बिहार : अब ‘बेचारगी’ के नाम पर वोट की दरकार …

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                                                               तनवीर जाफ़री

 बिहार चुनाव की तिथि जैसे जैसे क़रीब आती जा रही है, वैसे वैसे बिहार में हो रहे चुनाव प्रचार में भी तरह तरह के रंग भरते देखे जा रहे हैं। बिहार की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की नीतीश सरकार ने सत्ता का पूरा लाभ उठाते हुये आदर्श आचार संहिता लागू होने से कुछ ही मिनट पहले कई ऐसी महत्वपूर्ण घोषणाएं और धन वितरण किए जिनसे वहां के मतदाताओं के एक वर्ग विशेषकर महिलाओं को लाभ पहुंचा। जैसे महिला उद्यमी योजना के तहत 10,000 रुपये की पहली क़िस्त 6 अक्टूबर 2025 यानी चुनाव की तारीख़ की घोषणा होने से  कुछ ही मिनट पहले हस्तांतरित की गयी । नितीश सरकार द्वारा यह दावा किया गया कि इससे 21 लाख महिलाएं लाभान्वित होंगी। इसके अतिरिक्त सामाजिक सुरक्षा पेंशन में वृद्धि,मासिक पेंशन ₹400 से बढ़ाकर ₹1,100 करने की आदि की घोषणा गई। इसी तरह विपक्षी महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने भी लोकलुभावन योजनाओं  का पिटारा खोल कर रख दिया है। राज्य के हर परिवार को एक सरकारी नौकरी सहित महिलाओं को लुभाने तक के लिए बड़ा ऐलान किया। उन्होंने वादा किया है कि सत्ता में आने पर जीविका दीदियों को 30,000 रुपये मासिक वेतन वाली सरकारी नौकरी मिलेगी। साथ ही, ब्याज़ -मुक्त लोन और अन्य सुविधाएं भी दी जाएंगी। ऐसी और भी कई लोकलुभावन घोषणाएं विपक्षी गठबंधन की ओर से की गयी हैं। बेशक ऐसी घोषणायें मतदाताओं को आकर्षित करने की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा हैं ।

            परन्तु सत्तारूढ़ राजग के बिहार विधानसभा के सबसे बड़े घटक दल भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं द्वारा चुनाव प्रचार में कुछ अलग ही रंग भरने की कोशिशें की जा रही हैं। बड़ा आश्चर्य है कि लगभग दो दशक से सत्ता में रहने वाला राजग आज भी बिहार वासियों को लालू राज के दौर का कथित जंगल राज याद दिला रहा है? ख़ासकर भाजपा के स्टार प्रचारक शोले फ़िल्म की तर्ज़ पर बिहार के मतदताओं को याद करा रहे हैं कि राजग गया तो प्रदेश में गुंडा राज स्थापित हो जायेगा। यह बात तब कही जा रही है जबकि आज भी बिहार में सरे आम अपहरण की घटनाएं हो रही हैं। इसी वर्तमान चुनाव में राजनैतिक लोगों की हत्याएं हो रही हैं। अस्पताल में अपराधियों द्वारा दिन दहाड़े भर्ती मरीज़ की हत्या की जा रही है। पूरे राज्य में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। शराब बंदी के बावजूद तीन चार गुने रेट पर शराब की होम डिलेवरी की जा रही है। परन्तु ऐसी अनेक नाकामियों के बाद भी वोट, लालू के 20 वर्ष पुराने कथित गुंडा राज को याद दिला कर मांगा जा रहा है ?

              इसके अलावा क्या प्रधानमंत्री तो क्या गृह मंत्री जैसे भाजपाई स्टार प्रचारक, सभी अपनी पार्टी का वही सधा सधाया विद्वेषपूर्ण राग अलाप रहे हैं। महागठबंधन पर  ‘तुष्टिकरण ‘ का आरोप लगा रहे हैं तो कभी उनपर ‘घुसपैठियों’ को संरक्षण देने का इलज़ाम लगा रहे हैं। बिहार की सत्ता में सबसे बड़ी भागीदारी निभाने के बावजूद आज भी जिस भाजपा के पास अपना कोई भी राज्य स्तरीय नेता तक न हो जिसने आज तक साफ़ शब्दों में अपना मुख्य मंत्री का चेहरा घोषित न किया हो वह पार्टी कभी नेहरू को कोस कर तो कभी भावनात्मक बातें कर राज्य के लोगों की शिक्षा,बेरोज़गारी,स्वास्थ्य व क़ानून व्यवस्था जैसे मूल मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने का प्रयास कर रही है। स्वयं जिस पार्टी के प्रदेश के सबसे बड़े नेता व बिहार के निवर्तमान उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी की नक़ली डिग्री,उनपर बार बार अपना नाम बदलने यहाँ तक कि उनपर सामूहिक हत्याएं करने जैसे आरोप विरोधियों द्वारा संवाददाता सम्मेलन में लगाये जा रहे हों उस भाजपा के मंच से स्वयं प्रधानमंत्री मोदी लोगों को यह बता रहे हैं कि राहुल व तेजस्वी ज़मानत पर घूम रहे हैं ?

              और अब चुनाव क़रीब आते आते तो प्रधानमंत्री मोदी ने अपना चिरपरिचित ‘बेचारगी ‘ दिखाने वाला कार्ड भी खेलना शुरु कर दिया है। विधानसभा चुनाव के दौरान, दरभंगा में कांग्रेस के मंच से उनकी दिवंगत माँ के विरुद्ध किसी व्यक्ति के द्वारा बेहद अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया। इसी बात को याद दिलाकर मोदी ने बिहार की एक सभा में भावुक होकर कहा कि “जो गालियां उनकी मां को दी गई हैं, असल में वो देश की हर मां का अपमान है।” उन्होंने बार-बार इस अपमान का जिक्र किया और इसे चुनावी मुद्दा बनाते हुये वोट मांगे। इसी तरह मोदी पहले भी विभिन्न राज्यों में अपने अपमानों की पूरी सूची का ब्यौरा जनसभाओं में पेश करते रहे हैं। जैसे कब उन्हें ‘मौत का सौदागर’, बताया गया तो कब उन्हें ‘नीच’, ‘हिटलर’ या ‘गंदी नाली का कीड़ा’ ‘चोर’ या ‘रावण’ कहा गया। और यह अपमान की सूची गिनाने के साथ ही वे कहना नहीं भूलते कि जनता इन अपमानों का जवाब देगी।

             उधर विपक्ष ख़ासकर कांग्रेस के पास भी मोदी व अन्य भाजपा नेताओं द्वारा की गयी बदज़ुबानियों की लंबी सूची है परन्तु कांग्रेस कम से कम वोट भुनाने के लिये जनसभाओं में उन शब्दावलियों को नहीं दोहराती कि कब मोदी ने 50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड कहा तो कब ‘कांग्रेस की विधवा’ जैसा अशोभनीय शब्द इस्तेमाल किया। न ही कांग्रेस कभी इंदिरा गाँधी व राजीव गाँधी की शहादत पर वोट मांगती है। न ही वोट की ख़ातिर जनता को बार बार यह याद दिलाती है। परन्तु आज भी भाजपा की ओर से इसी तरह की अपमानजनक बातें की जा रही हैं। जैसे कि गत 30 अक्टूबर को ही इसी बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान लखीसराय की एक रैली में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि “इतने ग़ुस्से से बटन दबाना कि करंट ‘इटली’ तक पहुंचे” यही बात इसी अंदाज़ में अमित शाह पहले भी असम व छत्तीसगढ़ सहित अन्य राज्यों की चुनावी सभाओं में करते रहे हैं। गोया भाजपा के नेताओं के भाषणों में मुख्यतः नफ़रत ,विद्वेष, दूसरों को भयभीत करना जैसे यह (कांग्रेस) सत्ता में आये तो तुम्हारी भैंस खोल ले जायेंगे,तुम्हारा मंगलसूत्र लेकर बेच डालेंगे, दूसरे धर्म के लोगों की जनसँख्या बढ़ जाएगी  जैसी बातें करते रहते हैं। परन्तु आश्चर्य तो तब होता है जबकि कभी मंच से ही अपना 56 इंच का सीना बताने वाले मोदी को ‘बेचारगी’ के नाम पर वोट की दरकार होती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि बेचारगी के नाम पर वोट माँगना दरअसल मतदाताओं का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाकर उनसे भावनात्मक व बेचारगी भरी बातें कर उनसे वोट झटकने का एक अभिनयपूर्ण तरीक़ा मात्र ही है इसके सिवा और कुछ भी नहीं।       

