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साफ़ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं

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व्यंग्य



आलोक पुराणिक
चांदनी चौक जाना जैसे कई पीढ़ियों के इतिहास से गुजरना है। मनु कौशल और आलोक पुराणिक का बस चले, तो सुबह से रात तक सुनाते जायें दास्तान ए चांदनी चौक, गौरी शंकर टू गालिब टू दाग टू बेगम समरु टू इकबाल टू नादिर शाह टू अब्दाली टू जाने क्या क्या। कभी मनु कौशल और आलोक पुराणिक अपने अपने घरों से कई दिनों तक फरार पाये जायें और घरवाले ढूंढने आयें, तो पता लगेगा चांदनी चौक में बेगम समरु की हवेली में कई घंटों से दास्तान ए हवेली सुना रहे होंगे और लोगों की मुहब्बत कि लोग सुन रहे होंगे।

खैर जी चांदनी चौक वाक में दाग साहब के बहुत शेर सुनाये जायेंगे, उनकी बहुत दास्तानें सुनायी जायेंगी, फिर भी कई दास्तानें और कई शेर रह ही जायेंगे। दाग साहब कमाल के शायर थे इस अर्थ में वह एक साथ क्लासिक और सहज शायर थे। गालिब क्लासिक शायर हैं, पर सहज नहीं हैं। गालिब बहुत कांपलेक्स शायर हैं। सहज या कांपलेक्स होना अलग मसला है, हर शायर का रंग और ढंग अलग होता है। एक ही वाक में हम दोनों को याद करते हैं, यूं उस दौर के मोमिन भी कमाल शायर हैं, उन्हे याद करने के लिए कहीं और लेकर जायेंगे वाक ए दिल्ली की हेरिटेज-लिटरेचर वाक।

दाग साहब कमाल थे और उनकी मां भी कमाल थीं। उनकी मां का लिटरेचर कनेक्शन भी काबिले जिक्र है। खैर अभी तो यह सुनिये –

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं –उज्र यानी आपत्ति

बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं –मुलाकात खत्म करने का कारण बताते भी नहीं

क्या कहा फिर तो कहो हम नहीं सुनते तेरी

नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं

ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं

साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ

कौन बैठा है उसे लोग उठाते भी नहीं

ज़ीस्त से तंग हो ऐ ‘दाग़’ तो जीते क्यूँ हो

जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं

वाक और भी हैं, बात और भी हैं

शेख हसीना को मृत्युदंड: दक्षिण एशियाई कूटनीति में भारत की नई चुनौती

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बांग्लादेश के न्यायिक संकट और भारत का कूटनीतिक संतुलन

 शेख हसीना को सुनाई गई मृत्युदंड की सजा के बाद दक्षिण एशियाई राजनीति में उभरते नए समीकरणों का विश्लेषण

बांग्लादेश के विशेष न्यायाधिकरण द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को सुनाई गई मृत्युदंड की सजा ने दक्षिण एशिया की राजनीति को गहरे तक झकझोर दिया है। यह फैसला न केवल बांग्लादेश की लोकतांत्रिक विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाता है, बल्कि भारत को भी अभूतपूर्व कूटनीतिक दुविधा में डालता है। भारत को हसीना की सुरक्षा, प्रत्यर्पण की मांग, सीमा-सुरक्षा, आर्थिक हितों, और क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन के बीच अत्यंत संवेदनशील चालन करना होगा। यह पूरा घटनाक्रम दर्शाता है कि घरेलू राजनीतिक संकट किस प्रकार पड़ोसी देशों के लिए बहुआयामी रणनीतिक चुनौती बन जाता है।

-डॉ. सत्यवान सौरभ

बांग्लादेश की राजनीति में अभूतपूर्व उथल-पुथल के बीच पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश के न्यायाधिकरण द्वारा मृत्युदंड सुनाया जाना केवल एक अदालती फैसला नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई भू-राजनीतिक परिदृश्य को हिला देने वाला ऐतिहासिक घटना-क्रम है। यह सजा उस समय सुनाई गई जब हसीना पहले से ही भारत में राजनीतिक शरण जैसी स्थिति में रह रही थीं और बांग्लादेश में उनकी सरकार के विरोध में विस्तृत जन-आक्रोश तथा हिंसक आंदोलनों की पृष्ठभूमि मौजूद थी। इस फैसले ने बांग्लादेश की लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता, न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और शासन की स्थिरता को तीव्र विवाद के केंद्र में ला दिया है। लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह स्थिति भारत को किस प्रकार गहरे कूटनीतिक द्वंद्व में धकेल रही है, जहाँ हर कदम क्षेत्रीय समीकरणों और द्विपक्षीय हितों पर दूरगामी प्रभाव डाल सकता है।

भारत के लिए सबसे पहली चुनौती यह है कि वह इस फैसले पर कैसी आधिकारिक प्रतिक्रिया दर्ज करे। भारत बांग्लादेश का सबसे नजदीकी और सबसे बड़ा साझेदार देश है, जिसके साथ सुरक्षा, व्यापार, ऊर्जा, सीमा-प्रबंधन, कनेक्टिविटी और सांस्कृतिक अन्तःसंबंध जैसे अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्र जुड़े हुए हैं। इसलिए भारत किसी भी प्रकार की खुली निंदा या समर्थन का जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है। भारत को लोकतांत्रिक मूल्यों, मानवाधिकार, न्यायिक निष्पक्षता और राजनीतिक स्थिरता के सिद्धांतों को भी साथ में लेकर चलना है, जो उसे क्षेत्रीय नेतृत्व के मानक पर कसते हैं। इसके साथ ही बांग्लादेश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप-नही-करने की नीति भी भारत के लिए अनिवार्य वास्तविकता है। यही कारण है कि भारत के कूटनीतिक वक्तव्यों का स्वर अत्यंत संयत, सावधान और संतुलित रहा है।

भारत के सामने दूसरी बड़ी चुनौती शेख हसीना की सुरक्षा और उनके प्रत्यर्पण की संभावित मांग है। हसीना लंबे समय से भारत में सुरक्षित हैं और बांग्लादेश की नई सत्ता-व्यवस्था व न्यायाधिकरण द्वारा उनका प्रत्यर्पण माँगा जाना लगभग निश्चित है। लेकिन भारत-बांग्लादेश प्रत्यर्पण संधि में राजनीतिक अपराध अपवाद का स्पष्ट उल्लेख है, जो भारत को कानूनी आधार देता है कि वह हसीना को बांग्लादेश भेजने से इनकार कर सके। इसके अतिरिक्त, यदि भारत उन्हें प्रतिपक्षीय हिंसा या पक्षपातपूर्ण मुकदमे का शिकार मानता है, तो प्रत्यर्पण देना भारत के मानवाधिकार और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध होगा। किंतु इससे बांग्लादेश सरकार के साथ तनाव बढ़ सकता है, और भारतीय कूटनीति को इसे अत्यंत सावधानी से संभालने की आवश्यकता है।

