हरियाणा में तबादलों का संकट – शिक्षकों की उम्मीदों पर विराम

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“अप्रैल से इंतज़ार, अब तक अधर में तबादले; मॉडल स्कूल का परिणाम टला, नई नीति भी अधूरी”

हरियाणा में शिक्षकों के तबादले अप्रैल में होने थे, लेकिन आज तक प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। सरकार ने घोषणा की थी कि सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम आएगा और उसी के आधार पर तबादलों की दिशा तय होगी, परंतु महीनों बीत जाने के बावजूद यह परिणाम घोषित नहीं किया गया। अब नई तबादला नीति बनाने की बात कही जा रही है, लेकिन वह नीति भी अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है। इस देरी से शिक्षक गहरे असमंजस में हैं। हज़ारों शिक्षक अपने परिवार से दूर कठिन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद थी कि समय पर तबादलों से राहत मिलेगी। मगर सरकार के बार-बार बदलते वादों और अधूरी तैयारियों ने उनके धैर्य की परीक्षा ले ली है। अब ज़रूरत है कि सरकार तुरंत मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित करे, नई नीति स्पष्ट करे और पारदर्शी तरीके से तबादला प्रक्रिया शुरू करे।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था इस समय गहरे असमंजस और ठहराव के दौर से गुजर रही है। अप्रैल से लेकर अब तक हज़ारों शिक्षक अपने तबादलों का इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन नतीजा यह है कि महीनों बाद भी कोई ठोस प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। सरकार और विभाग ने कई बार आश्वासन दिया कि जल्द ही तबादला ड्राइव चलेगी, लेकिन वास्तविकता यह है कि आज तक न तो मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित हुआ और न ही नई तबादला नीति लागू हो सकी। ऐसे में शिक्षकों के मन में असंतोष और धैर्य की सीमाएँ दोनों टूटती नज़र आ रही हैं।

हरियाणा में शिक्षकों के तबादले अप्रैल में होने थे, लेकिन अब तक शुरू नहीं हो पाए। सरकार ने पहले कहा था कि सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित किया जाएगा और फिर उसी के आधार पर तबादला ड्राइव चलाई जाएगी, मगर महीनों बीत जाने के बावजूद यह परिणाम जारी नहीं हुआ। नई तबादला नीति बनाने की बात कहकर शिक्षकों को उलझाए रखा गया है, जबकि वह नीति भी अब तक सार्वजनिक नहीं हुई है। इस देरी से हज़ारों शिक्षक असमंजस और निराशा में हैं, क्योंकि कई शिक्षक कठिन परिस्थितियों में काम कर रहे हैं और उन्हें समय पर स्थानांतरण से राहत की उम्मीद थी। लगातार वादों और अधूरी तैयारियों ने उनके धैर्य की परीक्षा ले ली है। अब ज़रूरी है कि सरकार तुरंत मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित करे, नई नीति स्पष्ट करे और पूरी पारदर्शिता के साथ तबादला प्रक्रिया को आगे बढ़ाए।

तबादले किसी भी शिक्षक के लिए केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं होते। यह उनके निजी जीवन, पारिवारिक परिस्थितियों और पेशेवर संतुष्टि से गहराई से जुड़े होते हैं। वर्षों से एक ही स्थान पर काम कर रहे शिक्षकों को बदलाव की उम्मीद रहती है, वहीं दूरदराज़ क्षेत्रों में तैनात शिक्षकों को अपने परिवार और बच्चों से जुड़ने की चाह होती है। जब यह उम्मीदें लगातार अधूरी रह जाती हैं, तो उसका असर उनके मनोबल और कार्यक्षमता दोनों पर पड़ता है।

अप्रैल में सरकार ने दावा किया था कि सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित किया जाएगा और उसके आधार पर तबादलों की प्रक्रिया को दिशा दी जाएगी। लेकिन यह परिणाम महीनों से लटका हुआ है। इसके साथ ही सरकार ने नई तबादला नीति बनाने की घोषणा की, ताकि प्रक्रिया और अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष हो सके। यह घोषणा सुनने में आकर्षक ज़रूर थी, लेकिन जब नीति महीनों तक अधर में ही पड़ी रहे और शिक्षकों को उसका कोई स्पष्ट स्वरूप न दिखे, तो यह केवल समय खींचने का बहाना प्रतीत होता है।

इस पूरी देरी का सीधा असर शिक्षा व्यवस्था पर पड़ रहा है। जहाँ कुछ स्कूलों में जरूरत से ज्यादा शिक्षक मौजूद हैं, वहीं कई ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में वर्षों से पद खाली पड़े हैं। नतीजा यह है कि बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है और असमानता बढ़ रही है। मॉडल स्कूल परियोजना, जिसे शिक्षा सुधार का प्रतीक बताया गया था, उसका परिणाम ही न आना सरकार की गंभीरता पर सवाल खड़े करता है।

शिक्षक लगातार धैर्य बनाए हुए हैं, लेकिन अब उनकी आवाज़ें तेज़ होने लगी हैं। संघ और संगठन यह सवाल पूछ रहे हैं कि जब पुरानी नीति के तहत भी प्रक्रिया पूरी हो सकती थी, तो उसे बीच में क्यों रोका गया। नई नीति का हवाला देकर महीनों तक शिक्षकों को उलझाए रखना क्या केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी नहीं दर्शाता? शिक्षकों का मानना है कि सरकार को यदि सचमुच पारदर्शिता चाहिए तो नीति को सार्वजनिक करना चाहिए। यदि वह तैयार नहीं है तो पुरानी नीति के तहत प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए, ताकि कम से कम शिक्षकों को राहत मिल सके।

हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ शिक्षा सुधार और मॉडल स्कूलों की बातें बड़े स्तर पर की जाती रही हैं, वहाँ आज स्थिति यह है कि शिक्षकों को अपने ही भविष्य का पता नहीं। यह केवल शिक्षकों का संकट नहीं है, बल्कि छात्रों और पूरी शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न है। शिक्षक असंतुष्ट और परेशान रहेंगे तो वे बच्चों को पूरी निष्ठा से कैसे पढ़ा पाएंगे?

अब जबकि सितंबर भी समाप्ति की ओर है, सरकार को और देरी नहीं करनी चाहिए। सबसे पहले मॉडल स्कूल का परिणाम घोषित करना ज़रूरी है, ताकि शिक्षकों को स्पष्टता मिल सके। इसके बाद नई नीति को सार्वजनिक करना चाहिए और यदि वह अधूरी है तो पुरानी नीति के तहत ही तबादला प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। साथ ही यह भी आवश्यक है कि पूरी प्रक्रिया डिजिटल और समयबद्ध तरीके से हो, ताकि किसी प्रकार का पक्षपात या अनुशंसा की गुंजाइश न रहे।

अंततः यह समझना होगा कि शिक्षक केवल सरकारी कर्मचारी नहीं बल्कि समाज की रीढ़ हैं। उन्हें महीनों तक अनिश्चितता और प्रतीक्षा में रखना उनके साथ अन्याय है और छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ है। यदि सरकार सचमुच शिक्षा सुधार चाहती है, तो उसे तुरंत ठोस और पारदर्शी कदम उठाने होंगे। हरियाणा के शिक्षकों का धैर्य अब अंत की ओर है, और यह समय है कि सरकार वादों और घोषणाओं से आगे बढ़कर वास्तविक कार्रवाई करे। यही एकमात्र रास्ता है जो शिक्षकों को न्याय देगा और हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था को संतुलन और मजबूती प्रदान करेगा।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

दिव्यांगजन की आवाज़: मुख्यधारा से जुड़ने की पुकार

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(सहानुभूति से परे, कानून, शिक्षा, रोज़गार, मीडिया और तकनीक के माध्यम से बराबरी व सम्मान की ओर)

भारत में करोड़ों दिव्यांगजन आज भी शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य और सार्वजनिक जीवन में हाशिए पर हैं। संवैधानिक अधिकारों और 2016 के दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम के बावजूद सामाजिक पूर्वाग्रह, ढांचागत बाधाएँ और मीडिया में विकृत छवि उनकी गरिमा को चोट पहुँचाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि उनकी समानता और सम्मान से समझौता नहीं हो सकता। अब समय आ गया है कि समाज सहानुभूति से आगे बढ़कर दिव्यांगजन को अधिकार और अवसर दे। तकनीक, जागरूकता, कानून का सख्त क्रियान्वयन और सक्रिय भागीदारी ही समावेशी भारत की कुंजी हैं।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति उसकी विविधता और समावेशिता मानी जाती है। संविधान ने हर नागरिक को समान अधिकार, गरिमा और अवसर की गारंटी दी है। परन्तु जब हम समाज के उस वर्ग की ओर देखते हैं, जिन्हें दिव्यांगजन कहा जाता है, तो यह गारंटी अक्सर खोखली दिखाई देती है। देश की जनगणना और हालिया सर्वेक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि करोड़ों दिव्यांगजन आज भी शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, यातायात, मीडिया और सार्वजनिक जीवन में हाशिए पर हैं। संवैधानिक प्रावधान और कानून मौजूद हैं, परन्तु जमीनी स्तर पर उनकी स्थिति इस सच्चाई को बयान करती है कि वे अब भी अदृश्य नागरिकों की तरह जीवन जीने को विवश हैं।