                                                                       

     तनवीर जाफ़री  

वरिष्ठ पत्रकार

विकसित भारत 2047 : करुणा, सह-अस्तित्व और पर्यावरणीय नैतिकता का नया घोष

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भारत का विकास केवल मनुष्य के हित तक सीमित न रहे, बल्कि सभी जीवों के प्रति करुणा और नैतिक ज़िम्मेदारी को अपनाकर ही सच्चे अर्थों में “विकसित” बन सकता है।

विकसित भारत 2047 का सपना तभी साकार होगा जब विकास का अर्थ केवल आर्थिक समृद्धि तक सीमित न रहकर सभी जीवों के कल्याण, सह-अस्तित्व और पर्यावरणीय संतुलन से जुड़ा हो। पशु कल्याण को नीति और विकास के केंद्र में लाना भारत की प्राचीन करुणामय परंपरा और संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है। करुणा, संवेदना और स्थायित्व पर आधारित यह दृष्टिकोण न केवल पारिस्थितिक संतुलन को मजबूत करेगा बल्कि भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित करेगा जो “सर्वभूत हिताय” के आदर्श को जीवन में उतारता है।

— डॉ प्रियंका सौरभ

भारत जब अपने स्वतंत्रता के शताब्दी वर्ष 2047 की ओर बढ़ रहा है, तो यह केवल आर्थिक विकास का लक्ष्य नहीं, बल्कि एक नैतिक, संतुलित और मानवीय समाज के पुनर्निर्माण का संकल्प भी है। परंतु यह संकल्प तभी सार्थक होगा जब विकास का आधार केवल मनुष्य नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के कल्याण पर टिका हो। आज जब “विकसित भारत” की बात होती है, तो उसका दायरा उद्योग, प्रौद्योगिकी, अवसंरचना और आय वृद्धि तक सीमित दिखाई देता है। परंतु एक सच्चा विकसित राष्ट्र वह होगा, जहाँ करुणा, सह-अस्तित्व और दया जैसे मानवीय गुण नीतियों और योजनाओं की आत्मा बनें।

भारत का संविधान इस दृष्टि का पथप्रदर्शक है। अनुच्छेद 48(क) राज्य को पर्यावरण और वन्य जीवों की रक्षा करने का निर्देश देता है, जबकि अनुच्छेद 51(क)(छ) प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्तव्य बताता है कि वह जीवित प्राणियों के प्रति करुणा रखे। ये प्रावधान केवल क़ानूनी नियम नहीं, बल्कि उस सभ्यतागत विचारधारा की पहचान हैं जो अहिंसा, दया और “वसुधैव कुटुम्बकम्” के सिद्धांतों पर आधारित है। भारत की संस्कृति सदियों से यह सिखाती आई है कि सृष्टि में हर जीव का अपना सम्मान, उद्देश्य और अधिकार है।

फिर भी, आधुनिक विकास की दौड़ में पशु कल्याण का स्थान कहीं पीछे छूट गया है। औद्योगिकीकरण, नगरीकरण और अंधाधुंध उपभोग की होड़ ने न केवल प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावित किया है, बल्कि असंख्य पशु प्रजातियों के अस्तित्व को भी संकट में डाल दिया है। गिद्धों की घटती संख्या, हाथियों और तेंदुओं के आवासों का सिकुड़ना, समुद्री जीवों पर प्रदूषण का प्रभाव — ये सब इस असंतुलन के द्योतक हैं। जब किसी पारिस्थितिकी तंत्र से एक भी प्रजाति विलुप्त होती है, तो उसका प्रभाव पूरे पर्यावरण और मानव जीवन पर पड़ता है।

विकास के नाम पर जब हम जंगलों को काटते हैं, नदियों को प्रदूषित करते हैं और जानवरों के प्राकृतिक निवास को नष्ट करते हैं, तो यह केवल प्रकृति का नुकसान नहीं बल्कि स्वयं मानवता की जड़ों को कमजोर करना है। इसलिए आवश्यक है कि भारत का “विकसित भारत 2047” का दृष्टिकोण केवल मनुष्य की भौतिक समृद्धि पर न टिके, बल्कि सभी प्राणियों के कल्याण को अपना मूल ध्येय बनाए।

पशु कल्याण को भारत के विकास दृष्टिकोण में शामिल करना केवल संवेदनशीलता का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह स्थायी विकास की शर्त है। भारत के ग्रामीण जीवन में पशुधन अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। करोड़ों परिवार पशुओं से प्राप्त दूध, ऊन, अंडे और अन्य उत्पादों पर निर्भर हैं। यदि इन पशुओं की देखभाल, आहार, स्वास्थ्य और व्यवहारिक सम्मान का ध्यान रखा जाए, तो उत्पादकता बढ़ेगी और ग्रामीण आय में स्थायित्व आएगा।

मानवीय पशुपालन और संसाधनों के संतुलित उपयोग से भूमि की उर्वरता, जल की गुणवत्ता और पर्यावरण की स्थिरता को भी लाभ होता है।

इसके साथ ही, पशु कल्याण का संबंध जनस्वास्थ्य से भी प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। कोविड महामारी और निपाह वायरस जैसी घटनाओं ने यह प्रमाणित किया है कि पशु स्वास्थ्य, मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण — ये तीनों एक दूसरे से गहराई से जुड़े हैं। यदि किसी एक क्षेत्र में असंतुलन होता है, तो उसका प्रभाव बाकी दोनों पर पड़ता है। इसीलिए आवश्यक है कि पर्यावरण, कृषि और स्वास्थ्य मंत्रालय मिलकर “एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण” की भावना को नीति स्तर पर लागू करें।

पशु कल्याण के दृष्टिकोण को शिक्षा, शहरी नियोजन, और उद्योग में भी स्थान मिलना चाहिए। विद्यालयों के पाठ्यक्रम में यदि सभी जीवों के प्रति करुणा और सह-अस्तित्व के मूल्य सिखाए जाएँ, तो आने वाली पीढ़ियाँ स्वभावतः संवेदनशील बनेंगी। शहरी योजनाओं में वन्यजीव गलियारे, सड़कों पर पशु-पार मार्ग और आवारा पशुओं के लिए मानवीय व्यवस्था शामिल की जानी चाहिए। दिल्ली-मुंबई राजमार्ग पर वन्यजीवों के लिए बनाए गए मार्ग इस दिशा में प्रेरक उदाहरण हैं।

भारत को अपने पुराने पशु संरक्षण कानूनों को भी अद्यतन करना चाहिए। “पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960” को समयानुकूल संशोधन की आवश्यकता है ताकि दंडात्मक प्रावधान कठोर हों और उनका प्रभाव वास्तविक रूप से दिखाई दे। इसके अतिरिक्त, पशु चिकित्सा सेवाओं का विस्तार और वैज्ञानिक देखरेख से पशुधन की गुणवत्ता में सुधार संभव है।

तकनीकी नवाचार भी इस क्षेत्र में सहायक हो सकते हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित निगरानी, उपग्रह मानचित्रण और इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा प्रणालियाँ वन्यजीव संरक्षण में क्रांतिकारी भूमिका निभा रही हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में ई-निगरानी प्रणाली ने शिकार की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी की है। यह इस बात का प्रमाण है कि विज्ञान और करुणा का संयोजन हमारे पर्यावरण और जीवों के संरक्षण में सबसे प्रभावी उपाय बन सकता है।

पशु आधारित उद्योगों — जैसे दुग्ध, चमड़ा और वस्त्र — में “क्रूरता रहित उत्पादन” को बढ़ावा देने से न केवल नैतिक व्यापार को प्रोत्साहन मिलेगा बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। उपभोक्ताओं के बीच भी यह जागरूकता फैलानी होगी कि नैतिक उत्पादों का चयन एक सामाजिक उत्तरदायित्व है।

भारतीय दर्शन “अहिंसा परमो धर्मः” और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” केवल धार्मिक वाक्य नहीं हैं, बल्कि स्थायी जीवन का सूत्र हैं। “मिशन जीवनशैली” (जो पर्यावरण-अनुकूल जीवन अपनाने पर बल देता है) के साथ यदि पशु कल्याण को भी जोड़ा जाए, तो भारत एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरेगा जो विकास को करुणा के साथ जोड़ता है।