भारत को इस स्थिति का तीसरा बड़ा आयाम क्षेत्रीय स्थिरता के संदर्भ में देखना आवश्यक है। भारत और बांग्लादेश लगभग चार हजार किलोमीटर लंबी साझा सीमा साझा करते हैं, जहाँ अशांति फैलने या राजनीतिक हिंसा बढ़ने से सीमा सुरक्षा, सीमा-पार अपराध, अवैध आवागमन, शरणार्थी प्रवाह और कट्टरपंथी समूहों की गतिविधियों में वृद्धि की आशंका है। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, मिज़ोरम और असम जैसे राज्यों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ सकता है। बांग्लादेश की स्थिरता भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी अन्य राष्ट्रीय रणनीति के लिए। इसलिए भारत चाहता है कि बांग्लादेश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया, सामाजिक शांति और प्रभावी शासन जितनी जल्दी बहाल हो सके, उतना बेहतर है।

एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि बांग्लादेश की राजनीति में अस्थिरता से भारत-बांग्लादेश आर्थिक संबंधों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। दोनों देशों के बीच व्यापक व्यापारिक विनिमय, औद्योगिक सहयोग, बिजली और गैस पाइपलाइन परियोजनाएँ, बंदरगाह विकास समझौते, सीमा-पार रेल और सड़क कनेक्टिविटी, और कई आर्थिक गलियारे चल रहे हैं। यदि बांग्लादेश में राजनीतिक संकट लंबा खिंचता है, तो इन परियोजनाओं की गति धीमी पड़ सकती है, निवेश वातावरण प्रभावित हो सकता है और व्यापार बाधित हो सकता है। यह विशेष रूप से उस समय और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है जब क्षेत्रीय शक्तियाँ—विशेषतः चीन—बांग्लादेश में सक्रिय रूप से अपनी उपस्थिति बढ़ा रही हों।

चीन-बांग्लादेश संबंध भारत के लिए लंबे समय से चिंता का विषय रहे हैं। चीन ने बांग्लादेश में बड़े-बड़े बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं, समुद्री समझौतों और सामरिक ठिकानों के माध्यम से अपने प्रभाव का विस्तार किया है। यदि राजनीतिक अस्थिरता के दौरान भारत-बांग्लादेश संबंध कमजोर पड़ते हैं, तो यह चीन को एक बड़ा अवसर प्रदान कर सकता है। इसलिए भारत को ऐसी किसी भी स्थिति से बचना होगा जहाँ उसकी तटस्थता या हसीना के प्रति सहानुभूति को नई बांग्लादेशी सत्ता भारत-विरोधी या अपना-नुकसान समझने लगे। भारत के लिए यह पूर्णतः रणनीतिक चुनौती है: उसे लोकतंत्र और न्यायिक निष्पक्षता का समर्थन भी करना है और अपनी क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा व सामरिक हितों की रक्षा भी।

अमेरिका और पाकिस्तान जैसे देशों की नीतियाँ भी इस घटनाक्रम को और जटिल बनाती हैं। अमेरिका ने कई बार बांग्लादेश में चुनावी पारदर्शिता और मानवाधिकार उल्लंघन पर चिंता जताई है, जबकि पाकिस्तान बांग्लादेश के राजनीतिक उद्देश्यों को भारत-विरोधी दिशा में मोड़ने की कोशिश कर सकता है। भारत इस त्रिकोणीय दबाव के बीच संतुलन साधते हुए एक ऐसी रणनीति अपना रहा है जिसमें वह न तो क्षेत्रीय शक्ति-नीतियों में पीछे हटे और न ही किसी प्रत्यक्ष विवाद में उलझे। भारत का यह संतुलन उसके व्यापक दक्षिण एशिया दृष्टिकोण को भी परिभाषित करता है।

लोग-से-लोग संपर्कों और सांस्कृतिक जुड़ावों पर भी इस घटनाक्रम का असर पड़ सकता है। लाखों बांग्लादेशी भारत में कार्यरत हैं, पढ़ते हैं, आते-जाते हैं और सांस्कृतिक विनिमय करते हैं। यदि बांग्लादेश की नई सत्ता भारत के रुख से असंतुष्ट होती है तो इन लोगों पर दबाव बढ़ सकता है, जो दोनों देशों के सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण को अस्थिर कर सकता है। वहीं भारत में रहने वाले बांग्लादेशी शरणार्थियों को भी अधिक सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

सार रूप में देखा जाए तो शेख हसीना को सुनाई गई मृत्युदंड की सजा बांग्लादेश के भीतर गहरा राजनीतिक-न्यायिक संकट है, लेकिन इसका प्रभाव केवल वहीं सीमित नहीं रहता; यह पूरे दक्षिण एशिया के कूटनीतिक, आर्थिक, सुरक्षा और सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करता है। भारत के लिए चुनौती यह है कि वह न केवल अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करे, बल्कि यह भी सुनिश्चित करे कि बांग्लादेश में स्थिरता, लोकतंत्र और न्यायपूर्ण शासन की दिशा में सकारात्मक प्रगति हो। भारत की कूटनीति को धैर्य, सूझबूझ और उच्चतर संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ना होगा।

अंततः, यह घटनाक्रम भारत को यह याद दिलाता है कि पड़ोसी देशों की घरेलू राजनीति कभी अकेली नहीं होती; वह सीमाओं से परे प्रभाव डालती है और शक्ति-संतुलन की नई सिरों पर प्रश्न उठाती है। भारत को ऐसे समय में वही भूमिका निभानी है जिसकी उम्मीद एक जिम्मेदार, लोकतांत्रिक और क्षेत्रीय नेतृत्वकर्ता शक्ति से की जाती है—संवेदनशील लेकिन दृढ़, संतुलित लेकिन सिद्धांतनिष्ठ, और तटस्थ लेकिन मानवीय दृष्टिकोण से समृद्ध।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

भारत सरकार के श्रम सुधारों के नए युग में पत्रकार क्यों छूट गए पीछे ?

