अस्सी का दशक था। बाजार में सीटी बजाने वाला प्राणी आया। इसको नाम मिला कुकर। मोहल्ले में खबर हो गई… कुकर आ रहा है। पड़ोस की बहन बोली.. “बहन जी! क्या मंगवा रही हो? सुना है, आपके यहां कुकर आ रहा है?”
-जी बहन। लल्ला ला रहा है? सुना है, सब जल्दी पका देता है?
शुभ घड़ी आ गई। मुहूर्त बताने वाले तब पंडित नहीं थे। महिलाएं खुद बता देती थीं..कब क्या करना है। लल्ला बाजार गए। कुकर लाए। कुकर का ऐसे स्वागत हुआ जैसे कोई बच्चा आया हो। जिसको पता चला, वही देखने आने लगा। मिठाई मांगने लगा।
थोड़ी देर में साइकिल से कंपनी का बंदा आया। उसने समझाया। कितनी सीटी पर क्या पकेगा।
यह इसलिए जरूरी था ताकि आप सीटी न मारते रहो। चाय पीकर बंदा गया। अब कुकर की बारी थी।
पहली बार आया है। कुछ मीठा होना चाहिए। देखा। जीजी चावल बीन रहीं थी। कुकर के अति-शोभनीय देह पुंज पर संस्कारों की मुट्ठी पड़ी। सवा मुट्ठी। यह कम रही। देह पुंज में बिखर गई। तभी पड़ोस की ताई बोली..सवा पांच या ग्यारह मुट्ठी डाल दो। यह भी शुभ होता है।
जीजी ने ग्यारह डाल दी। कुकर की देह फूल गई। चावल यानि अक्षत निकाले गए। ताई जी! दूध कितना डालूं? एक टेक्नीशियन की भांति ताई जी बोलीं.. जितने मुट्ठी चावल, उससे दोगुना दूध?
और चीनी?
वो भी इतनी।
तब अंगीठी थी। गैस आ गई थी। लेकिन लल्ला लाया नहीं। उसने सोचा, पहले कुकर ले लूं। फिर गैस आ जाएगी।
सब कुछ कुकर के निर्मल कंचन काया में समा चुका था। चावल, चीनी और दूध। अब शुभ घड़ी का इंतजार था। मन मंदिर की घंटियां बजने लगीं ( जैसे आज जयमाला पर बजती हैं)।
“ठहरो! बहन ठहरो! तुमने सतिया तो बनाया नहीं?” कुकर पर सतिया बना। उमंग और तरंग के बीच ढक्कन लगा। खीर चढ़ गई।
“ताई जी! कितनी सीटी लगेंगी?”
-तीन तो लगेंगीं। चावल देर से पकते हैं।
अंगीठी की आग नर्म नर्म देह सुख ले रही थी। घर पर उत्सव का माहौल था। सब खीर खाना चाह रहे थे। तभी एक सीटी बजी। सब ताली बजाने लगे। खीर कुकर का तन फाड़कर बाहर निकलने लगी। फिर दूसरी सीटी बजी। वही नजारा। तीसरी सीटी में कुकर से धुआं उठने लगा?
कुकर से धुआं उठेगा। यह किसी ने नहीं बताया था। चतुर जीजी ने कुकर को अंगीठी से उतारा। आपदा में अवसर तलाशा। पानी डाला। कुकर की आग उगलती देह शांत पड़ी।
“लगता है, बहन खीर पक गई?” पड़ोस की बहन बोली।
जीजी ने ढक्कन खोला। अरे यह क्या? न दूध, न चीनी न चावल? कुकर खीर पी चुकी थी। कुछ जले भुने चावल बता रहे थे..हां हां यहां खीर पकी थी।
दुख में कोई साथ नहीं देता। खीर बिखरते ही पड़ोसी बारी-बारी अपने घर चले गए। लल्ला भागा भागा दुकान पर गया..”यह कैसा कुकर दिया है? उसमें खीर तो बनी नहीं?”
बाबू जी! खीर इसमें नहीं बनती। बनानी थी तो एक सीटी मारते। ( यानी उसको भी नहीं पता था। वह ड्रा मैच खेल रहा था)।
खीर तो बिखर गई। लेकिन कुकर का महत्व समझ में आया। जीवन कुकर की तरह है। इसमें समय के हिसाब से सीटी देनी पड़ती है। हर चीज कुकर में पकने के लिए नहीं होती। तब कुकर फटते थे। स्टोव फटते थे। बहुएं जलती थीं। (जलाई जाती थीं)।
आज वही कुकर है। वहीं चावल। वही दूध। सब खीर खाते हैं। कुकर कसमसाता रहता है। उसकी सीटी बज गई। अब न वो रोता है। न फटता है। वक्त ने सीटी बजाना सिखा दिया।
नारी तकनीकी शास्त्र का पहला अध्याय समाप्त हुआ। बोलो, सत्यनारायण भगवान की जय।
सूर्यकांत