गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े, दिखावा नहीं 

0

 “कृष्ण का पर्व हमें सिखाता है कि असली भक्ति धरती, गाय और करुणा में है, कैमरे की चमक में नहीं।”

गोवर्धन पूजा केवल भगवान कृष्ण का पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति, गाय और धरती के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति दिखावे में नहीं, संवेदना में है। आज जब पूजा इंस्टाग्राम की तस्वीर बन चुकी है और गोबर की जगह प्लास्टिक ने ले ली है, तब ज़रूरत है श्रद्धा के वास्तविक अर्थ को समझने की। गोवर्धन पर्व हमें याद दिलाता है कि मिट्टी, जल और जीव-जंतु की सेवा ही असली आराधना है। पूजा तब पूर्ण होती है जब धरती मुस्कुराती है, न कि सिर्फ़ कैमरा।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

दीपों की कतारें अभी बुझी भी नहीं होतीं कि अगली सुबह गोवर्धन पर्व आ जाता है। यह त्योहार केवल भगवान कृष्ण की पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति, गोवंश और सामूहिक श्रम के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है। यह पर्व उस सादगी, मिट्टी की सुगंध और मन की पवित्रता का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति की जड़ों में रची-बसी है। लेकिन जब श्रद्धा का अर्थ केवल दिखावे, फोटो और स्टेटस तक सीमित रह गया हो, तब “गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े” कहना एक कामना भी है और एक चेतावनी भी।

कृष्ण की कथा में गोवर्धन पूजा का मूल भाव बहुत गहरा है। जब इंद्र के अहंकार से तंग आकर गोकुलवासी भीषण वर्षा में डूबने लगे, तब बालक कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उंगली पर उठा लिया। इस घटना को केवल एक चमत्कार के रूप में देखना उसके अर्थ को छोटा करना है। असल में यह एक सामाजिक प्रतीक है। यह हमें बताती है कि जब सत्ता अहंकार में अंधी हो जाती है, तब जनसाधारण को अपने सामूहिक साहस से संकट से निकलना पड़ता है। कृष्ण ने गोवर्धन पूजा की परंपरा इसलिए शुरू की ताकि लोग प्रकृति, गोमाता और अपनी श्रमशक्ति को देवत्व के रूप में स्वीकारें—क्योंकि वही असली सहायक हैं, न कि केवल आकाश के देवता।

गोवर्धन पूजा दरअसल प्रकृति पूजा है। गाय, गोबर, गोचर भूमि—ये सब उस पारिस्थितिकी का हिस्सा हैं जिसने भारतीय जीवन को आत्मनिर्भर बनाया। जब हम गोबर, मिट्टी और फूलों से गोवर्धन बनाते हैं, तो वह धरती और पर्यावरण के प्रति हमारी श्रद्धा का प्रतीक होता है। वह एक स्मरण है कि यह मिट्टी ही हमारी असली माता है, जो हर बीज को अंकुरित कर हमें अन्न देती है। लेकिन आज के दौर में यह सब प्रतीक धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। गोबर की जगह प्लास्टिक की सजावट ने ले ली है, मिट्टी की गंध पर परफ्यूम का कब्जा हो गया है। गोवर्धन पूजा अब इंस्टाग्राम पोस्ट बन गई है—जिसमें “हैप्पी गोवर्धन पूजा” के स्टिकर तो हैं, पर गाय के लिए चारा नहीं। श्रद्धा अब धरती पर नहीं, स्क्रीन पर चमकती है।

कृष्ण ने कहा था—“कर्मण्येवाधिकारस्ते।” लेकिन हमने कर्म छोड़कर कर्मकांड को पकड़ लिया। पूजा अब उस भावना से दूर जा रही है जिसमें सामूहिकता, सहयोग और संवेदना थी। पहले गाँवों में सब मिलकर गोवर्धन बनाते थे, बच्चे गोबर लाते, महिलाएँ फूल सजातीं, पुरुष दीप रखते। वह सामूहिक श्रम और सादगी का पर्व था, जिसमें न कोई प्रतियोगिता थी, न तुलना। आज हर घर में अलग-अलग पूजा होती है—मानो यह अहंकार का गोवर्धन हो गया हो। श्रद्धा भी अब प्रदर्शन बन गई है, जिसमें पूजा का असल अर्थ खो गया है।

भारत का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि हम गाय को “माता” कहकर आँसू बहाते हैं, लेकिन सड़कों पर वही गाय भूख और दर्द से मरती है। गोवर्धन पूजा का केंद्र ही गाय है, और हम उसी केंद्र को भुला चुके हैं। यह कैसी श्रद्धा है जो दीप जलाती है पर एक मुठ्ठी चारा देने में कंजूसी करती है? पूजा का अर्थ केवल आरती नहीं, जिम्मेदारी भी है। जब तक हम गोवंश, जल, मिट्टी और वृक्षों के प्रति करुणा नहीं दिखाएँगे, तब तक हमारी पूजा अधूरी रहेगी।

त्योहार अब भक्ति नहीं, भोग का उत्सव बनते जा रहे हैं। गोवर्धन पूजा भी अब “सेल्फी सीज़न” का हिस्सा बन गई है। प्रसाद, थाल और पूजा की तस्वीरें सोशल मीडिया पर अपलोड करने की होड़ लग जाती है। लेकिन असली भोग—जो सेवा, संतोष और सादगी में था—वह कहीं खो गया है। हमारी दादी-नानी के समय यह पर्व मिट्टी और मेहनत की खुशबू से भरा होता था। अब यह कृत्रिम रोशनी और दिखावे का तमाशा बन गया है। श्रद्धा अब कैमरे की फ्लैश पर निर्भर है, आत्मा की रोशनी पर नहीं।

अगर कृष्ण आज होते, तो शायद पूछते—क्या तुम सच में गोवर्धन बना रहे हो, या गोवर्धन के मूल अर्थ को मिटा रहे हो? क्या तुम्हारी पूजा में धरती की गंध है या केवल मॉल की सुगंध? क्या तुम्हारी आरती में गाय की घंटी की आवाज़ है या मोबाइल के नोटिफिकेशन की? ये सवाल हमारे भीतर की श्रद्धा की जाँच करते हैं। क्योंकि भक्ति तभी सार्थक होती है जब वह दूसरों के सुख-दुख में सहभागी बनती है।

ग्रामीण भारत में आज भी यह पर्व आत्मीयता से मनाया जाता है। गाँव की गलियों में बच्चे नंगे पैर गोबर इकट्ठा करते हैं, महिलाएँ पारंपरिक गीत गाती हैं—“गोवर्धन धर्यो गिरधारी।” वहाँ पूजा में सादगी है, पर दिल है। वहीं शहरी भारत में गोवर्धन पूजा “रील” बन चुकी है—पाँच मिनट की पूजा, फिर पिज़्ज़ा पार्टी। यह फर्क बताता है कि विकास ने हमें सुविधा तो दी, पर संवेदना छीन ली। हमारी आधुनिकता ने हमें अपने ही मूल से काट दिया है।

जब जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट मानवता के सामने सबसे बड़ा खतरा बन चुके हैं, तब गोवर्धन पूजा का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह पर्व हमें सिखाता है कि ईश्वर से प्रार्थना करने से पहले हमें धरती के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह वह समय है जब हमें गोवर्धन पूजा की व्याख्या को नये अर्थों में देखना चाहिए—केवल धर्म नहीं, बल्कि जीवनशैली के रूप में। अगर हम इस दिन पेड़ लगाएँ, गोशाला में सेवा करें, तालाब साफ़ करें, पशुओं को भोजन दें—तो वही सच्ची श्रद्धा होगी।

श्रद्धा का अर्थ केवल झुकना नहीं, जुड़ना है—धरती से, जल से, पशु से, मनुष्य से। जब श्रद्धा जिम्मेदारी के साथ जुड़ती है, तभी वह भक्ति बनती है। वरना वह सिर्फ रस्म रह जाती है। कृष्ण का गोवर्धन पर्व हमें यही सिखाता है—कि असली धर्म दूसरों के लिए खड़ा होना है।

कृष्ण ने इंद्र का अहंकार तोड़ा था, लेकिन आज हमारे भीतर भी ऐसे सैकड़ों इंद्र पल रहे हैं—लालच, ईर्ष्या, उपभोग, दिखावा और अधिकार की अंधी चाह। हमें इन इंद्रों को शांत करने के लिए अपने भीतर एक गोवर्धन उठाना होगा। वह गोवर्धन कोई पत्थर का पहाड़ नहीं, बल्कि विवेक, संयम और करुणा का पहाड़ है, जिसे हम सबको मिलकर थामना है।

गोवर्धन पूजा का एक और गहरा पक्ष है—यह पर्व सामूहिकता का उत्सव है। जब गोवर्धन के नीचे सारा गोकुल एकत्र हुआ था, तब किसी ने किसी की जात, पद या संपत्ति नहीं पूछी थी। सब एक ही छत के नीचे थे—बराबर, सुरक्षित, जुड़ाव में। यह दृश्य बताता है कि संकट के समय समाज को एकता में रहना चाहिए। पर आज हम अपने-अपने घरों के भीतर बंद हैं, पूजा भी निजी हो गई है, और समाज से संबंध केवल औपचारिक रह गए हैं। हमें फिर वही सामूहिकता लौटानी होगी, जिसमें साथ रहना भी पूजा है।

यह पर्व हमें यह भी सिखाता है कि शक्ति का अर्थ केवल भौतिक बल नहीं होता। जब बालक कृष्ण ने पर्वत उठाया था, तब वह शारीरिक नहीं, नैतिक शक्ति थी। आज के युग में वह नैतिक शक्ति सबसे बड़ी कमी बन गई है। हमें हर घर में, हर हृदय में एक छोटा-सा गोवर्धन बनाना होगा—जहाँ श्रद्धा, सादगी और करुणा एक साथ बसें।

अगर गोवर्धन पूजा का सच्चा पालन करना है, तो तीन संकल्प लेने होंगे। पहला, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता—हर पूजा के बाद एक पेड़ लगाना या किसी पशु को भोजन देना। दूसरा, सादगी का पुनर्जागरण—दिखावे की जगह सच्चे भाव अपनाना। और तीसरा, सामूहिकता का पुनर्स्थापन—पूजा को फिर से मिल-जुलकर मनाने की परंपरा लौटाना, ताकि समाज में संवाद और संवेदना जिंदा रहे।

आज का समय ऐसा है जब श्रद्धा की परिभाषा बदल रही है। श्रद्धा अब विज्ञापनों और प्रचार में दिखने लगी है, पर जीवन से गायब हो रही है। हम मंदिरों में झुकते हैं, पर किसी घायल गाय या भूखे इंसान के आगे नहीं रुकते। हम दीये जलाते हैं, पर अपने मन के अंधकार से डरते हैं। यही वह विच्छेदन है जो हमें भीतर से खोखला बना रहा है। गोवर्धन पूजा उस खोखलेपन को भरने का अवसर है—अगर हम चाहें तो।

यह पर्व केवल धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि नैतिक अनुबंध है—मनुष्य और प्रकृति के बीच। यह याद दिलाता है कि देवता की पूजा से पहले धरती की सेवा जरूरी है। गोवर्धन पर्वत अब कोई भौतिक शिला नहीं, बल्कि हमारे भीतर का आत्मबल है, जो संकट के समय खड़ा रहता है। इंद्र अब कोई स्वर्गीय देव नहीं, बल्कि हमारी इच्छाओं का प्रतीक है, जो हर सुख पर वर्षा की तरह गिरना चाहता है। और कृष्ण वह विवेक है जो उसे संयम सिखाता है।

जब हम कहते हैं “गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े”, तो इसका अर्थ केवल पूजा-पाठ की बढ़ोतरी नहीं, बल्कि आस्था की गहराई से है। श्रद्धा वह शक्ति है जो हमें कर्तव्य के प्रति सचेत करती है। अगर श्रद्धा बढ़ी, तो समाज में संवेदना बढ़ेगी; अगर श्रद्धा गहरी हुई, तो राजनीति में नैतिकता लौटेगी; अगर श्रद्धा सच्ची हुई, तो पर्यावरण बचेगा।

हमारे समाज को आज एक ऐसे गोवर्धन की ज़रूरत है जो दिखावे के नहीं, दायित्व के पत्थरों से बना हो। एक ऐसे पर्व की, जो हमें सजावट नहीं, सच्चाई सिखाए। एक ऐसी श्रद्धा की, जो सोशल मीडिया पर नहीं, समाज के भीतर बसे। गोवर्धन पूजा का सार यही है—जहाँ प्रकृति, पशु और मनुष्य एक सूत्र में बंधे हों।

कृष्ण का संदेश बहुत सीधा है—“जब संकट आये, तो पर्वत उठाओ, पर मिलकर।” यही वह पंक्ति है जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी। अगर हम गोवर्धन पूजा के दिन अपने भीतर यह संकल्प लें कि हम दिखावे से अधिक जिम्मेदारी निभाएँगे, तो यही पूजा सबसे पवित्र होगी।

गोवर्धन पूजा हमें याद दिलाती है कि मिट्टी में ही जीवन की सबसे सच्ची सुगंध है, और उसी मिट्टी से हमारी श्रद्धा भी अंकुरित होती है। वह मिट्टी जो गाय के खुरों से पवित्र होती है, किसान के श्रम से सींची जाती है, और आकाश की धूप से सुनहरी बनती है। जब तक हम इस मिट्टी का आदर नहीं करेंगे, तब तक कोई भी पूजा पूर्ण नहीं होगी।

इसलिए इस बार जब दीप जलाएँ, तो साथ एक वचन भी लें—कि गोवर्धन पूजा से केवल घर नहीं, मन भी उजले होंगे। श्रद्धा केवल आरती की लौ में नहीं, व्यवहार की रोशनी में भी दिखेगी। तभी हम सच्चे अर्थों में कह सकेंगे—

“गोवर्धन पूजा से श्रद्धा बढ़े, दिखावा नहीं।”

क्योंकि श्रद्धा बढ़ी तो ईश्वर अपने आप हमारे भीतर उतर आएगा, और शायद तब हमें किसी गोवर्धन की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी—क्योंकि हर मन स्वयं पर्वत बन जाएगा।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

All reactions

बदलते समय में भाई दूज: प्रेम और अपनापन कैसे बना रहे

0

> “त्योहार अब सिर्फ़ रस्म नहीं, रिश्तों की परीक्षा बनते जा रहे हैं — सवाल यह है कि क्या हमारे दिलों में अब भी वही स्नेह बचा है?”

