सदाचार-सत्य की विजय का महापर्व है दशहरा

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बाल मुकुन्द ओझा

सत्य पर असत्य की जीत का सबसे बड़ा त्योहार दशहरा देशभर में 2 अक्टूबर को मनाया जाएगा।  हिंदू पंचांग के अनुसार, 1 अक्टूबर की शाम 7 बजकर 2 मिनट से दशमी तिथि शुरू हो जाएगी जो 2 अक्टूबर को शाम 7 बजकर 10 मिनट तक रहेगी। यही वजह है कि रावण दहन 2 अक्टूबर को ही किया जाएगा। भगवान राम ने बुराइयों के प्रतीक रावण का वध कर देश और दुनियां को भय, आतंक और डर से मुक्ति दिलाई थी। अब तो घर घर रावण रूपी बुराई और आतंक ने अपना साम्राज्य फैला रखा है जिसे समाप्त करने के लिए एक नहीं असंख्य राम की जरुरत है। दशहरा या विजयदशमी पर्व हम हजारों सालों से मानते आरहे है। राम सत्य और रावण बुराई का प्रतीक माना गया है। यह भी कहा जा सकता है कि यह अन्याय पर न्याय और अधर्म पर धर्म की विजय है। यह सतयुग की घटना बताई जा रही है। वर्तमान को हम कलियुग के रूप में जानते है। इसमें कितनी सच्चाई है यह तो बस ईश्वर ही जनता है। उस समय एक रावण मारा गया मगर आज तो हमारे सामने रावणों की फौज खड़ी है जो अलग अलग मुखोटे  लगाए घर घर बुराई फैला रही है यानि आज एक नहीं अनेक रावण है जो विभिन्न बुराइयों के प्रतीक है। असली दशहरा तो तभी मनाने में मजा आये जब इन सभी रावणों का धूमधाम से वध हो। आज घर घर रावण पग पग लंका देखी जा रही है। कहीं  गुफा वाले रावण है तो कहीं फल वाले रावण। कहीं नाचते गाते रावण देखे जा रहे है तो कहीं भक्त बने रावण। अब तो आस्था स्थलों पर भी जाते डर लगता है।  जाने किस मोड़ पर रावण मिल जाये। एक गायक ने इन शब्दों में व्याख्या की है –

कलयुग बैठा मार कुंडली जाऊ तो मै कहाँ जाऊ

अब हर घर में रावण बैठा इतने राम कहाँ से लाऊ।

तुलसीदास कृत रामायण के अनुसार रावण ने सीता माता का हरण जरूर किया मगर सतीत्व से खिलवाड़ नहीं किया। वह अपनी बहन सूर्पणखां का बदला लेना चाहता था।  रावण शादी के लिए डराता धमकाता रहा मगर कोई जोर जबरदस्ती नहीं की। मगर आज के रावण धर्मोपदेशक के रूप में हमारे साथ छल कपट करने पर उतारू है। आस्था के साथ सरेआम खिलवाड़ कर रहे है। बेटी और बहन के रिश्ते को तार तार कर रहे है और हम अंधे हो कर सब कुछ देखते हुए भी अनजान बने हुए है। जब तक हम ऐसे रावणों को नहीं पहचानेंगे तब तक आज की सीता की इज्जत यूँ ही लूटती रहेगी। आज के रावण स्वयं को रावण नहीं मानते वे अपने को राम मानकर चलते है। वे खुद को सच्चा और सामने वाले को झूठा ठहराने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते। बहरहाल हम एक बार फिर विजयदशमी पर्व मना रहे है। सदा की तरह परिवार के साथ मैदान पर पहुंचकर रावण वध देखेंगे। मेले का आनद लेंगे। कुछ खाएंगे पियेंगे औए घर लौटकर पर्व की जुगाली करेंगे।

 आइये हम भी इस कथा सारणी के पन्ने पलटे। दशहरा या विजयदशमी देश का एक प्रमुख त्योंहार है। दशहरा का अर्थ है, वह पर्व जो पापों को हर ले। अन्याय के युग के अंत का यह पर्व है। दशहरा भक्ति और समर्पण का पर्व है । आश्विन शुक्ल दशमी को विजयदशमी का त्योहार देश भर में लाखों लोगों द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है। खुले स्थानों पर मेलों का आयोजन एवं राक्षसराज रावण कुम्भकरण और मेघनाथ के बड़े- बड़े पुतलों का प्रदर्शन किया जाता है। यह त्योहार हमें प्रेरणा देता है कि हमें अंहकार नहीं करना चाहिए क्योंकि अंहकार के मद में डूबे हुये व्यक्ति का एक दिन विनाश तय है। रावण बहुत बड़ा विद्वान और वीर व्यक्ति था परन्तु उसका अंहकार ही उसके विनाश कारण बना। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द ‘दश- हर’ से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ दस बुराइयों से छुटकारा पाना है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। विजयादशमी का यह त्योंहार बुराइयों पर अच्छाई का प्रतीक है। दशहरा अच्छाई की बुराई पर जीत का पर्व है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने रावण का अंत कर दिया था लेकिन अच्छाई और बुराई के बीच की यह जंग आज भी जारी है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

“जलते पुतले, बढ़ते रावण: दशहरे का बदलता अर्थ”

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“पुतलों का दहन नहीं, मन और समाज के भीतर छिपी बुराइयों का संहार ही दशहरे का असली संदेश है।”

दशहरे पर रावण के पुतले जलाना केवल परंपरा नहीं, बल्कि बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। लेकिन आज पुतले केवल मनोरंजन बनकर रह गए हैं, जबकि समाज में अहंकार, हिंसा, वासना और अन्य बुराइयाँ लगातार बढ़ रही हैं। असली रावण हमारे भीतर और समाज में मौजूद हैं। यही समय है कि हम अपने मन के रावणों की पहचान करें, उन्हें त्यागें और समाज से अपराध, छल-कपट और अन्य अधर्म को मिटाने का संकल्प लें। तभी दशहरा वास्तव में विजयादशमी बन सकता है।

– डॉ सत्यवान सौरभ

हर साल जब दशहरे की शाम को रावण के विशाल पुतले धू-धू कर जलते हैं, तो दर्शकों की आँखों में उत्सव का रोमांच दिखाई देता है। पटाखों की गड़गड़ाहट, आतिशबाज़ी की चमक और भीड़ का शोर इस पर्व को एक रंगीन उत्सव में बदल देता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस पूरे आयोजन का संदेश—बुराई पर अच्छाई की जीत—हमारे जीवन और समाज में कहीं उतर पाता है?

