बच्चों में छिपा है देश का उज्ज्वल भविष्य

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बाल दिवस विशेष:

“बचपन को केवल देखा नहीं, समझा जाना चाहिए। हर मुस्कुराता बच्चा एक जीवित कविता है, जो हमें मानवता की सच्ची परिभाषा सिखाता है। बाल दिवस पर आइए, हम सब मिलकर यह संकल्प लें — हर बच्चे की हँसी और हर सपने की सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है।” 

✍️ — डॉ. प्रियंका सौरभ

हर वर्ष 14 नवम्बर को भारत में बाल दिवस बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह दिन स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती के रूप में समर्पित है। बच्चों के प्रति उनके गहरे प्रेम और स्नेह के कारण बच्चे उन्हें स्नेहपूर्वक चाचा नेहरू कहकर पुकारते थे। नेहरू जी का मानना था कि “आज के बच्चे कल का भविष्य हैं, उन्हें सही दिशा देना ही सच्ची राष्ट्र सेवा है।” उनका यह विश्वास था कि अगर बच्चों को उचित वातावरण, शिक्षा और अवसर मिले तो वे भारत को विश्व में गौरव की ऊँचाइयों तक पहुँचा सकते हैं।

नेहरू जी बच्चों में भारत के उज्ज्वल भविष्य की झलक देखते थे। उनका कहना था कि किसी भी राष्ट्र की असली पूँजी उसके बच्चे हैं — न कि उसकी सेना या संपत्ति। बच्चों में असीम ऊर्जा, कल्पनाशक्ति और सृजनात्मकता होती है, जिसे यदि सही दिशा दी जाए तो वही समाज की सबसे बड़ी ताकत बनती है। उन्होंने स्वतंत्र भारत के निर्माण के साथ-साथ बच्चों के विकास को भी सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उनके नेतृत्व में शिक्षा, विज्ञान और बाल कल्याण से जुड़ी कई योजनाएँ प्रारंभ की गईं। उन्होंने बच्चों के लिए ‘राष्ट्रीय बाल निधि’, ‘बाल भवन’, ‘शिशु कल्याण परिषद’ जैसी संस्थाओं की नींव रखी, जिनका उद्देश्य बच्चों की प्रतिभा को निखारना और उन्हें रचनात्मक मार्ग पर प्रेरित करना था।

बाल दिवस केवल एक स्मृति दिवस नहीं, बल्कि उस सोच का प्रतीक है जो बच्चों को राष्ट्र के केंद्र में रखती है। इस अवसर पर हमें यह चिंतन करना चाहिए कि हमारे बच्चे आज किन परिस्थितियों में पल बढ़ रहे हैं। आधुनिक युग में तकनीकी क्रांति ने बच्चों के जीवन को कई मायनों में प्रभावित किया है। इंटरनेट, मोबाइल और सोशल मीडिया ने जहाँ ज्ञान के द्वार खोले हैं, वहीं बचपन की मासूमियत और संवाद की परंपरा को भी कमज़ोर किया है। बच्चे अब खेल के मैदान से अधिक स्क्रीन पर समय बिताते हैं। शिक्षा का स्वरूप भी अंकों की दौड़ में सिमट गया है, जहाँ नैतिकता और संवेदनशीलता पीछे छूटती जा रही है।

आज के बच्चे अपार संभावनाओं के धनी हैं, पर उन पर प्रतिस्पर्धा और सफलता का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया है। माता-पिता और समाज दोनों ही उनसे अपेक्षाओं का पहाड़ खड़ा कर देते हैं। इस दबाव के कारण अनेक बच्चे मानसिक तनाव, अवसाद और भय से ग्रसित हो रहे हैं। यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि स्वस्थ समाज की नींव तभी मजबूत होती है जब उसका बचपन खुश, स्वस्थ और सुरक्षित हो।

इस परिप्रेक्ष्य में बाल दिवस हमें यह याद दिलाता है कि बच्चे केवल माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण समाज की धरोहर हैं। हर बच्चे के भीतर एक कलाकार, वैज्ञानिक, शिक्षक या नेता छिपा है। हमें केवल उसे पहचानने और प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। शिक्षा व्यवस्था को इस प्रकार रूपांतरित किया जाना चाहिए कि वह केवल परीक्षा आधारित न होकर अनुभव, मूल्य और सृजनशीलता पर आधारित हो। आज ज़रूरत है कि स्कूलों में खेल, संगीत, कला और साहित्य को शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बनाया जाए ताकि बच्चे जीवन को सम्पूर्णता से जीना सीख सकें।

नेहरू जी ने जिस भारत का सपना देखा था, वह केवल आर्थिक या तकनीकी रूप से प्रगतिशील नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों से संपन्न भारत था। उन्होंने बच्चों को स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की भावना के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। उनके लिए शिक्षा केवल ज्ञान का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की नींव थी। नेहरू जी ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए आईआईटी, आईआईएससी और नेशनल साइंस पॉलिसी जैसी संस्थाएँ स्थापित कीं, ताकि भावी पीढ़ी आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान दे सके।

आज जब हम बाल दिवस मनाते हैं, तो यह हमारे लिए आत्ममंथन का समय भी है। क्या हमने नेहरू जी के आदर्शों के अनुरूप बच्चों के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया है? क्या हर बच्चे को समान अवसर, शिक्षा और सुरक्षा मिल पा रही है? वास्तविकता यह है कि आज भी हमारे देश में करोड़ों बच्चे शिक्षा से वंचित हैं, अनेक बच्चे बाल श्रम और बाल शोषण के शिकार हैं। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बाल सुरक्षा की स्थिति समान रूप से चिंताजनक है।

यदि हमें सच में बाल दिवस का अर्थ समझना है, तो हमें इन चुनौतियों का सामना करना होगा। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति उसके बच्चों के कल्याण से जुड़ी है। बाल अधिकारों की रक्षा केवल कानून बनाने से नहीं, बल्कि संवेदनशील समाज के निर्माण से होगी। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी बच्चा भूखा न सोए, कोई भी बच्चा भय में न जिए, और हर बच्चे को अपने सपनों को पूरा करने का अवसर मिले।

आधुनिक भारत में बाल अधिकारों की दिशा में सरकार और समाज दोनों ने प्रयास किए हैं। राष्ट्रीय बाल नीति (2013), समग्र शिक्षा अभियान, पोषण अभियान और बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) जैसी पहलें इस दिशा में सराहनीय कदम हैं। किंतु केवल नीतियाँ काफी नहीं हैं, जब तक उन्हें ज़मीनी स्तर पर सशक्त रूप से लागू न किया जाए। हर स्कूल, हर अभिभावक और हर नागरिक को इस दिशा में संवेदनशील बनना होगा।

बाल दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि बच्चों की हँसी सबसे पवित्र संगीत है। जब कोई बच्चा निडर होकर मुस्कुराता है, तो वह राष्ट्र की आत्मा की मुस्कान होती है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह मुस्कान कभी न बुझे। इसके लिए केवल सरकारी नीतियाँ नहीं, बल्कि सामाजिक सहयोग और पारिवारिक स्नेह आवश्यक है।

बच्चों को केवल जानकारी नहीं, बल्कि प्रेरणा चाहिए। उन्हें केवल किताबें नहीं, बल्कि उदाहरण चाहिए। यदि हम अपने जीवन में नैतिकता, संवेदना और करुणा को अपनाएँ, तो वही बच्चे उनसे सीखेंगे। परिवार बच्चों की पहली पाठशाला है, जहाँ उन्हें संस्कार, सहयोग और सामंजस्य का ज्ञान मिलता है।

आज का बाल दिवस हमें यह संकल्प लेने का अवसर देता है कि हम अपने बच्चों के लिए एक ऐसा समाज बनाएँ, जहाँ वे भयमुक्त होकर सोच सकें, अपने सपनों को साकार कर सकें और अपनी सृजनात्मकता से भारत का भविष्य गढ़ सकें। नेहरू जी का सपना तभी साकार होगा जब हर बच्चा सुरक्षित, शिक्षित और प्रसन्न होगा।

बाल दिवस केवल बच्चों का उत्सव नहीं, बल्कि मानवता की नयी शुरुआत का प्रतीक है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि बचपन केवल उम्र का पड़ाव नहीं, बल्कि जीवन की वह सुंदर अवस्था है जिसमें आशा, ऊर्जा और प्रेम का सबसे शुद्ध रूप बसता है। हमें इस बचपन की रक्षा करनी है, इसे खिलने देना है, क्योंकि जहाँ बच्चे मुस्कुराते हैं, वहीं राष्ट्र खिलता है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

पुस्तक समीक्षा : अब जब बात निकली है

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यह पुस्तक हमारी वरिष्ठ साथी और सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की पूर्व अतिरिक्त निदेशक अलका सक्सेना की बत्तीस वर्ष से अधिक की जनसम्पर्क यात्रा की केवल कहानी मात्र नहीं है अपितु लेखक की सेवा यात्रा, संघर्ष और उपलब्धियों का दस्तावेज भी है। अपनी बात बेबाकी से रखने का साहस हर किसी के बस की बात नहीं होती, मगर अलका ने इसे कर दिखाया है। प्रस्तुत पुस्तक में अलका ने सच को सच कहने की हिम्मत दिखाते हुए एक ऐसी कृति हमारे हाथों में दी है जो जनसंपर्क कर्मियों की नई पीढ़ी को ही नहीं बल्कि हम सब को भी जीने की राह दिखाएगी। जनसंपर्क पर सैद्धांतिक ज्ञान की बेशक अनेक किताबें पहले से उपलब्ध हैं पर जमीनी हकीकत बताने वाली और व्यवहारिक ज्ञान देने वाली यह किताब अपने आप में अनूठी साबित होगी। अलका ने बिना किसी लाग लपेट और बिना चाशनी लपेटे सब कुछ कितना खुल कर लिखा है। पुस्तक में अलका हमें अपने साथ अपनी पूरी राजकीय सेवा की यात्रा पर ले जाती हैं और जहाँ मिले अपने खट्टे मीठे, अच्छे बुरे, अनुकूल प्रतिकूल सारे अनुभव क्रम दर क्रम हमसे साझा करती जाती हैं। उन्होंने अपनी इस पूरी यात्रा का बेहद संजीदगी से और सयंमित भाषा में वर्णन किया है। अपनी किताब में वे बिना किसी झिझक और डर के राजकीय व्यवस्था के प्रति अपना गुस्सा भी जाहिर करती हैं। भ्र्ष्टाचार के विरुद्ध ज़ीरो टोलरेंस और महिला सशक्तिकरण का राग अलापने वाली सरकारों के प्रति भी उनके मन में जो आक्रोश उसे भी यहाँ लिखने से वे अपने आप को रोक नहीं पातीं।
यह किताब जनसम्पर्क का एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें जनसम्पर्क क्या है, क्यों जरूरी है ,कितने प्रकार का है, इसके क्या उपकरण हैं, इस क्षेत्र में काम करने वालों के लिए आने वाली चुनौतियां तथा समस्याएं और उनके निराकरण के लिए निकाले गए रास्ते, विधान सभा कवरेज ,जनादेश ,जनसम्पर्क और जमीनी हकीकत ,सत्ता परिवर्तन और जनसम्पर्क ,जनसंपर्क के क्षेत्र में महिलाओं के लिए चुनौतियां, जनसंपर्क अधिकारी की गिरती साख जैसे अनेक बिंदुओं को समेटने की कोशिश की गयी है।
लेखक ने पुस्तक में अपने पूरे जनसम्पर्क सफर की यादों को गागर में सागर की तरह भरने का सफल प्रयास किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे हर दृष्टि से विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं। वे उच्च कोटि की जनसम्पर्क कर्मी, संपादक, पत्रकार और प्रतिष्ठित संवादकर्मी के साथ हिंदी और अंग्रेजी की ज्ञाता हैं। निडरता, साहस, कार्य के प्रति समर्पण और कर्तव्यनिष्ठा उनकी प्रमुख विशेषता है। आशा है यह पुस्तक सुधि पाठकों के लिए बेहद उपयोगी साबित होगी।
लेखक : अलका सक्सेना
प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर ।
पृष्ठ : 315
मूल्य : 500 रूपये
समीक्षक — वीना करमचंदानी
वरिष्ठ लेखक और जनसम्पर्ककर्मी

ज़ोहरान ममदानी के कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती

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एम. ए. कंवल जाफरी

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अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कड़े विरोध और धमकी के बावजूद ज़ोहरान ममदानी ने न्यूयॉर्क का मेयर बनकर इतिहास रचा। पिछली सदी के पहले मुस्लिम, पहले भारतीय मूल और सबसे कम उम्र के मेयर ममदानी 1 जनवरी 2026 को पद और गोपनीयता की शपथ लेंगे। इस जीत से अमेरिकी राष्ट्रपति और इजराइली प्रधानमंत्री को कोई खुशी नहीं हुई, लेकिन इसका सर्वत्र स्वागत किया गया। ज़ोहरान क्वामे ममदानी 2018 में अमेरिकी नागरिक बने। 2020 के विधानसभा चुनाव में चार बार की विधानसभा सदस्य अरावेला सिमोटाॅस को हराने और दूसरे कार्यकाल के लिए निर्विरोध निर्वाचित ज़ोहरान ममदानी के मेयर के अहम और मुश्किल चुनाव में जीत से साबित हो गया कि अमेरिका की राजनीति में मुसलमान, आप्रवासी और मजदूर वोट बैंक की कतारों से निकलकर प्रतिनिधित्व की पंक्ति में आ खड़े हुए हैं। चुनाव में सियासी दमखम, लोकतांत्रिक दृष्टिकोण, नारों की गूंज और वादों का बड़ा महत्व होता है। इस चुनाव में अहम मुद्दों के साथ जनकल्याणकारी वादे भी किए गए। अमेरिका में किराया संकट, परिवहन की बढ़ती दरें, आसमान छूती मंहगाई, रोजगार की अविश्वसनीयता, युवाओं के लिए रोजगार के अवसरों की कमी, बच्चों की देखभाल का खर्च और पुलिस व्यवस्था में असमानता जैसे मुद्दे उठाए और चार बड़े वादे किए गए। वादों में किरायेदारों के लिए किराया स्थिर करना, मजदूरों और छात्रों के लिए मुफ्त बस सेवा, दैनिक उपभोग के ज़रूरी सामान के लिए सरकारी स्टोर और कामकाजी परिवारों केे बच्चों की देखभाल के लिए मुफ्त बाल केंद्र खोलना शामिल हैं। सस्ते आवासों का निर्माण, 30 डॉलर प्रतिघंटा मज़दूरी, एलजीबीटी अधिकार और पुलिस सुधार के वादों ने शहरी राजनीति को सार्वजनिक आवश्यकताओं की राजनीति में बदल दिया।
ज़ोहरान ममदानी का जन्म 18 अक्टूबर 1991 को युगांडा के शहर कंपाला में हुआ। मुंबई में पैदा उनके पिता और कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रोफेसर महमूद ममदानी का संबंध शिया मुस्लिम गुजराती परिवार से है, जबकि माँ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फिल्म निर्माता मीरा नायर का ताल्लुक ओडिशा के राउरकेला के पंजाबी हिंदू परिवार से है। कुछ समय दक्षिण अफ्रीका में रहकर यह परिवार अमेरिका के प्रसिद्ध शहर न्यूयार्क में आबाद हो गया। ज़ोहरान ममदानी ने 2024 में न्यूयार्क के मेयर का चुनाव लड़ने की घोषणा की। यूं तो यह चुनाव स्थानीय निकाय चुनाव था, लेकिन ममदानी के धर्म और राष्ट्रपति ट्रंप के कड़े विरोध के कारण यह चुनाव दिलचस्प और दुनिया की तवज्जह का केंद्र बन गया। इज़राइल को अमेरिकी मदद रोकने के पक्षधर ममदानी (34) आरंभ से ही बढ़त बनाए रहे। चुनाव में 20 लाख (91 प्रतिशत) से अधिक वोट पड़े, जो 1969 के बाद सबसे अधिक है। उन्होंने आजाद उम्मीदवार और न्यूयॉर्क के पूर्व गवर्नर एंड्रयू कुओमो और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार कर्टिस स्लिवा को हराया। ट्रंप की कुओमो के समर्थन की घोषणा कारगर साबित नहीं हुई। 26 अरबपतियों के 2.2 करोड़ से अधिक डॉलर खर्च कर भी ममदानी को नहीं रोका जा सका। ममदानी को 10,36,051 वोट (50.5 प्रतिशत) प्राप्त हुए, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी और ट्रम्प समर्थित कुओमो को 7,76,547 वोट (41.3 प्रतिशत) और स्लिवा को केवल 1,37,030 वोट (7.1 प्रतिशत) मिले। ममदानी 111 वर्षों में न्यूयॉर्क के 111वें और सबसे कम उम्र के मेयर बने। उन्हें करीब 67 प्रतिशत यहूदी वोट मिले। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा व बिल क्लिंटन और पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने उन्हें बधाई दी। ममदानी ने राष्ट्रपति ट्रम्प को आव्रजन पर चुनौती दी और राजनीतिक भाई-भतीजावाद समाप्त करने का आह्वान किया। कहा, दोस्तों! हमने राजनीतिक वंश को उखाड़ फेंका। हम एक ऐसी राजनीति को उलट रहे हैं जो कुछ लोगों की सेवा करती थी। हम इसलिए जीते क्योंकि न्यूयॉर्कवासियों ने खुद को यह विश्वास दिलाया कि असंभव को संभव बनाया जा सकता है। हम पर राजनीति थोपी नहीं जाएगी, बल्कि वह चीज़ होगी, जो हम खुद बनाएंगे। ट्रंप की राजनीति अमेरिका प्रथम, मुस्लिम पाबंदी, आप्रवासी विरोधी, घृणित बयानबाजी और धमकी पर आधारित थी। शालीनता की हदें पार कर ममदानी को पागल कम्यूनिस्ट और उसे वोट करने वाले यहूदियों को बेवकूफ और यहूदी विरोधी कहा गया। ज़ोहरन ममदानी की जीत पर न्यूयॉर्क की आर्थिक मदद रोकने की धमकी दी गई। मुस्लिम आप्रवासी का जीतना ट्रंप विचारधारा की प्रतीकात्मक हार है। यह जीत आप्रवासियों और मुस्लिम समुदायों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व का संकेत है। यह मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को संकेत देती है कि वे अमेरिकी लोकतंत्र में मुख्यधारा के नेतृत्व तक पहुँच सकते हैं। यह जीत अमेरिकी राजनीति के बदलते स्वरूप का संकेत है। इसका अमेरिका, डेमोक्रेटिक पार्टी और डोनाल्ड ट्रंप पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। मेयर शहर का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है। उसके पास सभी एजेंसियों, विभागों और कर्मचारियों को नियंत्रित करने, बजट तैयार करने, प्रस्ताव देने व लागू करने का अधिकार होता है। उसे कई विभागों और मिशनों के प्रमुखों की नियुक्ति करने का हक भी है।
ज़ोहरान ममदानी न्यूयॉर्क को सिर्फ ऊँची इमारतों का शहर नहीं, बल्कि साझा ज़िंदगी के अनुभवों का शहर मानते हैं। उनका ताल्लुक ऐसे भारतीय-अफरीकी-अमेरिकी परिवार से है, जिसने तीन महाद्वीपों का अनुभव है। उनकी सियासत में मज़हब या नस्ल की बजाय शांति, न्याय और समानता नज़र आती है। इस जीत ने साबित कर दिया कि अब अब्दुल सिर्फ पंक्चर ही नहीं जोड़ता, बल्कि लोगों के दिल जोड़कर न्यूयॉर्क जैसे शहर का मेयर भी बन जाता है। मुसलमानों में मिसाइलमैन, वैज्ञानिक, गणितज्ञ और खगोलशास्त्री के साथ हर क्षेत्र के उच्च पदों पर पहुँचने की सलाहियत है। अमेरिका से बाहर पैदा होने के कारण ममदानी संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव तो नहीं लड़ सकते, लेकिन विधानसभा सदस्य और मेयर के रूप में जनसेवा ज़रूर कर सकते हैं। इस्लाम भेदभाव के बजाय समानता की तालीम देता है। उन्हें सबसे बड़े सेवक के तौर पर शहर के विकास और जन कल्याण के कार्य करने का अवसर मिला है। मतदाताओं ने ट्रंप की धमकियों के बावजूद उन्हें कामयाब किया है। अब ममदानी के पास लोगों के सपने पूरे करने का मौका है। ट्रंप पहले ही कह चुके हैं कि ज़ोहरान ममदानी के मेयर बनने के बाद वह न्यूयॉर्क के लिए आवश्यक संघीय धन को सीमित करेंगे, ताकि उनकी आर्थिक शक्ति कमजोर रहे और वह अपनी लोकप्रियता खो दें। कम्युनिस्ट के नेतृत्व में इस महान शहर की सफलता या समृद्धि की कोई संभावना नहीं है। वह न्यूयॉर्क को आर्थिक और सामाजिक अराजकता में धकेल देंगे और शहर के अस्तित्व को ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा। राष्ट्रपति के विरोध और फंडिंग्स से हाथ खींचने की स्थिति में ममदानी का जनता की कसौटी पर खरा उतरना आसान नहीं है। उन्हें सीमित संसाधनों से राजनीतिक शतरंज की बिसात पर एक मंझे खिलाड़ी की तरह आगे बढ़ना होगा, ताकि चुनाव में किए गए वादों को पूरा कर शहर के विकास और जनसेवा को यकीनी बनाया जा सके।

एमए कंवल जाफरी

निठारी कांड के निर्णय पर उठते सवाल

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अशोक मधुप

वरिष्ठ  पत्रकार

निठारी हत्याकांड के दोषी ठहराए गए सुरेंद्र कोली को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह बेहद दुख की बात है कि लंबी जांच के बावजूद निठारी के जघन्य हत्याकांड के असली अपराधी की पहचान कानूनी मानकों के अनुरूप स्थापित नहीं हो पाई। अपराध जघन्य थे और परिवारों की पीड़ा अथाह थी। सुप्रीम कोर्ट ने नोएडा के निठारी हत्याकांड से जुड़े अंतिम लंबित मामले में सुरेंद्र कोली को बरी करते हुए यह टिप्पणी की। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने फैसले में कहा, आपराधिक कानून अनुमान या पूर्वधारणा के आधार पर दोषसिद्धि की अनुमति नहीं देता। खुदाई शुरू होने से पहले घटनास्थल को सुरक्षित नहीं किया गया था, खुलासे को उसी समय दर्ज नहीं किया गया। रिमांड दस्तावेज में विरोधाभासी विवरण थे और कोली को समय पर अदालत की ओर से निर्देशित चिकित्सा जांच के बिना लंबे समय तक हिरासत में रखा गया। अदालत ने कोली की सजा को रद्द करते हुए कहा कि अगर वह किसी और मामले में वांछित नहीं हैं, तो उन्हें तुरंत रिहा किया जाए। यह फैसला उन परिवारों और कानूनी हलकों के लिए अहम है, जो पिछले 18 वर्षों से इस मामले पर नजर रखे हुए थे। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि अभियोजन पक्ष सुरेंद्र कोली के खिलाफ ठोस और विश्वसनीय सबूत पेश नहीं कर पाया। अदालत ने माना कि जांच के दौरान कई गंभीर प्रक्रियागत खामियां रहीं, इसके चलते दोषसिद्धि बरकरार नहीं रखी जा सकती। कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को सिर्फ परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर उम्रकैद या फांसी नहीं दी जा सकती।

इससे  पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के नोएडा के चर्चित निठारी कांड के 12 केस के आरोपी सुरेंद्र कोली और दो केस में फंसी की सजा पाए कोठी डीएस−5  के मालिक मनिंदर सिंह पंढेर को  भी ने बरी कर दिया है।  

  न्यायालय ने इन्हें   दोष मुक्त तो  करार दे दिया, किंतु  ये न्याय एक तरफा है।  अधूरा  है। निठारी कांड तो हुआ है। चर्चित निठारी कांड में निचली अदालत से कोली को एक दर्जन से अधिक मामलों में फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है। निठारी गांव के कोठी डीएस−5  के मालिक मनिंदर सिंह पंढेर को दो  केस में  फंसी की सजा हो  चुकी है। अब जब की ये निचली अदालत से फांसी की सजा पाए ये दोनों आरोपी हाईकोर्ट ने बरी कर दिए तो व्यवस्था को यह तो  बताना  ही होगा कि फिर इस कांड के आरोपी कौन हैं? किसने  इस कांड  की 19 घटनाओं को अंजाम दिया।  कांड  तो  हुआ ही है। ये  दोनों  आरोपी इसलिए बरी हो गए कि इनके विरूद्ध सुबूत नही थे, किंतु पीड़ित परिवार को भी तो  न्याय  चाहिए। उनके परिवार की युवतियों, बेटियों और बच्चों  पर जुल्म करने  वाला,  उनसे  व्यभिचार कर उन्हें काटकर खाने वाला कोई तो होगा? किसी ने तो  ये कांड किया होगा?  उसे  कानून की जद में लाकर सजा कौन दिलाएगा? ये निर्दोष थे तो फिर इनकी कोठी के पास नाले में  किसने मारकर इनको  डाला?

29 दिसंबर 2006 को उत्तर प्रदेश के नोयडा  में मोनिंदर सिंह पंढेर के घर के पीछे नाले से 19 बच्चों और महिलाओं के कंकाल मिले। मोनिंदर सिंह पंढेर और सुरेंद्र कोली गिरफ्तार  किया। आठ फरवरी 2007 को कोली और पंढेर को 14 दिन की सीबीआई हिरासत में भेजा गया। मई 2007 को सीबीआई ने पंढेर को अपनी चार्जशीट में अपहरण, दुष्कर्म और हत्या के मामले में आरोप मुक्त कर दिया था। दो माह बाद अदालत की फटकार के बाद सीबीआई ने उसे मामले में सह अभियुक्त बनाया। 13 फरवरी 2009 को विशेष अदालत ने पंढेर और कोली को 15 वर्षीय किशोरी के अपहरण, दुष्कर्म और हत्या का दोषी करार देते हुए मौत की सजा सुनाई। ये पहला फैसला था। इसके बाद 11 केस में दोनों को सजा हुई।

पुलिस ने इस मामले में कहा था कि कम से कम 19 युवा महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था, उनकी हत्या कर दी गई थी और उनके शवों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे। पुलिस ने उस समय कहा था कि ये हत्याएं पंढेर के घर के अंदर हुई थीं, जहां कोली नौकर के तौर पर काम करते थे। पुलिस ने आरोप लगाया कि जिन बच्चों के अवशेष बैग में छिपे हुए पाए गए थे, उन्हें कोली ने मिठाई और चॉकलेट देकर लालच देकर मार डाला था।पुलिस का कहना था कि जांच के दौरान कोली ने नरभक्षण और नेक्रोफिलिया (शवों के साथ संबंध बनाने) की बात कबूल की थी। बाद में उन्होंने अदालत में अपना कबूलनामा ये कहते हुए वापस ले लिया कि उनसे जबरन ये बयान दिलवाया गया था। सीबीआई ने सुरेंदर कोली और पंढेर के खिलाफ़ 19 मामले दर्ज किए थे। जहां कोली पर हत्या, अपहरण, बलात्कार, सबूतों को मिटाने जैसे आरोप थे तो वहीं पंढेर पर अनैतिक तस्करी का आरोप था। इस मामले की गूंज कई सालों तक देश गूंजती रही थी। लोगों ने पुलिस पर लापरवाही बरतने के आरोप लगाए थे। स्थानीय लोगों ने उस समय कहा था कि पुलिस इस मामले में इसलिए भी कार्रवाई नहीं कर सकी क्योंकि लापता होने वालों में से अधिकतर गरीब परिवार के थे।

न्यायालय ने निर्णय में ये माना कि आरोपियों के विरूद्ध  सबूत नही हैं।  न्यायालय ने ये नही कहा कि कांड  हुआ ही नही। उसने माना कि कांड तो  हुआ। 19 महिलाओं  और बच्चियों के कंकाल कोठी डीएस−5  के  सामने  नाले से मिले। अब प्रश्न यह है कि ये नही तो किसी और ने ये कांड किया है। जिसने कांड किया उसे सजा  दिलाने की किसकी जिम्मेदारी है? किंतु   लगता है कि न्यायालय ने इस केस के आरोपी के बरी हो  जाने के बाद ये  केस व्यवस्था  की कबाड़ की फाइल में चला  जाएगा। 2006 से न्याय  की आशा में बैठे  पीडित परिवार को रो पीट कर चुप हो बैठना पड़ेगा । इस निर्णय के बाद पीड़ितों के माता पिता और परिवार वालों का दुख और गहरा हो गया। अपनों को खोने वालों ने कहा कि 19 साल बाद भी हम लोगों को न्याय नहीं मिला। निठारी कांड में अपने बच्चों को खोने वाले पैरंट्स का लगभग एक ही सवाल है कि अगर पंढ़ेर और कोली निर्दोष हैं तो उनके बच्चों को किसने मारा है?

एक बात और हाईकोर्ट ने कहा कि शवों की मेडिकल रिपोर्ट के  आधार पर जांच  नही हुई। ये  रिपोर्ट मानव तस्करी की और इशारा कर रही थी। दोनों  न्यायधीश ने जांच  पर नाखुशी जताते हुए ये भी कहा कि जांच  बेहद खराब है। सुबूत जुटाने की मौलिक प्रक्रिया का पूरी तरह उल्लंघन किया गया। जांच एसेंसियों की नाकामी जनता के विश्वास के साथ धोखा  है। हाईकोर्ट ने  कहा कि जांच एजेंसियों ने अंग व्यापार के गंभीर पहलुओं की जांच किए बिना एक गरीब नौकर को खलनायक की तरह पेश किया।  हाईकोर्ट ने माना कि  ऐसी गंभीर चूक के कारण मिलीभगत सहित कई गंभीर निष्कर्ष  संभव है। हाईकोर्ट ने यह भी माना कि  दोनों  आरोपियों के खिलाफ कोई  सुबूत नही हैं। सुबूत के अभाव में दोनों आरोपियों को लगभग  19 साल जेल में रहना  पड़ा। अकारण जेल में बिताए  इनके इन सालों के लिए कौन जिम्मेदार है?

इस केस में  शुरूआत से ही पुलिस पर आरोप  लगते रहते  हैं कि वह इस मामले में रूचि नही ले रही। उसीके बाद मामला सीबीआई को गया। अब सीबीआई की जांच पर भी सवाल उठा  है तो  सीबीआई  को अपनी जांच और प्रक्रिया पर भी  सोचना  और बदलाव करना  होगा। क्योंकि देश में उसका बहुत सम्मान है। प्रत्येक प्रकार के टिपिकल मामले में उसी से जांच कराने की बात आती है।  अब उसकी भी  जांच  ऐसी ही निम्न स्तरीय होगी,तो फिर उसे  सोचना तो  होगा ही।

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ  पत्रकार हैं)

ashokmadhup@gmail.com

बाल दिवस पर लाएं बच्चों के चेहरे पर मुस्कान

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बाल मुकुन्द ओझा

बाल दिवस हर साल 14 नवम्बर को मनाया जाता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिवस के अवसर पर बाल दिवस के दौरान विविध कार्यक्रमों के जरिये बच्चों के अधिकार और विकास पर चर्चा की जाती है। पं. जवाहर लाल नेहरू को ‘चाचा नेहरू’ कहा जाता था और उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था। बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए ‘बाल दिवस’ स्कूलों तथा अन्य संस्थाओं में धूमधाम से मनाया जाता है। बच्चे जवाहर लाल नेहरू को चाचा इसलिए कहते थे क्योंकि बच्चों को चाचा जितना प्यारा कोई नहीं होता।

कहा जाता है कि पंडित नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे इसलिए बाल दिवस मनाने के लिए उनका जन्मदिन चुना गया। असल में बाल दिवस की नींव 1925 में रखी गई थी, जब बच्चों के कल्याण पर विश्व कांफ्रेंस में बाल दिवस मनाने की सर्वप्रथम घोषणा हुई। 1954 में दुनिया भर में इसे मान्यता मिली। संयुक्त राष्ट्र ने यह दिन 20 नवंबर के लिए तय किया लेकिन अलग अलग देशों में यह अलग दिन मनाया जाता है। कुछ देश 20 नवंबर को भी बाल दिवस मनाते हैं। 1950 से बाल संरक्षण दिवस यानि 1 जून भी कई देशों में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन इस बात की याद दिलाता है कि हर बच्चा खास है और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उनकी मूल जरूरतों और पढ़ाई लिखाई की जरूरतों का पूरा होना बेहद जरूरी है. यह दिन बच्चों को उचित जीवन दिए जाने की भी याद दिलाता है।,

चाचा नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे और तीन मूर्ति भवन प्रधानमंत्री का सरकारी निवास था। एक दिन तीन मूर्ति भवन के बगीचे में लगे पेड़-पौधों के बीच से गुजरते हुए घुमावदार रास्ते पर नेहरू जी टहल रहे थे। उनका ध्यान पौधों पर था। वे पौधों पर छाई बहार देखकर खुशी से निहाल हो ही रहे थे तभी उन्हें एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। नेहरू जी ने आसपास देखा तो उन्हें पेड़ों के बीच एक-दो माह का बच्चा दिखाई दिया जो दहाड़ मारकर रो रहा था। नेहरूजी ने मन ही मन सोचा- इसकी माँ कहाँ होगी? उन्होंने इधर-उधर देखा। वह कहीं भी नजर नहीं आ रही थी। चाचा ने सोचा शायद वह बगीचे में ही कहीं माली के साथ काम कर रही होगी। नेहरूजी यह सोच ही रहे थे कि बच्चे ने रोना तेज कर दिया। इस पर उन्होंने उस बच्चे की माँ की भूमिका निभाने का मन बना लिया।

आज भी चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नजर आ ही जाते हैं। इनमें से कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है। यही नहीं आज देश के लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चे शोषण का शिकार है। इनमें से अधिकांश बच्चे अपने रिश्तेदारों या मित्रों के यौन शोषण का शिकार है। अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण ये बच्चे शोषण का शिकार होकर जाने-अनजाने कई अपराधों में लिप्त होकर अपने भविष्य को अंधकारमय कर रहे हैं।, बचपन आज भी भोला और भावुक ही होता है लेकिन हम उन पर ऐसे-ऐसे तनाव और दबाव का बोझ डाल रहे हैं कि वे कुम्हला रहे हैं। उनकी खनकती-खिलखिलाती किलकारियाँ बरकरार रहें इसके ईमानदार प्रयास हमें ही तो करने हैं। देश के ये गुलाबी नवांकुर कोमल बचपन की यादें सहेजें, इसके लिए जरूरी है कि हम उन्हें कठोर और क्रूर नहीं बल्कि मयूरपंख सा लहलहाता बचपन दें।, चाचा नेहरू को दो बातें बहुत पसंद थी पहली वे अपनी शेरवानी की जेब में रोज गुलाब का फूल रखते थे और दूसरी वे बच्चों के प्रति बहुत ही मानवीय और प्रेमपूर्ण थे। यह दोनों ही बातें उनमें कोमल हृदय है इस बात की सूचना देते हैं। बच्चों को वैसे ही लोग प्रिय है, जो गुलाब या कमल के समान हो।,

हर वर्ष बचपन की यादों को ताजा करने के लिए बाल दिवस का आयोजन किया जाता है। यह दिन हमें सिखाता है कि एक निर्दोष और जिज्ञासु बच्चे की तरह हमें सदैव खुश रहना चाहिए और हमेशा सीखने की कोशिश करते हुए मुस्कुराते रहना चाहिए। यह बच्चों के लिए उल्लास में डूब जाने का दिन है। स्कूलों में भी यह दिन बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। संपूर्ण भारत में इस दिन स्कूलों में प्रश्नोतरी, फैंसी परिधान प्रतियोगिता और बच्चों की कला प्रदर्शनियों जैसे कई विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

                                                        

जिग्मे सिंगये वांगचुक : भूटान के आधुनिक निर्माण के शिल्पकार

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भूटान के पूर्व राजा जिग्मे सिंगये वांगचुक (K4) ने अपने दूरदर्शी नेतृत्व से देश को आधुनिकता, लोकतंत्र और सांस्कृतिक संरक्षण के संतुलन पर खड़ा किया। उन्होंने सकल राष्ट्रीय सुख को विकास का मूल दर्शन बनाया और भारत के साथ जलविद्युत कूटनीति के माध्यम से आर्थिक आत्मनिर्भरता की नींव रखी। भारत-भूटान संबंधों को उन्होंने पारस्परिक विश्वास और सुरक्षा सहयोग पर आधारित मॉडल साझेदारी में रूपांतरित किया। उनके शासन ने सिद्ध किया कि छोटे राष्ट्र भी संतुलित नीतियों, पर्यावरणीय चेतना और पड़ोसी सहयोग के माध्यम से समृद्ध, स्थिर और सशक्त बन सकते हैं।

दूरदर्शी नेतृत्व जिसने सकल राष्ट्रीय सुख को विकास का आधार बनाया, जलविद्युत कूटनीति से आत्मनिर्भरता दी, और भारत-भूटान संबंधों को स्थायी सुरक्षा-सहयोग की नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

– डॉ सत्यवान सौरभ

भूटान का इतिहास एक ऐसे अद्भुत शासक की गवाही देता है जिसने न केवल अपने देश को आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर किया, बल्कि उस आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को भी सुरक्षित रखा जिसने उसे एक विशिष्ट राष्ट्र के रूप में पहचान दी। यह शासक थे चतुर्थ राजा जिग्मे सिंगये वांगचुक (K4), जिन्होंने 1972 से 2006 तक शासन किया। उन्होंने ऐसे समय में राजगद्दी संभाली जब भूटान एक सीमित संसाधनों वाला, आंतरिक रूप से बंद और बाहरी दुनिया से अपेक्षाकृत दूर देश था। परंतु उनके दूरदर्शी नेतृत्व ने इस छोटे हिमालयी राष्ट्र को स्थिर, समृद्ध और आत्मनिर्भर लोकतंत्र में बदल दिया।

राजा जिग्मे सिंगये वांगचुक की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने विकास को केवल आर्थिक प्रगति से नहीं जोड़ा, बल्कि उसे मानवीय, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संतुलन से परिभाषित किया। उन्होंने “सकल राष्ट्रीय सुख (Gross National Happiness)” की अवधारणा दी, जिसने भूटान के शासन, नीति निर्माण और सामाजिक जीवन का मूल दर्शन बनकर कार्य किया। इस विचार में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि विकास का मापदंड केवल धन-संपत्ति नहीं, बल्कि लोगों का मानसिक, सामाजिक और पर्यावरणीय संतुलन भी होना चाहिए। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि भूटान के आधुनिकीकरण की गति परंपराओं को निगल न जाए, बल्कि उनसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़े।

राजा वांगचुक ने भूटान को पूर्ण राजतंत्र से लोकतांत्रिक संवैधानिक शासन में रूपांतरित करने की ऐतिहासिक प्रक्रिया शुरू की। उन्होंने 2001 में भूटान का संविधान तैयार करवाया, जो 2008 में लागू हुआ। यह दुनिया में दुर्लभ उदाहरण है जब किसी राजा ने स्वयं अपने अधिकार सीमित कर लोकतांत्रिक संस्थाओं को शक्ति सौंपी। 2006 में उन्होंने स्वेच्छा से अपने पुत्र जिग्मे खेसर नामग्येल वांगचुक के पक्ष में सिंहासन छोड़ दिया, यह दिखाते हुए कि सत्ता का वास्तविक उद्देश्य जनकल्याण है, न कि अधिकारों का संचय। इस परिवर्तन ने भूटान को एक स्थायी लोकतंत्र, पारदर्शी शासन और संस्थागत जवाबदेही की दिशा में अग्रसर किया।

आर्थिक दृष्टि से भी जिग्मे सिंगये वांगचुक का काल भूटान के इतिहास में परिवर्तनकारी रहा। उन्होंने देश के सीमित संसाधनों को सही दिशा में उपयोग कर विकास का आत्मनिर्भर मॉडल तैयार किया। भूटान ने शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क संपर्क जैसी बुनियादी सेवाओं में उल्लेखनीय सुधार किए। भारतीय सीमा सड़क संगठन (Border Roads Organisation) के सहयोग से भूटान के दुर्गम इलाकों में सड़कें और पुल बने, जिससे न केवल व्यापार और आवागमन बढ़ा बल्कि सीमाई सुरक्षा भी सुदृढ़ हुई। यह भूटान के ग्रामीण विकास और प्रशासनिक विकेंद्रीकरण की दिशा में एक निर्णायक कदम था।

परंतु K4 का सबसे उल्लेखनीय योगदान रहा भारत-भूटान संबंधों का सुदृढ़ीकरण। उन्होंने यह समझा कि भूटान की भौगोलिक स्थिति—भारत और चीन के बीच—एक रणनीतिक संवेदनशीलता का क्षेत्र है। अतः उन्होंने भारत के साथ पारस्परिक विश्वास और सहयोग पर आधारित संबंधों को प्राथमिकता दी। भूटान की विदेश नीति का प्रमुख स्तंभ बना भारत के साथ “विश्वास आधारित साझेदारी”, जो आज भी दक्षिण एशिया में द्विपक्षीय संबंधों का आदर्श उदाहरण मानी जाती है।

इसी साझेदारी का सबसे प्रभावी रूप रहा जलविद्युत कूटनीति (Hydropower Diplomacy)। भूटान की प्राकृतिक संपदा में सबसे बड़ा संसाधन उसकी नदियाँ हैं, जिनमें अपार जलविद्युत क्षमता निहित है। राजा वांगचुक ने बहुत पहले यह पहचान लिया था कि यही संसाधन भूटान की आत्मनिर्भरता और भारत-भूटान आर्थिक साझेदारी की रीढ़ बन सकता है। इस सोच के परिणामस्वरूप भारत और भूटान ने मिलकर कई प्रमुख परियोजनाएँ शुरू कीं—चुखा (1988), कुरिचू (2001), ताला (2006)—जो भारत द्वारा वित्तपोषित और तकनीकी रूप से सहयोगित थीं। इन परियोजनाओं से उत्पन्न बिजली भारत को निर्यात की गई और उसी राजस्व से भूटान ने अपने सामाजिक विकास कार्यक्रम चलाए।

इस प्रकार जलविद्युत कूटनीति ने दोनों देशों को आर्थिक रूप से एक-दूसरे से जोड़ दिया। भारत को स्वच्छ ऊर्जा का विश्वसनीय स्रोत मिला और भूटान को स्थायी आय का साधन। यह संबंध केवल आर्थिक नहीं था, बल्कि राजनीतिक विश्वास और भौगोलिक स्थिरता का भी प्रतीक था। आज भी भूटान की राष्ट्रीय आय का लगभग 25% हिस्सा जलविद्युत निर्यात से आता है और इसका अधिकांश भारत को जाता है। इस मॉडल ने दिखाया कि क्षेत्रीय साझेदारी केवल व्यापारिक हित नहीं, बल्कि सतत विकास और पर्यावरणीय संतुलन के माध्यम से भी आगे बढ़ सकती है।

जिग्मे सिंगये वांगचुक की नीतियों ने भारत-भूटान सुरक्षा सहयोग को भी नई गहराई दी। भूटान की उत्तरी सीमाएँ चीन से लगती हैं, जहाँ कई बार सीमा विवाद और घुसपैठ की घटनाएँ हुई हैं। K4 ने इस संभावित खतरे को समय रहते भाँप लिया और भारत के साथ सामरिक सहयोग को सुदृढ़ किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि भूटान कभी भी किसी तीसरे देश के लिए भारत विरोधी गतिविधियों का अड्डा न बने। 2003 में उन्होंने भारतीय विद्रोही संगठनों — ULFA, NDFB और KLO — के ठिकानों के खिलाफ ‘ऑपरेशन ऑल क्लियर’ चलाया और उन्हें भूटान से बाहर कर दिया। यह एक साहसिक कदम था जिसने भूटान की संप्रभुता और भारत के प्रति उसकी निष्ठा को प्रमाणित किया।

सुरक्षा क्षेत्र में यह सहयोग केवल सैन्य नहीं बल्कि रणनीतिक भी था। भारत ने भूटान की सेना को प्रशिक्षण, उपकरण और बुनियादी ढाँचा प्रदान किया। सीमा इलाकों में संयुक्त निगरानी और खुफिया साझेदारी ने दोनों देशों को क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने में मदद की। यह सहयोग बाद के वर्षों में डोकलाम (2017) जैसे संकटों में और अधिक महत्वपूर्ण साबित हुआ, जब दोनों देशों ने एक-दूसरे के रणनीतिक हितों की रक्षा में एकजुट होकर कार्य किया।

राजा वांगचुक की दूरदर्शिता ने यह भी सुनिश्चित किया कि भूटान की विदेश नीति “संतुलन” पर आधारित रहे — जहाँ भारत प्राथमिक साझेदार है, वहीं भूटान ने अपनी सांस्कृतिक और पर्यावरणीय विशिष्टता को भी सुरक्षित रखा। उन्होंने अपने शासनकाल में चीन के साथ संवाद के कुछ सीमित प्रयास किए, परंतु भारत के हितों को कभी भी हानि नहीं पहुँचने दी। यह संतुलन आज भी भूटान की विदेश नीति की पहचान है।

उनकी नीतियों के कारण भारत और भूटान के बीच केवल सरकार-से-सरकार का नहीं, बल्कि “जन-से-जन संबंध (People-to-People Relations)” का भी विस्तार हुआ। भूटान में भारत शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, जलविद्युत और आईटी जैसे क्षेत्रों में सबसे बड़ा विकास सहयोगी बना। भूटान के युवा भारत में शिक्षा प्राप्त करते हैं, और दोनों देशों के लोगों में सांस्कृतिक निकटता का भाव है।

भूटान के लोकतांत्रिक संक्रमण के बाद भी K4 की भूमिका परामर्शदाता और मार्गदर्शक के रूप में बनी रही। वर्तमान राजा जिग्मे खेसर नामग्येल वांगचुक (K5) ने अपने पिता की नीतियों को आगे बढ़ाते हुए भारत के साथ संबंधों को और गहरा किया। 2025 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भूटान के दौरे पर गए, तो उन्होंने K4 के 70वें जन्मदिन समारोह में भाग लिया — यह इस संबंध की गहराई और निरंतरता का प्रतीक है।

आज जब भारत अपने “पड़ोसी प्रथम (Neighbourhood First)” नीति के तहत क्षेत्रीय साझेदारी को प्राथमिकता दे रहा है, भूटान इसके केंद्र में है। भारत के लिए भूटान न केवल रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह दक्षिण एशिया में उस दुर्लभ पड़ोसी का उदाहरण है जहाँ विश्वास, समानता और आपसी सम्मान के आधार पर संबंध कायम हैं।

भूटान के लिए भी भारत केवल एक आर्थिक भागीदार नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और सुरक्षा गारंटी का प्रतीक है। जलविद्युत कूटनीति के माध्यम से जहाँ आर्थिक परस्परता मजबूत हुई, वहीं सुरक्षा सहयोग के कारण सीमाई स्थिरता बनी रही। इस संतुलन ने भूटान को एक “सॉफ्ट पावर” राष्ट्र के रूप में पहचान दी, जिसने विकास और आध्यात्मिकता को जोड़कर दुनिया के सामने एक वैकल्पिक विकास मॉडल प्रस्तुत किया।

राजा जिग्मे सिंगये वांगचुक ने यह सिद्ध किया कि छोटे देश भी यदि दूरदृष्टि, स्थिर नेतृत्व और संतुलित कूटनीति अपनाएँ तो वे न केवल आत्मनिर्भर बन सकते हैं बल्कि अपने बड़े पड़ोसियों के साथ समानता पर आधारित संबंध भी स्थापित कर सकते हैं। भूटान का लोकतांत्रिक और आर्थिक उत्थान इसी नेतृत्व की विरासत है।

अंततः कहा जा सकता है कि K4 ने भारत-भूटान संबंधों को “विकास और सुरक्षा साझेदारी (Development-Security Partnership)” में रूपांतरित किया। जहाँ जलविद्युत परियोजनाएँ आर्थिक समृद्धि का आधार बनीं, वहीं रक्षा और सीमाई सहयोग ने राजनीतिक स्थिरता को सुनिश्चित किया। उनका शासन इस बात का प्रमाण है कि आधुनिकता और परंपरा, लोकतंत्र और राजतंत्र, आत्मनिर्भरता और साझेदारी — सभी एक साथ अस्तित्व में रह सकते हैं यदि नेतृत्व में दूरदर्शिता और निस्वार्थता हो।

आज भूटान दुनिया का एकमात्र “कार्बन-ऋणात्मक (Carbon Negative)” देश है, जहाँ विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बना हुआ है। यह उस सोच का परिणाम है जो K4 ने दशकों पहले बोई थी। उन्होंने न केवल भूटान की भौगोलिक सीमाओं को सुरक्षित किया, बल्कि उसकी आत्मा को भी संरक्षित रखा। भारत-भूटान संबंधों की यह जीवंत परंपरा, उनकी दी हुई विरासत है—विश्वास, सहयोग और साझा समृद्धि की अमिट कहानी।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

बचपन को अख़बारों में जगह क्यों नहीं?

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रविवार की सुबह बेटे प्रज्ञान को गोद में लेकर अख़बार से कोई रोचक बाल-कहानी पढ़ाने की इच्छा अधूरी रह गई। किसी भी प्रमुख अख़बार में बच्चों के लिए एक भी रचना नहीं थी। समाज बच्चों को पढ़ने के लिए कहता है, पर उन्हें पढ़ने को क्या देता है? यह संपादकीय हमारे समाचार पत्रों की बच्चों के प्रति उपेक्षा पर गहरी चोट करता है और मांग करता है कि समाचार पत्रों में बच्चों के लिए नियमित स्थान आरक्षित हो — ताकि बचपन शब्दों से जुड़े, संवेदना से सींचा जाए और विचारों से पल्लवित हो।

✍️डॉ प्रियंका सौरभ

रविवार की सुबह थी। मन हुआ कि बेटा प्रज्ञान गोद में आए और हम दोनों मिलकर अख़बार में से कोई रोचक कहानी पढ़ें — ताकि आधुनिक स्क्रीन युग में भी शब्दों की मिठास उसे मिल सके। परंतु खेदजनक आश्चर्य हुआ कि  प्रतिष्ठित अख़बारों में बच्चों के लिए एक भी कहानी, चित्रकथा, या बाल संवाद उपलब्ध नहीं था। इस पीड़ा से उपजा यह सवाल एक सामूहिक चिंतन की मांग करता है —“जब हम अपने अख़बारों में बच्चों के लिए छापते ही कुछ नहीं, तो हम उनसे पढ़ने की उम्मीद किस अधिकार से करते हैं?”

बाल मन: एक रिक्त पन्ना

हमारी शिक्षा व्यवस्था, अभिभावक वर्ग और समाज तीनों ही अक्सर एक स्वर में कहते हैं कि आज के बच्चे किताबें नहीं पढ़ते। वे मोबाइल, इंस्टाग्राम और गेमिंग की दुनिया में खो चुके हैं। पर कोई ये क्यों नहीं पूछता कि उन्हें क्या पढ़ने के लिए दे रहे हैं हम? अख़बार, जो एक समय में हर घर की सुबह का हिस्सा हुआ करता था — अब बच्चों के लिए पूरी तरह से एक “वयस्कों का युद्धक्षेत्र” बन चुका है, राजनीति के झगड़े, नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप, बलात्कार, हत्याएं, भ्रष्टाचार, क्रिकेट, फिल्में और योगा टिप्स। कहाँ हैं राजा की बात, हाथी की सवारी, विज्ञान की कल्पना, चाँद की कविता, और जीवन मूल्य सिखाती छोटी कहानियाँ?

जब बच्चे दिखते ही नहीं

आज के समाचार पत्रों में बच्चे सिर्फ दो तरह से “दिखते” हैं —

 जब कोई बच्चा यौन हिंसा या हत्या का शिकार होता है। या जब कोई बच्चा बोर्ड परीक्षा में 99.9% अंक लाकर मीडिया का ताज बन जाता है। क्या इतने सीमित संदर्भों में बच्चे होने का अनुभव समझा जा सकता है? अख़बारों ने बच्चों को समाज से अलग करके एक ऐसी चुप्पी में डाल दिया है, जहां उनका न तो रचनात्मक स्वर सुनाई देता है, न जिज्ञासु आंखें दिखाई देती हैं।

संपादकीय दूरदर्शिता की अनुपस्थिति

किसी भी अखबार का मुख्य उद्देश्य होता है –”समाज को जागरूक बनाना और उसकी सोच को दिशा देना।” तो फिर एक पूरे समाज की नींव यानी बच्चों के लिए कोई पन्ना क्यों नहीं? क्या आज का संपादक इतना व्यस्त हो गया है कि उसे यह भी याद नहीं कि उसकी जिम्मेदारी अगली पीढ़ी तक संस्कार और विचार की मशाल पहुँचाने की भी है? एक समय में “बाल-जगत”, “बाल प्रभा”, “बाल गोष्ठी”, “बाल मेल” जैसे खंडों से अख़बार बच्चों को भी संवाद में शामिल करते थे। आज वे या तो बंद हो गए या ऑनलाइन लिंक की बेगानी भीड़ में खो गए।

विज्ञापन और बाजारवाद का हमला

बच्चे आज अख़बार के लिए ‘ग्राहक’ नहीं हैं। वे शैंपू या रेफ्रिजरेटर नहीं खरीदते। इसी कारण “बाजार” की भाषा में उनकी कोई ‘विज्ञापन वैल्यू’ नहीं है। और जहाँ विज्ञापन की भाषा नीति तय करने लगे, वहाँ बचपन बेमानी हो जाता है।

प्रत्येक अख़बार का लगभग 40% भाग विज्ञापनों से भरा रहता है — रियल एस्टेट, कपड़े, कोचिंग सेंटर, हॉस्पिटल, ब्रांडेड घड़ियाँ… कहीं भी यह नहीं दिखता कि कोई अख़बार यह पूछ रहा हो। “बच्चों को हम क्या पढ़ा रहे हैं?”

जब बाल साहित्य का विलोपन होता है

बाल साहित्य केवल मनोरंजन नहीं है —यह बच्चों को सोचने, सवाल करने, कल्पना करने और समाज से जुड़ने की प्राथमिक पाठशाला है। एक कहानी जिसमें एक पेड़ अपने फल देता है, एक चिड़िया घोंसला बनाती है, एक बच्चा अपने दोस्त के साथ पक्षियों को पानी पिलाता है —ये सब बच्चों को मानवता का बीज देते हैं। जब ये कहानियाँ हट जाती हैं, तो वहां केवल ड्रामा, सनसनी, और डाटा बचता है। और यही संवेदनहीनता आने वाली पीढ़ी में पनपती है।

क्या पढ़ाई और ज्ञान सिर्फ स्कूल का काम है?

हमारे समाज ने बच्चों के ज्ञान का ठेका सिर्फ स्कूलों को दे रखा है। अख़बार, जो कभी ‘घर की पाठशाला’ हुआ करता था, अब स्वयं को ‘वयस्कों की गॉसिप’ तक सीमित कर चुका है। क्या बच्चे समाचारों के योग्य नहीं? क्या विज्ञान, पर्यावरण, नैतिकता, और समाज की बातें उन्हें नहीं बताई जानी चाहिए?

यदि हम चाहते हैं कि बच्चे “समझदार नागरिक” बनें तो

हमें उन्हें शुरुआत से ही संवाद और सवालों से जोड़ना होगा — और अख़बार इसकी सशक्त जगह हो सकती है।

क्या किया जा सकता है?

साप्ताहिक ‘बाल संस्करण’ पुनः शुरू किए जाएं – हर रविवार या महीने में दो बार बच्चों के लिए विशेष खंड हो। बाल संवाद और चित्रकथाएँ हों – जिनमें नैतिक मूल्य, विज्ञान की जिज्ञासा और समाज का परिचय हो। बच्चों की रचनाएँ छापी जाएं – कविताएँ, चित्र, सवाल, विचार। बाल पत्रकारिता को बढ़ावा दिया जाए – विद्यालय स्तर पर बच्चों से लिखवाया जाए, जो छपे भी। प्रेरणादायक ‘बच्चों के नायक’ दिखाए जाएं – जो स्क्रीन के बाहर भी उपलब्ध हों।

बेटा प्रज्ञान उस दिन सुबह मुझसे बोला —

“माँ, क्या आपके अख़बार में बच्चों के लिए कुछ नहीं होता?”

मैं चुप रह गई। ये चुप्पी सिर्फ एक माँ की नहीं, एक पूरे समाज की चुप्पी है। और जब अख़बार समाज का दर्पण होते हैं, तो इस दर्पण में प्रज्ञान जैसे लाखों बच्चों की मासूम जिज्ञासा को जगह मिलनी ही चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि कल के भारत में पाठक, लेखक और संवेदनशील नागरिक जन्म लें —

तो आज के समाचार पत्रों में प्रज्ञान के लिए भी एक पन्ना आरक्षित करना होगा।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

विवादित बयान से बचना ही ठीक है

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बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय

औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय

बाल मुकुन्द ओझा

देश में चुनाव आते ही कटु वचनों की बाढ़ सी आ जाती है। कटु वचन एक ऐसे जहर के सामान है जो भले ही पिया न जाये लेकिन वह असर जहर से भी तेजी से करता है। कटु वचन मित्र को भी शत्रु बनाते देर नहीं करता। देश में चुनावों के दौरान कटुता का जैसा सियासी वातावरण बन रहा है वह निश्चय ही हमारी एकता, अखंडता, भाईचारे और सहिष्णुता पर गहरी चोट पहुँचाने वाला है। इसके लिए कौन दोषी है और कौन निर्दोष है उस पर देशवासियों को गहनता से मंथन करने की जरुरत है। हम बात कर रहे है बिहार विधान सभा चुनावों की। नेताओं के बयानों, भाषणों और कटु वचनों से सियासी वातावरण जहरीला हो उठा है। जिस तरह से एक के बाद एक नेता विवादित बयान दे रहे हैं, उसकी वजह से चुनावी माहौल में सरगर्मी बढ़ गई है। विवादित बयान देने में आरजेडी, कांग्रेस नीत महागठबंधन और भाजपा जेडी यू नीत एनडीए सहित कोई भी नेता पीछे नहीं है। कहते है राजनीति के हमाम में सब नंगे है। यहाँ तक तो ठीक है मगर यह नंगापन हमाम से निकलकर बाजार में आ जाये तो फिर भगवान ही मालिक है। सियासत में विवादास्पद बयान को नेता भले अपने पॉपुलर होने का जरिया मानें, लेकिन ऐसे बयान राजनीति की स्वस्थ परंपरा के लिए ठीक नहीं होते। हमारे माननीय नेता आजकल अक्सर ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। देश के नामी-गिरामी नेता और मंत्री भी मौके-बेमौके कुछ न कुछ ऐसा बोल ही देते हैं, जिसे सुनकर कान बंद करने का जी करता है। 

देश को अमूमन हर साल कोई न कोई चुनाव का सामना करना ही पड़ता है । जैसे ही चुनाव आते है नेताओं के बांछे खिल जाती है । गंदे और कटु बोलों से चुनावी बिसात बिछ जाती  है। पिछले दो दशक से गंदे और विवादित बोल बोले जा रहे है। नेताओं के बयानों से गाहे बगाहे राजनीति की मर्यादाएं भंग होती रहती है। अमर्यादित बयानों की जैसे झड़ी लग जाती है। राजनीति में बयानबाजी का स्तर इस तरह नीचे गिरता जा रहा है उसे देखकर लगता है हमारा लोकतंत्र तार तार हो रहा है। नेता लोग अक्सर चर्चा में रहने के लिए ऊल-जलूल और समाज में कटुता फैलाने वाले बयान देते रहते है। विशेषकर चुनावों के दौरान गंदे बोलों से चुनावी बिसात बिछ जाती है। कुछ सियासी नेताओं ने तो  लगता है विवादित बयानों का ठेका ले रखा है। कई नेताओं पर विवादित बयानों पर मुक़दमे भी दर्ज़ हुए। कुछ को न्यायालय से सजा भी मिली। मगर इसका उनपर कोई  फर्क  नहीं पड़ा। विवादित बयानबाजी के कारण सुर्खियों में रहना नेताओं को शायद आनंद देने लगा है। पिछले दो दशक से गंदे और विवादित बोल बोले जा रहे है। नेताओं के बयानों से गाहे बगाहे राजनीति की मर्यादाएं भंग होती रहती है। अमर्यादित बयानों की जैसे झड़ी लग जाती है। राजनीति में बयानबाजी का स्तर इस तरह नीचे गिरता जा रहा है उसे देखकर लगता है हमारा लोकतंत्र तार तार हो रहा है।

जो लोग कटु वचन बोलते हैं और अपने वचनों से अन्य लोगों का मन दुखाते हैं। ऐसे लोगों के लिए रहीम दास जी ने अपने  दोहे में बड़ी सीख दी है। रहीम दास जी ने कहा है,  ”बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय। औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय।” भारत सदा सर्वदा से प्यार और मोहब्बत से आगे बढ़ा है। हमारा इतिहास इस बात का गवाह है हमने कभी असहिष्णुता को नहीं अपनाया। हमने सदा सहिष्णुता के मार्ग का अनुसरण कर देश को मजबूत बनाया। सहिष्णुता का अर्थ है सहन करना और असहिष्णुता का अर्थ है सहन न करना। सब लोग जानते हैं कि सहिष्णुता आवश्यक है और चाहते हैं कि सहिष्णुता का विकास हो। सहिष्णुता केवल उपदेश या भाषण देने मात्र से नहीं बढ़ेगी। सहिष्णुता भारतीय जनजीवन का मूलमंत्र है। मगर देखा जा रहा है कि समाज में सहिष्णुता समाप्त होती जारही है और लोग एक दूसरे के खिलाफ विषाक्त  वातावरण बना रहे है जिससे हमारी गौरवशाली परम्पराओं के नष्ट होने का खतरा मंडराने लगा है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए सहनशील होना आवश्यक है। सहनशीलता व्यक्ति को मजबूत बनाती है, जिससे वह बड़ी से बड़ी परेशानी का डटकर मुकाबला कर सकता है। अक्सर देखा जाता है हम छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा कर देते हैं, जिससे बात आगे बढ़ जाती है और अनिष्ट भी हो जाता है। ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को मुस्कुराते हुए सुनने वाला व्यक्ति ही सहनशील है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

कहां तक बहेगी ऐसे ‘ज्ञान’ की अविरल धारा

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                                                               निर्मल रानी

  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत 9 नवंबर 2025 को उत्तराखंड की राजधानी देहरादून स्थित फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में 25वें राज्य स्थापना दिवस के मुख्य समारोह को सम्बोधित किया । ग़ौर तलब है कि उत्तराखंड का गठन 9 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर हुआ था। इस समारोह में पीएम मोदी ने भारतीय ज्ञान परंपरा को राज्य की आध्यात्मिक धरोहर से जोड़कर युवाओं को प्रेरित करने का प्रयास किया। कार्यक्रम को सफल बनाने के मक़सद से इस आयोजन में भाग लेने हेतु प्रदेश के अनेक शिक्षण संस्थानों के छात्रों को लाने की व्यवस्था की गयी थी। प्रधानमंत्री ने यहाँ अपने संबोधन में युवाओं से आह्वान किया कि वे ‘प्राचीन ज्ञान’ को आधुनिक विज्ञान से जोड़ें। निश्चित रूप से योग व आयुर्वेद जैसी प्राचीन भारतीय ज्ञान सम्बन्धी कई बातें ऐसी हैं जिन पर देश को गर्व है। परन्तु वास्तविक प्राचीन भारतीय ज्ञान की आड़ में पौराणिक कथाओं से प्राप्त ज्ञान को आज के वैज्ञानिक युग में ‘ज्ञान ‘ बताते हुये छात्रों को ‘भ्रमित’ करना,यह कहाँ तक उचित है ? प्रधानमंत्री सहित देश के कई ज़िम्मेदार लोगों द्वारा समय समय पर देश के भविष्य के कर्णधार छात्रों व युवाओं को सम्बोधित करते हुये ऐसी अनेक बातें की जा चुकी हैं जिनका न केवल मज़ाक़ उड़ाया गया बल्कि एक बड़े वैज्ञानिक व शिक्षित वर्ग द्वारा इसका खंडन भी किया गया। 

                         याद कीजिये अक्टूबर 2014 में जब  ‘रन फ़ॉर यूनिटी’ कार्यक्रम के संदर्भ में मुंबई के एक अस्पताल में चिकित्सकों और पेशेवरों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ” भगवान गणेश के सिर पर हाथी का सिर लगाना प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी का प्रमाण है। हमारे देश ने चिकित्सा विज्ञान में जो हासिल किया था, उस पर गर्व महसूस कर सकते हैं। हम गणेश जी को पूजते हैं, जिनके सिर पर हाथी का सिर लगाया गया था। यह प्लास्टिक सर्जरी की शुरुआत थी।” मोदी के इस बयान की न केवल विपक्षी दलों द्वारा बल्कि वैज्ञानिकों द्वारा भी तीखी आलोचना की गयी थी। इस आलोचना का कारण यह था कि मोदी का कथन पूर्णतः अवैज्ञानिक व तर्कहीन था क्योंकि गणेश हिंदू पौराणिक कथा के चरित्र हैं यह कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं। जबकि प्लास्टिक सर्जरी का आधुनिक विकास 19वीं सदी में  जोसेफ़ कार्प्यू जैसे ब्रिटिश डॉक्टरों द्वारा किया गया था। परन्तु  हाथी के सिर का मानव शरीर पर प्रत्यारोपण जैसा कोई पुरातात्विक या चिकित्सकीय प्रमाण क़तई नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी का यह प्रयास मिथक को इतिहास बनाने का प्रयास है, जोकि सरासर विज्ञान-विरोधी है। 

                        इसी तरह मोदी ने ऐसी ही ‘ज्ञान गंगा’ बहाने वाली एक पुस्तक की प्रशंसा करते हुए पुस्तक प्रस्तावना में लिखा ‘कि प्राचीन भारत में टेस्ट-ट्यूब बेबी, स्टेम सेल तकनीक, हवाई जहाज़ और न्यूक्लियर तकनीक आदि मौजूद थी जोकि “प्राचीन ज्ञान” का प्रमाण थी। इन बातों को भी दुनिया के एक बड़े शिक्षित व वैज्ञानिक वर्ग ने ख़ारिज किया क्योंकि यह भी अवैज्ञानिक व तर्कहीन दावे थे और यह सभी दावे वेदों और महाभारत की कथाओं व उनकी व्याख्या पर आधारित हैं। इन दावों का भी कोई भौतिक साक्ष्य जैसे अवशेष या यंत्र आदि उपलब्ध नहीं है । सच्चाई यह है कि आधुनिक IVF 1978 में विकसित हुआ जबकि हवाई जहाज़ का आविष्कार 1903 में हुआ। प्रधानमंत्री इस तरह की अनेक बातें कर चुके हैं जोकि पूरी तरह से अवैज्ञानिक व तर्कहीन है तथा इतिहास में उनके कोई प्रमाण भी नहीं मिलते। 

                     इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 फ़रवरी 2019 को भारतीय वायु सेना द्वारा बालाकोट एयर स्ट्राइक के संदर्भ में दिए गये अपने एक साक्षात्कार में यह दावा करते हैं कि उन्होंने सलाह दी कि “ख़राब मौसम और बादलों का फ़ायदा उठाते हुए भारतीय विमानों को पाकिस्तानी रडार से बचाया जा सकता है, क्योंकि बादल हैं तो रडार से बच सकते हैं”। बालाकोट हमले की रणनीति पर चर्चा के दौरान आये मोदी के इस ‘ज्ञान ‘ का भी काफ़ी मज़ाक़ उड़ाया गया था और विशेषज्ञों ने इसे तकनीकी रूप से ग़लत बताया, क्योंकि सामान्यतः रडार बादलों से प्रभावित नहीं होते। इसी तरह वे बायोगैस के महत्व को समझाने के लिए किसी चाय वाले की कहानी गढ़कर बताने लगते हैं कि ‘एक छोटे शहर में नाले के पास चाय बेचने वाले व्यक्ति ने नाले से निकलने वाली मीथेन गैस का उपयोग चाय बनाने के लिए किस तरह किया। तो कभी किसी किसान की ‘कहानी’ सुना डालते हैं  जिसने रसोई के कचरे और गोबर से बायोगैस बनाकर पंप इंजन चलाया। 

                  दरअसल जब से भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई है तभी से प्रधानमंत्री सहित ऊँचे ओहदे पर बैठे अनेक लोग इस तरह की अवैज्ञानिक व तर्कहीन बातें कर हमारे देश के छात्रों का भविष्य चौपट करने पर तुले हुये हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह लोग हिंदूवादी विचार के अशिक्षित लोगों को ख़ुश करने के फेर में यह भूल जाते हैं कि यह उस अगली पीढ़ी का भविष्य अंधकारमय बना रहे हैं जो भविष्य में देश की बागडोर संभालने वाली है। कभी केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर हिमाचल प्रदेश के ऊना ज़िले के पीएम श्री नवोदय विद्यालय में राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस के अवसर पर छात्रों के साथ संवाद के दौरान यह ‘ज्ञान’ साँझा करते सुनाई  देते हैं कि  ‘हनुमान जी पहले अंतरिक्ष यात्री थे’। जबकि ऐतिहासिक रूप से पहले अंतरिक्ष यात्री सोवियत संघ के यूरी गागरिन थे। ठाकुर के इस दावे को भी मिथक और अवैज्ञानिक व तर्कहीन बताते हुये ख़ूब आलोचना की गयी थी । इसी तरह  राजस्थान हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति महेश चंद्र शर्मा ने अपने रिटायरमेंट के अंतिम दिन मई 2017 को मीडिया से बातचीत में अपनी ‘ज्ञानगंगा’ बहाई। उन्होंने कहा कि  “मोर आजीवन ब्रह्मचारी रहता है। इसके जो आंसू आते हैं, मोरनी उसे चुगकर गर्भवती होती है।” उसी समय पक्षी विशेषज्ञों ने इसे ग़लत व कोरा झूठ बताया था ।  क्योंकि मोर और मोरनी भी अन्य पक्षियों की ही तरह सामान्य संभोग से ही प्रजनन करते हैं।

               सवाल यह है कि आज सूचना व संचार के आधुनिक युग में ख़ासकर ए आई के दौर में ऐसी निरर्थक तर्कहीन व अवैज्ञानिक बातें कर यह ‘महाज्ञानी लोग’ देश के युवाओं के भविष्य को कब तक अंधकारमय बनाते रहेंगे ? और कहां तक बहेगी ऐसे ‘ज्ञान’ की ‘अविरल धारा ‘ ?

           -निर्मल रानी

क्या भारत में धर्मांतरण विरोधी कानून आवश्यक है?

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भारत में धर्मांतरण विरोधी कानून: धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक चुनौती

भारत में धर्मांतरण विरोधी कानूनों को सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के नाम पर लागू किया गया है, परंतु इनका वास्तविक प्रभाव नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर नियंत्रण के रूप में उभर रहा है। ये कानून न केवल धर्म परिवर्तन को प्रशासनिक अनुमति से जोड़ते हैं बल्कि अंतर्धार्मिक विवाहों और अल्पसंख्यक समुदायों पर भी प्रतिकूल असर डालते हैं। संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की भावना इन कानूनों से आहत होती है। लोकतांत्रिक भारत के लिए आवश्यक है कि राज्य नागरिक की आस्था का संरक्षक बने, नियंत्रक नहीं। आस्था पर पहरा नहीं, सम्मान होना चाहिए।

– डॉ सत्यवान सौरभ

भारत एक बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक और विविधताओं से भरा हुआ देश है, जिसकी पहचान उसकी धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक स्वतंत्रता में निहित है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक नागरिकों को अपने धर्म को मानने, प्रचार करने और उसका पालन करने का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। परंतु हाल के वर्षों में देश के अनेक राज्यों में बनाए गए “धर्मांतरण विरोधी कानून” ने इस संवैधानिक गारंटी को गंभीर प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया है।

इन कानूनों का उद्देश्य यह बताया जाता है कि वे बल, प्रलोभन या कपट से किए गए धर्मांतरणों को रोकने के लिए बनाए गए हैं, किंतु व्यवहार में इनका दायरा इतना व्यापक और अस्पष्ट है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अंतर्धार्मिक विवाहों और अल्पसंख्यक समुदायों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दमनकारी प्रभाव डालते हैं।

भारत में धर्मांतरण का प्रश्न स्वतंत्रता-पूर्व काल से ही विवादास्पद रहा है। अंग्रेज़ी शासनकाल में कई मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार को लेकर राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलीं। स्वतंत्रता के बाद 1954 में संसद में “धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक” प्रस्तुत किया गया था, किंतु वह पारित नहीं हो सका।

हालाँकि, कुछ राज्यों ने अपने-अपने स्तर पर ऐसे कानून बनाए — ओडिशा (1967) पहला राज्य था जिसने ‘धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ पारित किया। इसके बाद मध्यप्रदेश (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978), छत्तीसगढ़, गुजरात, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों ने भी समान प्रकार के कानून बनाए। इन सभी अधिनियमों का मूल उद्देश्य “जबरन या धोखे से धर्मांतरण रोकना” बताया गया है, परंतु उनके प्रावधानों की व्याख्या के तरीके ने संविधान की मूल भावना पर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25(1) प्रत्येक व्यक्ति को “धर्म की स्वतंत्रता” का अधिकार देता है। इसमें तीन मूल तत्व हैं — किसी धर्म को मानने की स्वतंत्रता, उसका पालन करने की स्वतंत्रता, और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता। यह अधिकार राज्य के सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है, परंतु इन सीमाओं का उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करना नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता बनाए रखना है।

अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की गारंटी देता है, जबकि अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है। धर्मांतरण विरोधी कानून इन दोनों अधिकारों के साथ भी टकराते हैं क्योंकि ये नागरिकों के व्यक्तिगत निर्णय, आस्था और वैवाहिक चयन में राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

भारत की धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी देशों की तरह “राज्य और धर्म के पूर्ण पृथक्करण” पर आधारित नहीं है, बल्कि यह एक सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता है — जिसमें राज्य सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है और किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं जाता। परंतु धर्मांतरण विरोधी कानूनों के माध्यम से राज्य जब किसी धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन करने की स्वतंत्रता पर शर्तें, अनुमति और दंड लगाने लगता है, तो वह अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से भटक जाता है।

इन कानूनों में प्रायः यह प्रावधान होता है कि जो व्यक्ति अपना धर्म बदलना चाहता है, उसे पहले जिलाधिकारी को सूचना देना और अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होगा। यह प्रक्रिया स्वयं में संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का उल्लंघन है, क्योंकि किसी व्यक्ति की आस्था का निर्णय उसकी अंतरात्मा का विषय है, न कि सरकारी अनुमति का।

धर्मांतरण विरोधी कानूनों का सबसे गहरा असर अंतर्धार्मिक विवाहों पर पड़ा है। कई राज्यों ने इन कानूनों को तथाकथित “लव जिहाद” की अवधारणा से जोड़ दिया है — जिसमें यह प्रचारित किया जाता है कि एक धर्म विशेष के लोग विवाह के माध्यम से दूसरे धर्म की महिलाओं का धर्म परिवर्तन कराते हैं।

इस धारणा के आधार पर बनाए गए कानून, जैसे उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021; मध्यप्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 2021; और हरियाणा धर्म स्वतंत्रता विधेयक, 2022 — इनमें यह प्रावधान है कि यदि विवाह धर्मांतरण के उद्देश्य से किया गया है, तो वह अवैध और शून्य घोषित किया जा सकता है।

इससे दो प्रमुख समस्याएँ उत्पन्न होती हैं — पहली, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन: प्रेम या विवाह व्यक्ति की व्यक्तिगत पसंद है। राज्य को यह तय करने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि किसी व्यक्ति को किस धर्म में विवाह करना है। दूसरी, सामाजिक विभाजन: ऐसे कानून समाज में धार्मिक अविश्वास, भय और घृणा को बढ़ावा देते हैं, जिससे अंतरधार्मिक मेलजोल और सद्भाव प्रभावित होता है।

धर्मांतरण विरोधी कानूनों का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर ईसाई और मुस्लिम समाज पर पड़ता है। ईसाई मिशनरियों पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से “प्रलोभन देकर धर्मांतरण” कराते हैं। इस कारण उनके सामाजिक कार्यों पर लगातार निगरानी और उत्पीड़न बढ़ा है। मुस्लिम समुदाय के संदर्भ में यह प्रचारित किया जाता है कि वे “लव जिहाद” के माध्यम से धर्मांतरण कराते हैं, जिससे मुस्लिम युवकों को झूठे मामलों में फँसाने की घटनाएँ बढ़ी हैं। इसके परिणामस्वरूप इन समुदायों में भय और असुरक्षा का वातावरण बना है। अनेक बार धर्मांतरण की झूठी अफवाहें फैलाकर भीड़ हिंसा की घटनाएँ हुई हैं, जो लोकतांत्रिक भारत के लिए गहरी चिंता का विषय है।

भारतीय न्यायपालिका ने इस विषय पर कई बार टिप्पणी की है। रेवरेंड स्टैनिसलॉ बनाम मध्यप्रदेश राज्य (1977) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “धर्म प्रचार का अधिकार धर्मांतरण का अधिकार नहीं है।” हालाँकि उस समय का संदर्भ जबरन धर्मांतरण से जुड़ा था। हादीया केस (2018) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि “किसी बालिग व्यक्ति को अपनी पसंद का धर्म और जीवनसाथी चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता है।” लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) में कोर्ट ने कहा कि अंतर्धार्मिक विवाह संविधान द्वारा संरक्षित व्यक्तिगत अधिकार है और इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।

इन निर्णयों से यह स्पष्ट है कि अदालतें धर्मांतरण के जबरन या धोखे से किए जाने का विरोध करती हैं, किंतु स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन या अंतर्धार्मिक विवाह को पूर्णतः व्यक्ति की स्वतंत्रता मानती हैं।

धर्मांतरण विरोधी कानून केवल कानूनी नहीं बल्कि राजनीतिक औजार भी बन गए हैं। कुछ राजनीतिक दल इनका प्रयोग अपने ध्रुवीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं। धार्मिक पहचान को राजनीतिक मुद्दा बनाकर चुनावी लाभ लेना इन कानूनों का अप्रत्यक्ष उद्देश्य बन चुका है। इस कारण सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक और बहुधार्मिक देश में किसी भी व्यक्ति की अंतरात्मा की स्वतंत्रता सर्वोपरि होनी चाहिए। राज्य का कर्तव्य यह नहीं कि वह व्यक्ति की आस्था पर नियंत्रण करे, बल्कि यह सुनिश्चित करे कि किसी को भी उसके धर्म या विश्वास के कारण भेदभाव या उत्पीड़न का सामना न करना पड़े।

अंततः यह कहा जा सकता है कि धर्मांतरण विरोधी कानूनों की वर्तमान संरचना भारतीय संविधान की आत्मा — स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता — के विरुद्ध जाती है। यदि इन कानूनों को केवल बलपूर्वक या छल से किए गए धर्मांतरण तक सीमित रखा जाए, तो वे न्यायसंगत माने जा सकते हैं; परंतु जब ये व्यक्ति की निजी आस्था, विवाह और जीवन की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने लगते हैं, तब वे लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के लिए खतरा बन जाते हैं।

इसलिए आवश्यक है कि भारत में धर्मांतरण संबंधी कानूनों की पुनः समीक्षा की जाए, उन्हें संविधान के अनुरूप ढाला जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई भी कानून धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता की भावना को कमजोर न करे। धार्मिक विविधता ही भारत की सबसे बड़ी शक्ति है, और इस विविधता की रक्षा ही हमारी सच्ची राष्ट्रभक्ति का प्रमाण है।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,