तुलसी गौड़ा: मौन की महत्ता और जंगल की आत्मा

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– डॉ. प्रियंका सौरभ

आज जिस दुनिया में हर उपलब्धि को फ़्लैश लाइट, कैमरा और सोशल मीडिया की चमक से मापा जाता है, वहाँ एक वास्तविक नायक का जनम होना और जीवनभर जीना—यह किसी लोककथा से कम नहीं है। तुलसी गौड़ा—वह नाम जिसे धरती ने सींचा, जंगल ने अपनाया और हवा में हर पत्ती के स्वरूप में जीवन का संदेश छोड़ा। वे केवल एक पर्यावरण-सेवी नहीं थीं, बल्कि जंगल की आत्मा हैं—जिसे हम देखते नहीं, पर उसकी साँस महसूस करते हैं।

तुलसी गौड़ा का जन्म कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के अंकला तालुक के होनाली गाँव में हुआ था, जो आज भी अपनी प्राकृतिक हरियाली के लिए जाना जाता है। वे हलाक्की आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखती थीं, एक समाज जो सदियों से प्रकृति के साथ अपने गहरे रिश्ते को अनुभव और परंपरा के रूप में संजोए हुए है। गरीबी, असमर्थता और सामाजिक सीमाओं के बीच उनका जीवन शुरुआत से ही कठिन रहा। उनके पिता का देहांत तब हो गया था जब वे केवल दो वर्ष की थीं, और उनकी माँ के साथ बचपन से ही उन्हें जंगल की गोद में ही मेहनत करनी पड़ी—किसी औपचारिक शिक्षा का अवसर प्राप्त नहीं हो सका और पाठ्यपुस्तकों का ज्ञान तो वे कभी सीख ही नहीं पाईं। यही अपरंपरिक पृष्ठभूमि उन्हें प्रकृति की अपार समझ और वनस्पतियों के विस्तृत ज्ञान की ओर ले गई। 

तुलसी गौड़ा ने जीवन भर जंगल के साथ संवाद किया—कठोर शब्दों में नहीं, बल्कि तमीज़, संवेदना और अनुभव की भाषा में। बचपन से ही जंगल को वह घर के रूप में समझती थीं, पेड़ों को परिवार के सदस्यों की भाँति मानती थीं और मिट्टी की खुशबू को अपनी साँस मानती थीं। उन्होंने लगभग 30,000 से अधिक पौधे स्वयं लगाए और उनकी देखभाल की, तथा कई वृक्षों और पौधों के विकास की ऐसी सूक्ष्म बातें जान लीं, जिन्हें पारंपरिक विज्ञान भी सहजता से व्यक्त नहीं कर पाता। इसी वजह से उन्हें पर्यावरण और वनस्पति के क्षेत्र में ‘Forest Encyclopedia’, यानी जंगल का विश्वकोश कहा गया। 

उनके जीवन में कर्तव्य कोई विकल्प नहीं था—बल्कि धर्म जैसा था। उन्होंने दशकों तक कर्नाटक के विभिन्न वन क्षेत्रों में पौधों की पोषण, जड़ों से पौधों के उद्धार, मिट्टी में जीववैज्ञानिक संतुलन, तथा पेड़ों को थमने और बढ़ने की विधियाँ अपने अनुभव से सीखी और सिखाईं। वे केवल पौधे नहीं लगाती थीं; वे जीवन के स्वरूप को पुनर्स्थापित करती थीं—हर एक पौधे में वह जीवन के कई रूप देखने में सक्षम थीं, इसलिए वन विभाग और स्थानीय समुदाय के लोग उन्हें ‘Vriksha Maata’ (पेड़ों की माता) के नाम से भी पुकारते थे। 

उनका यह ज्ञान केवल यांत्रिक वृक्षारोपण का परिणाम नहीं था। वह जंगल की भाषा, मिट्टी की गति, पत्तियों की गिरावट, बीज के अंकन और प्रकृति की अनंत जुड़ाव की भाषा को समझकर आया था। वे मां के दूध की तरह पेड़ों के पोषण को महसूस कर सकती थीं, न कि केवल तकनीक से पढ़ सकती थीं। यही उन सबका सबसे बड़ा योगदान था—उन्होंने हमें यह सिखाया कि प्रकृति को जीना किसी पढ़ाई की किताब से नहीं, बल्कि अनुभव की स्याही से सीखा जाता है।

उनका जीवन उसी भावार्थ में आगे बढ़ा—बिना गम के, बिना घोषणा के, बिना किसी शो-ऑफ की चाह के। वे जंगल विभाग की एक अस्थायी स्वयंसेवक के रूप में अपनी सेवाएँ देने लगीं, जहाँ उन्हें पौधों के नर्सरी का काम सौंपी गई। उनकी लगन, ज्ञान और समर्पण ने उन्हें इतने वर्षों बाद स्थायी पद तक पहुँचा दिया, जहाँ उन्होंने करीब पैनतीस वर्षों तक मजदूरी कार्मिक के रूप में काम किया और उसके बाद पन्द्रह वर्ष के लिए स्थायी कर्मचारी के रूप में वन संरक्षण और हरियाली संवर्धन में कार्य किया। उन्होंने वन विभाग के प्रोजेक्टों को स्थानीय वन्यजीव संरक्षण, आग नियंत्रण और पौधों की प्रजातियों के संरक्षण का एक जीवंत नेटवर्क बनाया। 

