लगातार व्यवधानों के दौर में संसदीय लोकतंत्र को सशक्त करने की संस्थागत राह
— डॉ. प्रियंका सौरभ
भारतीय संसद लोकतंत्र की आत्मा मानी जाती है। यही वह मंच है जहाँ जनता की विविध आकांक्षाएँ, असहमतियाँ और अपेक्षाएँ बहस के माध्यम से नीति और कानून का रूप लेती हैं। किंतु हाल के वर्षों में संसद की कार्यवाही बार-बार बाधित होने, प्रश्नकाल के स्थगित रहने, विधेयकों के बिना पर्याप्त चर्चा पारित होने और सदन के समय से पहले स्थगन ने इसकी गरिमा और प्रभावशीलता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं। संसद, जो संवाद और सहमति का प्रतीक होनी चाहिए थी, वह अनेक अवसरों पर टकराव और अवरोध का अखाड़ा बनती दिखी है। यह स्थिति केवल संसदीय परंपराओं का क्षरण नहीं, बल्कि प्रतिनिधि लोकतंत्र की जड़ों के कमजोर होने का संकेत भी है।
संसद में व्यवधान कोई नया विषय नहीं है। विरोध, असहमति और सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए प्रतिपक्ष की भूमिका लोकतंत्र में अनिवार्य है। किंतु जब विरोध का प्रमुख औजार निरंतर हंगामा, नारेबाजी और कार्यवाही ठप करना बन जाए, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या संसद अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर पा रही है। बार-बार स्थगित होने वाली कार्यवाही का सबसे बड़ा नुकसान जनता को होता है, क्योंकि संसद का हर खोया हुआ घंटा नीतिगत विमर्श, जनहित के मुद्दों और विधायी समीक्षा से चूक का प्रतीक बन जाता है। यह स्थिति कार्यपालिका को अधिक शक्तिशाली बनाती है और विधायिका की निगरानी भूमिका को कमजोर करती है।
लोकतांत्रिक शासन में संसद केवल कानून पारित करने की मशीन नहीं होती, बल्कि वह कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने, नीतियों की आलोचनात्मक समीक्षा करने और समाज के विभिन्न वर्गों की आवाज़ को सामने लाने का मंच भी होती है। जब संसद बाधित होती है, तब कार्यपालिका पर सवाल पूछने के अवसर कम होते हैं, अध्यादेशों और ‘गिलोटिन’ जैसी प्रक्रियाओं के माध्यम से विधायी निगरानी कमजोर पड़ती है और निर्णय कुछ सीमित हाथों में केंद्रित होने लगते हैं। इस संदर्भ में संस्थागत सुधारों की आवश्यकता केवल तकनीकी नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक नैतिकता से जुड़ा प्रश्न है।
संसदीय समितियों की भूमिका इस बहस में अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत में संसदीय समितियाँ सदन के बाहर अपेक्षाकृत शांत वातावरण में विधेयकों की बारीकी से जांच करने, विशेषज्ञों और हितधारकों की राय लेने तथा राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर व्यावहारिक सुझाव देने का मंच प्रदान करती हैं। जब अधिकाधिक विधेयकों को बिना समिति जांच के पारित किया जाता है, तो कानून निर्माण की गुणवत्ता प्रभावित होती है। संस्थागत सुधार के रूप में सभी प्रमुख विधेयकों को अनिवार्य रूप से समितियों को भेजना न केवल विधायी प्रक्रिया को मजबूत करेगा, बल्कि संसद के भीतर होने वाले टकराव को भी कम कर सकता है, क्योंकि असहमति का समाधान बहस और प्रमाण के माध्यम से बाहर संभव होगा।
प्रश्नकाल को संसदीय लोकतंत्र की रीढ़ कहा जाता है। यही वह समय होता है जब निर्वाचित प्रतिनिधि सीधे-सीधे मंत्रियों से जनता से जुड़े सवाल पूछते हैं और सरकार को अपने निर्णयों का स्पष्टीकरण देना पड़ता है। प्रश्नकाल का बार-बार बाधित होना या औपचारिकता में सिमट जाना कार्यपालिका की जवाबदेही को कमजोर करता है। संस्थागत सुधार के तहत प्रश्नकाल की सुरक्षा और उसकी अनिवार्यता तय करना आवश्यक है, ताकि किसी भी परिस्थिति में इसे स्थगित न किया जाए। इससे सरकार और विपक्ष दोनों को संवाद के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