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भारत सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किए गए व्यापक नीतिगत बदलावों से देश के 40 करोड़ से अधिक श्रमिकों के जीवन में नई उम्मीद जगी है। चार नई श्रम संहिताओं—वेतन, सामाजिक सुरक्षा, औद्योगिक संबंध एवं व्यावसायिक स्वास्थ्य—को लागू करते हुए केंद्र सरकार ने दावा किया है कि इससे कार्यस्थलों पर पारदर्शिता आएगी, श्रमिकों का सामाजिक सुरक्षा कवच मजबूत होगा, और महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिल सकेगा। एक राष्ट्र—एक वेतन ढांचा, नियुक्ति पत्र की अनिवार्यता, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा, ओवरटाइम का दोगुना वेतन, एक वर्ष की नौकरी पर ग्रेच्युटी, तथा संविदा और असंगठित श्रमिकों को पीएफ के दायरे में लाने जैसे बदलाव निश्चित रूप से ऐतिहासिक हैं। एक राष्ट्र—एक वेतन ढांचा, नियुक्ति पत्र की अनिवार्यता, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा, ओवरटाइम का दोगुना वेतन, एक वर्ष की नौकरी पर ग्रेच्युटी, तथा संविदा और असंगठित श्रमिकों को पीएफ के दायरे में लाने जैसे बदलाव निश्चित रूप से ऐतिहासिक हैं।

यह कदम ‘आत्मनिर्भर भारत’ के लक्ष्य के अनुरूप है और श्रमिकों की दशकों पुरानी समस्याओं को हल करने की दिशा में महत्वपूर्ण सुधार माना जा रहा है। नया ढांचा न सिर्फ व्यवस्था को सरल करता है, बल्कि उसे अधिक मानवीय और न्यायसंगत भी बनाता है। सरकार और उद्योग—दोनों के लिए यह एक बड़ी नीतिगत उपलब्धि है।

लेकिन इस उजाले के बीच एक बड़ा वर्ग आज भी अंधेरे में खड़ा है—देश का पत्रकार समुदाय। विडंबना यह है कि जिन पत्रकारों ने श्रम सुधारों के इन दावों और उपलब्धियों को जनता तक पहुँचाया, वही पत्रकार स्वयं इन सुविधाओं और अधिकारों से अक्सर वंचित हैं।
पत्रकारों की स्थिति—श्रमिकों से भी बदतर है। भारत के बड़े मीडिया घरानों में काम करने वाले पत्रकारों की आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन दयनीय होती जा रही है।
समस्या की जड़ें बेहद गहरी हैं: 1. नियुक्ति पत्र तक नहीं दिया जाता जबकि नए श्रम कानूनों में हर श्रमिक को नियुक्ति पत्र देना अनिवार्य है, लेकिन बड़े मीडिया संस्थानों में हजारों पत्रकार बिना नियुक्ति पत्र के काम कर रहे हैं। नियुक्ति पत्र न होने का मतलब— कोई श्रम सुरक्षा नहीं, कोई कानूनी दावा नहीं, कोई न्यूनतम वेतन सुनिश्चित नहीं।
पत्रकार खुद अपना अधिकार मांगने पर भी कमजोर पड़ जाते हैं क्योंकि दस्तावेजी रूप से वे ‘कर्मचारी’ ही नहीं होते। वेतन संहिता पत्रकारों पर लागू नहीं होती। जिन संस्थानों से सरकार की नीतियों की खबरें निकलती हैं, वही संस्थान वेतन संहिता की धज्जियां उड़ाते हैं। तय वेतन नहीं, ओवरटाइम का कोई हिसाब नहीं, समय पर भुगतान की गारंटी नहीं, पत्रकारों के लिए यह स्थिति किसी असंगठित मजदूर से कम नहीं। स्वास्थ्य सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। नए कानूनों में श्रमिकों के लिए मुफ्त वार्षिक स्वास्थ्य जांच, जोखिम क्षेत्रों में सौ प्रतिशत सुरक्षा, और स्वास्थ्य सुविधाओं की अनिवार्यता तय की गई है। लेकिन पत्रकार—जो कई बार खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं—स्वास्थ्य बीमा तक से वंचित रहते हैं।
पत्रकारों को ‘एजेंसी’ मान लेने का नया खेल। कई बड़े मीडिया हाउस अब पत्रकारों को फुल-टाइम कर्मचारी नहीं, बल्कि ‘कॉन्ट्रैक्ट एजेंसी’ या ‘फ्रीलांसर’ के रूप में दर्ज कर रहे हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि न पीएफ, न ईएसआई, न छुट्टियों का अधिकार, न ग्रेच्युटी, न नौकरी की सुरक्षा। यह व्यवस्था श्रम कानूनों से बचने का आधुनिक तरीका है।
श्रम सुधार—पत्रकारों के लिए क्यों साबित हो रहे हैं खोखले?
सरकार दावा कर रही है कि चार श्रम संहिताएँ 40 करोड़ से अधिक श्रमिकों को सुरक्षा प्रदान करेंगी। परंतु पत्रकार, जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की रीढ़ हैं, सुधारों की इस श्रृंखला में शामिल ही नहीं दिखते। जब श्रमिकों को—समान वेतन, स्वास्थ्य सुरक्षा, रात्रि पाली में महिला श्रमिकों की स्वतंत्रता, भेदभाव पर रोक, ओवरटाइम का दोगुना वेतन, नौकरी के पहले साल में ही ग्रेच्युटी —जैसे अधिकार मिल रहे हैं, तब पत्रकार समुदाय आज भी बुनियादी रोजगार सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ असंगठित मजदूरों से भी कमजोर हो चुका है?
यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि:
पत्रकार बिना सुरक्षा के फील्ड में काम कर
ते हैं। हर आर्थिक संकट में मीडिया संस्थान सबसे पहले कर्मचारियों की छंटनी करते हैं। पत्रकार यूनियनें कमजोर हो चुकी हैं। न्याय पाने के रास्ते बंद हैं, क्योंकि औपचारिक रोजगार संबंध ही स्थापित नहीं होता। ऐसे में पत्रकारों की स्थिति एक असंगठित दिहाड़ी मजदूर से भी अधिक असुरक्षित हो जाती है।
यदि सरकार का लक्ष्य वास्तव में देश के
 40 करोड़ श्रमिकों में नई ऊर्जा भरना है, तो मीडिया क्षेत्र को इस दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। पत्रकार लोकतंत्र का प्रहरी हैं—और प्रहरी का कमजोर होना लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करता है। सरकार, श्रम मंत्रालय और मीडिया नियामक संस्थानों को इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे:पत्रकारों के लिए विशिष्ट श्रम सुरक्षा प्रावधान। मीडिया हाउसों में नियुक्ति पत्र की अनिवार्यता। पत्रकारों के लिए न्यूनतम वेतन ढांचा। स्वास्थ्य बीमा और सुरक्षा प्रोटोकॉल। छंटनी पर नियंत्रण और पारदर्शिता। जब तक यह न होगा, तब तक श्रम सुधार सिर्फ पोस्टर और प्रेस कॉन्फ्रेंस का हिस्सा बने रहेंगे।