आज दशहरा एक मनोरंजन का ट्रेंड बनकर रह गया है। लोग पुतले जलाते हैं, फोटो और वीडियो बनाते हैं, सोशल मीडिया पर साझा करते हैं। लेकिन यह सोचने का समय शायद ही निकालते हैं कि यह रावण दहन केवल परंपरा निभाने के लिए नहीं, बल्कि हमें आत्ममंथन और सामाजिक सुधार का अवसर देने के लिए शुरू हुआ था।

रामायण की कथा में रावण केवल एक पात्र नहीं था, बल्कि वह उन बुराइयों का प्रतीक था जो इंसान को पतन की ओर ले जाती हैं—अहंकार, वासना, छल, क्रोध और अधर्म। रावण जैसा महाज्ञानी, शिवभक्त और शूरवीर भी अपनी एक गलती—वासना और अहंकार—के कारण विनाश को प्राप्त हुआ। दशहरा हमें यही याद दिलाने आता है कि यदि बुराई चाहे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः उसका नाश निश्चित है।

लेकिन आज दशहरे का स्वरूप बदल चुका है। अब रावण दहन व्यावसायिक और दिखावटी उत्सव में बदल गया है। हर साल पुतले और बड़े बनाए जाते हैं, पटाखों पर लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं। रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले कुछ वर्षों में रावण पुतलों की संख्या कई गुना बढ़ी है, पर समाज में अपराध और बुराइयों का ग्राफ घटने की बजाय बढ़ा ही है।

आज के दौर में रावण केवल पुतलों तक सीमित नहीं है। वह हमारे बीच, हमारे आस-पास, हमारे भीतर मौजूद है। समाज में अपराध, बलात्कार, हत्या, दहेज हिंसा, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और नशे की लत जैसी घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। रिश्तों का पतन भी चिंता का विषय है—मां-बाप, भाई-बहन, यहाँ तक कि बच्चों तक की हत्या की खबरें आए दिन सामने आती हैं। आज का इंसान ज्यादा पढ़ा-लिखा और आधुनिक है, लेकिन बुराइयाँ भी उतनी ही तेज़ी से पनप रही हैं।

विडंबना यह है कि जिस रावण को हम हर साल जलाते हैं, वह अकेला था। विद्वान था, नीतिज्ञ था, अपने परिवार और राज्य के प्रति कर्तव्यनिष्ठ था। उसकी एक गलती उसे विनाश की ओर ले गई। लेकिन आज का रावण—यानी आज का अपराधी और बुराई का प्रतीक—उससे कहीं अधिक क्रूर, धूर्त और निर्लज्ज है।

दशहरे का पर्व हमें यह याद दिलाने के लिए है कि बुराइयाँ कितनी भी ताकतवर क्यों न हों, उन्हें मिटाना ही होगा। लेकिन केवल पुतले जलाने से बुराइयाँ खत्म नहीं होंगी। हमें यह समझना होगा कि आज का रावण बाहर ही नहीं, भीतर भी है। हर इंसान के भीतर अहंकार, क्रोध, वासना, ईर्ष्या और लालच जैसे रावण मौजूद हैं। जब तक इनका दहन नहीं होगा, तब तक समाज में शांति और न्याय संभव नहीं।

पुतला जलाने के साथ हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने जीवन से कम-से-कम एक बुराई को अवश्य दूर करेंगे। दशहरे का संदेश तभी सार्थक होगा जब समाज सामूहिक रूप से भ्रष्टाचार, हिंसा, नशाखोरी, दहेज और महिला शोषण जैसी बुराइयों के खिलाफ खड़ा होगा।

आज के दौर का सबसे बड़ा संकट यह है कि समाज बुराइयों के प्रति संवेदनहीन होता जा रहा है। हर दिन अख़बारों में दुष्कर्म, हत्या और भ्रष्टाचार की खबरें छपती हैं, लेकिन हम उन्हें सामान्य मानकर टाल देते हैं। पुतला जलाने के बाद हम चैन से घर लौट आते हैं, मानो बुराई का अंत हो चुका हो। हकीकत यह है कि आज के रावण सर्वव्यापी हैं। वे महलों में भी रहते हैं और झोपड़ियों में भी। वे पढ़े-लिखे भी हैं और अशिक्षित भी। वे राजनीति, व्यापार, शिक्षा और समाज के हर क्षेत्र में फैले हुए हैं।

राम केवल एक ऐतिहासिक या धार्मिक पात्र नहीं, बल्कि आदर्श और मूल्यों का प्रतीक हैं। राम का अर्थ है धर्म का पालन। राम का अर्थ है सत्य और न्याय के लिए संघर्ष। राम का अर्थ है मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा। लेकिन आज का समाज राम के गुणों को अपनाने के बजाय केवल राम के नाम का राजनीतिक और धार्मिक उपयोग कर रहा है। परिणाम यह है कि रावण जलते तो हैं, पर मन के रावण और समाज के रावण और अधिक शक्तिशाली होकर खड़े हो जाते हैं।

दशहरा हमें अवसर देता है कि हम रुककर सोचें—क्या हम अपने भीतर के रावण को पहचान पा रहे हैं? क्या हम अपने जीवन से एक भी बुराई कम कर पाए हैं? क्या हम समाज को बेहतर बनाने के लिए कोई ठोस कदम उठा रहे हैं? यदि इन सवालों का जवाब “नहीं” है, तो हमें स्वीकार करना होगा कि रावण दहन केवल एक परंपरा बनकर रह गया है।

सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि हम केवल पुतले जलाने की रस्म न निभाएँ, बल्कि अपने भीतर और समाज में मौजूद रावणों को पहचानें और उनका संहार करने का साहस दिखाएँ। तभी दशहरा एक सच्चे अर्थ में विजयादशमी बन पाएगा। जब-जब हम अपने भीतर के अहंकार, वासना और लोभ को परास्त करेंगे, तब-तब हमारे भीतर का राम जीवित होगा। और तभी हम कह सकेंगे कि रावण सचमुच मरा है।

– डॉ सत्यवान सौरभ

धरती की सज़ा: हमने किया क्या?

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सितम्बर का महीना है, लेकिन धूप ऐसी तपा रही है जैसे जून की झुलसाती गर्मी हो। लोग पसीने से बेहाल, बिजली कट रही है तो हालात और खराब। पंखे और कूलर जैसे कोई राहत नहीं दे पा रहे। हमारे बुजुर्ग कह रहे हैं कि हमारे जमाने में सितम्बर तक हल्की ठंडक आने लगती थी। खेत-खलिहानों में काम करना आसान होता था पर अब मौसम का मिजाज ही बदल गया है। इस बदलाव की असली वजह कहीं और नहीं, बल्कि हमारे ही किए गए काम हैं। प्लास्टिक का कचरा जगह-जगह पड़ा मिलता है। गली, मौहल्ला, नाले, नदी सब जगह। एक ओर लोग सुविधा के लिए प्लास्टिक की थैली का इस्तेमाल करते हैं, दूसरी ओर वही थैली धरती और पानी का गला घोंट रही है। नालियां जाम होती हैं। पानी का बहाव रुकता है और फिर बरसात के दिनों में बाढ़ जैसी स्थिति खड़ी हो जाती है। इसी तरह फैक्ट्री से निकलता धुआं और गाड़ियों का प्रदूषण भी कम नहीं। सुबह-शाम सड़क पर निकल जाओ तो धूल, धुआं और शोर कान फोड़ देता है। बच्चों के फेफड़े कमजोर हो रहे हैं, अस्थमा और एलर्जी जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। गांवों में भी अब शुद्ध हवा और पानी मिलना मुश्किल हो गया है।सबसे बड़ा नुकसान पेड़ों के कटने से हो रहा है। जहां कभी बड़े-बड़े पीपल, नीम और बरगद की छांव में लोग बैठकर सुस्ताते थे, वहीं अब सीमेंट-कंक्रीट की इमारतें खड़ी हैं। खेतों के किनारे लगी हरियाली की मेड़ें काट दी गईं। शहरों में पार्क तो बने हैं पर उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। लोग पौधारोपण करते हैं। फोटो सेंशन तक यह पौधारोपण सीमित रहता है और उसके बाद यह पौधे सूख जाते हैं। यही वजह है कि गर्मी इतनी बढ़ गई है कि सितम्बर भी जून जैसा लग रहा है, लेकिन तस्वीर पूरी तरह नकारात्मक नहीं है।

