उसे ऐसा लगता है जैसे उसने कोई गुनाह कर दिया हो। यह बात सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। देश के और हिस्सों में भी लोग अपनी भाषा के नाम पर दूसरों को नीचा दिखाते हैं। कोई कहता है कि तुम्हें हमारी भाषा सीखनी चाहिए। कोई कहता है कि हमारी भाषा सबसे ऊपर है। सवाल यह है कि जब हम सबको बराबरी से देखना चाहिए तो फिर हिन्दी ही क्यों विरोध का शिकार बनती है?
अब यह समझना जरूरी है कि हिन्दी हमारे देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। जितना लोग हिन्दी बोलते और समझते हैं उतना कोई दूसरी भाषा नहीं। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं है, बल्कि पूरे देश की भाषा है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक, हर जगह लोग हिन्दी बोल लेते हैं या कम से कम समझ लेते हैं। अगर कोई आदमी कहीं बाहर जाता है और उसे स्थानीय भाषा नहीं आती तो हिन्दी ही काम आती है यानि हिन्दी एक सेतु है, जो सबको जोड़ती है। अब सोचिए, किसी भी आदमी के लिए अपनी मातृभाषा प्रिय होना बहुत स्वाभाविक बात है। हर कोई अपनी बोली को सबसे प्यारी मानता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम दूसरों की भाषा का मजाक उड़ाएं या उसे छोटा बताएं। अगर कोई मराठी बोले, बंगाली बोले, पंजाबी बोले, तमिल बोले या कोई और भाषा बोले तो हमें उसका सम्मान करना चाहिए, लेकिन जब बारी हिन्दी की आती है तो बहुत लोग इसे आसान भाषा कहकर छोटा बना देते हैं। यह ठीक नहीं है। हर साल 14 सितम्बर को हम हिन्दी दिवस मनाते हैं। इसका कारण यह है कि 1949 में इसी दिन संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाया था यानि हिन्दी को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गई। इस दिन का असली मकसद यही है कि हम हिन्दी को बढ़ावा दें और इस पर गर्व करें, लेकिन कई बार लोग समझ लेते हैं कि हिन्दी दिवस का मतलब है दूसरी भाषाओं को दबाना। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। हिन्दी दिवस का मतलब केवल हिन्दी को याद करना और उसे आगे बढ़ाना है न कि किसी और भाषा का अपमान करना।अब भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि यहां अलग-अलग भाषाएँ बोली जाती हैं। मराठी, तमिल, बंगाली, पंजाबी, गुजराती, उर्दू, कन्नड़, मलयालम आदि ये सब भाषाएँ हमारे देश की जान हैं। अगर कोई कहे कि सिर्फ हिन्दी ही चलेगी और बाकी भाषाओं की कोई अहमियत नहीं तो यह भी गलत है और अगर कोई कहे कि हिन्दी की कोई अहमियत नहीं, तो यह भी गलत है। हमें सबको बराबर मानना चाहिए। अब सोचिए अगर कोई बिहार से आदमी मुंबई में नौकरी करने जाता है और उसे मराठी नहीं आती तो क्या उसे नौकरी से निकाल देना चाहिए या क्या उसे गाली देना चाहिए? बिल्कुल नहीं। इसी तरह अगर कोई मराठी आदमी दिल्ली आता है और उसे हिन्दी बोलने में दिक्कत होती है तो क्या हम उसे परेशान करें, यह भी गलत है। भाषा तो जोड़ने का काम करती है तो फिर हम उसे झगड़े का कारण क्यों बना दें? हिन्दी दिवस हमें यही सिखाता है कि हम किसी भी भाषा का विरोध न करें। बल्कि सभी भाषाओं का सम्मान करें। अगर हम हिन्दी का विरोध करेंगे तो दरअसल हम भारत की आत्मा का विरोध करेंगे, क्योंकि भारत की आत्मा यही है कि यहां विविधता में भी एकता है। आजकल एक बड़ी समस्या यह भी है कि लोग अंग्रेजी को ज्यादा अहमियत देने लगे हैं। स्कूल-कॉलेज में बच्चे हिन्दी बोलते हैं तो उन्हें ताने मिलते हैं। नौकरियों में भी अंग्रेजी को ज्यादा महत्व दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि हिन्दी हमारी अपनी भाषा है और हमें इसे गर्व से बोलना चाहिए। अगर हम खुद ही अपनी भाषा को छोटा मानेंगे तो दूसरे लोग भी इसे छोटा मानेंगे। हमें यह समझना चाहिए कि हिन्दी केवल भाषा नहीं है, बल्कि हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारी पहचान है। अगर हिन्दी को कमजोर किया गया तो हमारी जड़ें कमजोर होंगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दूसरी भाषाओं को भुला दिया जाए। भारत में हर भाषा की अपनी खूबसूरती है, अपनी मिठास है। मराठी की अपनी मिठास है, पंजाबी की अपनी रौनक है, बंगाली का अपना स्वाद है, तमिल का अपना अंदाज है और हिन्दी की अपनी सहजता है। सब मिलकर ही भारत को भारत बनाते हैं। हमें यह ठान लेना चाहिए कि न तो हम हिन्दी का मजाक उड़ने देंगे न किसी दूसरी भाषा का। अगर हम सब एक-दूसरे की भाषा का सम्मान करेंगे तो आपस में भाईचारा बढ़ेगा। हिन्दी दिवस का यह संदेश है कि हिन्दी सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि एकता और भाईचारे की डोर है। अगर हम सब हिन्दी के साथ-साथ हर भाषा को सम्मान देंगे तभी असली भारत जिंदा रहेगा।

