“फाइलों से फायर तक: अफसरशाही के भीतर सड़ता भेदभाव”

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(जातिगत अपमान, साइड पोस्टिंग और मानसिक उत्पीड़न — एक अफसर की चुप्पी जो अब चीख बन गई।) 

हरियाणा के सीनियर आईपीएस अफसर वाई पूरन कुमार की आत्महत्या ने प्रशासनिक जगत को झकझोर दिया है। उनके सुसाइड नोट में 15 आईएएस-आईपीएस अफसरों के नाम दर्ज हैं, जिन पर जातिगत अपमान और मानसिक उत्पीड़न के आरोप हैं। चंडीगढ़ पुलिस ने डीजीपी शत्रुजीत कपूर और रोहतक एसपी नरेंद्र बिजारणिया समेत 14 अधिकारियों पर एफआईआर नंबर 156 दर्ज की है। यह हरियाणा के इतिहास में पहला मौका है जब इतने सीनियर अफसरों पर एक साथ एससी/एसटी एक्ट और भारत न्याय संहिता की धाराओं के तहत मुकदमा चला है। यह मामला नौकरशाही के भीतर छिपे जातिगत भेदभाव पर गहरी चोट है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा की प्रशासनिक मशीनरी में सात अक्टूबर की सुबह एक ऐसी गूंज उठी, जिसने नौकरशाही के चेहरे से शालीनता का मुखौटा उतार फेंका। सीनियर आईपीएस अफसर वाई पूरन कुमार ने चंडीगढ़ के सेक्टर-11 स्थित अपने सरकारी आवास पर खुद को गोली मार ली। पर यह आत्महत्या नहीं, व्यवस्था के भीतर पल रहे जातिगत भेदभाव, सत्ता संघर्ष और संस्थागत उत्पीड़न का परिणाम थी। अब चंडीगढ़ पुलिस ने जो एफआईआर दर्ज की है, उसने इस सन्नाटे को कानून के दस्तक में बदल दिया है।

एफआईआर नंबर 156, जिसमें डीजीपी शत्रुजीत कपूर, रोहतक एसपी नरेंद्र बिजारणिया सहित 14 अफसर आरोपी बनाए गए हैं, भारतीय प्रशासनिक इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है। भारत न्याय संहिता की धारा 108, 3(5) और एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(r) के तहत दर्ज यह मामला इस सच्चाई की गवाही देता है कि नौकरशाही की ऊँची दीवारों के भीतर भी जाति आज भी उतनी ही जीवित है जितनी गांवों की गलियों में।

पूरन कुमार के सुसाइड नोट में 15 आईएएस-आईपीएस अफसरों के नाम दर्ज हैं। हर नाम एक आरोप है, और हर आरोप यह सवाल है कि क्या एक सविधानिक पद पर बैठा अधिकारी भी इस देश में अपनी जाति की जंजीरों से मुक्त नहीं हो सकता? उन्होंने लिखा कि उन्हें लगातार “साइड पोस्टिंग” दी जाती रही, उनकी योग्यता को दबाया गया, और उन्हें जातिगत तंज और धमकियों से मानसिक रूप से तोड़ा गया।

पूरन कुमार का कैरियर रिकॉर्ड इस बात की पुष्टि करता है। मेहनत और ईमानदारी से उन्होंने पुलिस सेवा में पहचान बनाई, पर उन्हें बार-बार “कम प्रभावी” पदों पर भेजा गया — कभी आईजी होमगार्ड, कभी आईजी टेलीकम्युनिकेशन। जब अप्रैल 2025 में उन्हें रोहतक रेंज का आईजी बनाया गया, तब उन्होंने यह सोचा होगा कि अब मेहनत का फल मिला है। लेकिन मात्र पांच महीने बाद ही उन्हें सुनारिया पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज भेज दिया गया — और वहीं से उनकी मानसिक गिरावट की शुरुआत हुई।

यह कहानी सिर्फ एक अफसर की नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम की वह बीमार रग है जो ‘योग्यता’ के सामने ‘पहचान’ को रखती है। हमारे समाज में आरक्षण भले अवसर देता हो, लेकिन व्यवस्था अक्सर उसे स्वीकार नहीं करती। वह दलित अफसर को ‘काबिल अधिकारी’ की जगह ‘आरक्षण वाला अफसर’ कहकर छोटा करती है। पूरन कुमार की मौत ने यह दिखा दिया कि जाति का भूत सिर्फ समाज में नहीं, बल्कि सत्ता के गलियारों में भी घूमता है।

पूरन कुमार की पत्नी आईएएस अमनीत पी. कुमार ने दो अलग-अलग प्रतिवेदन दिए — एक में केवल डीजीपी और एसपी के खिलाफ कार्रवाई की मांग की, और दूसरे में सभी 15 अफसरों की गिरफ्तारी की। यह एक अधिकारी की नहीं, बल्कि एक संवेदनशील पत्नी और सहकर्मी की लड़ाई है जो व्यवस्था से इंसाफ मांग रही है। उन्होंने कहा कि “यह सिर्फ एक सुसाइड नहीं, बल्कि एक सिस्टमेटिक मर्डर है।”

एफआईआर दर्ज होने के बाद राज्य के एससी समुदाय से जुड़े कई आईएएस, आईपीएस और एचसीएस अफसर पूरन परिवार के समर्थन में खुलकर सामने आए हैं। यह अपने आप में ऐतिहासिक है, क्योंकि आमतौर पर नौकरशाही के भीतर एक ‘मौन संस्कृति’ चलती है — जहां अधिकारी अपने साथी पर टिप्पणी करने से भी कतराते हैं। लेकिन इस बार सन्नाटा टूटा है। अफसर कह रहे हैं कि पूरन कुमार का मामला एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस मानसिकता की हत्या है जो समानता और सम्मान की उम्मीद करती थी।

मुख्यमंत्री नायब सैनी ने परिवार से मुलाकात की और निष्पक्ष जांच का भरोसा दिया है। पर सवाल यह है कि क्या यह भरोसा न्याय में बदलेगा? क्या राज्य सरकार इतनी हिम्मत दिखा पाएगी कि डीजीपी जैसे शीर्ष अधिकारी को छुट्टी पर भेजे और एसपी को हटाए? या यह भी किसी और “आंतरिक जांच” की तरह फाइलों में गुम हो जाएगा?

हरियाणा की ब्यूरोक्रेसी में वर्षों से यह चर्चा होती रही है कि जातिगत गुटबाजी अफसरों की नियुक्तियों, ट्रांसफरों और प्रमोशनों को प्रभावित करती है। “कौन किसका है” — यह बात यहां पद से बड़ी हो जाती है। और जब इस गुटबाजी में जाति का तड़का लग जाता है, तो योग्यता, सत्यनिष्ठा और संवेदनशीलता सब हाशिये पर चली जाती हैं।

पूरन कुमार की मौत इस झूठी प्रतिष्ठा वाली मशीनरी पर एक नैतिक प्रश्नचिह्न है। यह घटना सिर्फ एक आत्महत्या नहीं, बल्कि एक सिस्टम की आत्मा की हत्या है — जो अपने अफसरों को मानसिक और जातिगत रूप से इतना तोड़ देती है कि वे जीवन से हार मान लेते हैं।

इस घटना के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि अब नौकरशाही के भीतर जातिगत भेदभाव पर खुली चर्चा शुरू होगी। लेकिन डर यह भी है कि यह मामला किसी प्रशासनिक औपचारिकता में तब्दील कर दिया जाएगा — जैसे हर बार होता है। जांच कमेटी बनेगी, बयान होंगे, और अंत में रिपोर्ट यह कहेगी कि “व्यक्तिगत कारणों से आत्महत्या थी।”

पूरन कुमार का लिखा हर शब्द आज भी सवाल बनकर हवा में तैर रहा है —

> “जब न्याय देने वाले ही अन्याय करने लगें, तो शिकायत किससे करें?”

एक संवेदनशील अफसर ने अपनी जान देकर यह दिखा दिया कि जाति का दर्द कुर्सी की ऊंचाई से नहीं मिटता। आज यह जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं, बल्कि समाज की भी है कि वह यह स्वीकार करे — जातिवाद अब सिर्फ राजनीति नहीं, प्रशासन की आत्मा में भी जहर की तरह घुल चुका है।

पूरन कुमार चले गए, पर उनके सुसाइड नोट ने यह साफ कर दिया है कि अब नौकरशाही की चुप्पी भी एक अपराध है। उनकी मौत व्यवस्था से यह मांग करती है कि वह सिर्फ दोषियों को नहीं, बल्कि अपनी सोच को भी कटघरे में खड़ा करे। क्योंकि जब तक सिस्टम खुद को नहीं बदलेगा, तब तक हर पूरन कुमार के भीतर कोई न कोई गोली तनी रहेगी।

✍️

 डॉ. सत्यवान सौरभ

(स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार)

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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