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मुंशी प्रेमचंद की कलम ने अन्याय और नाइंसाफी के खिलाफ बुलंद की आवाज

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बाल मुकुन्द ओझा

आज उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की पुण्य तिथि है। लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन 8 अक्टूबर 1936 को जलोधर रोग से हो गया था। ग्रामीण जन जीवन के चितेरे लेखक मुंशी प्रेमचंद की रचनाएं आज भी न केवल प्रासंगिक है अपितु हिंदी साहित्य की अमर अजय रचनाएं है। प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास विधा में एक नई और जीवंत परंपरा की शुरुआत की। उनकी प्रत्येक रचना सच्चाई के इर्द गिर्द घूमती है। वे कहीं भटकती नहीं है। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से आम आदमी की समस्याओं और पीड़ाओं को यथार्थ रूप से चित्रित किया । यही कारण है की वे साहित्य के अमर अजर रचनाकार के रूप में ख्यात है।

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को काशी से चार मील दूर बनारस के पास लमही नामक गाँव में हुआ था। 31 जुलाई को उनकी 140 वीं जयंती है। उनका असली नाम धनपतराय था । आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह प्रेमचंद ने 1901 मे उपन्यास लिखना शुरू किया। कहानी 1907 से लिखने लगे। उर्दू में नवाबराय नाम से लिखते थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों लिखी गई उनकी कहानी सोजेवतन 1910 में जब्त की गई। उसके बाद अंग्रेजों के उत्पीड़न के कारण वे प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। 1923 में उन्होंने सरस्वती प्रेस की स्थापना की। 1930 में हंस का प्रकाशन शुरु किया। इन्होने मर्यादा, हंस, जागरण तथा माधुरी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया। उन्होंने हिन्दी कहानी को एक नयी पहचान व नया जीवन दिया। आधुनिक कथा साहित्य के जन्मदाता कहलाए। उन्हें कथा सम्राट की उपाधि प्रदान की गई।

उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी हैं। इन कहानियों में आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। उनकी कहानियों में रूढियों, अंधविश्वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, नमक का दारोगा, दो बैलों की आत्म कथा जैसी कहानियां कालजयी हैं। तभी तो उन्हें कलम का सिपाही, कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट आदि अनेकों नामों से पुकारा जाता है।

 प्रेमचंद के साहित्य में समस्याओं को न केवल उठाया गया है बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत किया गया है। सेवा सदन में वेश्यावृत्ति की समस्या, गबन में नारी के आभूषण प्रेम की समस्या, कर्म भूमि में जमीदारों के अत्याचारों का पूंजीपतियों की हठधर्मिता की समस्या, निर्मला में अनमेल विवाह की समस्या आदि का चित्रण किया गया है। इस प्रकार प्रेमचंद अपने साहित्य में इन समस्याओं को उनके दुष्प्रभावों से परिचित कराते हैं तथा उन्हें दूर करने के लिए प्रेरित भी करते हैं। प्रेमचंद का साहित्य ग्रामीण जीवन की संपूर्ण झांकी को प्रस्तुत करता है। गोदान उपन्यास तो ग्रामीण जीवन का महाकाव्य कहलाता है। बड़े घर की बेटी, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा आदि कहानियों भी ग्रामीण पृष्ठभूमि में लिखी गई हैं। इन रचनाओं में उन्होंने ग्रामीणों के प्रति एक नवीन व स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाकर उनकी समस्याओं को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। मुंशी प्रेमचंद एक महान कथाकार के साथ-साथ एक अच्छे समाज सुधारक भी रहें है, उन्होंने अपनी रचनओं के माध्यम सामाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया है।

 मुंशी प्रेमचंद देश के ऐसे पहले रचनाकार थे जिन्होंने उपन्यास साहित्य को तिलस्मी और ऐयारी से बाहर निकाल कर जमीनी हकीकत से परिचय कराया । उन्होंने अपनी रचनाओं में आम लोगों विशेषकर मेहनतकश वर्ग की भावनाओं और सच्चाइयों को वर्णित किया। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश की वास्तविक और जमीनी समस्याओं से देशवासियों को अवगत कराया। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उनकी रचनाएं गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। वह आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में ऐसे नायक हुए,जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। उन्होंने सरल,सहज और जनसाधारण की  बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से  समाज के सामने प्रस्तुत किया। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक माने गए। उनकी  रचनाओं में समाज का पूरा ‘परिवेश’ उसकी ‘कुरूपता’ और ‘असमानता’, ‘छुआछूत’, ‘शोषण’ की विभीषिका कमजोर वर्ग और स्त्रियों का दमन आदि वास्तविकता प्रकट हुई है। उन्होंने सामान्य आदमी का जीवन अत्यंत निकट से देखा था तथा खुद उस जिंदगी को भोगा भी था। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था।

 प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों  जमकर विरोध किया और आम आदमी की कहानी को उनकी बोलचाल की भाषा में चित्रित की।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी .32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर                                                                 

बढ़ती छात्र आत्महत्याएँ: कानून हैं, लेकिन संवेदना कहाँ है?

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भारत में बढ़ती छात्र आत्महत्याएँ एक गहरी सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य संकट का संकेत हैं। मानसिक स्वास्थ्य कानून (2017) और आत्महत्या रोकथाम नीति (2021) ने क़ानूनी ढाँचा तो दिया, पर उसका असर सीमित रहा। जागरूकता की कमी, काउंसलिंग ढाँचे का अभाव और अभिभावकों की अपेक्षाएँ छात्रों को अवसाद की ओर धकेल रही हैं। अब ज़रूरत है भावनात्मक शिक्षा, प्रशिक्षित काउंसलर, डिजिटल सहायता और पारिवारिक संवेदना की। जब तक समाज यह नहीं समझेगा कि हर बच्चे की सफलता अलग है, तब तक कानून भी किसी की जान नहीं बचा पाएँगे।

✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत जैसे युवा देश के लिए यह एक शर्मनाक सच्चाई है कि यहाँ हर साल हज़ारों विद्यार्थी पढ़ाई, प्रतिस्पर्धा और सामाजिक दबाव के बोझ तले अपनी जान दे देते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के अनुसार 2023 में 13,000 से अधिक छात्र आत्महत्याएँ दर्ज की गईं — यानी हर 40 मिनट में एक विद्यार्थी अपनी ज़िंदगी खत्म कर रहा है। यह सिर्फ़ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की नाकामी का सबूत है जो बच्चों को बचाने के बजाय उन्हें अंधे मोड़ पर छोड़ देती है।

सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई कानून और नीतियाँ बनाईं हैं — जैसे मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 और राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति 2021। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये कागज़ों पर लिखे कानून ज़मीन पर किसी बच्चे को सच में बचा पा रहे हैं?

मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 का मकसद था कि आत्महत्या का प्रयास अब अपराध नहीं माना जाएगा, बल्कि इसे मानसिक संकट के रूप में देखा जाएगा। यानी अगर कोई बच्चा आत्महत्या की कोशिश करता है, तो उसे सज़ा नहीं, बल्कि सहारा दिया जाएगा। यह बहुत बड़ी पहल थी, क्योंकि इससे पहले ऐसे मामलों में पुलिस कार्रवाई होती थी, जिससे पीड़ित और परिवार दोनों और टूट जाते थे। कानून ने यह भी कहा कि हर नागरिक को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार होगा। यानी स्कूलों, कॉलेजों और कार्यस्थलों पर काउंसलिंग और सहायता उपलब्ध कराई जाएगी।

पर आज भी सच्चाई यह है कि देश के अधिकांश स्कूलों और कॉलेजों में कोई प्रशिक्षित काउंसलर तक नहीं हैं। 2023 में एम्स द्वारा किए गए सर्वे में पाया गया कि 70 प्रतिशत कॉलेजों में कोई मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ मौजूद नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति और भी खराब है। यानी कानून बना, लेकिन उसके लिए जो आधारभूत ढांचा चाहिए था, वो कभी तैयार नहीं हुआ।

