“महिलाओं पर डबल बोझ: शिक्षा विभाग में कपल केस अंक हटाना”

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“नौकरीपेशा महिलाओं के घर और ऑफिस के दबाव में बढ़ता संघर्ष और सरकारी नीतियों का असंतुलित प्रभाव”

हरियाणा में शिक्षा विभाग की ट्रांसफर पॉलिसी में कपल केस अंक हटाने का निर्णय नौकरीपेशा महिलाओं के लिए गंभीर चुनौती है। समाज में महिलाओं से अपेक्षित “आदर्श पत्नी” और “आदर्श बहू” की भूमिका उन्हें घर और ऑफिस दोनों में बराबरी का बोझ उठाने पर मजबूर करती है। पुरुष कर्मचारी अक्सर केवल अपनी नौकरी पर ध्यान देते हैं, जबकि महिलाएं घर का खाना बनाना, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल और ऑफिस—सभी जिम्मेदारियां निभाती हैं। यह नीतिगत बदलाव महिलाओं पर अतिरिक्त दबाव डालता है और सशक्तिकरण के दावे को कमजोर करता है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके सशक्तिकरण को लेकर आज भी अनेक चुनौतियाँ हैं। विशेषकर नौकरीपेशा महिलाओं के लिए यह चुनौती और भी गहरी है क्योंकि उन्हें घर और कार्यस्थल—दोनों स्थानों पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है। हरियाणा में हाल ही में शिक्षक स्थानांतरण नीति में किए गए बदलाव—जिनमें “कपल केस” के अंक हटाने की सिफारिश शामिल है—ने इस मुद्दे को फिर से उजागर कर दिया है। यह बदलाव केवल प्रशासनिक नहीं है, बल्कि महिलाओं के जीवन और उनके पारिवारिक संतुलन पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।

हरियाणा के शिक्षा विभाग की स्थानांतरण नीति २०१६ से विकसित होती रही है। इस नीति के तहत यदि एक ही परिवार में पति और पत्नी दोनों शिक्षक हों, तो उन्हें कपल केस अंक (प्राथमिकता अंक) दिए जाते थे। इसका उद्देश्य था कि दोनों पति-पत्नी एक ही जिले या नज़दीकी स्थान पर पदस्थापित हो सकें, ताकि पारिवारिक संतुलन बना रहे और महिलाओं को नौकरी के साथ परिवार संभालने में सुविधा मिले। इस प्रकार की प्राथमिकता न केवल महिलाओं के लिए लाभकारी थी, बल्कि यह पूरे परिवार के जीवन, बच्चों की पढ़ाई, पारिवारिक जिम्मेदारियों और मानसिक संतुलन के लिए भी महत्वपूर्ण थी।

२०१६ के बाद इस नीति में कुछ मामूली बदलाव हुए, लेकिन कपल केस अंक बने रहे। २०२३ के ड्राफ्ट स्थानांतरण नीति में अब इन अंक को हटाने की सिफारिश की गई है। इसका अर्थ है कि पति-पत्नी दोनों शिक्षक होने पर अब उन्हें पहले जैसी प्राथमिकता नहीं मिलेगी। इस बदलाव का प्रभाव सीधे महिला शिक्षिकाओं पर पड़ता है। उन्हें अब परिवार और नौकरी के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। पारिवारिक जीवन प्रभावित हो सकता है, क्योंकि पति-पत्नी अलग-अलग स्थानों पर नियुक्त हो सकते हैं। शिक्षक समुदाय में असंतोष और विरोध बढ़ सकता है। शिक्षक संघों और सामाजिक संगठनों ने इसे पारिवारिक और लैंगिक दृष्टिकोण से आलोचना की है। उनका कहना है कि यह निर्णय “महिलाओं के हितों के विरुद्ध” और “परिवार विरोधी” कदम है।

“डबल बर्डन” एक सामाजिक अवधारणा है, जिसका अर्थ है कि महिला को घर और नौकरी—दोनों जगह अपने कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है, जबकि पुरुष केवल अपनी नौकरी पर ध्यान देते हैं। यह असमानता आज भी भारतीय समाज में गहराई से मौजूद है।

एक उदाहरण देखें। एक नौकरीपेशा पुरुष के लिए घर से भोजन ले जाना सामान्य बात है, और उसके घर के अन्य कामों का बोझ कम होता है। वहीं नौकरीपेशा महिला को घर का खाना बनाना, बच्चों की देखभाल, बुजुर्गों की सहायता, घर की सफाई—सभी जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपनी नौकरी भी निभानी पड़ती है। इस असमानता के कारण महिला पर मानसिक, शारीरिक और सामाजिक दबाव बढ़ जाता है। जब स्थानांतरण नीति जैसी सरकारी नीतियाँ भी इस असमानता को नजरअंदाज करती हैं, तो यह सशक्तिकरण के दावों को कमजोर कर देती है।

महिला सशक्तिकरण केवल नौकरी या योजनाओं तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसका असली अर्थ है कि महिलाओं को समान अवसर, समान वेतन, समान जिम्मेदारी और सुरक्षित वातावरण मिले।

हालांकि, जब कपल केस अंक हटाए जाते हैं, तो यह सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से महिलाओं के लिए असमानता को बढ़ाता है। भारतीय समाज में अक्सर महिलाओं से “आदर्श पत्नी” और “आदर्श बहू” बनने की अपेक्षा की जाती है। इसका अर्थ है कि घर और परिवार की जिम्मेदारी महिला पर ही डाली जाती है, जबकि पुरुषों को इस दबाव से अपेक्षाकृत कम गुजरना पड़ता है।

कपल केस अंक हटने का असर इस असमानता को और बढ़ा देता है। महिला शिक्षिका को नौकरी में सफलता पाने के लिए अपने परिवार के समय और जिम्मेदारियों का नुकसान उठाना पड़ सकता है। पारिवारिक संतुलन बिगड़ता है, और इससे महिला की मानसिक और भावनात्मक स्थिति प्रभावित होती है। यह बदलाव महिलाओं को केवल “कर्तव्यपूर्ण” भूमिका तक सीमित करने जैसा है, जबकि उन्हें समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए।

समाज में सुधार की दिशा में कदम उठाने की आवश्यकता है। घर के काम को बराबरी से बाँटना चाहिए। पुरुषों को घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल में बराबरी का योगदान देना चाहिए। सरकारी नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता लाना आवश्यक है। महिलाओं को केवल “त्याग और कर्तव्य” का बोझ न देना, बल्कि समान अधिकार और दर्जा देना चाहिए।

नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता लाना जरूरी है। स्थानांतरण नीतियों में कपल केस जैसी प्राथमिकताओं को बनाए रखना चाहिए और महिला शिक्षिकाओं के लिए पारिवारिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। शिक्षक संघों और समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। संघों के माध्यम से सरकारी निर्णयों पर विचार-विमर्श और विरोध किया जा सकता है। मीडिया और सामाजिक मंचों पर लैंगिक असमानता और डबल बर्डन के प्रभाव पर जागरूकता फैलाना आवश्यक है।

घर और नौकरी का संतुलन बनाए रखना भी जरूरी है। परिवार में जिम्मेदारियों का बराबर बंटवारा किया जाना चाहिए। पुरुषों को घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल में बराबरी का योगदान देना चाहिए। आरटीआई और पारदर्शिता के माध्यम से शिक्षा विभाग से जानकारी लेना चाहिए कि कपल केस अंक हटाने का निर्णय क्यों और किस आधार पर लिया गया। इससे नीति बनाने में पारदर्शिता और न्यायसंगत निर्णय सुनिश्चित होंगे।

हरियाणा में शिक्षक स्थानांतरण नीति में कपल केस अंक हटाना केवल एक प्रशासनिक बदलाव नहीं है, बल्कि यह महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लिए एक चुनौती भी है। यह बदलाव महिलाओं के ऊपर डबल बर्डन को और बढ़ा देता है। महिला सशक्तिकरण का असली अर्थ केवल नौकरी या योजनाओं तक सीमित नहीं, बल्कि समान जिम्मेदारी, पारिवारिक संतुलन और सुरक्षित वातावरण भी है।

यदि समाज और सरकार सच में महिलाओं को सशक्त बनाना चाहते हैं, तो उन्हें नीतियों में लैंगिक संवेदनशीलता, पारिवारिक जिम्मेदारी का बराबर बंटवारा, और महिला अधिकारों की रक्षा पर ध्यान देना होगा। समान अवसर, समान जिम्मेदारी और पारदर्शिता ही महिलाओं के लिए वास्तविक सशक्तिकरण का आधार है। बिना इसके, किसी भी नीतिगत या आर्थिक पहल का प्रभाव सीमित रहेगा और डबल बर्डन जैसी समस्याएं बनी रहेंगी।–

– डॉ. सत्यवान सौरभ

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हिंदू धर्म के त्योहार जीवन शैली और विज्ञान

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हमारे हिंदू धर्म के त्योहार जीवन शैली और विज्ञान से कैसे जुड़े हुए हैं। ये जो छोटे-छोटे पौधे आप देख रहे हैं इन्हें नवरात्रि के शुरू में किसान का साल भर से रखा हुआ अनाज का बीज टैस्ट करने के लिए उगाया जाता था कि अब रवि की फसल बुआई की जानी है किंतु एक साल से जो बीज रखा है उसकी जांच तो कर ली जाए कि उसमें अंकुरण की क्षमता है या सीलन इत्यादि से खराब तो नहीं हो गया है।

दशहरे के बाद अब किसान अनुकूल मौसम आने के कारण रवि की फसल की बुवाई करने में जुट गया है। चार माह बरसात का चौमासा गुजर जाने के बाद घरों में सीलन बरसात के कीट पतंगे और तरह-तरह के बैक्टीरिया उत्पन्न हो गए हैं। “बरखा विगत शरद ऋतु आई लक्ष्मण देखो बहुत सुहाई”। अब घर की गहन सफाई और लिपाई पुताई कर ली जाए ताकि वर्षभर साफ सुथरा रहे और सभी लोग स्वस्थ रहें।

दशहरे से दीपावली के बीच उत्तर भारत में रवि की फसल की बुवाई समाप्त हो जाती थी। तब खुशी में दीपक जलाओ। कीट पतंग को समाप्त करो और उत्सव बनाओ।

इस बीच कुछ लोगों की फसल बोने में कुछ और समय लग जाता है तो तापमान की दृष्टि से गंगा स्नान से पहले गेहूं, चना, जो, मटर इत्यादि की बुवाई समाप्त कर ली जाती है। अब किसान बिल्कुल फ्री है।

अब आता है गंगा स्नान। सारे परिवार के साथ मस्त छुट्टियां बिताने का समय। पिकनिक मनाने का समय। वहीं गंगा के किनारे अपने ट्रैक्टर या भैंसा बुग्गी के पास छोटा सा आशियाना बनाकर मस्त विश्राम और छुट्टियां।

इसी प्रकार आप देखते हैं कि होली में सर्दियों में पानी से बचने की प्रवृत्ति को छोड़कर अब गर्मियां शुरू हो गई हैं इसलिए खूब भींगना है और नई तैयार हो गई फसल की बालियां को होली की आंच में सेक कर उनका स्वाद लेना है।

कितनी वैज्ञानिक और जीवन शैली से जुड़ी हुई है हमारी परंपराएं और हमारे त्योहार।

रविंद्र कांत त्यागी

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हिन्दी सिनेमा पर गाँधी की छाँह

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विपर्यय के इन दिनों में गाँधी, जिनकी तस्वीरें आज़ादी के लगभग दो ढाई दशकों बाद तक भारतवासियों के घरों में लगभग देवपुरुषों की तरह लगी रहती थीं, अब सोशल मीडिया की दीवारों पर मीम बन कर अटपटी भदेस व्यंग्योक्तियों के साथ नज़र आते हैं। इसी के साथ यह भी नज़र आता है कि गाँधी भूमंडलीकरण के बाद के भारत में अब भी सामूहिक अंत:करण में गड़ा हुआ ऐसा काँटा हैं जिनसे निपटने के लिए उपहास, व्यंग्य, गालीगलौज सबका इस्तेमाल भी अकारथ ही सिद्ध होता है।

बहरहाल, इस पृष्ठभूमि में देखें कि हिन्दी सिनेमा में गाँधी की छाँह कैसी क्या पड़ी है।

गाँधी नाम आते ही सबसे पहले रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ (1982) की याद आती है। गाँधी पर सबसे भव्य जीवनीपरक फ़िल्म यही है। बारह एकेडमी अवार्ड विजेता यह फ़िल्म भारत में ही नहीं दुनिया भर में सराही गई और मील का पत्थर बनी। इसने भारी कमाई भी की। बेन किंग्सले ने इसमें शीर्षक भूमिका की थी जबकि छोटी बड़ी भूमिकाओं में अनेक भारतीय कलाकार थे। प्रायः ऐसी फिल्में अपने डॉक्यु ड्रामा फॉर्मेट में निबद्ध होती हैं मगर ‘गाँधी ‘ एक सम्पूर्ण फ़ीचर फ़िल्म की तरह एक महाकाव्यात्मक चरित्र के साथ न्याय करती है। इसका जलियांवाला बाग के नरसंहार वाला दृश्य अविस्मरणीय है। बेन किंग्सले गाँधी की भूमिका में गहरे उतरे हैं और कस्तूरबा के रूप में रोहिणी हटँगड़ी बहुत जमी हैं। फ़िल्म चूँकि गाँधी के साथ साथ ही चलती है बाक़ी सभी चरित्र उनके इर्दगिर्द हाशिए पर हैं। कुछ तो सिर्फ़ दिखाई भर देते हैं।