भाई दूज सिर्फ़ तिलक और मिठाई का त्योहार नहीं, बल्कि रिश्तों की वह डोर है जो समय की रफ़्तार में भी स्नेह का रंग बनाए रखती है। पर बदलते दौर में जहाँ मुलाकातें वीडियो कॉल पर सिमट गई हैं और तिलक डिजिटल इमोजी बन गया है, वहाँ यह सवाल उठता है — क्या रिश्तों की गर्माहट अब भी वैसी ही है? भाई दूज हमें याद दिलाता है कि प्रेम केवल परंपरा नहीं, आत्मीयता का अभ्यास है। यह त्योहार हमें अपने व्यस्त जीवन में अपनापन लौटाने का अवसर देता है।

— डॉ. प्रियंका सौरभ

दीवाली के बाद का शांत उजाला जब धीरे-धीरे घरों में उतरता है, तब आती है भाई दूज की सुबह — मिठास और ममता से भरी। बहनें अपने भाइयों के माथे पर तिलक लगाती हैं, आरती करती हैं और मन ही मन यह कामना करती हैं कि उनका भाई सदा सुखी रहे। बदले में भाई बहन को उपहार देता है और यह वादा कि जीवनभर उसका साथ निभाएगा। यह दृश्य जितना सरल लगता है, उतना ही गहरा भी है। क्योंकि यह सिर्फ एक तिलक नहीं, रिश्तों में भरोसे, सुरक्षा और प्रेम की लकीर खींचने का संस्कार है।

लेकिन आज जब समय बदल रहा है, रिश्तों की परिभाषाएँ बदल रही हैं, तब यह सवाल उठता है कि क्या भाई दूज का वही अपनापन और स्नेह अब भी पहले जैसा है? क्या भाई-बहन का रिश्ता अब भी उतना ही सहज, निर्भीक और भावनाओं से भरा है, जैसा कभी गाँव की मिट्टी और आँगन की धूप में होता था?

कभी भाई दूज सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव हुआ करता था। बहनें सवेरे से तैयार होकर भाई की प्रतीक्षा करती थीं, घरों में पकवानों की खुशबू फैल जाती थी। भाई दूर-दूर से बहन के घर पहुँचते थे, क्योंकि यह दिन मिलन का होता था। न कोई दिखावा, न औपचारिकता—बस भावनाओं का सच्चा प्रवाह। उस समय रिश्तों में दूरी नहीं, दिलों की गर्माहट थी।

आज भी भाई दूज मनाया जाता है, पर उसकी आत्मा कहीं धुंधली पड़ने लगी है। अब भाई दूज का तिलक कई बार व्हाट्सएप पर भेजे गए इमोजी से लग जाता है, राखी और तिलक दोनों ऑनलाइन ग्रीटिंग्स में सिमट गए हैं। “भाई दूज मुबारक” का संदेश सोशल मीडिया पर चमकता है, पर उसके पीछे की नज़रों में अब वो अपनापन नहीं दिखता जो किसी बहन की आँखों में तब झलकता था जब वह अपने भाई का चेहरा देखती थी।

यह बदलाव केवल तकनीक का नहीं, संवेदना का भी है। समय ने हमें जोड़ा जरूर है, पर जोड़े हुए रिश्ते अब दिलों से ज़्यादा डिवाइसों में रहने लगे हैं। भाई दूज जैसे पर्व जो निकटता, स्नेह और संवाद के प्रतीक थे, अब “स्टेटस अपडेट” बनते जा रहे हैं। इस बदलाव की जड़ें आधुनिक जीवन की भागदौड़, व्यावसायिकता और आत्मकेंद्रित सोच में हैं, जिसने हमें अपनों से दूर कर दिया है।

भाई दूज का पर्व केवल बहन की पूजा नहीं, बल्कि उस भावनात्मक संतुलन का प्रतीक भी है, जिसमें भाई सुरक्षा देता है और बहन संवेदना। दोनों एक-दूसरे की जरूरत बनकर रिश्तों के समाज का ढांचा खड़ा करते हैं। लेकिन आज की पीढ़ी में यह रिश्ता धीरे-धीरे औपचारिक होता जा रहा है। शहरों में बढ़ती व्यस्तता, प्रवास, और आत्मनिर्भर जीवनशैली ने भाई-बहन के रिश्तों को एक ‘मौके की मुलाकात’ बना दिया है।

जहाँ पहले भाई अपनी बहन के घर जाकर दिन भर का समय उसके परिवार के साथ बिताता था, अब वह मुलाकात कुछ मिनटों या वीडियो कॉल तक सीमित रह जाती है। बहनें भी अब आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, भावनात्मक रूप से मज़बूत हैं, और जीवन के हर फैसले खुद लेती हैं। यह बदलाव सकारात्मक भी है, क्योंकि अब बहनें “सुरक्षा की मोहताज” नहीं, बल्कि बराबरी के आत्मसम्मान की प्रतीक हैं। मगर इस बराबरी के दौर में भी रिश्तों की गर्माहट बनी रहना जरूरी है।

त्योहारों का उद्देश्य ही यही होता है—रिश्तों को दोबारा गढ़ना, दूरी मिटाना। भाई दूज हमें हर साल यह याद दिलाती है कि रिश्तों का पोषण केवल खून से नहीं, व्यवहार से होता है। लेकिन आधुनिकता की रफ्तार ने हमें इतना व्यस्त कर दिया है कि हम भावनाओं को भी समय-सारिणी में बाँधने लगे हैं। कभी-कभी लगता है कि रिश्ते अब कैलेंडर पर टिके कुछ त्योहारी दिनों के मेहमान बन गए हैं।

आज की बहनें केवल उपहार नहीं, भावनात्मक साझेदारी चाहती हैं। उन्हें यह नहीं चाहिए कि भाई बस त्यौहार पर पैसे या गिफ्ट दे दे; वे चाहती हैं कि भाई उन्हें समझे, उनका सम्मान करे, उनके निर्णयों में साथ खड़ा रहे। और भाई भी चाहते हैं कि बहन सिर्फ स्नेह की मूर्ति नहीं, बल्कि सहयोग और संवेदना की साझेदार बने। यही रिश्ते का नया रूप है—बराबरी और आत्मीयता का संतुलन।

भाई दूज अब केवल बहन की सुरक्षा का प्रतीक नहीं, बल्कि आपसी सम्मान और संवाद का भी प्रतीक बनना चाहिए। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि भाई-बहन का रिश्ता सिर्फ बचपन का नहीं होता, वह उम्रभर का साथ है। भले जीवन के रास्ते अलग हों, पर दिलों के रास्ते जुड़े रहने चाहिए।

आज का समाज रिश्तों को “प्रोडक्टिविटी” और “प्रोफेशनलिज़्म” की कसौटी पर तौलने लगा है। हम दोस्ती में भी फायदे ढूँढ़ते हैं, तो पारिवारिक रिश्ते भी कभी-कभी बोझ लगने लगते हैं। भाई दूज ऐसे ही समय में हमें झकझोरती है—कि प्रेम का कोई विकल्प नहीं होता। तकनीक रिश्ते बना सकती है, पर आत्मीयता केवल स्पर्श, मुस्कान और अपनापन से आती है।

यह सही है कि समय बदल रहा है और रिश्तों की शैली भी बदलनी चाहिए। लेकिन हर बदलाव में भावनाओं का बीज बचा रहना जरूरी है। भाई दूज के पर्व को नया अर्थ देना होगा—जहाँ भाई और बहन दोनों एक-दूसरे की भावनाओं, संघर्षों और स्वतंत्रता का सम्मान करें। त्योहार तभी जीवित रहते हैं जब वे समय के साथ अपनी आत्मा को बचाए रखते हैं।

आज की बहनें अपने भाइयों से केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि समानता चाहती हैं; और भाई भी यह समझने लगे हैं कि बहन की स्वतंत्रता उसकी शक्ति है, विद्रोह नहीं। यह समझदारी इस रिश्ते को और गहरा बना सकती है। भाई दूज अब उस सामाजिक ढांचे का प्रतीक बन सकता है जहाँ पुरुष और स्त्री के बीच सहयोग और संवेदना का रिश्ता हो, न कि संरक्षण और निर्भरता का।

कभी-कभी लगता है कि त्योहारों की भी अपनी भाषा होती है, जो हमें वह सब याद दिलाती है जिसे हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भूल जाते हैं। भाई दूज की भाषा है—स्मृति और स्नेह की। यह पर्व हमें उस समय में ले जाता है जब हम बिना कारण किसी की परवाह करते थे, जब रिश्ते लेन-देन नहीं, जीवन का आधार थे। इस पर्व के बहाने हमें अपने भीतर झाँकना चाहिए—क्या हम अब भी उतने ही आत्मीय हैं जितने बचपन में थे?

अगर इस सवाल का उत्तर ‘हाँ’ है तो यह त्योहार जीवित है। और अगर उत्तर ‘न’ है, तो हमें इसे फिर से जीवित करना होगा—किसी सोशल मीडिया पोस्ट से नहीं, बल्कि सच्चे व्यवहार से। किसी बहन के घर जाकर उसका हाल पूछने से, किसी भाई को गले लगाने से, किसी बचपन की याद को फिर से जीने से।

भाई दूज का असली अर्थ यही है कि रिश्तों की दीवारों पर समय की धूल जम जाने के बावजूद उनका रंग न फीका पड़े। यह पर्व हमें सिखाता है कि प्रेम का रिश्ता कभी पुराना नहीं होता, बस हमें उसे झाड़-पोंछकर चमकाना आना चाहिए।

आज जब दुनिया ‘डिजिटल रिश्तों’ की ओर बढ़ रही है, तो ऐसे पर्व हमें धरती से जोड़ते हैं। हमें बताते हैं कि मानवीय भावनाएँ अब भी सबसे बड़ी पूँजी हैं। इसलिए भाई दूज का तिलक केवल माथे पर नहीं, मन पर लगाना चाहिए—जहाँ अपनापन, स्मृति और कृतज्ञता की लकीरें स्थायी रहें।

भाई दूज का संदेश बहुत सीधा है—रिश्तों को निभाने के लिए कोई बड़ी रस्म नहीं चाहिए, बस छोटी-छोटी संवेदनाएँ चाहिएं। कभी एक फोन कॉल, कभी एक पत्र, कभी बिना कारण किया गया धन्यवाद—यही वो छोटे तिलक हैं जो भाई-बहन के रिश्ते को जीवित रखते हैं।

समय बदलेगा, त्यौहार भी रूप बदलेंगे, पर प्रेम और अपनापन अगर मन में बसा रहा, तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं। भाई दूज हमें यह याद दिलाने आया है कि जीवन चाहे जितना तेज़ हो जाए, एक दिन रुककर किसी प्रिय को तिलक लगाना, उसकी आँखों में अपनेपन की रोशनी देखना—यही सच्चा त्योहार है।

इसलिए इस बार जब तिलक लगाएँ, तो साथ यह वचन भी लें—कि रिश्तों की डोर कभी ढीली नहीं पड़ने देंगे। भाई दूज की यह रौशनी सिर्फ दीयों में नहीं, दिलों में भी जले। प्रेम और अपनापन केवल तस्वीरों में नहीं, व्यवहार में बहे। तभी इस पर्व का सार बचा रहेगा, और हम कह सकेंगे—

बदलते समय में भी, भाई दूज से प्रेम और अपनापन बना हुआ है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

21 अक्टूबर को गुरू रामदास ने की अमृतसर नगर की स्थापना

0

कहते हैं कि 21 अक्टूबर 1577 गुरू रामदास ने अमृतसर नगर की स्थापना की।और इसे मूल रूप से ‘रामदासपुर’ के नाम से जाना जाता था। शहर का नाम ‘अमृतसर’ श्री गुरु रामदास जी द्वारा बनाए गए ‘अमृत सरोवर’ से पड़ा। गुरु अर्जुन देव जी ने 1577 में इसी सरोवर के बीच श्री हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की नींव रखी, जो 1604 में पूरा हुआ। शहर का इतिहास 19वीं सदी में ब्रिटिश शासन के अधीन आने के साथ-साथ जलियांवाला बाग हत्याकांड जैसी दुखद घटनाओं से भी जुड़ा है। 