विकसित भारत का अर्थ तब ही सार्थक होगा जब विकास के पैमाने में केवल उत्पादन या आय नहीं, बल्कि नैतिकता, संवेदनशीलता और सह-अस्तित्व भी शामिल हों। हमें यह स्वीकार करना होगा कि इस पृथ्वी पर मनुष्य अकेला स्वामी नहीं है। हर जीव, चाहे छोटा हो या बड़ा, जीवन की शृंखला का एक आवश्यक हिस्सा है।

“सर्व भूत हित” की भावना — अर्थात् सभी प्राणियों के कल्याण की भावना — भारत की आत्मा में सदैव विद्यमान रही है। इसी भावना को आधुनिक नीति, प्रौद्योगिकी और शिक्षा में एकीकृत करने की आवश्यकता है।

जब भारत इस दिशा में आगे बढ़ेगा, तभी वह न केवल समृद्ध, बल्कि सच्चे अर्थों में सभ्य और संवेदनशील राष्ट्र कहलाएगा। विकसित भारत 2047 का वास्तविक अर्थ यही होगा — एक ऐसा भारत जो प्रगति के साथ करुणा को, विज्ञान के साथ संवेदना को, और विकास के साथ नैतिकता को लेकर चले। यही होगा उस स्वर्णिम युग का आरंभ, जहाँ हर प्राणी सुरक्षित, सम्मानित और सुखी होगा।

विकसित भारत का स्वप्न तभी साकार होगा जब हम यह समझेंगे कि विकास का असली पैमाना करुणा और नैतिकता है। जब भारत अपने विकास के पथ पर सभी प्राणियों को साथ लेकर चलेगा, तभी वह “विश्वगुरु” कहलाने का अधिकार पाएगा।

-प्रियंका सौरभ 

अलका सक्सेना की पुस्तक का विमोचन

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पुस्तक केवल एक जीवनी नहीं है, बल्कि एक दृष्टि और एक दर्शन है
अलका सक्सेना की पुस्तक ‘अब जब बात निकली है’ का विमोचन
जयपुर। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की पूर्व अतिरिक्त निदेशक और लेखिका
अलका सक्सेना की पुस्तक ‘अब जब बात निकली है’ का विमोचन शनिवार को झालाना
डूंगरी स्थित राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, जयपुर के सभागार में संपन्न
हुआ। विमोचन समारोह के मुख्य अतिथि पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव राकेश
वर्मा, विशिष्ट अतिथि, मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी गोविन्द पारीक और
पूर्व जनसम्पर्क आयुक्त सुनील शर्मा तथा वरिष्ठ पत्रकार महेश शर्मा थे।
अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार गुलाब बत्रा ने की। यह अवसर साहित्य और
सृजनधर्मिता के उत्सव की तरह सजीव हो उठा, जहाँ जनसम्पर्क, पत्रकारिता और
साहित्य जगत की कई प्रतिष्ठित हस्तियाँ शामिल हुईं।
पुस्तक पर अपने विचार रखते हुए अतिथि वक्ताओं ने कहा कि यह कृति न केवल
संवेदनशील अभिव्यक्तियों का संकलन है, बल्कि इसमें जीवन के गहरे अनुभवों
की झलक मिलती है। साथ ही मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने को प्रेरित करती
हैं। वक्ताओं ने लेखिका के रचनात्मक और प्रेरणादायक कार्य की सराहना करते
हुए कहा, यह कृति केवल एक जीवनी नहीं है, बल्कि एक दृष्टि और एक दर्शन
है। उन्होंने कहा जीवन हमें यह सिखाता है कि जनसम्पर्क केवल पुस्तकों तक
सीमित ज्ञान नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की कला है। जनसंपर्क ऐसी
प्रक्रिया है, जो सम्पूर्ण सत्य एवं ज्ञान पर आधारित सूचनाओं के
आदान-प्रदान के लिए की जाती हैं। अतिथियों ने पुस्तक लेखक अलका सक्सेना
को बधाई देते हुए कहा, यह पुस्तक न केवल ज्ञानवर्धक है,बल्कि हमें सोचने
के लिए प्रेरित करती है।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि राकेश वर्मा ने जनसम्पर्क निदेशक के अपने
कार्यकाल के दिनों को याद करते हुए कहा जन संपर्क विभाग एक ऐसा विभाग है
जो सरकार की छवि निखारने के साथ उसे एक नई ऊर्जा और शक्ति प्रदान करता
है। इस विभाग में काम करना निश्चय ही एक ऑपर्चुनिटी है। उन्होंने आशा
व्यक्त की कि यह पुस्तक पाठकों के लिए रुचिकर होगी। उन्होंने लेखिका की
लेखनी को प्रेरणास्पद बताया। जनसम्पर्क विभाग के पूर्व आयुक्त सुनील
शर्मा ने पुस्तक को शुद्ध लेखन की संज्ञा दी। उन्होंने कहा अलका सक्सेना
का अंग्रेजी और हिंदी पर समानाधिकार था। मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारी
गोविन्द पारीक ने जनसम्पर्क के कार्यों को चुनौतीपूर्ण बताया। कार्यक्रम
की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ पत्रकार गुलाब बत्रा ने जनसम्पर्क विभाग से
पत्रकारों के  संबंधों की चर्चा करते हुए कहा लेखिका ने बेबाकी के साथ
अपने जनसम्पर्क के अनुभवों को साझा करते हुए अपने मन की बात लिखी है।
उन्होंने कहा जनसम्पर्क सरकार के दिल की धड़कन है। राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण
समिति के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बोड़ा ने धन्यवाद ज्ञापित
करते हुए  कहा यह पुस्तक जनसम्पर्क विधा का एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है।
जनसम्पर्क विभाग के उप निदेशक रजनीश शर्मा ने भी अपने विचार व्यक्त किये।
साहित्यकार वीणा करमचंदानी ने पुस्तक की सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुत की।
प्रारम्भ में लेखिका अलका सक्सेना ने राकेश वर्मा और सुनील शर्मा की
कार्यप्रणाली की चर्चा करते हुए विस्तार से पुस्तक विषयक जानकारी दी। इस
शुरू में आगंतुक सभी अतिथियों का पौधा भेंट कर स्वागत किया गया।

इलियाना डी ‘क्रूज़,आज जिनका जन्मदिन है

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इलियाना डी ‘क्रूज़ का जन्म एक नवम्बर 1986 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ। वे एक भारतीय फिल्म अभिनेत्री हैं, जो मुख्य रूप से तेलुगु भाषा की फिल्मों में अभिनय करती हैं। उन्होंने अपना कैरियर एक मॉडल के रूप में शुरू किया और 2006 में वाय.वी.एस. चौधरी की तेलुगू फिल्म देवदासु से अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की। उसके बाद उन्होंने व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म पोक्किरी (2006), जलसा (2008) और किक में अभिनय किया और अपने आप को तेलुगू सिनेमा की अग्रणी अभिनेत्रियों में स्थापित किया। 2017 में बादशाहो में काम कर चुकी है।

इलियाना अपनी माता-पिता की दूसरी संतान हैं। उनके पिता गोवा के एक कैथोलिक हैं, जबकि उनकी माता ईसाई हैं जो कि इस्लाम से धर्मांतरित हुई हैं। उनके तीन भाई-बहन हैं, सबसे बड़ी बहन का नाम फराह है, एक छोटा भाई रीस और एक छोटी बहन एरिन है। उनका पहला नाम ग्रीक पुराण से आता है। बचपन में वे कई वर्षों तक गोवा में रहती थीं।

इलियाना को राकेश रोशन द्वारा निर्देशित फेयर एंड लवली की विज्ञापन फिल्म में देखकर पहली फिल्म का प्रस्ताव मिला था। आलोचकों ने उनकी काफी प्रशंसा की थी, विशेष रूप से उनकी शारीरिक रचना की और चेहरे की।