2021 में सरकार ने राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति जारी की। इस नीति में कहा गया कि आत्महत्या एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है और इसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण विभागों को मिलकर काम करना चाहिए। इसमें “हाई-रिस्क ग्रुप” जैसे छात्रों, किसानों और प्रवासी मजदूरों की पहचान कर, उनके लिए रोकथाम तंत्र बनाने की बात कही गई थी।

कुछ राज्यों ने इसे गंभीरता से लिया भी। जैसे केरल और महाराष्ट्र में स्कूल शिक्षकों को यह सिखाया गया कि वे छात्रों में अवसाद या निराशा के संकेत पहचान सकें। कुछ जगहों पर “स्कूल काउंसलिंग सेल” भी बने। लेकिन पूरे देश की तस्वीर देखें तो 40 प्रतिशत ज़िलों में अब भी कोई “सुसाइड प्रिवेंशन सेल” नहीं बना है। इस नीति के लिए अलग से कोई बजट तय नहीं किया गया। परिणाम यह हुआ कि यह नीति भी सरकारी फाइलों में एक और दस्तावेज बनकर रह गई।

कानूनों और नीतियों की सीमाओं से आगे जाकर हमें यह समझना होगा कि आत्महत्या का कारण सिर्फ मानसिक बीमारी नहीं, बल्कि समाज का बढ़ता असंवेदनशील माहौल भी है। कोचिंग सेंटर्स की दीवारों पर “IIT or Nothing” जैसे नारे लिखे होते हैं। हर बच्चा रैंक और रिज़ल्ट की दौड़ में फँस गया है। उसे बचपन की जगह एक ‘प्रोजेक्ट’ बना दिया गया है।

बहुत से माता-पिता अपने सपने बच्चों पर थोप देते हैं। असफलता को अपमान समझा जाता है। घर में बातचीत के बजाय सवाल-जवाब होता है — “कितने नंबर आए?” “अगले साल क्या करोगे?” यह भावनात्मक दूरी बच्चों को भीतर से तोड़ देती है।

अब असफलता छिपाना भी मुश्किल हो गया है। इंस्टाग्राम और रीलों की दुनिया में हर कोई “सफल” दिखना चाहता है। जो नहीं दिखा पाता, वह खुद को असफल मान लेता है। किसी स्कूल में खेल का मैदान नहीं तो लोग शिकायत करते हैं, लेकिन काउंसलर नहीं है तो कोई नहीं पूछता। बच्चे को “तनावग्रस्त” कहने पर आज भी परिवार उसे “कमज़ोर” समझता है। मानसिक स्वास्थ्य आज भी कलंक बना हुआ है।

कानूनों और नीतियों से आगे बढ़कर अब हमें कुछ व्यावहारिक, संवेदनशील और स्थायी उपाय अपनाने की ज़रूरत है। हर स्कूल और कॉलेज में प्रशिक्षित काउंसलर अनिवार्य होने चाहिए। सरकार चाहे तो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति कर सकती है। टेली-काउंसलिंग की सुविधा भी दूर-दराज़ क्षेत्रों तक पहुँचाई जा सकती है। मानसिक स्वास्थ्य को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। बच्चों को यह सिखाना ज़रूरी है कि असफलता अंत नहीं है। दिल्ली सरकार के “हैप्पीनेस करिकुलम” की तरह सभी राज्यों में “लाइफ स्किल्स” और “इमोशनल एजुकेशन” को अनिवार्य किया जा सकता है।

हर माता-पिता और शिक्षक को यह समझना होगा कि उनकी बातों का बच्चों पर कितना असर पड़ता है। यदि कोई बच्चा अलग-थलग रह रहा है, बात नहीं कर रहा, या अचानक व्यवहार बदल रहा है — तो यह संकेत है कि उसे मदद की ज़रूरत है। आज हर छात्र के पास मोबाइल है। अगर उसी से वह मनोवैज्ञानिक सहायता पा सके तो कई जानें बच सकती हैं। “किरण हेल्पलाइन” जैसी पहल को और मज़बूत करने की ज़रूरत है।

मीडिया को भी अपनी भूमिका समझनी होगी। आत्महत्या की खबरों को सनसनी बनाकर दिखाने के बजाय, मीडिया को यह दिखाना चाहिए कि कैसे मदद ली जा सकती है। फिल्मों और सोशल मीडिया को भी “सफलता या मृत्यु” वाली सोच से बाहर लाना होगा। सरकार के हर जिले में यह रिपोर्ट होनी चाहिए कि कितने स्कूलों में काउंसलर हैं, कितनी आत्महत्या की घटनाएँ हुईं और कौन-से कदम उठाए गए। जवाबदेही के बिना कोई नीति सफल नहीं होती।

कानून और नीतियाँ दिशा दिखा सकती हैं, लेकिन वे संवेदना नहीं जगा सकतीं। वह समाज को खुद करनी होगी। हमें यह स्वीकार करना होगा कि बच्चा “रैंक” नहीं, “इंसान” है। उसकी आँखों में सिर्फ़ डिग्री नहीं, सपने भी हैं — और उन सपनों को असफलता से नहीं, प्यार और सहारे से संभाला जा सकता है।

कोटा, दिल्ली, पटना या हैदराबाद — हर शहर से आती आत्महत्याओं की खबरें हमें झकझोरती हैं, लेकिन कुछ दिन बाद हम भूल जाते हैं। जबकि हर बच्चा जो चला गया, वह हमारे समाज का आईना था — वह यह कह गया कि “तुमने मुझे सुना नहीं।”

भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 और राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम नीति 2021 जैसी पहलें सही दिशा में कदम हैं, लेकिन ये तब तक अधूरी रहेंगी जब तक समाज, परिवार और शिक्षा संस्थान मिलकर मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं देंगे। हर आत्महत्या एक असफल नीति नहीं, बल्कि असफल संवेदना की कहानी है। समाधान किसी नए कानून में नहीं, बल्कि इस सोच में है कि असफलता कोई अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत है।

महर्षि वाल्मीकि: शिक्षा, साधना और समाज का सच

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(गुरु का कार्य शिक्षा देना है, किंतु उस शिक्षा का प्रयोग शिष्य के हाथ में है — यही महर्षि वाल्मीकि की जीवनगाथा का अमर संदेश है।) 

महर्षि वाल्मीकि जयंती केवल एक संत कवि की स्मृति नहीं, बल्कि उस परिवर्तन की प्रेरणा है जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। उन्होंने दिखाया कि शिक्षा और साधना से जीवन का हर रूप बदला जा सकता है। “गुरु का कार्य शिक्षा देना है, पर उसका प्रयोग शिष्य के हाथ में है”—यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है। वाल्मीकि जी ने ज्ञान को मानवता से जोड़ा और समाज को बताया कि कर्म, विचार और संवेदना ही सच्ची पूजा हैं। उनकी जयंती हमें याद दिलाती है कि हर व्यक्ति अपने भीतर का वाल्मीकि जगा सकता है।

– डॉ प्रियंका सौरभ

कहते हैं, शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान नहीं देती, बल्कि वह जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। किंतु उस शिक्षा का प्रयोग कौन-से दिशा में होगा — यह निर्णय हर व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है। यह विचार महर्षि वाल्मीकि के जीवन से बढ़कर और किसकी गाथा कह सकती है? महर्षि वाल्मीकि की उनकी यात्रा इस बात का प्रमाण है कि यदि मनुष्य सच्चे ज्ञान से परिचित हो जाए, तो उसका हृदय परिवर्तित हो सकता है, चाहे वह कितना भी अंधकारमय क्यों न हो।

महर्षि वाल्मीकि की जयंती केवल एक महापुरुष का स्मरण नहीं है, बल्कि यह उस मानवीय संभावना का उत्सव है, जो हमें पशुता से मानवता की ओर ले जाती है। यह जयंती हमें याद दिलाती है कि गुरु के दिए ज्ञान की शक्ति तभी सार्थक होती है, जब शिष्य स्वयं उसे सही दिशा में प्रयोग करे।