हमारे देश में आज भी कई जगह लोग पर्यावरण को बचाने के लिए आगे आ रहे हैं। कोई प्लास्टिक मुक्त अभियान चला रहा है तो कहीं स्कूल के बच्चे या कुछ एन.जी.ओ. सप्ताह या महीने में एक दिन पौधारोपण कर रहे हैं। उत्तराखंड, हिमाचल जैसे राज्यों में लोग जंगलों को बचाने के लिए आंदोलन खड़े करते हैं। किसान जैविक खेती अपनाकर मिट्टी और पानी दोनों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ शहरों में महिलाएं कपड़े की थैली बनाने का छोटा-सा व्यवसाय चला रही हैं। ताकि लोग कपड़े की थैली इस्तेमाल करें और प्लास्टिक से बचें। सकारात्मक बात यह भी है कि नई पीढ़ी इस मसले को समझ रही है। सोशल मीडिया पर युवा क्लीन इंडिया, ग्रीन इंडिया के नारे को फैला रहे हैं। शादी-ब्याह में भी अब कुछ लोग प्लास्टिक की प्लेट, गिलास छोड़कर पत्तल-दोने का इस्तेमाल करने लगे हैं। यह छोटी-छोटी कोशिशें ही बड़े बदलाव की नींव बनेंगी। फिर भी चुनौतियां कम नहीं। सरकार नियम बनाती है, लेकिन पालन में ढिलाई रहती है। उद्योगपति मुनाफे के लिए प्रदूषण फैलाने से नहीं चूकते। आम लोग भी सुविधा देखकर गलत रास्ता चुन लेते हैं कि जैसे ठंडी कोल्ड ड्रिंक पीने के बाद बोतल सड़क पर फेंक देना। सवाल यह है कि जब तक हम सभी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे, तब तक कानून और अभियान कुछ खास नहीं कर पाएंगे। सोचिए जब सितम्बर में ही जून जैसी गर्मी महसूस हो रही है तो आने वाले सालों में हालात क्या होने वाले है। अगर पेड़ नहीं लगाए गए, प्लास्टिक पर रोक नहीं लगी और प्रदूषण पर काबू नहीं पाया गया तो आने वाली पीढ़ियों को सांस लेने के लिए भी साफ हवा नसीब नहीं होगी, लेकिन उम्मीद अभी बाकी है। अगर हर इंसान अपनी आदत बदल लें कि बाजार जाते वक्त कपड़े का झोला ले जाए। मोहल्ले में गीला व सूखा कूड़ा अलग-अलग करें। घर या गली में एक पौधा लगाए और जरूरत से ज्यादा बिजली-पानी बर्बाद न करें तो हालात सुधर सकते हैं। सरकार, समाज और हम सब मिलकर काम करें तो सितम्बर में फिर से ठंडी हवाएं बह सकती हैं और भारत की धरती पर हरियाली लौट सकती है। यानी बात साफ है कि पर्यावरण संकट को लेकर तस्वीर दो पहलुओं वाली है। नकारात्मक यह कि लापरवाही और स्वार्थ ने हमें मुसीबत में डाल दिया है। सकारात्मक यह कि अगर अभी से सुधर गए तो आने वाले कल को बचा सकते हैं। भारत की ताकत यही है कि जब लोग मिलकर ठान लें तो नामुमकिन भी मुमकिन हो जाता है।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

त्यौहारों की मिठास और मिलावट का सच: खुशियां या खतरा?

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भारत देश में त्यौहारों का मौसम हमेशा रौनक और रंगीनियों से भरा होता है। दशहरा से लेकर दीपावली तक, हर घर में खुशियों की मिठास बिखरती है। बाजारों में दुकानों की सजावट, झिलमिलाती रोशनियाँ और घर-घर में मिठाइयों की खुशबू, यही तो हैं हमारे त्यौहार की असली पहचान। बच्चे उत्साह से खिलखिलाते हैं, बड़े अपने रिश्तेदारों को याद करते हैं और पूरा समाज मिलकर इन पर्वों की तैयारी में जुट जाता है। यही हमारी संस्कृति की खूबसूरती है, जो हमें मिल जुलकर खुशियाँ बाँटना सिखाती है, लेकिन यही दृश्य जब थोड़ा करीब से देखें तो पीछे छुपा हुआ सच भी सामने आता है।

दशहरे और दीपावली जैसे बड़े पर्वों पर बाजारों में मिठाई और मावा तैयार करने वालों की लापरवाही और मिलावटखोरी का खेल भी जोर पकड़ लेता है। नकली मिठाई, मिलावटी मावा, रंग-रोगन से भरे गुड़ और तेल में डूबी हलवाई की दुकानें, ये सब सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं और इससे सीधे ग्राहक की सेहत खतरे में पड़ जाती है। ग्राहक की बेफिक्री और दुकानदार की लालच में ही यह बुरी आदत जन्म लेती है। वह मिठाई जो बच्चों की मुस्कान और रिश्तों की मिठास लाने के लिए बनती है, वही अब घातक मिलावट का माध्यम बन जाती है। नकली मावा, रसायनों से भरी लड्डू और ढीली चॉकलेट। ये केवल स्वास्थ्य के लिए खतरा नहीं, बल्कि हमारे त्यौहारों की असली पहचान को भी नुकसान पहुँचाते हैं। नकारात्मक पक्ष केवल दुकानदार और मिठाई तक ही सीमित नहीं है। खाद्य विभाग की लापरवाही और कानून की ढील भी इस समस्या को और बढ़ावा देती है। औपचारिक कार्यवाही अक्सर टालमटोल और दिखावे तक सीमित रहती है। ठेकेदारों और दुकानदारों को संरक्षण मिलना, जांच में ढिलाई और नियमों में लचीलापन, ये सब मिलकर भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। ग्राहक की शिकायतें अक्सर अनसुनी रह जाती हैं। परिणामस्वरूप त्यौहार की खुशी के साथ-साथ स्वास्थ्य का खतरा भी घर-घर पहुँचता है, लेकिन हर कहानी का एक सकारात्मक पहलू भी होता है। आजकल कई जागरूक ग्राहक और समाजसेवी संगठनों ने इस बुराई के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है। सोशल मीडिया पर नकली मिठाई, मिलावटखोरी और असुरक्षित खाद्य सामग्री की खबरें फैल रही हैं। लोग अब केवल मिठाई के स्वाद से संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि उसकी शुद्धता और गुणवत्ता के प्रति भी सजग हो रहे हैं। इसके अलावा कुछ छोटे और जिम्मेदार हलवाई ऐसे हैं जो पारंपरिक तरीकों और शुद्ध सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। इनकी मिठाई में सिर्फ स्वाद ही नहीं, बल्कि भरोसे और संस्कृति की मिठास भी मिलती है। ये व्यवसाय धीरे-धीरे ग्राहकों के विश्वास के कारण तरक्की कर रहे हैं। इस पहलू से देखा जाए तो समस्या के बावजूद उम्मीद की किरण भी दिखाई देती है।त्यौहारों का असली मकसद खुशियाँ बांटना, रिश्तों को मजबूत करना और संस्कृति को जीवित रखना है। यदि हम समाज के रूप में सचेत हो, दुकानदार जिम्मेदार हों और प्रशासन नियमों का पालन करें तो यह खतरा काफी हद तक कम किया जा सकता है। मिलावटखोरी और भ्रष्टाचार पर कड़ी नजर रखी जाए। औपचारिक कार्रवाई समय पर हो और ग्राहक को जागरूक किया जाए। तभी दशहरा और दीपावली का असली रंग लौट सकता है। सच तो यह भी है कि हमारे त्यौहार और बाजार दोनों ही हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। एक तरफ मिठाई, रोशनी और उत्साह हैं, वहीं दूसरी तरफ मिलावट, भ्रष्टाचार और लापरवाही भी हैं। इस सामूहिक परिदृश्य को देखकर हमें यह समझना होगा कि त्यौहार केवल बाहर दिखावे के लिए नहीं होते, बल्कि असली मिठास और खुशियाँ तभी कायम रहेंगी जब हम जिम्मेदारी और सच्चाई को भी त्यौहार में शामिल करें।समाज की सजगता, प्रशासन की पारदर्शिता और ग्राहक की सतर्कता.. यही तीन स्तंभ हैं, जो हमारी मिठाई को केवल स्वादिष्ट ही नहीं, बल्कि सुरक्षित और सच्ची भी बनाए रख सकते हैं। तभी दशहरा और दीपावली का असली मज़ा, बिना किसी मिलावट और धोखे के हर घर में महसूस होगा।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