समस्या केवल भौतिक अवरोधों की नहीं है, बल्कि मानसिकता और दृष्टिकोण की भी है। समाज का बड़ा हिस्सा अब भी दिव्यांगता को दया, बोझ या त्रासदी की दृष्टि से देखता है। यह सोच दिव्यांगजन की क्षमताओं और संभावनाओं को नकार देती है। उन्हें बराबरी का अवसर देने के बजाय या तो दया का पात्र बना दिया जाता है या हंसी का विषय। भारतीय सिनेमा और टेलीविज़न ने भी लंबे समय तक इन्हीं रूढ़ियों को दोहराया है। हालांकि अब धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है, परन्तु यह बदलाव बहुत धीमा और सीमित है।

भारतीय न्यायपालिका ने कई बार दिव्यांगजन की गरिमा और अधिकारों की रक्षा करते हुए महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या हास्य के नाम पर किसी भी समुदाय की गरिमा से समझौता नहीं किया जा सकता। हाल ही में दिए गए फ़ैसलों में मीडिया और मनोरंजन उद्योग को चेताया गया कि वे दिव्यांगजन को मजाक या दया का पात्र न बनाएं, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करें। इसके बावजूद समाज में गहरे जमे पूर्वाग्रह अब भी मौजूद हैं।

वास्तविक चुनौती केवल कानूनी संरक्षण से पूरी नहीं होती। समस्या यह है कि कानून और नीतियाँ लागू करने वाली संस्थाओं में पर्याप्त संवेदनशीलता और दृढ़ता का अभाव है। उदाहरण के लिए, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 ने शिक्षा, रोज़गार और सार्वजनिक जीवन में उनके लिए आरक्षण और सुविधाओं की गारंटी दी। परन्तु स्कूलों और कॉलेजों की इमारतें अब भी सीढ़ियों से भरी हैं, सरकारी दफ्तरों में व्हीलचेयर के लिए जगह नहीं है, और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर अब भी दृष्टिबाधित या श्रवणबाधित लोगों के लिए आवश्यक विकल्प उपलब्ध नहीं कराए जाते।

दिव्यांगजन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें ‘सक्षम नागरिक’ के बजाय ‘निर्भर नागरिक’ मान लिया गया है। यह सोच उन्हें समाज की मुख्यधारा से दूर कर देती है। जबकि सच्चाई यह है कि अवसर और सुविधा मिलने पर दिव्यांगजन किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता साबित कर सकते हैं। खेल जगत में पैरा ओलंपिक खिलाड़ियों की उपलब्धियाँ इसका प्रमाण हैं। शिक्षा और साहित्य से लेकर प्रशासन और विज्ञान तक दिव्यांगजन ने अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है। समस्या क्षमता की नहीं, बल्कि अवसर और दृष्टिकोण की है।

यदि समाज सचमुच समावेशी बनना चाहता है, तो सबसे पहले उसकी सोच बदलनी होगी। दिव्यांगजन को दया या सहानुभूति की आवश्यकता नहीं है, उन्हें बराबरी के अधिकार और अवसर चाहिए। स्कूलों में बचपन से ही बच्चों को यह सिखाना होगा कि विविधता ही समाज की ताकत है। मीडिया और सिनेमा को जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे दिव्यांगता को केवल दुर्बलता के रूप में न दिखाएं, बल्कि उसे साहस, आत्मविश्वास और मानवीय गरिमा से जोड़कर पेश करें।

सार्वजनिक ढांचे को दिव्यांगजन की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। मेट्रो स्टेशन, रेलवे प्लेटफार्म, बस अड्डे, अस्पताल, सरकारी कार्यालय, पार्क और शैक्षणिक संस्थान तब तक समावेशी नहीं कहे जा सकते, जब तक वे हर व्यक्ति के लिए सुलभ न हों। तकनीकी प्रगति इस दिशा में बहुत मददगार हो सकती है। डिज़िटल ऐप्स में वॉइस असिस्टेंट, स्क्रीन रीडर और सांकेतिक भाषा की सुविधाएँ जोड़कर हम लाखों दिव्यांगजन को ऑनलाइन शिक्षा और रोजगार से जोड़ सकते हैं।

समानता की इस लड़ाई में सरकार और समाज दोनों की साझी भूमिका है। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि दिव्यांगजन के लिए बनाए गए कानून केवल कागज़ी दस्तावेज़ बनकर न रह जाएँ। उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए स्वतंत्र निगरानी तंत्र बने। स्थानीय निकायों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक निर्णय प्रक्रिया में दिव्यांगजन की भागीदारी हो। उनकी ज़रूरतों और सुझावों को सुने बिना कोई नीति या योजना पूरी नहीं हो सकती।

वहीं समाज की भूमिका और भी बड़ी है। हर व्यक्ति को अपने घर, मोहल्ले और कार्यस्थल पर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दिव्यांगजन सम्मान और बराबरी के साथ जी सकें। सार्वजनिक कार्यक्रमों, चुनावी रैलियों और सांस्कृतिक आयोजनों में उनकी भागीदारी बढ़े। यह तभी संभव है जब हम उन्हें दया नहीं, अधिकार का दर्जा देंगे।

भारत का संविधान हमें बराबरी, गरिमा और स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यदि समाज का एक बड़ा हिस्सा इन अधिकारों से वंचित रहता है, तो लोकतंत्र अधूरा रह जाता है। दिव्यांगजन को हाशिए से मुख्यधारा में लाना केवल मानवता का कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की बुनियादी शर्त भी है। जब तक दिव्यांगजन की आवाज़ नीतियों और समाज दोनों में बराबर न सुनी जाएगी, तब तक समावेशी भारत का सपना अधूरा रहेगा।

इसलिए आज समय की सबसे बड़ी पुकार यही है कि दिव्यांगजन को अदृश्य नागरिक नहीं, बल्कि परिवर्तन और प्रगति के सक्रिय साझीदार माना जाए। उनकी क्षमताओं और सपनों को पहचान कर ही हम उस समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ कोई पीछे न छूटे।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

केदारनाथ को धाम ही रहने दो मोदी जी! रोपवे से प्रकृति का विनाश निश्चित

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भूपेन्द्र शर्मा सोनू

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट सोनप्रयाग से केदारनाथ धाम तक रोपवे है। इसका टेंडर अदाणी एंटरप्राइजेज को मिल चुका है। करीब 4081 करोड़ की लागत से बनने वाला यह काम छह साल में पूरा होगा। कहा जा रहा है कि रोपवे बनने के बाद 13 किलोमीटर की दूरी सिर्फ 36 मिनट में तय हो जाएगी। सुनने में बढ़िया लगता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सच में हमारी ज़रूरत है या फिर पहाड़ों के लिए नई मुसीबत, क्योंकि केदारनाथ धाम तक पहले ही हेलीकॉप्टर सेवाएँ चल रही हैं। हेलीकॉप्टर का शोर, धुएँ से वायु प्रदूषण और आसमान में गूँजता शोर, यह सब उस घाटी की शांति को तोड़ रहा है। जहाँ लोग आध्यात्मिक सुकून लेने आते हैं। अब रोपवे भी बन जाएगा तो रोज़ाना हज़ारों-लाखों लोग कुछ ही मिनट में धाम पहुँचेंगे। क्या इतनी भीड़ और दबाव उस जगह को सहन हो पाएगा। 2013 की आपदा को कौन भूला है। बादल फटा, नदियाँ उफनीं, पहाड़ दरके और हजारों लोग मौत के मुँह में समा गए। तब यही कहा गया था कि प्रकृति से छेड़छाड़ बंद करनी होगी, लेकिन कुछ ही साल बीते और सरकार फिर से वैसा ही कर रही है। कभी हेलीकॉप्टर, कभी रोपवे, कभी नए-नए होटल। सवाल है कि क्या हमने उस त्रासदी से कोई सबक लिया‌। हिमालय कोई साधारण पहाड़ नहीं है। यह पूरा क्षेत्र बहुत नाज़ुक है। यहाँ ज़रा सा भी ज़्यादा दबाव पड़ता है तो नतीजे भयानक होते हैं। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि यहाँ विस्फोट करके सुरंगें खोदना, बड़े-बड़े प्रोजेक्ट चलाना या अनियंत्रित निर्माण करना खतरनाक है, लेकिन वोट और कारोबार की राजनीति में प्रकृति की चिंता करने का वक्त किसके पास है‌। आज हाल यह है कि केदारनाथ जैसे पवित्र धाम को सरकार और ठेकेदार मिलकर धीरे-धीरे पिकनिक स्पॉट बना रहे हैं। जहाँ श्रद्धालु भक्ति भाव से दर्शन करने जाएँ, वहाँ भीड़ का मेला लगेगा, फोटो खिंचाने वालों की लाइनें लगेंगी और प्रकृति कराहती रहेगी। धाम का मतलब है आस्था, शांति और सादगी, लेकिन अब उसका रूप बदलकर महज़ सुविधा और कमाई का ठिकाना बनता जा रहा है। सोचिए, जब रोज़ाना लाखों लोग रोपवे से कुछ ही मिनटों में पहुँचेंगे तो कूड़ा, प्लास्टिक, गंदगी और शोर किस हद तक बढ़ेगा। मंदिर के चारों तरफ का इलाक़ा जहाँ आज भी शांति और भक्ति का माहौल रहता है, वो कल किसी बाज़ार जैसा दिखेगा। आस्था और सुविधा दोनों ज़रूरी हैं, लेकिन इनके बीच संतुलन ज़्यादा ज़रूरी है। रास्तों की मरम्मत की जाए, ट्रैकिंग रूट सुरक्षित बनाए जाएँ, यात्रियों की संख्या सीमित रखी जाए आदि उपाय भी किए जा सकते हैं, लेकिन सीधा-सीधा पहाड़ काटकर या रोपवे लटकाकर विकास का ढोल पीटना सिर्फ आने वाली विपत्तियों को न्योता देना है। सच यही है कि जब-जब इंसान ने प्रकृति को चुनौती दी है, तब-तब उसे करारा जवाब मिला है। पंजाब की ज़मीन को देख लो। अंधाधुंध खेती और कैमिकल ने मिट्टी खराब कर दी। उत्तराखण्ड में 2013 की आपदा अब भी ताज़ा है। बावजूद इसके सरकार फिर से वही गलती दोहरा रही है।केदारनाथ सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि हमारी आस्था और हिमालय की आत्मा है। अगर हमने इसे पिकनिक स्पॉट बना दिया तो आने वाले समय में न तो धाम बचेगा, न ही उसका पवित्र माहौल। सरकार को समझना होगा कि धाम को धाम रहने दो, इसे मेला-ठेला मत बनाओ। वरना आने वाली विपत्ति को कोई नहीं रोक पाएगा।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार व लेखक)