श्याम बेनेगल की ‘ द मेकिंग ऑफ़ महात्मा ‘ (1996) गाँधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास पर एक अच्छी फ़िल्म है। इसमें गाँधी के महात्मा बनने से पहले का दौर है और गाँधी को एक साधारण मनुष्य की कमजोरियों के साथ चित्रित करने का उपक्रम भी। यह फ़ातिमा मीर की किताब ‘द एप्रेन्टिसशिप ऑफ़ महात्मा’ पर आधारित थी। इसका एक दृश्य स्मृति में अटक जाता है जिसमें गाँधी (रजित कपूर) अपनी पत्नी कस्तूरबा से कुछ दुर्व्यवहार करते हैं और बा (पल्लवी जोशी) उन्हें झिड़कती हैं। बेनेगल के गाँधी महान होने से पहले के ऐसे सहज मनुष्य हैं जिनकी स्वाभाविक दुर्बलताओं में किसी को भी अपना प्रतिबिंब दिखाई दे सकता है। यही इस फ़िल्म की शक्ति भी है।

2005 में एक फ़िल्म आई थी- ‘मैंने गाँधी को नहीं मारा’। इसमें अनुपम खेर ने एक ऐसे मनोरोगी की भूमिका निभाई थी जिसे गाँधी को मारने का गहरा काल्पनिक अपराध बोध है। उसकी बेटी (उर्मिला मातोंडकर) उसका ध्यान रखती है। यह व्यक्ति के रूप में एक समाज का व्यापक अपराध बोध भी हो सकता है। ‘सारांश’ के बाद अनुपम खेर अपनी इसी भूमिका को सबसे यादगार भूमिकाओं में मानते हैं। इस फ़िल्म को कम देखा गया, किंतु इसमें गहनता से एक मानवीय स्थिति को देखा गया गया है जो अपने समग्र प्रभाव में एक सामाजिक, राजनीतिक टिप्पणी भी बनती है।

अनिल कपूर ने 2007 में गाँधी और उनके बड़े बेटे हरिलाल के तनावपूर्ण सम्बन्धों पर एक फ़िल्म बनाई थी – ‘गाँधी माई फ़ादर’। इसमें हरिलाल की भूमिका में अक्षय खन्ना थे और गाँधी की भूमिका में थे दर्शन जरीवाला। यह फ़िल्म पिता पुत्र के बीच आपसी समझ के अभाव से लगा कर बेटे की बर्बादी तक की यात्रा को बहुत विचलित करने वाले ढंग से प्रस्तुत करती है। आखिर एक महान राष्ट्र का पिता कहा जाने वाला व्यक्ति अपनी सन्तान के मोर्चे पर एक असफल पिता क्यों कर साबित हुआ। एक सार्वजनिक जीवन की ये कुछ गुत्थियां अनसुलझी रह जाती हैं, जहाँ व्यक्तिगत ; सामाजिक और राजनीतिक जीवन की भेंट चढ़ जाता है। इसमें किसे दोषी माना जाए और किसे निर्दोष, यह फ़ैसला बहुत मुश्किल होता है। एक असुविधाजनक, असहज करने वाले और महात्मा को वेध्य बनाने वाले इस विषय के साथ न्याय करना आसान नहीं था और इसे किसी मर्मज्ञ और दक्ष , श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक की आवश्यकता थी। तब भी इसे छूने के लिए निर्माता अनिल कपूर और निर्देशक फिरोज़ अब्बास खान की सराहना की जानी चाहिए। इस फ़िल्म में कस्तूरबा की भूमिका में शेफाली शाह हैं।

दर्शकों की नई पीढ़ी के लिए गाँधीवाद के बजाय गाँधीगिरी जैसा शब्द गढ़ा विधु विनोद चोपड़ा द्वारा निर्मित और राजकुमार हिरानी द्वारा निर्देशित ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ ने। 2006 की इस फ़िल्म ने नए मुहावरे में मनोरंजन और सन्देश की मिक्स पैकेजिंग में एक तरह से गाँधी को नए दर्शकों से रूबरू करवाया। एक दृष्टिकोण से इस फ़िल्म पर गाँधी दर्शन और विचार को पनियल करने का आरोप लगाया जा सकता है मगर यह भी सही है कि इस फ़िल्म ने युवा दर्शकों में गाँधी के लिए उत्सुकता पैदा की, अहिंसक विरोध के विचार को पुनर्जीवित किया। व्यावसायिक, मनोरंजन प्रधान हिन्दी सिनेमा में गाँधी का यह अनुकूलन रेखांकित किए जाने योग्य है। मुन्ना ( संजय दत्त) और सर्किट (अरशद वारसी) के साथ बनी इस फ़िल्म में गाँधी (दिलीप प्रभवलकर) सिर्फ़ गुंडे मुन्ना भाई को दिखाई देते हैं। स्वानन्द किरकिरे ने इसके लिए गाँधी जी पर ‘बंदे में था दम’ गीत रचा जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। युवा दर्शकों के साथ कनेक्ट होती शब्दावली में, एक रंजक व्याकरण की सिनेमाई संरचना में गाँधी की यह प्रस्तुति हिन्दी सिनेमा की एक स्मरणीय रचना है। राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने इसे मेहनत और तन्मयता से लिखा और पर्दे पर साकार किया। एक संक्षिप्त अवधि में इस फ़िल्म का सामाजिक प्रभाव भी दिखाई दिया जब किसी विसंगति या अन्याय का प्रतिकार फूल देकर किया जाने लगा। यह सब भले ही लम्बा न चला हो, इसमें संदेह नहीं कि नए दर्शकों को दी गई यह गाँधीवाद की शुगरकोटेड गोली थी। यह उनका एक सहज, सरल, सुगम और सुपाच्य संस्करण अपने उन दर्शकों के लिए सुलभ कराती थी जो गाँधी से बहुत दूर चले आए हैं।