अमृतसर का इतिहास गौरवशाली है। यह अपनी संस्कृति और लड़ाइयों के लिए बहुत प्रसिद्ध रहा है। अमृतसर अनेक त्रासदियों और दर्दनाक घटनाओं का गवाह रहा है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा नरसंहार अमृतसर के जलियांवाला बाग में ही हुआ था। इसके बाद भारत पाकिस्तान के बीच जो बंटवारा हुआ उस समय भी अमृतसर में बड़ा हत्याकांड हुआ।

यहीं नहीं अफगान और मुगल शासकों ने इसके ऊपर अनेक आक्रमण किए और इसको बर्बाद कर दिया। इसके बावजूद सिक्खों ने अपने दृढ संकल्प और मजबूत इच्छाशक्ति से दोबारा इसको बसाया। हालांकि अमृतसर में समय के साथ काफी बदलाव आए हैं लेकिन आज भी अमृतसर की गरिमा बरकरार है।

अमृतसर लगभग साढ़े चार सौ वर्ष से अस्तित्व में है। सबसे पहले गुरु रामदास ने 1577 में 500 बीघा में गुरूद्वारे की नींव रखी थी। यह गुरूद्वारा एक सरोवर के बीच में बना हुआ है। यहां का बना तंदूर बड़ा लजीज होता है। यहां पर सुन्दर कृपाण, आम पापड, आम का आचार और सिक्खों की दस गुरूओं की खूबसूरत तस्वीरें मिलती हैं।

अमृतसर में पहले जैसा आकर्षण नहीं रहा। अमृतसर के पास उसके गौरवमयी इतिहास के अलावा कुछ भी नहीं है। अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के अलावा देखने लायक कुछ है तो वह है अमृतसर का पुराना शहर। इसके चारों तरफ दीवार बनी हुई है। इसमें बारह प्रवेश द्वार है। यह बारह द्वार अमृतसर की कहानी बयान करते हैं।

May be an image of the Charminar

All reactio

बच्चों से भीख मंगवाना एक सामाजिक अपराध

0

 

“मासूम बच्चों का शोषण सिर्फ गरीबी का परिणाम नहीं, बल्कि समाज और व्यवस्था की बड़ी विफलता है।”

मासूम बच्चों का शोषण समाज की गंभीर समस्या बन चुका है। भीख मंगवाना केवल गरीबी का नतीजा नहीं, बल्कि बच्चों की मासूमियत का फायदा उठाने वाला व्यवस्थित व्यवसाय है। लोग दया के भाव में पैसा देते हैं, जबकि बच्चे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रभावित होते हैं। समाज, सरकार और नागरिकों को मिलकर जागरूकता फैलानी चाहिए, चाइल्डलाइन (1098) और एनजीओ के माध्यम से बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए, और उन्हें शिक्षा व सुरक्षित वातावरण देना प्राथमिकता बनानी चाहिए। बचपन बच्चों का अधिकार है, किसी का व्यवसाय नहीं।

– डॉ प्रियंका सौरभ

हमारे समाज में बच्चों का बचपन उनकी सबसे बड़ी संपत्ति है। उनका खेलना, पढ़ना, सीखना और सुरक्षित वातावरण में पनपना ही उनका अधिकार है। लेकिन बच्चों का शोषण, भीख मंगवाने के लिए उनका इस्तेमाल और उनकी मासूमियत का लाभ उठाना आज एक गंभीर सामाजिक समस्या बन चुका है।

भीख मंगवाना केवल एक व्यक्तिगत समस्या नहीं है; यह एक व्यवस्थित व्यवसाय बन चुका है। छोटे शहरों और बड़े शहरों में यह आम दृश्य है कि मासूम बच्चे हाथ में थाली, कपड़े या किसी वस्तु के साथ चलते हैं, और लोग उनके मासूम चेहरों पर दया दिखाकर पैसे डाल देते हैं। यह न केवल बच्चों के बचपन को छीनता है, बल्कि उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से भी प्रभावित करता है।

समाज की जागरूकता की कमी, लोगों का दया भाव और कुछ परिवारों की आर्थिक मजबूरी मिलकर इस समस्या को बढ़ावा देते हैं। यह सिर्फ गरीबी का नतीजा नहीं, बल्कि बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन है।

बचपन किसी भी मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील हिस्सा होता है। यह वह समय है जब बच्चे सीखते हैं, अनुभव प्राप्त करते हैं और अपनी पहचान बनाते हैं। लेकिन जब बच्चों को भीख मंगवाने या किसी अन्य शोषण के लिए मजबूर किया जाता है, तो उनका विकास बाधित होता है।

भीख मंगवाना कभी-कभी आर्थिक मजबूरी का नतीजा हो सकता है, लेकिन जब यह नियमित रूप से होता है, और बच्चे को मजबूर किया जाता है, तो यह शोषण बन जाता है। मासूमियत का फायदा उठाकर बच्चों से पैसे कमाना एक नैतिक अपराध है।

समाज की भूमिका यहां महत्वपूर्ण बन जाती है। लोग यह सोचकर पैसा देते हैं कि वे मदद कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में वे बच्चों के शोषण को प्रोत्साहित कर रहे हैं। माता-पिता और परिवार की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों को इस तरह की गतिविधियों से बचाएं।

भारत में बाल श्रम और बच्चों से भीख मंगवाने को रोकने के लिए कई कानून हैं। बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम बच्चों को मजदूरी और शोषण से बचाने के लिए बनाया गया है। इसके अलावा, चाइल्डलाइन 1098 जैसी सेवाएँ 24×7 बच्चों की मदद के लिए उपलब्ध हैं।

एनजीओ और सामाजिक संगठन भी सक्रिय रूप से बच्चों को शोषण से बचाने और उन्हें शिक्षा उपलब्ध कराने का काम कर रहे हैं। लेकिन वास्तविक चुनौती यह है कि कई बार बच्चे और उनके माता-पिता कानूनी संरचना से अनजान रहते हैं, और शोषण नेटवर्क इतने संगठित होते हैं कि उन्हें पकड़ना मुश्किल होता है।

सरकार और समाज को मिलकर बच्चों की सुरक्षा के लिए जागरूकता फैलानी होगी और उन्हें सही दिशा में मार्गदर्शन देना होगा।

समाज का दया भाव और सहानुभूति अक्सर बच्चों के शोषण का कारण बन जाती है। अगर लोग बच्चों को भीख देने के बजाय सही तरीके से मदद करें, तो वे शोषण को बढ़ने से रोक सकते हैं।

स्थानीय समुदाय, स्कूल, माता-पिता और पड़ोसी मिलकर बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। बच्चों को सुरक्षित वातावरण, शिक्षा और खेलकूद का अवसर देना उनके विकास के लिए जरूरी है।

समाज को यह समझना होगा कि केवल पैसे देना बच्चों की मदद नहीं है। सही कार्रवाई, जैसे कि एनजीओ, चाइल्डलाइन और सामाजिक संस्थाओं को सूचित करना, ही बच्चों को शोषण से बचा सकती है।

भीख मंगवाना कई जगहों पर आर्थिक व्यवसाय बन चुका है। कुछ परिवार और नेटवर्क मासूम बच्चों को इस्तेमाल करके पूरे दिन हजारों रुपये कमाते हैं। यह सिर्फ बच्चों की मासूमियत का फायदा उठाना नहीं है, बल्कि उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से प्रभावित करना भी है।

पैसा देने वाले लोग यह सोचते हैं कि वे दया कर रहे हैं, लेकिन असल में वे इस प्रणाली को मजबूती प्रदान कर रहे हैं। यह एक चक्र बन जाता है, जिसमें बच्चों का शोषण जारी रहता है। बच्चों के भविष्य और समाज की नैतिक जिम्मेदारी के लिहाज से यह गंभीर समस्या है।

इस समस्या का समाधान समाज, सरकार और नागरिकों के मिलकर काम करने में है। बच्चों की सुरक्षा और शिक्षा के लिए कदम उठाना जरूरी है।

पैसे देने की बजाय मदद करें। बच्चों को भीख देने के बजाय उन्हें शिक्षा, खेल और सुरक्षित वातावरण उपलब्ध करवाएं। बच्चों की सुरक्षा के लिए चाइल्डलाइन (1098) और मान्यता प्राप्त एनजीओ से संपर्क करें। समाज में बच्चों के अधिकारों और शोषण की समस्या के बारे में जागरूकता बढ़ाएं। स्कूल, माता-पिता और पड़ोसी मिलकर बच्चों के सुरक्षित वातावरण को सुनिश्चित करें।

सिर्फ दया भाव या छोटे पैसों से बच्चों की मदद नहीं होगी। सही कार्रवाई, जागरूकता और कानूनी उपाय ही उन्हें बचा सकते हैं।

बचपन बच्चों का अधिकार है, किसी का व्यवसाय नहीं। मासूम बच्चों का शोषण समाज की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी को चुनौती देता है। हमें यह समझना होगा कि बच्चों को सुरक्षित, शिक्षित और स्वतंत्र वातावरण देना हमारा कर्तव्य है।

समाज, सरकार और नागरिकों के मिलकर सही कदम उठाने से ही इस समस्या का समाधान संभव है। जागरूकता, शिक्षा और सहयोग से ही हम बच्चों को उनका बचपन वापस दिला सकते हैं और उनके उज्ज्वल भविष्य की नींव रख सकते हैं।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

तिब्बत को नक्शे पर लाने वाले नैन सिंह रावत

0

1 अक्टूबर को  स्वर्गीय  पंडित नैन सिंह जी का जन्म दिन है। 

हमारे देश भारत में अनेक महान, साहसी तथा कर्तब्यनिष्ठ व्यक्तियों का जन्म हुआ है। जिन्होंने बिना किसी लोभ मोह लालसा के, अपने प्राणों का मोह त्याग कर अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। असाधारण कर्मठता व प्रतिभा के विरले व्यक्तित्व के महान व्यक्तियों ने भारत के प्रत्तेक कालखण्ड में जन्म लिया है। पराधीन भारत की सत्ता केन्द्र के शीर्ष में बैठे शासकों ने उनको यथा योग्य सम्मान भी दिया था। विदेशों का बौद्धिक वर्ग भी उनकी असाधारण कर्मठता एवम् विद्वता का कायल हुवाँ था। लेकिन स्वतंत्र भारत में उनको वह सम्मान नही मिला, जिस सम्मान के वह अधिकारी थे। महान विश्वविख्यात अन्वेषक पंडित नैन सिंह रावत भी देश की अनमोल व विरल विभूतियों में से एक थे। 

पंडित नैन सिंह रावत का जन्म सीमांत जिला पिथौरागढ़ के मुनस्यारी तहसील के मिलम गाँव में 21 अकटूबर सन् 1830 को हुआ । उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई । घोर आर्थिक तंगी व गरीबी के कारण वह आगे की शिक्षा ग्रहण नही कर पाए । उन दिनों भारत के सीमातं के निवासी व्यापार करने के लिए तिब्बत पैदल चलकर जाते थे, तिब्बत के व्यापारी भी भारत के सीमांत में व्यापार करने के लिए आते थे। उस समय पहाड़ों में सड़क की सुविधाओं का विस्तार नही हुवाँ था, तब सीमांत पिथौरागढ़ जिला अल्मौड़ा के अन्तर्गत एक तहसील थी, पिथौरागढ़ को सोर के नाम से अधिक जाना जाता था। उस समय सोर सड़क विहीन क्षेत्र था। मैंदानी शहरों से टनकपुर तक ही सड़क मार्ग था। सोर से टनकपुर तक पैदल चलकर जाया जाता था, टनकपुर पहुँचने में दो या तीन दिन लग जाते थे।

सीमांत क्षेत्र के निवासी तिब्बत से व्यापार करने के लिए कई दिनों तक पहाड़ के बर्फिले व दुर्गम मार्गो से होते हुए पैदल यात्रा करते थे। नैन सिंह अपने पिता अमर सिंह के साथ व्यापार करने के लिए छोटी उम्र में ही तिब्बत जाने लगे थे। अपनी कम उम्र में ही नैन सिंह व्यापार करने के कारण, तिब्बती के अनेक स्थानों को देख चुके थे व तिब्बत की भाषा सिख गए थे। जो उनके भविष्य में बहुँत अधिक काम आई।  

18वी शताब्दी का अंत होते ही भारत में राज करने करने वाली ब्रिटिश सरकार को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के भू-भाग का आधुनिक तकनिकी से मानचित्र बनाने की योजना का विचार आया था। 19वी शताब्दी के आरंभ में पूर्ण भारतीय भू-भाग का मानचित्र बनाने का क्रियान्वन आरंभ कर दिया था। लेकिन उनके समक्ष हिमालय के उत्तरी भू-भाग, तिब्बत का मानचित्र बनाने की अति समस्या आ रही थी। उस समय तिब्बत का विश्व के अन्य देशों के लिए तिब्बत में प्रवेश निषेध था। तिब्बत में अगर कोई विदेशी व्यक्ति छुपकर चले जाता था तो पकड़े जाने पर उसको मृत्युदंड दिए जाने का प्रावधान था।

