संघ, गांधी और लद्दाख के सोनम वांगचुक

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अरुण कुमार त्रिपाठी
ऐसा कम होता है लेकिन इस साल हो रहा है। इस साल ‘पूर्णमासी के दिन सूर्यग्रहण’ लग रहा है। महात्मा गांधी की जयंती यानी दो अक्तूबर को ही दशहरा पड़ रहा है और उसी दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सौ साल पूरे हो रहे हैं। यह भी गजब संयोग देखिए कि उससे हफ्ते भर पहले गांधीवादी तरीके से लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और उस क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में डालने की मांग कर रहे न्यू लद्दाख मूवमेंट के नेता सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। अब भाजपा की आईटी सेल समेत तमाम हिंदुत्ववादी उन्हें देशद्रोही सिद्ध करने में लग गए हैं। बांग्लादेश के मुख्य प्रशासनिक सलाहकार मोहम्मद युनूस के साथ उनकी फोटो और पाकिस्तान के अखबार डॉन के कार्यक्रम में उनकी भागीदारी की पोस्ट के माध्यम से यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है कि उनकी देशभक्ति संदिग्ध है। कहा जा रहा है कि उन्होंने ‘जेन जी’ यानी युवा पीढ़ी को हिंसा के लिए भड़काया है।
दो अक्तूबर को दशहरा और संघ का शताब्दी वर्ष पड़ने के कारण गांधी जयंती पर होने वाले तमाम कार्यक्रम रद्द हो गए हैं। कुछ गांधीजन इसे इसे सांप्रदायिकता विरोधी दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं लेकिन देखना है वे कैसे मनाते हैं। यह भी जानना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उस दिन महात्मा गांधी को किस तरह से याद करता है। हिंदुत्ववादियों की ट्रॉल ब्रिगेड उन्हें अपनी हिंसा का कितना निशाना बनाती है। लेकिन इन संयोगों के आसपास होने वाले विचार विमर्श यह साबित करते हैं कि गांधी विचार से प्रेरित नागरिकों और संगठनों के सामने सावरकर के विचारों से प्रेरित संगठनों से टकराव अवश्यंभावी है। उनके मध्य समन्वय का कोई बीच का रास्ता बनता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। सावरकर का विचार बहुसंख्यकवादी एकचालानुवर्ती संगठन और उसके माध्यम से कायम होने वाली राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तानाशाही की ओर जाता है। जबकि गांधी का विचार लोकतंत्र, विकेंद्रीकरण, मानवाधिकार और पर्यावरण रक्षा की ओर जाता है।
सावरकर और उनसे प्रेरित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विचार वास्तव में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उस उस युरोपीय राष्ट्रनिर्माण और औद्योगिक विकास की नकल है जो संसार को विनाशकारी महायुद्ध की ओर ले जाता है। आज वह विचार अमेरिका और उसके उद्दंड बालक इजराइल के तौर पर नए सिरे से जोर मार रहा है। पूरे भारत को मुट्ठी में कैद कर लेने वाले संगठन संघ का विचार भी उसी का सहोदर है। यह राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक ध्रुवीकरण, सरकारी दमन और आज्ञाकारी समाज निर्माण और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियार जमा करके पड़ोसियों से युद्ध की ओर जाता है। राष्ट्रीय गौरव की पुनर्स्थापना, धर्म की रक्षा वगैरह इसकी रणनीतियां हैं। यह विचार भावनाओं पर इस कदर आधारित है कि इसे विचार कहना भी बेइमानी लगता है। अगर इसके रेशे रेशे पर चर्चा करें तो इसमें झूठ और धोखाधड़ी का इतना बड़ा तत्व निकलेगा कि यहां उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है। वास्तव में यह कोई विचार नहीं बल्कि विचारहीनता का कोहरा है।
दूसरी ओर महात्मा गांधी के चिंतन और कर्म से निकला उनका विचार है जो दुनिया के भविष्य के लिए अनिवार्य है। उसमें भावना और उत्तेजना के बजाय मानवीय संवेदना है। उसकी तर्कपद्धति ऊपरी तौर पर भले ही बासी लगे लेकिन उसे हर समय और परिस्थिति में रखकर देखिए तो उसमें ताजगी का सुवासित गहरा झोंका उठता हुआ दिखाई देगा। उसमें घृणा और आशंका नहीं अभय और प्रेम है। यह महज संयोग नहीं है कि बीसवीं सदी के पहले दशक में लंदन में गांधी और सावरकर की मुलाकात दशहरे के मौके पर हुई थी और दोनों ने उस पर्व की अपने अपने ढंग से व्याख्या की थी। सावरकर के लिए वह पर्व हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देने वाला था, जबकि गांधी के लिए अहिंसा के माध्यम से असत्य और बुराई के विरुद्ध बाहरी और भीतरी अहिंसक संघर्ष की प्रेरणा।
