सऊदी–पाक रक्षा समझौता: भारत की सुरक्षा और कूटनीति पर मंडराता खतरा

Date:

सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच सितंबर 2025 का रक्षा समझौता भारत के लिए केवल एक पड़ोसी की सैन्य मज़बूती का संकेत नहीं है, बल्कि उसकी कूटनीतिक और ऊर्जा सुरक्षा पर भी गहरा असर डाल सकता है। चीन–पाक–सऊदी धुरी का उभरना, सऊदी निवेश का संभावित विचलन, पाकिस्तान की सैन्य क्षमताओं में वृद्धि और परमाणु सहयोग की आशंका—ये सभी मिलकर भारत की “पश्चिम की ओर सक्रियता” नीति को चुनौती देते हैं। ऐसे समय में भारत को खाड़ी देशों के साथ संबंध और मज़बूत करने, ऊर्जा स्रोतों का विविधीकरण करने और प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय रणनीति अपनानी होगी।

— डॉ प्रियंका सौरभ

सितंबर 2025 में सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ सामरिक पारस्परिक रक्षा समझौता केवल दो देशों का द्विपक्षीय करार नहीं है, बल्कि यह बदलते वैश्विक समीकरणों और खाड़ी की असुरक्षाओं का प्रतीक है। जब दोहा में हमास के कार्यालय पर इज़राइली हमला हुआ और अमेरिका सुरक्षा की गारंटी देने में कमजोर दिखाई दिया, तब खाड़ी देशों के भीतर यह सवाल गहराने लगा कि उनकी सुरक्षा आखिर किस पर टिकेगी। सऊदी अरब ने इस असुरक्षा की घड़ी में पाकिस्तान को सहयोगी चुना, और पाकिस्तान ने अपनी कमजोर होती अर्थव्यवस्था के सहारे के लिए इस मौके का स्वागत किया।

सऊदी–पाक रिश्ते वैसे भी नए नहीं हैं। 1951 से ही दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग मौजूद रहा है और 1979–89 के दौरान तो 20,000 पाकिस्तानी सैनिक सऊदी धरती पर तैनात थे, जिन्होंने पवित्र हरमों की रक्षा की और ईरान तथा यमन से आने वाले खतरों का सामना किया। उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने आज की स्थिति को सहज बना दिया। लेकिन मौजूदा समझौते की पृष्ठभूमि में कई नई परिस्थितियाँ हैं। अमेरिका की विश्वसनीयता पर संदेह, ईरान का लगातार बढ़ता खतरा, हूती विद्रोहियों और हिज़बुल्लाह जैसे प्रॉक्सी संगठनों की गतिविधियाँ और पाकिस्तान की डगमगाती अर्थव्यवस्था, सभी मिलकर इस करार को आवश्यक बना रहे थे।

यह समझौता केवल रक्षा सहयोग तक सीमित नहीं है। इसमें पारस्परिक सुरक्षा गारंटी, आतंकवाद-निरोध सहयोग, खुफिया साझेदारी, संयुक्त सैन्य प्रशिक्षण और आर्थिक–ऊर्जा सहयोग जैसे तत्व शामिल हैं। इससे सऊदी अरब को यह भरोसा मिलता है कि किसी भी खतरे की स्थिति में पाकिस्तान साथ खड़ा रहेगा, और पाकिस्तान को यह आश्वासन मिलता है कि उसे तेल, निवेश और कूटनीतिक सहारा मिलेगा। लेकिन यही वह बिंदु है जहाँ से भारत के लिए चिंता शुरू होती है।

भारत ने पिछले दशक में खाड़ी देशों, विशेषकर सऊदी अरब और यूएई, के साथ रिश्तों को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया था। निवेश, ऊर्जा सहयोग और प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा के लिहाज़ से भारत ने महत्वपूर्ण कूटनीतिक उपलब्धियाँ हासिल की थीं। किंतु पाकिस्तान की इस वापसी ने उस निवेश और सहयोग को चुनौती देने की स्थिति बना दी है। भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता यह है कि पाकिस्तान, सऊदी रक्षा नीति पर प्रभाव डालकर भारत के खाड़ी हितों को कमजोर कर सकता है। इससे भी अधिक गंभीर यह संभावना है कि चीन, जो पहले से ही पाकिस्तान का रणनीतिक साझेदार है, इस धुरी के माध्यम से खाड़ी क्षेत्र तक अपना प्रभाव फैला ले। यह भारत की “Act West” नीति के लिए सीधी चुनौती होगी।

