बिहार में फिर एक बार नीतीशे सरकारःएग्जिट पोल ने लगाई मुहर

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बाल मुकुन्द ओझा

बिहार में एग्जिट पोल को लेकर सियासी क्षेत्रों में घमासान छिड़ गया है। एनडीए जहां इसे वास्तविकता के निकट बता कर स्वागत कर रहा है वहीं महागठबंधन इसे झूठ का पुलिंदा करार देकर नकार रहा है। हालाँकि दो दिन बाद 14 नवम्बर को पता लग जायेगा कि मतदाता किसे जीत का ताज पहनायेगा। बिहार विधानसभा चुनाव का मतदान मंगलवार शाम को संपन्न होते ही साढ़े छह बजे से खबरिया चैनलों में एग्जिट पोल की होड़ लग गई। एक को छोड़कर अन्य सभी डेढ़ दर्ज़न चुनावी सर्वे  में एक बार फिर एनडीए सरकार पर मुहर लगादी है। दूसरी तरफ सट्टा बाजार ने भी बिहार में एनडीए सरकार की भविष्यवाणी करदी है। सभी प्रमुख सर्वे एजेंसियों ने एनडीए को दो-तिहाई बहुमत के करीब या उससे भी अधिक सीटें मिलने का अनुमान लगाया है। इस भांति एनडीए गठबंधन की प्रचंड लहर दिख रही है। बिहार विधानसभा चुनाव 66.91 प्रतिशत के ऐतिहासिक मतदान के साथ संपन्न हुआ है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आजकल चुनाव में बड़ी भूमिका निभाने लगे है। चुनावी सर्वे करने वाली विभिन्न संस्थाओं से मिलकर किये जाने वाले सर्वेक्षणों में मतदाताओं का मूड जानने का प्रयास कर सटीक आकलन किया जाता है। कई बार ये सर्वे वास्तविकता के नजदीक होते है तो कई बार फैल भी हो जाते है। सर्वे का सीधा अर्थ है किसी भी वस्तु को खोजना या संभावनाओं का पत्ता लगाना। यह शब्द अधिकतर चुनावों के दौरान सुना जाता है और जबसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रादुर्भाव हुआ है तब से लोकप्रिय हो रहा है। हमारे देश में दो चीजों का विकास करीब-करीब एक साथ ही हुआ है। पहला इन चुनावी सर्वेक्षणों  और दूसरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या कहें समाचार चैनलों का। समाचार चैनलों  की भारी भीड़ ने चुनावी सर्वेक्षणों को पिछले दो दशक से हर चुनाव के समय का अपरिहार्य बना दिया है। आज बिना इन सर्वेक्षणों के भारत में चुनावों की कल्पना भी नहीं की जाती। बल्कि कुछ समाचार चैनल तो साल में कई बार ऐसे सर्वेक्षण करवाते हैं और इसके जरिये सरकारों की लोकप्रियता और समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों की पड़ताल करते रहते हैं। ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि आखिर भारत में इन सर्वेक्षणों का अर्थशास्त्र क्या  है? आखिर इन सर्वेक्षणों को करवाने से किसका भला होता है।

 टीवी चैनल टीआरपी के चक्कर में अपनी लोकप्रियता दांव पर लगा देते है। यदि सर्वे सही  जाता है तो बल्ले बल्ले अन्यथा साख पर विपरीत असर देखने को मिलता है। आज हम बिहार चुनाव की बात कर रहे है जहां महाएग्जिट पोल में एनडीए की बम्पर जीत का दावा किया गया है। बिहार में एक बार फिर भाजपा नीत एनडीए को स्पष्ट बहुमत का अपना आंकलन प्रस्तुत किया है। पोल ऑफ एग्जिट पोल्स में एनडीए को 155 सीटें मिलने का आकलन प्रस्तुत किया है। जबकि महागठबंधन को 82 से 98 सीटों पर संतोष करना पड़ सकता है। इसके अलावा जनसुराज का खाता तो खुल सकता है, लेकिन उसे 2 से ज्यादा सीटें मिलने का अनुमान नहीं लगाया गया है। अन्य के खाते में 3 से 7 सीटें जा सकती  है।  IANS मैट्रिज, चाणक्य स्ट्रैटिजीज, पोल स्टार्ट, टाइम्स नाऊ-सीवोटर्स, दैनिक भास्कर,आज तक-सिसेरो, पोल डायरी, डीवी रिसर्च, न्यूज एक्स-सीएनएक्स, न्यूज नेशन, पीपुल्स इनसाइट, कामख्या ऐनालिटिक्स सहित लगभग डेढ़ दर्ज़न सर्वे एजेंसियों ने अपने एग्जिट पोल में एनडीए को 130 से 180 तक सीटें मिलने की भविष्यवाणी कर दी है। एग्जिट पोल एक तरह का चुनावी सर्वे होता है। मतदान वाले दिन जब मतदाता वोट देकर पोलिंग बूथ से बाहर निकलता है तो वहां अलग-अलग सर्वे एजेंसियों के प्रतिनिधि मौजूद होते हैं। वह मतदाता से मतदान को लेकर सवाल पूछते हैं। इसमें उनसे पूछा जाता है कि उन्होंने किसको वोट दिया है? इस तरह से हर विधानसभा या लोकसभा के अलग-अलग पोलिंग बूथ से मतदाताओं से सवाल पूछा जाता है। मतदान खत्म होने तक बड़ी संख्या में आंकड़े एकत्र हो जाते हैं। इन आंकड़ों को जुटाकर और उनके उत्तर के हिसाब से अंदाजा लगाया जाता है कि पब्लिक का मूड किस ओर है? गणितीय मॉडल के आधार पर ये निकाला जाता है कि कौन सी पार्टी को कितनी सीटें मिल सकती हैं? इसका प्रसारण मतदान खत्म होने के बाद ही किया जाता है। खबरिया चैनलों के एग्जिट पोल में कितना दम और सच्चाई है यह तो 14 नवम्बर को होने वाली मतगणना से ही पता चलेगा।

                                                                  

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर                                                                   

किसी बड़ी साजिश का संकेत है दिल्ली धमाका

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राजधानी की सुरक्षा पर गहरे सवाल, स्कूलों की सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा आवश्यक

दिल्ली के रोहिणी सीआरपीएफ स्कूल में हुआ धमाका केवल एक हादसा नहीं बल्कि एक गहरी साजिश का संकेत है। यह घटना बताती है कि राजधानी जैसी सुरक्षित मानी जाने वाली जगह भी आतंकी या असामाजिक तत्वों के निशाने पर है। बच्चों के बीच इस तरह की घटना असहनीय और भयावह है। सरकार को चाहिए कि जांच एजेंसियाँ तेजी से कार्रवाई करें और दोषियों को कड़ी सजा दें। साथ ही स्कूलों और सार्वजनिक स्थलों की सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा हो ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदियाँ दोहराई न जाएँ। नागरिक सुरक्षा ही राष्ट्र की वास्तविक ताकत है।

– डॉ प्रियंका सौरभ

रविवार सुबह राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में स्थित सीआरपीएफ स्कूल के बाहर हुआ धमाका पूरे देश को हिला गया। यह केवल एक हादसा नहीं था, बल्कि संभवतः किसी बड़ी साजिश की कड़ी का संकेत है। देश की राजधानी में सुरक्षाबलों के स्कूल के पास इस तरह का विस्फोट होना न सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों की चौकसी पर सवाल उठाता है, बल्कि इस बात की भी चेतावनी देता है कि आतंकी और विध्वंसकारी ताकतें अब भी सक्रिय हैं और अपने नापाक इरादों को अंजाम देने के मौके तलाश रही हैं।

यह धमाका रोहिणी सेक्टर-14 के सीआरपीएफ पब्लिक स्कूल की दीवार के पास हुआ। स्थानीय लोगों ने सुबह करीब सात बजे के आसपास तेज धमाके की आवाज सुनी। धमाका इतना तेज था कि आसपास के मकानों और दुकानों के शीशे टूट गए, दीवार में छेद हो गया और क्षेत्र में कुछ देर के लिए अफरातफरी मच गई। सौभाग्य से स्कूल बंद था, जिससे किसी जानमाल का नुकसान नहीं हुआ। हालांकि, यह बात राहत से ज्यादा चिंता का विषय है कि अगर यह घटना स्कूल खुलने के समय होती, तो बड़ी त्रासदी हो सकती थी।

दिल्ली पुलिस, एनआईए, एनएसजी और फॉरेंसिक टीमों ने तुरंत मौके पर पहुंचकर जांच शुरू की। जांच में सफेद पाउडर, तारों के टुकड़े और विस्फोटक पदार्थ के अंश मिले हैं, जिससे यह संभावना बलवती होती है कि धमाके में क्रूड बम या इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (IED) का इस्तेमाल किया गया। जांच एजेंसियों ने सीसीटीवी फुटेज खंगाले हैं, जिसमें एक संदिग्ध युवक सफेद टी-शर्ट में क्षेत्र के आसपास घूमता दिखा। वहीं, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म टेलीग्राम पर एक चैनल ने इस धमाके की जिम्मेदारी लेने का दावा किया, जिसे बाद में खालिस्तानी समर्थक तत्वों से जोड़ा गया। हालांकि इस दावे की पुष्टि जांच एजेंसियों ने नहीं की है, परंतु इससे यह संकेत अवश्य मिलता है कि घटना के पीछे किसी संगठित नेटवर्क की भूमिका हो सकती है।