अंग्रजों को तिब्बत के भू-भाग की कोई जानकारी नही मिल रही थी। इस कारण मानचित्र में तिब्बत के क्षेत्र वाले स्थान को उनको रिक्त छोड़ना पड़ रहा था। औपनिवेशिक भारत की ब्रिटिश सरकार तिब्बत के मानचित्र के निर्माण के बिना अपने कार्य को अपूर्ण मान रही थी। अंग्रेज स्वयं तिब्बत जा नही सकते थे। चतुर अंग्रेजों ने हिमालय पर्वत की श्रृंखललाओं की तलहटी में तिब्बत के निकट निवास करने वाली भारतीय भूभाग के लद्दाख, हिमांचल प्रदेश, गढ़वाल, कुमाउ व आसाम क्षेत्र तक के निवासियों में अपनी दूरदर्शी दृष्टी डाली। अंग्रेज चाहते थे कि तिब्बत के निवासियों की तरह का रंगरुप, तिब्बत की भाषा, तिब्बत की संस्कृति का ज्ञानी व शिक्षित ब्यक्ति उनको इन हिमालयी क्षेत्रों में मिल जाय तो उसको गुप्त प्रकार से, चोरी छिपे तिब्बत की भूगोलिक जानकारी लेने के लिए भेजा जाए। 

ब्रिटिश सरकार अपने इस गोपनीय योजना को मूर्तरुप देने के लिए किसी शिक्षित व्यक्ति की खोज आरंभ की। इस खोज अभियान में ब्रिटिश सरकार कुमाउ के मुनस्यारी निवासी पंडित नैन सिंह रावत को ढूढनें में सफल हो गई थी। उस समय नैन सिंह रावत अब 33 वर्ष के वयस्क पुरुष थे। वह अपने गाँव की प्राथमिक पाठशाला में शिक्षक के रुप में कार्यरत थे। सन् 1860 में भारतीय सर्वेक्षण विभाग के कुशल व योग्य अधिकारी कैप्टन थामस जार्ज मॉण्टगुमरी की पारखी नजरों ने पंडीत नैन सिंह रावत की असाधारण योग्यता को पहचान लिया था। 

ब्रिटिश सरकार ने शिक्षक पंडित नैन सिंह रावत तथा उनके चचेरे भाई माना सिंह रावत को खोजकर उनको सन् 1863 में देहरादून स्थित भारतीय सर्वेक्षण विभाग में 20 रुपया प्रतिमाह वेतन में नियुक्त किया गया था। उसके पश्चात उनको थर्मामीटर, कम्पास आदी दिशासूचक आधुनिक उपकरणों का प्रशिक्षण दिया गया। साथ ही उनको इस बात का भी प्रशिक्षण दिया कि चाहे भूमी की बनावट किसी भी प्रकार की हो, एक कदम 31.5 का निश्चय किया जाय। साथ उनको एक 100 दानों की एक माला गणना करने में सहायक के तौर पर  दी थी। पैदल चलते हुए जैसे 100 कदम पूरे हाने पर माला के एक दाने को आगे खिसका दिया जाय। माला के 100 दानों का एक चक्र पूर्ण होते ही दस हजार कदम होते थे, जो पाँच मील की दूरी को प्रमाणित करता था। 

प्रशिक्षण पूर्ण करने के पश्चात सन् 1865 में पंडित नैन सिंह रावत नेपाल की राजधानी काठमांठू व उनका भाई माना सिंह लद्दाख के मार्ग से अपने अभियान में तिब्बत जाने के लिए प्रस्थान कर गए। नैन सिंह ने काठमांठू से तिब्बत जाने के लिए उन्होंने तिब्बत के लामाओं की तरह का भेष धारण किया और गुप्त रुप से तिब्बत की सीमा के अन्दर प्रवेश करने में सफल हो गए थे। प्रशिक्षण में मिले निर्देश के अनुसार, उनको मार्ग में बर्फ से ढके हुए ऊँचे पर्वत शिखरों, गहरी संकरी खाईयों से, सूखे पहाड़ों व निर्जन क्षेत्रों से होकर गुजरना पढ़ा। उन क्षेत्रों में वह पानी उबालकर तापमान से उस स्थान की ऊँचाई ज्ञात कर लेते थे। दिनभर में पैदल चले गए कदमों की सहायता से वह दूरी की गणना कर लते थे। उनका चचेरा भाई माना सिंह पश्चिमी मार्ग से तिब्बत जाने में प्रयास करने में सफल नही हो पाया था, अतः वह वापस आ गया था। लेकिन पंडित नैन सिंह अद्वितीय साहस के साथ गुप्त रुप से तिब्बत भ्रमण करते रहे और वहाँ की भौगोलिक जानकारियों को जुटाते रहे। दिन भर वह शहर से शहर घूमते रहते थे, रात में उन स्थानों का भौगोलिक आंकलन कर लिख लेते थे।

पंडित नैन सिंह रावत तिब्बती भिक्षु के रुप में एक हाथ में  धर्मचक्र लिए हुए रहते थे। धर्मचक्र में वह वह अपनी धरातलीय गणना को छुपाने के लिए करते थे। एक स्थान से दूसरे स्थान तक की दूरी, उस स्थान की समुद्र तल से ऊँचाई, नदी, झील व वहाँ पाए जाने वाली फसलों का विवरण वह कागज में लिखकर धर्मचक्र में छिपा देते थे। कई बार नैन सिंह रावत तिब्बत में एक भेदिये के तौर पकड़े जाने से अपने बुद्धि कौशल से बाल-बाल बचे। असाधारण साहस के धनी, परिश्रमी, लगनशील अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, रात दिन अपने कार्य को पूर्ण करने की धुन में ब्यापारियों के साथ सन् 1866 में तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँचने में सफल हो गए थे। 

तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँचने वाले पंडित नैन सिंह रावत प्रथम ब्रिटिश भारतीय सर्वेयर बने। तिब्बत देश अंग्रेज सरकार के एक रहस्यमय देश बना हुवाँ था। पंडीत नैन सिंह रावत की जीवटता व अतुलनीय साहस से भरी हुई गोपनीय तरीके से की गई यात्रा से प्राप्त जानकारियों से तिब्बत का रहस्य छिपा नही रह गया था। सांगपो नदी की उपरी घाटी में 18 माह तक पैदल चलते हुए, एक-एक कदम की गणना करते हुए 2000 किलोमीटर की यात्रा अपने 25,00,000 नपे तुले कदमों से पूर्ण किये। पंडीत नैन सिंह रावत ने ही प्रथम बार यह रहस्योद्घाटन किया कि तिब्बत में बहने वाली सांगपो नदी को भारत में ब्रह्मपुत्र नदी के नाम से जाना जाता है।

पंडित नैन सिंह रावत ने एक उच्च शिक्षित सिद्धहस्त अन्वेषक की तरह बिना आधुनिक उपकरणों से अपनी प्रखर वैज्ञानिक दृष्टी के साथ तापमान, क्वथनांक, अक्षांश, देशान्तर व समुद्रतल से ऊँचाई की गणना बहुत शुद्धता के साथ किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने तिब्बत में स्थित सोना, सुहागा तथा नमक की खानों को बहुत गहराई से भौगोलिक स्थिति को मानचित्र में दर्शाया।

उस कालखंड में तिब्बत ने भारतवर्ष में अधिकार जमाकर बैठे मुगलों, भारतियों व अंग्रेजों को अपने देश में प्रवेश नही करने दिया था। वही असाधारण व्यक्तित्व के धनी पंडीत नैन सिंह रावत ने तिब्बत के भू-भाग को अपने कदमों से नाप कर, कविता के रुप में वहाँ के शहरों, नदियों व झीलों को याद कर विश्वमानचित्र में तिब्बत को दर्शा कर एक अद्वितीय कार्य किया। पंडीत नैन सिंह रावत की उस समय स्वयं के प्रयास से अकेले रात के समय तारों को देखकर दिशा का अनुमान लगाकर, पैदल चलते हुए अपने एक-एक कदम को ध्यान में रखते हुए, माला के मानकों के सहारे गणना करते हुए, मानसरोवर के मार्ग से 1200 मील की यात्रा को पूर्ण करके सन् 1866 के अंत में सफलता पूर्वक भारत लौट आए। 

तिब्बत के भौगोलिक जानकारी लेने के प्रवास में पंडित नैन सिंह रावत तिब्बत के धरातलीय ज्ञान, वहाँ की संस्कृति, रहन सहन व भाषा में अत्यधिक पारंगत हो चुके थे। ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत की ओर अधिक भौगोलिक जानकारियों को लेने के लिए पंडीत नैन सिंह रावत को पुनः द्वितीय अभियान में सन् 1867 में तिब्बत भेजा। पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी द्वितीय तिब्बत यात्रा चमोली में स्थित भारत के अंतिम गाँव माणा से तिब्बत में प्रवेश किया था। तिब्बत के थोक जालूंम क्षेत्र में जाकर सोने की खानों के बारे जानकारी एकत्र की। उन्होंने प्रथम यात्रा के अनुभव की सहायता से पश्चिम तिब्बत की भौगोलिक जानकारियां प्राप्त की।  

पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी तृतीय और अंतिम तिब्बत यात्रा भिक्षु के वेश में लद्दाख से तिब्बत की सीमा के अन्दर गुप्त तरीके प्रवेश किया था। तिब्बत की पश्चिमी सीमा से लेकर ल्हासा होकर पूर्वी सीमा तक की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करके अरुणाचल प्रदेश के तवांग तक पैदल यात्रा करके अपनी तृतीय यात्रा को समाप्त किया। पंडित नैन सिंह रावत से प्रेरित होकर उनके चचेरे भाईयों किशन सिंह व कल्याण सिंह ने भी तिब्बत की गुप्त रुप से यात्रायें की और कई महत्वपूर्ण भौगोलिक जानकारी जुटाकर सर्वेक्षण विभाग के कैप्टन मॉण्टगुमरी को तिब्बत का सटीक मानचित्र निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया।

असाधारण विलक्षण प्रतिभा के धनी पंडित नैन सिंह रावत का तीन बार तिब्बत की यात्रा की, इन यात्राओं में तिब्बत की भौगोलिक जानकारी के साथ ही वहाँ के समाजिक परिवेश, प्राकृतिक स्थिति, कृषी संबधित तथा उपलब्ध खनिज संपदा के बारे में ज्ञान अर्जित किया। वह अपनी आँखों से जो देख लेते थे उसको वह अपनी डायरी में लिख लेते थे। तिब्बत में सोने की खानों के बारे में विश्व पटल में सर्वप्रथम पंडीत नैन सिंह रावत ने जानकारी उपलब्ध कराई। पर्वतों के शिखर की ऊँचाई हो या सड़कांे की दूरी या किसी शहर की अक्षांश व देशान्तर की गणना की सटीक थी। उस समय इस प्रकार की गणना करने में अत्यधिक समय, धैर्य व एकाग्रता की अवश्यकता होती थी। पंडीत नैन सिंह रावत की तब की गई गणना और वर्तमान समय के आधुनिक उपकरणों से की गई गणना के लगभग एक समान है।

औपनिेवेशिक भारत के सर्वेक्षण विभाग के एक कर्मचारी पंडीत नैन सिंह रावत को इंग्लैन्ड के लंदन स्थित रॉयल जियाग्रोफिकल सोसाईटी ने हमारे देश के महान खोजकर्ता, मानचित्रकार व असाधारण प्रतिभा के धनी पंडीत नैन सिंह रावत को अपना विशेष पदक देते हुए उस समय के विख्यात विद्वान व साहित्यकार सर हेनरी यूले ने कहा था,

“पंडित नैन सिंह रावत ने एशिया का मानचित्र पूर्ण करने जो भौगोलिक जानकारियां उपलब्ध कराई है वह किसी अन्य खोजकर्ता से बहुत अधिक है।”

वास्तव में पंडित नैन सिंह रावत ने एक असंभव समझे गए कार्य को अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, शासन के आदेश का आज्ञापालन का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करते हुए, एक असाधारण अन्वेषण का अभूतपूर्व कार्य किया था। पंडीत नैन सिंह रावत को ब्रिटिश शासकों ने अपने शासनकाल में भरपूर सम्मान दिया था।

ब्रिटिश शासकों ने पंडित नैन सिंह रावत को पुरूस्कार स्वरुप बरेली में एक गाँव की जागीर तथा नकद धनराशि देकर उनको सम्मानित किया था। यूरोपीय देश फ्रांस की राजधानी पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उनको स्वर्ण जड़ीत घड़ी उपहार स्वरुप दी। 

पंडित नैन सिंह रावत ने अपने जीवन का अधिकांश समय खोज यात्राओं एवम् मानचित्र बनाने में व्यतित किया था। एक फरवरी सन् 1895 में दिल का दौरा पढ़ने से महान अन्वेषक, सर्वेयर व मानचित्रकार  पंडित नैन सिेह रावत की मृत्यु हो गयी थी।

देश में ब्रिटिश शासन समाप्त होने पश्चात स्वतंत्रत भारत में महान खोजकर्ता, मानचित्रकार एवम् सर्वेयर पंडित नैन सिंह रावत का किया गया असाधारण अन्वेषण कार्य दस्तावेजों में दबा रह गया। सूदूर सीमांत जिला पिथौरागढ़ के मुनस्यारी के रहने वाले महान अन्वेषक, मानचित्रकार, विज्ञानी सोच को रखने वाले कर्मठ व अद्वितीय साहस के पर्याय पंडीत नैन सिंह रावत गुमनाम रह गए। असाधारण कार्य करने वालों को भले ही शासन भूल जाता है, लेकिन जिस भूमि में वह जन्म लेते है, उस भूमि में निवास करने वालों की वंश पीढ़ी उनको याद करते रहती है। असाधारण कर्म करने वालों की कर्मठता का प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है।

