भारतीय विज्ञान में महिलाओं की अधूरी यात्रा

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प्रतीकात्मक उपस्थिति से प्रभावी नेतृत्व तक पहुँचने की जद्दोजहद और राष्ट्रीय नवाचार की अनिवार्यता

भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी में महिलाओं की मौजूदगी ने पिछले कुछ दशकों में नई ऊँचाइयाँ छुई हैं। अंतरिक्ष मिशनों से लेकर मिसाइल विकास तक उनकी भूमिका आज किसी से छिपी नहीं है। लेकिन यह यात्रा अभी भी अधूरी है क्योंकि तथाकथित ‘लीकी पाइपलाइन’ यानी शिक्षा और कॅरियर के अलग-अलग चरणों पर महिलाओं का बाहर हो जाना, उन्हें नेतृत्व की सीट तक पहुँचने से रोकता है। यह समस्या केवल व्यक्तिगत आकांक्षाओं की नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नवाचार और उत्कृष्टता की है। सवाल यही है कि भारत कब इस रिसाव को रोकेगा और कब महिलाएँ बराबरी से विज्ञान की बागडोर थामेंगी।

– डॉ प्रियंका सौरभ

भारत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बीते कुछ दशकों में उल्लेखनीय प्रगति की है। अंतरिक्ष कार्यक्रम, जैव प्रौद्योगिकी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डिजिटल अर्थव्यवस्था और नैनो प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में भारतीय वैज्ञानिकों की पहचान आज विश्व स्तर पर बनी है। इस यात्रा में महिलाओं की भागीदारी केवल औपचारिकता भर नहीं रही बल्कि ठोस और प्रभावी साबित हुई है। डॉ. टेसी थॉमस, जिन्हें मिसाइल महिला कहा जाता है, या चंद्रयान-3 मिशन की महिला वैज्ञानिकों कल्पना कलहस्ती और ऋतु करिधल का योगदान इसका जीवंत उदाहरण है। यह स्पष्ट करता है कि भारतीय महिला वैज्ञानिकों की भूमिका अब केवल प्रतीकात्मक नहीं रही, वे वास्तविक परिवर्तन की धुरी बन चुकी हैं।

फिर भी तस्वीर का दूसरा पहलू चिंता पैदा करता है। भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की पढ़ाई करने वाली लड़कियों की संख्या बड़ी है, परंतु शोध और नेतृत्व के पदों तक पहुँचते पहुँचते यह संख्या लगातार घटती जाती है। इस प्रवृत्ति को ही ‘लीकी पाइपलाइन’ कहा जाता है। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन की 2022 की रिपोर्ट बताती है कि स्नातक स्तर पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी में महिलाओं की भागीदारी लगभग तैंतालीस प्रतिशत है। यह आँकड़ा किसी भी देश के लिए गौरवपूर्ण हो सकता है। लेकिन जब यही लड़कियाँ आगे शोध और अनुसंधान के मार्ग पर बढ़ती हैं तो मात्र चौदह प्रतिशत ही इस क्षेत्र में टिक पाती हैं। यही नहीं, उच्च शिक्षा संस्थानों में महिला संकाय की संख्या लगभग पंद्रह प्रतिशत तक सीमित है। देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान जैसे आईआईटी, आईआईएससी या सीएसआईआर अब तक किसी महिला के नेतृत्व में नहीं रहे।

वैज्ञानिक पुरस्कारों और मान्यताओं की दुनिया में भी असमानता साफ दिखती है। वर्ष 2023 तक दिए गए छह सौ से अधिक शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कारों में केवल सोलह ही महिला वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया। यह आँकड़े बताते हैं कि प्रारंभिक स्तर पर भले ही महिलाएँ विज्ञान और प्रौद्योगिकी में समान उत्साह के साथ प्रवेश करती हैं, लेकिन जैसे-जैसे ज़िम्मेदारियाँ और दबाव बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनकी संख्या कम होती जाती है। यही वह रिसाव है जो राष्ट्रीय उत्कृष्टता को कमजोर करता है।

इस रिसाव की कई परतें हैं। मातृत्व और परिवार की ज़िम्मेदारियाँ महिलाओं के कॅरियर को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। लंबे कार्य घंटे, उच्च दबाव वाले प्रोजेक्ट और लचीले विकल्पों की कमी के कारण बहुत सी प्रतिभाशाली महिलाएँ बीच रास्ते से बाहर हो जाती हैं। संस्थागत ढाँचे में भी पुरुष वर्चस्व कायम है। विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में पदोन्नति और नेतृत्व पदों पर जाने का मार्ग महिलाओं के लिए कठिन है। अनौपचारिक नेटवर्क, सामाजिक पूर्वाग्रह और लैंगिक धारणाएँ इस कठिनाई को और गहरा करती हैं।

वित्तपोषण और मान्यता का संकट भी कम नहीं है। शोध अनुदान में महिलाओं को कम प्राथमिकता दी जाती है। यह उनकी परियोजनाओं की दिशा और नवाचार की संभावनाओं को सीमित करता है। सामाजिक दृष्टिकोण भी विज्ञान को पुरुष प्रधान क्षेत्र मानता है, जिससे परिवार और समाज अक्सर लड़कियों को इस ओर बढ़ने से हतोत्साहित करते हैं। यदि कोई महिला कॅरियर ब्रेक ले भी ले तो पुनः-प्रवेश बेहद कठिन हो जाता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की महिला वैज्ञानिक योजना अवश्य मौजूद है, परंतु उसकी पहुँच अभी बहुत सीमित है।

यह समस्या केवल महिलाओं की व्यक्तिगत उपलब्धियों की बाधा नहीं है, बल्कि भारत के भविष्य से भी गहराई से जुड़ी है। जब भारत विकसित भारत के सपने को पूरा करने का संकल्प ले रहा है, तब वैज्ञानिक नवाचार और शोध में आधी आबादी की भागीदारी को नज़रअंदाज़ करना आत्मघाती साबित हो सकता है। विश्व बैंक का अनुमान है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से 2025 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को सात सौ अरब डॉलर की अतिरिक्त वृद्धि मिल सकती है। यदि महिलाएँ बराबरी से कृत्रिम बुद्धिमत्ता, स्वच्छ ऊर्जा, जैव प्रौद्योगिकी और डिजिटल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में योगदान करेंगी तो भारत की वैश्विक प्रतिस्पर्धा स्वतः बढ़ेगी।

