(अगस्त 2016 से जन-जन तक: सिवानी मंडी की आवाज़ और जिला पुनर्गठन का प्रश्न, एक नारा, एक विचार और सिवानी के भविष्य का सवाल।)
– डॉ. प्रियंका सौरभ
लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासनिक सीमाएँ पत्थर की लकीर नहीं होतीं। वे जनता की सुविधा, सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं और क्षेत्रीय संतुलन के अनुरूप समय-समय पर पुनः परिभाषित की जाती हैं। जब कोई प्रशासनिक ढांचा लगातार जनता के लिए असुविधा का कारण बने, तब उसका पुनर्विचार न केवल आवश्यक, बल्कि शासन की संवेदनशीलता की कसौटी भी बन जाता है। सिवानी मंडी उपमंडल को लेकर जिला भिवानी से अलग होकर जिला हिसार में शामिल किए जाने की मांग इसी लोकतांत्रिक विवेक और जनहित की भावना से उपजी है। यह मांग न तो अचानक उठी है और न ही किसी राजनीतिक मौसम की उपज है। यह एक दशक से अधिक समय से चल रहा शांत, संगठित और तर्कपूर्ण जन-आंदोलन है, जिसकी जड़ें सिवानी क्षेत्र की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक वास्तविकताओं में गहराई से धंसी हुई हैं।
आंदोलन की शुरुआत : अगस्त 2016
इस आंदोलन की औपचारिक शुरुआत अगस्त 2016 में हुई, जब छह जागरूक नागरिकों— बड़वा के प्रमुख समाज सेवी महेंद्र लखेरा, सुनील सिंहमार (एडवोकेट), लाल सिंह ‘लालू’, डॉ. सत्यवान सौरभ, सुरेंद्र भुक्कल और मुकेश भुक्कल—ने मिलकर इस प्रश्न को व्यक्तिगत असुविधा से ऊपर उठाकर जनहित के मुद्दे के रूप में सामने रखा। उस समय शायद किसी ने नहीं सोचा था कि यह पहल आने वाले वर्षों में सिवानी की सामूहिक चेतना का स्वर बन जाएगी। शुरुआत में यह संघर्ष कुछ बैठकों, ज्ञापनों और चर्चाओं तक सीमित रहा, लेकिन जैसे-जैसे आम लोगों ने अपनी रोजमर्रा की समस्याओं को इस मांग से जुड़ा पाया, वैसे-वैसे आंदोलन का दायरा बढ़ता गया। आज, लगभग दस वर्षों बाद, यह अभियान किसी समिति या व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि पूरे सिवानी उपमंडल की साझा आवाज़ बन चुका है।
भौगोलिक सच्चाई : नक्शे और जमीन के बीच का अंतर
किसी भी जिले या उपमंडल की प्रशासनिक संबद्धता का पहला और सबसे ठोस आधार उसकी भौगोलिक स्थिति होती है। इस कसौटी पर सिवानी का भिवानी से जुड़ाव कमजोर और हिसार से संबंध अत्यंत स्वाभाविक प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, बडवा से हिसार की दूरी लगभग 25 किलोमीटर है, जबकि भिवानी की दूरी करीब 70 किलोमीटर पड़ती है। यह अंतर केवल किलोमीटर का नहीं, बल्कि समय, श्रम और संसाधनों का भी है। भिवानी जाने के लिए सिवानी क्षेत्र के अनेक गांवों के लोगों को दो से तीन बसें बदलनी पड़ती हैं, जबकि हिसार के लिए प्रायः सीधी एक बस उपलब्ध होती है। यह अंतर उस आम नागरिक के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, जो किसी सरकारी दफ्तर, अस्पताल या अदालत के चक्कर में पहले ही मानसिक दबाव से गुजर रहा होता है।
परिवहन व्यवस्था : सुविधा बनाम विवशता
परिवहन किसी भी क्षेत्र की जीवनरेखा होता है। सिवानी उपमंडल के संदर्भ में देखें तो यह जीवनरेखा साफ तौर पर हिसार की ओर बहती है। हिसार के लिए हर 10–15 मिनट में बस या अन्य परिवहन साधन उपलब्ध हैं। इसके विपरीत, भिवानी के लिए कई बार एक घंटे या उससे अधिक समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसका परिणाम यह होता है कि भिवानी जाकर किसी कार्यालयीन कार्य को निपटाकर उसी दिन घर लौट पाना आम आदमी के लिए लगभग असंभव हो जाता है। एक दिन का काम दो दिन में बदल जाता है, जिससे न केवल समय और धन की हानि होती है, बल्कि कामकाजी वर्ग, किसानों और व्यापारियों पर अतिरिक्त बोझ भी पड़ता है।
प्रशासनिक और व्यावहारिक निर्भरता