दिल्ली देश की राजधानी है — यहाँ संसद, सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय और केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों के मुख्यालय स्थित हैं। ऐसे में इस तरह का विस्फोट होना गंभीर सुरक्षा चूक को दर्शाता है। यह तथ्य और भी चिंताजनक है कि धमाका सीआरपीएफ स्कूल के बाहर हुआ — यानी एक ऐसे संस्थान के पास, जो स्वयं देश की सबसे सशक्त अर्धसैनिक बल से जुड़ा हुआ है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब सुरक्षा बलों की चौकी के पास ऐसी घटना हो सकती है, तो आम नागरिक कितना सुरक्षित है? दिल्ली पुलिस और खुफिया एजेंसियों को अब केवल प्रतिक्रियात्मक नहीं बल्कि प्रो-एक्टिव रणनीति अपनानी होगी — यानी घटना के बाद नहीं, बल्कि पहले से ऐसे संकेतों को पहचानना और निष्क्रिय करना होगा।

ऐसी घटनाएँ केवल भौतिक क्षति नहीं करतीं, बल्कि समाज में भय और असुरक्षा का माहौल भी पैदा करती हैं। राजधानी में इस तरह का विस्फोट आम नागरिकों के मन में यह धारणा मजबूत करता है कि आतंकवादी ताकतें किसी भी समय, कहीं भी वार कर सकती हैं। स्कूल के बाहर हुआ धमाका बच्चों, अभिभावकों और शिक्षकों के मनोबल को प्रभावित करता है। बच्चे जिन स्कूलों में शिक्षा लेने जाते हैं, अगर वे स्थान भी असुरक्षित महसूस होने लगें, तो यह स्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

ऐसी घटनाओं के बाद राजनीतिक दलों की बयानबाज़ी शुरू हो जाती है — कोई इसे कानून-व्यवस्था की नाकामी बताता है तो कोई राजनीतिक साजिश कहता है। लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकवाद और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियाँ किसी पार्टी या विचारधारा की नहीं होतीं, ये पूरी मानवता के खिलाफ होती हैं। इसलिए इस तरह के मामलों में राजनीतिक लाभ-हानि की सोच से ऊपर उठकर राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देना समय की मांग है। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर ऐसी नीतियाँ बनानी होंगी जो केवल कागज़ी जांचों तक सीमित न रहें, बल्कि जमीनी स्तर पर ठोस निवारक कदम सुनिश्चित करें।

आज आतंकवादी और असामाजिक तत्व पारंपरिक तरीकों से हटकर डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, सोशल मीडिया और डार्क वेब का उपयोग कर रहे हैं। टेलीग्राम चैनल के माध्यम से जिम्मेदारी लेने की कोशिश इसी प्रवृत्ति का हिस्सा है — जिससे आतंक फैलाना, भ्रम पैदा करना और जांच को भटकाना आसान हो जाता है। इसलिए अब सुरक्षा एजेंसियों को साइबर इंटेलिजेंस पर उतना ही ध्यान देना होगा जितना फिजिकल सुरक्षा पर दिया जाता है। फर्जी संदेशों, हैकिंग नेटवर्क और डिजिटल फंडिंग की निगरानी जरूरी है।

हर बार जब कोई ऐसी घटना होती है, तो हम यह सोचकर चुप हो जाते हैं कि सुरक्षा एजेंसियाँ सब संभाल लेंगी। लेकिन सच्चाई यह है कि आम नागरिक भी सुरक्षा तंत्र की पहली कड़ी हैं। संदिग्ध वस्तु, अनजान व्यक्ति या असामान्य गतिविधि पर नजर रखना और तत्काल पुलिस को सूचित करना — यह नागरिक कर्तव्य बनना चाहिए। सुरक्षा सिर्फ बंदूक और बुलेटप्रूफ जैकेट से नहीं आती, बल्कि सजग नागरिक चेतना से भी आती है।

भारत लंबे समय से सीमापार आतंकवाद का शिकार रहा है। कई बार राजधानी दिल्ली और अन्य महानगर आतंकी संगठनों के निशाने पर रहे हैं। रोहिणी विस्फोट जैसी घटनाएँ यह याद दिलाती हैं कि हमारे शत्रु तंत्र हर समय सक्रिय हैं और देश की स्थिरता को अस्थिर करने के प्रयास में हैं। ऐसे में भारत को अपनी आंतरिक सुरक्षा नीति को और सुदृढ़ करना होगा — विशेषकर शहरी क्षेत्रों की खुफिया निगरानी को तकनीकी रूप से उन्नत बनाना आवश्यक है।

हर ऐसी घटना में निष्कर्ष आने में महीनों लग जाते हैं। जनता को समय-समय पर अपडेट देना जरूरी है ताकि अफवाहें न फैलें। सभी केंद्रीय और अर्धसैनिक संस्थानों के आसपास की सुरक्षा समीक्षा तत्काल की जानी चाहिए। सोशल मीडिया पर उग्रवादी संदेशों और चैनलों पर सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। नागरिकों को सुरक्षा अभियान का भागीदार बनाना — स्कूलों और बाजारों में जागरूकता अभियान चलाना भी आवश्यक है। ऐसे मामलों पर सभी दलों को एक मंच से बयान देना चाहिए, ताकि दुश्मन यह न समझे कि देश अंदर से बँटा हुआ है।

दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में हुआ यह धमाका भले ही सौभाग्य से किसी बड़ी जनहानि का कारण नहीं बना, लेकिन यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आतंकवाद की चुनौती अब भी हमारे चारों ओर मौजूद है। यह केवल एक पुलिस केस नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक एकता और नागरिक जिम्मेदारी से जुड़ा मामला है। जरूरत इस बात की है कि हम घटना को महज़ “एक धमाका” न मानें, बल्कि इसे एक चेतावनी के रूप में लें — एक ऐसी चेतावनी जो बताती है कि लापरवाही की गुंजाइश अब नहीं बची।

राष्ट्र की सुरक्षा केवल सैनिकों के कंधों पर नहीं टिकी होती, बल्कि हर नागरिक की सजगता और एकता में निहित होती है। अगर हम सभी मिलकर सतर्क रहें, जागरूक रहें और एकजुट रहें — तो कोई भी साजिश हमें तोड़ नहीं सकती।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

रोजगार संकट :भारत के आईटी क्षेत्र में छंटनी की लहर

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कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बढ़ते प्रभाव से भारत के सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग में गहरे संरचनात्मक परिवर्तन, पर क्या तैयार है देश का श्रमबल?

भारत के आईटी क्षेत्र में हाल की छँटनियाँ कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित स्वचालन के दौर की अनिवार्य वास्तविकता हैं। यह केवल रोजगार संकट नहीं, बल्कि कौशल और तकनीक के पुनर्संतुलन की प्रक्रिया है। सरकार, उद्योग और शिक्षण संस्थानों को मिलकर एक राष्ट्रीय पुनःप्रशिक्षण अभियान चलाना चाहिए, ताकि लाखों पेशेवरों को नई तकनीकी दिशा मिल सके। भविष्य में वही राष्ट्र आगे बढ़ेगा जो अपने युवाओं को “डिजिटल श्रमिक” नहीं बल्कि “तकनीकी नवप्रवर्तक” बनाएगा। परिवर्तन अवश्यंभावी है, लेकिन विवेक और दूरदृष्टि के साथ यह परिवर्तन भारत के लिए शक्ति बन सकता है।

— डॉ प्रियंका सौरभ

भारत का सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र लंबे समय से देश की आर्थिक प्रगति का प्रमुख आधार रहा है। यह क्षेत्र न केवल सेवा निर्यात का सबसे बड़ा स्रोत है, बल्कि लाखों शिक्षित युवाओं को उच्च आय वाले रोजगार भी प्रदान करता रहा है। परंतु हाल के वर्षों में इसमें एक गहरी हलचल देखी जा रही है। वर्ष 2024–25 में टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (टीसीएस) द्वारा लगभग 20,000 नौकरियों में की गई कटौती ने पूरे उद्योग को हिला दिया। यह केवल एक कंपनी का प्रशासनिक निर्णय नहीं, बल्कि भारतीय आईटी क्षेत्र में चल रहे एक व्यापक संरचनात्मक परिवर्तन का संकेत है।

यह परिवर्तन कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), मशीन अधिगम और स्वचालित प्रणालियों के तीव्र विस्तार के कारण हो रहा है। जिन कार्यों के लिए पहले सैकड़ों कर्मचारियों की आवश्यकता होती थी, अब वही कार्य कुछ ही मिनटों में स्वचालित तकनीक द्वारा संपन्न किए जा रहे हैं। सॉफ्टवेयर निर्माण, परीक्षण, और ग्राहक सेवा जैसे कार्य अब “एजेंटिक एआई” प्रणालियों द्वारा अधिक कुशलता से किए जा रहे हैं। इससे कंपनियों की उत्पादकता तो बढ़ी है, लेकिन मानव श्रम की आवश्यकता घटने लगी है — और यही इस मौन छँटनी (Silent Layoff) की सबसे बड़ी वजह है।

टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो और कॉग्निज़ेंट जैसी कंपनियाँ अब पुराने “आउटसोर्सिंग” मॉडल से हटकर “मूल्य आधारित डिजिटल सेवा” मॉडल की ओर बढ़ रही हैं। यह परिवर्तन सीधे तौर पर मध्यम स्तर के कर्मचारियों को प्रभावित कर रहा है, जिनके कौशल पारंपरिक तकनीकों तक सीमित हैं। वे नई एआई आधारित प्रणालियों के अनुरूप स्वयं को ढाल नहीं पा रहे हैं। यही कौशल असंगति (Skill Mismatch) इस संकट का मूल कारण है।

एआई आधारित उपकरणों ने सॉफ्टवेयर उद्योग में मध्य प्रबंधन और सहायक भूमिकाओं को लगभग अप्रासंगिक बना दिया है। पहले जहाँ “ईआरपी प्रबंधन” या “सिस्टम रखरखाव” के लिए बड़े दलों की आवश्यकता होती थी, अब वही कार्य कुछ प्रोग्राम और क्लाउड स्वचालन प्रणालियाँ पूरी कर देती हैं। कंपनियों के लिए यह लागत घटाने का साधन है, लेकिन लाखों कर्मचारियों के लिए यह असुरक्षा का कारण बन गया है।

यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका और यूरोप में भी तकनीकी उद्योगों में बजट कटौती और व्यापारिक संरक्षणवाद के कारण भारी परिवर्तन हो रहे हैं। विदेशी ग्राहक अब मानव श्रम आधारित सेवाओं की जगह तकनीक-आधारित समाधान चाहते हैं। साथ ही, अमेरिका में एच-1बी वीज़ा शुल्क वृद्धि और स्थानीय भर्ती नीतियों ने भारतीय कंपनियों के लिए विदेशों में कर्मचारियों की नियुक्ति को कठिन बना दिया है। इन सब कारणों से कंपनियाँ घरेलू स्तर पर भी कार्यबल कम करने पर मजबूर हो रही हैं।

वर्ष 2023 से 2025 के बीच भारत की शीर्ष पाँच आईटी कंपनियों में लगभग 50,000 नौकरियाँ समाप्त हुई हैं। कंपनियाँ इसे “कार्य दक्षता में सुधार” बताती हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि मानव संसाधन की आवश्यकता कम होती जा रही है। यह न केवल आर्थिक चुनौती है, बल्कि सामाजिक रूप से भी चिंता का विषय है, क्योंकि आईटी क्षेत्र देश के सबसे शिक्षित और संगठित वर्ग को रोजगार देता है।

फिर भी, इस परिवर्तन को पूरी तरह नकारात्मक नहीं कहा जा सकता। हर तकनीकी क्रांति अपने साथ अवसर भी लाती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने नए क्षेत्र खोले हैं — जैसे डेटा विज्ञान, क्लाउड इंजीनियरिंग, साइबर सुरक्षा, और एआई मॉडल निर्माण। प्रश्न यह नहीं है कि नौकरियाँ समाप्त हो रही हैं, बल्कि यह कि पुराने कौशल अप्रासंगिक हो रहे हैं और नए कौशलों की मांग बढ़ रही है।

अब आवश्यकता है कि सरकार, उद्योग और शिक्षा क्षेत्र मिलकर समन्वित प्रयास करें।

सबसे पहले, राष्ट्रीय स्तर पर “डिजिटल पुनःप्रशिक्षण अभियान” चलाना होगा। टीसीएस ने स्वयं 5.5 लाख कर्मचारियों को मूल एआई प्रशिक्षण दिया और एक लाख को उन्नत प्रशिक्षण में सम्मिलित किया। यदि इस मॉडल को अन्य कंपनियों और सरकारी योजनाओं में शामिल किया जाए, तो बड़ी संख्या में पेशेवरों को पुनःकुशल बनाया जा सकता है।

दूसरे, तकनीकी शिक्षा संस्थानों को अपने पाठ्यक्रम में मूलभूत परिवर्तन लाने होंगे। अब केवल प्रोग्रामिंग या नेटवर्किंग नहीं, बल्कि एआई नैतिकता, उत्पाद सोच (Product Thinking), डेटा विश्लेषण, और सृजनात्मक समस्या समाधान जैसे विषयों को शिक्षा का हिस्सा बनाना होगा। नई शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत इन विषयों को शामिल कर युवाओं को भविष्य की तकनीकों के अनुरूप तैयार किया जा सकता है।

तीसरे, सामाजिक सुरक्षा ढाँचे को मज़बूत करना होगा। छँटनी झेल रहे कर्मचारियों को सेवरेंस पैकेज, पुनःप्रशिक्षण सब्सिडी, और मानसिक स्वास्थ्य सहायता दी जानी चाहिए। भारत में निजी क्षेत्र के अधिकांश कर्मचारी किसी औपचारिक सुरक्षा प्रणाली से बाहर हैं। ऐसे में सरकार को “डिजिटल रोजगार सुरक्षा कोष” या “टेक्नो-कर्मचारी बीमा योजना” जैसी पहल शुरू करनी चाहिए।

चौथे, सार्वजनिक–निजी भागीदारी (PPP) मॉडल के माध्यम से बड़े पैमाने पर कौशल प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए जाएँ। एड-टेक कंपनियों, नासकॉम (NASSCOM) और राज्य सरकारों को मिलकर क्षेत्रीय प्रशिक्षण मिशन शुरू करने चाहिए, ताकि बेरोजगार तकनीकी पेशेवरों को नए कौशल सिखाए जा सकें।

पाँचवाँ, नवाचार और स्टार्ट-अप संस्कृति को और प्रोत्साहित करना होगा। एआई आधारित उत्पाद विकास और डीप-टेक उद्यमिता को बढ़ावा देकर नए रोजगार सृजित किए जा सकते हैं। सरकार को “स्टार्ट-अप इंडिया” और “डिजिटल इंडिया” योजनाओं के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करना चाहिए। अगर भारत अपने युवाओं को “रोजगार चाहने वाला” नहीं, बल्कि “रोजगार सृजक” बना सका, तो यह संकट अवसर में बदल सकता है।

साथ ही, कंपनियों को अपनी मानव संसाधन नीतियों में संवेदनशीलता लानी होगी। “मौन छँटनी” या “जबरन निष्कासन” जैसी प्रक्रियाएँ कर्मचारियों के आत्मबल को तोड़ देती हैं। तकनीकी विकास तभी सार्थक है जब वह मानवीय मूल्यों के साथ संतुलन बनाए रखे।

भारत के पास इस समय एक अनूठा अवसर है। हमारे पास विश्व का सबसे बड़ा युवा तकनीकी कार्यबल है। यदि यह कार्यबल सही दिशा और कौशल के साथ प्रशिक्षित हो सके, तो भारत न केवल आईटी सेवाओं का केंद्र रहेगा बल्कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता के वैश्विक युग में अग्रणी भूमिका निभा सकता है। इसके लिए एक दीर्घकालिक “राष्ट्रीय डिजिटल कौशल मिशन 2030” की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए।

टीसीएस की छँटनी जैसी घटनाएँ हमें यह चेतावनी देती हैं कि तकनीकी युग में स्थिरता केवल निरंतर सीखने और अनुकूलन से ही संभव है। आने वाले दशक में वही कंपनियाँ सफल होंगी जो तकनीकी दक्षता के साथ-साथ मानवीय कौशल — जैसे विवेकपूर्ण निर्णय, रचनात्मकता और नैतिक सोच — को भी महत्त्व देंगी।

भारत के आईटी क्षेत्र ने विश्व में अपनी पहचान गुणवत्ता, नवाचार और भरोसे के बल पर बनाई है। यह भरोसा तभी कायम रह सकता है जब उद्योग अपने कर्मचारियों को केवल “संसाधन” नहीं, बल्कि “साझेदार” समझे। अब समय आ गया है कि सरकार एक “प्रौद्योगिकी रोजगार नीति” बनाए जो नवाचार और सुरक्षा दोनों का संतुलन स्थापित करे।

तकनीकी क्रांतियाँ हमेशा समाज को दो विकल्प देती हैं — या तो उनके साथ विकसित हुआ जाए, या उनके नीचे दबा जाए। भारत के लिए यही समय है कि वह इस परिवर्तन को अपने अनुकूल बना ले। यदि देश इस चुनौती को दूरदृष्टि और नीतिगत समन्वय के साथ संभाल सका, तो यह छँटनी का दौर भविष्य के लिए एक नया अवसर बन सकता है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

पक्षियों को भी खुले आसमान में जीने का अधिकार है

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                                     बाल मुकुन्द ओझा

 राष्ट्रीय पक्षी दिवस प्रतिवर्ष 12 नवंबर को मनाया जाता है। देशभर में राष्ट्रीय पक्षी दिवस भारत के प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी और प्रकृतिवादी डॉ. सलीम अली की जयंती के अवसर पर मनाया जाता है। सलीम अली को पक्षी मानव के नाम से भी जाना जाता था। उन्होंने पक्षियों से सम्बंधित अनेक पुस्तकें लिखी थीं जिनमें  बर्ड्स ऑफ इंडिया सबसे लोकप्रिय पुस्तक है। पद्मविभूषण से नवाजे गये परिंदों के इस मसीहा को प्रकृति संरक्षण की दिशा में किए गए प्रयासों के लिए कभी भुलाया नहीं जा सकता है ।

जिस भूखंड की जलवायु जीवन के अनुकूल हो और वहाँ पर हरी-भरी वनस्पतियाँ पाई जाती हों, वहाँ पशु-पक्षी और जीव-जन्तुओं का पाया जाना एक नैसर्गिक सत्य है। किसी भी भूखंड में विचरण करने वाले पशु-पक्षी और जीव-जन्तुओं की उपस्थिति से वहाँ की जलवायु का अनुमान लगाया जा सकता है। पंख वाले या उड़ने वाले किसी भी जन्तु को पक्षी कहा जाता है। आसमान में उड़ते पक्षी किसी का भी मन मोह लेते है। रंग बिरंगे पक्षियों को देखकर तन और मन दोनों प्रफुलित हो जाता है। जीव विज्ञान में इस श्रेणी के जन्तुओं को पक्षी कहते हैं।