ढाक के तीन पात : भाषा, संस्कृति और प्रतीक का रहस्य

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डॉ मेनका त्रिपाठी

भाषा विज्ञान की दुनिया अनेक रहस्यो की परत खोलती है,ढाक के तीन पात का मुहावरा हम सबने सुना है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ढाक होता क्या है?

ढाक को पलाश और टेसू के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Butea monosperma है। संस्कृत और प्राचीन ग्रंथों में इसे किंशुक, रक्तपुष्पक, ब्रह्मवृक्ष, ब्राह्मणपोष, पर्णी, त्रिपत्रक, कठपुष्प, केसुदो और पलाशा जैसे विविध नामों से संबोधित किया गया है। यह नाम केवल भाषाई भिन्नता नहीं दर्शाते बल्कि इस वृक्ष के प्रति समाज और संस्कृति की गहरी आस्था को भी प्रकट करते हैं।

ढाक की सबसे विशिष्ट पहचान इसके तीन पत्ते हैं। प्रत्येक शाखा पर तीन पत्ते जुड़े रहते हैं। बेल पत्र भी तीन होते है लेकिन ढाक के तीन पत्तों के कारण से यह मुहावरे का आधार बना और पूरी कहावत मे कहा गया कि ढाक के तीन पात, चौथा लगे न पाँचवी की आस।

यह अभिव्यक्ति असंभवता और सीमाओं का प्रतीक बनकर लोकजीवन में रच-बस गई।

ढाक का स्थान केवल भाषा तक सीमित नहीं है। गाँवों और लोकसंस्कृति में ढाक के पत्तों का उपयोग पत्तल और दोना बनाने में होता रहा है। पकवानों और व्यंजनों जैसे चाट पकौड़ी इन्हीं पत्तों पर परोसे जाते थे। धार्मिक परंपराओं में भी इनका विशेष महत्व है। ये शुद्ध होते है सच मानिये स्वाद भी आता है अब तो लोग फैशन मे भी इन्हे प्रयोग मे ला रहे है

रामायण महाभारत में वर्णित चित्रणों और सीता-राम की जन्मकथाओं में ढाक के पत्तों का प्रयोग पूजा-अर्चना और फल अर्पण के लिए किया जाता था।

भाषाविज्ञान की दृष्टि से ढाक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के पलाश और किंशुक शब्दों से जुड़ती है। ध्वनि और प्रयोग के स्तर पर यह ढलकर लोकभाषा में ढाक बन गया। यह परिवर्तन दिखाता है कि किस प्रकार एक वृक्ष केवल प्राकृतिक इकाई न रहकर भाषा, साहित्य और संस्कृति का अंग बन जाता है।

संस्कृत साहित्य में किंशुक की शोभा का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। एक श्लोक में कहा गया है –

किंशुकः शोणपुष्पश्रीः पावकोऽग्निसमप्रभः।

यत्र यत्र स्थितो लोके तत्र तत्र शुभं भवेत्॥

अर्थ यह है कि किंशुक अपने लाल पुष्पों से अग्नि के समान दीप्तिमान दिखाई देता है और जहाँ भी होता है वहाँ शुभता का संचार करता है।

ढाक के तीन पात का मुहावरा इस प्रकार केवल एक कहावत भर नहीं, बल्कि भाषा, समाज और संस्कृति के बीच गहरे संबंध का प्रतीक है। यह इस तथ्य को उजागर करता है कि भारतीय लोकजीवन में वृक्ष और उनके पत्ते भी वाणी और अभिव्यक्ति का हिस्सा बन जाते हैं।

