ढाक के तीन पात : भाषा, संस्कृति और प्रतीक का रहस्य

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डॉ मेनका त्रिपाठी

भाषा विज्ञान की दुनिया अनेक रहस्यो की परत खोलती है,ढाक के तीन पात का मुहावरा हम सबने सुना है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ढाक होता क्या है?

ढाक को पलाश और टेसू के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Butea monosperma है। संस्कृत और प्राचीन ग्रंथों में इसे किंशुक, रक्तपुष्पक, ब्रह्मवृक्ष, ब्राह्मणपोष, पर्णी, त्रिपत्रक, कठपुष्प, केसुदो और पलाशा जैसे विविध नामों से संबोधित किया गया है। यह नाम केवल भाषाई भिन्नता नहीं दर्शाते बल्कि इस वृक्ष के प्रति समाज और संस्कृति की गहरी आस्था को भी प्रकट करते हैं।

ढाक की सबसे विशिष्ट पहचान इसके तीन पत्ते हैं। प्रत्येक शाखा पर तीन पत्ते जुड़े रहते हैं। बेल पत्र भी तीन होते है लेकिन ढाक के तीन पत्तों के कारण से यह मुहावरे का आधार बना और पूरी कहावत मे कहा गया कि ढाक के तीन पात, चौथा लगे न पाँचवी की आस।

यह अभिव्यक्ति असंभवता और सीमाओं का प्रतीक बनकर लोकजीवन में रच-बस गई।

ढाक का स्थान केवल भाषा तक सीमित नहीं है। गाँवों और लोकसंस्कृति में ढाक के पत्तों का उपयोग पत्तल और दोना बनाने में होता रहा है। पकवानों और व्यंजनों जैसे चाट पकौड़ी इन्हीं पत्तों पर परोसे जाते थे। धार्मिक परंपराओं में भी इनका विशेष महत्व है। ये शुद्ध होते है सच मानिये स्वाद भी आता है अब तो लोग फैशन मे भी इन्हे प्रयोग मे ला रहे है

रामायण महाभारत में वर्णित चित्रणों और सीता-राम की जन्मकथाओं में ढाक के पत्तों का प्रयोग पूजा-अर्चना और फल अर्पण के लिए किया जाता था।

भाषाविज्ञान की दृष्टि से ढाक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के पलाश और किंशुक शब्दों से जुड़ती है। ध्वनि और प्रयोग के स्तर पर यह ढलकर लोकभाषा में ढाक बन गया। यह परिवर्तन दिखाता है कि किस प्रकार एक वृक्ष केवल प्राकृतिक इकाई न रहकर भाषा, साहित्य और संस्कृति का अंग बन जाता है।

संस्कृत साहित्य में किंशुक की शोभा का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। एक श्लोक में कहा गया है –

किंशुकः शोणपुष्पश्रीः पावकोऽग्निसमप्रभः।

यत्र यत्र स्थितो लोके तत्र तत्र शुभं भवेत्॥

अर्थ यह है कि किंशुक अपने लाल पुष्पों से अग्नि के समान दीप्तिमान दिखाई देता है और जहाँ भी होता है वहाँ शुभता का संचार करता है।

ढाक के तीन पात का मुहावरा इस प्रकार केवल एक कहावत भर नहीं, बल्कि भाषा, समाज और संस्कृति के बीच गहरे संबंध का प्रतीक है। यह इस तथ्य को उजागर करता है कि भारतीय लोकजीवन में वृक्ष और उनके पत्ते भी वाणी और अभिव्यक्ति का हिस्सा बन जाते हैं।

मेनका त्रिपाठी

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