भारत में अलग अलग प्रजातियों के पक्षी मिल जाते है। इनमे से ज्यादातर पक्षी भारत के  होते है लेकिन कुछ पक्षी प्रवासी भी होते है जो दूसरे देशों से लम्बी यात्रा करके भारत में मौसम विशेष में आते है। पक्षियों को हिंदू धर्म में देवता और पितर माना गया है। पौराणिक आख्यान के मुताबिक जिस दिन आकाश से पक्षी लुप्त हो जाएंगे उस दिन धरती से मनुष्य भी लुप्त हो जाएगा। हिन्दू धर्म में पक्षियों को मारना बहुत बुरा माना जाता है। कहते है पक्षी को मौत के घाट उतारने का मतलब पितरों के मारने के सामान है। बताया जाता है दुनियाभर में लगभग 10 हजार तरह के पक्षी होते हैं। भारत में ही लगभग 1200 प्रजातियां पायी जाती है। इनमें से बहुत सी प्रजातियां लुप्त हो गई है और अनेक लुप्त होने के कगार पर है। इनमें राष्ट्रीय पक्षी मोर, गौरेया, कौवा, कबूतर, बाज, चील, मुर्गी, तोता, शामा, राजहंस, उल्लू, बाज, कमल, तितली,  पक्षी, नीलकंठ, नवरंग,सारस, आदि सर्वत्र देखने को मिल जाते है। मोर को भारत के सभी राज्यों में आमतौर पर देखा जा सकता है। मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है। यह रंग बिरंगा पक्षी दिखने में बेहद खूबसूरत होता है परंतु यह अधिक दूर तक नहीं उड़ सकता। मोर प्राचीन काल से ही शिष्टता और सुंदरता का प्रतीक माना गया है और मोर पंख को मुकुट और सिंहासनों पर लगाया जाता रहा है। इसी भांति तीतर पक्षी अपना घोंसला जमीन पर ही बनाता हैं। बतख पक्षी अपना बिना सिर घुमाये पीछे की तरफ भी देख सकता हैं। कोयल आपना घोंसला कभी नहीं बनाती हैं। कबूतर को शांति का प्रतीक माना जाता है। दुनिया में सबसे ज्यादा पाया जाने वाला पक्षी मुर्गा हैं। शुतुरमुर्ग पक्षी की आंख उसके दिमाग से भी बड़ी होती है। शुतुरमुर्ग पक्षी घोड़े से भी ज्यादा तेज दौड़ सकता हैं। पेंगुइन एक ऐसा पक्षी है यो तैरते समय पंखों का इस्तेमाल करता है। उल्लू एकमात्र एक ऐसा पक्षी है जो नीला रंग पहचान सकता है। दुनिया में तोतों की 350 से भी अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं।  शुतुरमुर्ग संसार का सबसे बड़ा पक्षी है जिसका वजन 150 किलोग्राम से भी अधिक होता है। इसका अंडा भी सबसे बड़ा होता है।  चील पक्षी आग और धुंआ को देखकर आकर्षित होता है। पक्षियों के दांत नहीं होते वह अपना भोजन चोंच से ही खाते हैं।

बताया जाता है पक्षी है तो संसार का अस्तित्व है। हमें हमेशा पक्षियों के प्रति प्रेम और सद्भाव से पेश आना चाहिए । वह भी हमारी तरह खुशी और दुःख के भाव महसूस करतें हैं । वे बोल नहीं सकतें पर उनकी अपना बोली है। कहीं लोग पक्षी पालतें हैं। पिंजरें में पक्षियों को रखकर पालना गलत है। पक्षी स्वभाव से आजाद है उनको आजाद छोड़ना ही सही होगा है। यदि हम किसी पीड़ित पक्षी को देखें तो उसकी मदद करनी चाहिए। पक्षियों के चिकित्सक के पास ले जाकर उसकी इलाज करवाना बड़े पुण्य का काम होगा। पक्षी भी पीड़ा महसूस करतें हैं। बहुत कम लोगों में पक्षी के प्रति प्रेम भावना जीवित हैं। अगर किसी में यह न भी हो तो कम से कम उन्हें तंग न करें। किसी छोटे बच्चे को किसी प्राणी पर अन्याय करते हुए देखें तो उन्हें रोकें और समझाएं।

 बाल मुकुन्द ओझा

 वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

   डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

वोट चोरी : देश चाहता राहुल के सवालों के बिंदुवार जवाब

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                                                                    तनवीर जाफ़री  

                         लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी इन दिनों सत्ता व चुनाव आयोग की मिलीभगत के कथित नेटवर्क को लेकर काफ़ी आक्रामक हैं। विगत 7 अगस्त से लेकर गत 5 नवंबर तक वे चार बार देश के मीडिया के समक्ष अनेक प्रमाणों सहित सार्वजनिक रूप से यह दावे कर चुके हैं कि चुनाव आयोग सत्ता की कठपुतली के रूप में काम करते हुये ‘वोट चोरी’ कर रहा है। जिस तरह 7 अगस्त को उन्होंने अपनी इस तरह की पहली प्रस्तुति में कर्नाटक के महादेवपुरा निर्वाचन क्षेत्र को केंद्र में रखते हुये यहाँ 1,00,250 फ़र्ज़ी वोट जोड़े जाने का आरोप लगाया था जिसमें 11,956 डुप्लीकेट वोटर, 40,009 अमान्य पते, 10,452 बल्क रजिस्ट्रेशन अर्थात एक ही पते पर 80 लोग , 4,132 अमान्य फ़ोटो , और 33,692 फ़ॉर्म 6 का दुरुपयोग जैसे अनेक गंभीर आरोप लगते हुये कहा था कि चुनाव आयोग भाजपा के साथ मिलकर “वोट चोरी” करते हुये “एक व्यक्ति, एक वोट” के सिद्धांत का उल्लंघन कर रहा है। । ठीक उसी तर्ज़ पर उन्होंने पिछली 5 नवंबर को दिल्ली में मीडिया के समक्ष हरियाणा के अक्टूबर 24 के चुनावों में बड़े पैमाने पर हुई कथित धांधली का भी भंडाफोड़ किया। इस बार सुबूतों के साथ चुनाव आयोग पर लगाये गए उनके आरोप और भी अधिक गहरे व गंभीर थे।

                        उन्होंने यहाँ आरोप लगाया कि 2024 के राज्य विधानसभा चुनाव में 25 लाख वोट “चुराए” गए। ” उन्होंने अपनी इस प्रस्तुति को H Files” का नाम दिया तथा अपने इन गंभीर रहस्योद्घाटन को सत्ता व चुनाव आयोग के लिये हाइड्रोजन बताया। राहुल गांधी ने दावा किया कि हरियाणा में भी 5,21,619 डुप्लीकेट वोटर पाए गए जबकि 93,174 मतदाताओं के पते अमान्य मिले। इसी तरह 19,26,351 बल्क वोटर पाए गये और 1,24,177 मत ऐसे मिले जिनपर फ़र्ज़ी फ़ोटो लगाई गयी थी।  इन्हीं फ़र्ज़ी फ़ोटो में एक चित्र एकब्राज़ीलियन मॉडल का भी इस्तेमाल किया गया जिसके फ़ोटो पर 10 अलग अलग बूथों पर अपना नाम बदल बदल कर 22 बार मतदान किया गया था। जब उस ब्राज़ीलियन मॉडल लैरिसा नेरी को ब्राज़ील में यह पता लगा कि उस के चित्र का प्रयोग भारत के वोटर लिस्ट में बार बार सीमा, स्वीटी, सरस्वती जैसे 22 अलग अलग नामों के साथ किया गया है तो उसने कहा कि वह इससे पूरी तरह अनजान हैं। उसने एक वीडियो में हैरानी जताते हुए कहा:”दोस्तों, मैं आपको एक मज़ाक़ सुनाती हूं—यह बहुत भयानक है! वे भारत में चुनावों के लिए मेरी पुरानी तस्वीर का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें मुझे भारतीय दिखा रहे हैं। यह पागलपन क्या है? मैं कभी भारत नहीं गई हूं। यह अविश्वसनीय है।” गोया ब्राज़ील तक भारतीय चुनाव आयोग की धांधली के डंके बजते सुने जा सकते हैं। इसी तरह एक महिला का चित्र ऐसा भी था जिसे लगाकर  223 बार दो अलग बूथों पर मतदान कराया गया। 5 नवंबर को दिल्ली में “H Files” के प्रस्तुत करने के बाद राहुल गाँधी बिहार की अपनी सभी चुनावी जनसभाओं में केंद्रीय चुनाव आयोग और मोदी सरकार पर कथित वोट चोरी का सार्वजनिक रूप से आरोप लगा रहे हैं। और जनता की ओर से ‘वोट चोर गद्दी छोड़’ के नारे लगाये जा रहे हैं। वे हरियाणा की भाजपा सरकार को चोरी की सरकार बता रहे हैं। वे Gen Z का भी वोट चोरी के प्रति सचेत रहने का आह्वान कर रहे हैं। राहुल गाँधी के अनुसार ‘’ सच तो ये है कि नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह जी और चुनाव आयोग, ये तीनों मिलकर संविधान पर हमला कर रहे हैं।  संविधान कहता है ‘वन मैन, वन वोट’ । हरियाणा में यह सिद्धांत नहीं था।  वहां ‘वन मैन, मल्टिपल वोट्स’ हुआ”। उन्होंने कहा, ‘’वे लोग बिहार में भी यही करने जा रहे हैं। यह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और गुजरात में भी हो चुका है। ’’ इस रहस्योद्घाटन के बाद दिल्ली से भी कुछ ऐसे ख़ास लोगों के नाम उजागर हो रहे हैं जिनके पास दिल्ली का भी मतदाता पहचान पात्र है और बिहार का भी।

                        अब लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गाँधी के इस तरह के अति गंभीर व गहरे आरोपों का जवाब यदि केंद्रीय चुनाव आयोग बिंदुवार तरीक़े से देने के बजाये केवल उन्हें झुठलाने की कोशिश करे या इन आरोपों को बेबुनियाद कहकर उल्टे राहुल गांधी से ही अपने आरोपों संबंधी हलफ़नामा दाख़िल करने को कहे तो इससे चुनाव आयोग की साख पर सवाल उठना तो लाज़िमी है ? या केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू का यह कहना कि हरियाणा में कांग्रेस आपसी फूट के कारण हारी और राहुल अपनी नाकामी को छुपाने के लिए झूठे दावे कर रहे हैं या हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी द्वारा राहुल के दावों दावों को ख़ारिज कर देना निश्चित रूप से राहुल के आरोपों का जवाब नहीं है। आज यदि देश में बिना घर के पते के आधार कार्ड नहीं बन सकता तो मकान नंबर के बिना मतदाता पहचान पत्र कैसे ? यह कौन बतायेगा या इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा कि एक ही व्यक्ति की फ़ोटो का उपयोग अनेक जगहों पर कैसे किया गया ? एक ही मकान में 100 ,50  या 20-20 मतदाताओं के फ़र्ज़ी नाम कैसे शामिल किये गये जबकि इन फ़र्ज़ी नामों के लोग वहाँ रहते ही नहीं? राहुल का यह भी बेहद गंभीर आरोप है कि  चुनाव आयोग ने डुप्लीकेट नाम पता व फ़ोटो हटाने का सॉफ़्टवेयर होने के बावजूद इस सॉफ़्टवेयर को बंद कर दिया अन्यथा चुनाव पूर्व ही सारे डुप्लीकेट चेक हो जाते। क्या यह आरोप चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा नहीं करता ?