नवीन चौहान , हरिद्वार

बिहार के बाद बंगाल में भी भाजपा ने फूंका चुनावी बिगुल

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बाल मुकुन्द ओझा

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की बंफर जीत से भाजपा उत्साहित है। भाजपा नेताओं ने ‘बिहार के बाद अब बंगाल की बारी’ का नारा दिया है। बंगाल के किले को भेदने के लिए भाजपा ने मजबूत रणनीति बनाकर उसपर तेजी से अमल शुरू कर दिया है। पार्टी ने बंगाल में चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव, त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देव और आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय को सौंपी है। वहीं पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सुनील बंसल पिछले तीन वर्षों से राज्य में पार्टी संगठन को मजबूत करने में लगे हैं। साथ ही बंगाल को पाँच बड़े जोन में विभाजित करते हुए छह राज्यों के संगठन मंत्रियों और छह वरिष्ठ नेताओं की तैनाती कर दी है। ये सभी नेता आगामी पाँच महीनों तक बंगाल में ही डेरा डालकर चुनावी मशीनरी को मजबूत करेंगे। बिहार की जीत के बाद पार्टी मुख्यालय पर कार्यकर्ताओं को अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि गंगाजी बिहार से होकर बंगाल तक जाती है। बंगाल में जीत भाजपा का एक बड़ा सपना है। फिलहाल बंगाल में भी वोटर लिस्ट सुधार कार्यक्रम चल रहा है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और उसकी मुखिया ममता बनर्जी वोटर सुधर का विरोध कर रही है। बंगाल में अगले छह माह में चुनाव होने है जिसके लिए सभी सियासी पार्टियों ने अपनी कमर कास ली है।

पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव के सियासी नगाड़े बजने शरू हो गए है। विधान सभा चुनावों की सरगर्मियां अभी से तेज़ हो गई है। यह चुनाव भाजपा के लिए करो या मरो साबित होंगे, इसमें कोई  संशय नहीं है। चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं वैसे वैसे भाजपा और टीएमसी के बीच सियासी टकराव बढ़ता ही जा रहा हैं। भाजपा ने  चुनाव की सियासी जंग फतह करने के लिए अपना एजेंडा सेट कर लिया है तो टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी अपनी सत्ता को बचाए रखनी की कवायद में है। देश की सत्ता पर भाजपा तीसरी बार काबिज है, लेकिन बंगाल में अभी तक कमल नहीं खिल सका है। नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा को बंगाल में उम्मीद की किरण दिखाई दी है, जिसके चलते 2026 के विधानसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी के सियासी दुर्ग में भाजपा अपनी सियासी बेस को बनाने की एक्सरसाइज शुरू कर दी है। बंगाल में एनडीए का मतलब भाजपा और इंडिया गठबंधन का अर्थ टीएमसी है। बंगाल में लोकसभा और विधान सभा में कांग्रेस और कम्युनिष्टों का सूपड़ा साफ़ हो चुका है। ममता इंडिया में जरूर है मगर बंगाल के चुनाव में किसी भी सहयोगी पार्टी को पास फटकने नहीं दे रही है। एनडीए में भाजपा को छोड़कर किसी सहयोगी दल का अस्तित्व नहीं है। ऐसे में भाजपा और टीएमसी में सीधा मुकाबला होगा। ममता बनर्जी अपनी सत्ता बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है तो भाजपा ममता की चालों को धराशाही करने के लिए कमर कस ली है। बंगाल का चुनाव बेहद दिलचस्प और धूम धड़ाके वाला होगा और पूरे देश की निगाह इस पर टिकी होंगी। 

बंगाल में स्वतंत्र और निष्पक्ष  कराना चुनाव आयोग के सामने बड़ी चुनौती है। यहाँ रक्तरंजित चुनाव से इंकार नहीं किया जा सकता। प्रमुख दलों ने अभी से बड़ी बड़ी रैलियों का आगाज कर  प्रचार शरू कर दिया है। पार्टियों में रोज ही मारकाट होती है। एक दूसरे पर हमले हो रहे है। 2021 के विधानसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी ने बीजेपी के हिंदुत्व पॉलिटिक्स के सामने मां, माटी और मानुष के भरोसे सियासी जंग फतह करने में कामयाब रहीं। बीजेपी 2026 के चुनाव में जिस तरह हिंदुत्व के मुद्दे को धार देने में जुटी है, उसके चलते माना जा रहा है कि ममता बनर्जी फिर से बंगाल अस्मिता वाले हथियार का इस्तेमाल कर सकती हैं।

ममता बनर्जी ने पिछले चुनाव को ‘बंगाली बनाम बाहरी’ की लड़ाई का सियासी रंग दिया थ। ममता बनर्जी ने खुद को बंगाली और बीजेपी नेताओं को बाहरी कहकर बंगाल की जनता को आगाह करने की कोशिश करती नजर आईं थी। ममता ने कहा कि बंगाल गुजरात या यूपी नहीं है। बंगाल, बंगाल है। कुछ बाहरी गुंडे यहां आ रहे हैं। टीएमसी फिर कह रही है कि 2026 विधानसभा चुनाव के दौरान विकास के अलावा बंगाली अस्मिता हमारा मुख्य चुनावी मुद्दा होगा। बंगाली अस्मिता केवल बंगालियों के बारे में नहीं है इसमें सभी भूमि पुत्रों के लिए अपील है। ऐसे में साफ है कि बीजेपी के हिंदुत्व को काउंटर करने के लिए ममता बनर्जी बंगाल अस्मिता के मुद्दे को फिर से उठा सकती हैं।

बाल मुकुन्द ओझा

  वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी  32, मॉडल टाउन

मालवीय नगर, जयपुर

व्यंग्यः जब कुकर में खीर बनी

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अस्सी का दशक था। बाजार में सीटी बजाने वाला प्राणी आया। इसको नाम मिला कुकर। मोहल्ले में खबर हो गई… कुकर आ रहा है। पड़ोस की बहन बोली.. “बहन जी! क्या मंगवा रही हो? सुना है, आपके यहां कुकर आ रहा है?”

-जी बहन। लल्ला ला रहा है? सुना है, सब जल्दी पका देता है?