मेनका त्रिपाठी

संघ, गांधी और लद्दाख के सोनम वांगचुक

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अरुण कुमार त्रिपाठी
ऐसा कम होता है लेकिन इस साल हो रहा है। इस साल ‘पूर्णमासी के दिन सूर्यग्रहण’ लग रहा है। महात्मा गांधी की जयंती यानी दो अक्तूबर को ही दशहरा पड़ रहा है और उसी दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सौ साल पूरे हो रहे हैं। यह भी गजब संयोग देखिए कि उससे हफ्ते भर पहले गांधीवादी तरीके से लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और उस क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में डालने की मांग कर रहे न्यू लद्दाख मूवमेंट के नेता सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। अब भाजपा की आईटी सेल समेत तमाम हिंदुत्ववादी उन्हें देशद्रोही सिद्ध करने में लग गए हैं। बांग्लादेश के मुख्य प्रशासनिक सलाहकार मोहम्मद युनूस के साथ उनकी फोटो और पाकिस्तान के अखबार डॉन के कार्यक्रम में उनकी भागीदारी की पोस्ट के माध्यम से यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है कि उनकी देशभक्ति संदिग्ध है। कहा जा रहा है कि उन्होंने ‘जेन जी’ यानी युवा पीढ़ी को हिंसा के लिए भड़काया है।
दो अक्तूबर को दशहरा और संघ का शताब्दी वर्ष पड़ने के कारण गांधी जयंती पर होने वाले तमाम कार्यक्रम रद्द हो गए हैं। कुछ गांधीजन इसे इसे सांप्रदायिकता विरोधी दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं लेकिन देखना है वे कैसे मनाते हैं। यह भी जानना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उस दिन महात्मा गांधी को किस तरह से याद करता है। हिंदुत्ववादियों की ट्रॉल ब्रिगेड उन्हें अपनी हिंसा का कितना निशाना बनाती है। लेकिन इन संयोगों के आसपास होने वाले विचार विमर्श यह साबित करते हैं कि गांधी विचार से प्रेरित नागरिकों और संगठनों के सामने सावरकर के विचारों से प्रेरित संगठनों से टकराव अवश्यंभावी है। उनके मध्य समन्वय का कोई बीच का रास्ता बनता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। सावरकर का विचार बहुसंख्यकवादी एकचालानुवर्ती संगठन और उसके माध्यम से कायम होने वाली राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तानाशाही की ओर जाता है। जबकि गांधी का विचार लोकतंत्र, विकेंद्रीकरण, मानवाधिकार और पर्यावरण रक्षा की ओर जाता है।
सावरकर और उनसे प्रेरित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विचार वास्तव में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उस उस युरोपीय राष्ट्रनिर्माण और औद्योगिक विकास की नकल है जो संसार को विनाशकारी महायुद्ध की ओर ले जाता है। आज वह विचार अमेरिका और उसके उद्दंड बालक इजराइल के तौर पर नए सिरे से जोर मार रहा है। पूरे भारत को मुट्ठी में कैद कर लेने वाले संगठन संघ का विचार भी उसी का सहोदर है। यह राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक ध्रुवीकरण, सरकारी दमन और आज्ञाकारी समाज निर्माण और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियार जमा करके पड़ोसियों से युद्ध की ओर जाता है। राष्ट्रीय गौरव की पुनर्स्थापना, धर्म की रक्षा वगैरह इसकी रणनीतियां हैं। यह विचार भावनाओं पर इस कदर आधारित है कि इसे विचार कहना भी बेइमानी लगता है। अगर इसके रेशे रेशे पर चर्चा करें तो इसमें झूठ और धोखाधड़ी का इतना बड़ा तत्व निकलेगा कि यहां उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है। वास्तव में यह कोई विचार नहीं बल्कि विचारहीनता का कोहरा है।
दूसरी ओर महात्मा गांधी के चिंतन और कर्म से निकला उनका विचार है जो दुनिया के भविष्य के लिए अनिवार्य है। उसमें भावना और उत्तेजना के बजाय मानवीय संवेदना है। उसकी तर्कपद्धति ऊपरी तौर पर भले ही बासी लगे लेकिन उसे हर समय और परिस्थिति में रखकर देखिए तो उसमें ताजगी का सुवासित गहरा झोंका उठता हुआ दिखाई देगा। उसमें घृणा और आशंका नहीं अभय और प्रेम है। यह महज संयोग नहीं है कि बीसवीं सदी के पहले दशक में लंदन में गांधी और सावरकर की मुलाकात दशहरे के मौके पर हुई थी और दोनों ने उस पर्व की अपने अपने ढंग से व्याख्या की थी। सावरकर के लिए वह पर्व हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देने वाला था, जबकि गांधी के लिए अहिंसा के माध्यम से असत्य और बुराई के विरुद्ध बाहरी और भीतरी अहिंसक संघर्ष की प्रेरणा।
गांधी और सावरकर के विचारों का यह संघर्ष तब से आज तक जारी है। वह सारे संसार को झकझोर देने वाली गांधी हत्या और सावरकर की गुमनाम मृत्यु से समाप्त नहीं हुआ। बल्कि अगर हम मशहूर साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति को पढ़ें तो लगता है कि वह आगे भी जारी रहने वाला है। उन्होंने 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्तारूढ़ होने से पहले अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका ‘हिंदुत्व या हिंद स्वराज’(मूलतः कन्नड़) के माध्यम से इस बात को रेखांकित किया था। उनका कहना था कि सावरकर के हिंदुत्व का विचार औद्योगिक और सैन्य शक्ति पर आधारित केंद्रीकरण का फासीवादी विचार है। इस विचार में पर्यावरण और कमजोर समाजों का विनाश अंतर्निहित है। जबकि गांधी का विचार सत्य, मानव स्वतंत्रता और पर्यावरण की रक्षा पर आधारित विकेंद्रीकरण का एक हिंसा विरोधी विचार है।
लद्दाख के सोनम बांगचुक और केंद्र सरकार के बीच हुआ टकराव दरअसल इन विचारों का टकराव है। यह विकास के दो मॉडल का टकराव है। एक मॉडल चाहता है कि लद्दाख का समाज दिल्ली से नियंत्रित हो और वहां के लोगों के नागरिक अधिकार और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार भी सीमित हों। वहां बड़ी आर्थिक शक्तियों को खनिजों और अक्षय ऊर्जा के दोहन का असीमित अधिकार हो। लद्दाख के नागरिकों को निरंतर संदेह की नजर से देखा जाए और आर्थिक और सैन्य शक्तियों पर सदैव भरोसा किया जाए। दूसरी और नव लद्दाख आंदोलन का विचार यह है कि वहां के लोगों को अपने विकास का रास्ता तय करने और उसे अपने ढंग से संचालित करने का अधिकार हो। वहां की धरती और पर्यावरण को लद्दाख के स्थानीय विवेक के लिहाज से संचालित और व्यवस्थित किया जाए। इसीलिए वे लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने और उसे पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह से छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग भी कर रहे हैं। लद्दाख के लोगों का मानना है कि अपने क्षेत्र के विकास और उसकी रणनीतिक स्थिति के बारे में उनका ज्ञान किसी और इलाके या दिल्ली के लोगों के ज्ञान से बेहतर है। जबकि दिल्ली मानती है कि असली देशभक्ति और राष्ट्रीय हित को वे ही समझते हैं जिनके हाथों में सैन्य शक्ति है और उत्पादन के बड़े साधन हैं।
सोनम बांगचुक लद्दाख के गांधी कहे जाते हैं। हालांकि वे इस तरह के विशेषण को स्वीकार करने से इंकार करते हैं। पर उनके चरित्र की एक झलक राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में रैंचो यानी फुंसुक बांगड़ू के रूप में देखी जा सकती है। वह बालक जिसने किसी तरह अपने संकटपूर्ण बचपन से निकलकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिर समाज के साथ मिलकर इतने नवोन्मेष किए कि उसके नाम पर तमाम पेटेंट बने। उसने विज्ञान को मुनाफे का धंधा बनाने के बजाय उसे समाज और अपने पर्यावरण के लिए उपयोगी बनाया है। उसने सौर ऊर्जा से सैनिकों के रहने के लिए गर्म टेंट बनाए, पानी की कमी दूर करने के लिए बर्फ के स्तूप का निर्माण किया और गांधी की बुनियादी तालीम के दर्शन को जमीन पर उतारने के लिए पहले स्टूडेंट्स इजूकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट आफ लद्दाख और फिर हिमालयन इंस्टीट्यूट फार आल्टरनेटिव लद्दाख जैसे संस्थान बनाए। वांगचुक एक नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा है। जिसे बर्दाश्त करना विकास के केंद्रीकृत और क्रूर मॉडल के लिए संभव नहीं है। इसीलिए कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक रहे और सरकार से प्रशंसा प्राप्त कर चुके वांगचुक आज देशद्रोही बनाए जा रहे हैं। यह स्वदेशी के मोदी विचार का शीर्षासन नहीं तो और क्या है?
वास्तव में वांगचुक का विचार डॉ राम मनोहर लोहिया के हिमालय बचाओ विचार का ही विस्तार और जमीनी प्रयोग है। उसमें भारतीय भूभाग की रक्षा के साथ ही हिमालय जैसी विलक्षण पारिस्थितिकी की रक्षा का प्रयास भी है। पर मुश्किल है कि सत्ता के अहंकार और खोखले राष्ट्रवाद में मदमस्त लोगों को न तो हिमालय समझ में आता है और न ही उसकी पारिस्थितिकी का महत्त्व। उनके लिए मध्य भारत का दंडाकारण्य बड़ी कंपनियों के खनन का मैदान है तो हिमालय एक बड़ी सैन्य छावनी। अब तो हिमालय एक विशाल खनन क्षेत्र के तौर पर भी उभर रहा है। लद्दाख इसीलिए त्रस्त है। सरकार यह भूल रही है कि हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पर्वतीय प्रदेश और पंजाब जैसे मैदानी इलाकों में इस साल जो भयंकर बाढ़ आई है उसकी वजहें विनाशकारी विकास की योजनाएं और राष्ट्रवादी हस्तक्षेप हैं।
वांगचुक को न समझने वाले मानव सभ्यता के इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं हैं। सिंधु घाटी से लेकर तमाम सभ्यताएं पर्यावरणीय विनाश का शिकार रही हैं। वहां युद्धों के उतने प्रमाण नहीं हैं जितने पर्यावरण को न समझने के। गांधी पर आज भले ग्रहण लग रहा हो और वांगचुक आज भले जेल में डाले जा रहे हों लेकिन सभ्यता के भावी पथ प्रदर्शक तो वे ही हैं।