देवदासु के मुख्य अभिनेता राम ने भी अपनी एक्टिंग कैरियर की शुरुआत इसी से की थी, जो साल की प्रथम प्रमुख कमर्शियल हिट बनी और जिसने अंततः ₹ 14 करोड़ की कमाई की, यद्यपि इलियाना को इस फिल्म के लिए फिल्मफेयर अवार्ड फॉर बेस्ट फिमेल दिया गया। उनकी अगली फिल्म एक्शन फ्लिक पोक्किरी थी जिसके मुख्य कलाकार महेश बाबू थे, इस फिल्म में इलियाना ने एक एरोबिक्स शिक्षक का रोल किया था जो एक भ्रष्ट पुलिस द्वारा उत्पीड़ित है। इस फिल्म को वित्तीय आधार पर काफी सफलता प्राप्त हुई और उस समय तक की वह सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाली तेलुगु फिल्म बनी, साथ ही साथ यह इलियाना के लिए अब तक की सबसे बड़ी कमर्शियल हिट फिल्म रही।

बाद में उसी वर्ष उन्होंने केडी (2006) से तमिल भाषा की फिल्म में अपनी शुरुआत की। हालाँकि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर उतनी अच्छी नहीं रही, फिर भी डी ‘क्रूज़ इतनी व्यस्त थीं कि उन्हें कई फिल्मों की पेशकश को अस्वीकार करना पड़ रहा था। उनकी तेलुगू फिल्म खतरनाक (2006) जिसमें उन्होंने रवि तेजा के साथ अभिनय किया, उतनी अच्छी नहीं रही जितनी कि उम्मीद की जा रही थी, फिर भी उनके ग्लैमर भरे प्रदर्शन के लिए उन्हें श्रेय दिया गया और उनकी पहचान दर्शकों में बनी रही। बाद में उनके कैरियर में एक बड़ा झटका तब लगा जब उनकी फिल्म राखी (2006) और मुन्ना (2007) गंभीर और आर्थिक रूप से असफल साबित हुई।

डी ‘क्रूज़’ का कैरियर एक बार फिर अच्छे मोड़ पर तब आया जब 2007 में उनकी फिल्म अता को सराहा गया, इसमें उन्होंने सिद्धार्थ के साथ अभिनय किया। सत्या के रूप में अपने अभिनय के लिए उन्हें काफी सराहा गया, जो कि एक कॉलेज छात्रा हैं और गृह मंत्री के कुटिल बेटे से भागती फिरती है और उसके निशाने पर तब आती हैं जब वे उसके अपराध के लिए सजा माँगने के लिए मोर्चा करती है।

2008 में उन्होंने जलसा में पवन कल्याण के साथ मुख्य भूमिका निभाई। वर्तमान में वे दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग में सर्वाधिक महँगी अभिनेत्री मानी जाती हैं, जिन्हें यथा 2008, पारिश्रमिक के रूप में ₹ 1.75 करोड़ दिया जाता है। उनकी रवि तेजा के साथ 2009 की फिल्म जिसका शीर्षक किक था, को बॉक्स ऑफिस पर हिट घोषित किया गया। उसके बाद 2009 में उन्होंने विष्णु मंचु के साथ रेचिपो और वाय.वी.एस.चौधरी की सलीम में अभिनय किया, दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। इलियाना ने हाल ही में शक्ति की शूटिंग समाप्त की है, जहाँ उन्होंने जूनियर एन.टी.आर. के साथ काम किया है, इससे पहले वे राखी में इनके साथ काम कर चुकी हैं। उन्होंने कन्नड फिल्म हुडुगा हुडुगी के लिए एक आइटम गीत भी किया है जिसके बोल हैं “इलियाना इलियाना”।

इलियाना हिन्दी फिल्म 3 इडियट्स के तेलूगू और तमिल रूपान्तर में हैं, जहाँ उन्होंने करीना कपूर की भूमिका निभाई। एस॰ शंकर इसका निर्देशन करेंगे।

सम्मान पुरस्कारों में फ़िल्मफ़ेयर बेस्ट फिमेल डेब्यू (दक्षिण) – देवदासु (2006)
संतोषम सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार – जलसा (2008)
और नामांकन फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स साउथ
2008: सर्वश्रेष्ठ तेलुगू अभिनेत्री – जलसा
2009: सर्वश्रेष्ठ तेलुगू अभिनेत्री – किक (2009)

भारतीय फिल्म अभिनेत्री रूबी भाटिया

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भारतीय मनोरंजन जगत में रूबी भाटिया (Ruby Bhatia) एक ऐसा नाम है, जिसने मॉडलिंग, टेलीविजन प्रस्तुति और फिल्मों के माध्यम से अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। 1990 के दशक में जब भारतीय टेलीविजन और सिनेमा की दुनिया तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रही थी, उस दौर में रूबी भाटिया ने अपनी अलग अदा, स्टाइल और व्यक्तित्व से दर्शकों के दिलों में जगह बनाई। वह उन चुनिंदा कलाकारों में रही हैं जिन्होंने एंकरिंग से लेकर अभिनय तक हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा साबित की।

प्रारंभिक जीवन

रूबी भाटिया का जन्म कनाडा में हुआ था। वह भारतीय मूल की हैं, लेकिन उनका पालन-पोषण कनाडा में ही हुआ। बचपन से ही उनमें कला और प्रस्तुति की विशेष प्रतिभा दिखाई देती थी। उन्होंने शिक्षा पूरी करने के बाद भारत आने का निर्णय लिया, क्योंकि उन्हें भारतीय संस्कृति, संगीत और सिनेमा से गहरा लगाव था। यही लगाव उन्हें मुंबई की ओर खींच लाया — वह शहर जो हर कलाकार के सपनों का केंद्र माना जाता है।

मॉडलिंग और एंकरिंग से शुरुआत

रूबी भाटिया ने अपने करियर की शुरुआत मॉडलिंग से की। अपने आकर्षक व्यक्तित्व और आत्मविश्वास भरे अंदाज़ के कारण उन्हें जल्दी ही पहचान मिलने लगी। 1994 में उन्होंने “Miss India Canada” प्रतियोगिता जीती, जिसने उनके लिए बॉलीवुड और भारतीय टेलीविजन के दरवाज़े खोल दिए।

भारत लौटने के बाद उन्होंने “MTV India” में बतौर वीडियो जॉकी (VJ) काम करना शुरू किया। उस समय MTV भारत में नया था और युवा दर्शकों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहा था। रूबी की संवाद शैली, उनकी अंग्रेज़ी-हिंदी मिश्रित भाषा और आत्मीय हावभाव ने उन्हें युवाओं का चहेता चेहरा बना दिया। वह 1990 के दशक की शुरुआती MTV प्रजेंटरों में शामिल थीं जिन्होंने भारतीय टेलीविजन के युवा मनोरंजन कार्यक्रमों को नई दिशा दी।

अभिनय करियर

एंकरिंग के बाद रूबी भाटिया ने टेलीविजन धारावाहिकों और फिल्मों की ओर रुख किया। उन्होंने कुछ लोकप्रिय टीवी शोज़ में काम किया, जिनमें “Chandrakanta” और “Kya Hadsaa Kya Haqeeqat” जैसे धारावाहिक शामिल हैं। उनकी अभिनय शैली में एक आधुनिकता थी, जो उन्हें पारंपरिक अभिनेत्री से अलग बनाती थी।

रूबी भाटिया ने बॉलीवुड में भी कई फिल्मों में काम किया। इनमें “Hero Hindustani” (1998), “Main Prem Ki Diwani Hoon” (2003), और “Chori Chori Chupke Chupke” (2001) जैसी फिल्में उल्लेखनीय हैं। हालांकि वह मुख्य नायिका के रूप में नहीं दिखीं, लेकिन उनकी उपस्थिति हमेशा प्रभावशाली रही। उनकी अभिव्यक्ति में पश्चिमी और भारतीय संस्कृति का अद्भुत मिश्रण झलकता था, जो उन्हें अन्य अभिनेत्रियों से अलग बनाता था।

व्यक्तिगत जीवन

रूबी भाटिया का निजी जीवन भी कई कारणों से चर्चा में रहा। उन्होंने गायक और संगीतकार ए. आर. रहमान के करीबी सहयोगी, अजीत सूरी से विवाह किया था, लेकिन यह विवाह ज्यादा समय तक नहीं चल सका। बाद में उन्होंने अभिनेता और निर्देशक अरशद वारसी से भी नज़दीकी संबंध बनाए थे, हालांकि वह रिश्ता भी विवाह तक नहीं पहुंचा। निजी उतार-चढ़ावों के बावजूद रूबी भाटिया ने हमेशा खुद को मजबूत और आत्मनिर्भर महिला के रूप में प्रस्तुत किया।