शुभ घड़ी आ गई। मुहूर्त बताने वाले तब पंडित नहीं थे। महिलाएं खुद बता देती थीं..कब क्या करना है। लल्ला बाजार गए। कुकर लाए। कुकर का ऐसे स्वागत हुआ जैसे कोई बच्चा आया हो। जिसको पता चला, वही देखने आने लगा। मिठाई मांगने लगा।

थोड़ी देर में साइकिल से कंपनी का बंदा आया। उसने समझाया। कितनी सीटी पर क्या पकेगा।

यह इसलिए जरूरी था ताकि आप सीटी न मारते रहो। चाय पीकर बंदा गया। अब कुकर की बारी थी।

पहली बार आया है। कुछ मीठा होना चाहिए। देखा। जीजी चावल बीन रहीं थी। कुकर के अति-शोभनीय देह पुंज पर संस्कारों की मुट्ठी पड़ी। सवा मुट्ठी। यह कम रही। देह पुंज में बिखर गई। तभी पड़ोस की ताई बोली..सवा पांच या ग्यारह मुट्ठी डाल दो। यह भी शुभ होता है।

जीजी ने ग्यारह डाल दी। कुकर की देह फूल गई। चावल यानि अक्षत निकाले गए। ताई जी! दूध कितना डालूं? एक टेक्नीशियन की भांति ताई जी बोलीं.. जितने मुट्ठी चावल, उससे दोगुना दूध?

और चीनी?

वो भी इतनी।

तब अंगीठी थी। गैस आ गई थी। लेकिन लल्ला लाया नहीं। उसने सोचा, पहले कुकर ले लूं। फिर गैस आ जाएगी।

सब कुछ कुकर के निर्मल कंचन काया में समा चुका था। चावल, चीनी और दूध। अब शुभ घड़ी का इंतजार था। मन मंदिर की घंटियां बजने लगीं ( जैसे आज जयमाला पर बजती हैं)।

“ठहरो! बहन ठहरो! तुमने सतिया तो बनाया नहीं?” कुकर पर सतिया बना। उमंग और तरंग के बीच ढक्कन लगा। खीर चढ़ गई।

“ताई जी! कितनी सीटी लगेंगी?”

-तीन तो लगेंगीं। चावल देर से पकते हैं।

अंगीठी की आग नर्म नर्म देह सुख ले रही थी। घर पर उत्सव का माहौल था। सब खीर खाना चाह रहे थे। तभी एक सीटी बजी। सब ताली बजाने लगे। खीर कुकर का तन फाड़कर बाहर निकलने लगी। फिर दूसरी सीटी बजी। वही नजारा। तीसरी सीटी में कुकर से धुआं उठने लगा?

कुकर से धुआं उठेगा। यह किसी ने नहीं बताया था। चतुर जीजी ने कुकर को अंगीठी से उतारा। आपदा में अवसर तलाशा। पानी डाला। कुकर की आग उगलती देह शांत पड़ी।

“लगता है, बहन खीर पक गई?” पड़ोस की बहन बोली।

जीजी ने ढक्कन खोला। अरे यह क्या? न दूध, न चीनी न चावल? कुकर खीर पी चुकी थी। कुछ जले भुने चावल बता रहे थे..हां हां यहां खीर पकी थी।

दुख में कोई साथ नहीं देता। खीर बिखरते ही पड़ोसी बारी-बारी अपने घर चले गए। लल्ला भागा भागा दुकान पर गया..”यह कैसा कुकर दिया है? उसमें खीर तो बनी नहीं?”

बाबू जी! खीर इसमें नहीं बनती। बनानी थी तो एक सीटी मारते। ( यानी उसको भी नहीं पता था। वह ड्रा मैच खेल रहा था)।

खीर तो बिखर गई। लेकिन कुकर का महत्व समझ में आया। जीवन कुकर की तरह है। इसमें समय के हिसाब से सीटी देनी पड़ती है। हर चीज कुकर में पकने के लिए नहीं होती। तब कुकर फटते थे। स्टोव फटते थे। बहुएं जलती थीं। (जलाई जाती थीं)।

आज वही कुकर है। वहीं चावल। वही दूध। सब खीर खाते हैं। कुकर कसमसाता रहता है। उसकी सीटी बज गई। अब न वो रोता है। न फटता है। वक्त ने सीटी बजाना सिखा दिया।

नारी तकनीकी शास्त्र का पहला अध्याय समाप्त हुआ। बोलो, सत्यनारायण भगवान की जय।

सूर्यकांत

महायोद्धा दुर्गादास राठौड़

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दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री आसकरण सिंह राठौड़ के पुत्र थे। उनकी माँ अपने पति और उनकी अन्य पत्नियों के साथ नहीं रहीं और जोधपुर से दूर रहीं। अतः दुर्गादास का पालन पोषण लुनावा नामक गाँव में हुआ। आप का जन्म 13 अगस्त 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। आप सूर्यवंशी राठौड़ कुल के राजपूत थे। आप के पिता का नाम आसकरण सिंह राठौड था जो मारवाड़ ( जोधपुर) के महाराजा जसवन्त सिंह (प्रथम) के राज्य की दुनेवा जागीर के जागीदार थे।

राजस्थान की रणभूमि ने अपने साहस, कर्तव्य और त्याग से इतिहास के पन्नों को अमर करने वाले अनेक वीरों को जन्म दिया। इन्हीं अमर योद्धाओं में एक तेजस्वी नाम है—महायोद्धा दुर्गादास राठौड़। वीर दुर्गादास न केवल राजस्थान के, बल्कि समूचे भारत के इतिहास में एक ऐसे योद्धा, राजनयिक और राष्ट्रनिष्ठ सेनापति के रूप में जाने जाते हैं, जिनकी निष्ठा और दूरदर्शिता ने मारवाड़ की अस्मिता को बचाए रखा।

दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री आसकरण सिंह राठौड़ के पुत्र थे। उनकी माँ अपने पति और उनकी अन्य पत्नियों के साथ नहीं रहीं और जोधपुर से दूर रहीं। अतः दुर्गादास का पालन पोषण लुनावा नामक गाँव में हुआ। आप का जन्म 13 अगस्त 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। आप सूर्यवंशी राठौड़ कुल के राजपूत थे। आप के पिता का नाम आसकरण सिंह राठौड था जो मारवाड़ ( जोधपुर) के महाराजा जसवन्त सिंह (प्रथम) के राज्य की दुनेवा जागीर के जागीदार थे।

दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त 1638 को मारवाड़ के सालवा गाँव में हुआ। उनके पिता आसकरन राठौड़ और माता नेना पंवार थीं। बचपन से ही दुर्गादास में विलक्षण प्रतिभा, तेजस्विता, उत्कृष्ट तालीम और राजपूती संस्कार देखे जाते थे। घुड़सवारी, शस्त्र-प्रयोग, तीरंदाजी और युद्ध-कला में उनकी दक्षता देखकर मारवाड़ की सेनापद्धति में उन्हें विशेष स्थान मिलने लगा। दुर्गादास बचपन से ही दूरदर्शी, साहसी और दृढ़-संकल्पी थे—इन गुणों ने बाद में उन्हें एक महान रणनीतिकार और महायोद्धा के रूप में स्थापित किया।