                      राहुल का दावा है कि उनके पास और भी कई सबूत हैं और वे इस प्रक्रिया (वोट चोरी का पर्दा फ़ाश) को जारी रखेंगे। सवाल यह है कि आज राहुल को चुनाव आयोग के विरुद्ध इतने संगीन आरोप क्यों लगाने पड़ रहे हैं जिससे पूरे विश्व में न केवल चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी है बल्कि यह सवाल भी खड़ा हो गया है दिल्ली से लेकर विभिन्न राज्यों की सरकारें वास्तव में वही सरकारें हैं जिन्हें जनता द्वारा लंबी लंबी क़तारों में घंटों खड़े होकर चुना गया है या फिर उनकी निर्वाचित सरकार चोरी कर ली गयी है ? निश्चित रूप से देश का प्रत्येक व्यक्ति जिसे लोकतंत्र व इसकी चुनाव व्यवस्था पर विश्वास है कि वह राहुल के सभी आरोपों के जवाब बिंदुवार चाहता है न कि वह इधर इधर के बहानेबाज़ी वाले जवाब सुनना चाहता है। यदि राहुल के आरोप ग़लत और बेबुनियाद हैं तो चुनाव आयोग उनके विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई क्यों नहीं करता ? देश को राहुल के गंभीर सवालों के गंभीर जवाब चाहिये । 

  − तनवीर जाफ़री

वरिष्ठ पत्रकार

अहंकार मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन

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गुरु नानक देव की जयंती पर

                      बाल मुकुन्द ओझा

हमारे साधु  संतों ने सदा सर्वदा समाज को सद्भाव, प्रेम और भलाई का मार्ग दिखाया था।  इसी परम्परा का निर्वहन करते हुए गुरु नानक देव ने समाज को झूठ, प्रपंच और अहंकार को त्याग कर सामाजिक एकता और भाईचारे का पाठ पढ़ाया था। आज समाज को जिस प्रकार के आडम्बर का सामना करना पढ़ रहा है वह निश्चय ही दुखद और चिंतनीय है। साधु संतों का लिबास ओढ़ कर राक्षसी प्रवृति के लोग अंध विश्वास और आस्था का भ्रम फैलाकर भोले भाले लोगों  को अपने चंगुल में फंसा कर आर्थिक और शारीरिक शोषण और दोहन कर रहे है। ऐसे में हमें ढोंगी साधुओं से सावधान रहकर गुरु नानक देव की शिक्षा और उपदेशों को आत्मसात कर राष्ट्र और समाज की हमारी पुरातन सामाजिक संरचना को मजबूत बनाने की जरूरत है। संत महात्माओं में गुरु नानक देव का नाम इतिहास में  स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। सिख धर्म के संस्थापक  और महान समाज सुधारक गुरु नानक देव का जन्म रावी नदी के किनारे पाकिस्तान के गाँव राय भोई की तलवंडी में कार्तिक पूर्णिमा, संवत् 1527 को हुआ था। अहंकार मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन हर साल  कार्तिक पूर्णिमा के दिन प्रकाश पर्व या गुरुपरब के रूप में मनाई जाती है। यह सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का जन्मदिवस है। इस साल गुरु नानक देव की 556वीं जयंती  5 नवम्बर को मनाई जा रही है।

सिख समुदाय के लोग इसे बड़ी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाते हैं। आज के पावन पवित्र  दिन हमें नानक देव के विचारों का गहन मंथन कर आत्मसात करने की जरुरत है। उनके बताये मार्ग पर चलकर हम अपने समाज को शांति और भलाई का रास्ता दिखा सकते है। गुरु नानक जयंती सिखों का सबसे बड़ा त्योहार है। हिंदू धर्म में दीपावली की तरह ही सिख धर्म में गुरु नानक जयंती मनाई जाती है। गुरु नानक देव ने सिख धर्म की स्थापना की थी। सिख समुदाय के लिए लोग इस दिन सुबह प्रभात फेरी निकालते हैं। गुरुद्वारे जाकर मत्था टेकते हैं, वाहे गुरू का जाप करते हैं और भजन कीर्तन करते हैं। गुरु नानक देव के 556 वें प्रकाश पर्व के मौके पर चारों ओर दीप जला कर रोशनी की जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार गुरु नानक ने समाज में बढ़ रही कुरीतियों और बुराइयों को दूर करने का काम किया था। बुराइयों और कुरीतियों को त्याग करके नई राह दिखाई थी।

महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानन्द सहित अनेक महापुरुषों ने कहा था आप अहंकार छोड़ दीजिये, सुखों की अनुभूति होना प्रारम्भ हो जाएगा। धर्मपुस्तक, देवालय और प्रार्थना की कोई आवश्यकता नहीं, यदि हमने अहंकार त्याग दिया है। गुरु नानक देव की शिक्षा का सार भी यही था अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। इसलिए अहंकार कभी नहीं करना चाहिए बल्कि विनम्र होकर सेवाभाव से जीवन गुजारना चाहिए। मगर आज हम अपने महापुरुषों के बताये मार्ग पर न चलकर अपने मन और भाव में अहंकार पाले हुए है जो समाज और राष्ट्र को पतन के मार्ग की ओर धकेल रहा है। हमारे  साधु  संतों  ने  सदा  सर्वदा  समाज  को  भलाई  का मार्ग दिखाया था। इसी परम्परा का निर्वहन करते हुए गुरु नानक देव ने समाज को झूठ, प्रपंच और अहंकार को त्याग कर सामाजिक एकता और भाईचारे का पाठ पढ़ाया था।  हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम समाज में प्रेम, भलाई और एक दूसरे के सुख दुःख में भागीदारी देकर गुरु नानक देव जैसे संतों को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि देंगे। 

सुख और दुःख पर गुरु नानक देव के विचार बहुत स्पष्ट और अनुकरणीय है। नानक देव का कहना था इस सृष्टि में दुख ही दुख व्याप्त है। कुछ लोग अपने आप को सुखी समझते हैं, लेकिन देखा जाए तो वे भी किसी न किसी दुख से दुखी हैं। गुरु नानक का यह कथन न केवल शाश्वत सत्य अपितु अजर अमर है। आज भी हमारा समाज दुखों के महासागर में गोते खा रहा है। अमीर से गरीब तक समाज का हर तबका किसी न किसी कारण दुखी है।

गुरु नानक देव ने ही इक ओंकार का नारा दिया यानी ईश्वर एक है। ईश्वर सभी जगह मौजूद है। हम सबका पिता वही है इसलिए सबके साथ प्रेमपूर्वक रहना चाहिए। उनका कहना था किसी भी तरह के लोभ को त्याग कर अपने हाथों से मेहनत कर और न्यायोचित तरीकों से धन का अर्जन करना चाहिए। कभी भी किसी का हक नहीं छीनना चाहिए बल्कि मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरतमंदों की भी मदद करनी चाहिए। धन को जेब तक ही सीमित रखना चाहिए। उसे अपने हृदय में स्थान नहीं बनाने देना चाहिए अन्यथा नुकसान हमारा ही होता है। स्त्री-जाति का आदर करना चाहिए। गुरु नानक देव, स्त्री और पुरुष सभी को बराबर मानते थे। तनाव मुक्त रहकर अपने कर्म को निरंतर करते रहना चाहिए तथा सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। संसार को जीतने से पहले स्वयं अपने विकारों और बुराईयों पर विजय पाना अति आवश्यक है। अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। इसलिए अहंकार कभी नहीं करना चाहिए बल्कि विनम्र होकर सेवाभाव से जीवन गुजारना चाहिए।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

डंकी रूट से युवाओं के सपनों की तस्करी

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विदेश में सुनहरे भविष्य के लालच में, भारतीय युवा अवैध रास्तों के शिकार बन रहे हैं। एजेंटों का यह नेटवर्क न केवल कानून तोड़ रहा है, बल्कि परिवारों की उम्मीदों और देश के भविष्य को भी चुरा रहा है। 

‘डंकी रूट’ एक अवैध प्रवासन मार्ग है, जिसके ज़रिए भारतीय युवा बिना वीज़ा या वैध दस्तावेजों के अमेरिका या यूरोप पहुंचने की कोशिश करते हैं। यह रूट भारत से पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, ग्रीस, इटली, फ्रांस और फिर मैक्सिको होते हुए अमेरिका तक जाता है। रास्ते में तस्कर, एजेंट और अपराधी गिरोह यात्रियों से पैसा ऐंठते हैं। कई बार लोग समुद्र में डूब जाते हैं या सीमा पार करते हुए पकड़े जाते हैं। हर साल सैकड़ों भारतीय इस खतरनाक यात्रा में मारे जाते हैं या गायब हो जाते हैं — और उनके परिवार कर्ज़ और दुःख की गहराई में डूब जाते हैं।

