
भारतीय शास्त्रीय संगीत में अनेक ऐसे महान कलाकार हुए हैं जिन्होंने अपनी साधना, निष्ठा और अद्वितीय प्रतिभा से इस परंपरा को अमर बना दिया। इन्हीं में से एक थीं – ठुमरी सम्राज्ञी गिरजा देवी, जिन्होंने बनारस घराने की ठुमरी को देश-विदेश में नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। गिरजा देवी न केवल गायिका थीं बल्कि भारतीय संगीत की वह अध्यात्ममयी साधिका थीं जिनके सुरों में बनारस की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिठास घुली थी।
प्रारंभिक जीवन और संगीत शिक्षा
गिरजा देवी का जन्म ८ मई १९२९ को वाराणसी के निकट एक संगीतप्रेमी परिवार में हुआ। उनके पिता रामदेव राय स्वयं सारंगी और हारमोनियम बजाने में दक्ष थे। परिवार में संगीत का वातावरण था, परंतु उस समय उच्च वर्गीय परिवारों में स्त्रियों का सार्वजनिक रूप से गाना-बजाना अच्छा नहीं माना जाता था। फिर भी, पिता ने बेटी की प्रतिभा को पहचाना और उसे संगीत सिखाने का निश्चय किया।
गिरजा देवी ने प्रारंभिक संगीत शिक्षा सारंगी वादक सरजू प्रसाद मिश्रा से प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने भोलानाथ भट्ट से ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती जैसे लोकाधारित रागों की बारीकियाँ सीखीं। उनके गुरु ने उन्हें केवल गायन ही नहीं, बल्कि मंच पर प्रस्तुति देने की गरिमा और शिष्टता भी सिखाई।
संगीत यात्रा की शुरुआत
गिरजा देवी ने पहली बार सार्वजनिक मंच पर १९४९ में इलाहाबाद में गायन किया। उस समय ठुमरी को “हल्की शैली” माना जाता था, किंतु गिरजा देवी ने इस धारणा को तोड़ते हुए इसे शास्त्रीय संगीत के समकक्ष प्रतिष्ठा दिलाई। उनकी गायकी में बनारस की मिट्टी की खुशबू, लोक-संवेदना और राग की गहराई एक साथ झलकती थी।
उन्होंने ठुमरी के साथ-साथ दादरा, होरी, कजरी, झूला, चैती और टप्पा जैसी लोकसंगीत शैलियों को भी मंच पर समान गरिमा दी। उनकी गायकी का सबसे बड़ा आकर्षण था—स्वर की कोमलता, शब्दों की भावनात्मक अभिव्यक्ति और रागों की गहराई।
ठुमरी शैली में योगदान
गिरजा देवी ने ठुमरी को केवल नृत्य की संगत से जोड़कर देखने की परंपरा को तोड़ा। उन्होंने इसे आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बनारस घराने की ठुमरी की विशेषता – “बोल बनाव” शैली – उनके गायन में चरम पर दिखाई देती थी। वे हर शब्द को अपनी भावनाओं से सींच देती थीं, जिससे ठुमरी केवल गीत नहीं, बल्कि एक जीवंत कथा बन जाती थी।
उनकी प्रसिद्ध ठुमरियाँ —
“रुनझुन बाजे पायलिया”
“नैना मोरे तरसे”
“मोरे सैंयाँ बुलावें आधी रतिया”
“बरसे बदरिया सावन की”
आज भी संगीतप्रेमियों के बीच अमर हैं।
शिक्षक और प्रेरणा स्रोत के रूप में
गिरजा देवी ने अपने जीवन का बड़ा भाग शिक्षण कार्य में भी लगाया। उन्होंने आई.टी.सी. संगीत अनुसंधान अकादमी, कोलकाता में अध्यापन किया और अनेक विद्यार्थियों को ठुमरी गायन की बारीकियाँ सिखाईं। वे मानती थीं कि संगीत केवल तकनीक नहीं, बल्कि आत्मा की भाषा है।
उनकी शिष्याओं में कई प्रसिद्ध कलाकार हैं जिन्होंने ठुमरी और लोकसंगीत की परंपरा को आगे बढ़ाया। इस प्रकार, गिरजा देवी केवल एक गायिका नहीं बल्कि एक संस्कार वाहिका थीं, जिन्होंने संगीत को साधना और जीवन का पर्याय बना दिया।
सम्मान और पुरस्कार
गिरजा देवी के योगदान को देखते हुए उन्हें अनेक राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए —
पद्म श्री (१९७२)
पद्म भूषण (१९८९)
पद्म विभूषण (२०१६)
इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तानसेन सम्मान, और अनेक विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियाँ भी मिलीं। ये पुरस्कार उनके अद्वितीय योगदान के प्रतीक हैं।
व्यक्तित्व और दर्शन
गिरजा देवी का व्यक्तित्व संगीत की तरह ही सरल, गूढ़ और आकर्षक था। वे कहती थीं — “संगीत को दिल से गाओ, तो राग खुद तुम्हारे साथ गुनगुनाने लगता है।”
उनके गायन में ना तो दिखावा था, ना ही बनावट। वे मंच पर बैठतीं, तब दर्शक उनके पहले स्वर के साथ ही किसी और लोक में पहुँच जाते।
उनकी आवाज़ में बनारस की गलियों का रस, गंगा की लहरों की तरलता और ठुमरी की नज़ाकत थी। वे संगीत को पूजा मानती थीं, और हर राग को आराधना के रूप में प्रस्तुत करती थीं।
अंतिम वर्ष और विरासत
गिरजा देवी ने लगभग सात दशकों तक सक्रिय रूप से गायन किया। उम्र के अंतिम वर्षों में भी उनका स्वर मधुर और प्रभावी बना रहा। उनका निधन २४ अक्टूबर २०१७ को कोलकाता में हुआ। उनके जाने से भारतीय संगीत जगत में जो रिक्तता बनी, उसे भरना असंभव है।
लेकिन उनकी रिकॉर्डिंग्स, शिष्य, और ठुमरी की जीवंत परंपरा उनके स्वर की अमरता को बनाए हुए हैं। आज भी जब कोई कलाकार बनारसी ठुमरी गाता है, तो उसमें कहीं न कहीं गिरजा देवी का स्वर प्रतिध्वनित होता है।
निष्कर्ष
गिरजा देवी भारतीय संगीत की वह ज्योति थीं जिन्होंने ठुमरी को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभूति का माध्यम बना दिया। उन्होंने स्त्री-गायन की गरिमा को पुनः स्थापित किया और भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्वभर में सम्मान दिलाया।
उनका जीवन संदेश देता है कि संगीत केवल कला नहीं, साधना है — और गिरजा देवी इस साधना की सर्वोच्च प्रतीक थीं