गाँधी हर युग में नए ढंग से पढ़े और प्रस्तुत किए जाएंगे। वे अपनी विभिन्न व्याख्याओं के लिए हमेशा चुनौती पेश करते हैं। उन पर तब भी ध्यान जाता है जब वे और उनके विचार समाज में अप्रासंगिक या अनुपस्थित लगने लगते हैं। फिर कोई उनकी याद करता है; फिर कोई उनकी बात छेड़ देता है। ‘सुन ले बापू ये पैगाम, मेरी चिट्ठी तेरे नाम’ (बालक) और ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल’ (जागृति ) के भावुक , गाँधी के दैवीकरण से ओतप्रोत गीतों से लगा कर ‘बंदे में था दम’ तक के गीतों और फ़िल्मों में बदलते मुहावरों में गाँधी हमारे सामने आते रहे हैं। आगे भी आते रहेंगे।

— आशुतोष दुबे

संघ के शताब्दी वर्ष में संघ के मंचों से नव चिंतन सामने आएगा

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– कौशल सिखौला

महान राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ 2025 को अपनी सौवीं जयंती के रूप में मना रहा है । डॉ हेडगेवार और गुरु गोलवलकर से मोहन भागवत तक आते आते इस संस्था के गर्भ से असंख्य राष्ट्रचिंतकों ने जन्म लिया है । करोड़ों या फिर सच कहें तो 194 करोड़ वर्ष पुरानी प्राचीनतम आर्य सभ्यता एवम् संस्कृति की रक्षा के लिए संघ रूपी यह विराट वट वृक्ष सीना ताने यथावत खड़ा है ।

जिन्हें अखण्ड आर्यावर्त भारतवर्ष की महान परंपराओं पर गर्व है वे जानते हैं कि संघ की यह चैतन्य धारा अभी अनंतकाल तक प्रवाहमान रहेगी । संघ के शताब्दी वर्ष में निश्चय ही संघ के मंचों से नव चिंतन सामने आएगा ।

एक बात मानने में किसी को भी संकोच नहीं हैं कि स्वाधीनता आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ था । यह आंदोलन आज की कांग्रेस ने नहीं , आंदोलनकारी कांग्रेस ने प्रारंभ किया था । कांग्रेस एक स्वाधीनता आंदोलन थी पार्टी नहीं । तभी आजादी मिलने के बाद जब बापू को लगा कि कांग्रेस रूपी यह स्फूर्त आंदोलन अब एक राजनैतिक पार्टी में बदल जाएगा तो उन्होंने उसे भंग करने की सलाह दी थी । आज की कांग्रेस को देखकर समझ लीजिए कि बापू का अनुमान कितना सही था ।

उसी कांग्रेस आंदोलन से डॉ हेडगेवार आए और संघ की स्थापना की । डॉ हेडगेवार समझ गए थे देश में राष्ट्रवाद की स्थापना करने के लिए जिन चरित्रवान लोगों की आवश्यकता है उसके लिए एक संगठन बनाना पड़ेगा । उनका चिंतन 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन एक संगठन के रूप में सामने आया । वही विचार आज संघ के सैकड़ों प्रकल्पों के रूप में अपनी स्थापना के 100 वर्ष मना रहा है । संघ ने देश को दो प्रधानमंत्री दिए । वर्तमान प्रधानमंत्री के पद पर आसीन संघ का एक प्रचारक देश को ऊंचाई के जिस सोपान पर ले गया वह सचमुच अदभुत है ।

हमें आज तक समझ नहीं आया कि 78 वर्ष की आजादी के बाद भी लोग राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी विचारधारा से चिढ़ते क्यूँ हैं ? अरे भाई इस देश को लूटने मुगल आक्रांता न आते तो आज भी हिन्दू राष्ट्र ही होता भारत ? ग्यारहवीं शताब्दी तक बड़े आनंद से जी रहा था अनादि हिन्दूराष्ट्र भारत । कहीं राष्ट्र साधना , कहीं राष्ट्र यज्ञ तो कहीं राष्ट्रीय वैभव के लिए अनुष्ठान । विश्व का सबसे चिंतनशील और वैभवशाली धनाढ्य देश था हिन्दू भारतवर्ष ।

हर विधा में इतना प्रवीण कि बाकी दुनिया हमारे ज्ञान की बिखरी हुई खुरचन ही चाटती रह जाए । इसी सोने की चिड़िया और ज्ञान विज्ञान को ही तो लूटने आए लुटेरे ? संघ ने अतीत के उसी वैभव को पुनर्स्थापित करने का काम शुरू किया तो बुरा मान गए ? आज विजयादशमी है । संघ का शताब्दी वर्ष भारतमाता को विश्व के शीर्ष पर स्थापित करे , आइए हम सब यही कामना और प्रार्थना करते हैं । नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे ।

– कौशल सिखौला

लोक आस्था, संस्कृति के प्रतीक त्योहार और मेले

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                                                   बाल मुकुन्द ओझा                                             

देश में दशहरे मेले के साथ मेले ठेलों की शुरुआत हो गई है। भारत मेलो और तीज त्योहारों का देश है। यहाँ दुनियाँ के सबसे ज्यादा त्योहार मनाये जाते है। यहीं पर दुनियाँ में सबसे ज्यादा मेलो का आयोजन होता है। इनमे से कुछ मेले तो दुनिया के सबसे बड़े व विशाल मेलो में शुमार है जिन्हें देखने पूरी दुनिया से हर साल लाखों लोग भारत आते है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में मेलों का विशेष महत्व है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तक न जाने कितने प्रकार के मेले भारत में लगते हैं। इन सभी मेलों का अपना अपना महत्व है। मेलों को संस्कृति और रंगीन जीवन शैली का पैनोरमा कहा जा सकता है। इन मेलों में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप का अद्वितीय और दुर्लभ सामजस्य दिखाई देता है, जो कहीं और नहीं दिख पाता। मेले न केवल मनोरंजन के साधन हैं, अपितु ज्ञानवर्द्धन के साधन भी कहे जाते हैं। प्रत्येक मेले का इस देश की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं से जुड़ा होना इस बात का प्रमाण हैं कि ये मेले किस प्रकार जन मानस में एक अपूर्व उल्लास, उमंग तथा मनोरंजन करते हैं। मेला स्थानीय लोक संस्कृति, परंपरा और लोक संस्कारों के विविध रूपों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है।

भारत में मेले, लोकसंस्कृति और परंपरा के माध्यम से आस्था, उमंग और उत्सव की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। मेलों का आयोजन प्राय: किसी पर्व या त्योहार के अवसर पर किया जाता है। मेला हमारे समाज को जोड़ने तथा हमारी संस्कृति और परंपरा को सुरक्षित रखने में अहम् भूमिका निभाता है। यह उत्पादकों और खरीददारों के लिए बाजार भी उपलब्ध कराता है। खाने-पीने से लेकर मौज-मस्ती की सभी चीजें मेले को आकर्षक बनाती हैं। मेलों में कहीं लोकगीतों की लहरियां हमारे दिल के तार को झंकृत करती हैं तो कहीं लोकनृत्य के माध्यम से हमारे तन-बदन में थिरकन पैदा होने लगती है।