असाधारण कर्म की कर्मठता का प्रकाश जब किसी विद्वान व्यक्ति तक पहुँचता है, तो वह विद्वान व्यक्ति उस प्रकाश के स्त्रोत को ओर अधिक उर्जा देकर उसके प्रकाश को सर्वत्र फैला देता है। पिथौरागढ़ के  विद्वान शिक्षाविद्, साहित्यकार एवम् इतिहासकार डाक्टर राम सिंह ने महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत की तिब्बत की गुप्त रुप से भौगोलिक जानकारी लेने के बारे में तथ्य परख लेख लिखकर, हमारे देश के बुद्धिजिवियों के समक्ष एक महान अन्वेषक की कर्मठता, त्याग व जोखिम से भरी जीवन यात्रा को प्रकाशित किया।

डाक्टर राम सिंह ने सर्व प्रथम दो अक्टूबर व 26 अक्टूबर सन् 1967 को पंडीत नैन सिंह रावत की डायरी को “एक प्रख्यात भौगोलिक अन्वेषक की डायरी-।,।।” शीर्षक नाम से अरुणोदय सोविनियर पिथौरागढ़ में प्रकाशित किया।

डाक्टर राम सिंह ने सन् 1999 में ‘पंडीत नैन सिंह रावत का यात्रा साहित्स’ विश्वविख्यात भौगोलिक अन्वेषक की स्व हस्त लिखित डायरी का प्रथम बार प्रकाशन किया प्रेम ग्रन्थ भनार टनकपुर जिला चंपावत से किया था। डाक्टर राम सिंह, पंडीत नैन सिंह रावत की तिब्बत की भौगोलिक अन्वेषण की जिजीविषा को आम जन तक पहुँचाने का हर संभव प्रयास करते रहे।

डाक्टर राम सिंह ने 26 सितंबर सन् 2001 में आम जन को जाग्रत करने व शासकों की कुंभ कर्णी नींद से जगाने के लिए  ‘पं. नैन सिंह रावत : एक विस्मृत महान् भौगोलिक अन्वेषक’  शीर्षक नाम से पिथौरागढ़ के स्थानीय समाचार पत्र, पर्वत पीयूस, में लेख लिखा।

डाक्टर राम सिंह ने अनेक राष्ट्र स्तर की पत्रिकाओं में महान अन्वेषक पंडित नैन सिंह रावत के कर्मठ कार्यो को अपने लेखन से आम जनता को अवगत कराया। डाक्टर राम सिंह के लिखे लेखों के द्वारा पंडित नैन सिंह रावत के बारे में देश का आम नागरिक परिचित हुवा। 

उसके पश्चात विद्वान लेखक शेखर पाठक व विदुषी उमा भट्ट ने पंडीत नैन सिंह रावत के बारे में गहन अध्यन व शोध के पश्चात सयुक्त रुप से ‘एशिया की पीठ पर’ नाम की पुस्तक लिखी। यह पुस्तक बहुत अच्छी लिखी गयी है। अध्यनशील पाठकों को यह पुस्तक बहुत अधिक पसंद आयी है। अन्वेषण के क्षेत्र में इस पुस्तक को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है।

अवकाश प्राप्त आई.ए.एस. अधिकारी एस एस पांगती ने भी ‘सागा ऑफ नेटिव एक्सफ्लोरर’ पुस्तक लिखी है। डरेक वालेर ने भी ‘द पंडीत्स’ शीर्षक नाम से पंडीत नैन सिंह रावत के बारे पुस्तक की रचना की है।

पंडित नैन सिंह रावत किसी उच्च शिक्षण संस्थान से शिक्षित नही थे। लेकिन स्वयं हिन्दी, तिब्बती, फारसी व अंग्रेजी भाषा के ज्ञानी थे। वह रोज होने वाले कार्यो का विवरण अपनी दैनंदनी में लिख लेते थे। उन्होंने ‘अक्षांश दर्पण और ‘इतिहास रावत कौम’ नामक दो पुस्तक लिखी थी। 

‘अक्षांश दर्पण’ को प्रबुद्धजन हिन्दी की प्रथम विज्ञान पुस्तक के समान महत्व देते है। उनकी यात्रा दैनंदनी को भूगोल के शोध छात्र ग्रन्थ समान मानते है। 

भारतीय डाक तार विभाग ने पंडित नैन सिंह रावत के अन्वेषण के लगभग 140 वर्ष के बाद 27 जून सन् 2004 को उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया। 

विश्व के महान अन्वेशक क्रिस्टोफर कोलंबस, वास्कोडीगामा तथा कैप्टन कुक की साहसिक अन्वेषण की कहानियां प्रत्तेक देश के नागरिकों को ज्ञात हैं। विश्व की विभिन्न भाषाओं  में इन महान अन्वेषकों के बारे में लिखा गया है। प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालयों तक पाठ्य पुस्तकों में इनकी रोमांचकारी साहस से भरी कहानियाँ दर्ज है। इसलिए यह महान अन्वेषक विश्वविख्यात है। इन महान अन्वेषकों का अन्वेषण का उद्देश्य धन संपत्ति अर्जित करना था। परन्तु हमारे देश के महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत का उद्देश्य मात्र भौगोलिक ज्ञान अर्जित करना था। 

अगर विश्व के महान अन्वेषकों व अपने देश के महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत की तुलना करै तो पंडीत नैन सिंह रावत का अन्वेषण विश्व के अन्य अन्वेषकों की अपेक्षा अधिक जोखिम पूर्ण व साहसिक था। उदाहरण के तौर पर क्रिस्टोफर कोलंबस के अन्वेषण कार्य का अवलोकन करै तो कोलंबस के साथ तीन पानी के जहाज थे, जिसमें उस समय के आधुनिक खोजी उपकरण सहीत जहाजों में उदर पूर्ती के लिए भरपूर खाद्य सामाग्री का भंडार रखा हुवाँ था, साथ में 90 कुशल नाविकों का दल साथ था। इन महान अन्वेषकों का खोज अभियान दो या तीन माह में पूर्ण हो गया था।

पंडित नैन सिंह रावत अपनी अन्वेषण यात्रा में पैदल चलते हुए, वेश बदल-बदलकर, कभी व्यापाीरयों के काफिले में सेवक बनकर, कभी बौद्ध भिक्षु बनकर तो कभी नितांत अकेले यात्रा कर रहे थे।  दुर्गम, बनस्पति विहीन गगन चुम्बी बर्फिली पर्वत श्रृंखलायें, गहरी संकरी खांईयाँ, नदी, झील तथा मानव विहीन विरान मरुस्थल को अपने कदमों से पैमाना बनाकर नांपे थे। न स्वयं के खाने का कुछ बन्दोबस्त न रहने का कोई ठौर-ठिकाना था। इनके खोज अभियान का समय एक वर्ष से अधिक की थी।

विश्व के अन्य महान अन्वेषकों की अपेक्षा हमारे देश के महान अन्वेषक पंडीत नैन सिंह रावत गुमनाम रहे। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश की विभिन्न भाषाओं में, प्रत्तेक राज्य की राजभाषा की पत्र, पत्रिकाओं में पंडीत नैन सिंह रावत के असाधारण साहसिक अन्वेषण के बारे लिखा जाय। पाठ्य पुस्तकों उनके बारे में अधिक से अधिक पढ़ाया जाय। तभी हमारे देश की भावी भविष्य की पीढ़ी को पंडीत नैन सिंह रावत के साहसिक अन्वेषण के इतिहास के बारे में ज्ञान होगा।

−प्रकाश चंद्र पुनेठा 

21 अक्टूबर 1943 को हुई थी “आज़ाद हिंद सरकार” की स्थापना

0

⚔️ आज़ाद हिंद फ़ौज की स्थापना

सबसे पहले इस विचार को मूर्त रूप दिया कप्तान मोहन सिंह ने। उन्होंने जापान की सहायता से 1942 में मलाया (अब मलेशिया) में भारतीय युद्धबंदियों से मिलकर “इंडियन नेशनल आर्मी (INA)” का गठन किया।
हालाँकि शुरुआती प्रयास में संगठनात्मक समस्याओं के कारण यह सेना बहुत सक्रिय नहीं हो सकी।

1943 में सुभाषचंद्र बोस जापान पहुँचे। वहाँ उन्होंने भारतीयों से आह्वान किया —

“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा!”

उनके नेतृत्व में आज़ाद हिंद फ़ौज को नई दिशा, ऊर्जा और संगठन मिला। उन्होंकी — और उसी दिन को आज हम आज़ाद हिंद फ़ौज स्थापना दिवस के रूप में मनाते हैं।


🇮🇳 सुभाषचंद्र बोस का नेतृत्व

सुभाषचंद्र बोस ने “नेताजी” के रूप में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक सैन्य स्वरूप दिया। उन्होंने अपने भाषणों और कर्मों से यह विश्वास जगाया कि भारत केवल अहिंसा से नहीं, बल्कि सशस्त्र संघर्ष से भी स्वतंत्र हो सकता है।

उनकी प्रेरक पंक्ति —

“जय हिंद”,
“दिल्ली चलो”,
“आजाद हिंद फौज ज़िंदाबाद”

देशभक्ति के अमर नारे बन गए।

सुभाषचंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फ़ौज को तीन मुख्य उद्देश्यों के साथ पुनर्गठित किया —

  1. भारत को अंग्रेज़ी शासन से मुक्त कराना।
  2. भारतीयों में आत्मसम्मान और एकता की भावना जगाना।
  3. विदेशी भूमि पर भारतीय स्वतंत्र सरकार की स्थापना कर भारत की स्वतंत्रता की घोषणा करना।

🪖 आज़ाद हिंद फ़ौज की संरचना

आज़ाद हिंद फ़ौज में लगभग 45,000 से अधिक सैनिक थे। इनमें बड़ी संख्या में भारतीय युद्धबंदी और दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाले भारतीय शामिल थे।
सेना का संगठन इस प्रकार था:

ब्रिगेड “गांधी”, “नेहरू”, “अजीत” और “सुभाष” के नाम से बनाए गए।

“रानी झाँसी रेजिमेंट” नाम से महिलाओं की एक स्वतंत्र यूनिट गठित की गई, जिसका नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने किया — यह भारतीय इतिहास में महिलाओं की पहली युद्ध इकाई थी।

सेना का मुख्यालय सिंगापुर और बाद में रंगून (बर्मा) में स्थापित किया गया।


⚡ युद्ध में भागीदारी

1944 में आज़ाद हिंद फ़ौज ने जापान के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ इंफाल और कोहिमा (मणिपुर) की दिशा में अभियान शुरू किया।
यद्यपि यह अभियान सैन्य दृष्टि से सफल नहीं हो सका, पर इसने ब्रिटिश शासन की जड़ों को हिला दिया।

इस युद्ध के दौरान सैनिकों ने असाधारण साहस दिखाया। वे जानते थे कि उनके पास सीमित संसाधन हैं, फिर भी उन्होंने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए जान की बाज़ी लगा दी।


🕊️ आज़ाद हिंद सरकार की घोषणा

21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आज़ाद हिंद सरकार की घोषणा की और स्वयं उसका प्रधानमंत्री तथा सेना प्रमुख बने।
सरकार का ध्येय वाक्य था —

“Ittehad, Itmad aur Qurbani” (एकता, विश्वास और बलिदान)।

इस सरकार को जापान, जर्मनी, इटली, बर्मा, फिलीपींस और कई अन्य देशों ने मान्यता दी।
आज़ाद हिंद फ़ौज ने स्वतंत्र भारत के लिए राष्ट्रीय ध्वज, मुद्रा, और न्याय व्यवस्था की भी स्थापना की — यह स्वतंत्र भारत का पूर्वाभास था।


⚖️ आज़ाद हिंद फ़ौज के मुकदमे और प्रभाव

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों को गिरफ्तार कर दिल्ली के लाल किले में मुकदमे चलाए।
इन मुकदमों ने पूरे देश में जनजागरण की लहर पैदा कर दी।
हिंदू, मुस्लिम और सिख सैनिकों पर एक साथ मुकदमा चलाया गया, जिससे देशभर में राष्ट्रीय एकता की भावना प्रबल हुई।

कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य दलों ने भी इन सैनिकों के समर्थन में प्रदर्शन किए। यह वह समय था जब ब्रिटिश सरकार समझ चुकी थी कि भारत अब अधिक समय तक दास नहीं रह सकता।


🇮🇳 आज़ाद हिंद फ़ौज की विरासत

आज़ाद हिंद फ़ौज का योगदान केवल सैन्य नहीं, बल्कि मानसिक और राष्ट्रीय चेतना का भी था। इसने भारतीयों को यह सिखाया कि वे अपनी आज़ादी स्वयं छीन सकते हैं।
इस फौज ने यह दिखाया कि देशभक्ति, एकता और त्याग के बिना स्वतंत्रता संभव नहीं।

भारत की स्वतंत्रता के बाद भी नेताजी और आज़ाद हिंद फ़ौज की स्मृति राष्ट्र के प्रेरणा स्रोत बनी रही। भारतीय सशस्त्र बलों में आज भी “जय हिंद” का नारा उसी विरासत का प्रतीक है।


🏵️ निष्कर्ष

आज़ाद हिंद फ़ौज का स्थापना दिवस केवल एक ऐतिहासिक तिथि नहीं, बल्कि देशभक्ति, त्याग और आत्मसम्मान का पर्व है।
यह दिन हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता किसी उपहार से नहीं, बल्कि बलिदान से प्राप्त होती है।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस और उनके साथियों ने जो सपना देखा था — वह भारत आज एक स्वतंत्र, सशक्त और एकजुट राष्ट्र के रूप में जी रहा है।
उनका आदर्श हमें प्रेरित करता है कि हम हमेशा अपने देश, अपनी आज़ादी और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहें।

“जय हिंद! आज़ाद हिंद फ़ौज अमर रहे!”