−भूपेन्द्र शर्मा सोनू

(स्वतंत्र पत्रकार) धामपुर

“एक दिवस में क्यों बंधे, हिन्दी का अभियान

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रचे बसे हर पल रहे, हिन्दी हिन्दुस्तान।। ”

हिंदी दिवस केवल एक औपचारिक उत्सव न रह जाए, बल्कि यह हमारी चेतना और जीवन का स्थायी हिस्सा बने। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और आत्मगौरव की पहचान है। यदि हम अपने घर, शिक्षा, तकनीक और कार्यस्थल पर हिंदी को सहजता से अपनाएँ, तभी इसका वास्तविक विस्तार संभव होगा। अंग्रेज़ी सीखना बुरा नहीं है, लेकिन हिंदी का सम्मान करना और इसे रोज़मर्रा में जीवंत रखना कहीं अधिक आवश्यक है। हिंदी को हर पल जीना ही सच्चा हिंदी दिवस है।

– डॉ प्रियंका सौरभ

हिंदी दिवस प्रतिवर्ष 14 सितंबर को मनाया जाता है। यह दिन हमें यह सोचने का अवसर देता है कि हिंदी का स्थान आज हमारे समाज, शिक्षा, साहित्य और तकनीक में कहाँ है। लेकिन एक सवाल हमेशा उठता है—क्या किसी भाषा का सम्मान केवल एक दिन मनाने तक ही सीमित रह जाना चाहिए? भाषा तो जीवन की धारा है, वह हर दिन, हर पल हमारे साथ बहती है। इसीलिए यह दोहा हमें झकझोरता है कि हिंदी का अभियान किसी दिवस में क्यों बंधे? हिंदी को तो भारतवासियों की सांसों में रचा-बसा रहना चाहिए।

हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों की पहचान और आत्मा है। यह भाषा हमें जोड़ती है, हमारी संस्कृति को अभिव्यक्त करती है और देश की विविधता में एकता का सूत्र बनाती है। अंग्रेज़ी, विज्ञान और तकनीक की भाषा हो सकती है, लेकिन हिंदी हमारे हृदय की भाषा है। इसे केवल भाषणों, आयोजनों और सरकारी औपचारिकताओं में सीमित कर देना इसके महत्व को छोटा करना है।

आज के दौर में यह और भी आवश्यक हो गया है कि हम हिंदी को एक दिवस तक सीमित न रखें। अंग्रेज़ी का प्रभुत्व इतना बढ़ गया है कि लोग यह मानने लगे हैं कि सफलता की गारंटी केवल अंग्रेज़ी सीखने से मिलती है। अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में भेजने को ही भविष्य की सुरक्षा मानते हैं। लेकिन यह एक गहरी भ्रांति है। दुनिया के जिन देशों ने प्रगति की है—जापान, कोरिया, चीन, जर्मनी—उन्होंने अपनी मातृभाषाओं को शिक्षा और विकास का आधार बनाया है। भारत ही एक ऐसा देश है जहां अपनी ही भाषा को हीन दृष्टि से देखा जाता है। यह मानसिकता बदलनी होगी।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) ने इस सोच को सुधारने का प्रयास किया है। इसमें प्रावधान है कि कक्षा 5 तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा हो। इसका सीधा अर्थ है कि हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी के माध्यम से शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा। इससे बच्चों की समझ और आत्मविश्वास में वृद्धि होगी। जब शिक्षा अपनी भाषा में होगी तो बच्चे बोझ महसूस नहीं करेंगे और पढ़ाई को आनंदपूर्वक आगे बढ़ाएंगे। इस नीति को सही मायनों में लागू करना हिंदी के अभियान को निरंतरता देगा।