सांस्कृतिक प्रभाव

रूबी भाटिया का व्यक्तित्व भारतीय और पश्चिमी संस्कृतियों का सुंदर संगम था। जब भारत में ग्लोबल कल्चर की शुरुआत हो रही थी, उस समय वह उस परिवर्तन की प्रतीक बनकर उभरीं। MTV जैसी चैनलों के माध्यम से उन्होंने भारतीय युवाओं को आत्मविश्वास, फैशन और अभिव्यक्ति की नई भाषा सिखाई। वह उस दौर की पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने बिना किसी संकोच के अपने विचार स्पष्ट रूप से रखे।

उनकी प्रस्तुति शैली आज भी कई एंकर और टीवी होस्ट के लिए प्रेरणा बनी हुई है। उन्होंने यह साबित किया कि भारतीय मनोरंजन जगत में सफलता पाने के लिए सिर्फ अभिनय ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व और आत्मविश्वास भी उतने ही जरूरी हैं।

बाद के वर्ष और सामाजिक योगदान

रूबी भाटिया ने धीरे-धीरे ग्लैमर की दुनिया से दूरी बना ली और सामाजिक कार्यों में भी रुचि दिखानी शुरू की। उन्होंने युवाओं के लिए प्रेरणादायक सत्रों में भाग लिया और महिला सशक्तिकरण के विषय पर भी अपनी राय दी। हालांकि वह अब फिल्मों और टीवी पर कम दिखाई देती हैं, लेकिन सोशल मीडिया और विशेष आयोजनों के माध्यम से वह अब भी अपने प्रशंसकों से जुड़ी रहती हैं।

निष्कर्ष

रूबी भाटिया भारतीय मनोरंजन जगत की एक बहुआयामी हस्ती हैं। उन्होंने मॉडलिंग, एंकरिंग और अभिनय — तीनों क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाई। वह 1990 के दशक के उस दौर की प्रतीक रहीं जब भारत वैश्विक मनोरंजन संस्कृति से जुड़ना शुरू कर रहा था। उनका आत्मविश्वास, स्वतंत्र सोच और आधुनिक दृष्टिकोण आज भी प्रेरणादायक है।

रूबी भाटिया ने यह दिखाया कि एक कलाकार केवल कैमरे के सामने अभिनय करने वाला नहीं होता, बल्कि वह समाज के बदलते मूल्यों और विचारों का प्रतिनिधि भी होता है। भारतीय सिनेमा और टेलीविजन के इतिहास में उनका नाम एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में दर्ज रहेगा जिसने सीमाओं को तोड़ा, परंपराओं को चुनौती दी और भारतीय महिला को एक नए आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत किया।

ऐश्वर्या राय ,आज जिनका जन्मदिन है

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ऐश्वर्या राय का जन्म एक नवम्बर 1973 को मैंगलूर, कर्नाटक, भारत में हुआ था। ऐश्वर्या के पिता का नाम कृष्णराज राय जो पेशे से मरीन इंजीनियर है और माता का नाम वृंदा राय है जो एक लेखक हैं। उनका एक बडा़ भाई है जिसका नाम आदित्य राय है।

ऐश्वर्या राय की मातृ-भाषा तुलु है, इसके अलावा उन्हें कन्नड़, हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी और तमिल भाषाओं का भी ज्ञान है। ऐश्वर्या राय की प्रारंभिक शिक्षा (कक्षा सात तक) हैदराबाद, आंध्र प्रदेश में हुई। बाद में उनका परिवार मुंबई आकर बस गया। मुंबई में उन्होने शांता-क्रूज स्थित आर्य विद्या मंदिर और बाद में डी जी रुपारेल कालेज, माटूंगा में पढा़ई की। पढा़ई के साथ-साथ उन्हें मॉडलिंग के भी प्रस्ताव आते रहे और उन्होने में मॉडलिंग भी की।

उनको मॉडलिंग का पहला प्रस्ताव कैमलिन कंपनी की ओर से तब मिला जब वो नवीं कक्षा की छात्रा थीं। इसके बाद वो कोक, फूजी और पेप्सी के विज्ञापन में दिखीं। और 1994 में मिस वर्ल्ड बनने के बाद उनकी माँग काफी बढी़ और उन्हें कई फिल्मों के प्रस्ताव मिले।

उनकी पहली फिल्म इरुवर तमिल में बनी जिसे मणिरत्नम ने निर्देशित किया। 2000 में राजीव मेनन द्वारा बनी एक फिल्म कंडूकोंडिन कंडूकोंडिन काफी मशहूर हुई। हिन्दी में उनकी पहली फिल्म और प्यार हो गया थी, हिन्दी फिल्मों में उनका सिक्का संजय लीला भंसाली द्वारा बनायी गयी फिल्म हम दिल दे चुके सनम से जमा और तब से उनकी फिल्में ज्यादातर हिन्दी में ही बनी। 2002 में संजय लीला भंसाली द्वारा बनाई फिल्म देवदास में भी उन्होने काम किया। इसके अलवा उन्होंने कुछ बांग्ला फिल्में की हैं। सन 2004 में ही पहली बार उन्होंने गुरिंदर चड्ढा की एक अंग्रेजी फिल्म ब्राइड ऐंड प्रेज्यूडिस में काम किया। 2006 में उनकी प्रमुख फिल्मे रही मिसट्रेस ऑफ स्पाइसेस, धूम २ और उमराव जान।

आज ऐश्वर्या भारतीय सिनेमा की सबसे मँहगी अभिनेत्रियों में से एक है और भारत की सबसे धनी महिलाओं में शामिल हैं। दुनिया भर में उनके चाहने वालों ने ऐश्वर्या को समर्पित लगभग 17,000 इंटरनेट साइट बना रखे हैं और उनकी गिनती दुनिया के सबसे खूबसूरत महिलाओं में की जाती है। टाईम पत्रिका ने वर्ष 2004 में उन्हें दुनिया की सबसे प्रभावशाली महिलाओं में भी शुमार किया है।

वर्ष 1999 में, राय ने बॉलीवुड सितारे सलमान ख़ान के साथ डेटिंग की, उनका सम्बन्ध मीडिया में भी तब तक छाया रहा जब तक 2001 में वो एक दूसरे से अलग नहीं हो गये। ऐश्वर्या राय ने साल 2007 में अभिषेक बच्चन से शादी कर ली थी। वहीं साल 2011 में दोनों प्यारी सी बेटी आराध्या बच्चन के पैरेंट्स बने थे।

ऐश्वर्या राय के पास कुल संपत्ति ₹800 करोड़ रुपए है। वह हरेक फिल्म के लिए 10 से 12 करोड़ रुपए तक चार्ज करती हैं। इसकी सालाना इनकम ₹80 करोड़ से ₹90 करोड़ तक है।

रमाकांत शुक्ला

3 से 5 नवम्बर को थानो (देहरादून) में होगा “स्पर्श हिमालय महोत्सव

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लेखक गाँव : शब्दों की साधना और सृजन का हिमालय

”3 से 5 नवम्बर 2025 को थानो (देहरादून) में होगा “स्पर्श हिमालय महोत्सव — जहाँ साहित्य, संस्कृति और प्रकृति का संगम रचेगा नई सृजनगाथा

– डॉ. सत्यवान सौरभ

उत्तराखंड की वादियों में बसा थानो गाँव आज साहित्य और संस्कृति की नई पहचान बन चुका है। यह वही भूमि है जहाँ शब्दों की साधना और सृजन की ऊर्जा एक साथ प्रवाहित हो रही है। यहाँ स्थापित देश का पहला ‘लेखक गाँव’ अब केवल एक परियोजना नहीं, बल्कि एक आंदोलन बन चुका है — वह आंदोलन जो लेखकों, कवियों, विचारकों और कलाकारों को उनके सृजन के मूल स्रोत, अर्थात् प्रकृति और आत्मा से जोड़ता है।

🔹 शब्दों के मठ की परिकल्पना

लेखक गाँव का विचार जितना अनोखा है, उतना ही प्रेरणादायक भी। इस अवधारणा के प्रणेता हैं उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, शिक्षाविद् और सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, जिन्होंने अपने जीवन में साहित्य और समाज दोनों को समान रूप से साधा है। उन्होंने यह अनुभव किया कि आज के लेखक, कवि और विचारक भागदौड़ और शोरगुल भरी दुनिया में वह सृजनात्मक एकांत नहीं पा पाते जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है।