अरुण कुमार त्रिपाठी

गलत के लिए भी आप ही जिम्मेदार होंगे

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Sarvesh Kumar Tiwari

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पुराने लोग कहते थे- प्रतिष्ठा कमाने में पूरा जीवन लग जाता है, पर उसे गंवा देने में समय नहीं लगता। एक गलत निर्णय सारे जीवन के किये धरे पर पानी फेर देता है।
सोनम वांगचुक अपने निर्माण, अपने प्रकृति हित, समाजहित में किये गए कार्यों को लेकर देश का सम्मान पाते रहे हैं। यह सामान्य सी बात है। राजनीति भले अंधी हो, देश का आम जनमानस अंधा नहीं है। वह अच्छे लोगों की कद्र करता है, उनका सम्मान करता है। सोनम का भी सम्मान रहा है। लेकिन…
आज का सच तो यही है न कि लद्दाख में पसरी अशांति की जड़ सोनम वांगचुक हैं। उन्ही के अंदोलन को हैक कर के उपद्रवियों ने वहाँ आगजनी की, सरकारी संपत्ति जलाई… वहाँ चार लोग मारे गए, असंख्य घायल हुए। तो क्या इतने बड़े उपद्रव के जिम्मेवार व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिये?
राह चलते एक मुर्गी बाइक के नीचे आ कर मर जाती है तो इस देश का कानून बाइक सवार को जेल भेजता है। उसे थाने से अपनी बाइक छुड़ा लेने में कभी कभी वर्षों लगते हैं। उसी देश में हुए उतने बड़े उपद्रव पर क्या कानून केवल इसलिए चुप्पी साध ले कि इसकी शुरुआत करने वाला व्यक्ति वैज्ञानिक है?
यदि आप एक ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जहां एक वैज्ञानिक जब चाहे तब देश में आगजनी करा सके, एक राजनीतिज्ञ जब चाहे तब तोड़ फोड़ करा सके, एक प्रभावशाली व्यक्ति कभी भी कुछ भी कर सके, तो उसे लोकतंत्र मत कहिये भाई साहब। आप स्वयं नहीं जानते कि आप जो चाह रहे हैं उसे क्या कहना चाहिये।
जिस दिन लदाख में हिंसा हुई, उसी दिन सोनम ने अपना अनशन समाप्त कर दिया। अर्थात वे भी मानते थे कि जो हुआ वह गलत हुआ। फिर आप उसे सही ठहराने पर क्यों तुले हैं?
मैं सोनम के राष्ट्रप्रेम को कठघरे में खड़ा नहीं कर रहा। पर क्या यह सही नहीं कि उस आंदोलन में राष्ट्रीय सम्पत्ति का नुकसान करने निकले अधिकांश लड़कों के आदर्श बंग्लादेश और नेपाल के आंदोलनकारी थे, और वे लद्दाख को नेपाल या बंग्लादेश जैसी दशा में पहुँचाने के उद्देश्य से ही निकले थे। फिर इस अपराध की जवाबदेही तय क्यों न हो? क्या आप इस आतंक का समर्थन केवल इसलिए करेंगे कि यहाँ की वर्तमान सरकार आपको पसन्द नहीं है?
मैं सोनम वांगचुक की मांगों को पूरी तरह समझने का फेसबुकिया दावा नहीं करता, सो उसे पूरा करने या ना करने को लेकर कोई मत देना नहीं चाहता। यह जरूर है कि सत्ता को उनकी मांगों पर विचार करना चाहिये, और यदि सचमुच उसे पूरा करने में कोई विशेष खतरा नहीं तो पूरा किया भी जाना चाहिए। लेकिन अपनी मांगों को लेकर आगजनी करने को स्वीकार किया जाने लगे तो देश दस दिनों तक भी नहीं चलेगा। मौका मिले तो मेरे गाँव के चार लोग केवल इस बात के लिए आग लगा देंगे कि उनका विवाह नहीं हो रहा है। सबकी मांगों को पूरा करने का सामर्थ्य सरकार तो क्या ‘गॉड’ के पास भी नहीं…
एक बात और! आज जितने लोग सोनम को महानतम वैज्ञानिक बता कर उनके समर्थन में खड़े हैं, क्या सचमुच वे सभी उनको पहले से जानते भी थे? क्या उनका समर्थन केवल इस कारण नहीं है कि आज सोनम उनको अपने राजनैतिक एजेंडे के हिसाब से फायदेमंद दिख रहे हैं?
बात विज्ञान की नहीं है, बात अपराध की है। और अपराध कोई गरीब करे या चार सौ पेटेंट वाला अमीर, अपराध अपराध ही होता है!

−सर्वेश कुमार तिवारी

लोकतंत्र और अर्थतंत्र का बेड़ा गर्क कर रही है रेवड़ी संस्कृति

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 बाल मुकुन्द ओझा

जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते है वैसे वैसे राजनीतिक पार्टियां अपने सिद्धांत और विचार त्याग कर जीत हासिल करने के लिए सभी प्रकार के जायज नाजायज हथकंडे अपनाना शुरू कर देती है। रेवड़ी संस्कृति लोकतंत्र और अर्थतंत्र का बेड़ा गर्क कर रही है। यह वही संस्कृति है, जिसे मुफ्तखोरी की राजनीति भी कहा जाता है। सच तो यह है रेवड़ी संस्कृति के कारण हमारे देश की अनेक राज्य सरकारें लगभग दीवालिया होने की कगार पर हैं। उनका बजट घाटा बढ़ता जा रहा है, लेकिन वे मुफ्तखोरी की सियासत को छोड़ने को तैयार नहीं है। क्योंकि चुनाव जो जीतना है। इस साल बिहार और अगले साल बंगाल विधान सभा के चुनाव प्रस्तावित है। चुनाव आते ही मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियों और घोषणाओं का बिगुल बज जाता है। कहा जाता हैं चुनाव जीतने के लिए सब कुछ जायज है। इस कार्य में कोई भी सियासी पार्टी पीछे नहीं रहती। इसकी शुरुआत बिहार से शुरू हो गई है। बिहार में आगामी चुनाव से पहले मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की होड़ शुरू हो गई है। बिहार पर पहले से ही 4 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज है, ऊपर से चुनावी सीजन में मुफ्त योजनाओं के लिए बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं।

बिहार में महिलाओं को साधने के लिए बड़ा धमाका किया गया है। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत प्रधानमंत्री ने 75 लाख ग्रामीण महिलाओं को पहली किस्त के तौर पर 10,000- 10,000 रुपये की राशि ट्रांसफर की। योजना के तहत आगे चलकर प्रत्येक महिला को कुल दो लाख तक की आर्थिक सहायता मिलेगी। इसे महिलाओं के लिए चुनावी सौगात भी कहा जा रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक हाल फिलहाल राजनीतिक पार्टियों द्वारा करीब 33 हजार करोड़ के मुफ्त के वादे किये जा चुके है। चुनाव आते आते 33 हजार करोड़ में कई गुना वृद्धि की संभावनाएं व्यक्त की जा रही है। यानि अभी तो फ्री बीज की यह शुरुआत है, पिक्चर अभी बाकी है। आरजेडी और इंडिया ब्लॉक का आरोप है कि मुख्यमंत्री ने दरअसल उन्हीं वादों की नकल की है, जिन्हें विपक्ष ने जनता से करने का दावा किया था।  

मुख्यमंत्री नीतिश कुमार फ्री बीज की योजनाओं के विरुद्ध रहे है है। उन्होंने दिल्ली चुनाव के दौरान अरविन्द केजरी वाल की मुफ्त बिजली की अवधारणा को ‘गलत काम’ करार देते हुए कहा था कि यह दीर्घकालिक विकास के लिए हानिकारक है और आज वे खुद ही फ्री बीज के रास्ते पर चल निकले है। नीतीश कुमार ने 2022 में केजरीवाल की मुफ्त बिजली योजना को अव्यवहारिक और गलत बताकर तंज कसा था, आज तीन साल बाद खुद ऐसी ही फ्री बिजली योजना लागू कर अपनी सियासी रणनीति बदल ली है। उनका यह कदम न केवल उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि नीतिगत निर्णयों और सिद्धांतों की राजनीति से किनारा करने की स्थिति को भी बताता है। इसीलिए कहा जाता है हाथी के दांत दिखाने के कुछ और होते है। इससे पूर्व आरजेडी नेता तेजस्वी मुफ्तखोरी की अनेक घोषणाएं की घोषणा कर दी थी। चुनावों के दौरान सियासी पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए तरह तरह के वादे और प्रतिवादे करती है। सरकार बनने के बाद चुनावी वादे पूरा करने में पार्टियों के पसीने छुट जाते है। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था तो चौपट तक हो जाती है जिसके कारण सम्बध सरकारों को अपने कर्मचारियों के वेतन आदि  चुकाने के लाले पड़ जाते है। राजनैतिक पार्टियों द्वारा मत हासिल करने के लिए राजकीय कोष से मुफ्त सुविधाएं देने का प्रकरण सियासी हलकों में गर्माने लगा है। देश की प्रबुद्ध जमात का मानना है इससे हमारे लोकतंत्र की बुनियाद हिलने लगी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस प्रकार की योजनाओं की आलोचना की थी। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान इस तरह के वादे करने का चलन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक पार्टियां आम लोगों से अधिक से अधिक वायदे करती हैं। इसमें से कुछ वादे मुफ्त में सुविधाएं या अन्य चीजें बांटने को लेकर होती हैं। यह देखा गया है कुछ सालों से देश की चुनावी राजनीति में मुफ्त बिजली—पानी, मुफ्त राशन, महिलाओं को नकद राशि, सस्ते गैस सिलेंडर आदि आदि अनेक तरह की घोषणाओं का चलन बढ़ गया है। विशेषकर चुनाव आते ही वोटर्स को लुभाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू कशमीर के चुनाव इसके ज्वलंत उदाहरण है। मुफ्त का मिल जाये तो उसका जी भर उपयोग करना। ये मुफ्त की नहीं है अपितु जनता के खून पसीनें की कमाई है जो राजनीतिक दलों और सरकारों द्वारा दी जा रही है ताकि चुनाव की बेतरणी आसानी से पार की जा सके। देश के प्रधानमंत्री रेवड़ी कल्चर का विरोध कर चुके है मगर चुनावों में उनकी पार्टी भाजपा सहित कांग्रेस और आप सहित सभी पार्टियां रेवड़ी कल्चर में डुबकियां लगा रही है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

एशिया कप की पूरी फीस भारतीय सेना को देंगे सूर्यकुमार

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भारतीय टी20 कप्तान सूर्यकुमार यादव एशिया कप के सभी मैचों की अपनी फीस भारतीय सेना को दान करेंगे। सूर्यकुमार ने यह एलान पाकिस्तान से एशिया कप फाइनल जीतने के बाद किया । भारत ने रविवार को दुबई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम में पाकिस्तान को पांच विकेट से करारी शिकस्त दी थी। 

फाइनल मुकाबले में तिलक वर्मा ने शानदार अर्धशतक लगाया । संजू सैमसन व शिवम दुबे के साथ उपयोगी साझेदारी की। इसकी बदौलत फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा। जीत के साथ भारत ने अपना दूसरा टी20 अंतरराष्ट्रीय एशिया कप खिताब और एकदिवसीय संस्करण समेत कुल नौवां खिताब जीता। 


पाकिस्तान को हराने के बाद कप्तान सूर्यकुमार यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस दौरान उन्होंने कहा, ‘मैं इस टूर्नामेंट में खेले गए सभी मैचों की अपनी मैच फीस भारतीय सेना को देना चाहता हूं।’ हालांकि, मैच समाप्त होने के बाद पुरस्कार समारोह में भारत ने अपने पदक और ट्रॉफी नहीं ली।


भारतीय खिलाड़ी तिलक वर्मा, अभिषेक शर्मा और पाकिस्तान के कप्तान सलमान आगा, न्यूजीलैंड के पूर्व क्रिकेटर साइमन डूल के साथ मैच के बाद के साक्षात्कारों के बाद, प्रजेंटरों ने बताया कि भारत समारोह के दौरान अपने पदक या ट्रॉफी नहीं लेगा, और इस प्रकार समारोह समाप्त हो गया।

बदला हुआ भारत: क्रिकेट और आत्मसम्मान का नया अध्याय

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“एशिया कप 2025 के फाइनल में भारत का रुख़ और खेल के मैदान से परे राष्ट्रीय गौरव की झलक”