हिंदी दिवस पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में अक्सर बड़े-बड़े नारे लगाए जाते हैं, भाषण दिए जाते हैं और हिंदी के गौरव का बखान होता है। लेकिन समस्या यह है कि यह सब अगले ही दिन ठंडा पड़ जाता है। हमें यह तय करना होगा कि हिंदी का उपयोग रोज़मर्रा की जिंदगी में कैसे बढ़ाया जाए। दफ्तरों में, अदालतों में, तकनीकी संस्थानों में, यहां तक कि सोशल मीडिया पर भी हिंदी का स्थान और सशक्त होना चाहिए। केवल मंच पर हिंदी का गुणगान करने से काम नहीं चलेगा, बल्कि उसे व्यवहारिक जीवन में उतारना होगा।

आज हिंदी इंटरनेट की दुनिया में तेजी से फैल रही है। आंकड़े बताते हैं कि हिंदी कंटेंट उपभोक्ताओं की संख्या अंग्रेज़ी से कहीं अधिक तेज़ी से बढ़ रही है। गूगल, फेसबुक, यूट्यूब जैसी कंपनियाँ हिंदी में विशेष रूप से सामग्री उपलब्ध करा रही हैं। इसका अर्थ है कि हिंदी की संभावनाएँ अपार हैं। हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए और हिंदी को आधुनिकता से जोड़ना चाहिए। हिंदी में विज्ञान, तकनीक, प्रबंधन और कानून की शब्दावली विकसित कर इसे समकालीन जरूरतों के अनुरूप बनाना होगा।

हिंदी साहित्य का संसार भी बहुत विशाल और समृद्ध है। कबीर, तुलसी, सूर, प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा जैसे अनेकों रचनाकारों ने हिंदी को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। लेकिन आधुनिक पीढ़ी साहित्य से दूर होती जा रही है। उन्हें यह समझाना होगा कि हिंदी साहित्य में जीवन की गहराइयाँ, समाज की सच्चाइयाँ और मानवीय मूल्यों का अनमोल खजाना है। जब युवा पीढ़ी अपनी भाषा से जुड़ाव महसूस करेगी तभी हिंदी सचमुच हर पल जीने की भाषा बनेगी।

हिंदी का अभियान केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। यह हर नागरिक का दायित्व है। जब हम अपने घर में, अपने बच्चों से, अपने साथियों से हिंदी में बातचीत करेंगे, तब यह अभियान स्वतः मजबूत होगा। यदि हम स्वयं ही अंग्रेज़ी बोलने में गर्व और हिंदी बोलने में संकोच करेंगे तो यह भाषा कैसे फलेगी-फूलेगी? हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी और हिंदी को सम्मान देना होगा।

चुनौतियाँ निश्चित ही कम नहीं हैं। भारत में सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। हर भाषा का अपना महत्व है और उसे सम्मान मिलना चाहिए। हिंदी को थोपने का नहीं, बल्कि जोड़ने का कार्य करना चाहिए। हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में पूरे देश को जोड़ सकती है, क्योंकि यह सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। लेकिन यह तभी संभव है जब हिंदी का स्वरूप लचीला और समावेशी हो।

हिंदी के प्रचार-प्रसार में प्रौद्योगिकी का भी अहम योगदान हो सकता है। मोबाइल ऐप्स, ऑनलाइन शिक्षा प्लेटफॉर्म, अनुवाद सॉफ्टवेयर और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हिंदी के प्रसार में क्रांति ला सकते हैं। हिंदी में शोध पत्र, पत्रिकाएँ और अंतरराष्ट्रीय स्तर की किताबें प्रकाशित की जानी चाहिए। यदि हिंदी को ज्ञान और रोजगार से जोड़ा जाएगा तो इसका अभियान स्वतः जीवन का हिस्सा बन जाएगा।

आज की पीढ़ी को यह संदेश देना होगा कि हिंदी पिछड़ेपन की भाषा नहीं है, बल्कि यह उन्नति और आत्मनिर्भरता की भाषा है। हमें यह धारणा तोड़नी होगी कि सफलता केवल अंग्रेज़ी माध्यम से ही मिलती है। सफलता का आधार मेहनत, ज्ञान और आत्मविश्वास है, और यह अपनी मातृभाषा में भी उतनी ही दृढ़ता से हासिल किया जा सकता है।

इसलिए हिंदी दिवस को सिर्फ़ एक प्रतीक न मानें। इसे एक प्रेरणा के रूप में लें कि हिंदी हर दिन, हर पल हमारी पहचान का हिस्सा बनी रहे। हमें अपने बच्चों को यह सिखाना होगा कि हिंदी केवल घर की भाषा नहीं, बल्कि ज्ञान और प्रगति की भी भाषा है। हमें यह वातावरण बनाना होगा कि हिंदी में पढ़ना, लिखना और संवाद करना गर्व की बात हो।