इसी विचार से जन्म हुआ “लेखक गाँव” का — एक ऐसी जगह जहाँ शब्दों को सांस लेने की जगह मिले, विचारों को उड़ान मिले और रचनाकारों को आत्म-साक्षात्कार का अवसर।

देहरादून के समीप थानो गाँव को इस अनूठे प्रकल्प के लिए चुना गया। यह स्थान हिमालय की गोद में बसा है, जहाँ हरियाली, नदी, पर्वत और शांति की छाया है। यहाँ की प्राकृतिक सौंदर्यता लेखकों के भीतर सोई संवेदनाओं को जगाने का सामर्थ्य रखती है।

🔹 एक अद्भुत आयोजन : “स्पर्श हिमालय महोत्सव-2024”

अक्टूबर 2024 में जब स्पर्श हिमालय फाउंडेशन द्वारा “स्पर्श हिमालय महोत्सव” का आयोजन हुआ, तब थानो ने भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा। यह केवल एक महोत्सव नहीं, बल्कि साहित्य, कला और संस्कृति का विराट संगम था।

इस पाँच दिवसीय अंतरराष्ट्रीय आयोजन में 65 से अधिक देशों के लेखक, कवि, कलाकार और विचारक शामिल हुए। उन्होंने न केवल अपनी रचनाएँ और कलाकृतियाँ साझा कीं, बल्कि हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी भावनाएँ भी प्रकट कीं।

यह आयोजन इस बात का प्रमाण था कि हिंदी और भारतीय संस्कृति आज भी वैश्विक स्तर पर आकर्षण का केंद्र हैं। इस महोत्सव ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पुनः प्रतिष्ठित किया। साथ ही, यह तय किया कि हर वर्ष इसी स्थान पर साहित्यिक मंथन और सांस्कृतिक संवाद का यह महोत्सव आयोजित किया जाएगा।

🔹 3 से 5 नवम्बर 2025 : नए अध्याय की तैयारी

अब एक बार फिर साहित्य प्रेमी और रचनाकार उत्सुक हैं, क्योंकि 3 से 5 नवम्बर 2025 को लेखक गाँव, थानो में “स्पर्श हिमालय महोत्सव-2025” आयोजित होने जा रहा है।

इस बार महोत्सव का दायरा और भी व्यापक होगा — देश-विदेश से और अधिक लेखकों, कवियों, अनुवादकों, चित्रकारों, फिल्मकारों और संगीतकारों की भागीदारी होगी।

थीम तय की गई है – “शब्द से विश्व तक : संस्कृति का संवाद”। यह विषय अपने आप में साहित्य की वैश्विक भूमिका को रेखांकित करता है।

इस आयोजन में हिंदी भाषा और भारतीय साहित्य के अंतरराष्ट्रीय प्रसार पर विशेष सत्र होंगे। साथ ही युवा लेखकों और डिजिटल युग की रचनात्मकता पर भी विमर्श किया जाएगा। यह आयोजन न केवल अनुभवी लेखकों को बल्कि नई पीढ़ी के रचनाकारों को भी एक साझा मंच प्रदान करेगा।

🔹 रचनाकारों के लिए स्वर्ग समान वातावरण

लेखक गाँव की संरचना पूरी तरह साहित्यिक और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर की गई है। यहाँ स्थित “लेखक कुटीर” उन रचनाकारों के निवास हेतु बनाए गए हैं जो कुछ समय के लिए प्रकृति की गोद में रहकर अपने लेखन पर केंद्रित होना चाहते हैं।

हर कुटीर में आधुनिक सुविधाओं के साथ-साथ सादगी और पहाड़ी परंपरा की झलक मिलती है। इन कुटीरों के नाम प्रसिद्ध लेखकों और कवियों के नाम पर रखे जाने का प्रस्ताव है — ताकि आने वाले लेखक उनसे प्रेरणा ले सकें।

यहाँ निर्मित “हिमालयी पुस्तकालय” किसी मंदिर से कम नहीं। इसमें साहित्य, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, दर्शन, राजनीति और विज्ञान से जुड़ी पुस्तकों का विशाल संग्रह है। विशेष रूप से हिमालयी राज्यों की लोककथाएँ, दुर्लभ पांडुलिपियाँ, सिक्के, मूर्तियाँ और पहाड़ी चित्रकला इस पुस्तकालय की पहचान होंगी।

यह पुस्तकालय पहाड़ी स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है—जहाँ खोली, छज्जा और तिवारी जैसी पारंपरिक संरचनाएँ स्थानीय पत्थर और लकड़ी से बनी हैं।

🔹 प्रकृति, संस्कृति और आत्मा का त्रिवेणी संगम

थानो का यह लेखक गाँव केवल भवनों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक पारिस्थितिकी तंत्र है। यहाँ की संजिवनी वाटिका और नक्षत्र-नवग्रह वाटिका रचनाकारों को प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ संवाद स्थापित करने की प्रेरणा देती हैं।

यह स्थान ध्यान, चिंतन और आत्मावलोकन के लिए आदर्श है। पहाड़ों की ताजी हवा, पक्षियों का मधुर कलरव और प्रकृति की नीरवता लेखक को भीतर तक झकझोर देती है, जिससे सृजन स्वतः प्रवाहित होने लगता है।

जो भी व्यक्ति यहाँ कुछ दिन बिताता है, वह स्वयं में एक नई ऊर्जा और दृष्टि लेकर लौटता है। यह स्थान मनुष्य के भीतर संवेदना, करुणा और सृजनशीलता के बीज बोता है — ठीक वैसे ही जैसे प्राचीन काल में तपोवन साधना के केंद्र हुआ करते थे।

🔹 सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण

“लेखक गाँव” केवल आधुनिक साहित्यिक प्रयोगों का मंच नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण का केंद्र भी है। यहाँ स्थित गंगा और हिमालय संग्रहालय में प्राचीन मूर्तियाँ, लोक कलाएँ, सिक्के, हस्तशिल्प, और दुर्लभ दस्तावेज़ प्रदर्शित किए जाएंगे।

यह संग्रहालय युवाओं को यह समझाने का माध्यम बनेगा कि हमारी संस्कृति केवल इतिहास की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान का आधार भी है।

इस स्थान का उद्देश्य है — “साहित्य के माध्यम से संस्कृति की रक्षा, और संस्कृति के माध्यम से मानवता का विकास।”

🔹 वैश्विक संदर्भ में हिंदी का विस्तार

स्पर्श हिमालय महोत्सव और लेखक गाँव की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि इसने हिंदी भाषा को वैश्विक स्तर पर सम्मान दिलाया है।

विदेशों से आए लेखकों ने न केवल हिंदी के साहित्य को समझा बल्कि उसे अपनी भाषा में अनुवादित करने का संकल्प भी लिया। इस प्रकार, ये लेखक अपने-अपने देशों में हिंदी के ब्रांड एम्बेसडर बन रहे हैं।

यह प्रयास भारत को सॉफ्ट पावर के रूप में स्थापित करने की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम है।

🔹 भविष्य की राह

थानो का लेखक गाँव आज एक मॉडल बन चुका है। आने वाले समय में ऐसे और गाँव देश के अन्य हिस्सों में भी विकसित किए जा सकते हैं—जैसे लेखक धाम या कला ग्राम।

ये स्थान न केवल पर्यटन को बढ़ावा देंगे, बल्कि सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करेंगे।

लेखक, शोधकर्ता, विद्यार्थी और कला प्रेमी यहाँ आकर अपनी सृजनशीलता को नया आयाम दे सकेंगे।

🔹 शब्दों का हिमालय

थानो का “लेखक गाँव” वास्तव में सृजन की तपोभूमि है। यह वह स्थान है जहाँ शब्द साधना बन जाते हैं और लेखन पूजा का रूप ले लेता है।

यह गाँव हमें याद दिलाता है कि तकनीक और प्रगति के इस युग में भी साहित्य की जड़ें प्रकृति और आत्मा से जुड़ी हैं।