एशिया कप 2025 का फाइनल केवल क्रिकेट का खेल नहीं था। भारत ने पाकिस्तान को हराने के साथ ही ट्रॉफी स्वीकार करने से इनकार कर दिया, क्योंकि पुरस्कार देने वाला पाकिस्तान का प्रतिनिधि था। इससे प्रस्तुति समारोह घंटों तक लंबित रहा। इस कदम ने केवल खेल में जीत नहीं दिखाई, बल्कि राष्ट्रीय आत्मसम्मान और राजनीतिक संदेश भी स्पष्ट किया। समर्थक इसे “नए भारत” की शक्ति और साहस मानते हैं, जबकि आलोचक खेल भावना पर चोट मानते हैं। यह घटना भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक यादगार मोड़ है, जो खेल, राजनीति और राष्ट्रीय गौरव को जोड़ती है।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

एशिया कप 2025 का अंतिम मुकाबला केवल क्रिकेट का रोमांचक खेल नहीं था। यह खेल से कहीं अधिक एक कूटनीतिक और सांस्कृतिक संदेश बनकर उभरा। भारत ने पाकिस्तान को न सिर्फ़ मैदान पर हराया बल्कि मैच के बाद की औपचारिकताओं में भी ऐसा रुख़ अपनाया जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया। भारतीय खिलाड़ियों ने एशियाई क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष, जो पाकिस्तान से हैं, से ट्रॉफी स्वीकार करने से साफ़ इनकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि पुरस्कार वितरण समारोह घंटों तक खिंचता रहा और अंततः अधूरा रह गया। यह घटना भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। सवाल केवल इतना नहीं है कि ट्रॉफी किसने थामी, बल्कि यह कि भारत ने यह कदम क्यों उठाया और इसके परिणाम क्या हैं।

क्रिकेट को अक्सर “जेंटलमैन का खेल” कहा जाता है, लेकिन भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में यह खेल कभी केवल खेल नहीं रहा। यह दोनों देशों के बीच राजनीतिक तनाव, सांस्कृतिक टकराव और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक बन चुका है। जब भारतीय खिलाड़ियों ने ट्रॉफी लेने से इनकार किया, तो यह स्पष्ट संदेश था कि मैदान की जीत से आगे बढ़कर भारत अपने आत्मसम्मान को सर्वोपरि मानता है। एक तरह से यह “खेल और कूटनीति का उल्टा रूप” था। जहाँ खेल को आमतौर पर राजनीति को नरम करने का साधन माना जाता है, वहीं भारत ने खेल का मंच उपयोग करके राजनीतिक संदेश दिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बार-बार यह दावा किया गया है कि भारत अब झुकता नहीं, बल्कि अपनी शर्तें तय करता है। इस संदर्भ में टीम इंडिया का रुख़ उसी मानसिकता का विस्तार माना जा रहा है। भारत के लिए ट्रॉफी लेना केवल एक औपचारिकता था, लेकिन जब देने वाला वही देश हो जिससे लगातार आतंकवाद, घुसपैठ और सीमा पर तनाव चलता रहा है, तो उस औपचारिकता का महत्व बदल जाता है। यह नया भारत केवल आर्थिक और सैन्य शक्ति की भाषा में नहीं बोलता, बल्कि खेल के मंच पर भी राजनीतिक संदेश देने में पीछे नहीं है। इसके साथ ही घरेलू राजनीति में भी इस घटना का गहरा असर पड़ा। समर्थक वर्ग इसे मोदी युग का साहसिक कदम बता रहा है, जबकि विपक्ष इसे खेल भावना पर चोट मानता है। हालांकि जनता में इसे व्यापक रूप से आत्मगौरव की जीत के रूप में देखा गया।

हर साहसिक कदम के साथ आलोचना भी जुड़ती है। भारत के इस रुख़ को लेकर कई सवाल उठे। आलोचकों का कहना है कि क्रिकेट का मूल उद्देश्य देशों के बीच दोस्ती और सौहार्द बढ़ाना है। जब आप ट्रॉफी लेने से इनकार करते हैं, तो आप खेल की आत्मा पर चोट करते हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस घटना पर मिला-जुला रुख़ अपनाया। कुछ ने इसे भारत की “दबदबा दिखाने की नीति” कहा, तो कुछ ने इसे “अहंकार” बताया। सवाल यह है कि क्या इससे भारत की “नरम शक्ति” को नुकसान होगा। साथ ही यह भी बहस छिड़ी कि क्या खिलाड़ियों ने यह कदम अपनी इच्छा से उठाया या बोर्ड और सरकार के दबाव में? अगर खिलाड़ी राजनीतिक निर्णयों में केवल मोहरे बन जाएँ, तो उनकी स्वतंत्रता और खेल की पवित्रता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट में विवाद कोई नई बात नहीं है। 1987 में जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति जयपुर टेस्ट देखने आए थे, तब इसे “क्रिकेट कूटनीति” कहा गया। 1999 में कारगिल युद्ध से पहले चेन्नई टेस्ट में पाकिस्तान की जीत और उसके बाद की राजनीतिक हलचल को भी आज तक याद किया जाता है। 2008 में मुंबई हमलों के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय श्रृंखला हमेशा के लिए रोक दी। 2023 में एशिया कप को लेकर स्थान विवाद खड़ा हुआ, जहाँ भारत ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया और अंततः प्रतियोगिता “संयुक्त रूप” में आयोजित हुई। इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में देखें तो 2025 की घटना कोई अलग-थलग घटना नहीं, बल्कि उसी लंबे सिलसिले का हिस्सा है जहाँ क्रिकेट हमेशा राजनीति के साए में खेला गया।

इस घटना के दूरगामी परिणाम भी हो सकते हैं। एशियाई क्रिकेट परिषद का मुख्यालय भले ही दुबई में है, लेकिन पाकिस्तान लंबे समय से इसमें प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करता रहा है। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसकी सहमति के बिना कोई ढांचा नहीं चल सकता। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद तटस्थता का दावा करती है, लेकिन अगर बड़ी टीमों में से एक यानी भारत इस तरह के कदम उठाकर राजनीतिक संदेश देती है, तो परिषद को मजबूरी में अपना रुख़ तय करना होगा। बांग्लादेश, श्रीलंका और अफगानिस्तान जैसी टीमें इस खींचतान के बीच कहाँ खड़ी होंगी, यह भी देखने वाली बात है। भारत का दबाव इन्हें प्रभावित करेगा, लेकिन लंबे समय में यह क्षेत्रीय सहयोग को कमजोर कर सकता है।

भारत का यह रुख़ निश्चित रूप से “नए भारत” का प्रतीक है। यह भारत का वह चेहरा है जो आत्मगौरव को सर्वोपरि मानता है और औपचारिकता या परंपरा को उसके आगे झुका देता है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि खेल की आत्मा को राजनीति से बहुत अधिक जोड़ना कभी-कभी नुकसानदेह भी हो सकता है। क्या भारत ने सही किया? समर्थकों के लिए जवाब सीधा है — हाँ, क्योंकि यह आत्मसम्मान का सवाल था। आलोचकों के लिए जवाब है — नहीं, क्योंकि खेल का मंच राजनीति का अखाड़ा नहीं होना चाहिए।

असल सवाल यह है कि क्या क्रिकेट अब केवल क्रिकेट रहेगा या यह उपमहाद्वीप में हमेशा से राजनीति का विस्तार ही रहेगा। एशिया कप 2025 की यह घटना इस सवाल को और तीखा बना देती है। एक बात तय है — यह बदला हुआ भारत है। मैदान पर भी, मंच पर भी।

-प्रियंका सौरभ 

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,