जब हिंदी का अभियान किसी एक दिवस तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि समाज के हर क्षेत्र में रच-बस जाएगा, तभी यह भाषा सचमुच हिंदुस्तान की आत्मा बन पाएगी।

-प्रियंका सौरभ 

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

हिंदी दिवस का संदेश: मातृभाषा में शिक्षा ही वास्तविक प्रगति

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( भाषा से जुड़ता है समाज और संस्कृति मातृभाषा में शिक्षा ही वास्तविक राष्ट्रनिर्माण का मार्ग) 

मातृभाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि हमारी पहचान और संस्कृति से जुड़ाव का माध्यम है। नई शिक्षा नीति (2020) ने कक्षा 5 तक मातृभाषा में शिक्षा पर बल दिया है, जिससे बच्चों की समझ, आत्मविश्वास और भागीदारी बढ़ेगी। अंग्रेज़ी का महत्व अपनी जगह है, परंतु प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में ही सबसे प्रभावी है। चुनौतियों के बावजूद मातृभाषा आधारित शिक्षा से ड्रॉपआउट दर घटेगी, रचनात्मकता बढ़ेगी और बच्चा अपनी जड़ों से जुड़ा रहेगा। हिंदी दिवस हमें यही संदेश देता है कि मातृभाषा ही सच्ची शिक्षा और राष्ट्रनिर्माण का आधार है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

भाषा केवल संवाद का साधन नहीं है, बल्कि यह हमारी पहचान, संस्कृति और समाज से जुड़ने का आधार है। जिस भाषा में हम सोचते, सपने देखते और अभिव्यक्त होते हैं, वही हमारी मातृभाषा कहलाती है। भारत जैसे बहुभाषी देश में मातृभाषा का महत्व और भी बढ़ जाता है। हर वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य लोगों में हिंदी भाषा के प्रति जागरूकता और गर्व का भाव पैदा करना है। हिंदी दिवस केवल हिंदी के प्रचार-प्रसार का अवसर नहीं है, बल्कि यह मातृभाषाओं के महत्व और शिक्षा में उनके उपयोग पर विचार करने का भी अवसर है।

मातृभाषा व्यक्ति की सोच, संस्कार और भावनाओं से गहराई से जुड़ी होती है। यह बच्चों के लिए सीखने का सबसे स्वाभाविक और सहज माध्यम है। जब कोई बच्चा अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करता है तो वह अधिक आत्मविश्वास और रुचि से सीखता है। मातृभाषा बच्चों की संज्ञानात्मक क्षमता को विकसित करती है, यह उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान से जोड़ती है, मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने वाला छात्र बेहतर तरीके से अपनी बात कह पाता है और यह शिक्षा को रटने की बजाय समझने की प्रक्रिया बनाती है।

भारत सरकार ने 34 वर्षों बाद 2020 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की। इस नीति ने शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बदलाव करने का मार्ग प्रशस्त किया। सबसे अहम निर्णय था कि कक्षा 5 तक और जहां संभव हो वहां 8वीं तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा होना चाहिए। यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे बच्चों को शिक्षा उसी भाषा में मिलेगी जिसमें वे घर और समाज में बातचीत करते हैं। अनुसंधानों से भी यह सिद्ध हुआ है कि मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा मिलने से बच्चे की समझ बेहतर होती है, ड्रॉपआउट दर कम होती है और कक्षा में उनकी भागीदारी अधिक होती है।

भारतीय संविधान भी मातृभाषा में शिक्षा का समर्थन करता है। अनुच्छेद 350A कहता है कि राज्यों को भाषाई अल्पसंख्यकों के बच्चों के लिए मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। कोठारी आयोग (1964-66) ने सुझाव दिया था कि आदिवासी क्षेत्रों में प्रारंभिक वर्षों में शिक्षा स्थानीय जनजातीय भाषा में होनी चाहिए। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (2009) में भी यह प्रावधान किया गया कि जहां तक संभव हो, शिक्षा का माध्यम बच्चे की मातृभाषा हो।

आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि अभिभावक अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को ही श्रेष्ठ मानते हैं। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में माता-पिता बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में भेजने की होड़ में लगे रहते हैं। वे मानते हैं कि अंग्रेजी ही सफलता की कुंजी है। शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दिए बिना केवल “अंग्रेजी” को प्राथमिकता दी जाती है। ग्रामीण भारत में निजी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में दाखिले की संख्या तेजी से बढ़ रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि भाषा कभी भी सफलता की गारंटी नहीं हो सकती। असली सफलता अच्छी शिक्षा, आत्मविश्वास और ज्ञान पर आधारित होती है। यदि बच्चे को ऐसी भाषा में शिक्षा दी जाए जिसे वह समझ ही नहीं पाता, तो न तो उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा और न ही वह शिक्षा का सही लाभ ले पाएगा।

