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थार के हस्तशिल्प और वैश्विक बाजार में उनकी पहचान

बाल मुकुन्द ओझा

घरेलू तथा वैश्विक बाजार में कारीगरों द्वारा तैयार हस्तशिल्प तथा हथकरघा उत्पादों की बहुत मांग है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए अखिल भारतीय हस्तशिल्प सप्ताह 8 दिसंबर से लेकर 14 दिसंबर तक देशभर में मनाया जा रहा है । हस्तशिल्प सप्ताह लोगों के बीच हस्तशिल्प की वर्षों पुरानी परंपरा और संस्कृति के महत्व को रेखांकित करता है। हस्तशिल्प देशभर के ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी महत्ता के लिए जानी जाती है। हस्तशिल्प को प्रोत्साहन देने, हस्तशिल्प सामग्रियों को जन जन तक पहुंचाने और उनका प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से हर साल 8 से 14 दिसंबर के बीच अखिल भारतीय हस्तशिल्प सप्ताह मनाया जाता है। यह एक ऐसा आयोजन है जो हस्तशिल्प कलाओं से जुड़ी परंपराओं और संस्कृतियों को जीवित रखता है। हस्तशिल्प का मतलब होता है ऐसे कलात्मक कार्य जिसे बनाने के लिए हाथ और सरल औजार की सहायता ली जाती है और इसके माध्यम से आप अपने घर को भी सजा सकते हैं I इसके अलावा हस्तशिल्प कला का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व बहुत ज्यादा है। हस्तशिल्प परंपरा में चीजें मशीन के द्वारा नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर हाथों के द्वारा बनाई जाती हैं यही वजह है कि इसे हम लोग हस्तकला के नाम से जानते हैं I विशेषरूप से लोक चित्रकला, फाड़ चित्रकला, चिकनकारी, दरी बुनाई, कनी शॉल बुनाई, हाथ से ब्लॉक प्रिंटिंग, बंधेज टाई डाई, लाख की चूड़ियां, कांथादर्पण कार्य, क्रूल कढ़ाई, पिपली और क्रोशिया की बुनाई, फुलकारी और कलमकारी चित्रकारी, जरदोजी आदि ऐसे हस्तशिल्प कार्य हैं, जिनके जरिये स्थानीयता का राष्ट्रीय पहचान मिलती है।

हम देश के उस क्षेत्र की विरासत से आपको रूबरू कराना चाहते है जो सीमावर्ती तो है ही साथ ही अकाल और सूखे की मार से पीड़ित होने के बावजूद अपनी हस्तशिल्प की कला और संस्कृति को विपरीत स्थितियों में भी सहेजे हुए है। रेतीले धोरों से आच्छादित राजस्थान के सीमावर्ती बाड़मेर जिले के निवासियों के पास हुनर तो है मगर हुनर के विकास की सुविधा नहीं थी। बाड़मेर के लाखों परिवार हस्तशिल्प से जुड़े हैं। कतवारिनें और कशीदा करने वाली महिलाएं उत्पाद तैयार करती है और इनको बेचने का कार्य व्यापारी कर रहे हैं। हस्तशिल्प में अजरख प्रिंट और कांथा वर्क फैमस है। बाड़मेर अपनी पारंपरिक हस्तशिल्प कला के लिए जाना जाता है। यहां के शिल्पकर्मी अपनी कड़ी मेहनत, कला और परंपराओं के माध्यम से इन हस्तशिल्पों को जीवित रखते हैं। बाड़मेर को हस्तशिल्प का खजाना कहा जाता रहा है। यहां हुनरबाजों, कलाकारों की कोई कमी नहीं है लेकिन हस्तशिल्प से बने उत्पादों की सही मार्केटिंग नहीं होने के चलते यहां के हुनरबाजों का हुनर अपने तक ही सीमित रह रहा। बाड़मेर के हस्तनिर्मित बेडशीट, कुशन कवर, अजरख दुनियाभर में भी पसंद की जाती रही है। लकड़ी के हैंडीक्राफ्टस की भी विदेशों में बहुत मांग है। मालाणी के गौरव पदमश्री मगराज जैन ने गरीबी झेल रहे दलित, गरीब ,वंचित और महिलाओं के सशक्तिकरण का बीड़ा उठाया तो लता कच्छवाहा के रूप में उन्हें एक सहकर्मी का साथ मिला। मगराज जैन एक ऐसी शख्सियत है जिन्होंने थार के हस्तशिल्प लोककला और मेलों को पुनर्जीवित कर विश्वस्तरीय ख्याति दिलाने में अहम भूमिका निभाई। इसी तरह करीब पांच हजार से अधिक युवक-युवतियों को हस्तशिल्प यथा कांच कशीदा एप्लीक, चर्म कार्य, रेडियो मरम्मत सहित चालीस से अधिक विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध कराई और उन्हें आत्मनिर्भर बना दिया। युवाओं की रोजी-रोटी का जरिया बन गया।

बाड़मेर सीमा क्षेत्र में 1965 व 1971 के भारत पाक युद्ध के बाद सैंकड़ों पाक विस्थापित परिवार आकर बसे। रोजी रोटी से जूझ रहे मेगवाल जाति के परिवारों की महिलाओं के पास पारम्परिक हुनर था। महिलाएं अपनी बेटियों के दहेज हेतु कांचली, अंगरखी, तकिया, रूमाल या दामाद की बुकानी, बटुआ आदि सुंदर वस्त्र, चादर, रालियां, घर सजाने के लिए तोरण, उंटों एवं घोड़ों को सजाने के लिए तन आदि बनाती थी। उनका यह हुनर मन को मोह लेने वाला था। आकर्षक रंगों के धागों व कांच का उपयोग कर बनाये जानेवाला यह हुनर उम्दा कारीगरी का बेहतरीन नमूना था। मगर महिलाओं को उनके हुनर का उचित मूल्य नहीं मिल पता। बिचौलिये उचित मूल्य के मार्ग में बाधा खड़ी कर रहे थे। 1990 में मगराज जैन द्वारा स्थापित सोसायटी टू अपलिफ्ट रूरल इकोनामी ने बाड़मेर जिले की हजारों महिलाओं को लाभान्वित करने के लिए सन् 1994 में दस्तकारों के प्रषिक्षण, डिजाइनिंग व मार्केटिंग के लिए बाड़मेर से 75 किलामीटर दूर बीजराड़ गांव जहां आसपास के गावों में दस्तकारों की अधिकता थी उनके बीच में क्राफ्ट डवलपमेंट सेंटर की स्थापना की जो आज तक उसी रफ्तार से कार्य कर रहा है। इसके साथ ही  हस्तशिल्प को बढ़ावा देने हेतु सिंगापुर, थाईलैंड, बांगला देश, श्रीलंका आदि देशों में महिलाओं के हुनर को वैश्विक पहचान मिली और उनके उत्पादों का सही मूल्य भी मिलने लगा।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

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