शक्ति भक्ति, मेलों ठेलों और खुशियों के त्योहार

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बाल मुकुन्द ओझा
भारत त्योहारों का देश है। त्योहार देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक बुनियाद को मजबूत बनाने और समाज को जोड़ने का काम करते हैं। त्योहार जीवन में खुशियां लेकर आते है। विशेषकर सितम्बर और अक्टूबर का त्योहारी महीना अपने साथ कई सौगातें लेकर आता है। इस दौरान बारिश विदाई ले चुकी है और मौसम के बदलाव की आहट लोग महसूस करते है। इस मौसम में प्राकृतिक सौंदर्य अपने चरम पर होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सितम्बर माह से देश में त्योहारी मौसम की शुरुआत हो जाती है। नवरात्रि से दीपावली तक दो माह इस बार कई महत्वपूर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पर्वों की सौगात लेकर आ रहा है। यह महीना आस्था, परंपरा और भक्ति से जुड़ी अनेक शुभ तिथियों को अपने साथ लेकर आया है। यह एक के बाद एक व्रत और त्‍योहारों से सजा हुआ है। श्राद्ध पक्ष की समाप्ति के साथ ही 22 सितम्बर से विधिवत त्योहारी सीजन की शुरुआत हो जाएगी। इस दौरान शारदीय नवरात्रि, विजयदशमी, करवा चौथ, दीपावली, प्रदोष व्रत, शरद पूर्णिमा जैसे बड़े व्रत, त्योहार और मेले ठेले हर्षोल्लास और धूमधाम से मनाये जायेंगे। दीपावली तक त्योहारी खरीदारी का माहौल रहेगा और उसके बाद शादियों का दौर बाजारों को नई रफ्तार देगा। बहरहाल यहाँ हम त्योहारी सीज़न की चर्चा कर रहे है। इस त्योहारी सीजन में एक दर्जन बड़े त्योहार और व्रत आते है जिसमें देशवासी उमंग और उत्साह के साथ शामिल होकर अपनी खुशियों का इजहार करते है। लोकमंगल के इस सीजन में बच्चे से बुजुर्ग तक खुशियां बांटते है और खुशहाली की कामना करते हैं।
त्योहारी सीज़न की शरुआत शारदीय नवरात्रि से हो रही है। 22 सितम्बर से शुरू हो रहे नवरात्रि के पावन अवसर पर माँ दुर्गा के लाखों भक्त उनकी तन मन से पूजा-आराधना करते हैं। ताकि उन्हें उनकी श्रद्धा का फल माँ के आशीर्वाद के रूप में मिल सके। इस दौरान माँ शैलपुत्री, माँ ब्रह्मचारिणी, माँ चंद्रघण्टा, माँ कूष्मांडा, माँ स्कंद माता, माँ कात्यायनी, माँ कालरात्रि, माँ महागौरी और माँ सिद्धिदात्री के नौ रूपों की पूजा आराधना की जाती है।
दिवाली की शुरुआत 18 अक्टूबर, धनतेरस से होगी और 23 अक्टूबर को भाई दूज के साथ समाप्त होगी।
धनतेरस
धनतेरस का पर्व शनिवार, 18 अक्टूबर 2025 को है। इस दिन भगवान धन्वंतरि और मां लक्ष्मी की पूजा होती है। इसे स्वास्थ्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
नरक चतुर्दशी
नरक चतुर्दशी का पर्व रविवार, 19 अक्टूबर को मनाया जाएगा। मान्यता है कि इस दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर राक्षस का वध किया था। इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं।

दीपावली
दीपावली सोमवार, 20 अक्टूबर को मनाई जाएगी। इस दिन मां लक्ष्मी, भगवान गणेश और भगवान कुबेर की पूजा की जाती है। शाम को घरों में दीपक जलाकर अंधकार पर प्रकाश और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक मनाया जाता है।
गोवर्धन पूजा
गोवर्धन पूजा मंगलवार, 21 अक्टूबर को है। इसे अन्नकूट भी कहते हैं। लोग तरह-तरह के व्यंजन बनाकर भगवान को भोग लगाते हैं।
भाई दूज
भाई दूज गुरुवार, 23 अक्टूबर को है। यह दिन भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को समर्पित है। बहनें अपने भाइयों को तिलक करती हैं और लंबी उम्र की कामना करती हैं।
त्योहारों में लोग अपनी सामर्थ्य के मुताबिक नए कपड़े, जमीन जायदाद सोने चांदी के सामान सहित घरेलू जरुरत के सामान खरीदते है। गरीब से अमीर तक त्योहारों की खुशियों में खो जाते है। तन-मन को प्रफुल्लित करने वाला ये पर्व हमारे जीवन में हजारों खुशियाँ प्रदान करते है। त्योहार जीवन को प्रेम, बन्धुत्व और शुद्धता से जीने की सीख देता है। मन और चित को शांति प्रदान करता है और हमारे अन्दर की बुराइयों को अन्तर्मन से बाहर निकाल कर अच्छाइयों को ग्रहण करने की ताकत प्रदान करता है।


बाल मुकुन्द ओझा
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार
डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर
मो.- 8949519406

“भाषणों से नहीं, हकीकत से बचेगा स्वदेशी”