मातृभाषा में शिक्षा देने के अनेक लाभ हैं। बच्चा उसी भाषा में आसानी से सोच सकता है जो उसकी मातृभाषा है। अपनी भाषा में सीखने से भयमुक्त वातावरण मिलता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। मातृभाषा में शिक्षा से बच्चा अपनी संस्कृति और परंपराओं से जुड़ा रहता है। जब शिक्षा सरल और बोधगम्य होगी तो बच्चे स्कूल छोड़ेंगे नहीं। मातृभाषा में सोचने और व्यक्त करने से सृजनात्मक क्षमता भी विकसित होती है।

लेकिन इस व्यवस्था को लागू करने में कई व्यावहारिक समस्याएँ सामने आती हैं। भारत में भाषाओं और बोलियों की बहुत अधिक विविधता है। कई भाषाओं के पास मानकीकृत लिपि या पर्याप्त शिक्षण सामग्री नहीं है। प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी है, जो बहुभाषी कक्षाओं को संभाल सकें। नई पुस्तकों और प्रशिक्षण पर अतिरिक्त खर्च आएगा। साथ ही, अभिभावकों की मानसिकता भी एक बड़ी चुनौती है जो अंग्रेजी को ही श्रेष्ठ मानती है।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। बहुभाषी शिक्षा के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएँ। मातृभाषाओं में गुणवत्तापूर्ण किताबें तैयार की जाएँ। अभिभावकों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाए जाएँ ताकि वे समझें कि मातृभाषा में शिक्षा बच्चों के लिए अधिक लाभकारी है। विभिन्न राज्यों में मातृभाषा आधारित शिक्षा के प्रयोग किए जाएँ और उनकी सफलता के आधार पर आगे बढ़ा जाए। डिजिटल शिक्षा सामग्री को भी स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध कराया जाए।

दुनिया के कई देशों में मातृभाषा में शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती है। फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली विश्व में सर्वोत्तम मानी जाती है और वहां प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा पर ही जोर दिया जाता है। जापान और दक्षिण कोरिया ने अपनी भाषा में शिक्षा देकर विश्व स्तर पर आर्थिक और तकनीकी प्रगति हासिल की। यूनैस्को भी लगातार इस बात पर जोर देता रहा है कि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए।

हिंदी दिवस हमें यह याद दिलाता है कि अपनी भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि हमारी संस्कृति, परंपरा और पहचान का आधार है। यदि हम चाहते हैं कि नई पीढ़ी आत्मविश्वासी, ज्ञानवान और रचनात्मक बने तो हमें शिक्षा में मातृभाषा का स्थान सुनिश्चित करना होगा। हिंदी सहित सभी मातृभाषाओं का सम्मान करना आवश्यक है।

मातृभाषा में शिक्षा देने का विचार कोई नया नहीं है, लेकिन इसे व्यावहारिक रूप से लागू करने की ज़रूरत है। अंग्रेजी का महत्व अपनी जगह है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही सबसे प्रभावी सिद्ध हो सकती है। हमें यह धारणा तोड़नी होगी कि केवल अंग्रेजी माध्यम से ही सफलता मिलती है। सफलता का असली आधार है— ज्ञान, समझ और आत्मविश्वास।

इस हिंदी दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपनी भाषा और संस्कृति के महत्व को पहचानेंगे, अभिभावकों को जागरूक करेंगे और बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। यही वास्तविक राष्ट्र निर्माण की दिशा में हमारा योगदान होगा।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

प्रिंट मीडिया की साख आज भी कायम

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न्यूज चैनलों पर नफरती बयान :