वाल्मीकि जी का जीवन अत्यंत प्रेरणादायक है। नारद ने उसे “राम-राम” का नाम जपने को कहा। किंतु वह ‘राम’ शब्द उच्चारित नहीं कर सका और “मरा-मरा” कहने लगा। यही “मरा-मरा” जप करते-करते उसका जीवन तपस्या में परिवर्तित हो गया, और वह महर्षि बन गया। यही वह क्षण था जब शिक्षा और आत्मबोध का संगम हुआ। यही परिवर्तन आज के समाज को भी सिखाता है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता, बल्कि कर्म और ज्ञान से महान बनता है।

महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि कहा जाता है — यानी कवियों में प्रथम। उन्होंने रामायण जैसी अमर कृति की रचना की, जो न केवल धार्मिक ग्रंथ है बल्कि भारतीय संस्कृति का जीवन दर्शन भी। उन्होंने साहित्य को धर्म, नीति, प्रेम और करुणा के साथ जोड़ा। उन्होंने मानवता के उस आदर्श को शब्द दिए, जहाँ धर्म केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि न्याय, सहानुभूति और कर्तव्य की भावना है।

उनकी रचना का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने एक ऐसा राम प्रस्तुत किया जो केवल राजा नहीं, बल्कि आदर्श मानव हैं। उन्होंने एक ऐसी सीता को चित्रित किया जो नारी की अस्मिता और धैर्य की प्रतीक है। वाल्मीकि जी ने यह भी बताया कि हर व्यक्ति के भीतर एक ‘राम’ और एक ‘रावण’ बसता है, और निर्णय हमारे हाथ में है कि हम किसे पोषित करते हैं।

आज जब हम वाल्मीकि जयंती मनाते हैं, तो यह केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का अवसर भी है। समाज में आज भी जाति, भेदभाव और अज्ञान का अंधकार व्याप्त है। वाल्मीकि जी का जीवन इस बात का जीवंत प्रमाण है कि किसी का जन्म नहीं, बल्कि कर्म उसकी पहचान तय करता है। वे स्वयं समाज के उस वर्ग से आए जिसे बाद के समय में “अछूत” कह दिया गया, लेकिन उन्होंने ऐसी रचना की जिसने पूरे आर्यावर्त के नैतिक और सांस्कृतिक जीवन को दिशा दी।

यदि उस युग में भी एक लुटेरा ज्ञान से महर्षि बन सकता है, तो आज हम क्यों नहीं बदल सकते? क्यों आज भी हम जाति के नाम पर लोगों को नीचा दिखाते हैं? क्यों आज भी शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी रह गया है, न कि मानवता की सेवा?

महर्षि वाल्मीकि का संदेश स्पष्ट है — गुरु केवल ज्ञान का दीपक जलाता है, परंतु उस दीपक से प्रकाश फैलाना शिष्य की जिम्मेदारी है। नारद मुनि ने रत्नाकर को मार्ग दिखाया, लेकिन चलना स्वयं रत्नाकर को पड़ा। यही शिक्षा प्रणाली का वास्तविक अर्थ है — शिक्षक केवल दिशा देता है, गंतव्य तय करना शिष्य का काम होता है।

आज के युग में जब शिक्षा केवल प्रतिस्पर्धा और अंक-तालिकाओं तक सीमित रह गई है, तब वाल्मीकि की शिक्षा की परिभाषा हमें झकझोरती है। वे कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य ‘मनुष्य बनना’ है, न कि केवल ‘विद्वान बनना’। उन्होंने अपने जीवन से साबित किया कि सबसे बड़ा ज्ञान वही है जो मनुष्य को संवेदनशील बनाए, उसे अहंकार से मुक्त करे, और दूसरों के प्रति करुणा सिखाए।

रामायण के माध्यम से वाल्मीकि जी ने समाज को यह भी बताया कि हर व्यक्ति में सुधार की संभावना है। यही कारण है कि उन्होंने लव-कुश जैसे बच्चों को संस्कार, नीति और धर्म का ज्ञान दिया। उन्होंने सीता की पीड़ा को भी शब्दों में अमर किया, जो नारी की गरिमा की सबसे सशक्त व्याख्या है। वाल्मीकि का आश्रम केवल साधना का स्थल नहीं था, बल्कि शिक्षा का एक आदर्श विश्वविद्यालय था — जहाँ विद्या का अर्थ था आत्म-सुधार और समाज-सुधार।

आज जब हम सोशल मीडिया के युग में ज्ञान को ‘सूचना’ समझने लगे हैं, तब वाल्मीकि की स्मृति हमें बताती है कि ज्ञान का अर्थ केवल जानना नहीं, बल्कि उसे जीना है। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर यदि हम अपने भीतर का अंधकार मिटा सकें, तो वही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

महर्षि वाल्मीकि ने हमें यह सिखाया कि किसी भी समाज की शक्ति उसकी विचारधारा में होती है, न कि उसके बाहरी आडंबर में। उन्होंने साबित किया कि एक डाकू भी कवि बन सकता है, यदि उसके भीतर परिवर्तन की ज्योति जल उठे। यही कारण है कि उनका जीवन आज भी हर पीढ़ी को प्रेरित करता है — कि शिक्षा केवल गुरु की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि शिष्य का संकल्प भी है।

आज जब हम “महर्षि वाल्मीकि जयंती” मनाते हैं, तो हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम शिक्षा को केवल परीक्षा का माध्यम न बनाएं, बल्कि उसे जीवन सुधार का साधन बनाएं। हर शिक्षक में नारद मुनि की झलक है और हर विद्यार्थी में रत्नाकर का बीज। जरूरत है तो बस जागरण की — और यही वाल्मीकि जी की शिक्षा का सार है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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भारत में 3000 साल पहले एक बहुत बड़े ऋषि हुये थे। नाम था महाऋषि वागवट । उन्होंने एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का नाम है, अष्टांग हृदयम Astang hrudayam। इस पुस्तक में उन्होंने बीमारियों को ठीक करने के लिए 7000 सूत्र लिखें थे। यह उनमें से ही एक सूत्र है। वागवट जी लिखते हैं कि कभी भी हृदय को घात हो रहा है मतलब दिल की नलियों मे blockage होना शुरू हो रहा है तो इसका मतलब है कि रक्त blood में acidity अम्लता बढ़ी हुई है। अम्लता आप समझते हैं। इसको अँग्रेजी में कहते हैं acidity ।अम्लता दो तरह की होती है। एक होती है पेट की अम्लता और एक होती है रक्त blood की अम्लता।द्य आपके पेट में अम्लता जब बढ़ती है तो आप कहेंगे पेट में जलन सी हो रही है, खट्टी खट्टी डकार आ रही हैं , मुंह से पानी निकल रहा है और अगर ये अम्लता acidity और बढ़ जाये तो hyperacidity होगी और यही पेट की अम्लता बढ़ते-बढ़ते जब रक्त में आती है तो रक्त अम्लता blood acidity होती है और जब blood में acidity बढ़ती है तो ये अम्लीय रक्त blood दिल की नलियों में से निकल नहीं पाती और नलियों में blockage कर देता है तभी heart attack होता है ।इसके बिना heart attack नहीं होता और ये आयुर्वेद का सबसे बढ़ा सच है जिसको कोई डाक्टर आपको बताता नहीं ,क्योंकि इसका इलाज सबसे सरल है ! इलाज क्या है ? वागवट जी लिखते हैं कि जब रक्त (blood) में अम्लता (acidity) बढ़ गई है तो आप ऐसी चीजों का उपयोग करो जो क्षारीय हैं ।आप जानते हैं दो तरह की चीजें होती हैं अम्लीय और क्षारीय ! acidic and alkaline अब अम्ल और क्षार को मिला दो तो क्या होता है ? acid and alkaline को मिला दो तो क्या होता है ? neutral होता है सब जानते हैं तो वागवट जी लिखते हैं कि रक्त की अम्लता बढ़ी हुई है तो क्षारीय (alkaline) चीजें खाओ ! तो रक्त की अम्लता (acidity) neutral हो जाएगी ! और रक्त में अम्लता neutral हो गई ! तो heart attack की जिंदगी मे कभी संभावना ही नहीं ! ये है सारी कहानी ! अब आप पूछेंगे कि ऐसी कौन सी चीजें हैं जो क्षारीय हैं और हम खायें ? आपके रसोई घर में ऐसी बहुत सी चीजें है जो क्षारीय हैं जिन्हें आप खायें तो कभी heart attack न आए और अगर आ गया है तो दुबारा न आए ।यह हम सब जानते हैं कि सबसे ज्यादा क्षारीय चीज क्या हैं और सब घर मे आसानी से उपलब्ध रहती हैं, तो वह है लौकी ।इसे दुधी भी कहते लौकी जिसे दुधी भी कहते हैं English में इसे कहते हैं bottle gourd जिसे आप सब्जी के रूप में खाते हैं ! इससे ज्यादा कोई क्षारीय चीज ही नहीं है ! तो आप रोज लौकी का रस निकाल-निकाल कर पियो या कच्ची लौकी खायो वागवट जी कहते हैं रक्त की अम्लता कम करने की सबसे ज्यादा ताकत लौकी में ही है तो आप लौकी के रस का सेवन करें, कितना सेवन करें ? रोज 200 से 300 मिलीग्राम पियो कब पिये ? सुबह खाली पेट (toilet जाने के बाद ) पी सकते हैं या नाश्ते के आधे घंटे के बाद पी सकते हैं। इस लौकी के रस को आप और ज्यादा क्षारीय बना सकते हैं इसमें 7 से 10 पत्ते तुलसी के डाल लो तुलसी बहुत क्षारीय है इसके साथ आप पुदीने के 7 से 10 पत्ते मिला सकते हैं ।पुदीना भी बहुत क्षारीय है इसके साथ आप काला नमक या सेंधा नमक जरूर डाले ये भी बहुत क्षारीय है लेकिन याद रखें नमक काला या सेंधा ही डाले वो दूसरा आयोडीन युक्त नमक कभी न डाले। ये आओडीन युक्त नमक अम्लीय है तो आप इस लौकी के जूस का सेवन जरूर करें दो से तीन महीने की अवधि में आपकी सारी heart की blockage को ठीक कर देगा 21 वें दिन ही आपको बहुत ज्यादा असर दिखना शुरू हो जाएगा कोई आपरेशन की आपको जरूरत नहीं पड़ेगी ।घर में ही हमारे भारत के आयुर्वेद से इसका इलाज हो जाएगा और आपका अनमोल शरीर और लाखों रुपए आपरेशन के बच जाएँगे आपने पूरी पोस्ट पढ़ी , आपका बहुत बहुत धन्यवाद। सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ है।