आने वाले 3 से 5 नवम्बर 2025 को जब एक बार फिर स्पर्श हिमालय महोत्सव का नया अध्याय आरंभ होगा, तब यह केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं होगा, बल्कि भारत की साहित्यिक चेतना का उत्सव होगा — एक ऐसा उत्सव जो शब्दों को पर्वत की ऊँचाइयों तक ले जाएगा।

“लेखक गाँव” इस बात का प्रमाण है कि जब साहित्य और संस्कृति एक साथ चलते हैं, तो समाज केवल प्रगतिशील नहीं होता — वह प्रेरणास्रोत बन जाता है।

यह गाँव आने वाले समय में निश्चय ही भारत की सांस्कृतिक आत्मा का केंद्र बनेगा — जहाँ हर शब्द हिमालय की तरह अडिग, और हर विचार गंगा की तरह पवित्र होगा।

– डॉ. सत्यवान सौरभ📖

आंध्र प्रदेश वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर भगदड़, नौ मरे

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आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के काशीबुग्गा स्थित वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में एकादशी के दिन भगदड़ मच गई। इसमें नौ लोगों की मौत की खबर है। कई अन्य घायल हुए है। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने इस घटना पर दुख व्यक्त करते हुए मृतकों के परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त की है। उन्होंने अधिकारियों को घायलों के इलाज के निर्देश दिए हैं।

। बताया जा रहा कि आज एकादशी के दिन काशीबुग्गा स्थित वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटी थी। इसी दौरान भगदड़ मच गई। इस घटना में कई लोगों के हताहत होने की खबर है। मंदिर का निर्माण अधूरा था और आने-जाने का एक ही रास्ता था। एकादशी के कारण 25,000 लोग आए थे, जबकि मंदिर की क्षमता 3,000 लोगों की ही थी। मृतकों के परिवारों के लिए मुआवजे की घोषणा की गई है।

चंद्रबाबू नायडू ने बताया त्रासदी

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने इस त्रासदी पर दुख व्यक्त करते हुए श्रद्धालुओं की मौत को “हृदय विदारक” बताया।

इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, “श्रीकाकुलम जिले के काशीबुग्गा वेंकटेश्वर मंदिर में हुई भगदड़ से मुझे बहुत दुख हुआ। यह बहुत दुखद है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गई। मैं पीड़ितों के परिवारों के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करता हूँ।”

हिंदी की प्रख्यात लेखिका प्रभा खेतान और उनके साहित्यिक योगदान

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हिंदी साहित्य के विस्तृत संसार में प्रभा खेतान का नाम एक ऐसी सशक्त और संवेदनशील लेखिका के रूप में लिया जाता है, जिन्होंने अपने लेखन से स्त्री-मन, समाज और जीवन के यथार्थ को गहराई से अभिव्यक्त किया। वह न केवल एक प्रतिभाशाली लेखिका थीं, बल्कि एक समाजसेवी, व्यवसायी और अनुवादक के रूप में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। प्रभा खेतान का साहित्य स्त्री चेतना की वह गूंज है जो पारंपरिक सीमाओं को लांघकर आत्मस्वर में बदल जाती है।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

प्रभा खेतान का जन्म 1 नवंबर 1942 को राजस्थान के बीकानेर में हुआ था। बचपन से ही उनमें अध्ययन और चिंतन की प्रवृत्ति थी। उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और बाद में अंग्रेज़ी साहित्य में डॉक्टरेट (Ph.D.) की उपाधि हासिल की। उनकी शिक्षा और संस्कारों ने उन्हें जीवन के गहरे अर्थों को समझने की दृष्टि दी।

प्रभा खेतान का जीवन राजस्थान के पारंपरिक सामाजिक परिवेश में बीता, जहां स्त्रियों पर अनेक प्रकार की सामाजिक मर्यादाएँ लागू थीं। लेकिन उन्होंने उन सीमाओं को तोड़ा और अपनी स्वतंत्र सोच व आत्मनिर्भरता के बल पर एक नई राह बनाई।


साहित्यिक यात्रा की शुरुआत

प्रभा खेतान का लेखन 1970 के दशक में शुरू हुआ। उन्होंने प्रारंभ में कविताएँ लिखीं, लेकिन धीरे-धीरे उनका रुझान उपन्यास और आत्मकथात्मक लेखन की ओर हुआ। उनका लेखन हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श की एक सशक्त आवाज़ के रूप में उभरा।

उनके लेखन की विशेषता यह है कि उन्होंने समाज की रूढ़ियों, स्त्री की आंतरिक जटिलताओं और उसकी भावनात्मक संवेदनाओं को बड़े ही सजीव और प्रखर ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने यह दिखाया कि स्त्री केवल परिवार या संबंधों का हिस्सा नहीं, बल्कि अपनी स्वतंत्र सत्ता रखती है।


प्रमुख कृतियाँ

प्रभा खेतान ने कई प्रसिद्ध उपन्यास और आत्मकथाएँ लिखीं। उनके प्रमुख उपन्यास हैं — “छिन्नमस्ता”, “पीली आंधी”, “आओ पेपे घर चलें”, “उपनिवेश”, और “अन्या से अनन्या”।

“छिन्नमस्ता” : यह उपन्यास स्त्री की यौनिकता और सामाजिक पाखंड पर गहरा प्रहार करता है। इसमें उन्होंने एक ऐसी स्त्री की कहानी कही है जो अपनी इच्छाओं को दबाने से इनकार करती है।

“अन्या से अनन्या” : यह आत्मकथात्मक रचना है, जिसमें प्रभा खेतान ने अपने जीवन के अनुभवों को बेहद ईमानदारी से लिखा है। इस किताब में समाज की दोहरी मानसिकता, स्त्री की अस्मिता और आत्मसंघर्ष का मार्मिक चित्रण है।

“पीली आंधी” : यह उपन्यास उत्तर भारत के सामाजिक जीवन और उसमें नारी के संघर्षों को उजागर करता है।

इनके अलावा उन्होंने अनेक निबंध, कविताएँ और लेख भी लिखे जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।


स्त्री विमर्श की सशक्त आवाज़

प्रभा खेतान का लेखन स्त्री विमर्श को हिंदी साहित्य में गहराई देने वाला माना जाता है। उन्होंने यह माना कि नारी मुक्ति का अर्थ केवल पुरुष विरोध नहीं है, बल्कि अपनी पहचान और आत्मसम्मान की स्थापना है। उनके पात्र प्रायः शिक्षित, संवेदनशील और आत्मचेतन स्त्रियाँ हैं जो सामाजिक बंधनों से टकराने का साहस रखती हैं।

उनकी रचनाओं में प्रेम, वासना, संबंधों की जटिलता, मातृत्व और आत्म-संघर्ष की गहरी पड़ताल मिलती है। वह उन विरली लेखिकाओं में से थीं जिन्होंने स्त्री-शरीर और उसकी इच्छाओं पर खुलकर लिखा, बिना किसी झिझक या सामाजिक भय के।


अनुवाद और सामाजिक योगदान

प्रभा खेतान ने लेखन के साथ-साथ अनुवाद के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने सिमोन द बोउवा (Simone de Beauvoir), पाउलो कोएलो, जीन पॉल सार्त्र और अन्य विश्व प्रसिद्ध लेखकों की कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया। उनके अनुवादों ने हिंदी पाठकों को विश्व साहित्य से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई।

वह एक सफल उद्यमी भी थीं — कोलकाता में उन्होंने “डॉ. प्रभा खेतान एंड कंपनी” नाम से व्यवसाय शुरू किया जो बाद में उनके सामाजिक कार्यों के लिए वित्तीय आधार बना।

उनकी स्थापना की हुई संस्था “प्रभा खेतान फाउंडेशन” आज भी साहित्य, संस्कृति और महिला सशक्तिकरण के लिए कार्य कर रही है। यह संस्था देश-विदेश में हिंदी साहित्य के प्रचार और भारतीय विचारधारा के प्रसार के लिए सेमिनार, चर्चा और पुस्तक विमोचन कार्यक्रम आयोजित करती है।


शैली और भाषा

प्रभा खेतान की भाषा सरल, प्रभावशाली और भावनात्मक है। वे अपने पात्रों के मनोभावों को बारीकी से उकेरने में सिद्धहस्त थीं। उनके लेखन में आत्मस्वीकृति की शक्ति और सामाजिक विद्रोह का स्वर दोनों साथ चलते हैं। वे भावनाओं को शब्दों में ढालने की ऐसी कला रखती थीं कि पाठक उनके पात्रों के दर्द और संघर्ष को महसूस कर सके।