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−भूपेन्द्र शर्मा सोनू

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 75वें जन्मदिन पर मध्य प्रदेश के बदनावर तहसील के भैंसोला गांव में पीएम मित्र पार्क की आधारशिला रखते हुए यह संदेश दिया कि “स्वदेशी ही खरीदो, स्वदेशी ही बेचो”। यह नारा सुनने में जितना आकर्षक लगता है, उतना ही व्यवहार में कठिन भी है। वजह साफ है कि आज भारत का बाजार विदेशी कंपनियों से भरा पड़ा है। चाहे ऑनलाइन व्यापार हो या दूरसंचार सेवा, विदेशी और निजी कंपनियों ने उपभोक्ता को सस्ती दरों, आकर्षक छूट और बेहतर सुविधाओं का आदी बना दिया है। ऐसे में केवल स्वदेशी खरीदने का मतलब आम आदमी के लिए अपनी जेब पर अतिरिक्त बोझ डालना है। बीएसएनएल की स्थिति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कभी देश की शान रही यह स्वदेशी दूरसंचार कंपनी आज अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में है। जबकि जियो और एयरटेल जैसी कंपनियां न सिर्फ आधुनिक सेवाएं दे रही हैं, बल्कि भारी मुनाफा भी कमा रही हैं। उपभोक्ता भी जानता है कि बीएसएनएल का नेटवर्क कमजोर है, सेवाएं धीमी हैं और सुविधाएं सीमित। अब ऐसे में वह केवल स्वदेशी के नाम पर खराब सेवा क्यों खरीदे? यही समस्या लगभग हर क्षेत्र में दिखती है।ऑनलाइन बाजार में अमेज़न, मीशो और फ्लिपकार्ट जैसी विदेशी कंपनियों का बोलबाला है। वे ग्राहक को आकर्षक छूट, कैशबैक और सुविधाजनक डिलीवरी का लालच देती हैं। वहीं स्थानीय दुकानदार या स्वदेशी कंपनियां इतनी सुविधा नहीं दे पातीं। नतीजा यह होता है कि उपभोक्ता अपनी जेब और सुविधा को देखकर विदेशी कंपनियों की ओर खिंच जाता है। आखिर जब वही सामान विदेशी मंचों से सस्ता और आसानी से मिल रहा हो तो कोई क्यों महंगा स्वदेशी खरीदे? यही कारण है कि मोदी जी का नारा व्यवहार में मुश्किल साबित होता है। फिर भी यह बात भी उतनी ही सही है कि स्वदेशी के बिना आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना अधूरी है। यदि हम अपने देश के उद्योग, रोजगार और पूंजी को मजबूत करना चाहते हैं तो स्वदेशी को बढ़ावा देना ही होगा, लेकिन इसके लिए केवल भाषण और नारे काफी नहीं हैं। सरकार को विदेशी कंपनियों की मनमानी पर अंकुश लगाना होगा। स्वदेशी कंपनियों को आधुनिक तकनीक और वित्तीय सहयोग देना होगा, छोटे व्यापारियों को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने होंगे और उपभोक्ताओं को यह भरोसा दिलाना होगा कि स्वदेशी भी गुणवत्ता और कीमत के मामले में किसी से कम नहीं। असल चुनौती यही है कि उपभोक्ता को विकल्प देते समय उसकी जेब और सुविधा का ध्यान रखा जाए। यदि स्वदेशी सामान महंगा और साधारण गुणवत्ता वाला होगा तो वह विदेशी विकल्पों के आगे टिक नहीं पाएगा, लेकिन यदि स्वदेशी उत्पाद गुणवत्ता में बेहतर और कीमत में प्रतिस्पर्धी होंगे‌। तभी “स्वदेशी खरीदो, स्वदेशी बेचो” का सपना साकार होगा। इसलिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस आह्वान को केवल भावनात्मक नारा न समझकर, इसे व्यवहारिक बनाने के लिए ठोस नीति बनाई जाए। स्वदेशी कंपनियों को सहारा मिले, विदेशी कंपनियों की छूट और प्रभुत्व पर नियंत्रण हो और आम आदमी के लिए स्वदेशी चुनना बोझ नहीं, बल्कि गर्व और लाभ का सौदा बने। तभी यह नारा जन-आंदोलन का रूप ले सकेगा और आत्मनिर्भर भारत की राह मजबूत होगी।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू (स्वतंत्र पत्रकार)

माओवादी का शांति प्रस्ताव,रणनीति या हताशा

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अशोक मध़ुप


हाल ही में, झारखंड में माओवादी संगठन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने एक शांति प्रस्ताव जारी कर केंद्र और राज्य सरकारों को चौंका दिया है। इस प्रस्ताव में उन्होंने एक महीने के लिए संघर्ष विराम और शांति वार्ता की मांग की है। यह पहली बार नहीं है कि माओवादियों ने शांति की बात की है, लेकिन जिस समय यह प्रस्ताव आया है, वह इसके पीछे के निहितार्थों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। यह प्रस्ताव ऐसे समय में आया है जब झारखंड सहित पूरे देश में सुरक्षाबलों द्वारा चलाए जा रहे आक्रामक अभियानों में माओवादियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा

माओवादियों का शांति प्रस्ताव दो पृष्ठों का एक पत्र है, जिसे उनके केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय द्वारा जारी किया गया है। इस पत्र में उन्होंने सरकार से एक महीने के लिए संघर्ष विराम घोषित करने, तलाशी अभियान बंद करने और शांति वार्ता के लिए एक अनुकूल माहौल बनाने की अपील की है। उन्होंने यह भी कहा है कि वे वीडियो कॉल के माध्यम से भी सरकार से बात करने को तैयार हैं।
इस प्रस्ताव के पीछे के कारणों को लेकर कई अटकलें लगाई जा रही हैं। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि माओवादी लगातार हो रही मुठभेड़ों से बुरी तरह से घिर गए हैं। पिछले कुछ महीनों में, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सुरक्षाबलों को बड़ी सफलताएं मिली हैं। करोड़ों रुपये का इनामी कई शीर्ष माओवादी कमांडर मुठभेड़ों में मारे गए हैं।
झारखंड के हजारीबाग में सुरक्षाबलों ने एक करोड़ रुपये के इनामी माओवादी कमांडर सहदेव सोरेन और दो अन्य नक्सलियों को मार गिराया है। यह एक बड़ी सफलता है क्योंकि सहदेव सोरेन बिहार-झारखंड के विशेष क्षेत्र समिति का सदस्य था। इसी तरह, छत्तीसगढ़ में भी सुरक्षाबलों ने एक करोड़ के इनामी मोडेम बालकृष्ण सहित कई नक्सलियों को ढेर किया है। ये ऑपरेशन सरकार द्वारा 2026 तक देश को नक्सल मुक्त बनाने के लक्ष्य का हिस्सा हैं।
लगातार मुठभेड़ों और शीर्ष कमांडरों के मारे जाने से माओवादी संगठन की कमर टूट रही है। उनके कैडर हताश हो रहे हैं और नए लड़ाकों की भर्ती भी मुश्किल हो रही है। उनके हथियार और गोला-बारूद भी लगातार जब्त हो रहे हैं। ऐसे में, यह शांति प्रस्ताव उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ताकि वे कुछ समय के लिए राहत पा सकें। अपने बिखरे हुए कैडरों को फिर से संगठित कर सकें और अपनी ताकत को फिर से बढ़ा सकें।

यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या माओवादी लगातार हो रही मुठभेड़ों से डर गए हैं। इसका सीधा जवाब देना मुश्किल है, लेकिन कई संकेत इस ओर इशारा करते हैं।
माओवादी आंदोलन का नेतृत्व आमतौर पर बेहद अनुभवी और कट्टर कैडरों के हाथ में होता है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में, सुरक्षाबलों ने लक्षित अभियानों के माध्यम से उनके शीर्ष नेतृत्व को निशाना बनाया है। जब संगठन के रणनीतिकार और कमांडर मारे जाते हैं, तो निचले स्तर के कैडर हताश हो जाते हैं और उनका मनोबल गिर जाता है। सरकार की विकास नीतियों और पुनर्वास कार्यक्रमों के कारण माओवादियों का जन समर्थन भी कम हुआ है। पहले, उन्हें आदिवासी समुदायों से काफी समर्थन मिलता था, लेकिन अब कई आदिवासी समुदाय मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं। सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें, स्कूल, अस्पताल और संचार सेवाएं पहुंचाई हैं, जिससे लोगों का माओवादियों पर भरोसा कम हुआ है। सुरक्षाबलों ने माओवादियों के खिलाफ अपनी रणनीति में काफी सुधार किया है। अब वे केवल जवाबी कार्रवाई नहीं करते, बल्कि खुफिया जानकारी के आधार पर लक्षित और आक्रामक अभियान चलाते हैं। ड्रोन, बेहतर संचार तकनीक और स्थानीय पुलिस के साथ तालमेल ने सुरक्षाबलों को माओवादियों पर भारी पड़ने में मदद की है।
यह भी संभव है कि माओवादी अपनी पारंपरिक युद्ध रणनीति, जिसे “गुरिल्ला युद्ध” कहा जाता है, में बदलाव लाना चाहते हों। जब वे सीधे टकराव में हार रहे हैं, तो वे वार्ता की मेज पर आकर अपनी शर्तों को मनवाने की कोशिश कर सकते हैं।