शोसल मीडिया से

जूता उठाने से न्याय नहीं, लोकतंत्र घायल हुआ

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सुप्रीम कोर्ट देश की न्याय व्यवस्था की वह सर्वोच्च संस्था है। जहाँ से अंतिम न्याय की उम्मीद की जाती है। यहाँ से निकला हर शब्द, हर फैसला संविधान की आत्मा को आकार देता है। ऐसे में अगर उसी अदालत के भीतर कोई वकील जो खुद न्याय का साथी कहलाता है। जूता निकालने लगे, हंगामा करें तो यह केवल अनुशासन का उल्लंघन नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव को हिलाने वाली घटना बन जाती है।हालिया मामला वकील राकेश किशोर का है। जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अदालत में हंगामा करते हुए जूता मारने की कोशिश की। उनका कहना था कि सनातन का अपमान बर्दाश्त नहीं। उनकी भावनाएँ चाहे सच्ची रही हो पर उनका तरीका गलत था बेहद गलत। अदालतें भावनाओं से नहीं, तथ्यों और कानून से चलती हैं। यदि अदालत में बैठे व्यक्ति ही भावनाओं के वशीभूत होकर कानून तोड़ने लगें तो न्याय का अर्थ ही समाप्त हो जाएगा।

बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने इस घटना पर त्वरित कार्रवाई करते हुए राकेश किशोर की वकालत पर अस्थायी रोक लगा दी। यह कदम केवल अनुशासन के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश को संदेश देने के लिए था कि कानून के सामने सब बराबर हैं, चाहे वह आम आदमी हो या अधिवक्ता, लेकिन सच यह भी है कि अगर यही हरकत कोई आम नागरिक करता तो उसका हश्र कुछ और होता। उसे अदालत की अवमानना में तुरन्त हिरासत में लिया जाता शायद जेल भी भेज दिया जाता। यह फर्क सोचने पर मजबूर करता है कि क्या कानून का सम्मान केवल कमजोरों से अपेक्षित है। इस घटना ने अदालत की गरिमा के साथ-साथ न्यायिक समुदाय की छवि पर भी सवाल खड़े किए हैं। वकील केवल अपने मुवक्किल के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि न्यायिक प्रणाली का एक आवश्यक स्तंभ हैं। यदि वही स्तंभ चरमपंथी प्रतिक्रिया का प्रतीक बनने लगे तो समाज में न्याय पर भरोसा कैसे बचेगा। फिर भी घटना का दूसरा पहलू भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज समाज में धार्मिक संवेदनशीलता और असहिष्णुता दोनों तेजी से बढ़ रही हैं। सोशल मीडिया पर भावनाओं को भड़काने वाले संदेश, राजनीति से प्रेरित नैरेटिव और आंशिक सच्चाईयां जनता को भ्रमित कर देती हैं। जब लोगों को लगता है कि उनकी आस्था का अपमान हुआ है तो वे प्रतिक्रिया में अराजकता तक पहुँच जाते हैं, लेकिन अदालत वह जगह नहीं है जहाँ धार्मिक भावनाओं का विस्फोट हो। वहाँ केवल कानून की भाषा बोली जाती है। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने इस मामले में अत्यंत संतुलित रुख अपनाया। उन्होंने कहा कि उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। यही न्यायिक गरिमा की परिपक्वता है। प्रतिक्रिया नहीं, स्पष्टीकरण। यह सबक उन सबके लिए भी है जो ऊँचे पदों पर हैं‌। न्यायिक, प्रशासनिक या राजनीतिक कि उनके शब्दों का असर लाखों पर पड़ता है।इसलिए देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों को अपने वक्तव्यों में मर्यादा और संतुलन बनाए रखना चाहिए। एक असावधान टिप्पणी कभी-कभी उस आग को हवा दे देती है जिसे शांत करने में वर्षों लग जाते हैं। अब सवाल केवल राकेश किशोर या बी.आर. गवई का नहीं है। सवाल इस पूरे दौर का है जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संवेदनशीलता के बीच की रेखा धुंधली हो गई है। लोकतंत्र में असहमति जरूरी है, लेकिन मर्यादा उससे भी ज्यादा जरूरी है। जब अभिव्यक्ति मर्यादा खो देती है तो वह लोकतंत्र की ताकत नहीं, बल्कि उसकी कमजोरी बन जाती है।इस घटना से हमें दो स्पष्ट संदेश लेने चाहिए। पहला, कोई भी व्यक्ति चाहे वह वकील हो या आम नागरिक, न्यायपालिका की गरिमा से ऊपर नहीं है। अदालत न्याय का मंदिर है और वहाँ प्रवेश श्रद्धा और संयम से ही होना चाहिए। दूसरा, सत्ता या न्याय के ऊँचे पदों पर बैठे लोगों को अपने शब्दों और आचरण में संयम रखना चाहिए, क्योंकि उनका हर शब्द जनता की भावनाओं को दिशा देता है। यदि अदालतों में इस तरह की घटनाएं दोहराई जाने लगीं तो आम नागरिक के मन में न्यायपालिका के प्रति जो सम्मान है वह धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगा और जब अदालतों पर भरोसा टूटता है तो समाज अराजकता की ओर बढ़ता है। इसलिए बार काउंसिल का यह कदम केवल दंड नहीं, बल्कि एक चेतावनी है कि न्याय की चौखट पर कोई निजी या धार्मिक आक्रोश नहीं लाया जा सकता।
आख़िर में यह याद रखना होगा कि अदालतें भावनाओं का मंच नहीं, बल्कि संविधान की मर्यादा का केंद्र हैं। असहमति व्यक्त करना लोकतंत्र की खूबसूरती है, लेकिन उसे संयमित रखना उसकी गरिमा है। राकेश किशोर की घटना से सबक यही है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी जब मर्यादा खो देती है तो वह न्याय नहीं, अराजकता को जन्म देती है।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस सुकड़ रही है