दुर्गादास के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है जब महाराजा जसवंत सिंह के निधन (1678) के बाद मुगल सम्राट औरंगज़ेब मारवाड़ को अपने शासन में मिलाना चाहता है। जसवंत सिंह की मृत्यु के समय उनके कोई पुत्र उपस्थित नहीं थे। कुछ समय बाद उनकी रानी से पुत्र अजीत सिंह का जन्म हुआ।औरंगज़ेब इस शिशु अजीत सिंह को बंधक बनाकर मारवाड़ के राज को समाप्त करने का षड्यंत्र करने लगा। यही वह समय था जब मारवाड़ की अस्मिता पर संकट मंडरा रहा था और दुर्गादास राठौड़ आगे आए।

औरंगज़ेब ने जोधपुर पर कब्ज़ा करने और शिशु अजीत सिंह को अपने नियंत्रण में लेने का प्रयत्न किया, किंतु दुर्गादास राठौड़ ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर इस नवजात उत्तराधिकारी को मुगलों के चंगुल से सुरक्षित निकाल लिया।यह घटना भारतीय इतिहास की सबसे साहसिक और रोमांचक घटनाओं में गिनी जाती है। दुर्गादास ने न केवल अजीत सिंह को बचाया बल्कि वर्षोँ तक मारवाड़ की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए अद्भुत युद्धकौशल का परिचय दिया। अजीत सिंह को सुरक्षित बचाने के बाद दुर्गादास ने लगभग 30 वर्षों तक मुगल शक्ति का डटकर मुकाबला किया। इन्होंने कभी मरुस्थल में छापामार युद्ध चलाया तो कभी पहाड़ों पर रणनीतिक युद्ध किया तो कभी गुजरात–राजस्थान की सीमाओं पर तेज़ गति से हमले किए।

दुर्गादास मुगल–राजपूत संघर्ष में एक ऐसी रणनीति लेकर आए जिसने औरंगज़ेब को वर्षों तक असफल बनाए रखा। उनकी वीरता ने राजपूतों में नई ऊर्जा और स्वतंत्रता का जोश भर दिया। दुर्गादास राठौड़ केवल तलवारबाज़ योद्धा ही नहीं थे, वे अद्भुत कूटनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने मुगल दरबार में अपने समर्थकों का नेटवर्क बनाया। पड़ोसी राजपूत रियासतों से मित्रता की।

मारवाड़ के दूरस्थ इलाकों में सुरक्षित ठिकाने बनाए।औरंगज़ेब की सेनाओं को थकाने, भ्रमित करने और उनकी आपूर्ति-शृंखला तोड़ने की रणनीतियाँ तैयार कीं।इन सबका परिणाम यह हुआ कि औरंगज़ेब अपने जीवन के अंतिम समय तक मारवाड़ को पूरी तरह अधीन नहीं कर पाया।

1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य की शक्ति कमजोर पड़ने लगी। राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर दुर्गादास राठौड़ ने अजीत सिंह को जोधपुर की गद्दी पर स्थापित करने का लक्ष्य पूरा कर दिया।इस महान कार्य के पूरा होने के बाद वे स्वयं सत्ता का लोभ छोड़कर शांत जीवन जीने लगे। यह उनकी निष्ठा और त्याग की सर्वोच्च मिसाल है।


अपने जीवन के अंतिम वर्षों में दुर्गादास राठौड़ दक्षिण भारत (उदयपुर, बुरहानपुर, उज्जैन और अंत में नर्मदा तट) में रहे।8 जनवरी 1718 को नर्मदा के किनारे उनका देहांत हुआ। उनका अंतिम संस्कार नर्मदा किनारे ही हुआ, और आज भी ‘दुर्गादास की छतरी’ उनके अदम्य साहस की स्मृति दिलाती है।

विपक्ष मुक्त लोकतंत्र के दुष्प्रयास प्रयास अभी भी जारी                                                                   

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−तनवीर जाफ़री 

9 जून 2013 को गोवा में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की चुनाव अभियान समिति की बैठक के दौरान जिस समय नरेंद्र मोदी को 2014 लोकसभा चुनावों के लिए अभियान समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया । उस समय उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि “कांग्रेस मुक्त भारत हमारा सपना होना चाहिए।” इस आह्वान के फ़ौरन बाद उन्होंने ट्विटर पर भी इसकी पुष्टि करते हुये लिखा था कि “वरिष्ठ नेताओं ने मुझ में विश्वास जताया है। हम कांग्रेस मुक्त भारत का निर्माण करने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ेंगे।” उसके बाद से अब तक वे इसी बात को दूसरे शब्दों में अपनी चुनावी सभाओं या सार्वजनिक रैलियों आदि में कहते रहते हैं। जैसे कभी देश को “कांग्रेस संस्कृति से मुक्ति” दिलाने की बात कभी “पंजे से मुक्ति”,कभी  तुष्टिकरण से मुक्ति तो कभी परिवारवाद व भ्रष्टाचार से मुक्ति के रूप में देश के सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस को कोसकर विपक्ष मुक्त लोकतंत्र की अपनी हसरत की अभिव्यक्ति करते रहे हैं। हालांकि 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की 99 सीटें आने के बाद मोदी की इस हसरत पर विराम लग गया था। फिर भी कांग्रेस के दर्जनों नेताओं को भय लालच आदि के द्वारा अपने पाले में कर कांग्रेस को पूरी तरह कमज़ोर करने की कोशिश ज़रूर की गयी ।

                    अब बिहार चुनाव परिणामों से उत्साहित भाजपा दिल्ली से लेकर कर्नाटक तक एक बार फिर कांग्रेस व विपक्ष को कमज़ोर करने की कोशिश करने लगी है। इसी उद्देश्य से पिछले दिनों  प्रधानमंत्री मोदी ने सूरत में एक कार्यक्रम के दौरान फिर एक बयान दिया है। इस बार मोदी ने कांग्रेस व अन्य विपक्षी सांसदों की ‘पैरवी’ करते हुये उनके राजनीतिक कैरियर के प्रति चिंता ज़ाहिर की है। मोदी ने कहा कि कांग्रेस के युवा सांसदों को पार्टी नेतृत्व बोलने नहीं देता, जिससे उनका राजनीतिक कैरियर बर्बाद हो रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि “जब कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के सांसद मुझसे मिलते हैं, तो वे कहते हैं, ‘हम क्या कर सकते हैं? हमारा कैरियर ख़त्म हो रहा है। हमें संसद में बोलने का मौक़ा ही नहीं मिलता। हर बार यही कहा जाता है कि संसद को ताला लगा दो।” उन्होंने कांग्रेस पर और भी हमले किये।