व्यवहारिक जीवन में सिवानी क्षेत्र की निर्भरता भिवानी पर नहीं, बल्कि हिसार पर है। उच्च शिक्षा संस्थान, बड़े अस्पताल, विशेष चिकित्सा सुविधाएं, प्रमुख मंडियां, रोजगार के अवसर और न्यायिक संस्थान—इन सबके लिए सिवानी का नागरिक स्वाभाविक रूप से हिसार की ओर देखता है। यह स्थिति एक विडंबना को जन्म देती है, जहां प्रशासनिक आदेश भिवानी से संचालित होते हैं, लेकिन जीवन की जरूरतें हिसार से पूरी होती हैं। यही असंतुलन वर्षों से जनता की असुविधा का कारण बना हुआ है।
सामाजिक और सांस्कृतिक साम्य
सिवानी का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना भी हिसार से अधिक मेल खाता है। पारिवारिक रिश्ते, व्यापारिक संबंध, शैक्षिक आवाजाही और सामाजिक सहभागिता—इन सभी क्षेत्रों में सिवानी का जुड़ाव हिसार से अधिक गहरा है। लोकजीवन, भाषा-शैली और सामाजिक व्यवहार में भी यह साम्य स्पष्ट दिखाई देता है। प्रशासनिक सीमाएं यदि सामाजिक वास्तविकताओं के विपरीत खींची जाएं, तो वे जनता के लिए सुविधा की बजाय बाधा बन जाती हैं। सिवानी के मामले में यही स्थिति वर्षों से बनी हुई है।
नारे की भूमिका : विचार को पहचान
हर बड़े जन-आंदोलन को एक ऐसा वाक्य चाहिए होता है, जो उसकी पूरी भावना को कुछ शब्दों में समेट दे। सिवानी आंदोलन को यह पहचान मिली नारे के रूप में—
“भिवानी से है इंकार, हमको चाहिए जिला हिसार।”
यह नारा डॉ. सत्यवान सौरभ की कलम से निकला, और धीरे-धीरे आंदोलन की वैचारिक पहचान बन गया। यह केवल भावनात्मक उद्घोष नहीं, बल्कि सिवानी क्षेत्र की भौगोलिक सच्चाई, प्रशासनिक तर्क और जन-आकांक्षा का संक्षिप्त लेकिन सटीक बयान है। यही नारा गांव-गांव, ढाणी-ढाणी और चौपाल-चौपाल तक पहुंचा और आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया।
शांत, लोकतांत्रिक और निरंतर संघर्ष
इस आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह रही है कि यह कभी उग्र या विभाजनकारी नहीं हुआ। ज्ञापन, बैठकों, संवाद, रैलियों और शांतिपूर्ण तरीकों से अपनी बात सरकार तक पहुंचाई गई। यही कारण है कि यह आंदोलन किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं रहा, बल्कि किसानों, व्यापारियों, युवाओं, महिलाओं, कर्मचारियों और सामाजिक संगठनों—सभी की साझा मांग बन गया। दस वर्षों की निरंतरता यह सिद्ध करती है कि यह मुद्दा क्षणिक नहीं, बल्कि स्थायी समाधान की मांग करता है।
विधानसभा क्षेत्र पर संतुलित दृष्टिकोण
जहां तक राजनीतिक प्रतिनिधित्व का प्रश्न है, आंदोलन की मांग वहां भी संतुलित और व्यावहारिक है। स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उपमंडल सिवानी यथावत रहे, और विधानसभा हल्का भी सिवानी के नाम से ही गठित किया जाए। इससे न तो क्षेत्रीय पहचान को नुकसान पहुंचेगा और न ही प्रशासनिक संतुलन बिगड़ेगा।
सरकार के लिए कसौटी
आज जब शासन “ईज ऑफ लिविंग” और “ईज ऑफ गवर्नेंस” जैसे सिद्धांतों की बात करता है, तो सिवानी का प्रश्न एक वास्तविक परीक्षा बन जाता है। यदि प्रशासनिक निर्णय जनता की रोजमर्रा की कठिनाइयों को कम नहीं कर पा रहे, तो उन्हें बदलने का साहस दिखाना ही सुशासन की पहचान है।
एक क्षेत्र की सामूहिक आकांक्षा
लगभग दस वर्षों का यह शांत, संगठित और जन-आधारित संघर्ष स्पष्ट संकेत देता है कि सिवानी की यह मांग किसी व्यक्ति, समिति या संगठन की नहीं, बल्कि एक पूरे क्षेत्र की सामूहिक आकांक्षा है। अब यह प्रश्न केवल भिवानी या हिसार का नहीं, बल्कि प्रशासनिक विवेक और जन-संवेदनशीलता का है। सरकार के लिए यह अवसर है कि वह सिवानी को उसकी भौगोलिक और सामाजिक सच्चाई के अनुरूप प्रशासनिक संबद्धता देकर यह संदेश दे कि लोकतंत्र में जनता की आवाज़ सुनी जाती है।
भिवानी से इंकार, हमको चाहिए जिला हिसार—आज यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि सिवानी के भविष्य की घोषणा है।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,