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देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस कईं राज्यों में छोटे भाई की भूमिका निभाने को मजबूर है । जिस पार्टी ने दशकों तक देश पर राज किया हो उसके लिए बाप या बड़े भाई की गद्दी छोड़कर छोटा भाई बनना कोई मजबूरी नहीं । यह उसकी मक्कारियों और गुनाहों का परिणाम है ।

हमारा स्पष्ट मानना है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कांग्रेस कोई पार्टी थी ही नहीं । 1947 तक कांग्रेस एक राष्ट्रवादी आंदोलन था । आज बीजेपी सहित जितनी भी पार्टियां देश में हैं उन सभी के पुरखे महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम में शामिल थे । तब देश में हिन्दू , मुस्लिम मिलकर अंग्रेजों को भगाने के लिए एक साथ लड़ रहे थे ।

तभी महात्मा गांधी चाहते थे कि स्वराज्य मिलने के बाद आजादी दिलाने के लिए बनी कांग्रेस को अब भंग कर दिया जाए । वे जानते थे कि स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में अन्य राजनयिक दल भी बनेंगे और कांग्रेस भी अब राजनीतिक दल बनकर रह जाएगी । किसी ने बापू की नहीं मानी और कांग्रेस आज अनेक राज्यों में इतनी छोटी बन गई है कि अब कभी बड़ी बनेगी इसकी संभावना फिलहाल नजर नहीं आती ।

चुनाव लड़ने तक के लिए उसे गठबंधन बनाकर लड़ना पड़ रहा है । देख लीजिए । सबसे बड़े राज्य यूपी , बिहार , महाराष्ट्र और बंगाल में वह बहुत छोटे भाई की भूमिका में है । तमिलनाडु , झारखंड , जम्मू कश्मीर और दिल्ली राज्यों में कांग्रेस की भूमिका नाम मात्र की है । गोआ , पुदुचेरी और कईं पूर्वोत्तर राज्यों में भी यही हाल है । कांग्रेस में विघटन से जन्में क्षेत्रीय दल इतने पल्लवित हो गए हैं कि इन राज्यों स्वतंत्ररूप से कांग्रेस की वापसी अब असंभव दिखाई दे रही है ।

कांग्रेस से एक और महापाप हुआ है । वह है आजादी मिलते ही मुसलमानों को अपना वोटबैंक बनाना । कांग्रेस ने मुस्लिमों को राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलने ही नहीं दिया ? जिन्ना के इस्लामिक राष्ट्र बनाने के बाद कांग्रेस का पहला पाप था हिंदुओं के मूल देश भारत को हिन्दू राष्ट्र न बनाना । दूसरी गलती थी मुसलमानों को डराकर वोटबैंक बनाना ।

बाद में कांग्रेस बिखरती रही , नए नए दल बनते रहे और गौर से देखिए वे सभी मुसलमानों को वोटबैंक बनाते रहे । आश्चर्य की बात है कि मुस्लिम समाज वोटबैंक बनता भी गया । इन दलों ने मुस्लिम समाज को आरएसएस से जबरन डरा डराकर वोटबैंक बनने के लिए बाध्य किया । नतीजा सामने है । सम्पूर्ण संवैधानिक अधिकार होते हुए भी मुस्लिम समाज अपना कोई स्वतन्त्र राजनैतिक वजूद कायम न कर सका ।

मुस्लिम समाज का एक भी बड़ा राष्ट्रव्यापी नेता 78 वर्षों में नहीं बन सका । वे पीढ़ियों से कांग्रेस , सपा , बसपा , राजद , टीएमसी , डीएमके आदि के पीछे खड़े होकर ताली बजा रहे हैं । अखिलेश , ममता , राहुल , लालू , स्टालिन और यहां तक कि बाल ठाकरे के बेटे उद्धव के पीछे कतारबद्ध होकर वोट डाल रहे हैं । न अपना स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित कर पाए , न नेता बना पाए , पिछलग्गू बनकर रह गए । क्या करें , शायद नियति को यही मंजूर है ?

……कौशल सिखौला

वरिष्ठ पत्रकार

चोपचीनी, *

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चोपचीनी पचने में हल्की, वात, पित्त तथा कफ को शान्त करने वाली। यह भूख बढ़ाता है, मल–मूत्र को साफ करता है, और शरीर को ताकत देता है। यह यौवन तथा यौनशक्ति को बनाए रखता है। चोबचीनी कब्ज, गैस, शरीर दर्द, गठिया आदि जोड़ों की समस्याएं को ठीक करती है ।
यह चीन मूल की औषधि है इसका पेड़ जमीन पर बिछा सा होता है इसकी जड़ सुर्ख तथा गुलाबी रंग की होती है कोई सफेद या काली भी होती है यह चीन के पहाड़ों के अतिरिक्त बंगाल में सिलहट के पहाड़ों पर और नेपाल के पहाड़ों पर भी होती है चोपचीनी चरपरी मधुर कड़वी गरम मल मूत्र का शोधन करने वाली अफारा शूल वात व्याधि अपस्मार उन्माद और अंगों की वेदना को दूर करने वाली यह गरम और अग्नि वर्धक है अफारा और उदर शूल को शांत करती है दस्त और पेशाब को साफ करती है। पक्षाघात (लकवा)संधि वात अर्थराइटिस तथा वायु के अन्य रोगों में उपयोगी है गर्भाशय के रोग गुदा रोग कुष्ठरोग, खुजली, त्वचा की एलर्जी ,ज़हरीले फोड़े ,दाद रक्त संबंधी रोग ,फील पांव रोग में लाभदायक है ।अपस्मार ,पागलपन उन्माद में भी फायदा पहुचाती है ।उपदंश रोग के लिए यह लाभदायक औषधि है ।यह पुरुषों के वीर्य दोष और स्त्रियों के रजो दोष को दूर करती है। कंठमाला और नेत्र रोगों में भी लाभकारी है ।इससे अफ़ीम खाने की आदत छूट जाती है इसके सेवन से चेहरे पर तेज और कांति आती है। बच्चों को बिस्तर में पेशाब करने का रोग ठीक होता है।
चोबचीनी ताकत को बढ़ाती है। खून को साफ करती है शरीर की गर्मी को सुरक्षित रखती चोबचीनी प्रसन्नता बढ़ाती है‌।
कुछ लोग चोपचीनी को चोबचीनी भी कहते हैं। क्या आपको पता है कि चोपचीनी क्या है, और चोबचीनी के फायदे क्या-क्या हैं? अधिकांश लोगों को चोपचीनी के फायदे के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती, इसलिए वे चोबचीनी (चोपचीनी) से लाभ नहीं ले सकते। भारत में चोपचीनी का प्रयोग एक चीनी खाने में तथा नेपाल और बंगाल के पहाड़ों पर मसाले के रूप में होता है, लेकिन इसके अलावा भी चोबचीनी के फायदे और भी हैं। चोपचीनी का पौधा कांटेदार, मोटे प्रकंद वाला और फैला होता है। यह जमीन पर फैलते हुए बढ़ता है। इसके पत्ते नुकीले, अण्डाकार होते हैं। इसके फूल सफेद रंग के तथा आकार में छोटे होते हैं। इसके फल चमकीले लाल रंग के, गोलाकार मांसल और रसयुक्त होते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार, चोपचीनी एक बहुत ही उत्तम जड़ी-बूटी है, और इसके उपयोग द्वारा अनेक तरह के रोगों की रोकथाम की जा सकती है। आप चोपचीनी के फायदे सिर दर्द, यौन रोग, जोड़ों के दर्द, चर्म रोग के अलावा अन्य कई बीमारियों में ले सकते हैं।