               मोदी द्वारा विपक्षी सांसदों की ‘फ़िक्र’ किये जाने के सन्दर्भ में यह सोचना ज़रूरी है कि अपनी ही पार्टी के शीर्ष नेताओं का बना बनाया कैरियर समाप्त करने या उन्हें अज्ञातवास अथवा राजनैतिक संन्यास पर भेजने के लिये मजबूर करने वाले प्रधानमंत्री मोदी को आख़िर विपक्षी सांसदों के कैरियर की चिंता कैसे सताने लगी ? गुजरात से लेकर दिल्ली तक कितने नेताओं को दरकिनार कर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने वाले मोदी को विपक्षी सांसदों के कैरियर की चिंता सताने लगी ? लाल कृष्ण आडवाणी ने तो ख़ुद मोदी जी का कैरियर बचाने में उनकी मदद की थी। याद कीजिये 2002 के गुजरात दंगों के बाद तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने की ठान ली थी। उस समय आडवाणी ने ही मोदी का साथ देकर इन की कुर्सी बचाई थी। बाद में मोदी ने आडवाणी जी को कहाँ पहुंचा दिया ? जिनके पैर छुआ करते थे उन्हें ऐसे मार्ग दर्शन मंडल में भेज दिया जहाँ से मार्ग दर्शन लेने की किसी को ज़रुरत ही नहीं होती ? मुरली मनोहर जोशी का वाराणसी से टिकट काट कर पहले ख़ुद चुनाव लड़ा बाद में उन्हें भी मार्ग दर्शन मंडल का रास्ता दिखा दिया ? मार्गदर्शन मंडल के बारे में बताया गया कि 75 की आयु पार करने वालों को इसमें स्थान मिलेगा। परन्तु स्वयं 1950 में जन्मे मोदी भी आज 75 वर्ष की आयु पार कर चुके हैं। तो क्या 75 के नाम पर अपने अनेक वरिष्ठ नेताओं का ‘कैरियर चौपट’ करने वाले मोदी जी को स्वयं अपनी आयु 75 होने पर ‘मार्गदर्शक मंडल’ का रास्ता नज़र नहीं आता ? केंद्र में 79 वर्षीय जीतन राम मांझी मंत्री बनाये जा सकते हैं। 83 वर्षीय आनंदीबेन पटेल व 81 वर्षीय आचार्य देवव्रत राज्यपाल बनाये जा सकते हैं परन्तु सुब्रमण्यम स्वामी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, अरुण शौरी जैसे नेताओं के कैरियर की कोई फ़िक्र नहीं ? ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं जो यह दर्शाते हैं कि मोदी को अपने राजनैतिक कैरियर के सिवा किसी और के राजनैतिक कैरियर की कोई फ़िक्र नहीं होती।

                         लंबे समय तक भाजपा में रहने वाले शत्रुघ्न सिन्हा ने ख़ुद कहा था कि भाजपा में अब “लोकतंत्र” नहीं, “तानाशाही” है। पूर्व केंद्रीय मंत्री आर के सिंह को बिहार चुनाव परिणाम आते ही इसलिये पार्टी से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने न केवल पार्टी के अपराधी नेताओं को पार्टी प्रत्याशी बनाने पर सवाल खड़ा किया था बल्कि अडानी पावर व नीतीश सरकार के बीच हुये कथित 62,000 करोड़ रुपये के बिजली घोटाले का भी ख़ुलासा किया था और इस घोटाले की जांच की मांग की थी। इसलिये कांग्रेस या विपक्षी सांसदों के कैरियर को लेकर चिंतित होना दरअसल उनके कैरियर की चिंता करना नहीं बल्कि अपनी इन कथित चिंताओं का प्रदर्शन कर कांग्रेस व विपक्ष को कमज़ोर करने की कोशिश मात्र है। कुछ ऐसी ही कोशिशें इन दिनों लालू यादव के परिवार में पड़ी पारिवारिक फूट को लेकर देखी जा रही हैं। यहाँ भी लालू -तेजस्वी का विरोध करने वाले परिवार के सदस्यों को हवा देने की ख़बरें आ रही हैं।

                            दरअसल मोदी इस दावे से यह भी जताना चाहते हैं कि विपक्ष के कोटे का पूरा समय राहुल गाँधी ही ले लेते हैं। तो देश यह भी देखता है कि विपक्षी सांसदों को संसद में कितना बोलने दिया जाता है और उनके बोलने पर सत्ता पक्ष कितना व्यवधान पैदा करता है। हाँ राहुल का बोलना इसलिये ज़रूर खटकता होगा क्योंकि इस समय देश के वही अकेले ऐसे नेता हैं जो साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार,अडानी- अंबानी ,नोटबंदी,जी एस टी,चुनाव धांधली, सरकारी संस्थानों पर सत्ता के शिकंजे,किसानों व जातीय जनगणना,एस आई आर जैसे ज्वलंत मुद्दों पर खुलकर बोलते हैं जो सत्ता से हज़म नहीं होता। और राहुल,कांग्रेस व सम्पूर्ण विपक्ष को कमज़ोर करने की ही ग़रज़ से अब एक और दांव चलते हुये देश के 272 पूर्व अधिकारियों जिनमें 16 पूर्व न्यायाधीश,133 पूर्व सैन्य अधिकारी व 14 पूर्व राजदूत सहित 123 पूर्व नौकरशाहों से विपक्ष के नेता राहुल गांधी के विरुद्ध एक खुला पत्र जारी कराया गया है जिसमें राहुल द्वारा चुनाव आयोग पर लगाए गए “वोट चोरी” के आरोपों और संवैधानिक संस्थाओं पर कथित तौर पर बिना सबूत के हमलों की आलोचना की गयी है। परन्तु कांग्रेस ने तो इन 272 “प्रतिष्ठित ” राहुल विरोधियों में से अनेक की सेवा कुंडली ही उधेड़ कर बता दिया कि इस सूची में कितने भ्रष्ट व अनैतिक आचरण के “प्रतिष्ठित ” अधिकारी शामिल हैं। लिहाज़ा विपक्षी सांसदों के कैरियर की चिंता व राहुल गाँधी पर हमले जैसे प्रयास दरअसल ‘विपक्ष मुक्त लोकतंत्र’ के दुष्प्रयास हैं जो भाजपा के 2013 से शुरू हुये ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ मिशन से लेकर अभी तक जारी हैं। सही मायने में लोकतंत्र के लिये सबसे बड़ा ख़तरा राहुल गाँधी नहीं बल्कि सत्ता के ‘विपक्ष मुक्त लोकतंत्र’ के दुष्प्रयास ही हैं। 

