
भारतीय फिल्म संगीत के स्वर्णयुग में जो आवाज सबसे अलग, सबसे भावपूर्ण और सबसे जीवंत होकर उभरती है, वह गीता दत्त (जन्म 23 नवंबर 1930 – निधन 20 जुलाई 1972) की आवाज है। वह सिर्फ एक गायिका नहीं थीं, बल्कि एक ऐसी कलाकार थीं जिन्होंने गीतों में भावनाओं का संचार अपने सहज और स्वाभाविक अंदाज़ से किया। बंगाल के फरीदपुर जिले में जन्मी गीता दत्त का बचपन संगीत के वातावरण में बीता। उनके पिता देबेंद्रनारायण राय चौधरी उन्हें उच्च शिक्षा के लिए मुंबई लाए और यहीं से उनके संगीत का सफर शुरू होता है।
मुंबई आने के कुछ समय बाद ही संगीतकार हनुमान प्रसाद ने गीता की मधुर आवाज सुनकर उन्हें 1946 की फिल्म भक्त प्रह्लाद में गाने का अवसर दिया। हालांकि यह शुरुआत छोटी थी, लेकिन असली पहचान मिली एस.डी. बर्मन के संगीत निर्देशन में बनी फिल्म दो भाई (1947) के गीत “मेरा सुंदर सपना बीत गया” से। यह गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि फिल्म संगीत जगत में गीता दत्त एक रात में मशहूर हो गईं। उस समय किशोर उम्र की इस लड़की की आवाज में जो दर्द, मासूमियत और सहजता थी, वह किसी भी स्थापित गायिका से कम नहीं थी।
गीता दत्त का गायन किसी औपचारिक तकनीकी जटिलता पर निर्भर नहीं था, बल्कि उनका अंदाज़ अत्यंत प्राकृतिक था। उनकी आवाज में रुआब भी था, नज़ाकत भी, दर्द भी और शरारत भी। रोमांटिक गीत हों तो वे पूर्ण कोमलता के साथ दिल में उतर जाते थे। भावपूर्ण गीतों में उनकी आवाज किसी जलधारा-सी बहती थी ।भक्ति गीतों में उनकी आस्था का गहरा रंग सुनाई देता । उनके गाने सुनते समय यह सहज लगता है कि वह गीत को जी रही हैं, गा नहीं रही।
1940 और 50 का दशक गीता दत्त के फिल्मी सफर का स्वर्णकाल माना जाता है। एस.डी. बर्मन, ओ.पी. नैयर, हेमंत कुमार, और मदन मोहन जैसे संगीतकारों ने गीता की आवाज का भरपूर उपयोग किया। 1950 के दशक में उनके कुछ गीत, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में नई पहचान दी, ये हैं—
“बाज़ी” का तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले
“आर-पार” का बाबूजी धीरे चलना
“सीआईडी” का जाते हो जाते हो
“प्यासा” का जाने क्या तूने कही
इन गीतों में गीता दत्त की अदायगी ने उन्हें उस दौर की सबसे प्रिय पसारू गायिका बना दिया—यानी वह गायिका जिसकी आवाज हर तरह के भाव और सुरों में समान रूप से फैलती, बहती और असर छोड़ती।
प्यासा और गीता दत्त का अनंत योगदान
1957 में आई गुरु दत्त की फिल्म प्यासा ने गीता दत्त की कला को चरम सीमा पर दिखाया।
“जाने क्या तूने कही”, “आज सजन मोहे अंग लगा लो” जैसे गीत अनंत काल तक संगीत प्रेमियों के दिलों में रहेंगे। गीता दत्त की आवाज में दर्द, तड़प, प्रेम और अधूरी इच्छा—all blended perfectly.
यह वह दौर था जब गीता दत्त निजी जीवन के संघर्षों से भी गुजर रही थीं। पति गुरु दत्त के साथ संबंधों में तनाव और पारिवारिक उलझनों के बावजूद उनकी आवाज में जो भाव की गहराई आई, उसने उनके गायन को और अधिक परिपक्व बनाया।
गीता दत्त की शादी 1953 में फिल्म निर्देशक व अभिनेता गुरु दत्त से हुई थी। शुरुआत में यह रिश्ता बेहद खुशहाल रहा, पर बाद में गुरु दत्त और अभिनेत्री वहीदा रहमान के समीकरणों ने पारिवारिक व संगीत जीवन को प्रभावित किया। मानसिक तनाव, हुनर की बेइज्जती, असुरक्षा और टूटे पारिवारिक वातावरण ने गीता दत्त के मन को लगातार परेशान किया। इन स्थितियों का प्रभाव उनके स्वास्थ्य और पेशे पर भी पड़ा। शराब की ओर झुकाव और लगातार तनाव से उनका जीवन धीरे-धीरे अवसाद और बीमारी की ओर चला गया। संघर्षों के बावजूद उन्होंने कई यादगार गीत दिए 1960 के बाद जब उनका फिल्मी करियर प्रभावित होने लगा, तब भी बंगाली आधुनिक गीतों में उनका योगदान अद्भुत रहा।
“तुमि जे आमार”
“ए बार जोदी जाएगो चुले”
आज भी बंगाल में गीता दत्त को उतनी ही श्रद्धा से सुना जाता है जैसे लता मंगेशकर और हेमंत कुमार को।
असमय मृत्यु, लेकिन अमर आवाज
1972 में मात्र 41 वर्ष की आयु में गीता दत्त इस दुनिया से चल बसीं। लेकिन उनकी आवाज, उनकी मधुरता, और गीतों में उतारा गया उनका भाव—आज भी उतना ही ताज़ा है जितना उनके जीवनकाल में था।
उनके गाए हुए गीत समय की सीमा को पार कर चुके हैं। वह गायिका, जिसने कभी तकनीक पर भरोसा नहीं किया, बल्कि दिल और आत्मा से गाया, उनकी आवाज भारतीय संगीत की आत्मा बन गई।
निष्कर्ष
गीता दत्त सिर्फ एक पसारू गायिका नहीं थीं, बल्कि भारतीय फिल्म संगीत की वह कशिश थीं जो सहजता, आत्मीयता और नारी-संवेदनाओं का अद्भुत मेल थीं। उनके गीत आज भी रेडियो, मंचों और स्मृतियों में उसी मिठास के साथ गूंजते हैं।
उनका जीवन भले संघर्षों से भरा रहा, पर उनकी कला—अमर, अविरल और अनुपम है। गीता दत्त हिंदी सिनेमा का वह अध्याय हैं जिसे पढ़ना मन को भीगे बिना संभव नहीं।