सऊदी अरब ने भारत में 100 अरब डॉलर निवेश की प्रतिबद्धता जताई थी, लेकिन पाकिस्तान की जरूरतें इस निवेश को विचलित कर सकती हैं। आर्थिक दृष्टि से यह भारत की विकास योजनाओं पर असर डालेगा। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान का परमाणु दर्जा इस समझौते को और संवेदनशील बनाता है। सऊदी अरब पहले भी परमाणु तकनीक हासिल करने की महत्वाकांक्षा जता चुका है। यदि इस समझौते के माध्यम से उसे पाकिस्तान से किसी प्रकार की अप्रत्यक्ष मदद मिलती है, तो यह भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती होगी।

भारत के लिए एक और चिंता यह है कि पाकिस्तान को इस करार से उन्नत सैन्य उपकरण और प्रशिक्षण तक पहुँच मिलेगी। सऊदी और अमेरिकी सहयोग से उसकी सैन्य क्षमता और मजबूत होगी, जिसका सीधा असर भारत–पाक शक्ति संतुलन पर पड़ेगा। इसके साथ ही सऊदी अरब की वित्तीय मदद पाकिस्तान की कमजोर अर्थव्यवस्था को सहारा देगी, जिससे उसकी भारत-विरोधी नीति को स्थायित्व मिलेगा। इस्लामाबाद इस अवसर का उपयोग अपने सैन्य ढाँचे को मज़बूत करने और भारत विरोधी गतिविधियों के लिए कर सकता है।

यदि पाकिस्तान ईरान या यमन जैसे संघर्षों में गहराई से शामिल होता है, तो उसका प्रभाव दक्षिण एशिया तक महसूस किया जा सकता है। यह न केवल सामरिक अस्थिरता बढ़ाएगा बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा देगा। भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर भी यह समझौता दबाव डाल सकता है। खाड़ी से भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं का बड़ा हिस्सा पूरा होता है। यदि पाकिस्तान, सऊदी नीतियों को प्रभावित करने में सक्षम हो जाता है, तो भारत की आपूर्ति शृंखला और कीमतों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।

इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी रणनीति को और सक्रिय बनाए। भारत को खाड़ी देशों के साथ अपने संवाद और गहरे करने होंगे और यह सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान की भूमिका भारत की उपलब्धियों को कमजोर न कर सके। ऊर्जा सुरक्षा के मोर्चे पर भारत को विविधीकरण करना होगा, रूस, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे विकल्पों पर ध्यान देना होगा। हिंद महासागर और खाड़ी क्षेत्र में नौसैनिक उपस्थिति मज़बूत करके भारत को अपने हितों की रक्षा करनी होगी। अमेरिका और इज़राइल जैसे साझेदारों के साथ रक्षा सहयोग को नए स्तर पर ले जाना भी समय की माँग है।

सबसे अहम यह है कि भारत खाड़ी में बसे 80 लाख से अधिक प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विशेष तंत्र विकसित करे। क्योंकि किसी भी संघर्ष या अस्थिरता का पहला असर वहीं महसूस होगा।

अंततः, सऊदी–पाकिस्तान रक्षा समझौता एक ऐसे समय में हुआ है जब वैश्विक व्यवस्था बदल रही है। यह समझौता पाकिस्तान के लिए राहत और सऊदी अरब के लिए सुरक्षा का प्रतीक हो सकता है, लेकिन भारत के लिए यह बहुआयामी चुनौती है। ऊर्जा, कूटनीति, सुरक्षा और क्षेत्रीय प्रभाव—सभी स्तरों पर यह भारत को नई रणनीति अपनाने के लिए मजबूर करता है। इसे केवल एक द्विपक्षीय समझौता मानकर नज़रअंदाज़ करना खतरनाक होगा। भारत को इसे व्यापक भू-राजनीतिक पटल पर देखना होगा और अपने हितों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।–

-प्रियंका सौरभ 

स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Share post:

Subscribe

spot_imgspot_img

Popular

More like this
Related

हरियाणा के एडीजीपी वाई. पूरन की आत्महत्या , हमारी सामूहिक असफलता

“एक वर्दी का मौन: (पद और प्रतिष्ठा के पीछे...

मुंशी प्रेमचंद की कलम ने अन्याय और नाइंसाफी के खिलाफ बुलंद की आवाज

( बाल मुकुन्द ओझा आज उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की पुण्य...

बढ़ती छात्र आत्महत्याएँ: कानून हैं, लेकिन संवेदना कहाँ है?

भारत में बढ़ती छात्र आत्महत्याएँ एक गहरी सामाजिक और...

महर्षि वाल्मीकि: शिक्षा, साधना और समाज का सच

(गुरु का कार्य शिक्षा देना है, किंतु उस शिक्षा...
en_USEnglish