बाल मुकुन्द ओझा
हमारा पड़ोसी देश नेपाल सोशल मीडिया से उत्पन्न हिंसक क्रांति की आग से सुलग रहा है। नेपाल में चल रहे विरोध प्रदर्शनों और हिंसा को लेकर भारत का सियासी पारा भी हाई है। वहीं हमारे यहां के बयानवीर नेता भारत में भी अपने बयानों के जरिये आग लगाने का कुत्सित प्रयास कर रहे है। रही सही कसर टीवी चैनलों की बहस पूरी कर रहे है। विभिन्न न्यूज़ चैनलों पर बहस के दौरान कांग्रेस सहित इंडिया ब्लॉक के नेता भारत में भी ऐसी घटनाओं के घटित होने पर अपनी आग उगलने लगे है। संजय राउत और उदित राज जैसे नेता कहां पीछे रहने वाले है। सोशल मीडिया को कुछ लोगों ने अपना हथियार बनाकर नेपाल के हालात की भारत से तुलना करने लगे हैं। सोशल मीडिया पर कह दिया कि लोग चर्चा कर रहे हैं जिस तरह से नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में सत्ता को जनता ने उखाड़ फेंका है, क्या भारत में ऐसा नहीं हो सकता।
देश के नामी गिरामी न्यूज़ चैनलों पर अभद्रता, गाली गलौज और मारपीट की घटनाएं अब आम हो गई है। न्यूज चैनल्स की डिबेट्स की भाषाई मर्यादाएं और गरिमा तार तार हो रही है। ऐसा लगता है डिबेट्स में झूठ और नफरत का खुला खेल खेला जा रहा है। डिबेट्स और चैनलों का ये गिरता स्तर लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। प्रमुख पार्टियों के प्रवक्ता जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग कर रहे है वह निश्चय ही निंदनीय और शर्मनाक है। देश में कुकुरमुत्तों की तरह न्यूज़ चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। इन चैनलों पर प्रतिदिन देश में घटित मुख्य घटनाओं और नेताओं की बयानबाजी पर टीका टिप्पणियों को देखा और सुना जा सकता है। राजनीतिक पार्टियों के चयनित प्रवक्ता और कथित विशेषज्ञ इन सियासी बहसों में अपनी अपनी पार्टियों का पक्ष रखते है। न्यूज़ चैनलों पर इन दिनों जिस प्रकार के आरोप प्रत्यारोप और नफरती बोल सुने जा रहे है उससे लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ते देखा जा सकता है। बड़े बड़े और धमाकेदार शीर्षकों वाली इन बहसों को सुनकर किसी मारधाड़ वाली फिल्मों की यादें जाग्रत हो उठती है। एंकर भी इनके आगे असहाय नज़र आते है। कई बार छीना झपटी, गाली गलौज और मारपीट की नौबत आ जाती है। सच तो यह है जब से टीवी न्यूज चैनलों ने हमारी जिंदगी में दखल दिया है तब से हम एक दूसरे के दोस्त कम दुश्मन अधिक बन रहे है। समाज में भाईचारे के स्थान पर घृणा का वातावरण ज्यादा व्याप्त हो रहा है। बहुत से लोगों ने मारधाड़ वाली और डरावनी बहसों को न केवल देखना बंद कर दिया है अपितु टीवी देखने से ही तौबा कर लिया है। लोगों ने एक बार फिर इलेक्ट्रॉनिक के स्थान पर प्रिंट मीडिया की ओर लौटना शुरू कर दिया है। आज भी अखबार की साख और विश्वसनीयता अधिक प्रामाणिक समझी जा रही है। डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा आज भी प्रिंट मीडिया पर लोगों की विश्वसनीयता बरकरार है। आज भी लोग सुबह सवेरे टीवी न्यूज़ नहीं अपितु अखबार पढ़ना पसंद करते है। प्रबुद्ध वर्ग का कहना है प्रिंट मीडिया आज भी अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन कर रहा है।
इस समय देश के न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर नफरत और घृणा के बादल मंडरा रहे है। देश में हर तीसरे महीने कहीं न कहीं चुनावी नगाड़े बजने शुरू हो जाते है। इस साल बिहार में चुनाव होने वाले है। चुनावों के आते ही न्यूज़ चैनलों की बांछें खिल जाती है। चुनावों पर गर्मागरम बहस शुरू हो जाती है। राजनीतिक दलों के नुमाइंदे अपने अपने पक्ष में दावे प्रतिदावे शुरू करने लग जाते है। इसी के साथ ऐसे ऐसे आरोप और नफरत पैदा करने वाली दलीले दी जाने लगती है कि कई बार देखने वालों का सिर शर्म से झुक जाता है। यही नहीं देश में दुर्भाग्य से कहीं कोई घटना दुर्घटना घट जाती है तो न्यूज़ चैनलों पर बढ़चढ़कर ऐसी ऐसी बातों की झड़ी लग जाती है जिन पर विश्वास करना नामुमकिन हो जाता है। इसीलिए लोग इलेक्ट्रॉनिक के स्थान पर प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता को अधिक प्रमाणिक मानते है। इसी कारण लोगों ने टीवी चैनलों पर होने वाली नफरती बहस को देखनी न केवल बंद कर दी अपितु बहुत से लोगों ने टीवी देखने से ही तौबा कर ली।
गंगा जमुनी तहजीब से निकले भारतीय घृणा के इस तूफान में बह रहे हैं। विशेषकर नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद घृणा और नफरत के तूफानी बादल गहराने लगे है। हमारे नेताओं के भाषणों, वक्तव्यों और फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सुचिता के स्थान पर नफरत, झूठ, अपशब्द, तथ्यों में तोड़-मरोड़ और असंसदीय भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से होता देखा जा सकता हैं। हमारे नेता अब आए दिन सामाजिक संस्कारों और मूल्यों को शर्मसार करते रहते हैं। स्वस्थ आलोचना से लोकतंत्र सशक्त, परंतु नफरत भरे बोल से कमजोर होता है, यह सर्व विदित है। आलोचना का जवाब दिया जा सकता है, मगर नफरत के आरोपों का नहीं। आज पक्ष और विपक्ष में मतभेद और मनभेद की गहरी खाई है। यह अंधी खाई हमारी लोकतान्त्रिक परम्पराओं को नष्ट भ्रष्ट करने को आतुर है। देश में व्याप्त नफरत के इस माहौल को खत्म कर लोकतंत्र की ज्वाला को पुर्नस्थापित करने की महती जरूरत है और यह तभी संभव है जब हम खुद अनुशासित होंगे और मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं करेंगे।

बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
मालवीय नगर, जयपुर

धार्मिकता का ढोंग और मृत संवेदनाएं

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जब यह बच्चे ठेले पर लाश लेकर श्मशान घाट पहुंचे तो बताया गया कि वहां जलाने हेतु लकड़ी नहीं है। और फिर जब यह बेगुनाह मासूम अपने बाप के शव को लेकर क़ब्रिस्तान पहुंचे तो क़ब्रिस्तान वालों ने यह कहकर लाश को दफ़्न करने से मना कर दिया कि यह शव हिन्दू का है ।

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निर्मल रानी
हमारा भारत वर्ष कृषि प्रधान होने के साथ साथ ‘धर्म प्रधान’ देश भी माना जाता है। यहाँ सुबह चार बजे से ही विभिन्न धर्मों के लोग अपने अपने आराध्य को ख़ुश करने के ‘मिशन ‘ में अपने अपने तरीक़े से जुट जाते हैं। धर्मस्थलों में लगे लाउडस्पीकर ब्रह्म मुहूर्त में ही देशवासियों को अपने अपने आराध्य व अपने देवालयों की ओर आकर्षित करने लगते हैं। इसके अलावा भी देश भर में निकलने वाले विभिन्न धर्मों के धार्मिक जुलूस,शोभा यात्रायें,सत्संग में होने वाले संतों के प्रवचन,धर्म जागरण के नाम पर चलने वाले अनेक अतिवादी मिशन, कांवड़ जैसी यात्रायें महाकुंभ जैसे विश्वस्तरीय आयोजन,तीर्थ स्थलों में इकट्ठी होने वाली भक्तों की अनियंत्रित भीड़ आदि को देख कर तो एक बार यही लगेगा कि हर समय श्रद्धा व भक्ति भाव में डूबे रहने वाले हमारे धर्म प्रधान देश के लोग बेहद धार्मिक,संवेदनशील और मानवता की क़द्र करने वाले लोग होंगे। रोज़ाना जगह जगह लगने वाले लंगर,देश भर में संचालित हो रही अनेकानेक जनसेवी संस्थायें भी इसी बात का एहसास दिलाती हैं।
परन्तु इसी ‘धर्म प्रधान देश’ से जहां मानवता की मिसाल पेश करने वाले अनेकानेक क़िस्से सुनाई देते हैं वहीँ कुछ घटनायें ऐसी भी सामने आती हैं जिन्हें सुनकर ऐसा लगता है गोया इसी भारतीय समाज के ही कुछ लोगों की संवेदनायें बिल्कुल ही मुर्दा हो चुकी हैं। ऐसे लोगों में इंसानियत नाम की चीज़ ही नहीं बची है। दिल दहला देने वाली ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों उत्तर प्रदेश राज्य के महराजगंज ज़िले में स्थित नौतनवा क़स्बे में पेश आई। भारत-नेपाल सीमा पर स्थित नौतनवा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के शहर गोरखपुर से लगभग 87 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस पूरे पूर्वांचल क्षेत्र में धर्म ध्वजा पूरे वेग से लहराती है। इसी नौतनवा नगर पालिका के अंतर्गत राजेंद्र नगर वॉर्ड से एक बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य सामने आया। इस ताज़ातरीन घटना ने तो इंसानियत को झकझोर कर रख दिया।
समाचारों के अनुसार रेहड़ी ठेले पर गली गली चूड़ियां बेचकर अपने परिवार का पालन पोषण करने वाले 50 वर्षीय लव कुमार पटवा नामक एक व्यक्ति का लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया। लव कुमार की पत्नी का निधन भी अभी मात्र छह माह पहले ही हुआ था। अब उसके परिवार में उसके दो बेटे 14 वर्षीय राजवीर व 10 वर्षीय देवराज तथा एक छोटी बेटी बचे थे। अब इन्हीं बच्चों पर अपने मृत पिता के अंतिम संस्कार की ज़िम्मेदारी थी। उसका कोई भी रिश्तेदार या पड़ोसी