शम्मी कपूर : हिंदी सिनेमा के याहू स्टार

0

🎬

भारतीय सिनेमा में कुछ कलाकार ऐसे होते हैं जो अपने समय से आगे जीते हैं — जिनका अभिनय, संगीत पर नृत्य, और ऊर्जा दर्शकों के दिलों में स्थायी छाप छोड़ जाते हैं। शम्मी कपूर उन्हीं में से एक हैं। वे 1950 और 1960 के दशक के वह सितारे थे जिन्होंने हिंदी फिल्मों में रोमांस और रॉक-एन-रोल की नई परंपरा शुरू की। उनकी चुलबुली अदाएं, आत्मविश्वास से भरा व्यक्तित्व और अनोखा नृत्य अंदाज़ ने उन्हें बॉलीवुड का “एल्विस प्रेस्ली ऑफ इंडिया” बना दिया।


प्रारंभिक जीवन

शम्मी कपूर का जन्म 21 अक्टूबर 1931 को मुंबई में हुआ था। वे हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पुत्र और राज कपूर तथा शशि कपूर के छोटे भाई थे। इस तरह वे कपूर परिवार की तीसरी पीढ़ी के कलाकार थे, जो भारतीय फिल्म जगत में अपनी विरासत के लिए प्रसिद्ध है।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के डॉन बॉस्को स्कूल और रामनारायण रुइया कॉलेज में हुई। लेकिन अभिनय उनके रक्त में था — बचपन से ही वे थिएटर और फिल्मों के माहौल में पले-बढ़े। अपने पिता की “पृथ्वी थिएटर” संस्था से उन्होंने अभिनय की बारीकियाँ सीखीं।


फिल्मी करियर की शुरुआत

शम्मी कपूर ने अपने फिल्मी जीवन की शुरुआत 1953 में फिल्म “जीवन ज्योति” से की। शुरुआती दौर में उन्होंने गंभीर और पारंपरिक भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन ये फिल्में ज्यादा नहीं चलीं। वे नायक के रूप में अपनी जगह नहीं बना पा रहे थे।

उनका भाग्य तब बदला जब उन्होंने अपनी छवि को पूरी तरह बदलने का निर्णय लिया। उन्होंने पारंपरिक गंभीर नायक की जगह एक आधुनिक, मस्तीभरे, रोमांटिक और बिंदास हीरो की पहचान बनाई। यह प्रयोग 1957 की फिल्म “तुमसा नहीं देखा” से शुरू हुआ — और दर्शकों ने इस नए शम्मी कपूर को हाथों-हाथ स्वीकार कर लिया।


सफलता का दौर

1957 से 1969 तक का समय शम्मी कपूर के करियर का स्वर्णिम युग रहा। उन्होंने एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में दीं —

“दिल देके देखो” (1959)

“जंगली” (1961)

“कश्मीर की कली” (1964)

“राजकुमार” (1964)

“जनवर” (1965)

“तीसरी मंज़िल” (1966)

“ब्रह्मचारी” (1968)

फिल्म “जंगली” के गीत “Yahoo! Chahe koi mujhe junglee kahe” ने उन्हें अमर बना दिया। इस गीत के साथ शम्मी कपूर ने हिंदी फिल्मों के नायक की पारंपरिक छवि को तोड़ दिया। उनका मस्ती भरा नृत्य, खुले बाल, आज़ाद मुस्कान और आत्मविश्वास से भरा अंदाज़ भारतीय दर्शकों के लिए बिल्कुल नया था।


अभिनय शैली और नृत्य

शम्मी कपूर की सबसे बड़ी पहचान उनकी ऊर्जावान अभिनय शैली थी। वे केवल नाचते नहीं थे — हर गाने को नाटकीय भावनाओं और चेहरे की अदाओं से जीवंत कर देते थे।
उनकी हर हरकत में संगीत की लय महसूस होती थी। उस समय जब हिंदी फिल्मों में नृत्य की शैली सीमित थी, शम्मी कपूर ने उसमें रॉक एंड रोल, जैज़ और स्विंग जैसे पाश्चात्य तत्वों को जोड़ा।

उनकी खासियत यह थी कि वे स्क्रीन पर पूरी तरह “जीते” थे — चाहे वह पहाड़ों पर गाना गा रहे हों या प्रेमिका से छेड़छाड़ कर रहे हों, उनका हर दृश्य जोश और उत्साह से भरा होता था।


संगीत और शम्मी कपूर का जादू

शम्मी कपूर की सफलता में संगीत का विशेष योगदान रहा। उनके अधिकांश गीत मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में फिल्माए गए — और यह जोड़ी इतिहास बन गई।
“तुमसा नहीं देखा”, “दिल देके देखो”, “आओ तुम्हें चाँद पे ले जाएँ”, “ऐ हुस्न ज़रा जाग”, “आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा”, और “ओ हसीना ज़ुल्फों वाली” जैसे गीत आज भी युवाओं को झूमने पर मजबूर कर देते हैं।

मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में शम्मी कपूर की अदाएं मिलकर सिनेमा को ऐसा संगीतात्मक आकर्षण देती थीं जो आज भी अमर है।


निजी जीवन

शम्मी कपूर का विवाह प्रसिद्ध अभिनेत्री गीता बाली से हुआ था। गीता बाली उनके जीवन की प्रेरणा थीं, लेकिन 1965 में उनकी मृत्यु ने शम्मी कपूर को गहरा आघात दिया।
बाद में उन्होंने नीलू कपूर से विवाह किया, जिन्होंने जीवन के उत्तरार्ध में उनका साथ दिया।

शम्मी कपूर आधुनिक तकनीक के भी शौकीन थे। वे इंटरनेट और नई तकनीक के शुरुआती दौर में भारत में “Internet Users Club of India” के संस्थापक अध्यक्ष बने। इस वजह से उन्हें “Cyber Kapoor” भी कहा गया।


बाद के वर्ष और सम्मान

1970 के दशक के बाद शम्मी कपूर ने चरित्र भूमिकाएँ निभानी शुरू कीं। उन्होंने “परवरिश”, “प्रेम रोग”, “बेताब”, और “रॉकस्टार” (2011) जैसी फिल्मों में पिता या वरिष्ठ किरदार निभाए।
2011 में “रॉकस्टार” उनके जीवन की अंतिम फिल्म साबित हुई।

उनके योगदान को देखते हुए उन्हें कई पुरस्कार मिले —

फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार – ब्रह्मचारी (1968)

फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड (1995)

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (जीवन गौरव सम्मान)

शम्मी कपूर का निधन 14 अगस्त 2011 को हुआ, लेकिन वे अपने चाहने वालों के दिलों में आज भी “याहू” की तरह गूंजते हैं।


निष्कर्ष

शम्मी कपूर केवल एक अभिनेता नहीं थे, बल्कि आज़ादी, ऊर्जा और रोमांस के प्रतीक थे। उन्होंने 1950 के दशक के गंभीर नायकों की छवि को बदलकर हिंदी फिल्मों को नई ताजगी दी। उनके भीतर का कलाकार हमेशा युवाओं की तरह जीवंत रहा — चाहे वे 30 के हों या 70 के।

उनकी फिल्मों ने यह साबित किया🎬 शम्मी कपूर : हिंदी सिनेमा के याहू स्टार

भारतीय सिनेमा में कुछ कलाकार ऐसे होते हैं जो अपने समय से आगे जीते हैं — जिनका अभिनय, संगीत पर नृत्य, और ऊर्जा दर्शकों के दिलों में स्थायी छाप छोड़ जाते हैं। शम्मी कपूर उन्हीं में से एक हैं। वे 1950 और 1960 के दशक के वह सितारे थे जिन्होंने हिंदी फिल्मों में रोमांस और रॉक-एन-रोल की नई परंपरा शुरू की। उनकी चुलबुली अदाएं, आत्मविश्वास से भरा व्यक्तित्व और अनोखा नृत्य अंदाज़ ने उन्हें बॉलीवुड का “एल्विस प्रेस्ली ऑफ इंडिया” बना दिया।


प्रारंभिक जीवन

शम्मी कपूर का जन्म 21 अक्टूबर 1931 को मुंबई में हुआ था। वे हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के पुत्र और राज कपूर तथा शशि कपूर के छोटे भाई थे। इस तरह वे कपूर परिवार की तीसरी पीढ़ी के कलाकार थे, जो भारतीय फिल्म जगत में अपनी विरासत के लिए प्रसिद्ध है।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई के डॉन बॉस्को स्कूल और रामनारायण रुइया कॉलेज में हुई। लेकिन अभिनय उनके रक्त में था — बचपन से ही वे थिएटर और फिल्मों के माहौल में पले-बढ़े। अपने पिता की “पृथ्वी थिएटर” संस्था से उन्होंने अभिनय की बारीकियाँ सीखीं।


फिल्मी करियर की शुरुआत

शम्मी कपूर ने अपने फिल्मी जीवन की शुरुआत 1953 में फिल्म “जीवन ज्योति” से की। शुरुआती दौर में उन्होंने गंभीर और पारंपरिक भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन ये फिल्में ज्यादा नहीं चलीं। वे नायक के रूप में अपनी जगह नहीं बना पा रहे थे।

उनका भाग्य तब बदला जब उन्होंने अपनी छवि को पूरी तरह बदलने का निर्णय लिया। उन्होंने पारंपरिक गंभीर नायक की जगह एक आधुनिक, मस्तीभरे, रोमांटिक और बिंदास हीरो की पहचान बनाई। यह प्रयोग 1957 की फिल्म “तुमसा नहीं देखा” से शुरू हुआ — और दर्शकों ने इस नए शम्मी कपूर को हाथों-हाथ स्वीकार कर लिया।


सफलता का दौर

1957 से 1969 तक का समय शम्मी कपूर के करियर का स्वर्णिम युग रहा। उन्होंने एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में दीं —

“दिल देके देखो” (1959)

“जंगली” (1961)

“कश्मीर की कली” (1964)

“राजकुमार” (1964)

“जनवर” (1965)

“तीसरी मंज़िल” (1966)

“ब्रह्मचारी” (1968)

फिल्म “जंगली” के गीत “Yahoo! Chahe koi mujhe junglee kahe” ने उन्हें अमर बना दिया। इस गीत के साथ शम्मी कपूर ने हिंदी फिल्मों के नायक की पारंपरिक छवि को तोड़ दिया। उनका मस्ती भरा नृत्य, खुले बाल, आज़ाद मुस्कान और आत्मविश्वास से भरा अंदाज़ भारतीय दर्शकों के लिए बिल्कुल नया था।


अभिनय शैली और नृत्य

शम्मी कपूर की सबसे बड़ी पहचान उनकी ऊर्जावान अभिनय शैली थी। वे केवल नाचते नहीं थे — हर गाने को नाटकीय भावनाओं और चेहरे की अदाओं से जीवंत कर देते थे।
उनकी हर हरकत में संगीत की लय महसूस होती थी। उस समय जब हिंदी फिल्मों में नृत्य की शैली सीमित थी, शम्मी कपूर ने उसमें रॉक एंड रोल, जैज़ और स्विंग जैसे पाश्चात्य तत्वों को जोड़ा।

उनकी खासियत यह थी कि वे स्क्रीन पर पूरी तरह “जीते” थे — चाहे वह पहाड़ों पर गाना गा रहे हों या प्रेमिका से छेड़छाड़ कर रहे हों, उनका हर दृश्य जोश और उत्साह से भरा होता था।


संगीत और शम्मी कपूर का जादू

शम्मी कपूर की सफलता में संगीत का विशेष योगदान रहा। उनके अधिकांश गीत मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में फिल्माए गए — और यह जोड़ी इतिहास बन गई।
“तुमसा नहीं देखा”, “दिल देके देखो”, “आओ तुम्हें चाँद पे ले जाएँ”, “ऐ हुस्न ज़रा जाग”, “आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा”, और “ओ हसीना ज़ुल्फों वाली” जैसे गीत आज भी युवाओं को झूमने पर मजबूर कर देते हैं।

मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में शम्मी कपूर की अदाएं मिलकर सिनेमा को ऐसा संगीतात्मक आकर्षण देती थीं जो आज भी अमर है।


निजी जीवन

शम्मी कपूर का विवाह प्रसिद्ध अभिनेत्री गीता बाली से हुआ था। गीता बाली उनके जीवन की प्रेरणा थीं, लेकिन 1965 में उनकी मृत्यु ने शम्मी कपूर को गहरा आघात दिया।
बाद में उन्होंने नीलू कपूर से विवाह किया, जिन्होंने जीवन के उत्तरार्ध में उनका साथ दिया।

शम्मी कपूर आधुनिक तकनीक के भी शौकीन थे। वे इंटरनेट और नई तकनीक के शुरुआती दौर में भारत में “Internet Users Club of India” के संस्थापक अध्यक्ष बने। इस वजह से उन्हें “Cyber Kapoor” भी कहा गया।


बाद के वर्ष और सम्मान

1970 के दशक के बाद शम्मी कपूर ने चरित्र भूमिकाएँ निभानी शुरू कीं। उन्होंने “परवरिश”, “प्रेम रोग”, “बेताब”, और “रॉकस्टार” (2011) जैसी फिल्मों में पिता या वरिष्ठ किरदार निभाए।
2011 में “रॉकस्टार” उनके जीवन की अंतिम फिल्म साबित हुई।