संसद में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखने के लिए आचार-संहिता और दंडात्मक प्रावधान भी आवश्यक हैं। वर्तमान में नियम तो मौजूद हैं, किंतु उनका निष्पक्ष और सुसंगत क्रियान्वयन अक्सर विवादों में घिर जाता है। यदि सांसदों के लिए स्पष्ट, पारदर्शी और सर्वसम्मति से तय आचार-संहिता हो तथा उसके उल्लंघन पर समान रूप से कार्रवाई हो, तो अव्यवस्थित आचरण पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है। यह सुधार केवल दंड देने का नहीं, बल्कि संसदीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने का माध्यम बन सकता है।
संसद के कार्यदिवसों की संख्या भी एक महत्वपूर्ण संस्थागत मुद्दा है। भारत की संसद कई विकसित लोकतंत्रों की तुलना में अपेक्षाकृत कम दिन बैठती है। सीमित सत्रों में भारी विधायी एजेंडा न केवल सांसदों पर दबाव बढ़ाता है, बल्कि सार्थक बहस की संभावना को भी कम करता है। न्यूनतम निश्चित बैठक दिनों वाला कैलेंडर तय करना और उसका सख्ती से पालन करना विधायी गुणवत्ता को बेहतर बना सकता है। अधिक बैठकों का अर्थ केवल अधिक कानून नहीं, बल्कि अधिक संवाद, अधिक प्रश्न और अधिक जवाबदेही है।
हालाँकि, इन संस्थागत सुधारों की राह आसान नहीं है। राजनीतिक दल अक्सर संसद के भीतर व्यवधान को एक वैध राजनीतिक हथियार मानते हैं। विपक्ष को यह आशंका रहती है कि सुधारों के नाम पर उसके विरोध के अधिकार को सीमित किया जाएगा, जबकि सत्ता पक्ष पर यह आरोप लगता है कि वह संस्थागत नियमों का उपयोग असहमति को दबाने के लिए कर सकता है। इसके अतिरिक्त, स्पीकर या सभापति की निष्पक्षता पर उठने वाले सवाल भी सुधारों के प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा बनते हैं। यदि पीठासीन अधिकारी पर पक्षपात का आरोप लगे, तो अनुशासनात्मक कार्रवाई भी विवाद का कारण बन जाती है।
कार्यपालिका का बढ़ता प्रभुत्व भी एक गंभीर चिंता है। अध्यादेशों का बढ़ता प्रयोग, धन विधेयकों के दुरुपयोग और समयाभाव के नाम पर बहस सीमित करने की प्रवृत्ति संसद की भूमिका को कमजोर करती है। ऐसे में केवल नियम बदलना पर्याप्त नहीं होगा; सत्ता और विपक्ष दोनों को संसदीय मर्यादाओं के प्रति प्रतिबद्धता दिखानी होगी। संस्थागत सुधार तभी सार्थक होंगे जब उन्हें राजनीतिक इच्छाशक्ति और लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन प्राप्त हो।
अंततः संसद की मजबूती किसी एक सुधार या नियम से सुनिश्चित नहीं हो सकती। यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें संस्थाएँ, परंपराएँ और राजनीतिक आचरण तीनों समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। संसद को फिर से बहस, सहमति और उत्तरदायित्व का मंच बनाने के लिए आवश्यक है कि विरोध संवाद में बदले, असहमति अवरोध में नहीं, और शक्ति संतुलन संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप बना रहे। तभी भारतीय संसदीय लोकतंत्र न केवल व्यवधानों से उबर पाएगा, बल्कि एक जीवंत, प्रतिनिधिक और जवाबदेह संस्था के रूप में अपनी भूमिका को पुनः स्थापित कर सकेगा।
-प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,