अंतिम संस्कार करने के लिये सामने नहीं आया। बच्चों की दादी आई भी तो रो पीट कर वापस चली गयी। बच्चे अंतिम संस्कार करने या उसके लिये सहायता करने की भीख समाज से मांगते रहे। यहाँ तक कि तीन दिन तक लाश घर में सड़ती रही। ज़रा सोचिये कि क्या गुज़र रही होगी उन मासूम बच्चों पर जब वे अपने बाप की रेहड़ी पर ही अपने बाप की सड़ी हुई लाश रखकर लोगों से अंतिम संस्कार हेतु पैसे मांगते फिर रहे होंगे ? जब यह बच्चे ठेले पर लाश लेकर श्मशान घाट पहुंचे तो बताया गया कि वहां जलाने हेतु लकड़ी नहीं है। और फिर जब यह बेगुनाह मासूम अपने बाप के शव को लेकर क़ब्रिस्तान पहुंचे तो क़ब्रिस्तान वालों ने यह कहकर लाश को दफ़्न करने से मना कर दिया कि यह शव हिन्दू का है ।
आख़िरकार बच्चे लाश को ठेले पर रखकर सड़क पर खड़े होकर रोने बिलखने लगे। कोई दुर्गन्ध से अपनी नाक बंद कर गुज़र जाता तो कोई उन बदनसीब बच्चों की फ़ोटो खींचता या वीडिओ बनाता परन्तु मदद करने के लिये ‘धर्म जागृत समाज ‘ का कोई भी व्यक्ति सामने न आता। हद तो यह है कि ठेले पर शव रखा देखने व मृतक लव कुमार के स्थानीय व्यक्ति होने के बावजूद कुछ लोग यह कहकर आगे बढ़ जाते कि ‘यह भीख मांगने का नया ट्रेंड है’ । इसी दौरान यह मायूस बच्चे जब अपने बाप की लाश को ठेले पर ढकेलते हुये नदी की ओर रोते बिलखते जा रहे थे तभी राहुल नगर वार्ड के निवासी रशीद क़ुरैशी की नज़र उन बच्चों व उनके साथ दुर्गन्ध मारती लाश पर पड़ी। बच्चों ने रोते बिलखते अपनी सारी पीड़ा रशीद से सांझी की। रशीद ने तुरंत अपने भाई व उसी राहुल नगर (वार्ड 17) के पार्षद वारिस क़ुरैशी को फ़ोन पर पूरी घटने की जानकारी दी। उसके बाद दोनों क़ुरैशी बंधुओं ने सर्वप्रथम उन रोते बच्चों को ढारस बंधाई और उन्हें संभाला। उसके बाद अंतिम संस्कार हेतु लकड़ी व आवश्यक सामग्री का प्रबंध किया। फिर समाज के कुछ लोगों को साथ लेकर शमशान घाट जाकर हिन्दू रीति रिवाज के साथ मृतक का अंतिम संस्कार कराया। आज उस इलाक़े के लोग मानवता की रक्षा करने वाले क़ुरैशी भाइयों की इंसानियत को जहाँ सलाम कर रहे हैं, वहीं उनके रिश्तेदारों और पड़ोसियों की बेरुख़ी तथा नगर पालिका की लापरवाही पर भी घोर ग़ुस्सा जता रहे हैं। साथ ही उस इलाक़े के ‘हिन्दू जागरण अभियान’ में जुटे लोगों को भी कटघरे में खड़ा कर रहे हैं।
पिछले दिनों ऐसा ही एक चित्र जिसे पंजाब की बाढ़ से संबंधित बताया जा रहा है,सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। इस चित्र में एक मासूम बच्चा बाढ़ के पानी में अपनी मां की तैरती लाश को खींच रहा है। शायद इस उम्मीद से कि उसकी मां मरी नहीं है। इस मार्मिक दृश्य को देखने वाले लोग आगे बढ़कर बच्चे को गोद उठाने व उसकी मां की लाश को पानी से बाहर निकालने में मदद करने के बजाय मोबाईल से इस दृश्य का वीडीओ बनाना ज़्यादा ज़रूरी समझ रहे हैं। क्या इस तरह की घटनाएं इस बात का सुबूत नहीं कि हमारे धर्म प्रधान देश में होने वाले इस तरह के हादसों के बाद केवल किसी इंसान की ही मौत नहीं होती बल्कि यह मानवता की मौत भी है। इससे यह भी पता चलता है कि धार्मिकता का ढोंग करने वाले ऐसे लोगों की संवेदनायें पूरे तरह मृत हो चुकी हैं।


निर्मल रानी