उनके योगदान को देखते हुए उन्हें कई पुरस्कार मिले —

फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार – ब्रह्मचारी (1968)

फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड (1995)

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (जीवन गौरव सम्मान)

शम्मी कपूर का निधन 14 अगस्त 2011 को हुआ, लेकिन वे अपने चाहने वालों के दिलों में आज भी “याहू” की तरह गूंजते हैं।


निष्कर्ष

शम्मी कपूर केवल एक अभिनेता नहीं थे, बल्कि आज़ादी, ऊर्जा और रोमांस के प्रतीक थे। उन्होंने 1950 के दशक के गंभीर नायकों की छवि को बदलकर हिंदी फिल्मों को नई ताजगी दी। उनके भीतर का कलाकार हमेशा युवाओं की तरह जीवंत रहा — चाहे वे 30 के हों या 70 के।

उनकी फिल्मों ने यह साबित किया कि सिनेमा केवल अभिनय नहीं, बल्कि जीवन की लय का उत्सव है।
आज जब भी “Yahoo!” की आवाज़ गूंजती है, तो दर्शकों के दिल में वही पुराना जोश लौट आता है — क्योंकि शम्मी कपूर सिर्फ अभिनेता नहीं, भारतीय सिनेमा की आत्मा का मस्तीभरा चेहरा हैं। कि सिनेमा केवल अभिनय नहीं, बल्कि जीवन की लय का उत्सव है।
आज जब भी “Yahoo!” की आवाज़ गूंजती है, तो दर्शकों के दिल में वही पुराना जोश लौट आता है — क्योंकि शम्मी कपूर सिर्फ अभिनेता नहीं, भारतीय सिनेमा की आत्मा का मस्तीभरा चेहरा हैं।

बॉलीवुड की नृत्य सम्राज्ञी : हेलन

0

भारतीय सिनेमा के सुनहरे इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो केवल अपनी कला से नहीं, बल्कि अपनी शख्सियत से भी अमर हो गए। हेलन ऐसा ही एक नाम है — जिन्होंने नृत्य को अभिनय की आत्मा बना दिया। उनकी अदा, नृत्य की लय, और मंच पर उनकी ऊर्जा ने उन्हें “बॉलीवुड की कैबरे क्वीन” का दर्जा दिलाया। हेलन केवल एक नर्तकी नहीं थीं, वे भारतीय फिल्म संगीत और नृत्य के बदलते स्वरूप की प्रतीक बन गईं।


प्रारंभिक जीवन

हेलन का पूरा नाम हेलन ऐन रिचर्डसन खान है। उनका जन्म 21 नवंबर 1938 को बर्मा (अब म्यांमार) में हुआ था। उनके पिता एंग्लो-इंडियन थे और माँ बर्मीज़ थीं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब जापानी सेना ने बर्मा पर हमला किया, तब हेलन का परिवार वहां से भारत भाग आया। लंबी कठिन यात्रा के बाद वे कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंचे।

कठिन परिस्थितियों में पली-बढ़ी हेलन को पढ़ाई पूरी करने का अवसर नहीं मिला, लेकिन नृत्य के प्रति उनका रुझान बचपन से ही था। घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने बहुत कम उम्र में नृत्य करना शुरू किया।


फिल्मी करियर की शुरुआत

हेलन का फिल्मी सफर 1951 में शुरू हुआ, जब वे मात्र 13 वर्ष की थीं। उन्होंने सबसे पहले समूह नर्तकी (group dancer) के रूप में फिल्मों में काम किया।
उनकी पहली बड़ी सफलता मिली फिल्म “आवारा” (1951) के गीत “गाने वाले से होशियार” में बैकग्राउंड डांसर के रूप में।

लेकिन 1958 की फिल्म “हावड़ा ब्रिज” में गीत “मेरा नाम चिन चिन चू” ने उन्हें रातोंरात प्रसिद्धि दिला दी। इस गीत में हेलन की ऊर्जा, नृत्य की लचक और उनकी अनोखी अदाएं दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर गईं। तभी से वे हिंदी सिनेमा की पहली ग्लैमरस डांसर के रूप में स्थापित हो गईं।


1960–70 का स्वर्णिम दौर

1960 और 1970 के दशक को हेलन के करियर का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। उन्होंने एक के बाद एक सुपरहिट फिल्मों में नृत्य और अभिनय किया। उनके प्रसिद्ध गीतों में शामिल हैं —

“पिया तू अब तो आ जा” (कारवां, 1971)

“ये मेरा दिल” (डॉन, 1978)

“महबूबा महबूबा” (शोले, 1975)

“आज जाने की ज़िद न करो” (कैमियो प्रस्तुति)

“मोनिका, ओ माय डार्लिंग” (कारवां)

इन गीतों में हेलन की नृत्य शैली भारतीय शास्त्रीय नृत्य और पश्चिमी नृत्य दोनों का अनोखा मिश्रण थी। उनके नृत्य में लय, सौंदर्य, और आत्मविश्वास का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।


अभिनय में विविधता

हेलन को केवल कैबरे डांसर कहना उचित नहीं होगा। उन्होंने कई फिल्मों में महत्वपूर्ण अभिनय भूमिकाएँ भी निभाईं।
जैसे —

“लैला मजनू”,

“इम्तिहान”,

“शोले”,

“डॉन”,

“हम किसी से कम नहीं”,

“अमर अकबर एंथनी”।

इन फिल्मों में हेलन ने सशक्त और प्रभावशाली सह भूमिकाएँ निभाईं। उनके संवादों की अदायगी में भी वही निखार था जो उनके नृत्य में दिखाई देता था।


संघर्ष और आत्मसम्मान

हेलन का जीवन केवल शोहरत से नहीं, बल्कि संघर्ष से भी भरा रहा। शुरुआती वर्षों में उन्हें सामाजिक आलोचना का सामना करना पड़ा क्योंकि उस दौर में “कैबरे डांसर” को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था।
लेकिन हेलन ने अपनी मेहनत, प्रतिभा और शालीनता से समाज की उस सोच को बदल दिया।

वे कभी किसी विवाद में नहीं रहीं और अपनी मर्यादा के भीतर रहकर काम करती रहीं। यही कारण है कि आज उन्हें केवल एक नर्तकी नहीं, बल्कि एक कला-साधिका के रूप में सम्मान दिया जाता है।


सलमान खान परिवार से जुड़ाव

हेलन ने प्रसिद्ध पटकथा लेखक और गीतकार सलीम खान से विवाह किया, जो सलमान खान के पिता हैं। विवाह के बाद भी हेलन का फिल्मी सफर कुछ वर्षों तक जारी रहा। सलीम खान के परिवार ने हमेशा उन्हें सम्मान और अपनापन दिया।

आज वे सलमान खान, अलविरा, अर्पिता, और अर्बाज़ खान के परिवार का अभिन्न हिस्सा हैं।


पुरस्कार और सम्मान

हेलन को उनके अद्वितीय योगदान के लिए कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए।

फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड (1999)

पद्मश्री (2009) – भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए

लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड (IIFA, Zee Cine Awards)

इन सम्मानों ने हेलन को भारतीय सिनेमा की “लिविंग लीजेंड” का दर्जा दिलाया।


बाद के वर्ष और पुनः आगमन

फिल्मों से धीरे-धीरे दूरी बनाने के बाद भी हेलन ने अभिनय से पूरी तरह नाता नहीं तोड़ा।
उन्होंने 2000 के दशक में “हम दिल दे चुके सनम”, “मोहब्बतें”, “क्वीन” और कुछ वेब सीरीज़ में भी छोटी भूमिकाएँ निभाईं।

उनकी उपस्थिति चाहे कुछ ही मिनटों की क्यों न हो, पर हर बार दर्शकों को उनकी विनम्रता और गरिमा ने प्रभावित किया।


निष्कर्ष

हेलन भारतीय सिनेमा की वह शख्सियत हैं जिन्होंने नृत्य को ग्लैमर से आगे बढ़ाकर एक कला का रूप दिया। उन्होंने उस समय महिलाओं को आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी होने की प्रेरणा दी जब समाज में यह आसान नहीं था।

उनकी जिंदगी यह संदेश देती है कि “प्रतिभा और परिश्रम किसी भी सीमित परिभाषा को तोड़ सकते हैं।”

आज भी जब “पिया तू अब तो आ जा” या “ये मेरा दिल” जैसे गीत बजते हैं, तो दर्शकों के मन में हेलन की वही चमकती हुई मुस्कान और नृत्य की छवि ताज़ा हो उठती है।

हेलन सिर्फ एक नर्तकी नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की नृत्य आत्मा हैं — जिन्होंने अपने लयबद्ध कदमों से पीढ़ियों को मोहित कर दिया।

84 वर्षीय मशहूर कॉमेडियन और एक्टर असरानी का निधन

0

आज दोपहर तीन बजे जुहू स्थित आरोग्यानिधि अस्पताल में 84 वर्षीय मशहूर कॉमेडियन और एक्टर असरानी का निधन हो गया। वह पिछले चार दिनों से अस्वस्थ थे और अस्पताल में भर्ती थे। असरानी का अंतिम संस्कार आज सांताक्रूज पश्चिम स्थित शास्त्री नगर श्मशान घाट पर हुआ। वहां कोई भी फिल्मी हस्ती मौजूद नहीं थी।

फिल्म ‘शोले’ में जेलर का किरदार निभाकर मशहूर हुए कॉमेडियन और एक्टर असरानी ने आज सुबह ही अपने फैंस को दीवाली की शुभकामनाएं दी थीं। इसके चंद घंटों बाद उनका निधन हो गया।दरअसल, असरानी ने आज सुबह ही अपनी पत्नी मंजू से कहा था कि वे अपने अंतिम समय में कोई भीड़ नहीं चाहते, न ही लोगों को परेशान नहीं करना चाहते। वे शांतिपूर्वक जाना चाहते हैं। ऐसे में एक्टर के निधन के बाद पत्नी मंजू ने असरानी के सचिव से अनुरोध किया था कि वह किसी को भी इसकी जानकारी न दें।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में जब भी हास्य कलाकारों की चर्चा होती है, तो असरानी का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। लगभग छह दशकों से अधिक लंबे अपने अभिनय सफर में असरानी ने गंभीर, हास्य और चरित्र भूमिकाओं में ऐसी विविधता दिखाई है कि वे दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ गए। उनकी मुस्कान, संवाद-अदायगी और अभिव्यक्ति का अपना अलग अंदाज़ है, जो उन्हें अन्य हास्य कलाकारों से अलग पहचान देता है।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

असरानी का पूरा नाम गोवर्धन असरानी है। उनका जन्म एक जनवरी 1941 को राजस्थान के जयपुर में एक सिंधी परिवार में हुआ। बचपन से ही असरानी को अभिनय और नकल करने का शौक था। वे अपने स्कूल में शिक्षकों और दोस्तों की नकल उतारकर सबका मनोरंजन किया करते थे। प्रारंभिक शिक्षा जयपुर में पूरी करने के बाद उन्होंने मुंबई का रुख किया।

मुंबई आने के बाद असरानी ने फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (FTII), पुणे में दाखिला लिया। यह वही संस्थान था, जिसने बाद में बॉलीवुड को शबाना आज़मी, जया भादुरी, शत्रुघ्न सिन्हा और मिथुन चक्रवर्ती जैसे बड़े कलाकार दिए। एफटीआईआई में असरानी को अभिनय की बारीकियाँ सीखने का अवसर मिला और यहीं से उन्होंने अभिनय को अपने जीवन का ध्येय बना लिया।


फिल्मी करियर की शुरुआत

असरानी ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत 1960 के दशक में की। उनकी पहली प्रमुख फिल्म थी “हरे कांच की चुड़ियाँ” (1967), जिसमें उन्होंने छोटी लेकिन प्रभावशाली भूमिका निभाई। शुरुआती दिनों में असरानी को संघर्ष करना पड़ा क्योंकि वे किसी पारंपरिक नायक की तरह नहीं दिखते थे। लेकिन उन्होंने अपनी कॉमिक टाइमिंग और सादगी भरे अभिनय से धीरे-धीरे फिल्म निर्माताओं का ध्यान खींच लिया।

1970 के दशक में असरानी का करियर तेजी से आगे बढ़ा। इस दशक में उन्होंने कई हिट फिल्मों में काम किया, जिनमें “छोटी बहू” (1971), “अभिमान” (1973), “शोले” (1975), “चुपके चुपके” (1975), “अमदानी अठन्नी खर्चा रूपैया”, “बावर्ची”, और “गोलमाल” (1979) जैसी फिल्में उल्लेखनीय हैं।


“शोले” का जेलर : असरानी की अमर भूमिका

यदि असरानी के करियर की सबसे यादगार भूमिका की बात की जाए, तो वह निस्संदेह फिल्म “शोले” का जेलर वाला किरदार है। यह भूमिका कुछ ही मिनटों की थी, पर असरानी ने इसे इतने जीवंत ढंग से निभाया कि वह हिंदी सिनेमा के इतिहास में अमर हो गई।

उनका प्रसिद्ध संवाद —
“हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं…”
आज भी दर्शकों की ज़ुबान पर है। इस किरदार ने असरानी को हास्य अभिनय की परंपरा में एक स्थायी स्थान दिला दिया। उन्होंने यह साबित कर दिया कि अभिनय की ताकत समय की सीमा से परे होती है — छोटी भूमिका भी अमर हो सकती है अगर कलाकार उसे पूरी ईमानदारी और ऊर्जा से निभाए।