    तनवीर जाफ़री 

वरिष्ठ पत्रकार 

अब नेता बदले बिना इंडी गठबंधन नही चलेगा

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एक बात पक्की है कि इंडी गठबंधन को बनाए रखना है तो गठबंधन का नेता बदलना पड़ेगा । खड़गे या राहुल गांधी से तो अब सहयोगी दलों ने ही मुंह मोड़ लिया है । शिवसेना उद्धव के प्रवक्ता आनंद दुबे और प्रियंका चतुर्वेदी ने कल साफ साफ कह दिया कि दो – चार सीटें लेनी वाली कांग्रेस के साथ कोई तालमेल हो पाना मुश्किल है । शिवसेना उद्धव के प्रवक्ता आनंद दुबे आजकल टीवी पर ही राहुल गांधी की मिमिक्री करने लगे हैं । उधर बंगाल में टीएमसी लगातार मांग कर रही है कि इंडी अलायंस का नेता बदला जाए । यूँ भी ममता बंगाल में किसी घटक के साथ गठबंधन नहीं करतीं ।

यूपी से भी ऐसी मांगें उठ रही हैं और अखिलेश को नेता बनाने का सवाल उठाया जा रहा है । महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अबु आजमी ने कल ही साफ किया कि भविष्य में महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे । उत्तराखंड की हालत सबके सामने है जहां कांग्रेस के भीतर भारी राजनीति है । वहीं पार्टी मजबूत नेतृत्व के संकट से जूझ रही है । अब रही तमिलनाडु की बात जहां अगले साल चुनाव हैं वहां डीएमके की ही हालत बढ़िया नहीं , कांग्रेस की क्या कहें ।

एक बात बहुत खास है । वह है SIR का असर । यदि वैध अवैध रास्तों से बांग्लादेशी रोहिंग्या लगातार भाग रहे हैं तो SIR की इससे बड़ी उपलब्धि और क्या होगी ? ममता इसीलिए तो मचल रही हैं। उधर चारों ओर से निराश कांग्रेस अब अपनी आखिरी ऑक्सीजन दिल्ली में SIR के खिलाफ बड़े प्रदर्शन के माध्यम से लेना चाहती है । आपको शायद पता न हो कि असम में ऐसा पहले ही हो चुका है , अभी भी चल रहा है । रही बात दक्षिण की तो दक्षिण भारत में रोहिंग्या नहीं हैं , बांग्लादेशी जरूर हैं ।

वहां SIR का इतना असर नहीं होगा । वैसे जहां भी होता है , हो जाए । 1971 के युद्ध से पहले 1 करोड़ से अधिक शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से आए थे । धीरे धीरे लाखों आते रहे जिन्हें कांग्रेस उत्तर भारतीय राज्यों में बसाती रही , वोटबैंक बनाती रही । बंगाल और असम को छोड़िए सुदूर कश्मीर में फारूख अब्दुल्ला और कांग्रेस ने इन्हें बसाया , वोटबैंक बनाया । तभी तो बदली देश की डेमोग्राफी ? SIR के डर से अब कांग्रेस , ममता , लालू , अखिलेश , केजरीवाल का वोटबैंक भाग रहा है तो तकलीफ़ हो रही है , होगी ही ?

देश में SIR इससे पहले भी 9 बार हो चुकी है । कभी ऐसा हल्ला नहीं मचाया कांग्रेस ने जो आज कपड़े फाड़ रही है । बांग्लादेशी तो इंदिरा गांधी के राज में ही आए । वोटबैंक बढ़ाने का काम भी कांग्रेस ने उन्हें वोटर बनाकर शुरू किया । तो क्या तब कांग्रेस के निर्देश पर चुनाव आयोग ने वोट चोरी की थी जो बांग्लादेशियों को बाहर नहीं भेजा ? ऐसा ही हुआ होगा शायद ? तभी तो कांग्रेस SIR से बुरी तरह कांप रही है । खैर , अब तो इंडी वाले चोर चोर चिल्लाने का असर बिहार में देख चुके हैं । आगे कहां कहां देखेंगे आने वाले दिनों में पता चल जाएगा ।

,,,,,,कौशल सिखौला

मौलाना सैफ़ अब्बास नक़वी ने एक अहम अपील

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शिया चाँद कमेटी लखनऊ के अध्यक्ष मौलाना सैफ़ अब्बास नक़वी ने एक अहम अपील जारी करते हुए कहा है कि “सभी लोग SIR (समग्र निर्वाचन पंजीकरण) की आवेदन-पत्रिकाएँ बिल्कुल सही तरीक़े से भरकर जल्द से जल्द अपने-अपने BLO को जमा करें।”

मौलाना ने कहा कि SIR फ़ॉर्म भरना हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है, क्योंकि सही और अद्यतन मतदाता सूची न केवल चुनावी प्रक्रिया को मज़बूत बनाती है, बल्कि हर व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा भी करती है। उन्होंने बताया कि अक्सर छोटी-छोटी त्रुटियों या देरी की वजह से लोगों के नाम वोटर लिस्ट से छूट जाते हैं, इसलिए सभी लोग समय रहते फ़ॉर्म भरकर जमा करने में ढिलाई न करें।

उन्होंने यह भी कहा कि SIR प्रक्रिया चुनौतियों को कम करती है, डेटा की शुद्धता सुनिश्चित करती है और पारदर्शिता बढ़ाती है। हर पात्र व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी जानकारी सही-सही दर्ज करे ताकि भविष्य में किसी भी प्रकार की दिक़्क़त का सामना न करना पड़े।

अंत में मौलाना सैफ़ अब्बास नक़वी ने पुनः अपील की कि “इस कार्य को हल्के में न लें। यह बहुत ज़रूरी है कि हर इंसान SIR फ़ॉर्म भरकर जल्द से जल्द BLO तक पहुँचा दे। यही हमारी नागरिक कामूल कर्तव्य है।

यूपी में अवैध घुसपैठियों के लिए बनेंगे अस्थायी डिटेंशन सेंटर

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मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को अवैध घुसपैठ पर त्वरित और सख्त कार्रवाई के स्पष्ट और सख्न्त निर्देश जारी किए हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश की कानून व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक समरसता सर्वोच्च प्राथमिकता है और किसी भी प्रकार की अवैध गतिविधि को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

मुख्यमंत्री ने निर्देश दिए हैं कि प्रत्येक जिला प्रशासन अपने क्षेत्र में रहने वाले अवैध घुसपैठियों की पहचान सुनिश्चित कर नियमानुसार कार्रवाई शुरू करे। मुख्यमंत्री ने यह भी निर्देश दिया है कि घुसपैठियों को रखने के लिए प्रत्येक जनपद में अस्थायी डिटेंशन सेंटर बनाए जाएं।

इन केंद्रों में विदेशी नागरिकता के अवैध व्यक्तियों को रखा जाएगा । आवश्यक सत्यापन की प्रक्रिया पूरी होने तक वहीं आवास सुनिश्चित किया जाएगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि डिटेंशन सेंटर में रखे गए अवैध घुसपैठियों को तय प्रक्रिया के तहत उनके मूल देश भेजा जाएगा।