उनके समर्पण और अनुभव के लिए उन्हें कई सम्मान मिले। वर्ष 2021 में भारतीय सरकार ने उन्हें ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया, जो देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है, पर्यावरण संरक्षण और वृक्षारोपण में उनके अतुलनीय योगदान के लिए। यह सम्मान राष्ट्रपति के हाथों दिया गया, जिससे वर्षों तक शांतिपूर्वक चल रहे उनके काम को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। इसके अलावा उन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार, कर्नाटक राज्योत्सव पुरस्कार और बाद में धरवाड़ कृषि विश्वविद्यालय द्वारा मानद डॉक्टरेट भी प्रदान किया गया—ये सभी सम्मान उनकी सेवा और ज्ञान की विश्वसनीयता को रेखांकित करते हैं। 

लेकिन तुलसी गौड़ा के लिए यह सभी पुरस्कार केवल गहरी सांसों के सहारे लगते थे। उन्होंने स्वयं कहा था कि वे जंगल और पेड़ों को ही अपना सबसे बड़ा सम्मान मानती हैं—उनके लिए हर नया अंकुर, हर हरियाली की पत्ती, धरती की हरी मुस्कान थी, जिसे पाना जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य था।

उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा पहलू यह भी था कि वे स्वयं कभी किसी दिखावे में नहीं आईं। पद्म श्री पाने के अवसर पर भी वे पारंपरिक स्थानीय परिधान और नग्न पाँव (बेरूफूट) में मैदान में पहुँचीं, यह दिखाते हुए कि वास्तविक सेवा किसी औपचारिक कपड़े, मंच या कैमरे की रोशनी की मोहताज नहीं होती। 

तुलसी गौड़ा का जीवन केवल प्रकृति-सेवा की कहानी नहीं है; यह मानवता की धरती के साथ पुनः जुड़ने की अप्रतिम कथा है। उन्होंने वह किया, जो अक्सर हमारी सभ्यता भूल जाती है—धरती को संबंध, सम्मान और पति–पत्नी के समान गहरा बन्धन देना। आज के समय जब लोग पर्यावरण संरक्षण को केवल दिखावे, पोस्टिंग और प्रतिष्ठा के रूप में देखते हैं, उनका सिर्फ ठहरना ही एक जीवंत प्रश्न बन जाता है—क्या हम वास्तव में प्रकृति को समझते हैं या केवल उसके फोटो में स्वयं को महान दिखाते हैं?

तुलसी गौड़ा ने जवाब मौन में दिया। उन्होंने न केवल बीज लगाए, बल्कि संस्कार बोए, न केवल पौधे उगाए, बल्कि समझ उपजी, न केवल धरती को हरा किया, बल्कि देश को जागृत किया। जब वे अपने गृह गांव होनाली में अपने घर पर 16 दिसंबर 2024 को 86 वर्ष की आयु में शांतिपूर्वक चल बसें, तब एक युग का अंत नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रेरणा का आरंभ हुआ—एक ऐसी प्रेरणा जो हम सभी के भीतर पर्यावरण के प्रति सम्मान की लौ को प्रज्वलित करने की क्षमता रखती है। 

आज जब विश्व जल-संकट, वायु प्रदूषण और वन विनाश की समस्याओं से घिरा है, तुलसी गौड़ा की याद हमें यह याद दिलाती है कि परिवर्तन केवल बड़े पहलुओं में नहीं, बल्कि व्यक्ति के प्रत्यक्ष, सकुशल और समर्पित कर्म में निहित है। उनके जीवन का संदेश यह है कि असली सेवा दिखावे से नहीं, चुपचाप, निरंतर और समर्पण-भर प्रयास से होती है।

उनकी कहानी यह भी दर्शाती है कि प्रकृति और मानव का संबंध केवल नया उद्यान लगाने का नहीं, बल्कि उसे समझने, जीने, बचाने और साझा करने का है। तुलसी गौड़ा ने वह सब किया जिसे हम सामाजिक उत्तरदायित्व कहकर भूल जाते हैं। वे केवल जंगल की विश्वकोश नहीं थीं—वे धरती की आत्मा थीं।

उनका जीवन हमें सिखाता है कि असली नायक वह नहीं जो कैमरे में चमकता है, बल्कि वह जो धरती में जीवन का प्रकाश बनाए रखता है। तुलसी गौड़ा को नमन—उनकी शांति, उनकी समझ और उनकी सेवा को याद रखकर ही हम एक स्थायी और हरित भविष्य की ओर कदम बढ़ा सकते हैं।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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