बहुमुखी कलाकार

असरानी को केवल हास्य अभिनेता कहना उनके साथ न्याय नहीं होगा। उन्होंने कई गंभीर और भावनात्मक भूमिकाएँ भी निभाई हैं। जैसे कि “अभिमान” में जया भादुरी के भाई की भूमिका, और “जिद्दी”, “नामक हराम” तथा “खिलौना” जैसी फिल्मों में उनके अभिनय ने दिखाया कि वे हर प्रकार की भूमिका निभाने में सक्षम हैं।

उनकी खासियत यह रही कि वे मुख्य नायक के साए में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहते थे। चाहे अमिताभ बच्चन के साथ सीन हो या राजेश खन्ना के साथ, असरानी का अभिनय हमेशा सहज और स्वाभाविक रहा।


निर्देशक और लेखक के रूप में असरानी

असरानी ने सिर्फ अभिनय तक अपने को सीमित नहीं रखा। उन्होंने निर्देशन और पटकथा लेखन में भी हाथ आज़माया।
1977 में उन्होंने फिल्म “ओम शांति ओम” (1977, राजेश खन्ना के साथ) का निर्देशन किया।
इसके अलावा उन्होंने गुजराती फिल्मों में भी निर्देशक के रूप में काम किया और कुछ धारावाहिकों का भी निर्माण किया।


टेलीविज़न और नई पीढ़ी के साथ जुड़ाव

1990 के दशक में जब हिंदी टेलीविज़न तेजी से उभर रहा था, असरानी ने भी इस माध्यम को अपनाया। उन्होंने लोकप्रिय सीरियल “हम सब एक हैं” और “फनी फैमिली डॉट कॉम” में अपनी शानदार हास्य उपस्थिति दर्ज कराई।

नए सदी में भी असरानी सक्रिय रहे। उन्होंने “हेरा फेरी”, “मालामाल वीकली”, “धूम”, “भूल भुलैया” और “वेलकम” जैसी फिल्मों में महत्वपूर्ण सह भूमिकाएँ निभाईं।


निजी जीवन

असरानी ने अभिनेत्री मनोहरा असरानी (मेनका) से विवाह किया। वे भी एक अभिनेत्री थीं और कई गुजराती तथा हिंदी फिल्मों में काम कर चुकी हैं। असरानी और मेनका का एक बेटा है, जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय है। असरानी का पारिवारिक जीवन हमेशा अनुशासन और सरलता से भरा रहा।


पुरस्कार और सम्मान

असरानी को उनके उत्कृष्ट अभिनय के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

फिल्मफेयर पुरस्कार (1974) – सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता (“आ अब लौट चलें”)

गुजरात राज्य पुरस्कार – गुजराती फिल्मों में योगदान के लिए

लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड – हिंदी सिनेमा में दीर्घकालीन योगदान के लिए

उनका नाम हिंदी सिनेमा के उन चंद कलाकारों में लिया जाता है जिन्होंने हंसी के माध्यम से सामाजिक संदेश देने का काम भी किया।


असरानी की अभिनय शैली

असरानी के अभिनय की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी संयमित हास्य शैली। वे हंसी को कभी फूहड़ता में नहीं बदलते। उनकी कॉमिक टाइमिंग, संवाद की गति और चेहरों के हावभाव इतने सटीक होते हैं कि दर्शक अनायास ही मुस्कुरा उठते हैं।

उनकी अदायगी में अक्सर चार्ली चैपलिन की झलक दिखाई देती है—मूक अभिनय, सहजता और मानवीय संवेदना। असरानी ने हमेशा कहा है कि “हास्य सबसे कठिन अभिनय है क्योंकि इसमें दर्शक को वास्तविक आनंद महसूस कराना पड़ता है।”


निष्कर्ष

असरानी भारतीय सिनेमा के उन दुर्लभ कलाकारों में से हैं जिन्होंने हास्य को कला का दर्जा दिया। उन्होंने यह साबित किया कि हँसाना उतना ही कठिन है जितना रुलाना। उनकी हर भूमिका में ईमानदारी, सादगी और मौलिकता झलकती है।

आज भी असरानी फिल्म जगत में सक्रिय हैं और नई पीढ़ी के कलाकारों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उन्होंने हिंदी सिनेमा में जो योगदान दिया है, वह आने वाले वर्षों तक याद किया जाएगा।

उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि अभिनय केवल प्रसिद्धि का साधन नहीं, बल्कि यह समाज को खुशी देने का माध्यम भी हो सकता है।


असरानी — हंसी के सम्राट, सादगी के प्रतीक और भारतीय सिनेमा की जीवित धरोहर हैं।

राजेश खन्ना के साथ की 25 फिल्में
पहली फिल्म में अपने अभिनय से सबका दिल जीतने वाले असरानी ने साल 1967 में गुजराती फिल्म में मुख्य किरदार निभाया। उन्होंने चार और गुजराती फिल्मों में अभिनय किया। साल 1971 के बाद से असरानी को फिल्मों में कॉमेडियन का किरदार या अभिनेता के दोस्त का किरदार मिलने लगा।  उन्होंने 1970 से लेकर 1979 तक 101 फिल्मों में काम किया। फिल्म ‘नमक हराम’ में काम करने के बाद असरानी और राजेश खन्ना दोस्त बन गए। इसके बाद राजेश खन्ना जिस फिल्म में काम करते, वह निर्माताओं से कहते कि असरानी को भी काम दें। असरानी ने राजेश खन्ना के साथ 25 फिल्मों में काम किया।

असरानी की हिट फिल्में
असरानी ने 1970 के दशक में कई फिल्मों में कॉमेडियन का किरदार निभाया। इन फिल्मों में ‘शोले’, ‘चुपके चुपके’, ‘छोटी सी बात’, ‘रफू चक्कर’, ‘फकीरा’, ‘हीरा लाल पन्नालाल’ और ‘पति पत्नी और वो’ शामिल हैं। कई फिल्मों में कॉमेडियन का किरदार निभाने वाले असरानी ने ‘खून पसीना’ में सीरियस रोल भी निभाया है।
2000 के दशक में असरानी ने कई कॉमेडी फिल्मों में यादगार अभिनय किया। इसमें ‘चुप चुप के’, ‘हेरा फेरी’, ‘हलचल’, ‘दीवाने हुए पागल’, ‘गरम मसाला’, ‘भागम भाग’ और ‘मालामाल वीकली’ शामिल हैं।

फिल्मी खलनायक जीवन की विरासत को बढ़ाता उनका बेटा

0

बॉलीवुड में अगर उन चेहरों की बात की जाए जिन्होंने बुरे किरदार निभाकर भी दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी, तो जीवन (Jeevan) का नाम सबसे ऊपर आता है। वही जीवन, जिन्होंने 1935 से लेकर 1990 तक सिनेमा में खलनायक की परिभाषा ही बदल दी थी। मगर कहानी यहीं खत्म नहीं होती, क्योंकि उनके बेटे किरण कुमार (Kiran Kumar) ने इस विरासत को न सिर्फ आगे बढ़ाया, बल्कि उसे नए आयाम भी दिए।

खलनायक का बेटा, जिसने अपने नाम से बनाई अलग पहचान

कश्मीरी पंडित परिवार से ताल्लुक रखने वाले किरण कुमार बचपन से ही बेहद शरारती थे। पिता जीवन कुमार, जो उस दौर के सबसे चर्चित विलेन थे, अक्सर बेटे की हरकतों से परेशान रहते थे। एक दिन उन्होंने तय किया कि अब बेटे को अनुशासन सिखाना ही होगा। किरण को बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया। वहां उन्होंने पढ़ाई से ज्यादा क्रिकेट और ड्रामा में नाम कमाया। पिता ने स्कूल के बाहर लगे बोर्ड की ओर इशारा कर कहा था — “एक दिन तुम्हारा नाम यहां लिखा होना चाहिए।” शायद तभी से किरण के भीतर कुछ बड़ा करने की जिद पलने लगी।

जब एफटीआईआई में हुई लड़ाई और पुलिस बुलानी पड़ी

स्कूल के बाद किरण की मुलाकात शत्रुघ्न सिन्हा से हुई, जो उस समय फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII) से नए-नए निकले थे। सिन्हा ने उन्हें अभिनय सीखने की सलाह दी और किरण वहां दाखिल हो गए। मगर एक दिन वहां ऐसी घटना हुई जिसने उनकी जिंदगी का रास्ता ही बदल दिया। एक्टिंग डिपार्टमेंट और डायरेक्शन डिपार्टमेंट के छात्रों में जोरदार झगड़ा हुआ। बात इतनी बढ़ी कि पुलिस बुलानी पड़ी और किरण सहित चार छात्रों को कॉलेज से निकाल दिया गया। यही वह मोड़ था, जहां उनकी किस्मत ने करवट ली।

ख्वाजा अहमद अब्बास ने डांट लगाई, और बना दिया हीरो

किरण और उनके साथियों ने कॉलेज प्रशासन के फैसले के खिलाफ धरना शुरू कर दिया। 45 दिन तक कॉलेज बंद रहा। मामला सुलझाने आई कमेटी में मशहूर फिल्ममेकर ख्वाजा अहमद अब्बास शामिल थे। उन्होंने किरण को देखते ही कहा – “तुम्हारे पिता शरीफ इंसान हैं और तुम गुंडागर्दी कर रहे हो!” लेकिन डांट के अगले दिन ही जब किरण उनके गेस्ट हाउस पहुंचे, तो अब्बास साहब बोले – “मैं एक फिल्म बना रहा हूं, दो बूंद पानी, उसमें लंबू इंजीनियर का रोल करोगे?” डांट खाने के बाद फिल्म मिलना, यही तो बॉलीवुड की कहानी होती है।

पर्दे पर खलनायक, असल जिंदगी में सज्जन इंसान

1971 में रिलीज़ हुई दो बूंद पानी से किरण कुमार ने अपना करियर शुरू किया। इसके बाद खुदगर्ज, तेजाब, थानेदार, पत्थर के फूल, आज का अर्जुन जैसी फिल्मों में उन्होंने जबरदस्त अभिनय किया। दर्शकों ने उन्हें विलेन के रूप में खूब सराहा, लेकिन उनके भीतर का अभिनेता किसी एक छवि में बंधा नहीं। टीवी की दुनिया में भी वे उतने ही चर्चित हुए — आर्यमान, मर्यादा, विरासत जैसे शो ने उन्हें घर-घर तक पहुंचा दिया।

पिता जीवन की छाया, बेटे किरण की रोशनी

किरण अक्सर कहते हैं, “मेरे पिता ने 61 फिल्मों में नारद मुनि का किरदार निभाया। यह लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज है।” वे बताते हैं कि जब भी जीवन ‘नारद’ बनते थे, वे नॉनवेज छोड़ देते थे, शराब तक नहीं छूते थे। किरदार के प्रति इतनी श्रद्धा आज भी कम ही देखने को मिलती है। शायद यही समर्पण किरण के खून में उतर गया। उन्होंने भी अपने हर रोल को उसी समर्पण से जिया, चाहे वो खलनायक हो या पिता का रोल।

पिता-पुत्र का रिश्ता: दोस्ती, अनुशासन और सम्मान का संगम

किरण बताते हैं कि उनके पिता केवल सख्त नहीं थे, बल्कि एक बेहतरीन दोस्त भी थे। रविवार को वे परिवार के साथ क्रिकेट खेलते, मंदिर और दरगाह जाते। “उन्होंने हमें सिखाया कि चाहे पर्दे पर विलेन बनो, पर असल जिंदगी में इंसानियत सबसे बड़ी चीज है।” किरण मानते हैं कि पिता की इमेज ने उन्हें एक अनुशासित कलाकार बनाया।

रेखा और किरण का रिश्ता: जब प्यार ने भी बनाई हेडलाइन

सत्तर के दशक में रेखा और किरण कुमार का रिश्ता सुर्खियों में रहा। दोनों के अफेयर की खबरें फिल्म मैगज़ीनों के पन्नों पर छपीं। रेखा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि किरण की “मम्माज बॉय” वाली आदतें उन्हें परेशान करती थीं। वहीं किरण ने बताया कि रेखा की मिमिक्री करने की आदत उन्हें खीझाती थी। यह रिश्ता ज्यादा नहीं चला, लेकिन उस दौर में इसने खूब हलचल मचाई।

पिता की तरह बेटे ने भी बनाई खुद की दुनिया

आज किरण कुमार के बेटे शौर्य भी सिनेमा की दुनिया में कदम रख चुके हैं। बेटी श्रृष्टि फैशन इंडस्ट्री में नाम कमा रही हैं। किरण का परिवार भले ही कैमरे के सामने या पीछे हो, लेकिन अभिनय उनकी रगों में दौड़ता है।

विरासत से आगे बढ़ता एक कलाकार

जीवन ने जो विरासत छोड़ी थी, उसे किरण ने न सिर्फ संभाला बल्कि उसे और चमकाया। उन्होंने साबित किया कि एक अभिनेता की पहचान उसके किरदार से नहीं, बल्कि उसके जुनून और सच्चाई से होती है।
किरण कुमार सिर्फ जीवन के बेटे नहीं, बल्कि उस युग के प्रतिनिधि हैं जहां सिनेमा दिल से किया जाता था, न कि कैलकुलेशन से।

सोशल मीडिया