गांधी और सावरकर के विचारों का यह संघर्ष तब से आज तक जारी है। वह सारे संसार को झकझोर देने वाली गांधी हत्या और सावरकर की गुमनाम मृत्यु से समाप्त नहीं हुआ। बल्कि अगर हम मशहूर साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति को पढ़ें तो लगता है कि वह आगे भी जारी रहने वाला है। उन्होंने 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्तारूढ़ होने से पहले अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका ‘हिंदुत्व या हिंद स्वराज’(मूलतः कन्नड़) के माध्यम से इस बात को रेखांकित किया था। उनका कहना था कि सावरकर के हिंदुत्व का विचार औद्योगिक और सैन्य शक्ति पर आधारित केंद्रीकरण का फासीवादी विचार है। इस विचार में पर्यावरण और कमजोर समाजों का विनाश अंतर्निहित है। जबकि गांधी का विचार सत्य, मानव स्वतंत्रता और पर्यावरण की रक्षा पर आधारित विकेंद्रीकरण का एक हिंसा विरोधी विचार है।
लद्दाख के सोनम बांगचुक और केंद्र सरकार के बीच हुआ टकराव दरअसल इन विचारों का टकराव है। यह विकास के दो मॉडल का टकराव है। एक मॉडल चाहता है कि लद्दाख का समाज दिल्ली से नियंत्रित हो और वहां के लोगों के नागरिक अधिकार और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार भी सीमित हों। वहां बड़ी आर्थिक शक्तियों को खनिजों और अक्षय ऊर्जा के दोहन का असीमित अधिकार हो। लद्दाख के नागरिकों को निरंतर संदेह की नजर से देखा जाए और आर्थिक और सैन्य शक्तियों पर सदैव भरोसा किया जाए। दूसरी और नव लद्दाख आंदोलन का विचार यह है कि वहां के लोगों को अपने विकास का रास्ता तय करने और उसे अपने ढंग से संचालित करने का अधिकार हो। वहां की धरती और पर्यावरण को लद्दाख के स्थानीय विवेक के लिहाज से संचालित और व्यवस्थित किया जाए। इसीलिए वे लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने और उसे पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह से छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग भी कर रहे हैं। लद्दाख के लोगों का मानना है कि अपने क्षेत्र के विकास और उसकी रणनीतिक स्थिति के बारे में उनका ज्ञान किसी और इलाके या दिल्ली के लोगों के ज्ञान से बेहतर है। जबकि दिल्ली मानती है कि असली देशभक्ति और राष्ट्रीय हित को वे ही समझते हैं जिनके हाथों में सैन्य शक्ति है और उत्पादन के बड़े साधन हैं।
सोनम बांगचुक लद्दाख के गांधी कहे जाते हैं। हालांकि वे इस तरह के विशेषण को स्वीकार करने से इंकार करते हैं। पर उनके चरित्र की एक झलक राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में रैंचो यानी फुंसुक बांगड़ू के रूप में देखी जा सकती है। वह बालक जिसने किसी तरह अपने संकटपूर्ण बचपन से निकलकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिर समाज के साथ मिलकर इतने नवोन्मेष किए कि उसके नाम पर तमाम पेटेंट बने। उसने विज्ञान को मुनाफे का धंधा बनाने के बजाय उसे समाज और अपने पर्यावरण के लिए उपयोगी बनाया है। उसने सौर ऊर्जा से सैनिकों के रहने के लिए गर्म टेंट बनाए, पानी की कमी दूर करने के लिए बर्फ के स्तूप का निर्माण किया और गांधी की बुनियादी तालीम के दर्शन को जमीन पर उतारने के लिए पहले स्टूडेंट्स इजूकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट आफ लद्दाख और फिर हिमालयन इंस्टीट्यूट फार आल्टरनेटिव लद्दाख जैसे संस्थान बनाए। वांगचुक एक नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा है। जिसे बर्दाश्त करना विकास के केंद्रीकृत और क्रूर मॉडल के लिए संभव नहीं है। इसीलिए कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक रहे और सरकार से प्रशंसा प्राप्त कर चुके वांगचुक आज देशद्रोही बनाए जा रहे हैं। यह स्वदेशी के मोदी विचार का शीर्षासन नहीं तो और क्या है?
वास्तव में वांगचुक का विचार डॉ राम मनोहर लोहिया के हिमालय बचाओ विचार का ही विस्तार और जमीनी प्रयोग है। उसमें भारतीय भूभाग की रक्षा के साथ ही हिमालय जैसी विलक्षण पारिस्थितिकी की रक्षा का प्रयास भी है। पर मुश्किल है कि सत्ता के अहंकार और खोखले राष्ट्रवाद में मदमस्त लोगों को न तो हिमालय समझ में आता है और न ही उसकी पारिस्थितिकी का महत्त्व। उनके लिए मध्य भारत का दंडाकारण्य बड़ी कंपनियों के खनन का मैदान है तो हिमालय एक बड़ी सैन्य छावनी। अब तो हिमालय एक विशाल खनन क्षेत्र के तौर पर भी उभर रहा है। लद्दाख इसीलिए त्रस्त है। सरकार यह भूल रही है कि हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पर्वतीय प्रदेश और पंजाब जैसे मैदानी इलाकों में इस साल जो भयंकर बाढ़ आई है उसकी वजहें विनाशकारी विकास की योजनाएं और राष्ट्रवादी हस्तक्षेप हैं।
वांगचुक को न समझने वाले मानव सभ्यता के इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं हैं। सिंधु घाटी से लेकर तमाम सभ्यताएं पर्यावरणीय विनाश का शिकार रही हैं। वहां युद्धों के उतने प्रमाण नहीं हैं जितने पर्यावरण को न समझने के। गांधी पर आज भले ग्रहण लग रहा हो और वांगचुक आज भले जेल में डाले जा रहे हों लेकिन सभ्यता के भावी पथ प्रदर्शक तो वे ही हैं।

अरुण कुमार त्रिपाठी

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