राजस्थान के मेले यहाँ की बहुरंगी संस्कृति के परिचायक है। राजस्थान मेलों  का आयोजन धर्म, लोकदेवता, लोकसंत और लोक संस्कृति से जुड़ा हुआ है। मेलों में नृत्य, गायन, तमाशा, बाजार आदि से लोगों में प्रेम व्यवहार, मेल-मिलाप बढ़ता है। राजस्थान के प्रत्येक अंचल में मेले लगते है। इन मेलों का प्रचलन प्रमुखतः मध्य काल से हुआ जब यहाँ के शासकों ने मेलों को प्रारम्भ कराया। मेले धार्मिक स्थलों पर एवं उत्सवों पर लगने की यहाँ परम्परा रही है जो आज भी प्रचलित है। राजस्थान में जिन उत्सवों पर मेले लगते है उनमें विशेष हैं- गणेश चतुर्थी, नवरात्र, अष्टमी, तीज, गणगौर, शिवरात्री, जनमाष्टमी, दशहरा, कार्तिक पूर्णिमा आदि। इसी प्रकार धार्मिक स्थलों (मंदिरों) पर लगने वाले मेलों में तेजाजी, शीतलामाता, रामदेवजी, गोगाजी, जाम्बेश्वर जी, हनुमान जी, महादेव, आवरीमाता, केलादेवी, करणीमाता, अम्बामाता, जगदीश जी, महावीर जी आदि प्रमुख है। राजस्थान के धर्मप्रधान मेलों में जयपुर में बालाजी का, हिण्डोन के पास महावीर जी का, अन्नकूट पर नाथद्वारा का, गोठमांगलोद में दधिमती माता का, एकलिंग जी में शिवरात्री का, केसरिया में धुलेव का, अलवर के पास भर्तहरि जी का और अजमेर के पास पुष्कर जी का मेला गलता मेला प्रमुख है। इन मेलों में लोग भाक्तिभावना से स्नान एवं अराधना करते हैं।  लोकसंतो और लोकदेवों की स्मृति एवं श्रद्धा में भी यहाँ अनेक मेलों का आयोजन होता है। रूणेचा में रामदवे जी का, परबतसर में तेजाजी का, काले गढ़ में पाबूजी का, ददेरवा में गोगाजी का, देशनोक में करणीमाता का, नरेणा(जयपुर)-शाहपुरा (भीलवाड़ा) में फूलडोल का, मुकाम में जम्भेष्वरजी का, गुलाबपुरा में गुलाब बाबा का और अजमेर में ख्वाजा साहब का मेला लगता है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

महात्मा गांधी की जान बचाने वाले बतख मियां

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महात्मा गांधी को पूरी दुनिया जानती है किंतु उनकी जान बचाने वाले बतख मियां को कोई जानता भी नही। बतख मियां चंपारण के रहने वाले थे।बतख मियां। बतख मियां अंग्रेज मैनेजर इरविन के रसोईया हुआ करते थे।

बात 1917 की है जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद चंपारण के किसान और स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गांधी डॉ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के हाथों नील की खेती करने वाले के किसानों की दुर्दशा का ज़ायज़ा लेने चंपारण आए थे। चंपारण प्रवास के दौरान उन्हें जनता का अपार समर्थन मिला था। लोगों के आंदोलित होने से जिले में विद्रोह और विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की प्रबल आशंका थी। वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में गांधी जी को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। बतख मियां इरविन के ख़ास रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के के उद्देश्य से बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नज़र आई थी। उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ। उन्होंने गांधी जी को दूध का ग्लास देते हुए वहां उपस्थित राजेन्द्र प्रसाद के कानों में यह बात डाल दी।

उस दिन गांधी की जान तो बच गई लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने उन्हें बेरहमी से पीटा, सलाखों के पीछे डाला और उनके छोटे-से घर को ध्वस्त कर कब्रिस्तान बना दिया। देश की आज़ादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आबंटित करने का आदेश दिया। बतख मियां की लाख भागदौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में बतख मियां ने दम तोड़ दिया।चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेल स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं !

महात्मा गांधी की सबसे ज्यादा प्रतिमाएं अमेरिका में हैं

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न्यूयार्क के मैडम तुशाद के म्यूजियम में लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा

महात्गांमा गांधी अकेल ऐसे भारतीय है जिंनकी दुनियाभर में प्रतिमाएं एवं स्टेचू हैं। महात्मा गांधी कभी अमेरिका क नहीं गए लेकिन भारत के बाद उनकी सबसे ज्यादा मूर्तियां, स्मारक और संस्थायें अमेरिका में ही हैं। जानकारी के मुताबिक, अमेरिका में गांधी जी की दो दर्जन से ज्यादा से प्रतिमाएं और एक दर्जन से ज्यादा सोसाइटी और संगठन हैं।
महात्मा गांधी भारत के अकेले ऐसे नेता रहे हैं, जिनकी भारत सहित 84 देशों में मूर्तियां लगी हैं। पाकिस्तान, चीन से लेकर छोटे-मोटे और बड़े-बड़े देशों तक में बापू की मूर्तियां स्थापित हैं।
उनके जन्मदिवस पर पूरी दुनिया अहिंसा दिवस मनाती है।महात्मा गांधी की हत्या के 21 साल बाद ब्रिटेन ने उनके नाम से डाक टिकट जारी किया। इसी ब्रिटेन से भारत ने गांधी की अगुआई में आज़ादी हासिल की थी। भारत में 53 मुख्य मार्ग गांधी जी के नाम पर हैं। जबकि अलग-अलग देशों में कुल 48 सड़कों के नाम महात्मा गांधी के नाम पर हैं।गांधी जी द्वारा शुरु किया गया सिविल राइट्स आंदोलन कुल 4 महाद्वीपों और 12 देशों तक पहुंचा था।

