जूता उठाने से न्याय नहीं, लोकतंत्र घायल हुआ

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सुप्रीम कोर्ट देश की न्याय व्यवस्था की वह सर्वोच्च संस्था है। जहाँ से अंतिम न्याय की उम्मीद की जाती है। यहाँ से निकला हर शब्द, हर फैसला संविधान की आत्मा को आकार देता है। ऐसे में अगर उसी अदालत के भीतर कोई वकील जो खुद न्याय का साथी कहलाता है। जूता निकालने लगे, हंगामा करें तो यह केवल अनुशासन का उल्लंघन नहीं, बल्कि लोकतंत्र की नींव को हिलाने वाली घटना बन जाती है।हालिया मामला वकील राकेश किशोर का है। जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अदालत में हंगामा करते हुए जूता मारने की कोशिश की। उनका कहना था कि सनातन का अपमान बर्दाश्त नहीं। उनकी भावनाएँ चाहे सच्ची रही हो पर उनका तरीका गलत था बेहद गलत। अदालतें भावनाओं से नहीं, तथ्यों और कानून से चलती हैं। यदि अदालत में बैठे व्यक्ति ही भावनाओं के वशीभूत होकर कानून तोड़ने लगें तो न्याय का अर्थ ही समाप्त हो जाएगा।

बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने इस घटना पर त्वरित कार्रवाई करते हुए राकेश किशोर की वकालत पर अस्थायी रोक लगा दी। यह कदम केवल अनुशासन के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश को संदेश देने के लिए था कि कानून के सामने सब बराबर हैं, चाहे वह आम आदमी हो या अधिवक्ता, लेकिन सच यह भी है कि अगर यही हरकत कोई आम नागरिक करता तो उसका हश्र कुछ और होता। उसे अदालत की अवमानना में तुरन्त हिरासत में लिया जाता शायद जेल भी भेज दिया जाता। यह फर्क सोचने पर मजबूर करता है कि क्या कानून का सम्मान केवल कमजोरों से अपेक्षित है। इस घटना ने अदालत की गरिमा के साथ-साथ न्यायिक समुदाय की छवि पर भी सवाल खड़े किए हैं। वकील केवल अपने मुवक्किल के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि न्यायिक प्रणाली का एक आवश्यक स्तंभ हैं। यदि वही स्तंभ चरमपंथी प्रतिक्रिया का प्रतीक बनने लगे तो समाज में न्याय पर भरोसा कैसे बचेगा। फिर भी घटना का दूसरा पहलू भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज समाज में धार्मिक संवेदनशीलता और असहिष्णुता दोनों तेजी से बढ़ रही हैं। सोशल मीडिया पर भावनाओं को भड़काने वाले संदेश, राजनीति से प्रेरित नैरेटिव और आंशिक सच्चाईयां जनता को भ्रमित कर देती हैं। जब लोगों को लगता है कि उनकी आस्था का अपमान हुआ है तो वे प्रतिक्रिया में अराजकता तक पहुँच जाते हैं, लेकिन अदालत वह जगह नहीं है जहाँ धार्मिक भावनाओं का विस्फोट हो। वहाँ केवल कानून की भाषा बोली जाती है। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने इस मामले में अत्यंत संतुलित रुख अपनाया। उन्होंने कहा कि उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। यही न्यायिक गरिमा की परिपक्वता है। प्रतिक्रिया नहीं, स्पष्टीकरण। यह सबक उन सबके लिए भी है जो ऊँचे पदों पर हैं‌। न्यायिक, प्रशासनिक या राजनीतिक कि उनके शब्दों का असर लाखों पर पड़ता है।इसलिए देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों को अपने वक्तव्यों में मर्यादा और संतुलन बनाए रखना चाहिए। एक असावधान टिप्पणी कभी-कभी उस आग को हवा दे देती है जिसे शांत करने में वर्षों लग जाते हैं। अब सवाल केवल राकेश किशोर या बी.आर. गवई का नहीं है। सवाल इस पूरे दौर का है जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संवेदनशीलता के बीच की रेखा धुंधली हो गई है। लोकतंत्र में असहमति जरूरी है, लेकिन मर्यादा उससे भी ज्यादा जरूरी है। जब अभिव्यक्ति मर्यादा खो देती है तो वह लोकतंत्र की ताकत नहीं, बल्कि उसकी कमजोरी बन जाती है।इस घटना से हमें दो स्पष्ट संदेश लेने चाहिए। पहला, कोई भी व्यक्ति चाहे वह वकील हो या आम नागरिक, न्यायपालिका की गरिमा से ऊपर नहीं है। अदालत न्याय का मंदिर है और वहाँ प्रवेश श्रद्धा और संयम से ही होना चाहिए। दूसरा, सत्ता या न्याय के ऊँचे पदों पर बैठे लोगों को अपने शब्दों और आचरण में संयम रखना चाहिए, क्योंकि उनका हर शब्द जनता की भावनाओं को दिशा देता है। यदि अदालतों में इस तरह की घटनाएं दोहराई जाने लगीं तो आम नागरिक के मन में न्यायपालिका के प्रति जो सम्मान है वह धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगा और जब अदालतों पर भरोसा टूटता है तो समाज अराजकता की ओर बढ़ता है। इसलिए बार काउंसिल का यह कदम केवल दंड नहीं, बल्कि एक चेतावनी है कि न्याय की चौखट पर कोई निजी या धार्मिक आक्रोश नहीं लाया जा सकता।
आख़िर में यह याद रखना होगा कि अदालतें भावनाओं का मंच नहीं, बल्कि संविधान की मर्यादा का केंद्र हैं। असहमति व्यक्त करना लोकतंत्र की खूबसूरती है, लेकिन उसे संयमित रखना उसकी गरिमा है। राकेश किशोर की घटना से सबक यही है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी जब मर्यादा खो देती है तो वह न्याय नहीं, अराजकता को जन्म देती है।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

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