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*“घर का चाँद”*

करवा चौथ की रात थी।

बाहर काले बादल छाए थे और हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। आसमान का चाँद जैसे रूठकर बादलों में छिपा बैठा था।

दरवाज़े पर दस्तक हुई।

माँ, कमला देवी, गुस्से से दरवाज़ा खोलते ही बोलीं—

“इतनी देर से आया है अमन! शर्म नहीं आती? तेरी पत्नी सुबह से भूखी-प्यासी बैठी है। दिल में ज़रा भी दया नहीं है क्या?”

अमन ने थके स्वर में कहा—

“क्या करूँ माँ? बॉस ने देर से छुट्टी दी, ऊपर से ट्रैफ़िक ने जान निकाल दी। अब आ गया हूँ न, अब तो व्रत खुलवा दीजिए।”

तभी प्रिया झल्लाई हुई बाहर आई—

“अब कैसे खोलूँ व्रत? चाँद तो बादलों में छुपा है। घंटों से इंतज़ार कर रही हूँ। भूख-प्यास से हालत खराब हो गई है।”

इसी बीच, छोटा बेटा मोहन भी बाहर से घर लौटा। बारिश में भीगा हुआ और कपड़े कीचड़ से सने हुए।

उसकी पत्नी रीना भी भूख से निढाल थी।

रीना धीरे से बोली—

“लगता है माँ, आज तो चाँद निकलेगा ही नहीं।”

कमला देवी परेशान होकर बोलीं—

“अरे! अब तुम दोनों बहुएँ कब तक भूखी रहोगी?”

अमन और मोहन ने एक-दूसरे की ओर देखा। दोनों के दिमाग में एक ही विचार आया।

अमन बोला—

“माँ, ज़रा हमारे साथ छत पर चलिए।”

कमला देवी चौंकीं—

“क्यों? वहाँ से चाँद दिख रहा है क्या?”

मोहन मुस्कुराया—

“नहीं माँ। आज चाँद धरती पर ही उतर आएगा।”

छत पर दोनों बहुएँ—प्रिया और रीना—पूजा की थाली लेकर तैयार खड़ी थीं। दीपक जल रहा था, पर आसमान अब भी अँधेरा था।

दोनों ने माँ को सामने खड़ा किया।

कमला देवी घबरा गईं—

“अरे, ये क्या कर रही हो बहुओं? मैं तो विधवा हूँ… मेरी पूजा करोगी तो पाप लगेगा!”

प्रिया ने माँ के चरण छूते हुए कहा—

“नहीं माँ, आज आप ही हमारा चाँद हैं। आसमान वाला चाँद तो जिद्दी हो गया है। पिताजी आपको हमेशा ‘मेरा चाँद’ कहते थे।”

रीना ने भी नम्र स्वर में कहा—

“अगर माँ की पूजा करने से पाप लगता है, तो सारे शास्त्र झूठे हैं। आप ही करवा माता हो।”

माँ यह सुनकर भाव-विभोर हो गईं। उनकी आँखों से आँसू निकल आए।

वे तनकर खड़ी हो गईं, मानो करवा माता का रूप।

दोनों बहुओं ने उनकी पूजा की, जल का अर्ध्य दिया, साड़ी भेंट की और माथे पर टीका लगाया।

फिर छलनी उठाकर पहले माँ का चेहरा देखा और फिर पति का।

उस क्षण, घर-आँगन में रोशनी फैल गई।

बादलों का चाँद चाहे न निकला हो, लेकिन रिश्तों का चाँद पूरे घर को रोशन कर गया।

उस रात करवा चौथ सिर्फ़ पति की लंबी उम्र का पर्व नहीं रहा,

बल्कि सास-बहू के रिश्ते का उत्सव बन गया।

 क्योंकि सच्चाई यही है—

घर का असली चाँद/असली पर्व वही है,

जो अपने आशीर्वाद और प्रेम से रिश्तों को जगमग कर दे।

:- डॉ भूपेंद्र सिंह, अमरोहा

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