अपने पूरे जीवन में महात्मा गांधी ने कोई राजनीति पद नहीं लिया। इसीलिए आज़ादी की लड़ाई में उनके नेतृत्व पर कभी कोई सवाल नहीं उठा पाया, क्योंकि उनको न 8000 करोड़ का विमान चाहिए था, न ही 20000 करोड़ का बंगला।
नेल्सन मंडेला से लेकर मार्टिन लूथर किंग तक गांधी के मुरीद थे, बराक ओबामा जैसे तमाम वर्ल्ड लीडर आज भी गांधी के मुरीद हैं। अपने वक़्त के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि “कुछ सालों बाद लोग इस बात पर यकीन नहीं करेंगे कि महात्मा गांधी जैसा शख्स कभी इस धरती पर हाड़ मांस का शरीर लेकर पैदा हुआ था।”
अफ्रीका जैसे कई देशों ने गांधी के आदर्शों और रास्तों से आंदोलन चलाया और आज़ादी हासिल की।यहां तक कि दुनिया के कई बदनाम-बर्बाद देश भी गांधी की इज्जत करते हैं। कई निकृष्ट नेता भी गांधी का अपमान करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

वर्तमान संदर्भों में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता: समाधान का शाश्वत दर्शन

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​मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं, केवल इतिहास का एक अध्याय नहीं हैं; वे एक शाश्वत दर्शन हैं। आज, जब दुनिया हिंसा, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक असमानता और सामाजिक विभाजन जैसी जटिल चुनौतियों से जूझ रही है, तब गांधी के सिद्धांत पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। उनके विचार, जो सत्य, अहिंसा और सादगी पर आधारित थे, आधुनिक समस्याओं के लिए अचूक उपचार प्रस्तुत करते हैं।

​सत्य और अहिंसा: वैश्विक संघर्षों का समाधान

​गांधी जी का मूल मंत्र सत्य (Truth) और अहिंसा (Non-violence) आज की दुनिया के लिए सबसे बड़ा सबक है। आज अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में झूठ, संदेह और युद्ध का माहौल है। ऐसे में, गांधी का अहिंसक प्रतिरोध (सत्याग्रह) न केवल एक राजनीतिक हथियार है, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय आंदोलनों के लिए भी एक नैतिक ढाँचा प्रदान करता है।

​हिंसा और आतंकवाद: दुनिया के कई हिस्सों में सशस्त्र संघर्ष और आतंकवाद ने मानवता को खतरे में डाल दिया है। गांधी सिखाते हैं कि किसी भी समस्या का स्थायी समाधान हिंसा से नहीं, बल्कि संवाद और मानवीय प्रेम से संभव है। उनके विचार मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं के लिए प्रेरणा बने, जिन्होंने अहिंसा के मार्ग से बड़े सामाजिक परिवर्तन लाए।

​सत्य और ईमानदारी: आज के ‘पोस्ट-ट्रुथ’ युग में, जहाँ दुष्प्रचार और फेक न्यूज़ का बोलबाला है, गांधी का सत्य के प्रति आग्रह हमें पारदर्शिता और नैतिक आचरण का मूल्य सिखाता है। वे मानते थे कि साध्य की पवित्रता के लिए साधन का पवित्र होना आवश्यक है, जो राजनीति और प्रशासन में नैतिकता को सर्वोच्च स्थान देने की बात करता है।

​सर्वोदय और न्यासधारिता: आर्थिक विषमता पर नियंत्रण

​गांधी जी का आर्थिक दर्शन भी वर्तमान समय में गहरा अर्थ रखता है, खासकर जब पूंजीवादी व्यवस्था के कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है।

​न्यासधारिता (Trusteeship): गांधी जी ने न्यासधारिता का सिद्धांत दिया, जिसके अनुसार धनी वर्ग को अपनी संपत्ति का मालिक नहीं, बल्कि समाज का ट्रस्टी (संरक्षक) समझना चाहिए। उन्हें यह संपत्ति अपनी निजी ज़रूरतों से अधिक समाज के कल्याण के लिए उपयोग करनी चाहिए। यह सिद्धांत कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (CSR) और परोपकार को एक नैतिक आधार प्रदान करता है, जिससे आर्थिक विषमता को कम करने में मदद मिल सकती है।

​सर्वोदय (Upliftment of All): ‘सर्वोदय’ का अर्थ है सबका उदय, या सबके जीवन स्तर में सुधार। यह अवधारणा समावेशी विकास (Inclusive Growth) की आधुनिक विचारधारा के अनुरूप है, जिसमें अंतिम व्यक्ति (अंत्योदय) का कल्याण केंद्र में होता है। यह सरकारों को केवल आर्थिक वृद्धि पर नहीं, बल्कि मानव विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा पर समान ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है।

​स्वदेशी और ग्राम स्वराज: आत्म-निर्भरता और पर्यावरण संरक्षण

​वैश्वीकरण के दौर में, गांधी के स्वदेशी और ग्राम स्वराज के विचार आत्म-निर्भरता और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए एक मॉडल प्रस्तुत करते हैं।

​स्वदेशी और आत्म-निर्भरता: ‘स्वदेशी’ का अर्थ है अपने पड़ोसी क्षेत्र में बनी वस्तुओं का उपयोग करना और अपनी स्थानीय अर्थव्यवस्था का समर्थन करना। यह विचार वर्तमान में भारत सरकार के ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान का नैतिक आधार है। यह स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देता है, ग्रामीण रोज़गार उत्पन्न करता है और लोगों को आत्म-निर्भर बनाता है।

​टिकाऊ विकास (Sustainable Development): गांधी जी ने प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीने पर जोर दिया। उनका यह प्रसिद्ध कथन कि, “पृथ्वी के पास हर व्यक्ति की ज़रूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने के लिए नहीं,” जलवायु परिवर्तन के संकट में एक चेतावनी की तरह है। वे सादा जीवन, कम उपभोग और विकेन्द्रीकृत उत्पादन (कुटीर उद्योग) का समर्थन करते थे, जो आज के टिकाऊ विकास (Sustainable Development) और पर्यावरणीय नैतिकता के सिद्धांतों का मूल है।

​सामाजिक एकता और रचनात्मक कार्यक्रम

​गांधी जी की देश सेवा केवल स्वतंत्रता तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने समाज के भीतर व्याप्त बुराइयों को भी दूर करने का प्रयास किया।

​अस्पृश्यता निवारण: उन्होंने अस्पृश्यता के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया और अछूतों को ‘हरिजन’ (ईश्वर के जन) कहकर सम्मान दिया। आज भी, जब समाज में जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर भेदभाव मौजूद है, गांधी का समानता और भाईचारे का संदेश सामाजिक न्याय के संघर्षों को दिशा देता है।

​राष्ट्रीय एकता: उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया और सांप्रदायिक सद्भाव को राष्ट्रीय जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता माना। आज भी सांप्रदायिक तनाव को कम करने और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में उनके सिद्धांत मार्गदर्शक हैं।

​उपसंहार

​महात्मा गांधी की प्रासंगिकता किसी एक देश या काल तक सीमित नहीं है। उनका दर्शन मानव स्वभाव और समाज की मूलभूत समस्याओं पर आधारित है। उनकी सादगी, निर्भीकता और आत्म-सुधार पर जोर देने वाली जीवन-शैली आज के युवाओं के लिए भी एक आदर्श है।
​गांधी को समझने का अर्थ केवल उनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण करना नहीं है, बल्कि सत्य, अहिंसा, ईमानदारी और सादगी के सिद्धांतों को अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतारना है। जब तक दुनिया में अन्याय, गरीबी, हिंसा और पर्यावरण का शोषण मौजूद रहेगा, तब तक महात्मा गांधी का दर्शन समाधान के एक शाश्वत स्रोत के रूप में प्रासंगिक बना रहेगा।

पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और उनकी देश सेवा

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सादगी के प्रतीक, दृढ़ता के पर्याय: पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और उनकी देश सेवा

​भारत के राजनीतिक क्षितिज पर कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिनकी सादगी और कर्तव्यनिष्ठा उनकी सबसे बड़ी पहचान बनी। ऐसे ही एक महान सपूत थे लाल बहादुर शास्त्री, जो भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने। उनका जीवन एक साधारण व्यक्ति के असाधारण राष्ट्र-प्रेम और देश सेवा की एक अनुपम गाथा है।

​प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी

​लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ था। एक गरीब परिवार में जन्मे ‘नन्हे’ (बचपन का नाम) को छोटी उम्र में ही पिता का साया खोना पड़ा। अभावों में पले-बढ़े शास्त्री जी ने विपरीत परिस्थितियों में भी शिक्षा के प्रति अपनी लगन बनाए रखी। वाराणसी के काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त करने के बाद, यह उपाधि उनके नाम का स्थायी हिस्सा बन गई।
​महात्मा गांधी के विचारों से गहराई से प्रभावित होकर, किशोरावस्था में ही उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में कूदने का फैसला किया। 1921 में गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया। इस दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा और उन्होंने अपने जीवन के लगभग सात वर्ष कारावास में बिताए। स्वतंत्रता संग्राम की इस अग्निपरीक्षा ने उनके व्यक्तित्व को और भी अधिक परिपक्व और दृढ़ बनाया।

​स्वतंत्रता के बाद की प्रशासनिक यात्रा

​आज़ादी के बाद, शास्त्री जी ने एक कुशल प्रशासक के रूप में अपनी योग्यता सिद्ध की। उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में कार्य करने के बाद, वे उत्तर प्रदेश के पुलिस और परिवहन मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने पुलिस को भीड़ नियंत्रण के लिए लाठी चार्ज के बजाय पानी की बौछार (वाटर जेट) का उपयोग करने का निर्देश देकर एक मानवीय पहल की। परिवहन मंत्री के रूप में, उन्होंने राज्य सड़क परिवहन सेवा का राष्ट्रीयकरण किया और महिलाओं को बस कंडक्टर के रूप में नियुक्त करने जैसा प्रगतिशील कदम उठाया।
​1951 में वे केंद्र की राजनीति में आए और केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेलवे मंत्री, परिवहन और संचार मंत्री, वाणिज्य और उद्योग मंत्री, और गृह मंत्री जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उनका रेल मंत्री के पद से इस्तीफा देना उनकी उच्च नैतिक मूल्यों और ईमानदारी का प्रमाण है, जिसने भारतीय राजनीति में शुचिता का एक नया मानदंड स्थापित किया। गृह मंत्री के रूप में, उन्होंने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए पहली औपचारिक समिति (संथानम समिति) की स्थापना करके प्रशासन में पारदर्शिता लाने का प्रयास किया।

​प्रधानमंत्री के रूप में संक्षिप्त किन्तु शानदार कार्यकाल

​पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद,नौ जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री ने भारत के दूसरे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। हालांकि उनका कार्यकाल केवल 18 महीने का था, लेकिन यह चुनौतियाँ और असाधारण नेतृत्व की मिसाल से भरा रहा।
​1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध और “जय जवान, जय किसान”
​उनके प्रधानमंत्रित्व काल की सबसे बड़ी परीक्षा 1965 में आई, जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया। एक शांत और विनम्र दिखने वाले नेता ने इस दौरान अभूतपूर्व दृढ़ता और साहस का परिचय दिया। देश में गंभीर खाद्य संकट और युद्ध के खतरे के बीच, उन्होंने ‘जय जवान, जय किसान’ का ऐतिहासिक नारा दिया। यह नारा देश के सैनिकों के पराक्रम और किसानों की मेहनत को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्र की दो सबसे महत्वपूर्ण ताकतों का सम्मान था।
​उनके नेतृत्व में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को निर्णायक जवाब दिया और युद्ध में विजय हासिल की। इस दौरान उन्होंने देशवासियों से हफ्ते में एक दिन (सोमवार की शाम) उपवास रखने का आग्रह किया, ताकि बचे हुए अनाज को खाद्य संकट से जूझ रहे लोगों तक पहुँचाया जा सके। उनके इस आह्वान को पूरे देश ने सहर्ष स्वीकार किया, जो जनता और उनके नेता के बीच अटूट विश्वास को दर्शाता है।
​कृषि और आर्थिक सुधारों की नींव
​शास्त्री जी ने भारत को आत्म-निर्भर बनाने पर ज़ोर दिया। उन्होंने कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिया, जो नेहरू के कार्यकाल में कुछ हद तक उपेक्षित रहा था। उन्होंने हरित क्रांति की नींव रखी, वैज्ञानिक खेती, उच्च उपज वाले बीज और बेहतर सिंचाई सुविधाओं को बढ़ावा दिया।
​इसके अतिरिक्त, उन्होंने भारत को दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देशों में से एक बनाने के उद्देश्य से श्वेत क्रांति के विचार को भी आत्मसात किया। 1965 में उन्होंने राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) की स्थापना की, जिसने आगे चलकर भारत की दुग्ध उत्पादन क्षमता को बदल दिया।

​ताशकंद समझौता और दुखद अंत

​10 जनवरी 1966 को, उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ शांति समझौता करने के लिए ताशकंद (तत्कालीन सोवियत संघ) की यात्रा की। इस समझौते पर हस्ताक्षर करके उन्होंने युद्ध की समाप्ति की घोषणा की, जिसके एक दिन बाद ही, 11 जनवरी 1966 को, रहस्यमय परिस्थितियों में उनका निधन हो गया।