यूरिक एसिड को चमत्कारी रुप से कम करती है
चोपचीनी का चूर्ण (यह आपको आयुर्वेदिक स्टोर या पंसारी की दुकान पर मिल जायेगा) आधा चम्मच सुबह खाली पेट और रात को सोने के समय पानी से लेने पर कुछ ही दिनों में यूरिक एसिड (Uric Acid) ख़त्म हो जाता है। यह उपाय बहुत चमत्कारी है क्योंकि की यह आजमाया हुआ है।

चोपचीनी, सोंठ, मोचरस, अश्वगंधा दोनों सफेद और काली मूसली , कालीमिर्च, वायविडंग शुद्ध किये हुए कौंच की मिंगी तथा सौंफ को बराबर मात्रा में लेकर चूर्ण बनायें। बाद में 10 ग्राम की मात्रा में रोज खाकर ऊपर से मिश्री मिला दूध पी लें इससे पौरुष शक्ति बढ़ेगी और शुद्धि‍करण करेगा। इसमें मौजूद रसायन के कारण यह वीर्यदोष को दूर करने में भी मदद करता है।

चोपचीनी के वाजीकर होने के कारण ये शरीर की कमजोरी को दूर कर यह स्वप्नदोष जैसी परेशानियों को भी दूर करता है। इसके नियमित उपयोग से स्वप्नदोष से निजात पाने में मदद मिलती है।
सफ़ेद दाग़
चोपचीनी 50, ग्राम बावचि के बीज 50, ग्राम का चूर्ण बनाकर एक चम्मच (3, ग्राम,) सुबह और एक चम्मच रात में सोते समय शहद के साथ खाने से सफ़ेद दाग़ ठीक हो जाता है दूध और पसूओं से आने वाले आहार समुद्री आहार तेज मिर्च मसाले दार भोजन खट्टे फल सब्जी सिरका का परहेज़ करें।

सिफलिस
चोपचीनी का चूर्ण 3 से 6 ग्राम सुबह-शाम लेने से उपदंश में लाभ होता है। उपदंश का जहर अगर ज्यादा फैल गया हो तो चोबचीनी का काढ़ा या फांट शहद मिलाकर पीना चाहिए।

गठिया रोग
चोपचीनी को दूध में उबालकर 3 से 6 ग्राम मस्तंगी, इलायची और दालचीनी को मिलाकर सुबह-शाम रोगी को देने से गठिया के दर्द में आराम मिलता है। चोपचीनी और गावजबान को मिलाकर काढ़ा बना लें। इस काढ़े से घुटनों पर मिलाकर मालिश करने से दर्द व हड्डियों की कमजोरी खत्म हो जाती है।

कूल्हे से पैर तक का दर्द शयाटिका का दर्द
60 ग्राम चोपचीनी को मोटा-मोटा पीसकर रख लें। 200 मिलीलीटर पानी में 6 ग्राम चोबचीनी को रात में भिगोकर रख लें। सुबह उस चोपचीनी को आधा पानी खत्म होने तक उबालें और थोड़ा ठण्डा हो जाने पर पी लें। इससे कुल्हे से पैर तक का दर्द दूर होता है।

दमा के ल‍िए
100 ग्राम चोपचीनी लेकर 800 मिलीलीटर पानी में डालकर आग पर चढ़ा देते हैं। जब 300 मिलीलीटर पानी शेष रह जाए तो उसे उतार लेते हैं। इसे ठंडा करके छान लेते हैं। 25 ग्राम से 75 ग्राम तक यह काढ़ा रोजाना 3-4 बार पीने से श्वास रोग (दमा) ठीक हो जाता है।

ऐसे पहचानें
अच्छे चोपचीनी की पहचान-सबसे अच्छे चोपचीनी का रंग लाल या गुलाबी होता है। स्वाद मीठा होता है। यह चमकदार और चिकना होता है। इसमें गांठें और रेशे कम होते हैं। यह भीतर तथा बाहर से एक ही रंग का होता है। यह पानी में डालने पर डूब जााता है। इसके जो टुकड़े वजन में हल्के और सफेद रंग के हों, उनको कच्चा समझना चाहिए। चोपचीनी रक्त विकार और चर्म रोगों के इलाज के लिए बहुत अधिक उपयोगी माना जाता है चोब चीनी शरीर की संधियों और शिराओं में प्रवेश करके विकृत पित्त (यूरिक एसिड)को खतम करता है और अविकृत पित्त (साइट्रिक एसिड)को सहायता पहुंचाती है खून को साफ करती है संधियों (जोड़ों) को मजबूत करती है पेशाब को गति देती है मासिक धर्म को साफ करती है लकवा हाथ पैरों की सुजन उपदंस से होने वाला सिरदर्द ,आधा शीशी,पूराना नजला विसमृति चक्कर उन्माद ,और दमे के रोगों में भी लाभकारी है

चोपचीनी के नुकसान
गर्म प्रकृति वाले लोग (जिनका पेट गर्म रहता हो) चोपचीनी का अधिक मात्रा में उपयोग नहीं करें। चोपचीनी का अधिक मात्रा में उपयोग गर्म स्वभाव वालों के लिए हानिकारक होता है। चोबचीनी से होने वाले दोषों को दूर करने के लिए —–अनार के जूस का सेवन करें अनार का रस चोपचीनी के दोषों को दूर करता है।
यह पोस्ट आयुर्वेद पर आधारित सामान्य जानकारी उपलब्ध कराती है किसी भी चिकित्सा अथवा आयुर्वेद चिकित्सक की सलाह अथवा चिकित्सा का विकल्प नहीं है।
यशपाल सिंह,आयुर्वेद रत्न

बिहार चुनाव की घाेषणा

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बिहार के विधानसा चुनाव के लिए तारीखों की घाेषणा कर दी गई। मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार ने सोमवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से बताया कि बिहार विधानसभा चुनाव दो चरण में होंगे। छह नवंबर को पहले चरण का मतदान होगा । 11 नवंबर को दूसरे चरण का मतदान होगा। मतगणना 14 नवंबर को होगी।

14 लाख मतदाता पहली बार डालेंगे वोट
बिहार में कुल 7.43 करोड़ मतदाता हैं। 14 लाख मतदाता पहली बार वोट डालेंगे। अनुसूचित जाति के लिए 38 और अनुसूचित जनजाति के लिए दो सीट आरक्षित होंगी। चुनाव आयोग के मुताबिक 90,712 मतदान केंद्र होंगे। इनमें 76,801 ग्रामीण क्षेत्रों में होंगे और 13,911 शहरों में होंगे। मतदान केंद्रों को सौ फीसदी वेब कास्टिंग होगी। प्रत्येक मतदान केंद्र पर औसत 818 मतदाता होंगे। 

शरद_पूर्णिमा*

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भारतीय (सनातन) वांग्मय ऋग्वेद कहता है और आज आधुनिक विज्ञान भी इस की पुष्टि करता है शरद पूर्णिमा पर चांद पृथ्वी के सबसे पास होता है भूमंडल में सूर्य और उसके ग्रह सौर परिवार कहलाता है जिन्हें उर्जा (उष्मा) सूर्य से मिलती है ।सभी ग्रह और उप ग्रह एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण से जुड़े हैं और अपनी धुरी पर धूमते हैं जिसे दिन और रात होता और सौर परिवार के केंद्र सूर्य का चक्कर लगाते हैं। इससे अलग अलग ऋतु होती हैं ।पृथ्वी पर जीवन और वनस्पति सभी में जीवन सूर्य और चंद्रमा से आता है ।प्रकृति ने सभी जीवों वनस्पतियों मे उर्जा ग्रहण करने की छमता अनुसार गुण विकसित होते हैं। इसी तरह पृथ्वी का उप ग्रह चंद्रमा है और पृथ्वी के सबसे करीब भी है, इसीलिए पृथ्वी को सबसे ज्यादा प्रभावित चंद्रमा करता है ।इसीाकारण समुद्र में ज्वार भाटा आता है अनाजों में पौष्टिकता फलों में मिठास औषधियों में रोग हर गुण फूलों में सुगंध सभी सूरज और चंद्रमा से आते हैं।

*आयुर्वेद में चंद्रमा की चांदनी से चिकित्सा और शरद पूर्णिमा का महत्व *

शरद पूर्णिमा ( 6अक्टूबर 2025 – शरद पूनम की रात दिलाये- आत्मशांति और, स्वास्थ्य लाभ।)

आश्विन पूर्णिमा को ‘शरद पूर्णिमा’ या कोजागिरी भी बोलते हैं । इस दिन रास-उत्सव और कोजागर व्रत किया जाता है । गोपियों को शरद पूर्णिमा की रात्रि में भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी बजाकर अपने पास बुलाया और ईश्वरीय अमृत का पान कराया था । अतः शरद पूर्णिमा की रात्रि का विशेष महत्त्व है । इस रात को चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ पृथ्वी पर शीतलता, पोषक शक्ति एवं शांतिरूपी अमृतवर्षा करता है ।

शरद पूनम की रात को क्या करें, क्या न करें ?

दशहरे से शरद पूनम तक चन्द्रमा की चाँदनी में विशेष हितकारी रस, हितकारी किरणें होती हैं । इन दिनों चन्द्रमा की चाँदनी का लाभ उठाना, जिससे वर्षभर आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें । नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए दशहरे से शरद पूर्णिमा तक प्रतिदिन रात्रि में 15 से 20 मिनट तक चन्द्रमा के ऊपर त्राटक करें ।

अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं । जो भी इन्द्रियाँ शिथिल हो गयी हों, उनको पुष्ट करने के लिए चन्द्रमा की चाँदनी में खीर रखना और भगवान को भोग लगाकर अश्विनी कुमारों से प्रार्थना करना कि ‘हमारी इन्द्रियों का बल-ओज बढ़ायें ।’ फिर वह खीर खा लेना ।

इस रात सूई में धागा पिरोने का अभ्यास करने से भी नेत्रज्योति बढ़ती है ।

शरद पूनम दमे की बीमारी वालों के लिए वरदान का दिन है।छोटी इलाईची को, चन्द्रमा की चाँदनी में रखी हुई खीर में मिलाकर खा लेना और रात को सोना नहीं । दमे का दम निकल जायेगा ।चन्द्रमा की चाँदनी गर्भवती महिला की नाभि पर पड़े तो गर्भ पुष्ट होता है । शरद पूनम की चाँदनी का अपना महत्त्व है लेकिन बारहों महीने चन्द्रमा की चाँदनी गर्भ को और औषधियों को पुष्ट करती है।

अमावस्या और पूर्णिमा को चन्द्रमा के विशेष प्रभाव से समुद्र में ज्वार-भाटा आता है । जब चन्द्रमा इतने बड़े दिगम्बर समुद्र में उथल-पुथल कर विशेष कम्पायमान कर देता है तो हमारे शरीर में जो जलीय अंश है, सप्तधातुएँ हैं, सप्त रंग हैं, उन पर भी चन्द्रमा का प्रभाव पड़ता है । इन दिनों में अगर काम-विकार भोगा तो विकलांग संतान अथवा जानलेवा बीमारी हो जाती है और यदि उपवास, व्रत तथा सत्संग किया तो तन तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि में नयापन आता है।

खीर को बनायें अमृतमय प्रसाद

खीर को रसराज कहते हैं । सीताजी को अशोक वाटिका में रखा गया था । रावण के घर का क्या खायेंगी सीताजी ! तो इन्द्रदेव उन्हें खीर भेजते थे।

खीर बनाते समय घर में चाँदी का गिलास आदि जो बर्तन हो, या शुद्ध चांदी का सिक्का अथवा गहना आवश्य रात भर डाल कर रखें चांदी गरम खीर में डालेंआजकल जो मेटल (धातु) का बनाकर चाँदी के नाम से देते हैं वह नहीं, असली चाँदी के बर्तन अथवा असली सोना धो-धा के खीर में डाल दो तो उसमें रजतक्षार या सुवर्णक्षार आयेंगे । लोहे की कड़ाही अथवा पतीली में खीर बनाओ तो लौह तत्त्व भी उसमें आ जायेगा।

इलायची, खजूर या छुहारा डाल सकते हो लेकिन बादाम, काजू, पिस्ता, चारोली ये रात को पचने में भारी पड़ेंगे ।

रात्रि आठ बजे महीन कपड़े से ढँककर चन्द्रमा की चाँदनी में रखी हुई खीर 12 बजे के आसपास भगवान को भोग लगा कर प्रसादरूप में खा लेनी चाहिए । लेकिन देर रात को खाते हैं इसलिए थोड़ी कम खाना और खाने से पहले एकाध चम्मच ईश्वर के हवाले भी कर देना । मुँह अपना खोलना और भाव करना : ‘लो प्रभु ! आप भी लगाओ भोग ।’ और थोड़ी बच जाय तो फ्रिज में रख देना । सुबह गर्म करके खा सकते हो ।
(खीर दूध, चावल, मिश्री, चाँदी, चन्द्रमा की चाँदनी – इन पंचश्वेतों से युक्त होती है, अतः सुबह बासी नहीं मानी जाती ।)

शरद पूनम का आत्मकल्याणकारी संदेश

रासलीला इन्द्रियों और मन में विचरण करनेवालों के लिए अत्यंत उपयोगी है लेकिन राग, ताल, भजन का फल है भगवान में विश्रांति । रासलीला के बाद गोपियों को भी भगवान ने विश्रांति में पहुँचाया था । श्रीकृष्ण भी इसी विश्रांति में तृप्त रहने की कला जानते थे । संतुष्टि और तृप्ति सभीकी माँग है । चन्द्रमा की चाँदनी में खीर पड़ी-पड़ी पुष्ट हो और आप परमात्म-चाँदनी में विश्रांति पाओ ।
चन्द्रमा के दर्शन करते जाना और भावना करना कि ‘चन्द्रमा के रूप में साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा की रसमय, पुष्टिदायक रश्मियाँ आ रही हैं । हम उसमें विश्रांति पा रहे हैं । पावन हो रहा है मन, पुष्ट हो रहा है तन, ॐ शांति… ॐ आनंद…’ पहले होंठों से, फिर हृदय से जप और शांति… निःसंकल्प ईश्वर में विश्रांति पाते जाना । परमात्म-विश्रांति, परमात्म-ज्ञान के बिना भौतिक सुख-सुविधाएँ कितनी भी मिल जायें लेकिन जीवात्मा की प्यास नहीं बुझेगी, तपन नहीं मिटेगी ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ । (रामायण)

श्रीकृष्ण गोपियों से कहते हैं कि ‘‘तुम प्रेम करते-करते बाहर-ही-बाहर रुक न जाओ बल्कि भीतरी विश्रांति द्वारा मुझ अपने अंतरात्मा प्रेमास्पद को भी मिलो, जहाँ तुम्हारी और हमारी दूरी खत्म हो जाती है । मैं ईश्वर नहीं, तुम जीव नहीं, हम सब ब्रह्म हैं – वह अवस्था आ जाय ।’’ श्रीकृष्ण जो कहते हैं, उसको कुछ अंश में समझकर हम स्वीकार कर लें, बस हो गया ।

शरद पूर्णिमा
सबके लिए सुखद शीतल ठंडी दे छाँव
7अक्टूबर 2025
आज आश्विन मास का अंतिम दिवस शरद पूर्णिमा है
कार्तिक मास के अभिनंदन हेतु स्वयं चांद अपनी प्यारी प्रिया चांदनी द्वारा खूबसूरत चौड़ी मुस्कान देते हुए तैयार खड़ा हो जाता है।
सचमुच अति मनोहर चांदनी दूधिया श्वेत धवल उज्ज्वल चांदनी रात का दृश्य हृदय को आल्हादित किये बगैर नहीं रहता है।
आज की ही रात चन्द्रमा की चांदनी में खीर को ठंडी कर रख सुबह यज्ञ में प्रसाद लगा कर खाने का, आंखों की ज्योति वर्धन करने निरीक्षण परीक्षण करने का अति उत्साही, मंगलकारी यह प्राकृतिक पावन पर्व है..
कहा जाता है यदि आज के दिन की बनाई हुई खीर में अर्जुन की छाल का चूर्ण मिला दिया जाए, फिर उस खीर को रात भर बाहर किसी बर्तन में भर, सूती झीने कपड़े से मुंह बांधकर किसी दीवाल से अधर लटका दिया जाए (जहां बिल्ली आदि न चढ़ सके) तत्पश्चात खाने से जीवन भर के लिए दमा या अस्थमा रोग से छुटकारा मिल जाता है और ह्रदय को शक्ति मिलती है।
चांदी के कटोरे में लगभग पांच से 10 ग्राम चूर्ण डाल कर खीर चांदनी में रात भर रखने से चंद्रमा की किरणें खीर पर पड़ औषधीय लाभ को चौगुना कर देती हैं।
प्रकृति के द्वारा इस अनमोल अनुपम औषधीय लाभ को हम सभी को ग्रहण कर उस परमात्मा का अवश्य धन्यवाद करना चाहिये जिसने सूरज चांद ऋतुएं बना औषधियों का ग्रहण पान कर स्वस्थ दीर्घायु हो आनंद से जीने हमें सुअवसर प्रदान किया है।
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में, स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में। पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से, मानों झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥ आप सभी को शरद पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें ।।
यशपाल सिंह आयुर्वेद रत्न

पंजाब के स्वतंत्रता सेनानी: बाबा खड़क सिंह की आज पुण्य तिथि है

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​’पंजाब के गांधी’ के नाम से विख्यात बाबा खड़क सिंह (6 जून 1867 – 6 अक्टूबर 1963) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक महान और निडर सेनानी, सिख राजनीतिक नेता, और एक प्रमुख राष्ट्रवादी थे। उन्होंने न केवल ब्रिटिश राज के विरुद्ध लड़ाई लड़ी बल्कि सिख धार्मिक संस्थानों, विशेष रूप से गुरुद्वारों, के सुधार और प्रबंधन के लिए अकाली आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जीवन त्याग, समर्पण और अडिग राष्ट्रवाद का प्रतीक था।

बाबा खड़क सिंह का जन्म 6 जून 1867 को सियालकोट, पंजाब (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। उनके पिता, राय बहादुर सरदार हरि सिंह, एक समृद्ध ठेकेदार और उद्योगपति थे, जिससे खड़क सिंह को एक आरामदायक पृष्ठभूमि मिली। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूलों से पूरी की और फिर लाहौर विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। बाद में, उन्होंने लॉ कॉलेज, इलाहाबाद में प्रवेश लिया, लेकिन अपने पिता के निधन के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर पारिवारिक व्यवसाय और संपत्ति की देखभाल के लिए वापस लौटना पड़ा।प्रारंभिक सार्वजनिक जीवन: शिक्षा पूरी न कर पाने के बावजूद, वह जल्द ही सिख मुद्दों और व्यापक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो गए। 1915 में, उन्होंने लाहौर में आयोजित सिख शैक्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता की, जिससे उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत हुई।

​बाबा खड़क सिंह का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान बहुआयामी और अद्वितीय था। उन्हें उनके साहसी रुख और ब्रिटिश सरकार के सामने न झुकने के लिए जाना जाता था। वह अपने विचारों में नरमपंथियों से अधिक चरमपंथी थे और उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सीधी कार्रवाई पर जोर दिया।

​सेंट्रल सिख लीग के अध्यक्ष: वह सेंट्रल सिख लीग के अध्यक्ष बने, एक ऐसा मंच जिसके माध्यम से उन्होंने पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य में सिखों को संगठित किया और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की।

​असहयोग आंदोलन में भूमिका: उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का सक्रिय रूप से समर्थन किया। इस दौरान, उन्होंने ब्रिटिश उपाधियाँ, सम्मान, और सरकारी अदालतों का बहिष्कार करने का आह्वान किया।

​जेल और यातना: अपने राष्ट्रवादी कार्यों के कारण उन्हें कई बार कैद किया गया और लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा। ब्रिटिश दमन के बावजूद, उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया।

​राष्ट्रीय एकता पर जोर: बाबा खड़क सिंह ने हमेशा राष्ट्रीय एकता पर बल दिया। उन्होंने मुस्लिम लीग द्वारा प्रस्तावित पाकिस्तान की मांग और सिखों के लिए एक अलग पंजाब की मांग का भी कड़ा विरोध किया, जिससे यह सिद्ध होता है कि वह अखंड भारत के प्रबल समर्थक थे।

​अकाली आंदोलन और धार्मिक सुधार

​बाबा खड़क सिंह का एक और महत्वपूर्ण योगदान अकाली आंदोलन में था, जिसका उद्देश्य गुरुद्वारों को भ्रष्ट और ब्रिटिश-समर्थक मंहतों (पुजारियों) के चंगुल से मुक्त कराना और उनका प्रबंधन सिख समुदाय के हाथों में सौंपना था।

​शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC): अकाली आंदोलन के परिणामस्वरूप शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC) का गठन हुआ, जो सिख गुरुद्वारों के प्रबंधन और नियंत्रण के लिए जिम्मेदार है।

​SGPC के पहले अध्यक्ष: बाबा खड़क सिंह SGPC के वस्तुतः पहले अध्यक्ष थे। उन्होंने गुरुद्वारा सुधार के लिए अथक प्रयास किया, जिसमें स्वर्ण मंदिर (Golden Temple) की चाबियों को अंग्रेजों से वापस लेने का प्रसिद्ध संघर्ष शामिल है।

​स्वर्ण मंदिर की चाबी का मोर्चा (Key Affair): 1921 में, ब्रिटिश अधिकारियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की चाबियाँ जब्त कर ली थीं। बाबा खड़क सिंह के नेतृत्व में एक शक्तिशाली और सफल आंदोलन चलाया गया। आखिरकार, ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और चाबियाँ वापस करनी पड़ीं। इस जीत को महात्मा गांधी ने “भारत की स्वतंत्रता की पहली निर्णायक लड़ाई” कहा था।

​सिख गुरुद्वारा अधिनियम, 1925: अकाली आंदोलन की परिणति 1925 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम के अधिनियमन में हुई, जिसने कानूनी तौर पर निर्वाचित सिख प्रतिनिधियों द्वारा गुरुद्वारों के प्रबंधन को सुनिश्चित किया।

​सांप्रदायिक पुरस्कार (Communal Award) का विरोध

​1932 में, ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक पुरस्कार की घोषणा की, जिसमें भारतीय अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचक मंडल (separate electorates) प्रदान किए गए थे। बाबा खड़क सिंह ने इसका भी मुखर विरोध किया, क्योंकि उनका मानना था कि यह भारत की राष्ट्रीय और सांप्रदायिक एकता को भंग कर देगा। उन्होंने महात्मा गांधी के साथ मिलकर इस पुरस्कार का विरोध किया, जब गांधीजी पुणे की यरवदा जेल में उपवास पर थे।

​अंतिम वर्ष और विरासत

​भारत की स्वतंत्रता के बाद भी बाबा खड़क सिंह ने सक्रिय राजनीति में भागीदारी जारी रखी। उन्होंने 6 अक्टूबर 1963 को 96 वर्ष की आयु में दिल्ली में अंतिम सांस ली।

​विरासत: बाबा खड़क सिंह को उनकी असाधारण बहादुरी, निस्वार्थता, और राष्ट्रवाद के लिए याद किया जाता है। उन्हें अक्सर ‘पंजाब के गांधी’ कहा जाता था क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान गांधीजी के समान ही महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक था, खासकर पंजाब में।

​स्मारक: नई दिल्ली के कनॉट प्लेस क्षेत्र की एक प्रमुख सड़क का नाम उनके सम्मान में बाबा खड़क सिंह मार्ग रखा गया है। 1988 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था।

​बाबा खड़क सिंह का जीवन इस बात का प्रमाण है कि राष्ट्रीय आंदोलन में धार्मिक सुधार और राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई साथ-साथ लड़ी जा सकती है। उन्होंने सिख समुदाय को न केवल राजनीतिक रूप से जागरूक किया, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा में भी सफलतापूर्वक एकीकृत किया।