– डॉ सत्यवान सौरभ

भारत के अनेक इलाकों में, विशेषकर हरियाणा, पंजाब, गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, एक नया और खतरनाक चलन तेज़ी से फैल रहा है — “डंकी रूट” के ज़रिये विदेश पहुंचने का सपना। यह शब्द ‘डंकी’ अंग्रेज़ी के donkey से लिया गया है, जिसका मतलब है ‘बिना अनुमति या अवैध रास्ते से जाना’। सुनने में यह किसी फिल्मी कहानी जैसा लगता है, पर हकीकत इससे कहीं ज़्यादा भयावह है। इस रूट ने न केवल युवाओं के भविष्य को निगल लिया है, बल्कि समाज और प्रशासन के सामने एक गंभीर मानवीय और आर्थिक संकट भी खड़ा कर दिया है।

भारत के ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में ‘विदेश जाना’ अब सिर्फ़ एक आकांक्षा नहीं, बल्कि सफलता का प्रतीक बन गया है। नौकरी, मान-सम्मान, और बेहतर जीवन की तलाश में अनेक युवा अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। एजेंट उन्हें सुनहरे सपने दिखाते हैं — “बस कुछ दिनों में अमेरिका की जमीन पर खड़े होंगे”, “डॉलर में सैलरी मिलेगी”, “वहां का जीवन स्वर्ग जैसा है।”

पर सच यह है कि इन सपनों की कीमत कई बार ज़िंदगी होती है। डंकी रूट पर निकलने वाले अधिकांश युवाओं को यह नहीं बताया जाता कि यह यात्रा महीनों तक चल सकती है, जिसमें रेगिस्तान, समुद्र और खतरनाक जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है। रास्ते में भूख, प्यास, ठंड और हिंसा का सामना करना पड़ता है। कई लोग तो इस सफ़र में लापता ही हो जाते हैं, जिनकी कोई खबर नहीं मिलती।

डंकी रूट का पूरा कारोबार एक संगठित नेटवर्क के तहत चलता है, जिसमें फर्जी ट्रैवल एजेंट, पासपोर्ट दलाल, स्थानीय मुखिया, और विदेशी गिरोह शामिल होते हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 5000 से अधिक युवा अवैध रूप से विदेश जाने की कोशिश करते हैं, जिनसे एजेंट 15 से 25 लाख रुपये तक वसूलते हैं।

अमर उजाला की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2019 से 2025 तक 3053 फर्जी ट्रैवल एजेंट गिरफ्तार किए गए। पर असल संख्या इससे कहीं अधिक है, क्योंकि अधिकांश पीड़ित डर या शर्म के कारण शिकायत ही नहीं करते। एजेंट अक्सर बेरोजगारी और गरीबी से जूझते परिवारों को निशाना बनाते हैं, जो यह सोचते हैं कि बेटा ‘विदेश में सेट हो जाएगा’। लेकिन परिणाम होता है कर्ज़, बर्बादी और टूटे सपने।

भारत से शुरू होकर यह रूट पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, ग्रीस, इटली, फ्रांस, और अंततः मैक्सिको के रास्ते अमेरिका तक जाता है। इस सफर में लोग कई बार समुद्र में नावों में ठूंसे जाते हैं, मरुस्थल पार करते हैं, या बर्फ़ीले जंगलों में फंस जाते हैं। कई मानवाधिकार संगठनों ने रिपोर्ट दी है कि इस यात्रा में हर साल सैकड़ों भारतीय मारे जाते हैं या लापता हो जाते हैं।

फरवरी 2023 में गुजरात के दो युवकों की मौत तुर्की के पास हुई थी। वे यूरोप की सीमा पार करने की कोशिश में थे। ऐसी घटनाएं अब सामान्य बन चुकी हैं। यह न सिर्फ एक अपराध है बल्कि मानवता पर कलंक भी।

अवैध प्रवासन के मामलों में अमेरिका और यूरोपीय देशों ने अब निगरानी तेज़ कर दी है। 2022 के बाद अमेरिका ने भारत के साथ ‘डेटा शेयरिंग’ समझौता किया है, जिससे डंकी रूट से पहुंचने वाले लोगों की तुरंत पहचान हो सके। पकड़े जाने पर उन्हें डीपोर्ट (वापस भेजा जाना) किया जाता है, और कई बार महीनों जेल में रहना पड़ता है।

दूसरी ओर, यूरोपीय यूनियन ने भी सख्त वीज़ा और एंट्री नियम लागू किए हैं। इसका असर यह हुआ है कि अब एजेंट और भी खतरनाक रास्ते अपनाने लगे हैं — जैसे समुद्री मार्ग या जंगलों से पार करवाना, जिससे जान का खतरा और बढ़ गया है।

डंकी रूट सिर्फ एक अपराध नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी एक बड़ा बोझ है। युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा खेती और स्थानीय रोजगार से हटकर विदेश भागने के चक्कर में अपनी जमीन तक बेच देता है। गांवों में यह मानसिकता बन चुकी है कि “जो विदेश नहीं गया, वो सफल नहीं।”

इस प्रवृत्ति का परिणाम यह है कि गांवों की श्रमशक्ति घट रही है, परिवार कर्ज़ में डूब रहे हैं और युवाओं का विश्वास वैधानिक रोजगार प्रणालियों से उठ रहा है। यह स्थिति दीर्घकाल में भारत की जनसांख्यिकीय शक्ति को कमजोर करती है।

भारत सरकार ने ट्रैवल एजेंटों के लिए रजिस्ट्रेशन और सत्यापन को अनिवार्य किया है। विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर ई-माइग्रेट पोर्टल भी शुरू किया गया है, जहां से वैध एजेंटों की सूची देखी जा सकती है। इसके बावजूद जागरूकता की कमी और भ्रष्ट तंत्र के कारण फर्जी एजेंट अब भी सक्रिय हैं।

कानून मौजूद है — इमिग्रेशन एक्ट 1983 और पासपोर्ट एक्ट 1967 — पर इनकी प्रभावी क्रियान्विति नहीं हो पा रही। छोटे कस्बों में एजेंट खुलेआम “विदेश भेजने” के विज्ञापन लगा देते हैं, और पुलिस की नज़र उन पर तब पड़ती है जब कोई बड़ी दुर्घटना होती है।

मीडिया ने इस मुद्दे पर समय-समय पर जागरूकता बढ़ाने की कोशिश की है। अमर उजाला जैसे अख़बारों ने यह दिखाया कि कैसे “डंकी रूट से लूट” का धंधा हरियाणा, पंजाब, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों गांवों में फैल चुका है।

पर इसके साथ समाज को भी आत्ममंथन करना होगा —

क्यों युवाओं को लगता है कि देश में रहकर वे सफल नहीं हो सकते?

क्यों विदेश जाना ही प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है?

क्यों गांवों में वह वातावरण नहीं बन पा रहा जो युवाओं को यहाँ अवसर दे सके?

गांव-गांव, कॉलेजों और पंचायतों के स्तर पर अवैध प्रवासन के खतरों पर अभियान चलाया जाना चाहिए। विदेश मंत्रालय, श्रम विभाग और मीडिया मिलकर यह सुनिश्चित करें कि कोई भी युवा बिना वैध प्रक्रिया के विदेश न जाए।

ग्रामीण युवाओं के लिए कौशल विकास, स्वरोजगार, और स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि विदेश जाने का आकर्षण घटे। फर्जी एजेंटों को केवल गिरफ्तार करना पर्याप्त नहीं; उनके वित्तीय नेटवर्क को तोड़ना ज़रूरी है। संपत्ति जब्ती और लंबी सजा जैसे प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाए।

समाज को यह समझना होगा कि सफलता केवल विदेशी ज़मीन पर कदम रखने से नहीं आती। देश में भी अवसर हैं — बस दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। भारत को उन देशों से मिलकर काम करना चाहिए जहाँ ये नेटवर्क सक्रिय हैं, ताकि सीमा पार मानव तस्करी पर रोक लगे।

भारत के पास विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी है। यह जनसांख्यिकीय संपदा तभी वरदान बन सकती है जब उसे सही दिशा दी जाए। यदि यही युवा अवैध रास्तों में झोंक दिए गए तो यह राष्ट्र की अपार क्षति होगी।

डंकी रूट से बचने के लिए केवल कानून नहीं, बल्कि विचार और विवेक की ज़रूरत है। यह समझना होगा कि कोई भी सपना इतना बड़ा नहीं हो सकता जो इंसान की गरिमा, सुरक्षा और आत्मसम्मान से बड़ा हो।

डंकी रूट सिर्फ एक अपराध की कहानी नहीं, यह भारत के युवाओं की हताशा, बेरोजगारी और भ्रम की गाथा है। जब तक समाज और सरकार मिलकर युवाओं को वैधानिक, सुरक्षित और सम्मानजनक अवसर नहीं देंगे, तब तक ऐसे एजेंटों का धंधा फलता-फूलता रहेगा।

यह समय है कठोर कार्रवाई का, सच्ची जागरूकता का और उस सोच को बदलने का जो यह मानती है कि “विदेश जाना ही सफलता है।”

क्योंकि असली विकसित भारत वह होगा — जहाँ युवा अपने ही देश में अपने सपनों को साकार करें।