उनका लेखन आत्मकथात्मक होते हुए भी सामूहिक अनुभवों का दर्पण बन जाता है। उन्होंने महिलाओं के अंतर्मन में झाँकने और उनके मौन को शब्द देने का कार्य किया।


सम्मान और विरासत

प्रभा खेतान को उनके योगदान के लिए अनेक साहित्यिक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। वे कोलकाता की उन चुनिंदा साहित्यिक हस्तियों में थीं जिनका प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर था।

2008 में उनके निधन के बाद भी उनकी रचनाएँ नई पीढ़ी की लेखिकाओं को प्रेरित कर रही हैं। “प्रभा खेतान फाउंडेशन” के माध्यम से उनका साहित्यिक और सामाजिक कार्य आज भी जीवंत है।


निष्कर्ष

प्रभा खेतान हिंदी साहित्य की उन महान लेखिकाओं में से हैं जिन्होंने स्त्री के आत्मबोध, संघर्ष और संवेदना को गहराई से स्वर दिया। उन्होंने यह साबित किया कि स्त्री केवल प्रेरणा का विषय नहीं, बल्कि स्वयं रचना का केंद्र भी हो सकती है।

उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि परिस्थितियाँ चाहे जैसी हों, यदि व्यक्ति में आत्मविश्वास और रचनात्मक दृष्टि है, तो वह समाज की धारणाओं को बदल सकता है। प्रभा खेतान का लेखन हिंदी साहित्य में उस दीपक की तरह है जो नारी चेतना के मार्ग को आज भी आलोकित कर रहा है।

गदर पार्टी के संस्थापक तारकनाथ दास

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तारकनाथ दास भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में से एक गिने जाते हैं। अरविन्द घोष, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा चितरंजन दास इनके घनिष्ठ मित्रों में से थे। क्रान्तिकारी गतिविधियों के कारण इन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी, लेकिन बाद में पुन: अध्ययन प्रारम्भ कर इन्होंने पी.एच. डी. की उपाधि प्राप्त की थी। तारकनाथ दास पर अमेरिका में मुकदमा चला था, जहाँ इन्हें क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी।

तारकनाथ दास का जन्म 1884 में बंगाल में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। कलकत्ता के कॉलेज में भाग लेने के दौरान, उन्हें ब्रिटिश विरोधी समाज में भर्ती कराया गया। 1905 तक, उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और एक भयानक छात्र के रूप में प्रच्छन्न भारत के आसपास भटक रहे थे और क्रांतिकारी संदेश फैल रहे थे। पुलिस द्वारा तलाश की थी, वह 1905 में जापान के एक साधु, या हिंदू तपस्वी के रूप में प्रच्छन्न होकर भाग गए। ब्रिटिश राजदूत ने प्रत्यर्पण की मांग करने के बाद दास, शरण की तलाश में यू.एस. से भाग गए। वह जुलाई, 1906 में सिएटल पहुंचे।

दास ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में नामांकित किया, और तुरंत भारतीय प्रवासियों के आयोजन के लिए काम किया। अपनी पढ़ाई और कार्यकर्ता राजनीति का समर्थन करने के लिए धन की आवश्यकता पडी तो दास ने यू.एस. इमिग्रेशन एंड नैचुरलाइजेशन सर्विस (आईएनएस) में एक दुभाषिए के रूप में सुरक्षित रोजगार लिया। उन्हें वैंकूवर, बीसी में तैनात किया गया था, जहां उनका काम यह सुनिश्चित करना था कि पूर्व भारतीय भारतीयों में से कोई भी उतर नहीं आया। अपने देशवासियों के साथ उनकी सहानुभूति ने उन्हें कनाडाई और अमेरिकी एजेंटों की पूछताछ में आप्रवासियों को प्रशिक्षित करने का मौका दिया।

पुलिस के पीछे लग जाने पर युवा तारकनाथ 1905 ई. में साधु का वेश बनाकर ‘तारक ब्रह्मचारी’ के नाम से जापान चले गए। एक वर्ष वहाँ रहकर फिर अमेरिका में ‘सेन फ़्राँसिस्को’ पहुँचे। यहाँ उन्होंने भारत में अंग्रेज़ों के अत्याचारों से विश्व जनमत को परिचित कराने के लिए ‘फ़्री हिन्दुस्तान’ नामक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने ‘ग़दर पार्टी’ संगठित करने में लाला हरदयाल आदि की भी सहायता की। पत्रकारिता तथा अन्य राजनीतिक गतिविधियों के साथ उन्होंने अपना छूटा हुआ अध्ययन भी आरंभ किया और ‘वाशिंगटन यूनिवर्सिटी’ से एम. ए. और ‘जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी’ से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।

प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने पर वे शोध-कार्य के बहाने जर्मनी आ गए और वहाँ से भारत में ‘अनुशीलन पार्टी’ के अपने साथियों के लिए हथियार भेजने का प्रयत्न किया। इसके लिए उन्होंने यूरोप और एशिया के अनेक देशों की यात्रा की। बाद में जब वे अमेरिका पहुँचे तो उनकी गतिविधियों की सूचना अमेरिका को भी हो गई। इस पर तारकनाथ दास पर अमेरिका में मुकदमा चला और उन्हें 22 महीने की क़ैद की सज़ा भोगनी पड़ी।

इसके बाद तारकनाथ दास ने अपना ध्यान ऐसी संस्थाएँ स्थापित करने की ओर लगाया, जो भारत से बाहर जाने वाले विद्यार्थियों की सहायता करें। ‘इंडिया इंस्टिट्यूट’ और कोलम्बिया का ‘तारकनाथ दास फ़ाउंडेशन’ दो ऐसी संस्थाएं अस्तित्व में आईं। वे कुछ समय तक कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर भी रहे। लम्बे अंतराल के बाद 1952 में वे भारत आए और कोलकाता में ‘विवेकानंद सोसाइटी’ की स्थापना की। इस महान् देश-भक्त का 22 दिसंबर, 1958 को अमेरिका में देहांत हो गया।

बंगाली उत्साह को बढ़ावा देने के क्रम में शिवाजी के अलावा एक महानतम बंगाली नायक राजा सीताराम राय के उपलब्धियों की स्मृति में एक त्योहार की शुरूआत की गयी। 1906 के प्रारंभिक महीनों में, बंगाल की पूर्व राजधानी जेसोर के मोहम्मदपुर में सीताराम उत्सव की अध्यक्षता करने के लिए जब बाघा जतिन या जतिंद्र नाथ मुखर्जी को आमंत्रित किया गया तो उनके साथ तारक भी इसमें शामिल हुए. इस अवसर पर, एक गुप्त बैठक का आयोजन किया गया जिसमें तारक, श्रीश चंद्र सेन, सत्येन्द्र सेन और अधर चन्द्र लस्कर सहित जतिन भी उपस्थित थे: सभी को एक के बाद एक विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाना था। 1952 तक उस गुप्त बैठक के उद्देश्य के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी, जब बातचीत के दौरान तारक ने इसके बारे में बताया। विशिष्ट उच्च शिक्षा के साथ, उन्हें सैन्य प्रशिक्षण और विस्फोटकों का ज्ञान प्राप्त करना था। उन्होंने विशेष रूप से भारत की स्वतंत्रता के फैसले के पक्ष में स्वतन्त्र पश्चिमी देशों के लोगों के बीच सहानुभूति का वातावरण बनाने का आग्रह किया।

1924 में उनके छूटने के बाद तारक ने लम्बे समय की दोस्त और दान करने वाली मेरी किटिंगे मोर्स से शादी की। वह नेशनल एसोसिएशन फॉर द एड्वांसमेंट ऑफ कलर्ड पिपुल और नेशनल वूमेन पार्टी संस्थापक सदस्य थी। उनके साथ, वे यूरोप की एक विस्तारित दौरे पर गए थे। उन्होंने अपनी गतिविधियों के लिए म्यूनिख को मुख्यालय बनाया। यह वहां था जहां उन्होंने भारत इंस्टिट्यूट की स्थापना की थी, जहां सराहनीय भारतीय छात्रों को जर्मनी में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्रवृत्ति दी जाती थी।

रजनी कांत शुक्ला