​विरासत और सम्मान

​लाल बहादुर शास्त्री का जीवन सादगी, ईमानदारी और दृढ़ संकल्प की एक अमर कहानी है। वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने कभी अपने पद का दुरुपयोग नहीं किया और हमेशा आम आदमी की तरह जीवन जिया। उनकी ईमानदारी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए भी उनके पास एक साधारण कार खरीदने के लिए कर्ज लेना पड़ा था।
​उनकी सेवाओं के लिए, उन्हें 1966 में मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। ‘जय जवान, जय किसान’ का उनका नारा आज भी भारत की राष्ट्रीय भावना और आत्म-निर्भरता की प्रेरणा बना हुआ है। लाल बहादुर शास्त्री भारतीय राजनीति में एक ऐसे ‘छोटे कद के बड़े नेता’ के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे, जिन्होंने अपने थोड़े से कार्यकाल में भी देश को विपरीत परिस्थितियों में भी एक नई दिशा और आत्मविश्वास प्रदान किया।

कैसे हो गया यह सब…क्यों मर गया रावण

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व्यंग्य

कैसे हो गया यह सब…क्यों मर गया रावण

सीन-1

“कैसे हुआ यह सब। सुनकर बहुत दुख हुआ।”

-जी। रात में अच्छे भले सोये थे। सवेरे चले गए।

“कुछ बताया नहीं किसी को।”

जी नहीं। हम तो सब सो रहे थे।

-“कोई तकलीफ…?”

-हुई भी होगी तो पता नहीं ।

-“अच्छा”

-हमारे तो पिता ही सहारे थे ।

-“पिता तो सबकुछ होते हैं। अब क्या करोगे..?”

-देखते हैं।

-“बिना पिता के रहना तो मुश्किल है। कुछ तो सोचना पड़ेगा । आज नहीं तो कल।”

सीन-2

-“कैसे चली गईं माता जी…”

-जी, बीमार थीं। अचानक हार्ट अटैक हुआ था।

-“पहले पता नहीं चला था क्या…?हार्ट अटैक आएगा”

-पता चलता तो बचा ही लेते…?

“हां। हार्ट अटैक में कहां बचता है…”

( अब पिता जी क्या करेंगे..? कुछ तो करना पड़ेगा। अकेले कब तक रहेंगे..?)

सीन-3

“भाभी जी को क्या हुआ था…?”

-कुछ खास नहीं। बस चली गई

-“लड़ाई तो नहीं हुई थी…?”

थोड़ी बहुत तो हर घर में होती है। यूं तो कोई नहीं चला जाता।

-“आजकल वक्त बहुत खराब है। लोग चले भी जाते हैं। लेकिन । अपनी सोचो। जिंदगी पड़ी है। रिमैरिज तो करनी पड़ेगी।”

-वो बाद की बात है। अभी तो तेरहवीं भी नहीं हुई है।

-“हम उसके बाद आते हैं। बैठकर बातें करते हैं ।”

कल्पना कीजिए। घर में किसी की मृत्यु हुई। कैसे हुई…यह बताने में पसीने आ जाते हैं। जो भी आता है, उसी को बताना पड़ता है, कैसे गए । वर्मा जी हों या शर्मा जी, सभी की हालत एक सी है। वीआईपी डेथ पर तो और हाल बुरा है। शोक व्यक्त करने वाले रैली की तरह आते हैं । सबको बारी-बारी से पूरा विवरण दो।

क्या ही अच्छा हो….एक ऑडियो चला दी जाए…..”शर्मा जी या वर्मा जी बीमार थे। रात को अच्छे भले सोये थे। पानी पिया था। सुबह बिना बताये चले गए। घर के हम सब सोये पड़े थे। आपकी संवेदनाओं के प्रति हार्दिक आभार।”

लेकिन हम लोग इतने से भी कहां मानते हैं। एक बस अड्डे पर पान की दुकान थी। उस पर बोर्ड लगा था….”यहां बसों के आने-जाने का समय नहीं बताया जाता।” तभी एक बंदा आया….”क्यों, दिल्ली वाली बस आई या नहीं।” दूसरा बंदा आया….”क्या फतेहपुर की बस चली गई ।” दुकानदार परेशान। उसने लगे बोर्ड की तरफ इशारा कर दिया। पूछने वाले कहां चुप होते हैं? बस की पूछताछ करते रहे।

कुछ दिन बाद पान वाले ने बोर्ड को पलट दिया….”यहां बसों के आने-जाने का समय बताया जाता है।” उस दिन से उसके पास कोई नहीं आया।

यहां उलटी ही रीति है। रावण हर साल फूंका जाता है। बुराइयों का अंत करो। टीवी अखबार वाले चिल्लाते हैं….रावण के दस मुंह यानी ये 10 बुराई। बुराई क्या गिनाते हैं ये भी देखिए…प्रदूषण, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार, बलात्कार, रोजगार, महामारी, जाम और गड्ढे।अगर रावण के 20 मुंह होते तो बुराई की तलाश अंतरिक्ष तक पहुंच जाती।

अब कोई पूछे…रावण के इन दस सिरों का इससे क्या मतलब ? रावण राज में इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता कि जीडीपी क्या थी? रोजगार कितना था ? वह रावण क्यों बना ? सीता हरण की रिपोर्ट किस थाने में दर्ज हुई। आदि आदि ।

हमारे सवाल आदि अनादि और आदी हैं। पंडित बताते हैं–भद्रा और पंचक में रावण को नहीं फूंकते । जो खुद बुराई का प्रतीक है । वह अशुभकाल में चला जाए तो क्या होगा…? लेकिन नहीं । हम परंपराएं ढोते हैं। हमारा हाल हर उस दुखी आत्मा की तरह है जो यह सवाल करता है….मिस्टर फलांना कैसे चला गया ?

रावण की डेथ के बाद महिलाएं पल्लू से मुंह छिपाए मंदोदरी के पास आई..”बहन! ये सब कैसे हो गया? तुमने समझाया क्यों नहीं? सीता को लौटा देते.. भाईसाहब? अब आगे क्या करोगी? पूरी जिंदगी पड़ी है? तुम्हारा तो खानदान ही मिट गया।”

( इतिहास भी नहीं बताता । रावण के बाद मंदोदरी का क्या हुआ ।)।

अच्छा हुआ, बड़े लोग समय से चले गए। वरना शोकसंतप्त आत्माओं/ टीवी वालों को कौन बताता….”क्या, क्यों और कैसे चले गए गांधी जी….शास्त्री जी ।” रावण चला गया। और हम राम पथ से क्यों दूर हो गए।

सूर्यकांत

वरिष्ठ पत्रकार,सामाजिक चिंतक, साहित्यकार