घटिया और नकली दवाओं का जानलेवा खेल : खतरे में है आमजन की सेहत

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बाल मुकुन्द ओझा

देश में बनने वाली अंग्रेजी दवाएं पिछले कुछ सालों से अपनी गुणवत्ता को लेकर सवालों के घेरे में हैं। देश में आये दिन घटिया और नकली दवाओं के जखीरे पकड़े जा रहे है जो साबित करते है आमजन का स्वास्थ्य खतरे में है। राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित कुछ राज्यों में कफ सिरफ से बच्चों की मौत के बाद दवा बाजार को लेकर भूचाल उठ खड़ा हुआ था। मीडिया ख़बरों के मुताबिक अकेले राजस्थान में 20 हज़ार करोड़ के दवा बाजार में 500 से 600 करोड़ की दवाइयां अमानक अथवा नकली पाई गई थी। देशभर में आजकल घटिया, नकली और अमानन दवाओं का बाजार धड़ले से पनप रहा है। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद देश में घटिया और नकली दवाओं पर पूरी तरह लगाम नहीं लगाई जा सकी है, जिसके कारण देश के लाखों लोगों की सेहत सुधरने के बजाय बिगड़ रही है। भारत में नकली, घटिया और अवैध दवाओं का धंधा तेजी से फैल रहा है, जिसकी वजह से रोगियों की जान जोखिम में है। विशेषज्ञों के मुताबिक जो दवाएं धोखाधड़ी से निर्मित या पैक की गई हैं, उन्हें नकली और घटिया दवाएं कहा जाता है क्योंकि उनमें या तो सक्रिय अवयवों की कमी होती है या गलत खुराक होती है।

हाल ही देश में नकली और घटिया दवाओं के बढ़ते मामलों पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार ने बड़ा कदम उठाया है। सरकार ने औषधि नियमों में नया प्रावधान जोड़ते हुए “एक फर्जी दस्तावेज एक प्रतिबन्ध नीति” लागू की है। इसके तहत अब नकली और घटिया दवाओं का निर्माण करने वाली कंपनियों का केंद्र सरकार सीधा लाइसेंस निरस्त या रद्द करेगी। सरकार ने औषधि नियम, 1945 में संशोधन किया है, जिसके तहत अगर कोई भी फॉर्मा कंपनी दवा निर्माण, बिक्री या पंजीकरण के लिए फर्जी दस्तावेजों या गलत जानकारी देती है, तो उसका लाइसेंस रद्द किया जाएगा।  संसोधन के पीछे मुख्य उद्देश्य दवा उद्योग में फर्जी दस्तावेज और गलत जानकारी देने की प्रवृत्ति पर रोक लगाना है। सरकार का कहना है , पिछले कुछ सालों में कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जिसमें कंपनियों ने दवा निर्माण या रजिस्ट्रेशन की झूठी जानकारी दी।  इससे न सिर्फ दवाओं की गुणवत्ता पर असर पड़ा बल्कि लोगों की सेहत पर भी खतरा हुआ। 

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक शीघ्र ही भारतीय दवा बाजार 60.9 अरब डालर के स्तर को पार कर जाएगा। ऐसे में अपने मुनाफे के लिए लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने वालों पर समय रहते सख्त कार्रवाई करनी होगी। आज के इस समय में नकली दवाइयां भी खूब मिलने लग गई हैं। ज्यादा पैसे कमाने के लालच में बाजार में नकली दवाइयों की बिक्री बढ़ गई है। बाजारों-अस्पतालों में घटिया और नकली दवाएं धड़ल्ले से बिक रही हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार नकली और घटिया दवाएं बनाने की सबसे अधिक कंपनियां हिमाचल प्रदेश में है। इनमें से बहुत सी ऐसी कंपनियां सरकारी अस्पतालों में दवा की सप्लाई का ठेका लेती हैं। नकली दवाओं का सेवन करने से आपके शरीर में कई गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। ऐसे में अगर आप मेडिकल स्टोर या ऑनलाइन वेबसाइट से दवाओं को खरीदते हैं तो इस स्थिति में आपको सावधान हो जाने की जरूरत है। घटिया और नकली दवाओं को बनाना-बेचना भ्रष्टाचार ही नहीं हमारी  सेहत के लिए एक बड़ा खतरा भी है। ऐसे में नियामकीय व्यवस्था को मजबूत बनाकर ही नकली और मिलावटी दवाओं से निजात मिलेगी।

गंभीर बीमारियों की छोड़िये, छोटी मोटी मौसमी बीमारियां जैसे सर्दी, जुखाम, खांसी, बुखार, एसीडीटी, रक्तचाप और गैस आदि भी यदि अंग्रेजी दवाओं से ठीक नहीं हो रही है तो आप सावधान हो जाइये क्योंकि इन दवाओं के नकली और घटिया होने का खतरा मंडरा रहा है। अनेक मीडिया रिपोर्ट्स में यह खुलासा किया गया है कि देशभर में नकली और घटियां दवाओं का धड़ल्ले से निर्माण हो रहा है जिसका पुख्ता प्रमाण सरकारी एजेंसियों की छापामारी से मिल रहा है। जाँच में ये दवाइयां नकली निकल रही है जो जनता के स्वास्थ्य से सरेआम खिलवाड़ है। आम आदमी जीवन रक्षक दवाओं में मिलावट की ख़बरों से खासा परेशान है। हमारे बीच यह धारणा पुख्ता बनती जा रही है कि बाजार में मिलने वाली अंग्रेजी दवाओं में कुछ न कुछ मिलावट जरूर है। लोगों की यह चिंता बेबुनियाद नहीं है। ये दवाएं नामी ब्रांडेड कंपनियों की पैकेजिंग में बेची जा रही हैं। देशभर में हर दूसरे या तीसरे दिन खबरें छपती रहती है कि इतने करोड़ की नकली दवाई पकड़ी गयी। इतनी दवाओं को नष्ट किया गया या सील किया गया। इसके बावजूद नकली दवाओं का धंधा बजाय कम होने के बढ़ता ही जा रहा है। नक़ली दवाएं या मिलावटी दवाएं वे होती हैं, जिनमें गोलियां, कैप्सूल या टीकों आदि में असली दवा नहीं होती, दवा की जगह चॉक पाउडर, पानी या महंगी दवा की जगह सस्ती दवा का पाउडर मिला दिया जाता है, इसके अलावा एक्सपायर हो चुकी दवाओं को दोबारा पैक करके बेचने का धंधा भी होता है।

एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में नकली दवाओं के उत्पादन और प्रसार का बाजार करीब 35 हजार करोड़ रुपए का है। इसी से यह समझा जा सकता है की देश में किस प्रकार नकली दावों का व्यापार निर्विघ्न रूप से फल फूल रहा है। एसोचेम  का दावा है कि बाजार में बिकने वाली हर 4 में से 1 दवा नकली है। आम आदमी के लिए इनके असली या नकली होने की पहचान बहुत मुश्किल है। कहा ये भी जा रहा है बीमारियों से इतनी मौतें नहीं हो रही है जितनी नकली दवाओं के सेवन से हो रही है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

ऐतिहासिक विजय: भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने रचा विश्व कप का नया इतिहास

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ऐतिहासिक विजय: भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने रचा विश्व कप का नया इतिहास

दक्षिण अफ्रीका को हराकर भारत बना विश्व विजेता

आज का दिन भारतीय खेल इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने दक्षिण अफ्रीका को हराकर अपना पहला विश्व कप जीत लिया है। यह जीत केवल एक ट्रॉफी नहीं, बल्कि उस जज़्बे, संघर्ष और संकल्प की प्रतीक है जिसने वर्षों तक कठिनाइयों के बावजूद भारतीय महिलाओं को खेल के शिखर तक पहुँचाया। यह विजय हर उस बेटी को समर्पित है जो अपने सपनों के लिए समाज की बंदिशों से लड़ रही है।

— डॉ प्रियंका सौरभ

भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने आज दक्षिण अफ्रीका को हराकर वह कर दिखाया जो दशकों से भारतीय खेल प्रेमियों का सपना था। क्रिकेट का यह संस्करण केवल खेल नहीं रहा—यह महिलाओं की आत्मनिर्भरता, साहस और नेतृत्व का प्रतीक बन गया है। इस जीत ने भारतीय महिला खिलाड़ियों को न सिर्फ़ विश्व पटल पर स्थापित किया है, बल्कि पूरे राष्ट्र को यह संदेश दिया है कि समर्पण और मेहनत किसी भी बाधा को मात दे सकते हैं।

भारत की कप्तान हरमनप्रीत कौर के नेतृत्व में टीम ने न केवल खेल कौशल दिखाया, बल्कि मानसिक दृढ़ता और रणनीतिक क्षमता का भी अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। जब दक्षिण अफ्रीका जैसी मज़बूत टीम के सामने भारत उतरा, तो पूरे देश की निगाहें इस मुकाबले पर थीं।

भारतीय महिला क्रिकेट का इतिहास संघर्षों से भरा रहा है। एक समय ऐसा भी था जब महिलाओं के मैचों में दर्शकों की संख्या सैकड़ों में भी पूरी नहीं होती थी। परंतु 2025 में यह तस्वीर पूरी तरह बदल गई। घरेलू टूर्नामेंट्स, महिला आईपीएल (WPL), और युवा खिलाड़ियों के लिए बढ़ते अवसरों ने भारतीय टीम को एक नई ताकत दी। शेफाली वर्मा, स्मृति मंधाना, और दीप्ति शर्मा जैसी खिलाड़ियों ने न केवल मैदान पर कमाल किया, बल्कि नई पीढ़ी की प्रेरणा भी बनीं। आज की जीत में हर खिलाड़ी का योगदान महत्वपूर्ण रहा — चाहे वह अंतिम ओवर की गेंदबाजी हो या फील्डिंग में दिया गया असाधारण प्रदर्शन।