माओवादियों के शांति प्रस्ताव पर सरकार का रुख सतर्क और स्पष्ट है। सरकार ने उनकी सशर्त पेशकश को नकार दिया है और कहा है कि अगर माओवादी बिना शर्त शांति वार्ता चाहते हैं, तो सरकार तैयार है। गृह मंत्री अमित शाह ने बार-बार कहा है कि सरकार का लक्ष्य 2026 तक देश को नक्सल मुक्त बनाना है, और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए अभियान जारी रहेगा।सरकार की सशर्त पेशकश को नकारने का कारण यह है कि माओवादियों ने पहले भी शांति प्रस्ताव का उपयोग अपनी ताकत को फिर से संगठित करने के लिए किया है। सरकार जानती है कि अगर वे तलाशी अभियान बंद करते हैं, तो माओवादियों को फिर से पैर जमाने का मौका मिलेगा। इसलिए, सरकार का रुख स्पष्ट है: या तो आत्मसमर्पण करो या फिर परिणाम भुगतो।
यह शांति प्रस्ताव माओवादी आंदोलन के अंत की शुरुआत का संकेत हो सकता है। लगातार हो रहे नुकसान, जन समर्थन की कमी और सरकार की सख्त नीतियों ने उन्हें एक ऐसे मोड़ पर ला दिया है, जहां उनके पास बहुत कम विकल्प बचे हैं। अब, उन्हें यह तय करना है कि वे बंदूकें छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होते हैं या फिर अपने खात्मे की राह पर आगे बढ़ते हैं।
यह भी संभव है कि माओवादी संगठन के अंदर ही अलग-अलग गुटों में मतभेद हों। कुछ गुट शांति वार्ता के पक्ष में हों, जबकि कुछ गुट अभी भी सशस्त्र संघर्ष जारी रखना चाहते हों। इस तरह के मतभेद संगठन की आंतरिक कमजोरी को दर्शाते हैं।
झारखंड के माओवादियों का शांति प्रस्ताव उनकी मजबूरी और हताशा का परिणाम प्रतीत होता है। लगातार हो रही मुठभेड़ों और शीर्ष कमांडरों के मारे जाने से उनका संगठन कमजोर हुआ है और उनके पास संघर्ष को जारी रखने के लिए पर्याप्त ताकत नहीं बची है। सरकार का सख्त रुख और पुनर्वास की नीतियां उन्हें आत्मसमर्पण करने या बातचीत के लिए मजबूर कर रही हैं। हालांकि, यह देखना बाकी है कि यह प्रस्ताव वास्तव में शांति की दिशा में एक कदम है या केवल एक रणनीतिक चाल। लेकिन एक बात निश्चित है कि माओवादी आंदोलन अपने सबसे कमजोर दौर से गुजर रहा है, और यह संभवतः भारत में वामपंथी उग्रवाद के अंत की शुरुआत है।
हाल ही में, एक वरिष्ठ माओवादी महिला लीडर पद्मावती उर्फ सुजाता उर्फ कल्पना ने तेलंगाना पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। सुजाता माओवादी पार्टी की केंद्रीय समिति की एकमात्र महिला सदस्य थी और उस पर 65 लाख से एक करोड़ रुपये तक का इनाम घोषित था। वह छत्तीसगढ़ में दंडकारण्य क्षेत्र की प्रभारी थी और उसके खिलाफ 70 से अधिक मामले दर्ज थे। उसका आत्मसमर्पण माओवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है।

अशोक मधुप

वरिष्ठ पत्रकार

टिटहरी: प्रकृति की मौन चेतावनी

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“जहाँ विज्ञान चूक जाता है, वहाँ टिटहरी पहले चेताती है”

टिटहरी कोई साधारण पक्षी नहीं, बल्कि प्रकृति का मौन प्रहरी है। किसान उसके अंडों की संख्या, स्थान और समय देखकर बारिश, बाढ़ या अकाल का अनुमान लगाते रहे हैं। विज्ञान भी मानता है कि ऐसे पक्षी “इकोसिस्टम इंडिकेटर” होते हैं, जो पर्यावरणीय बदलावों का पहले से संकेत दे देते हैं। आज शहरीकरण और रसायनों के प्रयोग से इनका आवास खतरे में है। यदि हम टिटहरी जैसे पक्षियों की चेतावनी अनसुनी कर देंगे, तो भविष्य में आपदाओं के प्रति हमारी संवेदनशीलता और भी घट जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि हम इन्हें बचाएँ और इनके संदेश को गंभीरता से सुनें।

– डॉ सत्यवान सौरभ

भारत का ग्रामीण जीवन सदियों से प्रकृति के साथ गहरे संवाद में रहा है। खेत, मौसम और जीव-जंतु मिलकर किसान की दिनचर्या और भविष्य दोनों को प्रभावित करते हैं। इन सबके बीच टिटहरी एक ऐसा छोटा-सा पक्षी है, जो सामान्य आँखों से मामूली दिखता है, लेकिन किसानों और लोकजीवन की स्मृतियों में यह मौसम की सटीक भविष्यवाणी करने वाला प्रहरी माना जाता है। यह केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि धरती और आकाश के बीच संवाद का माध्यम है, एक मौन दूत है जो संकट और समृद्धि दोनों की आहट पहले ही दे देता है।

ग्रामीण अनुभव बताते हैं कि टिटहरी का व्यवहार मौसम और कृषि की दिशा तय करने में अहम संकेत देता है। यदि वह चार अंडे देती है तो चार महीने अच्छी वर्षा होने का विश्वास किया जाता है। जब वह ऊँचाई पर अंडे देती है, तो लोग मानते हैं कि सामान्य से अधिक वर्षा होगी। यदि कभी वह मजबूरी में छत या पेड़ पर अंडे दे, तो यह भीषण बाढ़ का संकेत माना जाता है। वहीं, यदि वह अंडे न दे तो यह सबसे डरावनी स्थिति होती है, क्योंकि लोग इसे अकाल का दूत मानते हैं। किसान कहते हैं कि जिस खेत में टिटहरी अंडे देती है, वह खेत खाली नहीं रहता। वहाँ फसल ज़रूर होती है। इस तरह यह पक्षी न केवल वर्षा और मौसम से जुड़े संकेत देता है बल्कि उपजाऊपन और अकाल जैसी चरम स्थितियों की चेतावनी भी बन जाता है।

लोकजीवन में एक और मान्यता है कि टिटहरी का मृत शरीर कुरुक्षेत्र के अलावा कहीं दिखाई नहीं देता। चाहे यह तथ्य हो या प्रतीकात्मक कल्पना, लेकिन यह विश्वास उसे जीवन और अस्तित्व की रक्षा का प्रतीक बना देता है। टिटहरी को देखने वाला किसान समझ जाता है कि यह पक्षी उसकी मिट्टी, फसल और भविष्य का पहरेदार है। यही कारण है कि ग्रामीण लोकगीतों और कहावतों में भी टिटहरी का उल्लेख मिलता है। यह उन जीवों में से है जिनकी गतिविधियों पर पीढ़ियाँ भरोसा करती रही हैं।

अब सवाल उठता है कि जब विज्ञान मौसम की भविष्यवाणी के लिए उपग्रह, राडार और कंप्यूटर मॉडल जैसे अत्याधुनिक साधन लेकर आया है, तब टिटहरी जैसे पक्षियों की भूमिका क्या रह जाती है। वास्तव में इसका उत्तर यही है कि विज्ञान और लोकअनुभव एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो टिटहरी जैसे पक्षी पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। हवा की नमी, तापमान का उतार-चढ़ाव, भूमि की नमी, जल स्तर का बढ़ना या घटना – इन सबका असर उनके व्यवहार पर पड़ता है। यही कारण है कि वैज्ञानिक भाषा में इन्हें “इकोसिस्टम इंडिकेटर” कहा जाता है। यानी ऐसे जीव जो अपने आचरण के माध्यम से हमें पर्यावरणीय बदलावों की समय रहते जानकारी दे देते हैं।

हमारे पूर्वजों ने विज्ञान के औज़ारों का सहारा लिए बिना ही इन संकेतों को अनुभव के आधार पर समझा और उनका लाभ उठाया। सदियों से किसान टिटहरी की गतिविधियों पर नज़र रखते आए हैं। अगर वह अंडे देने का समय टाल दे तो किसान पहले से ही सतर्क हो जाते थे। यदि वह ज़मीन छोड़कर ऊँचाई पर चली जाए, तो वे अधिक वर्षा और संभावित जलभराव को लेकर चौकन्ने हो जाते थे। इस प्रकार लोकानुभव ने जो बातें कही हैं, वे वास्तव में वैज्ञानिक कारणों से जुड़ी हुई हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि किसानों ने इन्हें अपनी भाषा और प्रतीकों में व्यक्त किया।

आज जब हम शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की चमक में डूबे हैं, तब सबसे बड़ा संकट यही है कि हमने प्रकृति की इस मौन भाषा को सुनना लगभग छोड़ दिया है। शहरों में रहने वाला इंसान यह नहीं जानता कि कब कोई पक्षी अपनी आदत बदल रहा है, कब उसकी संख्या घट रही है या कब उसका स्वर बदल रहा है। यही लापरवाही हमें अचानक आने वाली आपदाओं के सामने असहाय बना देती है। यदि हम टिटहरी और अन्य पक्षियों के संदेशों को गंभीरता से लें तो आपदा प्रबंधन की हमारी क्षमता कई गुना बढ़ सकती है।

टिटहरी के बारे में यह भी कहा जाता है कि यह पक्षी खेत को कभी खाली नहीं छोड़ता। उसका वहाँ अंडे देना किसानों के लिए आश्वासन का प्रतीक है। यह विश्वास अपने आप में गहरा संदेश है कि प्रकृति मनुष्य को निराश नहीं करती, बशर्ते हम उसका सम्मान करें। लेकिन जब हम प्रकृति के नियम तोड़ते हैं, उसके साथ छेड़छाड़ करते हैं, तब उसके प्रहरी पक्षी भी अपने संकेत बदलने को मजबूर हो जाते हैं। यही वजह है कि कई बार बाढ़ या अकाल जैसी स्थिति का पूर्वाभास हमें टिटहरी के व्यवहार से पहले ही मिल जाता है।

इस पक्षी का महत्व केवल ग्रामीण जीवन तक सीमित नहीं है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन का हर रूप पर्यावरण के विशाल ताने-बाने से जुड़ा है। जब एक छोटा-सा पक्षी अपने अंडों के ज़रिए भविष्य की तस्वीर दिखा सकता है, तब यह हमारे लिए चेतावनी भी है कि हम इस तंत्र के साथ खिलवाड़ न करें। विज्ञान भी यही कहता है कि पर्यावरण में सूक्ष्मतम बदलाव का सबसे पहले असर पक्षियों और छोटे जीवों पर दिखाई देता है। यदि हम समय रहते उन्हें सुन लें, तो बड़ी त्रासदियों से बच सकते हैं।

संपादकीय दृष्टि से यह कहना उचित है कि टिटहरी कोई साधारण पक्षी नहीं है। यह हमें यह समझाती है कि ज्ञान केवल प्रयोगशालाओं और उपग्रहों से नहीं आता, बल्कि खेत-खलिहानों और जीव-जंतुओं के आचरण से भी आता है। आधुनिक विज्ञान जहाँ आँकड़ों और तकनीक पर आधारित है, वहीं टिटहरी सहज संवेदना और प्राकृतिक जुड़ाव पर आधारित चेतावनी देती है। दोनों के बीच पुल बनाना ही आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

आज की स्थिति में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न संरक्षण का है। यदि टिटहरी जैसे पक्षी हमारे बीच से लुप्त हो जाएँगे तो न केवल लोकविश्वास टूट जाएगा, बल्कि पर्यावरणीय चेतावनी प्रणाली का एक अहम हिस्सा भी खो जाएगा। इसके संरक्षण के लिए हमें खेतों में अत्यधिक कीटनाशकों का उपयोग कम करना होगा, प्राकृतिक आवासों को सुरक्षित रखना होगा और जलस्रोतों को बचाना होगा। यह केवल एक पक्षी का संरक्षण नहीं होगा, बल्कि अपने भविष्य और अस्तित्व की रक्षा भी होगी।

निष्कर्ष यही है कि जहाँ विज्ञान आँकड़ों और मशीनों पर भरोसा करता है, वहीं टिटहरी जैसी पक्षियाँ सहज चेतावनी देती हैं। विज्ञान देर से अलर्ट करता है, लेकिन टिटहरी पहले से सावधान कर देती है। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि हम इस मौन संवाद को सुनें और उसके अनुसार कदम उठाएँ। यदि हमने इस आवाज़ को नज़रअंदाज़ किया, तो आने वाले समय में न केवल टिटहरी गायब हो जाएगी, बल्कि उसका दिया हुआ संदेश भी हमारे जीवन से खो जाएगा।

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

भारत कोई बांग्लादेश-नेपाल नहीं है

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−भूपेन्द्र शर्मा सोनू

आजकल दुनिया भर में राजनीति बड़ी अजीब राह पकड़ रही है। कभी बांग्लादेश से तख्तापलट की खबर आती है, कभी नेपाल में उथल-पुथल की। अब ऐसे में कई लोग सोचते हैं कि कहीं भारत में भी वैसा हाल न हो जाए। कुछ तो यहां तक उम्मीद लगाए बैठे हैं कि काश हमारे यहां भी सत्ता छीनने का खेल शुरू हो जाए, लेकिन उन्हें साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि भारत कोई कमजोर मुल्क नहीं है।

भारत का लोकतंत्र सिर्फ किताबों और भाषणों में नहीं, बल्कि आम जनता की सांसों में बसा है। यहां हर आदमी जानता है कि उसका वोट ही असली ताक़त है। आज देश की बागडोर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे मज़बूत नेता के हाथ में है। चाहे कोई पसंद करे या न करे, लेकिन यह सच्चाई है कि मोदी जी ने भारत को एक अलग पहचान दी है। दुश्मन देश भी मानते हैं कि अब भारत पहले से कहीं ज्यादा ताक़तवर और चौकस है। हमारी सेना हमेशा सजग रहती है और जनता देशभक्ति से भरी पड़ी है।अब सवाल यह है कि जब इतना सब मज़बूत आधार मौजूद है तो यहां तख्तापलट की गुंजाइश ही कहां बचती है? हां, राजनीति में गन्दे खेल खूब होते हैं। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, तो कभी भाषा के नाम पर लोग बांटने की कोशिश करते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में कुछ चेहरे ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ कुर्सी की फिक्र है, देश की नहीं। लेकिन देश अगर सिर्फ कुर्सी की राजनीति में फंसकर रह जाए तो तरक्की का सपना अधूरा रह जाएगा। आज पंजाब समेत कई हिस्से बाढ़ की मार झेल रहे हैं। खेत डूब गए, फसलें बर्बाद हो गईं, गरीबों के घर उजड़ गए। ऐसे वक्त में नेताओं को राजनीति छोड़कर जनता के साथ खड़ा होना चाहिए। सत्ता और विपक्ष दोनों को मिलकर राहत का काम करना चाहिए। अगर इस मौके पर भी सिर्फ बयानबाज़ी होगी तो जनता का भरोसा उठ जाएगा।भारत का लोकतंत्र वोट की ताक़त से चलता है, गोली-बारूद से नहीं। यहां जनता जब चाहे तो सरकार बदल देती है। यही लोकतंत्र की असली ताक़त है। कोई सोचता है कि यहां तख्तापलट होगा तो वो भूल जाए। यहां जनता ही असली मालिक है और वही तय करती है कि कौन राज करेगा और कौन बाहर जाएगा। हमारी सेना दुनिया की सबसे मज़बूत सेनाओं में गिनी जाती है। हमारे जवान चौबीसों घंटे सीमा पर तैनात रहते हैं। अगर कोई साज़िश भी होती है तो जनता और सेना मिलकर उसे धूल चटा देती है। यही फर्क है भारत और हमारे पड़ोसी मुल्कों में। जहां वहां अस्थिरता हावी रहती है, वहीं भारत एकता और लोकतंत्र से मज़बूत खड़ा है। अब जब हम “विकसित भारत” का नारा लगाते हैं तो इसका मतलब यही होना चाहिए कि हम राजनीति के छोटे-मोटे झगड़ों से ऊपर उठकर देश की तरक्की में लगें। बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की दिक्कतें और आपदाओं से निपटने में अगर हर पार्टी और हर नागरिक मिलकर काम करेगा, तभी भारत सच्चे मायनों में आगे बढ़ पाएगा। भारत की असली पहचान उसकी एकता है। धर्म, जाति, भाषा चाहे कितनी भी अलग हों, लेकिन जब बात देश की आती है तो हर भारतीय एक साथ खड़ा हो जाता है। यही वजह है कि यहां तख्तापलट जैसी हरकतों का कोई सवाल ही नहीं उठता।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू (स्वतंत्र पत्रकार)

“प्रसवोत्तर देखभाल: माँ का साथ सास से ज्यादा कारगर”

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“प्रसवोत्तर देखभाल: माँ का साथ सास से ज्यादा कारगर”

“माँ की गोद में मिलती सुरक्षा, सास की भूमिका पर उठे सवाल”

अध्ययन बताते हैं कि प्रसव के बाद महिलाओं की देखभाल करने में सास की तुलना में उनकी अपनी माँ कहीं अधिक सक्रिय और संवेदनशील रहती हैं। लगभग 70 प्रतिशत प्रसूताओं को नानी से बेहतर सहयोग मिला, जबकि मात्र 16 प्रतिशत को सास से सहायता मिली। यह बदलाव संयुक्त परिवारों के टूटने और आधुनिक सोच का परिणाम है। नानी का भावनात्मक जुड़ाव और मातृत्व का अनुभव बेटी के लिए सहारा बनता है। हालांकि सास की भूमिका कमजोर पड़ना पारिवारिक संतुलन के लिए चुनौती है। ज़रूरी है कि माँ और सास दोनों मिलकर जिम्मेदारी निभाएँ।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

भारतीय समाज में परिवार की भूमिका जीवन के हर पड़ाव पर महत्वपूर्ण होती है। जब घर में नया जीवन जन्म लेता है, तब यह जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।  प्रसव एक ऐसा समय है जब महिला शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर होती है। उसे सिर्फ चिकित्सकीय सहायता ही नहीं, बल्कि गहरे स्तर पर देखभाल, सहारा और संवेदनशीलता की ज़रूरत होती है। परंपरागत रूप से यह जिम्मेदारी संयुक्त परिवारों में सास की मानी जाती थी, लेकिन बदलते दौर और सामाजिक संरचना के कारण यह भूमिका अब धीरे-धीरे माँ यानी नानी की ओर स्थानांतरित हो रही है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि प्रसव के बाद महिलाओं को अपनी सास की तुलना में अपनी माँ से कहीं अधिक देखभाल और सहयोग मिलता है।

यह तथ्य कई स्तरों पर सोचने को मजबूर करता है। एक ओर यह माँ और बेटी के रिश्ते की गहराई और भावनात्मक मजबूती को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर यह सवाल भी उठाता है कि सास जैसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिला इस प्रक्रिया में पीछे क्यों रह गई है। अध्ययन में पाया गया कि प्रसवोत्तर देखभाल में लगभग 70 प्रतिशत महिलाओं को उनकी अपनी माँ से सहयोग मिला, जबकि मात्र 16 प्रतिशत महिलाओं की देखभाल उनकी सास ने की। यह आँकड़ा अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।

बेटी और माँ का रिश्ता हमेशा से भरोसे और आत्मीयता पर आधारित रहा है। प्रसव के बाद महिला अपने जीवन के सबसे नाजुक दौर से गुजरती है। उसका शरीर थका हुआ और कमजोर होता है, मानसिक रूप से वह असुरक्षा और चिंता का सामना करती है। ऐसे समय में वह सबसे पहले अपनी माँ के पास सहजता से जाती है। माँ न केवल उसकी तकलीफ को तुरंत समझती है बल्कि धैर्य और प्यार से उसका मनोबल भी बढ़ाती है। हर माँ ने मातृत्व का अनुभव किया होता है, इसलिए उसे पता होता है कि उसकी बेटी किन शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं से गुजर रही है। यही वजह है कि बेटी अपनी असली माँ की देखभाल को सबसे भरोसेमंद मानती है।

इसके विपरीत सास-बहू का रिश्ता भारतीय समाज में अक्सर औपचारिकताओं और अपेक्षाओं से घिरा होता है। बहू अपनी सास के सामने उतनी सहजता महसूस नहीं कर पाती। कई बार पीढ़ियों का अंतर भी इस दूरी को और बढ़ा देता है। सास का सोचने का तरीका पुराने अनुभवों पर आधारित होता है, जबकि आज की पीढ़ी की महिलाएँ आधुनिक चिकित्सा और नई जानकारी पर अधिक भरोसा करती हैं। जब बहू को लगे कि उसकी ज़रूरतों को पूरी तरह समझा नहीं जा रहा है, तो वह अपनी माँ की ओर झुक जाती है। यही वजह है कि प्रसव के समय सास की तुलना में नानी की भूमिका अधिक अहम दिखाई देती है।

इस बदलाव के पीछे एक और बड़ा कारण है संयुक्त परिवारों का टूटना और एकल परिवारों का बढ़ना। पहले प्रसव के समय बहू अपने ससुराल में ही रहती थी और पूरे परिवार की महिलाएँ उसकी देखभाल करती थीं। सास इस देखभाल की मुख्य जिम्मेदार मानी जाती थी। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। अधिकतर बेटियाँ प्रसव के समय मायके चली जाती हैं। वहाँ नानी स्वाभाविक रूप से जिम्मेदारी संभाल लेती है। यह प्रथा समाज में इतनी गहराई से जड़ पकड़ चुकी है कि अब यह लगभग सामान्य मान ली जाती है।

यह बदलाव कई दृष्टियों से सकारात्मक भी है। प्रसव के बाद महिला को भावनात्मक सुरक्षा मिलना बहुत ज़रूरी है। जब उसके पास उसकी अपनी माँ होती है, तो उसे मानसिक सुकून मिलता है। कई शोध बताते हैं कि प्रसवोत्तर अवसाद का खतरा उन महिलाओं में कम होता है जिन्हें अपनी माँ से पर्याप्त सहयोग मिलता है। नानी के अनुभव का लाभ शिशु को भी मिलता है। शिशु को समय पर स्तनपान कराना, उसकी सफाई और टीकाकरण जैसे छोटे-छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कामों में नानी की भूमिका बहुत कारगर साबित होती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रवृत्ति माँ और शिशु दोनों के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।

लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। जब सास की भूमिका कमजोर पड़ती है तो परिवारिक संतुलन प्रभावित होता है। बहू और सास के रिश्ते में दूरी और बढ़ सकती है। यह दूरी सिर्फ देखभाल तक सीमित नहीं रहती बल्कि परिवार की सामंजस्यपूर्ण संस्कृति पर भी असर डाल सकती है। आखिरकार सास भी खुद कभी इस प्रक्रिया से गुज़री होती है और उसके अनुभव की अहमियत को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। अगर उसका अनुभव और स्नेह इस प्रक्रिया में शामिल न हो, तो यह न केवल उसके लिए निराशाजनक होता है बल्कि बहू और शिशु दोनों उस सहयोग से वंचित रह जाते हैं जो उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा दे सकता है।

यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि प्रसवोत्तर देखभाल किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है। यह पूरे परिवार की सामूहिक जिम्मेदारी है। अगर माँ और सास दोनों मिलकर इस दायित्व को निभाएँ, तो महिला को दोगुना सहयोग मिलेगा। यह स्थिति न केवल प्रसूता महिला के लिए बेहतर होगी बल्कि शिशु के लिए भी अधिक लाभकारी होगी। इसके अलावा, परिवार के भीतर रिश्तों की मिठास और विश्वास भी बढ़ेगा।

समाज को भी यह समझना होगा कि प्रसव जैसे समय में महिला को सिर्फ शारीरिक मदद ही नहीं बल्कि मानसिक सहारा और भावनात्मक सहयोग भी चाहिए। अगर महिला को लगे कि उसकी सास भी उसके दर्द और ज़रूरतों को समझती है, तो उसका आत्मविश्वास और बढ़ेगा। इसी तरह, अगर सास-बहू के बीच संवाद और विश्वास का रिश्ता मजबूत हो, तो देखभाल का संतुलन अपने आप स्थापित हो जाएगा।

आज जब स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारी योजनाओं की पहुँच बढ़ रही है, तब परिवार की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। अस्पताल और डॉक्टर अपना काम कर सकते हैं, लेकिन प्रसवोत्तर देखभाल का असली दायित्व घर और परिवार पर ही रहता है। परिवार के भीतर यह जिम्मेदारी अगर संतुलित ढंग से बाँटी जाए तो इसका लाभ सीधा माँ और शिशु दोनों को मिलेगा।

इसलिए यह आवश्यक है कि इस विषय पर जागरूकता बढ़ाई जाए। परिवारों को समझाया जाए कि प्रसवोत्तर देखभाल किसी प्रतिस्पर्धा का विषय नहीं है—यह माँ बनाम सास की लड़ाई नहीं है। बल्कि यह माँ और सास दोनों का संयुक्त दायित्व है। दोनों का अनुभव और स्नेह मिलकर प्रसूता महिला को वह सुरक्षा प्रदान कर सकता है, जिसकी उसे सबसे अधिक आवश्यकता होती है।

“सास से ज्यादा माँ की देखभाल बेहतर” यह शीर्षक समाज में एक बदलते रुझान का दर्पण है। यह रुझान बताता है कि प्रसव जैसे संवेदनशील समय में महिला अपनी असली माँ को ज़्यादा भरोसेमंद और सहयोगी मानती है। लेकिन आदर्श स्थिति वही होगी जब सास और माँ दोनों मिलकर यह जिम्मेदारी निभाएँ। यह न केवल प्रसूता महिला के स्वास्थ्य और मानसिक शांति के लिए अच्छा होगा, बल्कि शिशु की परवरिश और परिवारिक रिश्तों के सामंजस्य के लिए भी लाभकारी सिद्ध होगा। आखिरकार, स्वस्थ माँ और स्वस्थ शिशु ही स्वस्थ समाज की नींव रखते हैं।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर , स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण : भारत की बौद्धिक अस्मिता का संकल्प

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“डिजिटलीकरण से सुरक्षित होगी धरोहर, रुकेगी बौद्धिक चोरी, और खुलेगा राष्ट्रीय पुनर्जागरण का मार्ग”

भारत की प्राचीन पांडुलिपियाँ केवल कागज़ पर लिखे शब्द नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की आत्मा हैं। इनमें विज्ञान, चिकित्सा, दर्शन और कला का अनमोल खजाना है। उपेक्षा और उपनिवेशकाल की लूट ने इन्हें खतरे में डाल दिया। प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान कि पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, समयानुकूल है। डिजिटलीकरण से संरक्षण, शोध और वैश्विक स्तर पर भारत की बौद्धिक अस्मिता सुनिश्चित होगी। यह केवल सांस्कृतिक परियोजना नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभियान है।

– डॉ सत्यवान सौरभ

भारत एक ऐसा देश है जिसकी पहचान उसकी सभ्यता और सांस्कृतिक परंपरा से होती है। यहाँ हजारों वर्षों से ज्ञान की धारा निरंतर बहती रही है। वेदों और उपनिषदों से लेकर आयुर्वेद, गणित, खगोल, साहित्य और संगीत तक, हमारी पांडुलिपियों ने विश्व को वह दिया है जो आज भी अद्वितीय और अनुपम है। किंतु इस धरोहर को व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित करने और दुनिया तक पहुँचाने में हम बार-बार चूकते रहे। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हालिया कथन कि पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, अत्यंत प्रासंगिक और दूरदर्शी है। यह कथन केवल तकनीकी समाधान की ओर इशारा नहीं करता, बल्कि हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का संकल्प भी है।

भारतीय पांडुलिपियाँ केवल कागज़ या ताड़पत्र पर लिखे शब्द नहीं हैं। वे समाज की स्मृति हैं, परंपराओं की कहानी हैं और ज्ञान की धरोहर हैं। इनमें विज्ञान, चिकित्सा, खगोल, दर्शन और कला से लेकर जीवनशैली तक का संपूर्ण अनुभव सुरक्षित है। आयुर्वेद की पांडुलिपियों में आज भी ऐसी औषधियों और चिकित्सा विधियों का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रासंगिकता आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है। गणित और खगोल से संबंधित पांडुलिपियों में शून्य, दशमलव और ग्रह-नक्षत्रों की गति का इतना विस्तृत विवरण है कि पश्चिमी जगत ने उनसे प्रेरणा लेकर अपने वैज्ञानिक शोध को दिशा दी। संगीत और नृत्य की पांडुलिपियाँ हमारी कलात्मक परंपरा को जीवित रखने का आधार हैं।

दुर्भाग्य यह रहा कि इन पांडुलिपियों की रक्षा के मामले में हम लापरवाह साबित हुए। उपनिवेशकाल में अंग्रेज और अन्य यूरोपीय विद्वान यहाँ से अनगिनत ग्रंथ ले गए। उन्होंने उनका अध्ययन किया और कई बार उनके अनुवाद अपने नाम से प्रकाशित कर दिए। योग और ध्यान की पद्धतियाँ, जो भारत की आत्मा हैं, विदेशों में अलग रूप में प्रस्तुत की गईं और उनसे भारी व्यावसायिक लाभ उठाया गया। आयुर्वेदिक नुस्खों और औषधीय पौधों पर विदेशी पेटेंट दर्ज हुए। हल्दी और नीम जैसे सामान्य ज्ञान पर भी कंपनियों ने अपना अधिकार जताने का प्रयास किया। यह सब हमारे लिए चेतावनी है कि यदि हम अपने ज्ञान की रक्षा नहीं करेंगे, तो दुनिया उसे हड़प लेगी।

यही वह संदर्भ है जिसमें डिजिटलीकरण का महत्व बढ़ जाता है। जब कोई पांडुलिपि डिजिटल रूप में दर्ज होगी तो उसका स्रोत और स्वामित्व स्थायी रूप से भारत के नाम पर रहेगा। यह बौद्धिक चोरी को रोकने का सबसे प्रभावी साधन होगा। इसके अतिरिक्त, डिजिटलीकरण से पांडुलिपियाँ सुरक्षित रहेंगी। समय, नमी, कीड़े और तापमान परिवर्तन से कागज़ व ताड़पत्र पर लिखी पांडुलिपियाँ क्षरण का शिकार होती हैं। डिजिटलीकरण उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षित रखेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि डिजिटलीकृत सामग्री दुनिया भर के शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों को उपलब्ध होगी। भारत का ज्ञान केवल संग्रहालयों की अलमारियों में बंद न रहकर वैश्विक मंच पर जीवंत रूप में सामने आएगा।

यह कार्य आसान नहीं है। भारत में अनुमानतः पचास लाख से अधिक पांडुलिपियाँ हैं। वे अलग-अलग भाषाओं और लिपियों में लिखी गई हैं—संस्कृत, पाली, प्राकृत, तमिल, तेलुगु, मलयालम, उर्दू, अरबी, फ़ारसी और अन्य भाषाओं में। कई लिपियाँ अब प्रचलन से बाहर हैं। उन्हें पढ़ना, समझना और डिजिटलीकरण करना विशेषज्ञता की मांग करता है। प्रामाणिकता बनाए रखना भी चुनौती है। अनुवाद या डिजिटल स्कैनिंग के दौरान यदि त्रुटियाँ रह गईं तो मूल ज्ञान विकृत हो सकता है। इसके अतिरिक्त, इतने बड़े कार्य के लिए वित्तीय संसाधन, प्रशिक्षित विशेषज्ञ और आधुनिक तकनीक की भी भारी आवश्यकता होगी।

सरकार ने राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन जैसी पहल की है, जो सराहनीय कदम है। परंतु यह कार्य केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, निजी संगठनों और तकनीकी विशेषज्ञों को भी इसमें भागीदारी करनी होगी। आधुनिक तकनीक का पूरा उपयोग करना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकें न केवल डिजिटलीकरण को आसान बना सकती हैं, बल्कि डेटा की सुरक्षा और खोजने की प्रक्रिया को भी विश्वसनीय बना सकती हैं।

यहाँ हमें वैश्विक अनुभव से भी सीखना चाहिए। यूरोप में “Europeana” परियोजना के तहत लाखों दस्तावेज और कला कृतियाँ ऑनलाइन उपलब्ध कराई गईं। अमेरिका और जापान ने भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर का डिजिटलीकरण कर उसे वैश्विक स्तर पर साझा किया। इन प्रयासों ने उन देशों की बौद्धिक और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया। भारत यदि इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाता है, तो वह न केवल अपनी धरोहर को बचा सकेगा बल्कि विश्व को यह दिखा सकेगा कि ज्ञान की वास्तविक जन्मभूमि कहाँ है।

प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर भूपेन हजारिका का भी स्मरण किया। यह स्मरण केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि गहरी प्रतीकात्मकता रखता है। हजारिका ने अपने गीतों और संगीत के माध्यम से असम और भारत की आत्मा को स्वर दिया। उनकी रचनाएँ केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का स्रोत थीं। वे हमें यह बताते हैं कि संस्कृति जीवित रहे तो समाज जीवित रहता है। जिस प्रकार हजारिका की रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देंगी, उसी प्रकार पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण हमारी बौद्धिक स्मृतियों को अमर बनाएगा।

इस संदर्भ में यह भी समझना होगा कि डिजिटलीकरण केवल संरक्षण का कार्य नहीं है। यह राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभियान है। जब हम अपने ज्ञान को आधुनिक तकनीक से जोड़ेंगे, तब हम आत्मनिर्भर भारत के उस स्वप्न को साकार करेंगे, जिसमें परंपरा और नवाचार दोनों साथ चलते हैं। यह न केवल हमारी पहचान को सुदृढ़ करेगा बल्कि हमें वैश्विक मंच पर ज्ञान के वास्तविक स्वामी के रूप में स्थापित करेगा। यह ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की ओर भी बड़ा कदम होगा।

आज की दुनिया में प्रतिस्पर्धा केवल आर्थिक संसाधनों या सैन्य शक्ति की नहीं है। प्रतिस्पर्धा इस बात की भी है कि किसके पास अधिक मौलिक ज्ञान और बौद्धिक संपदा है। यदि भारत अपनी पांडुलिपियों को डिजिटलीकृत कर उनका पेटेंट और स्वामित्व सुरक्षित कर लेता है, तो वह बौद्धिक संपदा की इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अग्रणी बन सकता है। इसके अलावा, यह हमारी युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का भी साधन बनेगा। जो पीढ़ी आज इंटरनेट और मोबाइल की दुनिया में पल रही है, उसे तभी अपनी परंपरा से वास्तविक परिचय मिलेगा जब वह उसे डिजिटल रूप में देखेगी, पढ़ेगी और समझेगी।

पांडुलिपियाँ केवल अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शन हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि ज्ञान कभी स्थिर नहीं रहता। उसे समयानुकूल सुरक्षित, संरक्षित और साझा करना आवश्यक है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारी धरोहर केवल संग्रहालयों में बंद रह जाएगी और दुनिया उससे वंचित रह जाएगी। डिजिटलीकरण उस सेतु का काम करेगा जो अतीत की गहराई को भविष्य की संभावनाओं से जोड़ता है।

निस्संदेह, पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण एक लंबा और कठिन कार्य है। परंतु यह वही कार्य है जिससे हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और बौद्धिक स्वाभिमान जुड़ा हुआ है। यह केवल किताबों और कागज़ों को सुरक्षित रखने का प्रश्न नहीं है, बल्कि हमारी आत्मा और पहचान को बचाने का संकल्प है। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन कि डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, समय की पुकार है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार, समाज और तकनीकी विशेषज्ञ मिलकर इसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दें।

पांडुलिपियाँ हमारी स्मृति हैं। उनका डिजिटलीकरण हमें यह विश्वास दिलाता है कि भारत केवल अतीत की भूमि नहीं है, बल्कि भविष्य की दिशा भी है। जब हम अपने ज्ञान को संरक्षित करेंगे और उसे आधुनिक तकनीक से दुनिया तक पहुँचाएँगे, तब सचमुच भारत उस स्थान पर पहुँचेगा जहाँ वह सदियों से होना चाहिए था—ज्ञान का वैश्विक नेतृत्वकर्ता।