इसके साथ ही यह भारत की वैश्विक छवि का भी सवाल है। लैंगिक समानता की दिशा में ठोस कदम भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं और नेतृत्व की आकांक्षाओं के अनुरूप हैं। जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों पर जब भारतीय महिला वैज्ञानिक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बोलती हैं तो वह भारत की विश्वसनीयता का प्रतीक बन जाता है। इससे भी आगे, यह आने वाली पीढ़ियों की आकांक्षा का प्रश्न है। अगर आज हम विज्ञान में महिलाओं के लिए समान अवसर सुनिश्चित करते हैं, तो कल हमारी बेटियाँ आत्मविश्वास से भरी होंगी और विज्ञान को अपनी पसंद का क्षेत्र मानेंगी।

सरकार ने कुछ सकारात्मक कदम उठाए हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की किरण योजना, महिला वैज्ञानिक योजना, एसईआरबी पॉवर फेलोशिप जैसी पहलें युवा महिला शोधार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए बनाई गई हैं। इसरो और डीआरडीओ ने लचीले कार्य समय, विस्तारित मातृत्व अवकाश और घर से काम करने जैसे विकल्प लागू किए हैं। कई संस्थानों में लैंगिक संवेदनशीलता समितियाँ भी गठित की गई हैं। लेकिन यह सब अभी भी अपर्याप्त है। आवश्यकता है कि इन योजनाओं की पहुँच को बढ़ाया जाए और उन्हें प्रभावी रूप से लागू किया जाए।

आगे की राह यह है कि अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं के लिए न्यूनतम प्रतिनिधित्व की सीमा तय की जाए। महिला नेतृत्व वाली परियोजनाओं के लिए विशेष वित्तपोषण सुनिश्चित हो। कॅरियर ब्रेक के बाद पुनः-प्रवेश को आसान बनाया जाए और अधिक संख्या में पुनः-प्रवेश फेलोशिप दी जाए। वरिष्ठ महिला वैज्ञानिकों और नई शोधार्थिनियों के बीच मार्गदर्शन का सेतु तैयार किया जाए। सबसे बढ़कर, समाज की मानसिकता बदली जाए। परिवार और समाज को यह स्वीकार करना होगा कि विज्ञान पुरुषों का नहीं, बल्कि सभी का क्षेत्र है।

भारतीय विज्ञान में महिलाओं की यात्रा प्रतीकात्मक उपस्थिति से आगे बढ़ चुकी है, लेकिन नेतृत्व तक पहुँचने में अब भी कई बाधाएँ मौजूद हैं। यह बाधाएँ केवल व्यक्तिगत हानि नहीं बल्कि राष्ट्रीय हानि भी हैं। अगर भारत को ज्ञान शक्ति बनना है, तो इस रिसाव को रोकना ही होगा। वास्तविक नवाचार और उत्कृष्टता तभी संभव है जब प्रयोगशालाओं, विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में पुरुष और महिलाएँ बराबरी से कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हों। यह केवल समान अवसर का सवाल नहीं है, बल्कि भारत के वैज्ञानिक भविष्य और वैश्विक प्रतिस्पर्धा का भी प्रश्न है

-प्रियंका सौरभ 

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

रावण का सामना करने के लिए भगवान राम ने अंगद को ही क्यों चुना

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रामायण की एक कथा के अनुसार जब श्री रामचन्द्र जी लंका पहुंचे तब उन्होंने रावण के पास अपना एक दूत भेजने का विचार किया। सभा में सभी ने प्रस्ताव किया कि हनुमान जी लंका में अपनी शक्ति की धूम मचा चुके हैं इसलिए फिर से हनुमान जी को ही दूत बनाकर रावण के दरबार में भेजा जाय। लेकिन राम जी चाहते थे कि इसबार हनुमान की जगह कोई और दूत बन कर जाए, ताकि ऐसा संदेश ना फैले कि प्रभु श्रीराम की सेना में अकेले हनुमान जी ही बलशाली हैं। फिर फैसला किया गया कि किसी और को रावण के दरबार में दूत बना कर भेजा जाय जो हनुमान जी की तरह ही पराक्रमी और बुद्धिमान हो।

अचानक राम जी की नजर अंगद पर गई, जो सभा में चुपचाप बैठे हुए थे। राम जी ने कहा कि क्यों न महाबलशाली बालि के पुत्र कुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए। यह पराक्रमी और बुद्धिमान दोनों हैं। इनके जाने से रावण की सेना का मनोबल कमजोर होगा, क्योंकि उन्हें लगेगा कि राम की सेना में अकेले हनुमान ही नहीं बल्कि कई और भी पराक्रमी मौजूद हैं।

अंगद ने रामचन्द्र जी के विश्वास को बनाए रखा और उनकी आज्ञा लेकर रावण के दरबार में पहुंचे। रावण के पास जाकर उन्होंने भगवान राम की वीरता और शक्ति का बखान करने के साथ ही रावण को चुनौती भी दे डाली कि अगर लंका में कोई वीर हो तो मेरे पांव को जमीन से उठा कर दिखा दे।

रावण के बड़े बड़े योद्धा और वीर अंगद के पांव को जमीन से उठाने में लग गए, लेकिन महावीर अंगद की शक्ति के सामने सभी असफल रहे। अंत में खुद रावण जब अंगद के पांव उठाने आया तो अंगद ने कहा, “मेरे पांव क्यों पकड़ते हो… पकड़ना ही है तो मेरे स्वामी राम के चरण पकड़ो, वह दयालु और शरणागत वत्सल हैं। उनकी शरण में जाओ तो प्राण बच जाएंगे, अन्यथा युद्ध में बंधु बांधवों समेत मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।“

अंगद के इस पराक्रम के बारे में जब श्रीराम जी को पता लगा तो वो बहुत प्रसन्न हुए। उधर, रावण की सभा में भी लोगों को अंगद के पराक्रम और बुद्धि का पता चल गया।

ऋषि कण्डवाल

मन के रावण को भी मारने की जरूरत!