भारत ने पहले बल्लेबाजी करते हुए लगभग 298 रन का मजबूत लक्ष्य रखा। पारी की शुरुआत शेफाली वर्मा और स्मृति मंधाना ने दमदार अंदाज में की। मंधाना की शतक जैसी पारी ने टीम को मजबूत नींव दी, वहीं कप्तान हरमनप्रीत कौर ने मध्य क्रम में टीम को स्थिरता प्रदान की। फाइनल के दबाव में भी भारतीय गेंदबाजों ने संयम नहीं खोया। दीप्ति शर्मा और रेणुका ठाकुर ने सटीक गेंदबाजी से दक्षिण अफ्रीका को लक्ष्य से दूर रखा। अंतिम ओवरों में जब जीत और हार के बीच की दूरी कुछ गेदों की रह गई थी, तब पूरी टीम ने जिस धैर्य से खेला, वह भारतीय क्रिकेट की परिपक्वता को दर्शाता है।

इस जीत का महत्व केवल खेल तक सीमित नहीं है। यह जीत समाज में महिलाओं की भूमिका के प्रति दृष्टिकोण को बदलने वाली घटना है। लंबे समय तक खेल को पुरुष प्रधान माना जाता रहा, लेकिन आज भारतीय बेटियों ने यह साबित कर दिया कि खेल का मैदान अब किसी एक लिंग तक सीमित नहीं। यह विजय देश के ग्रामीण इलाकों में खेलने वाली उन लड़कियों के लिए प्रेरणा है, जो अब खुद को किसी भी सीमा में बंधा हुआ महसूस नहीं करेंगी।

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) और खेल मंत्रालय ने पिछले कुछ वर्षों में महिला क्रिकेट को सशक्त बनाने के लिए ठोस कदम उठाए हैं — समान वेतन नीति, बेहतर कोचिंग सुविधाएँ, और महिला आईपीएल जैसे प्रावधानों ने खेल में समान अवसरों को सुनिश्चित किया है। अब आवश्यकता है कि इस गति को बनाए रखा जाए। महिला खिलाड़ियों को न केवल सम्मान बल्कि स्थायी सुरक्षा, सुविधाएँ और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निरंतर प्रतिस्पर्धा के अवसर मिलते रहें।

इस जीत ने भारत को एक नई जिम्मेदारी भी दी है। आने वाले वर्षों में भारत को न केवल इस प्रदर्शन को दोहराना है, बल्कि खेल की जड़ों को और गहरा करना है। स्कूल स्तर से लेकर विश्वविद्यालय तक, खेल शिक्षा और महिला खिलाड़ियों के लिए बेहतर बुनियादी ढाँचा तैयार करना समय की माँग है। साथ ही, मीडिया और दर्शकों को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि यह उत्साह केवल एक दिन या टूर्नामेंट तक सीमित न रहे।

आज भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने यह साबित कर दिया है कि “जहाँ इच्छा, वहाँ राह” कोई कहावत मात्र नहीं, बल्कि यथार्थ है। यह जीत केवल 11 खिलाड़ियों की नहीं, बल्कि पूरे भारत की है — उन परिवारों की, जिन्होंने अपनी बेटियों को सपने देखने की आज़ादी दी; उन कोचों की, जिन्होंने सीमित संसाधनों में भी प्रतिभा को निखारा; और उन दर्शकों की, जिन्होंने हर गेंद पर टीम का हौसला बढ़ाया।

2025 का यह वर्ष भारतीय खेलों के लिए ऐतिहासिक बन गया है। अब भारत की बेटियाँ विश्व की नई मिसाल हैं — जिनकी जीत ने हर भारतीय के दिल में गर्व, प्रेरणा और उम्मीद की लौ जगा दी है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

मोबाइल की लत बच्चों के स्वास्थ्य के साथ पढाई के लिए भी खतरा

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बाल मुकुन्द ओझा

आज घर घर में बच्चे और युवा धड़ल्ले से मोबाइल पर स्क्रीनिंग कर रहे है। उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है की यह उनके स्वास्थ्य और पढ़ाई के लिए कितना खतरनाक है। मीडिया में युवा पीढ़ी को मोबाइल लत के खतरे से लगातार आगाह किया जा रहा है। अनेक युवा इसके दुष्परिणामों के शिकार होकर अस्पतालों में अवसाद का इलाज़ करा रहे है। सेंसर टावर की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अपने देश में गत वर्ष मोबाइल पर 1.12  ट्रिलियन घंटे स्क्रीनिंग की गई जो दुनियाभर में सर्वाधिक आंकी गई है। इससे पता चलता है 18 वर्ष की आयु सीमा के 40 करोड़ बच्चे में से हर तीसरा बच्चा मोबाइल अवसाद का शिकार है, जिनकी संख्या 13 करोड़ से अधिक बताई जा रही है। इसी भांति एक अन्य नई रिसर्च के मुताबिक मोबाइल, टैबलेट और लैपटॉप जैसे गैजेट्स न केवल बच्चों के स्वास्थ्य अपितु उनके शैक्षिक जीवन के लिए भी खतरा बन रहे है। टेक्नोलॉजी के इस दौर में बच्चे मोबाइल फोन, टैबलेट से ही अपनी पढ़ाई कर रहे हैं। खासकर कोविड में ऑनलाइन पढ़ाई के बाद उनके बीच स्क्रीन टाइम बहुत बढ़ा है। पांच हजार से ज्यादा कनाडाई बच्चों पर साल 2008 से 2023 तक चली एक रिसर्च बताती हैं कि बढ़ते स्क्रीन टाइम के कारण बच्चों में बेसिक मैथ्स और पढ़ने की समझ ठीक से विकसित नहीं हो पा रही है। यहां तक कि स्क्रीन टाइम की वजह से बच्चों के मार्क्स में 10 फीसदी तक कमी आई है। एक अन्य रिपोर्ट में यह सामने आया है कि 73 प्रतिशत स्कूली बच्चे अश्लील सामग्री देखते हैं। वहीं, 80 प्रतिशत बच्चे रोज़ाना सोशल मीडिया पर कम से कम 2 घंटे बिताते हैं। इसका सीधा असर उनकी पढ़ाई, सोचने-समझने की क्षमता और व्यवहार पर पड़ रहा है।मोबाइल आपका दोस्त है या दुश्मन। बिना विलंब किए इस पर गहनता से मंथन की जरुरत है। आजकल मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल बच्चों को इंटरनेट एडिक्शन की तरफ ले जा रहा है। एक स्टडी रिपोर्ट में एक बार फिर मोबाइल के खतरे से सावचेत किया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है पैरेंट्स बिना सोचे-समझे सिर्फ दो-ढाई साल के बच्चों के हाथ में मोबाइल थमा देते हैं। इसके बाद बिना मोबाइल यूज किए बच्चा खाना तक नहीं खाता है। हालांकि इंफॉर्मेशन, टेक्नॉलोजी और एआई के दौर में मोबाइल का इस्तेमाल जरूरी है। लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को मोबाइल देने की क्या जरूरत है? अगर आप भी मोबाइल एडिक्शन को सीरियसली नहीं ले रहे हैं, तो आपको बता दें कि सेलफोन आपके बच्चों का सबसे बड़ा दुश्मन बन रहा है। कच्ची उम्र में बच्चों को डिजिटल डिमेंशिया जैसी घातक बीमारी हो सकती है। ब्रिटेन में हुई स्टडी के मुताबिक दिन में 4 घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम से वैस्कुलर डिमेंशिया और अल्जाइमर का जोखिम बढ़ जाता है। फोन पर घंटो स्क्रॉल करने पर ढेरों फोटोज, एप्स, वीडियोज सामने आते हैं जिससे आपके दिमाग के लिए सब कुछ याद रखना मुश्किल हो जाता है। परिणाम स्वरूप आपकी याद्दाश्त, कॉन्संट्रेशन और सीखने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है।

स्क्रीन टाइम ज्यादा होने का सबसे पहला असर बच्चों की आंखों की रोशनी पर पड़ रहा है। स्क्रीन को नजदीक और एकटक देखने से आंखें ड्राई होने लगती हैं यही हालात रहने पर आंखों की रोशनी कम होने लगती है। मोबाइल बच्चों का दोस्त है या दुश्मन। बिना विलंब किए अभिभावकों को इस पर गहनता से मंथन की जरुरत है। आजकल मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल बच्चों को इंटरनेट एडिक्शन की तरफ ले जा रहा है। इस तरह के एडिक्शन से मानसिक बीमारियां पैदा होती हैं और ऐसे में बच्चे कोई न कोई गलत कदम उठा लेते हैं। आजकल के बच्चे इंटरनेट लवर हो गए हैं। इनका बचपन रचनात्मक कार्यों की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है। पिछले कई सालों में सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरक्की की है, इसने मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है बल्कि एक तरह से इसने जीवनशैली को ही बदल डाला है। बच्चे और युवा एक पल भी स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते। इनमें हर समय एक तरह का नशा सा सवार रहता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे इंटरनेट एडिक्शन डिस्ऑर्डर कहा गया है।

जब से इंटरनेट हमारे जीवन में आया है तबसे बच्चे से बुजुर्ग तक आभासी दुनियां में खो गए है। हम यहाँ बचपन की बात करना चाहते है। देखा जाता है पांच साल  का बच्चा भी आँख खोलते ही मोबाइल पर लपकता है। पहले बड़े इसे अपने काम के लिए करते थे। अब बच्चे भी इंटरनेट के शौकीन होते जा रहे हैं। बाजार ने उनके लिए भी इंटरनेट पर इतना कुछ दे दिया है कि वह पढ़ने के अलावा बहुत कुछ इंटरनेट पर करते रहे हैं। पेरेंट्स को बच्चों की ऐसी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए और समय रहते उनकी ऐसी आदत को पॉजेटिव तरीके से दूर करना चाहिए।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32 मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर