त्यौहारों की मिठास और मिलावट का सच: खुशियां या खतरा?

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भारत देश में त्यौहारों का मौसम हमेशा रौनक और रंगीनियों से भरा होता है। दशहरा से लेकर दीपावली तक, हर घर में खुशियों की मिठास बिखरती है। बाजारों में दुकानों की सजावट, झिलमिलाती रोशनियाँ और घर-घर में मिठाइयों की खुशबू, यही तो हैं हमारे त्यौहार की असली पहचान। बच्चे उत्साह से खिलखिलाते हैं, बड़े अपने रिश्तेदारों को याद करते हैं और पूरा समाज मिलकर इन पर्वों की तैयारी में जुट जाता है। यही हमारी संस्कृति की खूबसूरती है, जो हमें मिल जुलकर खुशियाँ बाँटना सिखाती है, लेकिन यही दृश्य जब थोड़ा करीब से देखें तो पीछे छुपा हुआ सच भी सामने आता है।

दशहरे और दीपावली जैसे बड़े पर्वों पर बाजारों में मिठाई और मावा तैयार करने वालों की लापरवाही और मिलावटखोरी का खेल भी जोर पकड़ लेता है। नकली मिठाई, मिलावटी मावा, रंग-रोगन से भरे गुड़ और तेल में डूबी हलवाई की दुकानें, ये सब सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं और इससे सीधे ग्राहक की सेहत खतरे में पड़ जाती है। ग्राहक की बेफिक्री और दुकानदार की लालच में ही यह बुरी आदत जन्म लेती है। वह मिठाई जो बच्चों की मुस्कान और रिश्तों की मिठास लाने के लिए बनती है, वही अब घातक मिलावट का माध्यम बन जाती है। नकली मावा, रसायनों से भरी लड्डू और ढीली चॉकलेट। ये केवल स्वास्थ्य के लिए खतरा नहीं, बल्कि हमारे त्यौहारों की असली पहचान को भी नुकसान पहुँचाते हैं। नकारात्मक पक्ष केवल दुकानदार और मिठाई तक ही सीमित नहीं है। खाद्य विभाग की लापरवाही और कानून की ढील भी इस समस्या को और बढ़ावा देती है। औपचारिक कार्यवाही अक्सर टालमटोल और दिखावे तक सीमित रहती है। ठेकेदारों और दुकानदारों को संरक्षण मिलना, जांच में ढिलाई और नियमों में लचीलापन, ये सब मिलकर भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। ग्राहक की शिकायतें अक्सर अनसुनी रह जाती हैं। परिणामस्वरूप त्यौहार की खुशी के साथ-साथ स्वास्थ्य का खतरा भी घर-घर पहुँचता है, लेकिन हर कहानी का एक सकारात्मक पहलू भी होता है। आजकल कई जागरूक ग्राहक और समाजसेवी संगठनों ने इस बुराई के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है। सोशल मीडिया पर नकली मिठाई, मिलावटखोरी और असुरक्षित खाद्य सामग्री की खबरें फैल रही हैं। लोग अब केवल मिठाई के स्वाद से संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि उसकी शुद्धता और गुणवत्ता के प्रति भी सजग हो रहे हैं। इसके अलावा कुछ छोटे और जिम्मेदार हलवाई ऐसे हैं जो पारंपरिक तरीकों और शुद्ध सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। इनकी मिठाई में सिर्फ स्वाद ही नहीं, बल्कि भरोसे और संस्कृति की मिठास भी मिलती है। ये व्यवसाय धीरे-धीरे ग्राहकों के विश्वास के कारण तरक्की कर रहे हैं। इस पहलू से देखा जाए तो समस्या के बावजूद उम्मीद की किरण भी दिखाई देती है।त्यौहारों का असली मकसद खुशियाँ बांटना, रिश्तों को मजबूत करना और संस्कृति को जीवित रखना है। यदि हम समाज के रूप में सचेत हो, दुकानदार जिम्मेदार हों और प्रशासन नियमों का पालन करें तो यह खतरा काफी हद तक कम किया जा सकता है। मिलावटखोरी और भ्रष्टाचार पर कड़ी नजर रखी जाए। औपचारिक कार्रवाई समय पर हो और ग्राहक को जागरूक किया जाए। तभी दशहरा और दीपावली का असली रंग लौट सकता है। सच तो यह भी है कि हमारे त्यौहार और बाजार दोनों ही हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। एक तरफ मिठाई, रोशनी और उत्साह हैं, वहीं दूसरी तरफ मिलावट, भ्रष्टाचार और लापरवाही भी हैं। इस सामूहिक परिदृश्य को देखकर हमें यह समझना होगा कि त्यौहार केवल बाहर दिखावे के लिए नहीं होते, बल्कि असली मिठास और खुशियाँ तभी कायम रहेंगी जब हम जिम्मेदारी और सच्चाई को भी त्यौहार में शामिल करें।समाज की सजगता, प्रशासन की पारदर्शिता और ग्राहक की सतर्कता.. यही तीन स्तंभ हैं, जो हमारी मिठाई को केवल स्वादिष्ट ही नहीं, बल्कि सुरक्षित और सच्ची भी बनाए रख सकते हैं। तभी दशहरा और दीपावली का असली मज़ा, बिना किसी मिलावट और धोखे के हर घर में महसूस होगा।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

ढाक के तीन पात : भाषा, संस्कृति और प्रतीक का रहस्य

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डॉ मेनका त्रिपाठी

भाषा विज्ञान की दुनिया अनेक रहस्यो की परत खोलती है,ढाक के तीन पात का मुहावरा हम सबने सुना है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ढाक होता क्या है?

ढाक को पलाश और टेसू के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Butea monosperma है। संस्कृत और प्राचीन ग्रंथों में इसे किंशुक, रक्तपुष्पक, ब्रह्मवृक्ष, ब्राह्मणपोष, पर्णी, त्रिपत्रक, कठपुष्प, केसुदो और पलाशा जैसे विविध नामों से संबोधित किया गया है। यह नाम केवल भाषाई भिन्नता नहीं दर्शाते बल्कि इस वृक्ष के प्रति समाज और संस्कृति की गहरी आस्था को भी प्रकट करते हैं।

ढाक की सबसे विशिष्ट पहचान इसके तीन पत्ते हैं। प्रत्येक शाखा पर तीन पत्ते जुड़े रहते हैं। बेल पत्र भी तीन होते है लेकिन ढाक के तीन पत्तों के कारण से यह मुहावरे का आधार बना और पूरी कहावत मे कहा गया कि ढाक के तीन पात, चौथा लगे न पाँचवी की आस।

यह अभिव्यक्ति असंभवता और सीमाओं का प्रतीक बनकर लोकजीवन में रच-बस गई।

ढाक का स्थान केवल भाषा तक सीमित नहीं है। गाँवों और लोकसंस्कृति में ढाक के पत्तों का उपयोग पत्तल और दोना बनाने में होता रहा है। पकवानों और व्यंजनों जैसे चाट पकौड़ी इन्हीं पत्तों पर परोसे जाते थे। धार्मिक परंपराओं में भी इनका विशेष महत्व है। ये शुद्ध होते है सच मानिये स्वाद भी आता है अब तो लोग फैशन मे भी इन्हे प्रयोग मे ला रहे है

रामायण महाभारत में वर्णित चित्रणों और सीता-राम की जन्मकथाओं में ढाक के पत्तों का प्रयोग पूजा-अर्चना और फल अर्पण के लिए किया जाता था।

भाषाविज्ञान की दृष्टि से ढाक शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के पलाश और किंशुक शब्दों से जुड़ती है। ध्वनि और प्रयोग के स्तर पर यह ढलकर लोकभाषा में ढाक बन गया। यह परिवर्तन दिखाता है कि किस प्रकार एक वृक्ष केवल प्राकृतिक इकाई न रहकर भाषा, साहित्य और संस्कृति का अंग बन जाता है।

संस्कृत साहित्य में किंशुक की शोभा का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। एक श्लोक में कहा गया है –

किंशुकः शोणपुष्पश्रीः पावकोऽग्निसमप्रभः।

यत्र यत्र स्थितो लोके तत्र तत्र शुभं भवेत्॥

अर्थ यह है कि किंशुक अपने लाल पुष्पों से अग्नि के समान दीप्तिमान दिखाई देता है और जहाँ भी होता है वहाँ शुभता का संचार करता है।

ढाक के तीन पात का मुहावरा इस प्रकार केवल एक कहावत भर नहीं, बल्कि भाषा, समाज और संस्कृति के बीच गहरे संबंध का प्रतीक है। यह इस तथ्य को उजागर करता है कि भारतीय लोकजीवन में वृक्ष और उनके पत्ते भी वाणी और अभिव्यक्ति का हिस्सा बन जाते हैं।

मेनका त्रिपाठी

संघ, गांधी और लद्दाख के सोनम वांगचुक

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अरुण कुमार त्रिपाठी
ऐसा कम होता है लेकिन इस साल हो रहा है। इस साल ‘पूर्णमासी के दिन सूर्यग्रहण’ लग रहा है। महात्मा गांधी की जयंती यानी दो अक्तूबर को ही दशहरा पड़ रहा है और उसी दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सौ साल पूरे हो रहे हैं। यह भी गजब संयोग देखिए कि उससे हफ्ते भर पहले गांधीवादी तरीके से लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और उस क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में डालने की मांग कर रहे न्यू लद्दाख मूवमेंट के नेता सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। अब भाजपा की आईटी सेल समेत तमाम हिंदुत्ववादी उन्हें देशद्रोही सिद्ध करने में लग गए हैं। बांग्लादेश के मुख्य प्रशासनिक सलाहकार मोहम्मद युनूस के साथ उनकी फोटो और पाकिस्तान के अखबार डॉन के कार्यक्रम में उनकी भागीदारी की पोस्ट के माध्यम से यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है कि उनकी देशभक्ति संदिग्ध है। कहा जा रहा है कि उन्होंने ‘जेन जी’ यानी युवा पीढ़ी को हिंसा के लिए भड़काया है।
दो अक्तूबर को दशहरा और संघ का शताब्दी वर्ष पड़ने के कारण गांधी जयंती पर होने वाले तमाम कार्यक्रम रद्द हो गए हैं। कुछ गांधीजन इसे इसे सांप्रदायिकता विरोधी दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं लेकिन देखना है वे कैसे मनाते हैं। यह भी जानना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उस दिन महात्मा गांधी को किस तरह से याद करता है। हिंदुत्ववादियों की ट्रॉल ब्रिगेड उन्हें अपनी हिंसा का कितना निशाना बनाती है। लेकिन इन संयोगों के आसपास होने वाले विचार विमर्श यह साबित करते हैं कि गांधी विचार से प्रेरित नागरिकों और संगठनों के सामने सावरकर के विचारों से प्रेरित संगठनों से टकराव अवश्यंभावी है। उनके मध्य समन्वय का कोई बीच का रास्ता बनता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। सावरकर का विचार बहुसंख्यकवादी एकचालानुवर्ती संगठन और उसके माध्यम से कायम होने वाली राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तानाशाही की ओर जाता है। जबकि गांधी का विचार लोकतंत्र, विकेंद्रीकरण, मानवाधिकार और पर्यावरण रक्षा की ओर जाता है।
सावरकर और उनसे प्रेरित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विचार वास्तव में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उस उस युरोपीय राष्ट्रनिर्माण और औद्योगिक विकास की नकल है जो संसार को विनाशकारी महायुद्ध की ओर ले जाता है। आज वह विचार अमेरिका और उसके उद्दंड बालक इजराइल के तौर पर नए सिरे से जोर मार रहा है। पूरे भारत को मुट्ठी में कैद कर लेने वाले संगठन संघ का विचार भी उसी का सहोदर है। यह राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक ध्रुवीकरण, सरकारी दमन और आज्ञाकारी समाज निर्माण और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियार जमा करके पड़ोसियों से युद्ध की ओर जाता है। राष्ट्रीय गौरव की पुनर्स्थापना, धर्म की रक्षा वगैरह इसकी रणनीतियां हैं। यह विचार भावनाओं पर इस कदर आधारित है कि इसे विचार कहना भी बेइमानी लगता है। अगर इसके रेशे रेशे पर चर्चा करें तो इसमें झूठ और धोखाधड़ी का इतना बड़ा तत्व निकलेगा कि यहां उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है। वास्तव में यह कोई विचार नहीं बल्कि विचारहीनता का कोहरा है।
दूसरी ओर महात्मा गांधी के चिंतन और कर्म से निकला उनका विचार है जो दुनिया के भविष्य के लिए अनिवार्य है। उसमें भावना और उत्तेजना के बजाय मानवीय संवेदना है। उसकी तर्कपद्धति ऊपरी तौर पर भले ही बासी लगे लेकिन उसे हर समय और परिस्थिति में रखकर देखिए तो उसमें ताजगी का सुवासित गहरा झोंका उठता हुआ दिखाई देगा। उसमें घृणा और आशंका नहीं अभय और प्रेम है। यह महज संयोग नहीं है कि बीसवीं सदी के पहले दशक में लंदन में गांधी और सावरकर की मुलाकात दशहरे के मौके पर हुई थी और दोनों ने उस पर्व की अपने अपने ढंग से व्याख्या की थी। सावरकर के लिए वह पर्व हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देने वाला था, जबकि गांधी के लिए अहिंसा के माध्यम से असत्य और बुराई के विरुद्ध बाहरी और भीतरी अहिंसक संघर्ष की प्रेरणा।
गांधी और सावरकर के विचारों का यह संघर्ष तब से आज तक जारी है। वह सारे संसार को झकझोर देने वाली गांधी हत्या और सावरकर की गुमनाम मृत्यु से समाप्त नहीं हुआ। बल्कि अगर हम मशहूर साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति को पढ़ें तो लगता है कि वह आगे भी जारी रहने वाला है। उन्होंने 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्तारूढ़ होने से पहले अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका ‘हिंदुत्व या हिंद स्वराज’(मूलतः कन्नड़) के माध्यम से इस बात को रेखांकित किया था। उनका कहना था कि सावरकर के हिंदुत्व का विचार औद्योगिक और सैन्य शक्ति पर आधारित केंद्रीकरण का फासीवादी विचार है। इस विचार में पर्यावरण और कमजोर समाजों का विनाश अंतर्निहित है। जबकि गांधी का विचार सत्य, मानव स्वतंत्रता और पर्यावरण की रक्षा पर आधारित विकेंद्रीकरण का एक हिंसा विरोधी विचार है।
लद्दाख के सोनम बांगचुक और केंद्र सरकार के बीच हुआ टकराव दरअसल इन विचारों का टकराव है। यह विकास के दो मॉडल का टकराव है। एक मॉडल चाहता है कि लद्दाख का समाज दिल्ली से नियंत्रित हो और वहां के लोगों के नागरिक अधिकार और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार भी सीमित हों। वहां बड़ी आर्थिक शक्तियों को खनिजों और अक्षय ऊर्जा के दोहन का असीमित अधिकार हो। लद्दाख के नागरिकों को निरंतर संदेह की नजर से देखा जाए और आर्थिक और सैन्य शक्तियों पर सदैव भरोसा किया जाए। दूसरी और नव लद्दाख आंदोलन का विचार यह है कि वहां के लोगों को अपने विकास का रास्ता तय करने और उसे अपने ढंग से संचालित करने का अधिकार हो। वहां की धरती और पर्यावरण को लद्दाख के स्थानीय विवेक के लिहाज से संचालित और व्यवस्थित किया जाए। इसीलिए वे लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने और उसे पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह से छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग भी कर रहे हैं। लद्दाख के लोगों का मानना है कि अपने क्षेत्र के विकास और उसकी रणनीतिक स्थिति के बारे में उनका ज्ञान किसी और इलाके या दिल्ली के लोगों के ज्ञान से बेहतर है। जबकि दिल्ली मानती है कि असली देशभक्ति और राष्ट्रीय हित को वे ही समझते हैं जिनके हाथों में सैन्य शक्ति है और उत्पादन के बड़े साधन हैं।
सोनम बांगचुक लद्दाख के गांधी कहे जाते हैं। हालांकि वे इस तरह के विशेषण को स्वीकार करने से इंकार करते हैं। पर उनके चरित्र की एक झलक राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में रैंचो यानी फुंसुक बांगड़ू के रूप में देखी जा सकती है। वह बालक जिसने किसी तरह अपने संकटपूर्ण बचपन से निकलकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिर समाज के साथ मिलकर इतने नवोन्मेष किए कि उसके नाम पर तमाम पेटेंट बने। उसने विज्ञान को मुनाफे का धंधा बनाने के बजाय उसे समाज और अपने पर्यावरण के लिए उपयोगी बनाया है। उसने सौर ऊर्जा से सैनिकों के रहने के लिए गर्म टेंट बनाए, पानी की कमी दूर करने के लिए बर्फ के स्तूप का निर्माण किया और गांधी की बुनियादी तालीम के दर्शन को जमीन पर उतारने के लिए पहले स्टूडेंट्स इजूकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट आफ लद्दाख और फिर हिमालयन इंस्टीट्यूट फार आल्टरनेटिव लद्दाख जैसे संस्थान बनाए। वांगचुक एक नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा है। जिसे बर्दाश्त करना विकास के केंद्रीकृत और क्रूर मॉडल के लिए संभव नहीं है। इसीलिए कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक रहे और सरकार से प्रशंसा प्राप्त कर चुके वांगचुक आज देशद्रोही बनाए जा रहे हैं। यह स्वदेशी के मोदी विचार का शीर्षासन नहीं तो और क्या है?
वास्तव में वांगचुक का विचार डॉ राम मनोहर लोहिया के हिमालय बचाओ विचार का ही विस्तार और जमीनी प्रयोग है। उसमें भारतीय भूभाग की रक्षा के साथ ही हिमालय जैसी विलक्षण पारिस्थितिकी की रक्षा का प्रयास भी है। पर मुश्किल है कि सत्ता के अहंकार और खोखले राष्ट्रवाद में मदमस्त लोगों को न तो हिमालय समझ में आता है और न ही उसकी पारिस्थितिकी का महत्त्व। उनके लिए मध्य भारत का दंडाकारण्य बड़ी कंपनियों के खनन का मैदान है तो हिमालय एक बड़ी सैन्य छावनी। अब तो हिमालय एक विशाल खनन क्षेत्र के तौर पर भी उभर रहा है। लद्दाख इसीलिए त्रस्त है। सरकार यह भूल रही है कि हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पर्वतीय प्रदेश और पंजाब जैसे मैदानी इलाकों में इस साल जो भयंकर बाढ़ आई है उसकी वजहें विनाशकारी विकास की योजनाएं और राष्ट्रवादी हस्तक्षेप हैं।
वांगचुक को न समझने वाले मानव सभ्यता के इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं हैं। सिंधु घाटी से लेकर तमाम सभ्यताएं पर्यावरणीय विनाश का शिकार रही हैं। वहां युद्धों के उतने प्रमाण नहीं हैं जितने पर्यावरण को न समझने के। गांधी पर आज भले ग्रहण लग रहा हो और वांगचुक आज भले जेल में डाले जा रहे हों लेकिन सभ्यता के भावी पथ प्रदर्शक तो वे ही हैं।

अरुण कुमार त्रिपाठी

गलत के लिए भी आप ही जिम्मेदार होंगे

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Sarvesh Kumar Tiwari

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पुराने लोग कहते थे- प्रतिष्ठा कमाने में पूरा जीवन लग जाता है, पर उसे गंवा देने में समय नहीं लगता। एक गलत निर्णय सारे जीवन के किये धरे पर पानी फेर देता है।
सोनम वांगचुक अपने निर्माण, अपने प्रकृति हित, समाजहित में किये गए कार्यों को लेकर देश का सम्मान पाते रहे हैं। यह सामान्य सी बात है। राजनीति भले अंधी हो, देश का आम जनमानस अंधा नहीं है। वह अच्छे लोगों की कद्र करता है, उनका सम्मान करता है। सोनम का भी सम्मान रहा है। लेकिन…
आज का सच तो यही है न कि लद्दाख में पसरी अशांति की जड़ सोनम वांगचुक हैं। उन्ही के अंदोलन को हैक कर के उपद्रवियों ने वहाँ आगजनी की, सरकारी संपत्ति जलाई… वहाँ चार लोग मारे गए, असंख्य घायल हुए। तो क्या इतने बड़े उपद्रव के जिम्मेवार व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिये?
राह चलते एक मुर्गी बाइक के नीचे आ कर मर जाती है तो इस देश का कानून बाइक सवार को जेल भेजता है। उसे थाने से अपनी बाइक छुड़ा लेने में कभी कभी वर्षों लगते हैं। उसी देश में हुए उतने बड़े उपद्रव पर क्या कानून केवल इसलिए चुप्पी साध ले कि इसकी शुरुआत करने वाला व्यक्ति वैज्ञानिक है?
यदि आप एक ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जहां एक वैज्ञानिक जब चाहे तब देश में आगजनी करा सके, एक राजनीतिज्ञ जब चाहे तब तोड़ फोड़ करा सके, एक प्रभावशाली व्यक्ति कभी भी कुछ भी कर सके, तो उसे लोकतंत्र मत कहिये भाई साहब। आप स्वयं नहीं जानते कि आप जो चाह रहे हैं उसे क्या कहना चाहिये।
जिस दिन लदाख में हिंसा हुई, उसी दिन सोनम ने अपना अनशन समाप्त कर दिया। अर्थात वे भी मानते थे कि जो हुआ वह गलत हुआ। फिर आप उसे सही ठहराने पर क्यों तुले हैं?
मैं सोनम के राष्ट्रप्रेम को कठघरे में खड़ा नहीं कर रहा। पर क्या यह सही नहीं कि उस आंदोलन में राष्ट्रीय सम्पत्ति का नुकसान करने निकले अधिकांश लड़कों के आदर्श बंग्लादेश और नेपाल के आंदोलनकारी थे, और वे लद्दाख को नेपाल या बंग्लादेश जैसी दशा में पहुँचाने के उद्देश्य से ही निकले थे। फिर इस अपराध की जवाबदेही तय क्यों न हो? क्या आप इस आतंक का समर्थन केवल इसलिए करेंगे कि यहाँ की वर्तमान सरकार आपको पसन्द नहीं है?
मैं सोनम वांगचुक की मांगों को पूरी तरह समझने का फेसबुकिया दावा नहीं करता, सो उसे पूरा करने या ना करने को लेकर कोई मत देना नहीं चाहता। यह जरूर है कि सत्ता को उनकी मांगों पर विचार करना चाहिये, और यदि सचमुच उसे पूरा करने में कोई विशेष खतरा नहीं तो पूरा किया भी जाना चाहिए। लेकिन अपनी मांगों को लेकर आगजनी करने को स्वीकार किया जाने लगे तो देश दस दिनों तक भी नहीं चलेगा। मौका मिले तो मेरे गाँव के चार लोग केवल इस बात के लिए आग लगा देंगे कि उनका विवाह नहीं हो रहा है। सबकी मांगों को पूरा करने का सामर्थ्य सरकार तो क्या ‘गॉड’ के पास भी नहीं…
एक बात और! आज जितने लोग सोनम को महानतम वैज्ञानिक बता कर उनके समर्थन में खड़े हैं, क्या सचमुच वे सभी उनको पहले से जानते भी थे? क्या उनका समर्थन केवल इस कारण नहीं है कि आज सोनम उनको अपने राजनैतिक एजेंडे के हिसाब से फायदेमंद दिख रहे हैं?
बात विज्ञान की नहीं है, बात अपराध की है। और अपराध कोई गरीब करे या चार सौ पेटेंट वाला अमीर, अपराध अपराध ही होता है!

−सर्वेश कुमार तिवारी

लोकतंत्र और अर्थतंत्र का बेड़ा गर्क कर रही है रेवड़ी संस्कृति

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 बाल मुकुन्द ओझा

जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते है वैसे वैसे राजनीतिक पार्टियां अपने सिद्धांत और विचार त्याग कर जीत हासिल करने के लिए सभी प्रकार के जायज नाजायज हथकंडे अपनाना शुरू कर देती है। रेवड़ी संस्कृति लोकतंत्र और अर्थतंत्र का बेड़ा गर्क कर रही है। यह वही संस्कृति है, जिसे मुफ्तखोरी की राजनीति भी कहा जाता है। सच तो यह है रेवड़ी संस्कृति के कारण हमारे देश की अनेक राज्य सरकारें लगभग दीवालिया होने की कगार पर हैं। उनका बजट घाटा बढ़ता जा रहा है, लेकिन वे मुफ्तखोरी की सियासत को छोड़ने को तैयार नहीं है। क्योंकि चुनाव जो जीतना है। इस साल बिहार और अगले साल बंगाल विधान सभा के चुनाव प्रस्तावित है। चुनाव आते ही मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियों और घोषणाओं का बिगुल बज जाता है। कहा जाता हैं चुनाव जीतने के लिए सब कुछ जायज है। इस कार्य में कोई भी सियासी पार्टी पीछे नहीं रहती। इसकी शुरुआत बिहार से शुरू हो गई है। बिहार में आगामी चुनाव से पहले मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की होड़ शुरू हो गई है। बिहार पर पहले से ही 4 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज है, ऊपर से चुनावी सीजन में मुफ्त योजनाओं के लिए बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं।

बिहार में महिलाओं को साधने के लिए बड़ा धमाका किया गया है। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत प्रधानमंत्री ने 75 लाख ग्रामीण महिलाओं को पहली किस्त के तौर पर 10,000- 10,000 रुपये की राशि ट्रांसफर की। योजना के तहत आगे चलकर प्रत्येक महिला को कुल दो लाख तक की आर्थिक सहायता मिलेगी। इसे महिलाओं के लिए चुनावी सौगात भी कहा जा रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक हाल फिलहाल राजनीतिक पार्टियों द्वारा करीब 33 हजार करोड़ के मुफ्त के वादे किये जा चुके है। चुनाव आते आते 33 हजार करोड़ में कई गुना वृद्धि की संभावनाएं व्यक्त की जा रही है। यानि अभी तो फ्री बीज की यह शुरुआत है, पिक्चर अभी बाकी है। आरजेडी और इंडिया ब्लॉक का आरोप है कि मुख्यमंत्री ने दरअसल उन्हीं वादों की नकल की है, जिन्हें विपक्ष ने जनता से करने का दावा किया था।  

मुख्यमंत्री नीतिश कुमार फ्री बीज की योजनाओं के विरुद्ध रहे है है। उन्होंने दिल्ली चुनाव के दौरान अरविन्द केजरी वाल की मुफ्त बिजली की अवधारणा को ‘गलत काम’ करार देते हुए कहा था कि यह दीर्घकालिक विकास के लिए हानिकारक है और आज वे खुद ही फ्री बीज के रास्ते पर चल निकले है। नीतीश कुमार ने 2022 में केजरीवाल की मुफ्त बिजली योजना को अव्यवहारिक और गलत बताकर तंज कसा था, आज तीन साल बाद खुद ऐसी ही फ्री बिजली योजना लागू कर अपनी सियासी रणनीति बदल ली है। उनका यह कदम न केवल उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि नीतिगत निर्णयों और सिद्धांतों की राजनीति से किनारा करने की स्थिति को भी बताता है। इसीलिए कहा जाता है हाथी के दांत दिखाने के कुछ और होते है। इससे पूर्व आरजेडी नेता तेजस्वी मुफ्तखोरी की अनेक घोषणाएं की घोषणा कर दी थी। चुनावों के दौरान सियासी पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए तरह तरह के वादे और प्रतिवादे करती है। सरकार बनने के बाद चुनावी वादे पूरा करने में पार्टियों के पसीने छुट जाते है। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था तो चौपट तक हो जाती है जिसके कारण सम्बध सरकारों को अपने कर्मचारियों के वेतन आदि  चुकाने के लाले पड़ जाते है। राजनैतिक पार्टियों द्वारा मत हासिल करने के लिए राजकीय कोष से मुफ्त सुविधाएं देने का प्रकरण सियासी हलकों में गर्माने लगा है। देश की प्रबुद्ध जमात का मानना है इससे हमारे लोकतंत्र की बुनियाद हिलने लगी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस प्रकार की योजनाओं की आलोचना की थी। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान इस तरह के वादे करने का चलन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक पार्टियां आम लोगों से अधिक से अधिक वायदे करती हैं। इसमें से कुछ वादे मुफ्त में सुविधाएं या अन्य चीजें बांटने को लेकर होती हैं। यह देखा गया है कुछ सालों से देश की चुनावी राजनीति में मुफ्त बिजली—पानी, मुफ्त राशन, महिलाओं को नकद राशि, सस्ते गैस सिलेंडर आदि आदि अनेक तरह की घोषणाओं का चलन बढ़ गया है। विशेषकर चुनाव आते ही वोटर्स को लुभाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू कशमीर के चुनाव इसके ज्वलंत उदाहरण है। मुफ्त का मिल जाये तो उसका जी भर उपयोग करना। ये मुफ्त की नहीं है अपितु जनता के खून पसीनें की कमाई है जो राजनीतिक दलों और सरकारों द्वारा दी जा रही है ताकि चुनाव की बेतरणी आसानी से पार की जा सके। देश के प्रधानमंत्री रेवड़ी कल्चर का विरोध कर चुके है मगर चुनावों में उनकी पार्टी भाजपा सहित कांग्रेस और आप सहित सभी पार्टियां रेवड़ी कल्चर में डुबकियां लगा रही है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

एशिया कप की पूरी फीस भारतीय सेना को देंगे सूर्यकुमार

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भारतीय टी20 कप्तान सूर्यकुमार यादव एशिया कप के सभी मैचों की अपनी फीस भारतीय सेना को दान करेंगे। सूर्यकुमार ने यह एलान पाकिस्तान से एशिया कप फाइनल जीतने के बाद किया । भारत ने रविवार को दुबई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम में पाकिस्तान को पांच विकेट से करारी शिकस्त दी थी। 

फाइनल मुकाबले में तिलक वर्मा ने शानदार अर्धशतक लगाया । संजू सैमसन व शिवम दुबे के साथ उपयोगी साझेदारी की। इसकी बदौलत फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा। जीत के साथ भारत ने अपना दूसरा टी20 अंतरराष्ट्रीय एशिया कप खिताब और एकदिवसीय संस्करण समेत कुल नौवां खिताब जीता। 


पाकिस्तान को हराने के बाद कप्तान सूर्यकुमार यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस दौरान उन्होंने कहा, ‘मैं इस टूर्नामेंट में खेले गए सभी मैचों की अपनी मैच फीस भारतीय सेना को देना चाहता हूं।’ हालांकि, मैच समाप्त होने के बाद पुरस्कार समारोह में भारत ने अपने पदक और ट्रॉफी नहीं ली।


भारतीय खिलाड़ी तिलक वर्मा, अभिषेक शर्मा और पाकिस्तान के कप्तान सलमान आगा, न्यूजीलैंड के पूर्व क्रिकेटर साइमन डूल के साथ मैच के बाद के साक्षात्कारों के बाद, प्रजेंटरों ने बताया कि भारत समारोह के दौरान अपने पदक या ट्रॉफी नहीं लेगा, और इस प्रकार समारोह समाप्त हो गया।

बदला हुआ भारत: क्रिकेट और आत्मसम्मान का नया अध्याय

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“एशिया कप 2025 के फाइनल में भारत का रुख़ और खेल के मैदान से परे राष्ट्रीय गौरव की झलक”

एशिया कप 2025 का फाइनल केवल क्रिकेट का खेल नहीं था। भारत ने पाकिस्तान को हराने के साथ ही ट्रॉफी स्वीकार करने से इनकार कर दिया, क्योंकि पुरस्कार देने वाला पाकिस्तान का प्रतिनिधि था। इससे प्रस्तुति समारोह घंटों तक लंबित रहा। इस कदम ने केवल खेल में जीत नहीं दिखाई, बल्कि राष्ट्रीय आत्मसम्मान और राजनीतिक संदेश भी स्पष्ट किया। समर्थक इसे “नए भारत” की शक्ति और साहस मानते हैं, जबकि आलोचक खेल भावना पर चोट मानते हैं। यह घटना भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक यादगार मोड़ है, जो खेल, राजनीति और राष्ट्रीय गौरव को जोड़ती है।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

एशिया कप 2025 का अंतिम मुकाबला केवल क्रिकेट का रोमांचक खेल नहीं था। यह खेल से कहीं अधिक एक कूटनीतिक और सांस्कृतिक संदेश बनकर उभरा। भारत ने पाकिस्तान को न सिर्फ़ मैदान पर हराया बल्कि मैच के बाद की औपचारिकताओं में भी ऐसा रुख़ अपनाया जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया। भारतीय खिलाड़ियों ने एशियाई क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष, जो पाकिस्तान से हैं, से ट्रॉफी स्वीकार करने से साफ़ इनकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि पुरस्कार वितरण समारोह घंटों तक खिंचता रहा और अंततः अधूरा रह गया। यह घटना भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। सवाल केवल इतना नहीं है कि ट्रॉफी किसने थामी, बल्कि यह कि भारत ने यह कदम क्यों उठाया और इसके परिणाम क्या हैं।

क्रिकेट को अक्सर “जेंटलमैन का खेल” कहा जाता है, लेकिन भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में यह खेल कभी केवल खेल नहीं रहा। यह दोनों देशों के बीच राजनीतिक तनाव, सांस्कृतिक टकराव और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक बन चुका है। जब भारतीय खिलाड़ियों ने ट्रॉफी लेने से इनकार किया, तो यह स्पष्ट संदेश था कि मैदान की जीत से आगे बढ़कर भारत अपने आत्मसम्मान को सर्वोपरि मानता है। एक तरह से यह “खेल और कूटनीति का उल्टा रूप” था। जहाँ खेल को आमतौर पर राजनीति को नरम करने का साधन माना जाता है, वहीं भारत ने खेल का मंच उपयोग करके राजनीतिक संदेश दिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बार-बार यह दावा किया गया है कि भारत अब झुकता नहीं, बल्कि अपनी शर्तें तय करता है। इस संदर्भ में टीम इंडिया का रुख़ उसी मानसिकता का विस्तार माना जा रहा है। भारत के लिए ट्रॉफी लेना केवल एक औपचारिकता था, लेकिन जब देने वाला वही देश हो जिससे लगातार आतंकवाद, घुसपैठ और सीमा पर तनाव चलता रहा है, तो उस औपचारिकता का महत्व बदल जाता है। यह नया भारत केवल आर्थिक और सैन्य शक्ति की भाषा में नहीं बोलता, बल्कि खेल के मंच पर भी राजनीतिक संदेश देने में पीछे नहीं है। इसके साथ ही घरेलू राजनीति में भी इस घटना का गहरा असर पड़ा। समर्थक वर्ग इसे मोदी युग का साहसिक कदम बता रहा है, जबकि विपक्ष इसे खेल भावना पर चोट मानता है। हालांकि जनता में इसे व्यापक रूप से आत्मगौरव की जीत के रूप में देखा गया।

हर साहसिक कदम के साथ आलोचना भी जुड़ती है। भारत के इस रुख़ को लेकर कई सवाल उठे। आलोचकों का कहना है कि क्रिकेट का मूल उद्देश्य देशों के बीच दोस्ती और सौहार्द बढ़ाना है। जब आप ट्रॉफी लेने से इनकार करते हैं, तो आप खेल की आत्मा पर चोट करते हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस घटना पर मिला-जुला रुख़ अपनाया। कुछ ने इसे भारत की “दबदबा दिखाने की नीति” कहा, तो कुछ ने इसे “अहंकार” बताया। सवाल यह है कि क्या इससे भारत की “नरम शक्ति” को नुकसान होगा। साथ ही यह भी बहस छिड़ी कि क्या खिलाड़ियों ने यह कदम अपनी इच्छा से उठाया या बोर्ड और सरकार के दबाव में? अगर खिलाड़ी राजनीतिक निर्णयों में केवल मोहरे बन जाएँ, तो उनकी स्वतंत्रता और खेल की पवित्रता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट में विवाद कोई नई बात नहीं है। 1987 में जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति जयपुर टेस्ट देखने आए थे, तब इसे “क्रिकेट कूटनीति” कहा गया। 1999 में कारगिल युद्ध से पहले चेन्नई टेस्ट में पाकिस्तान की जीत और उसके बाद की राजनीतिक हलचल को भी आज तक याद किया जाता है। 2008 में मुंबई हमलों के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय श्रृंखला हमेशा के लिए रोक दी। 2023 में एशिया कप को लेकर स्थान विवाद खड़ा हुआ, जहाँ भारत ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया और अंततः प्रतियोगिता “संयुक्त रूप” में आयोजित हुई। इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में देखें तो 2025 की घटना कोई अलग-थलग घटना नहीं, बल्कि उसी लंबे सिलसिले का हिस्सा है जहाँ क्रिकेट हमेशा राजनीति के साए में खेला गया।

इस घटना के दूरगामी परिणाम भी हो सकते हैं। एशियाई क्रिकेट परिषद का मुख्यालय भले ही दुबई में है, लेकिन पाकिस्तान लंबे समय से इसमें प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करता रहा है। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसकी सहमति के बिना कोई ढांचा नहीं चल सकता। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद तटस्थता का दावा करती है, लेकिन अगर बड़ी टीमों में से एक यानी भारत इस तरह के कदम उठाकर राजनीतिक संदेश देती है, तो परिषद को मजबूरी में अपना रुख़ तय करना होगा। बांग्लादेश, श्रीलंका और अफगानिस्तान जैसी टीमें इस खींचतान के बीच कहाँ खड़ी होंगी, यह भी देखने वाली बात है। भारत का दबाव इन्हें प्रभावित करेगा, लेकिन लंबे समय में यह क्षेत्रीय सहयोग को कमजोर कर सकता है।

भारत का यह रुख़ निश्चित रूप से “नए भारत” का प्रतीक है। यह भारत का वह चेहरा है जो आत्मगौरव को सर्वोपरि मानता है और औपचारिकता या परंपरा को उसके आगे झुका देता है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि खेल की आत्मा को राजनीति से बहुत अधिक जोड़ना कभी-कभी नुकसानदेह भी हो सकता है। क्या भारत ने सही किया? समर्थकों के लिए जवाब सीधा है — हाँ, क्योंकि यह आत्मसम्मान का सवाल था। आलोचकों के लिए जवाब है — नहीं, क्योंकि खेल का मंच राजनीति का अखाड़ा नहीं होना चाहिए।

असल सवाल यह है कि क्या क्रिकेट अब केवल क्रिकेट रहेगा या यह उपमहाद्वीप में हमेशा से राजनीति का विस्तार ही रहेगा। एशिया कप 2025 की यह घटना इस सवाल को और तीखा बना देती है। एक बात तय है — यह बदला हुआ भारत है। मैदान पर भी, मंच पर भी।

-प्रियंका सौरभ 

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

छठ पर्व को यूनेस्को की सांस्कृतिक धरोहर में शामिल कराने के प्रयास जारीः मोदी

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प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात के 126वें एपिसोड में कहा कि छठ पर्व को यूनेस्को की सांस्कृतिक धरोहर में शामिल कराने के प्रयास किए जा रहे हैं । शहीद भगत सिंह और लता मंगेशकर को उनकी जयंती पर श्रद्धांजलि दी। कहा कि भगत सिंह आज भी युवाओं को प्रेरित करते हैं। उन्होंने उन्होंने नारी शक्ति को सराहा और भारतीय नौसेना की दो महिला अधिकारियों की समुद्री यात्रा का जिक्र किया । पीएम ने गांधी जयंती पर खादी अपनाने की अपील करते हुए ‘वोकल फॉर लोकल’ को बढ़ावा देने को कहा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में उन्होंने श्रोताओं से कहा, ‘मन की बात में आप सभी से जुड़ना, आप सभी से सीखना, देश के लोगों की उपलब्धियों के बारे में जानना, वाकई मुझे बहुत सुखद अनुभव देता है। एक दूसरे के साथ अपनी बातें साझा करते हुए, अपने मन की बात करते हुए, हमें पता ही नहीं चला, इस कार्यक्रम ने 125 एपिसोड पूरे कर लिए हैं।

उन्होंने आगे कहा कि आज लता मंगेशकर की भी जयंती है। भारतीय संस्कृति और संगीत में रुचि रखने वाला कोई भी उनके गीतों को सुनकर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता। उनके गीतों में वह सबकुछ है, जो मानवीय संवेदनाओं को झकझोरता है। उन्होंने देशभक्ति के जो गीत गाए, उन गीतों ने लोगों को बहुत प्रेरित किया। भारत की संस्कृति से भी उनका गहरा जुड़ाव था। मैं लता दीदी के लिए हृदय से अपनी श्रद्धांजलि प्रकट करता हूं। साथियों, लता दीदी जिन महान विभूतियों से प्रेरित थीं, उनमें वीर सावरकर भी एक थे। इन्हें वह तात्या कहती थीं। उन्होंने वीर सावरकर के कई गीतों को अपने सुरों में पिरोया। लता दीदी से मेरा स्नेह का बंधन हमेशा कायम रहा। वह मुझे बिना बोले हर साल राखी भेजा करती थीं। मुझे याद है मराठी सुगम संगीत की महान हस्ती सुधीर फड़के जी ने सबसे पहले मेरा परिचय लता दीदी से कराया था। मैंने लता दीदी को कहा कि मुझे आपके द्वारा गाया और सुधीर जी द्वारा संगीतबद्ध गीत ‘ज्योति कलश छलके’ बहुत पसंद है।प्रधानमंत्री ने कहा कि नवरात्रि के इस समय में हम शक्ति की उपासना करते हैं। हम नारी शक्ति का उत्सव मनाते हैं। बिजनेस से लेकर स्पोर्ट्स तक, एजुकेशन से लेकर साइंस तक.. आप किसी भी क्षेत्र को लीजिए देश की बेटियां हर जगह अपना परचम लहरा रही हैं। अगर मैं आपसे यह सवाल करूं कि क्या आप समंदर में लगातार आठ महीने रह सकते हैं। क्या आप समंदर में पतवार वाली नाव यानी हवा के वेग से आगे बढ़ने वाली नाव से पचास हजार किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं और वो भी तक जब समंदर में मौसम कभी भी बिगड़ जाता है। ऐसा करने से पहले आप हजार बार सोचेंगे। लेकिन भारतीय नौसेना की दो बहादुर अधिकारियों ने नाविका सागर परिक्रमा के दौरान ऐसा कर दिखाया है। उन्होंने दिखाया है कि साहस और दृढ़ संकल्प होता क्या है। आज मैं मन की बात के श्रोताओं को इन दो जांबाज अधिकारियों से मिलवाना चाहता हूं। एक हैं लेफ्टिनेंट कमांडर दिलना और दूसरी हैं लेफ्टिनेंट कमांडर रूपा। इसके बाद प्रधानमंत्री दोनों अधिकारियों से फोन पर बात करते हुए सुनाई देते हैं। 

उन्होंने कहाकि छठ पर्व एक ऐसा पावन-पर्व है जो दिवाली के बाद आता है। सूर्य देव को समर्पित यह महापर्व बहुत ही विशेष है। इसमें हम डूबते सूर्य को भी अर्घ्य देते हैं। उनकी आराधना करते हैं। छठ न केवल देश के अलग-अलग हिस्सों में मनाया जाता है। बल्कि दुनियाभर में इसकी छठा देखने को मिलती है। आज यह एक वैश्विक त्योहार बन रहा है। साथियों, मुझे आपको यह बताते हुए बहुत खुशी है कि भारत सरकार भी छठ पूजा को लेकर एक बड़े प्रयास में जुटी है। भारत सरकार छठ पर्व को यूनेस्को की सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल कराने का प्रयास कर रही है। छठ पूजा में यूनेस्को की सूची में शामिल होगी, तो दुनिया के कोने-कोने में लोग इसकी भव्यता और दिव्यता का अनुभव कर पाएंगे। साथियों, कुछ समय पहले भारत सरकार के ऐसे ही प्रयासों से कोलकाता की दुर्गा पूजा भी यूनेस्को की इस सूची का हिस्सा बनी है। हम अपने सांस्कृतिक आयोजनों को ऐसे ही वैश्विक पहचान दिलाएंगे, तो दुनिया भी उनके बारे में जानेगी, समझेगी, उनमें शामिल होने के लिए आगे आएगी। 


उन्होंने कहा, दो अक्तूबर को गांधी जयंती है। गांधी जी ने हमेशा स्वदेशी को अपनाने पर बल दिया। उनमें खादी सबसे प्रसिद्ध थी। दुर्भाग्य से आजादी के बाद खादी की रौनक कुछ फीकी पड़ती जा रही थी। लेकिन बीते ग्यारह साल में खादी के प्रति देश के लोगों का आकर्षण बहुत बढ़ गया है। पिछले कुछ वर्षों में खादी की बिक्री में बहुत तेजी देखी गई है। मैं आप सभी से आग्रह करता हूं कि दो अक्तूबर को कोई न कोई खादी उत्पाद जरूर खरीदें। गर्व से कहें ये स्वदेशी है। इसे सोशल मीडिया पर वोकल फॉर लोकल हैशटैग के साथ साझा भी करें।

ख़राब लाइफस्टाइल से बढ़ रहे है हार्ट अटैक के मामले

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बाल मुकुन्द ओझा

विश्व हृदय दिवस 29 सितम्बर को मनाया जाता है। यह दिन हमें हृदय स्वास्थ्य के महत्व को याद दिलाने का मौका प्रदान करता है। हर साल विश्व हृदय दिवस अलग-अलग थीम के साथ मनाया जाता है। इस साल यानी 2025 में इस दिवस की थीम धड़कन को न छोड़ें रखी गई है। इस थीम से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने हार्ट का सही इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही साथ हार्ट का ख्याल भी रखना चाहिए, जिससे हम एक्शन लेने में समर्थ बने रह सकें। यह थीम हार्ट हेल्थ को गंभीरता से लने की बात कह रही है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य लोगों को हृदय रोग के बारे में जागरूक करना है।

आज दुनिया भर में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण हृदय संबंधी रोग बताया जा रहा है। ख़राब जीवन शैली के चलते हर साल लाखों करोड़ों लोग विभिन्न बीमारियों के शिकार होकर असमय अपनी जान गंवा रहे है। इनमें हृदय या हार्ट से जुडी बीमारियां भी शामिल है जिनकी संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। खराब लाइफस्टाइल के साथ स्मोकिंग, जंक फूड और स्ट्रेस इसके मुख्य कारण हैं। अधुनिक जीवन शैली के फलस्वरूप उठते बैठते, नाचते गाते और खेलते कूदते आप कभी भी हार्ट अटैक के शिकार हो सकते है। अख़बारों की रोजमर्रा की सुर्खियां बताती है कि आज के दौर में बुजुर्गों के साथ युवा भी लगातार हार्ट अटैक के शिकार हो रहे है। हर साल जन जागरूकता के लिए विश्व हृदय दिवस का आयोजन किया जाता है। डॉक्टरों का कहना है गलत खानपान, हर वक्त तनाव की स्थित तथा रोज व्यायाम न होने यह बीमारी बढ़ती जा रही है। हृदय रोग, कई वर्षों से दुनिया में सबसे अधिक मौतों का कारण बना हुआ है, जिसके परिणाम स्वरुप सालाना लगभग 1.90 करोड़ मौतें होती हैं। देश और दुनिया इस समय हार्ट अटैक की समस्या से सहमी हुई है। पिछले कुछ सालों में हार्ट अटैक से मरने वालों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। दुनिया भर में हर साल लाखों लोगों की मौत दिल की बीमारी से होती है। अच्छे भले दिखने वाले इंसान को कब हार्ट अटैक हो जाए पता नहीं। आपका दिल अगर कमजोर हो रहा है तो संकेत मिलने लगते हैं। हालांकि हमें नहीं पता चल पाता कि इनको इग्नोर करना कितना भारी पड़ सकता है। सबसे अच्छी बात यह है कि दिल की 80 फीसदी बीमारियों से बचाव संभव है। अगर आपको पहले से लक्षण पता हैं तो आप सतर्क हो सकते हैं।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का कहना है कि अगर इंसान थोड़ी सी अपनी लाइफस्टाइल को चेंज कर ले और नौ तरह से उसका ख्याल रखें तो उसका दिल एकदम फिट रहेगा और उसे किसी दवा की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। दिल तो बहुत कोमल होता है, इसलिए इसे केयर की जरूरत होती है, उसके पास दिमाग तो होता नहीं इसलिए उसका ख्याल आपको ही रखना होगा। अगर आप की उम्र 30 के पार है तो आप अपनी लाइफ में कसरत को जगह दीजिये। कोई जरूरी नहीं कि आप जिम जाएं या फिर दौड़-भाग करें, बस आपको 30 मिनट वॉक की जरूरत है। हेल्दी फूड को अपने मैन्यू चार्ट में शामिल करें। जंक फूड और एल्कोहल का सेवन कम से कम या ना के बराबर करें। हो सके तो घर का खाना खाएं। हफ्ते में एक दिन आप बाहर खाना खा सकते हैं। अपने खाने में मीठी चीजों का इस्तेमाल कम करें, हो सके तो नमक भी कम और हल्का खाएं। रात के भोजन में स्वीट डिश को बॉय-बॉय कर दें तो बेहतर होगा। रात का डिनर हल्का होना चाहिए जबकि ब्रेकफास्ट हैवी हो सकता है। अपने फूड में आप ताजे फलों और सब्जियों को जगह दीजिये। ऑयली फूड से दूर रहिए और अगर आपको मीठी चीज खाने का मन करें तो आप मीठे फल खाइये और टीवी देखते वक्त डिनर ना करें। घर पर धूम्रपान ना करें और ना ही शराब का सेवन करें। ये दोनों ही चीजें हार्ट के लिए घातक हैं। स्मोकिंग जहां सीधे आपके दिल को खराब करती है वहीं एल्कोहल से वजन बढ़ता है जो कि आपके लीवर के लिए सही नहीं है। अगर आप सीटिंग जॉब वाले इंसान हैं तो ऑफिस में चाय-कॉफी कम ही पीजिये, अगर मन करे तो आप ग्रीन टी और जूस का सेवन करें जो आपको फ्रेश भी करेगा और हेल्दी भी रखेगा। तनावमुक्त जीवन जिएं। तनाव अधिक होने पर योगा करें। टाइम से सोएं और टाइम से जगें और प्रतिदिन तीस मिनट वॉक करें।

   

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी-32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

भगत सिंह: “इंकलाब से आज तक”

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“क्रांति बंदूक की गोली से नहीं, बल्कि विचारों की ताकत से आती है।”

भगत सिंह का जीवन केवल एक क्रांतिकारी गाथा नहीं, बल्कि एक विचारधारा का प्रतीक है। उनकी शहादत से पहले उनके विचारों की ताकत थी, और उनकी शहादत के बाद भी उनका प्रभाव अमर है। आज जब हम आर्थिक असमानता, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार से जूझ रहे हैं, तो भगत सिंह के विचार पहले से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। उनका सपना केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति तक सीमित नहीं था; वे एक ऐसे भारत की कल्पना कर रहे थे, जहाँ सबको समान अधिकार और अवसर मिले।

–डॉ. सत्यवान सौरभ

23 मार्च 1931—लाहौर की जेल में तीन नौजवानों के कदमों की आहट सुनाई देती है। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव मुस्कुराते हुए फांसीघर की ओर बढ़ रहे हैं। मौत का कोई खौफ नहीं, बल्कि आंखों में एक चमक है—क्रांति की, बदलाव की। वे जानते हैं कि उनके विचार कभी नहीं मरेंगे। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई। लेकिन क्या सच में एक क्रांतिकारी मर सकता है? उनके विचार, उनकी सोच और उनकी प्रेरणा आज भी जीवंत हैं। वे केवल ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नहीं लड़े, बल्कि एक ऐसे भारत के लिए संघर्ष किया, जो समानता, न्याय और स्वतंत्रता पर आधारित हो।

एक विचारक का जन्म

28 सितंबर 1907 को पंजाब के बंगा गांव (अब पाकिस्तान) में जन्मे भगत सिंह का बचपन किताबों और क्रांतिकारी चर्चाओं के बीच बीता। उनके परिवार में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। लेकिन 1919 का जलियांवाला बाग हत्याकांड उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं था। उन्होंने महसूस किया कि आजादी केवल एक सपना नहीं, बल्कि संघर्ष की हकीकत बननी चाहिए। भगत सिंह बचपन से ही विद्रोही और जिज्ञासु थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) ने उनके दिल को झकझोर दिया और यह तय कर दिया कि वे केवल दर्शक नहीं बने रह सकते।

क्रांति की राह पर पहला कदम

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) से जुड़कर भगत सिंह ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अपनी लड़ाई को दिशा दी। सॉन्डर्स हत्याकांड (1928) – लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या की। यह एक क्रांतिकारी संदेश था कि अत्याचार का प्रतिरोध किया जाएगा। असेंबली बम कांड (1929) – भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश संसद में बम फेंका, लेकिन यह किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं था। वे गिरफ्तार होने के लिए आए थे ताकि अपने विचारों को अदालत के मंच से पूरे देश तक पहुंचा सकें। नका मकसद केवल हिंसा नहीं था। उनका इरादा लोगों को जगाना था, उन्हें यह दिखाना था कि आजादी केवल राजनीतिक बदलाव नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव भी होनी चाहिए।

जेल में विचारों की क्रांति

भगत सिंह केवल बंदूक के क्रांतिकारी नहीं थे, वे विचारों की ताकत में विश्वास रखते थे। जेल में रहते हुए उन्होंने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की, जिससे ब्रिटिश सरकार को झुकने पर मजबूर होना पड़ा। उन्होंने कई लेख लिखे, जिनमें समाजवाद, धर्म और स्वतंत्रता पर उनके विचार साफ दिखाई देते हैं। उनका मानना था कि असली क्रांति तब होगी जब समाज में बदलाव की लहर आएगी। यह कहना गलत नहीं होगा कि भगत सिंह की असली ताकत उनकी कलम और उनकी सोच थी। जेल में रहते हुए उन्होंने कई लेख लिखे, जिनमें उन्होंने समाजवाद, धर्म, स्वतंत्रता और क्रांति के बारे में अपनी गहरी सोच व्यक्त की। उन्होंने कहा था – “अगर बहरों को सुनाना है, तो आवाज़ को बहुत ऊँचा करना होगा।”

शहादत और अमरता

23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई। लेकिन उनकी मौत केवल एक घटना नहीं थी, यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए ईंधन बन गई। उनकी विचारधारा, उनका साहस और उनकी क्रांतिकारी भावना आज भी जीवंत है। भगत सिंह की विचारधारा केवल ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नहीं थी, बल्कि यह एक शोषणविहीन, न्यायसंगत और वैज्ञानिक सोच पर आधारित समाज की वकालत करती थी। उनकी विचारधारा आज भी हमें एक नई दिशा देने में सक्षम है।

आज के समय में भगत सिंह की विचारधारा की प्रासंगिकता

आज जब हम आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, सामाजिक भेदभाव और सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं, भगत सिंह की विचारधारा पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई है। उन्होंने न केवल स्वतंत्रता संग्राम के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि शोषणमुक्त और समानता पर आधारित समाज की कल्पना भी की। भगत सिंह का मानना था कि असली आज़ादी तभी मिलेगी जब जनता शिक्षित और जागरूक होगी। आज भी, बेहतर शिक्षा व्यवस्था और तर्कशील सोच की जरूरत बनी हुई है। उन्होंने जाति, धर्म और वर्ग के भेदभाव से मुक्त समाज की वकालत की थी। आज भी हमें सामाजिक समरसता और समान अवसरों की दिशा में काम करने की जरूरत है। भगत सिंह ने युवाओं को बदलाव का वाहक माना था। आज, जब देश के युवा विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अपनी आवाज उठा रहे हैं, भगत सिंह की विचारधारा उन्हें मार्गदर्शन दे सकती है। भगत सिंह ने एक ऐसी शासन व्यवस्था की कल्पना की थी जो जनता की सेवा करे, न कि अपने स्वार्थ के लिए सत्ता का दुरुपयोग करे। आज के समय में भी पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग बनी हुई है।

क्या हम उनके सपनों का भारत बना सके?

आज जब हम सामाजिक असमानता, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता से लड़ रहे हैं, भगत सिंह के विचार पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उन्होंने केवल राजनीतिक आज़ादी की नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक समानता की भी बात की थी। भगत सिंह केवल एक नाम नहीं, एक विचारधारा हैं

 भगत सिंह की क्रांति बंदूक से नहीं, बल्कि विचारों से थी। उन्होंने हमें सिखाया कि वास्तविक बदलाव संघर्ष और बलिदान से आता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है सोचने और सवाल करने की शक्ति। आज, जब हम उनके विचारों को अपने जीवन में अपनाने की बात करते हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम उनके सपनों के भारत के निर्माण में अपना योगदान दें।

“इंकलाब जिंदाबाद!”

– डॉo सत्यवान सौरभ,

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार