गले की फांस बन गया नीतीश का हिजाब हटाना

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बाल मुकुन्द ओझा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले कुछ समय से अपने अजीबोगरीब व्यवहार के कारण सियासत की सुर्खिया बटोर रहे हैं। विभिन्न मौके पर उनके व्यवहार या असामान्य हरकतों की घटनाओं की वजह से उनकी आलोचना हो रही है। उनकी पार्टी और सहयोगी भाजपा चिंता में हैं। ऐसी ही एक हिजाब हटाने की घटना ने लोगों का ध्यान खिंचा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पटना में एक कार्यक्रम के दौरान एक महिला डॉक्टर का नकाब हटाने को लेकर बवाल मच गया। इस घटना पर सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक मंचों तक तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। इस दौरान पक्ष और विपक्ष में बयानों की झड़ी लग गई। एक वर्ग ने जहां इसकी निंदा की है वहीं दूसरे वर्ग का कहना है नीतीश ने एक अभिभावक के तौर पर ऐसा किया। उनकी नियत में कोई खोट नहीं थी। सांसद पप्पू यादव का कहना है कि हिजाब नहीं हटाया गया था। उन्होंने अपनी बेटी की तरह बात की। लड़की और पिता के बीच का रिश्ता नीतीश कुमार के रवैये में दिखा। हालांकि इस घटना के बाद महिला डॉक्टर ने एक बड़ा फैसला लिया है कि वह अब सरकारी सेवा में शामिल नहीं होंगी। नीतीश की भावना कुछ भी होगी मगर यह प्रकरण उनके गले की फांस बन गया लगता है। इसी बीच राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का एक पुराना वीडियो भी वायरल होने लगा है जिसमें वे एक महिला का घूंघट उठाते नज़र आ रहे है। इसके साथ ही एक बार फिर देशभर में हिजाब और घूँघट को लेकर सियासत गर्म हो चुकी है।

घूंघट, नकाब या हिजाब इज्जत और शर्म का प्रतीक है या गुलामी का इस पर देशव्यापी बहस शुरू हो गई है। दुनियां के देशों में हिजाब, नकाब या बुर्के को लेकर अलग अलग मान्यता है। कुछ देशों में इसका कड़ाई से पालन किया जाता है तो बहुत से देशों में इस पर प्रतिबन्ध भी लगा है। भारत में शैक्षिक क्रांति के बाद महिलाएं घूंघट से बाहर निकली मगर उत्तर भारत में आज भी घूंघट का बोलबाला है। हमारे प्राचीन वेद एवं धर्मग्रंथों में पर्दा प्रथा का कहीं भी विवरण नहीं मिलता है। भारत में हिन्दुओं में पर्दा प्रथा इस्लाम की देन है। इस्लाम के प्रभाव से तथा इस्लामी आक्रमण के समय आक्रमणकारी दरिंदों से बचाव के लिये हिन्दू स्त्रियाँ परदा करने लगीं। भारतीय महिलाओं की सुंदरता से प्रभावित आक्रमणकारी अत्याचारी होते जा रहे थे। उस दौरान महिलाओं के साथ बलात्कार और अपहरण की घटनाएं बढने लगीं थी। बताया जाता है भारत में 1930 तक घूंघट अपने चरम पर था। लेकिन इसके बाद इसमें कमी आती गई। आज भी राजस्थान, हरियाणा, यूपी, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में यह प्रथा जीवित है।

भारत में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा उपेक्षित ही रही हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है पर्दा प्रथा। जहाँ मुस्लिम समाज में महिलाओं को नकाब में रहना पड़ता है वहीँ हिन्दुओं में घूंघट प्रथा का साम्राज्य कायम है। घूंघट प्रथा निश्चित रूप से महिलाओं  के विकास और चेतना को अवरुद्ध करती है। उसे गुलामों जैसा अहसास कराती है। जो स्त्रियां इस प्रथा से बंध जाती है। वे कई बार इतना संकोच करने लगती हैं कि बीमारी में भी अपनी सही से जांच कराने में असफल रहती हैं। इस प्रथा को समाज मे रखने के नुकसान बहुत हैं।

कुछ विद्वानों और प्राचीन ग्रंथों के अनुसार रामायण और महाभारत में भी महिलाएं कहीं पर भी पर्दा अथवा घूंघट का प्रयोग नहीं करती थीं। अजंता और सांची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूंघट दिखाया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की जीवन शैली के संबंध में कई नियम बनाए हुए हैं, परंतु कहीं भी यह नहीं कहा है कि स्त्रियों को पर्दे में रहना चाहिए। ज्यादातर संस्कृत नाटकों में भी पर्दे का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि 10वीं शताब्दी के प्रारंभ काल के समय तक भी भारतीय राज परिवारों की स्त्रियां बिना पर्दे के सभा में तथा घर से बाहर भ्रमण करती थीं। घूंघट के पक्षधरों का मानना है घूंघट भारतीय परंपरा में अनुशासन और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। आज भी राजस्थान में यह प्रथा गाँव से लेकर शहर तक में जीवित है। यह भी कहा जाता है  हिन्दू धर्म में महिलाओं पर घूँघट के लिए दवाब नहीं डाला जाता बल्कि महिलायें स्वयं उस व्यक्ति से सम्मानस्वरुप पर्दा करती हैं जो रिश्ते में उनसे बड़ा होता है।

यह कहने में कोई संकोच नहीं होता है की घूंघट या बुरका एक सामाजिक कुरुति है। यह औरतों को गैर बराबरी का अहसास कराता  है। पुरुष और नारी दोनों एक ही मानव समाज के अभिन्न अंग है। प्रतिबंध और कानून दोनो पर समान लागू होने चाहिए। यदि घूंघट प्रथा इज्जत और सदाचार की रक्षा के लिए है तो उसे पुरुष पर लागू किया जाना चाहिए क्योंकि दूराचार में पुरूष हमेशा आगे रहता है। यदि यह पुरूष के लिए आवश्यक नहीं है तो नारी पर भी लागू नहीं होना चाहिए। देश अब विकास के पथ पर बहुत आगे बढ़ चुका है। इस कुरीति से निकलने के लिए शिक्षा, साहस और जागरूकता की जरुरत है। इसके साथ समाज की सोच और रवैये को बदलना होगा तभी देश में महिलाएं सुख की साँस ले पाएंगी और पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर देश के विकास में योगदान दे पाएंगी।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

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