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हमारे देश में दशहरा हर वर्ष मनाया जाता है। यह असत्य पर सत्य और अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व है। गांव-गांव और शहर-शहर मनाए जाने वाले इस त्योहार के अवसर पर लाखों-करोड़ों रावण मारे और जलाए जाते हैं। समाज में दो प्रकार के लोग पाए जाते हैं। प्रथम सत्य पर आधारित स्वच्छ, स्वस्थ और न्याय प्रिय समाज की परिकल्पना करने वाले मनुष्य हैं और द्वित्तीय असत्य की बुनियाद पर कलुषित, अस्वस्थ और अन्याय की अवधारणा पर निर्मित समाज को बढ़ावा देने वाले लोग। मानव और दानव के बीच का अंतर और संघर्ष हजारों सदियों से चला आ रहा है। पर्व कोई सा भी हो, वह हमें कुछ न कुछ सीखने, समझने और उसे अंगीकार करने का मौका मुहैया कराता है।
यूं तो, सभी धार्मिक और राष्ट्रीय पर्व खुशी पर आधारित होते हैं, लेकिन दशहरा एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसे रावण वध के तौर पर मनाया जाता है। राजा दशरथ के वचनों को पूरा करने के लिए चौदह साल के वन गमन कर रहे राम के साथ पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण भी जिद करके साथ चले जाते हैं। जंगल में भटकने वाले इस तीन सदस्यीय परिवार को अनेक प्रकार के दुखों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। रावण की बहन शूर्पणखा राम पर मोहित होकर उनसे विवाह करना चाहती थी। राम के इनकार पर उसका आकर्षण लक्ष्मण की ओर हो जाता है। बार-बार परेशान करने से क्रोधित लक्ष्मण उसकी नाक काट देता है। इससे अपमानित शूर्पणखा अपने भाई रावण को भड़काती है। बहन के अपमान का बदला लेने के लिए लंकेश छल से सीता का अपहरण कर लंका ले आता है। इस दौरान राम को हनुमान और सुग्रीव जैसे नए वानर साथियों का भरपूर सहयोग मिलता है। दोनों ओर से जंग होती है। अंत में अन्याय पर न्याय की जीत होती है। पुरुषोत्तम राम द्वारा अहंकारी रावण का वध कर सीता को सकुशल वापस ले आने पर खुशी मनाना स्वभाविक था। तब से रावण पर राम की विजय को एक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। राम और रावण में धरती आकाश का अंतर था। राम मृदु भाषी और सरल स्वभाव के आज्ञाकारी व्यक्तित्व का नाम है, जबकि रावण सख्त मिजाज़, अधर्मी और अहंकारी स्वभाव का फरेबी राक्षस था। अयोध्या के राम को दूसरे की वस्तु और साम्राज्य में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जबकि सोने की लंका में रहने वाला रावण दूसरे की चीज़, स्त्री, धन, संपत्ती और राज्यों के प्रति आकर्षित रहता था। हर साल रावण के अनगिनत पुतले जलाए जाना बुराई पर अच्छाई, झूठ पर सच और रावणत्व पर रामत्व की जीत का प्रतीक है, किंतु क्या रावण वास्तव में मर जाता है,? यदि हांॅ, तो समाज में इस कद्र बुराइयांॅ क्यों मौजूद हैं? और यदि नहीं मरता है, तो हमने रावण के पुतले में आग लगाकर किसे मारते हैं? सोचना होगा कि हम चौदह वर्ष फूस की झोंपड़ी या खुले आसमान के नीचे दिन बिताने के बावजूद कभी शिकायत नहीं करने वाले राम के अनुयायी हैं या फिर सोने के महलों में रहने वाले धन लोलुप्त, अहंकारी, हरण और अपहरण करने वाले रावण के साथ खड़े हैं? क्या आज का मानव झोंपड़ी के सुख और प्रेमत्व को त्यागकर हर समय येन केन प्रकारेण नौ के सौ करने की जुगत में नहीं लगा है? लक्ष्मण ने अपनी भाभी सीता के पैरों से ऊपर कभी नजर नहीं उठाई? लेकिन आज का मानव पवित्र रिश्तों का खून करने से तनिक भी नहीं हिचक रहा है। पतिव्रता सीता रावण के विवाह प्रस्ताव को ठुकराकर सदा रामभक्ति में लीन रही, जबकि पाश्चात्य सभ्यता की दीवानी आज की महिलाओं के कलुषित किस्से और कहानियां रोजाना प्रकाशित होने वाले अख्बारों की सुर्खियां बनती हैं।
रावण को दशानन कहा गया है। क्या हमने भी बुराइयों के प्रतीक दस सिरों के मुखौटे नहीं लगा रखे हैं? अपने लिए हमारा मुखौटा कुछ होता है और दूसरे के लिए कुछ। हम सुबह और शाम ही नहीं, दिन भर न जाने कितनी बार अपना मुखौटा तब्दील करते हैं। मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन क्रोध हमारे सिर में छिपा है। परोपकार हाशिए पर चला गया है। लालच और धन लोलुप्ता आज भी हमारा पीछा करती है। हम रोजाना स्कूलों में होने वाली प्रार्थना में छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड, झूठ, अन्याय से निशि दिन दूर रहने की ईश्वर से कामना करते हैं, लेकिन इस पर कितना अमल करते हैं? यह बताने की जरूरत नहीं है। भूख, प्यास, भय, असुरक्षा, मंहगाई, बेरोजगारी और आर्थिक अनिश्चितता के वातावरण में जी रहे लोगों की किसी को चिंता नहीं है। राम के चरित्र और रामत्व का संदेश दूसरों तक पहुंचाने के लिए अपने मन के भीतर छिपे रावण को मारे बिना हम न तो मानवता को आम कर सकते हैं और न ही मानवता की सेवा कर सकते हैं।

एमए कंवल जाफरी

“महिलाओं पर डबल बोझ: शिक्षा विभाग में कपल केस अंक हटाना”

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“नौकरीपेशा महिलाओं के घर और ऑफिस के दबाव में बढ़ता संघर्ष और सरकारी नीतियों का असंतुलित प्रभाव”

हरियाणा में शिक्षा विभाग की ट्रांसफर पॉलिसी में कपल केस अंक हटाने का निर्णय नौकरीपेशा महिलाओं के लिए गंभीर चुनौती है। समाज में महिलाओं से अपेक्षित “आदर्श पत्नी” और “आदर्श बहू” की भूमिका उन्हें घर और ऑफिस दोनों में बराबरी का बोझ उठाने पर मजबूर करती है। पुरुष कर्मचारी अक्सर केवल अपनी नौकरी पर ध्यान देते हैं, जबकि महिलाएं घर का खाना बनाना, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल और ऑफिस—सभी जिम्मेदारियां निभाती हैं। यह नीतिगत बदलाव महिलाओं पर अतिरिक्त दबाव डालता है और सशक्तिकरण के दावे को कमजोर करता है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके सशक्तिकरण को लेकर आज भी अनेक चुनौतियाँ हैं। विशेषकर नौकरीपेशा महिलाओं के लिए यह चुनौती और भी गहरी है क्योंकि उन्हें घर और कार्यस्थल—दोनों स्थानों पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है। हरियाणा में हाल ही में शिक्षक स्थानांतरण नीति में किए गए बदलाव—जिनमें “कपल केस” के अंक हटाने की सिफारिश शामिल है—ने इस मुद्दे को फिर से उजागर कर दिया है। यह बदलाव केवल प्रशासनिक नहीं है, बल्कि महिलाओं के जीवन और उनके पारिवारिक संतुलन पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।

हरियाणा के शिक्षा विभाग की स्थानांतरण नीति २०१६ से विकसित होती रही है। इस नीति के तहत यदि एक ही परिवार में पति और पत्नी दोनों शिक्षक हों, तो उन्हें कपल केस अंक (प्राथमिकता अंक) दिए जाते थे। इसका उद्देश्य था कि दोनों पति-पत्नी एक ही जिले या नज़दीकी स्थान पर पदस्थापित हो सकें, ताकि पारिवारिक संतुलन बना रहे और महिलाओं को नौकरी के साथ परिवार संभालने में सुविधा मिले। इस प्रकार की प्राथमिकता न केवल महिलाओं के लिए लाभकारी थी, बल्कि यह पूरे परिवार के जीवन, बच्चों की पढ़ाई, पारिवारिक जिम्मेदारियों और मानसिक संतुलन के लिए भी महत्वपूर्ण थी।

२०१६ के बाद इस नीति में कुछ मामूली बदलाव हुए, लेकिन कपल केस अंक बने रहे। २०२३ के ड्राफ्ट स्थानांतरण नीति में अब इन अंक को हटाने की सिफारिश की गई है। इसका अर्थ है कि पति-पत्नी दोनों शिक्षक होने पर अब उन्हें पहले जैसी प्राथमिकता नहीं मिलेगी। इस बदलाव का प्रभाव सीधे महिला शिक्षिकाओं पर पड़ता है। उन्हें अब परिवार और नौकरी के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। पारिवारिक जीवन प्रभावित हो सकता है, क्योंकि पति-पत्नी अलग-अलग स्थानों पर नियुक्त हो सकते हैं। शिक्षक समुदाय में असंतोष और विरोध बढ़ सकता है। शिक्षक संघों और सामाजिक संगठनों ने इसे पारिवारिक और लैंगिक दृष्टिकोण से आलोचना की है। उनका कहना है कि यह निर्णय “महिलाओं के हितों के विरुद्ध” और “परिवार विरोधी” कदम है।

“डबल बर्डन” एक सामाजिक अवधारणा है, जिसका अर्थ है कि महिला को घर और नौकरी—दोनों जगह अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है, जबकि पुरुष केवल अपनी नौकरी पर ध्यान देते हैं। यह असमानता आज भी भारतीय समाज में गहराई से मौजूद है।

एक उदाहरण देखें। एक नौकरीपेशा पुरुष के लिए घर से भोजन ले जाना सामान्य बात है, और उसके घर के अन्य कामों का बोझ कम होता है। वहीं नौकरीपेशा महिला को घर का खाना बनाना, बच्चों की देखभाल, बुजुर्गों की सहायता, घर की सफाई—सभी जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपनी नौकरी भी निभानी पड़ती है। इस असमानता के कारण महिला पर मानसिक, शारीरिक और सामाजिक दबाव बढ़ जाता है। जब स्थानांतरण नीति जैसी सरकारी नीतियाँ भी इस असमानता को नजरअंदाज करती हैं, तो यह सशक्तिकरण के दावों को कमजोर कर देती है।

महिला सशक्तिकरण केवल नौकरी या योजनाओं तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसका असली अर्थ है कि महिलाओं को समान अवसर, समान वेतन, समान जिम्मेदारी और सुरक्षित वातावरण मिले।

हालांकि, जब कपल केस अंक हटाए जाते हैं, तो यह सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से महिलाओं के लिए असमानता को बढ़ाता है। भारतीय समाज में अक्सर महिलाओं से “आदर्श पत्नी” और “आदर्श बहू” बनने की अपेक्षा की जाती है। इसका अर्थ है कि घर और परिवार की जिम्मेदारी महिला पर ही डाली जाती है, जबकि पुरुषों को इस दबाव से अपेक्षाकृत कम गुजरना पड़ता है।

कपल केस अंक हटने का असर इस असमानता को और बढ़ा देता है। महिला शिक्षिका को नौकरी में सफलता पाने के लिए अपने परिवार के समय और जिम्मेदारियों का नुकसान उठाना पड़ सकता है। पारिवारिक संतुलन बिगड़ता है, और इससे महिला की मानसिक और भावनात्मक स्थिति प्रभावित होती है। यह बदलाव महिलाओं को केवल “कर्तव्यपूर्ण” भूमिका तक सीमित करने जैसा है, जबकि उन्हें समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए।

समाज में सुधार की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है। घर के काम को बराबरी से बाँटना चाहिए। पुरुषों को घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल में बराबरी का योगदान देना चाहिए। सरकारी नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता लाना आवश्यक है। महिलाओं को केवल “त्याग और कर्तव्य” का बोझ न देना, बल्कि समान अधिकार और दर्जा देना चाहिए।

नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता लाना जरूरी है। स्थानांतरण नीतियों में कपल केस जैसी प्राथमिकताओं को बनाए रखना चाहिए और महिला शिक्षिकाओं के लिए पारिवारिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। शिक्षक संघों और समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। संघों के माध्यम से सरकारी निर्णयों पर विचार-विमर्श और विरोध किया जा सकता है। मीडिया और सामाजिक मंचों पर लैंगिक असमानता और डबल बर्डन के प्रभाव पर जागरूकता फैलाना आवश्यक है।

घर और नौकरी का संतुलन बनाए रखना भी जरूरी है। परिवार में जिम्मेदारियों का बराबर बंटवारा किया जाना चाहिए। पुरुषों को घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल में बराबरी का योगदान देना चाहिए। आरटीआई और पारदर्शिता के माध्यम से शिक्षा विभाग से जानकारी लेना चाहिए कि कपल केस अंक हटाने का निर्णय क्यों और किस आधार पर लिया गया। इससे नीति बनाने में पारदर्शिता और न्यायसंगत निर्णय सुनिश्चित होंगे।

