नीला हाथी जागा, मगर क्या चलेगा भी?

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कभी वो दिन थे जब बहन मायावती का नाम लेते ही बड़े-बड़े नेता थर्रा जाते थे। बसपा की गूंज दिल्ली से लेकर दक्षिण तक सुनाई देती थी। यूपी की राजनीति में तो हालत ये थी कि मायावती का नाम ही जीत की गारंटी माना जाता था, लेकिन वक्त बदलता है साहब… और वक्त ने बसपा का रथ रोक दिया। जो पार्टी कभी सत्ता में थी वो अब सियासत के किनारे लग गई है, लेकिन पिछले गुरुवार को लखनऊ में हुई बहनजी की रैली ने जैसे सियासी हवा ही बदल दी। जिस भीड़ का अंदाज़ा किसी को नहीं था वो उमड़ पड़ी। लोग जोश में मायावती ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे थे। देखने वालों ने भी कहा कि अभी बहनजी बाकी हैं। मायावती ने मंच से साफ कहा कि बसपा 2027 का चुनाव अकेले लड़ेगी। यह बात पुराने दिनों की याद दिला गई जब बहनजी गठबंधन की बजाय खुद के बूते मैदान में उतरती थीं। उनके तेवर देखकर लग रहा था कि वो अब चुप बैठने वालों में नहीं हैं। दलित वोट जो बसपा की रीढ़ रहे हैं। अब अलग-अलग दलों में बिखर गए हैं। कोई सपा में, कोई कांग्रेस में, तो कुछ भाजपा के पाले में चले गये, लेकिन लखनऊ की रैली ने ये ज़रूर जताया कि सब बसपा से पूरी तरह कटे नहीं हैं। हां अब चुनौती बड़ी है कि संगठन कमजोर है। पुराने नेता किनारे हो गए हैं और सोशल मीडिया पर बसपा पिछड़ती दिखती है। सच कहें तो आज की राजनीति में सिर्फ भीड़ नहीं, बल्कि संगठन और रणनीति दोनों ज़रूरी हैं। भाजपा, सपा और कांग्रेस ये बात समझ चुके हैं पर बसपा को अब इसे फिर से समझना होगा‌। दूसरी तरफ़ मुस्लिम वोट भी अब किसी एक खेमे में नहीं हैं। सपा और कांग्रेस उन्हें साधने में लगी हैं। ऐसे में मायावती को उन्हें भरोसा दिलाना होगा कि बसपा ही भाजपा को रोक सकती है। दलितों को भावनात्मक रूप से जोड़ना और मुसलमानों को विश्वास दिलाना कि यही दो काम अगर बहनजी कर पाई तो कहानी फिर पलट सकती है। पर अब एक नया खिलाड़ी मैदान में उतर चुका है और वो है एडवोकेट चन्द्रशेखर आजाद। नगीना से उन्होंने पहली बार में ही जीत दर्ज करके सबको चौका दिया था। कई दलों ने उन्हें हल्के में लिया, लेकिन नतीजा सबके सामने है। राजनीति भी कभी-कभी क्रिकेट जैसी होती है कि जिस तरह भारत कभी कमजोर क्रिकेट टीम बांग्लादेश से हार गया था वैसे ही जो लोग आजाद समाज पार्टी को कमज़ोर समझ रहे हैं वो आने वाले वक्त में पछता सकते हैं। फिलहाल लखनऊ की रैली ने बसपा में फिर से हलचल तो पैदा कर दी है पर ये बस शुरुआत है। अगर मायावती अब सोशल मीडिया पर एक्टिव हो। युवाओं को टिकट दें। स्थानीय मुद्दों पर बोलें और पार्टी संगठन को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत करें तो हो सकता है नीला हाथी एक बार फिर मैदान में गरजे। वरना ये रैली बस एक पुरानी याद बनकर रह जाएगी‌। जब लोगों ने बहनजी को फिर से सुना, मगर वोट किसी और को दे दिया।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

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