हरियाणा में शिक्षक स्थानांतरण नीति में कपल केस अंक हटाना केवल एक प्रशासनिक बदलाव नहीं है, बल्कि यह महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लिए एक चुनौती भी है। यह बदलाव महिलाओं के ऊपर डबल बर्डन को और बढ़ा देता है। महिला सशक्तिकरण का असली अर्थ केवल नौकरी या योजनाओं तक सीमित नहीं, बल्कि समान जिम्मेदारी, पारिवारिक संतुलन और सुरक्षित वातावरण भी है।

यदि समाज और सरकार सच में महिलाओं को सशक्त बनाना चाहते हैं, तो उन्हें नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता, पारिवारिक जिम्मेदारी का बराबर बंटवारा, और महिला अधिकारों की रक्षा पर ध्यान देना होगा। समान अवसर, समान जिम्मेदारी और पारदर्शिता ही महिलाओं के लिए वास्तविक सशक्तिकरण का आधार है। बिना इसके, किसी भी नीतिगत या आर्थिक पहल का प्रभाव सीमित रहेगा और डबल बर्डन जैसी समस्याएं बनी रहेंगी।–

– डॉ. सत्यवान सौरभ

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हिंदू धर्म के त्योहार जीवन शैली और विज्ञान

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हमारे हिंदू धर्म के त्योहार जीवन शैली और विज्ञान से कैसे जुड़े हुए हैं। ये जो छोटे-छोटे पौधे आप देख रहे हैं इन्हें नवरात्रि के शुरू में किसान का साल भर से रखा हुआ अनाज का बीज टैस्ट करने के लिए उगाया जाता था कि अब रवि की फसल बुआई की जानी है किंतु एक साल से जो बीज रखा है उसकी जांच तो कर ली जाए कि उसमें अंकुरण की क्षमता है या सीलन इत्यादि से खराब तो नहीं हो गया है।

दशहरे के बाद अब किसान अनुकूल मौसम आने के कारण रवि की फसल की बुवाई करने में जुट गया है। चार माह बरसात का चौमासा गुजर जाने के बाद घरों में सीलन बरसात के कीट पतंगे और तरह-तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न हो गए हैं। “बरखा विगत शरद ऋतु आई लक्ष्मण देखो बहुत सुहाई”। अब घर की गहन सफाई और लिपाई पुताई कर ली जाए ताकि वर्षभर साफ सुथरा रहे और सभी लोग स्वस्थ रहें।

दशहरे से दीपावली के बीच उत्तर भारत में रवि की फसल की बुवाई समाप्त हो जाती थी। तब खुशी में दीपक जलाओ। कीट पतंग को समाप्त करो और उत्सव बनाओ।

इस बीच कुछ लोगों की फसल बोने में कुछ और समय लग जाता है तो तापमान की दृष्टि से गंगा स्नान से पहले गेहूं, चना, जो, मटर इत्यादि की बुवाई समाप्त कर ली जाती है। अब किसान बिल्कुल फ्री है।

अब आता है गंगा स्नान। सारे परिवार के साथ मस्त छुट्टियां बिताने का समय। पिकनिक मनाने का समय। वहीं गंगा के किनारे अपने ट्रैक्टर या भैंसा बुग्गी के पास छोटा सा आशियाना बनाकर मस्त विश्राम और छुट्टियां।

इसी प्रकार आप देखते हैं कि होली में सर्दियों में पानी से बचने की प्रवृत्ति को छोड़कर अब गर्मियां शुरू हो गई हैं इसलिए खूब भींगना है और नई तैयार हो गई फसल की बालियां को होली की आंच में सेक कर उनका स्वाद लेना है।

कितनी वैज्ञानिक और जीवन शैली से जुड़ी हुई है हमारी परंपराएं और हमारे त्योहार।

रविंद्र कांत त्यागी

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हिन्दी सिनेमा पर गाँधी की छाँह

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विपर्यय के इन दिनों में गाँधी, जिनकी तस्वीरें आज़ादी के लगभग दो ढाई दशकों बाद तक भारतवासियों के घरों में लगभग देवपुरुषों की तरह लगी रहती थीं, अब सोशल मीडिया की दीवारों पर मीम बन कर अटपटी भदेस व्यंग्योक्तियों के साथ नज़र आते हैं। इसी के साथ यह भी नज़र आता है कि गाँधी भूमंडलीकरण के बाद के भारत में अब भी सामूहिक अंत:करण में गड़ा हुआ ऐसा काँटा हैं जिनसे निपटने के लिए उपहास, व्यंग्य, गालीगलौज सबका इस्तेमाल भी अकारथ ही सिद्ध होता है।

बहरहाल, इस पृष्ठभूमि में देखें कि हिन्दी सिनेमा में गाँधी की छाँह कैसी क्या पड़ी है।

गाँधी नाम आते ही सबसे पहले रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ (1982) की याद आती है। गाँधी पर सबसे भव्य जीवनीपरक फ़िल्म यही है। बारह एकेडमी अवार्ड विजेता यह फ़िल्म भारत में ही नहीं दुनिया भर में सराही गई और मील का पत्थर बनी। इसने भारी कमाई भी की। बेन किंग्सले ने इसमें शीर्षक भूमिका की थी जबकि छोटी बड़ी भूमिकाओं में अनेक भारतीय कलाकार थे। प्रायः ऐसी फिल्में अपने डॉक्यु ड्रामा फॉर्मेट में निबद्ध होती हैं मगर ‘गाँधी ‘ एक सम्पूर्ण फ़ीचर फ़िल्म की तरह एक महाकाव्यात्मक चरित्र के साथ न्याय करती है। इसका जलियांवाला बाग के नरसंहार वाला दृश्य अविस्मरणीय है। बेन किंग्सले गाँधी की भूमिका में गहरे उतरे हैं और कस्तूरबा के रूप में रोहिणी हटँगड़ी बहुत जमी हैं। फ़िल्म चूँकि गाँधी के साथ साथ ही चलती है बाक़ी सभी चरित्र उनके इर्दगिर्द हाशिए पर हैं। कुछ तो सिर्फ़ दिखाई भर देते हैं।

श्याम बेनेगल की ‘ द मेकिंग ऑफ़ महात्मा ‘ (1996) गाँधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास पर एक अच्छी फ़िल्म है। इसमें गाँधी के महात्मा बनने से पहले का दौर है और गाँधी को एक साधारण मनुष्य की कमजोरियों के साथ चित्रित करने का उपक्रम भी। यह फ़ातिमा मीर की किताब ‘द एप्रेन्टिसशिप ऑफ़ महात्मा’ पर आधारित थी। इसका एक दृश्य स्मृति में अटक जाता है जिसमें गाँधी (रजित कपूर) अपनी पत्नी कस्तूरबा से कुछ दुर्व्यवहार करते हैं और बा (पल्लवी जोशी) उन्हें झिड़कती हैं। बेनेगल के गाँधी महान होने से पहले के ऐसे सहज मनुष्य हैं जिनकी स्वाभाविक दुर्बलताओं में किसी को भी अपना प्रतिबिंब दिखाई दे सकता है। यही इस फ़िल्म की शक्ति भी है।

2005 में एक फ़िल्म आई थी- ‘मैंने गाँधी को नहीं मारा’। इसमें अनुपम खेर ने एक ऐसे मनोरोगी की भूमिका निभाई थी जिसे गाँधी को मारने का गहरा काल्पनिक अपराध बोध है। उसकी बेटी (उर्मिला मातोंडकर) उसका ध्यान रखती है। यह व्यक्ति के रूप में एक समाज का व्यापक अपराध बोध भी हो सकता है। ‘सारांश’ के बाद अनुपम खेर अपनी इसी भूमिका को सबसे यादगार भूमिकाओं में मानते हैं। इस फ़िल्म को कम देखा गया, किंतु इसमें गहनता से एक मानवीय स्थिति को देखा गया गया है जो अपने समग्र प्रभाव में एक सामाजिक, राजनीतिक टिप्पणी भी बनती है।

अनिल कपूर ने 2007 में गाँधी और उनके बड़े बेटे हरिलाल के तनावपूर्ण सम्बन्धों पर एक फ़िल्म बनाई थी – ‘गाँधी माई फ़ादर’। इसमें हरिलाल की भूमिका में अक्षय खन्ना थे और गाँधी की भूमिका में थे दर्शन जरीवाला। यह फ़िल्म पिता पुत्र के बीच आपसी समझ के अभाव से लगा कर बेटे की बर्बादी तक की यात्रा को बहुत विचलित करने वाले ढंग से प्रस्तुत करती है। आखिर एक महान राष्ट्र का पिता कहा जाने वाला व्यक्ति अपनी सन्तान के मोर्चे पर एक असफल पिता क्यों कर साबित हुआ। एक सार्वजनिक जीवन की ये कुछ गुत्थियां अनसुलझी रह जाती हैं, जहाँ व्यक्तिगत ; सामाजिक और राजनीतिक जीवन की भेंट चढ़ जाता है। इसमें किसे दोषी माना जाए और किसे निर्दोष, यह फ़ैसला बहुत मुश्किल होता है। एक असुविधाजनक, असहज करने वाले और महात्मा को वेध्य बनाने वाले इस विषय के साथ न्याय करना आसान नहीं था और इसे किसी मर्मज्ञ और दक्ष , श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक की आवश्यकता थी। तब भी इसे छूने के लिए निर्माता अनिल कपूर और निर्देशक फिरोज़ अब्बास खान की सराहना की जानी चाहिए। इस फ़िल्म में कस्तूरबा की भूमिका में शेफाली शाह हैं।

दर्शकों की नई पीढ़ी के लिए गाँधीवाद के बजाय गाँधीगिरी जैसा शब्द गढ़ा विधु विनोद चोपड़ा द्वारा निर्मित और राजकुमार हिरानी द्वारा निर्देशित ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ ने। 2006 की इस फ़िल्म ने नए मुहावरे में मनोरंजन और सन्देश की मिक्स पैकेजिंग में एक तरह से गाँधी को नए दर्शकों से रूबरू करवाया। एक दृष्टिकोण से इस फ़िल्म पर गाँधी दर्शन और विचार को पनियल करने का आरोप लगाया जा सकता है मगर यह भी सही है कि इस फ़िल्म ने युवा दर्शकों में गाँधी के लिए उत्सुकता पैदा की, अहिंसक विरोध के विचार को पुनर्जीवित किया। व्यावसायिक, मनोरंजन प्रधान हिन्दी सिनेमा में गाँधी का यह अनुकूलन रेखांकित किए जाने योग्य है। मुन्ना ( संजय दत्त) और सर्किट (अरशद वारसी) के साथ बनी इस फ़िल्म में गाँधी (दिलीप प्रभवलकर) सिर्फ़ गुंडे मुन्ना भाई को दिखाई देते हैं। स्वानन्द किरकिरे ने इसके लिए गाँधी जी पर ‘बंदे में था दम’ गीत रचा जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। युवा दर्शकों के साथ कनेक्ट होती शब्दावली में, एक रंजक व्याकरण की सिनेमाई संरचना में गाँधी की यह प्रस्तुति हिन्दी सिनेमा की एक स्मरणीय रचना है। राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने इसे मेहनत और तन्मयता से लिखा और पर्दे पर साकार किया। एक संक्षिप्त अवधि में इस फ़िल्म का सामाजिक प्रभाव भी दिखाई दिया जब किसी विसंगति या अन्याय का प्रतिकार फूल देकर किया जाने लगा। यह सब भले ही लम्बा न चला हो, इसमें संदेह नहीं कि नए दर्शकों को दी गई यह गाँधीवाद की शुगरकोटेड गोली थी। यह उनका एक सहज, सरल, सुगम और सुपाच्य संस्करण अपने उन दर्शकों के लिए सुलभ कराती थी जो गाँधी से बहुत दूर चले आए हैं।

गाँधी हर युग में नए ढंग से पढ़े और प्रस्तुत किए जाएंगे। वे अपनी विभिन्न व्याख्याओं के लिए हमेशा चुनौती पेश करते हैं। उन पर तब भी ध्यान जाता है जब वे और उनके विचार समाज में अप्रासंगिक या अनुपस्थित लगने लगते हैं। फिर कोई उनकी याद करता है; फिर कोई उनकी बात छेड़ देता है। ‘सुन ले बापू ये पैगाम, मेरी चिट्ठी तेरे नाम’ (बालक) और ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल’ (जागृति ) के भावुक , गाँधी के दैवीकरण से ओतप्रोत गीतों से लगा कर ‘बंदे में था दम’ तक के गीतों और फ़िल्मों में बदलते मुहावरों में गाँधी हमारे सामने आते रहे हैं। आगे भी आते रहेंगे।

— आशुतोष दुबे

संघ के शताब्दी वर्ष में संघ के मंचों से नव चिंतन सामने आएगा

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– कौशल सिखौला

महान राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ 2025 को अपनी सौवीं जयंती के रूप में मना रहा है । डॉ हेडगेवार और गुरु गोलवलकर से मोहन भागवत तक आते आते इस संस्था के गर्भ से असंख्य राष्ट्रचिंतकों ने जन्म लिया है । करोड़ों या फिर सच कहें तो 194 करोड़ वर्ष पुरानी प्राचीनतम आर्य सभ्यता एवम् संस्कृति की रक्षा के लिए संघ रूपी यह विराट वट वृक्ष सीना ताने यथावत खड़ा है ।

जिन्हें अखण्ड आर्यावर्त भारतवर्ष की महान परंपराओं पर गर्व है वे जानते हैं कि संघ की यह चैतन्य धारा अभी अनंतकाल तक प्रवाहमान रहेगी । संघ के शताब्दी वर्ष में निश्चय ही संघ के मंचों से नव चिंतन सामने आएगा ।

एक बात मानने में किसी को भी संकोच नहीं हैं कि स्वाधीनता आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ था । यह आंदोलन आज की कांग्रेस ने नहीं , आंदोलनकारी कांग्रेस ने प्रारंभ किया था । कांग्रेस एक स्वाधीनता आंदोलन थी पार्टी नहीं । तभी आजादी मिलने के बाद जब बापू को लगा कि कांग्रेस रूपी यह स्फूर्त आंदोलन अब एक राजनैतिक पार्टी में बदल जाएगा तो उन्होंने उसे भंग करने की सलाह दी थी । आज की कांग्रेस को देखकर समझ लीजिए कि बापू का अनुमान कितना सही था ।

उसी कांग्रेस आंदोलन से डॉ हेडगेवार आए और संघ की स्थापना की । डॉ हेडगेवार समझ गए थे देश में राष्ट्रवाद की स्थापना करने के लिए जिन चरित्रवान लोगों की आवश्यकता है उसके लिए एक संगठन बनाना पड़ेगा । उनका चिंतन 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन एक संगठन के रूप में सामने आया । वही विचार आज संघ के सैकड़ों प्रकल्पों के रूप में अपनी स्थापना के 100 वर्ष मना रहा है । संघ ने देश को दो प्रधानमंत्री दिए । वर्तमान प्रधानमंत्री के पद पर आसीन संघ का एक प्रचारक देश को ऊंचाई के जिस सोपान पर ले गया वह सचमुच अदभुत है ।

हमें आज तक समझ नहीं आया कि 78 वर्ष की आजादी के बाद भी लोग राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी विचारधारा से चिढ़ते क्यूँ हैं ? अरे भाई इस देश को लूटने मुगल आक्रांता न आते तो आज भी हिन्दू राष्ट्र ही होता भारत ? ग्यारहवीं शताब्दी तक बड़े आनंद से जी रहा था अनादि हिन्दूराष्ट्र भारत । कहीं राष्ट्र साधना , कहीं राष्ट्र यज्ञ तो कहीं राष्ट्रीय वैभव के लिए अनुष्ठान । विश्व का सबसे चिंतनशील और वैभवशाली धनाढ्य देश था हिन्दू भारतवर्ष ।

हर विधा में इतना प्रवीण कि बाकी दुनिया हमारे ज्ञान की बिखरी हुई खुरचन ही चाटती रह जाए । इसी सोने की चिड़िया और ज्ञान विज्ञान को ही तो लूटने आए लुटेरे ? संघ ने अतीत के उसी वैभव को पुनर्स्थापित करने का काम शुरू किया तो बुरा मान गए ? आज विजयादशमी है । संघ का शताब्दी वर्ष भारतमाता को विश्व के शीर्ष पर स्थापित करे , आइए हम सब यही कामना और प्रार्थना करते हैं । नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे ।

– कौशल सिखौला

लोक आस्था, संस्कृति के प्रतीक त्योहार और मेले

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                                                   बाल मुकुन्द ओझा                                             

देश में दशहरे मेले के साथ मेले ठेलों की शुरुआत हो गई है। भारत मेलो और तीज त्योहारों का देश है। यहाँ दुनियाँ के सबसे ज्यादा त्योहार मनाये जाते है। यहीं पर दुनियाँ में सबसे ज्यादा मेलो का आयोजन होता है। इनमे से कुछ मेले तो दुनिया के सबसे बड़े व विशाल मेलो में शुमार है जिन्हें देखने पूरी दुनिया से हर साल लाखों लोग भारत आते है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में मेलों का विशेष महत्व है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तक न जाने कितने प्रकार के मेले भारत में लगते हैं। इन सभी मेलों का अपना अपना महत्व है। मेलों को संस्कृति और रंगीन जीवन शैली का पैनोरमा कहा जा सकता है। इन मेलों में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप का अद्वितीय और दुर्लभ सामजस्य दिखाई देता है, जो कहीं और नहीं दिख पाता। मेले न केवल मनोरंजन के साधन हैं, अपितु ज्ञानवर्द्धन के साधन भी कहे जाते हैं। प्रत्येक मेले का इस देश की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं से जुड़ा होना इस बात का प्रमाण हैं कि ये मेले किस प्रकार जन मानस में एक अपूर्व उल्लास, उमंग तथा मनोरंजन करते हैं। मेला स्थानीय लोक संस्कृति, परंपरा और लोक संस्कारों के विविध रूपों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है।

भारत में मेले, लोकसंस्कृति और परंपरा के माध्यम से आस्था, उमंग और उत्सव की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। मेलों का आयोजन प्राय: किसी पर्व या त्योहार के अवसर पर किया जाता है। मेला हमारे समाज को जोड़ने तथा हमारी संस्कृति और परंपरा को सुरक्षित रखने में अहम् भूमिका निभाता है। यह उत्पादकों और खरीददारों के लिए बाजार भी उपलब्ध कराता है। खाने-पीने से लेकर मौज-मस्ती की सभी चीजें मेले को आकर्षक बनाती हैं। मेलों में कहीं लोकगीतों की लहरियां हमारे दिल के तार को झंकृत करती हैं तो कहीं लोकनृत्य के माध्यम से हमारे तन-बदन में थिरकन पैदा होने लगती है।

राजस्थान के मेले यहाँ की बहुरंगी संस्कृति के परिचायक है। राजस्थान मेलों  का आयोजन धर्म, लोकदेवता, लोकसंत और लोक संस्कृति से जुड़ा हुआ है। मेलों में नृत्य, गायन, तमाशा, बाजार आदि से लोगों में प्रेम व्यवहार, मेल-मिलाप बढ़ता है। राजस्थान के प्रत्येक अंचल में मेले लगते है। इन मेलों का प्रचलन प्रमुखतः मध्य काल से हुआ जब यहाँ के शासकों ने मेलों को प्रारम्भ कराया। मेले धार्मिक स्थलों पर एवं उत्सवों पर लगने की यहाँ परम्परा रही है जो आज भी प्रचलित है। राजस्थान में जिन उत्सवों पर मेले लगते है उनमें विशेष हैं- गणेश चतुर्थी, नवरात्र, अष्टमी, तीज, गणगौर, शिवरात्री, जनमाष्टमी, दशहरा, कार्तिक पूर्णिमा आदि। इसी प्रकार धार्मिक स्थलों (मंदिरों) पर लगने वाले मेलों में तेजाजी, शीतलामाता, रामदेवजी, गोगाजी, जाम्बेश्वर जी, हनुमान जी, महादेव, आवरीमाता, केलादेवी, करणीमाता, अम्बामाता, जगदीश जी, महावीर जी आदि प्रमुख है। राजस्थान के धर्मप्रधान मेलों में जयपुर में बालाजी का, हिण्डोन के पास महावीर जी का, अन्नकूट पर नाथद्वारा का, गोठमांगलोद में दधिमती माता का, एकलिंग जी में शिवरात्री का, केसरिया में धुलेव का, अलवर के पास भर्तहरि जी का और अजमेर के पास पुष्कर जी का मेला गलता मेला प्रमुख है। इन मेलों में लोग भाक्तिभावना से स्नान एवं अराधना करते हैं।  लोकसंतो और लोकदेवों की स्मृति एवं श्रद्धा में भी यहाँ अनेक मेलों का आयोजन होता है। रूणेचा में रामदवे जी का, परबतसर में तेजाजी का, काले गढ़ में पाबूजी का, ददेरवा में गोगाजी का, देशनोक में करणीमाता का, नरेणा(जयपुर)-शाहपुरा (भीलवाड़ा) में फूलडोल का, मुकाम में जम्भेष्वरजी का, गुलाबपुरा में गुलाब बाबा का और अजमेर में ख्वाजा साहब का मेला लगता है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

महात्मा गांधी की जान बचाने वाले बतख मियां

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महात्मा गांधी को पूरी दुनिया जानती है किंतु उनकी जान बचाने वाले बतख मियां को कोई जानता भी नही। बतख मियां चंपारण के रहने वाले थे।बतख मियां। बतख मियां अंग्रेज मैनेजर इरविन के रसोईया हुआ करते थे।

बात 1917 की है जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद चंपारण के किसान और स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गांधी डॉ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के हाथों नील की खेती करने वाले के किसानों की दुर्दशा का ज़ायज़ा लेने चंपारण आए थे। चंपारण प्रवास के दौरान उन्हें जनता का अपार समर्थन मिला था। लोगों के आंदोलित होने से जिले में विद्रोह और विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की प्रबल आशंका थी। वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में गांधी जी को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। बतख मियां इरविन के ख़ास रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के के उद्देश्य से बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नज़र आई थी। उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ। उन्होंने गांधी जी को दूध का ग्लास देते हुए वहां उपस्थित राजेन्द्र प्रसाद के कानों में यह बात डाल दी।

उस दिन गांधी की जान तो बच गई लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने उन्हें बेरहमी से पीटा, सलाखों के पीछे डाला और उनके छोटे-से घर को ध्वस्त कर कब्रिस्तान बना दिया। देश की आज़ादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आबंटित करने का आदेश दिया। बतख मियां की लाख भागदौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में बतख मियां ने दम तोड़ दिया।चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेल स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं !

महात्मा गांधी की सबसे ज्यादा प्रतिमाएं अमेरिका में हैं

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न्यूयार्क के मैडम तुशाद के म्यूजियम में लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा

महात्गांमा गांधी अकेल ऐसे भारतीय है जिंनकी दुनियाभर में प्रतिमाएं एवं स्टेचू हैं। महात्मा गांधी कभी अमेरिका क नहीं गए लेकिन भारत के बाद उनकी सबसे ज्यादा मूर्तियां, स्मारक और संस्थायें अमेरिका में ही हैं। जानकारी के मुताबिक, अमेरिका में गांधी जी की दो दर्जन से ज्यादा से प्रतिमाएं और एक दर्जन से ज्यादा सोसाइटी और संगठन हैं।
महात्मा गांधी भारत के अकेले ऐसे नेता रहे हैं, जिनकी भारत सहित 84 देशों में मूर्तियां लगी हैं। पाकिस्तान, चीन से लेकर छोटे-मोटे और बड़े-बड़े देशों तक में बापू की मूर्तियां स्थापित हैं।
उनके जन्मदिवस पर पूरी दुनिया अहिंसा दिवस मनाती है।महात्मा गांधी की हत्या के 21 साल बाद ब्रिटेन ने उनके नाम से डाक टिकट जारी किया। इसी ब्रिटेन से भारत ने गांधी की अगुआई में आज़ादी हासिल की थी। भारत में 53 मुख्य मार्ग गांधी जी के नाम पर हैं। जबकि अलग-अलग देशों में कुल 48 सड़कों के नाम महात्मा गांधी के नाम पर हैं।गांधी जी द्वारा शुरु किया गया सिविल राइट्स आंदोलन कुल 4 महाद्वीपों और 12 देशों तक पहुंचा था।

अपने पूरे जीवन में महात्मा गांधी ने कोई राजनीति पद नहीं लिया। इसीलिए आज़ादी की लड़ाई में उनके नेतृत्व पर कभी कोई सवाल नहीं उठा पाया, क्योंकि उनको न 8000 करोड़ का विमान चाहिए था, न ही 20000 करोड़ का बंगला।
नेल्सन मंडेला से लेकर मार्टिन लूथर किंग तक गांधी के मुरीद थे, बराक ओबामा जैसे तमाम वर्ल्ड लीडर आज भी गांधी के मुरीद हैं। अपने वक़्त के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि “कुछ सालों बाद लोग इस बात पर यकीन नहीं करेंगे कि महात्मा गांधी जैसा शख्स कभी इस धरती पर हाड़ मांस का शरीर लेकर पैदा हुआ था।”
अफ्रीका जैसे कई देशों ने गांधी के आदर्शों और रास्तों से आंदोलन चलाया और आज़ादी हासिल की।यहां तक कि दुनिया के कई बदनाम-बर्बाद देश भी गांधी की इज्जत करते हैं। कई निकृष्ट नेता भी गांधी का अपमान करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।