नीला हाथी जागा, मगर क्या चलेगा भी?

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कभी वो दिन थे जब बहन मायावती का नाम लेते ही बड़े-बड़े नेता थर्रा जाते थे। बसपा की गूंज दिल्ली से लेकर दक्षिण तक सुनाई देती थी। यूपी की राजनीति में तो हालत ये थी कि मायावती का नाम ही जीत की गारंटी माना जाता था, लेकिन वक्त बदलता है साहब… और वक्त ने बसपा का रथ रोक दिया। जो पार्टी कभी सत्ता में थी वो अब सियासत के किनारे लग गई है, लेकिन पिछले गुरुवार को लखनऊ में हुई बहनजी की रैली ने जैसे सियासी हवा ही बदल दी। जिस भीड़ का अंदाज़ा किसी को नहीं था वो उमड़ पड़ी। लोग जोश में मायावती ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे थे। देखने वालों ने भी कहा कि अभी बहनजी बाकी हैं। मायावती ने मंच से साफ कहा कि बसपा 2027 का चुनाव अकेले लड़ेगी। यह बात पुराने दिनों की याद दिला गई जब बहनजी गठबंधन की बजाय खुद के बूते मैदान में उतरती थीं। उनके तेवर देखकर लग रहा था कि वो अब चुप बैठने वालों में नहीं हैं। दलित वोट जो बसपा की रीढ़ रहे हैं। अब अलग-अलग दलों में बिखर गए हैं। कोई सपा में, कोई कांग्रेस में, तो कुछ भाजपा के पाले में चले गये, लेकिन लखनऊ की रैली ने ये ज़रूर जताया कि सब बसपा से पूरी तरह कटे नहीं हैं। हां अब चुनौती बड़ी है कि संगठन कमजोर है। पुराने नेता किनारे हो गए हैं और सोशल मीडिया पर बसपा पिछड़ती दिखती है। सच कहें तो आज की राजनीति में सिर्फ भीड़ नहीं, बल्कि संगठन और रणनीति दोनों ज़रूरी हैं। भाजपा, सपा और कांग्रेस ये बात समझ चुके हैं पर बसपा को अब इसे फिर से समझना होगा‌। दूसरी तरफ़ मुस्लिम वोट भी अब किसी एक खेमे में नहीं हैं। सपा और कांग्रेस उन्हें साधने में लगी हैं। ऐसे में मायावती को उन्हें भरोसा दिलाना होगा कि बसपा ही भाजपा को रोक सकती है। दलितों को भावनात्मक रूप से जोड़ना और मुसलमानों को विश्वास दिलाना कि यही दो काम अगर बहनजी कर पाई तो कहानी फिर पलट सकती है। पर अब एक नया खिलाड़ी मैदान में उतर चुका है और वो है एडवोकेट चन्द्रशेखर आजाद। नगीना से उन्होंने पहली बार में ही जीत दर्ज करके सबको चौका दिया था। कई दलों ने उन्हें हल्के में लिया, लेकिन नतीजा सबके सामने है। राजनीति भी कभी-कभी क्रिकेट जैसी होती है कि जिस तरह भारत कभी कमजोर क्रिकेट टीम बांग्लादेश से हार गया था वैसे ही जो लोग आजाद समाज पार्टी को कमज़ोर समझ रहे हैं वो आने वाले वक्त में पछता सकते हैं। फिलहाल लखनऊ की रैली ने बसपा में फिर से हलचल तो पैदा कर दी है पर ये बस शुरुआत है। अगर मायावती अब सोशल मीडिया पर एक्टिव हो। युवाओं को टिकट दें। स्थानीय मुद्दों पर बोलें और पार्टी संगठन को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत करें तो हो सकता है नीला हाथी एक बार फिर मैदान में गरजे। वरना ये रैली बस एक पुरानी याद बनकर रह जाएगी‌। जब लोगों ने बहनजी को फिर से सुना, मगर वोट किसी और को दे दिया।

भूपेन्द्र शर्मा सोनू
(स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक)

सत्ता की छाया में नौकरशाही: हरियाणा का आईना और देश की हकीकत

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(नौकरशाही में एक्सटेंशन संस्कृति) 

“नौकरशाही और राजनीतिक हुकूमत: सच बोलने का डर”

देश की नौकरशाही में एक्सटेंशन संस्कृति गंभीर समस्या बन चुकी है। वरिष्ठ अधिकारी सत्ता और राजनीतिक हाजिरी के आधार पर पदों पर टिके रहते हैं। हरियाणा के डीजीपी शत्रुजीत कपूर का मामला और आईपीएस पूरन कुमार की आत्महत्या यह दर्शाती है कि सच बोलने और ईमानदारी बनाए रखने की कोशिशें दबाई जा रही हैं। अफसरों के बीच गुटबाज़ी, भय और निष्पक्षता की कमी प्रशासनिक तंत्र को कमजोर कर रही है। यदि पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित नहीं की गई, तो प्रशासन केवल राजनीतिक हुकूमत का दास बनेगा और जनता का भरोसा टूट जाएगा।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

देश की नौकरशाही में एक्सटेंशन संस्कृति आज एक गंभीर समस्या बन चुकी है। वरिष्ठ अधिकारी अपनी सेवा अवधि के बाद भी सत्ता के निकटता और राजनीतिक हाजिरी के आधार पर पदों पर टिके रहते हैं। इससे न केवल प्रशासनिक निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं बल्कि यह संदेश भी जाता है कि योग्यता और दक्षता से अधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक सुख-संबंध और सत्ता के साथ सामंजस्य है। हरियाणा के डीजीपी शत्रुजीत कपूर का मामला, आईपीएस पूरन कुमार की दुखद आत्महत्या, और अफसरशाही के भीतर बढ़ती गुटबाज़ी इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि सच बोलने और ईमानदारी बनाए रखने की कोशिशें धीरे-धीरे दबाई जा रही हैं।

आज देश में कई वरिष्ठ अधिकारी अपने निर्धारित सेवा अवधि के बाद भी एक्सटेंशन पर बने हुए हैं। कुछ लोग इसे अनुभव का लाभ मानते हैं, तो कुछ इसे राजनीतिक सुविधा का परिणाम। वास्तविकता यह है कि एक्सटेंशन अब सम्मान नहीं बल्कि सत्ता के निकट रहने का प्रमाण बन चुका है। यदि कोई अफसर शासन की इच्छाओं के अनुरूप काम करता है तो उसके लिए नियमों की दीवारें लचीली हो जाती हैं, और यदि वह अपनी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ काम करता है तो उसे किनारे कर दिया जाता है।

हरियाणा में डीजीपी शत्रुजीत कपूर का मामला इस प्रवृत्ति का जीवंत उदाहरण है। जुलाई में सरकार ने घोषणा की कि वे 31 अक्टूबर 2026 तक अपने पद पर बने रहेंगे, यानी रिटायरमेंट तक। इस फैसले ने केवल आईपीएस बिरादरी में असंतोष नहीं फैलाया बल्कि यह सवाल भी खड़ा किया कि क्या किसी राज्य में इतनी लंबी अवधि के लिए राजनीतिक सुविधा अनुसार पद तय होना न्यायसंगत है।

आईपीएस पूरन कुमार का मामला इस संवेदनहीनता का काला अध्याय है। वह अधिकारी जिसने वर्षों से अपने साथ हुए भेदभाव, उत्पीड़न और अपमान के खिलाफ आवाज उठाई, अंततः सिस्टम की कठोरता के कारण टूट गया। उनकी आत्महत्या केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है, बल्कि यह इस बात की गवाही है कि सच बोलने वाला अफसर आज सबसे असुरक्षित प्राणी बन चुका है। पोस्टमार्टम में देरी, अधिकारियों की चुप्पी और सत्ता का मौन इस सामूहिक अपराध को और स्पष्ट करता है। जब संस्थाएं व्यक्ति से बड़ी नहीं बल्कि व्यक्ति या सत्ता से बंधक बन जाएँ तो सच बोलने वाले की रक्षा करना असंभव हो जाता है।

हरियाणा पुलिस के भीतर आईपीएस अफसरों का एक गुट डीजीपी के खिलाफ मुखर है, जबकि दूसरा गुट सत्ता के साथ खड़ा है। यह विभाजन केवल पुलिस बल की कार्यक्षमता को कमजोर नहीं करता, बल्कि यह संदेश भी देता है कि सत्य और साहस अब गुटबाज़ी और व्यक्तिगत स्वार्थ के जाल में फँस चुके हैं। डीजीपी का कथित बयान कि “मैं छुट्टी पर जाऊँगा, तो मेरे लौटने तक किसी स्थायी डीजीपी की नियुक्ति न हो” प्रशासनिक अनुशासन के बजाय व्यक्तिगत सत्ता की अभिव्यक्ति है। सवाल यह नहीं कि वे कितने कुशल अधिकारी हैं, बल्कि यह है कि क्या किसी व्यक्ति को संस्थागत निर्णयों को इस तरह शर्तों में बाँधने की अनुमति होनी चाहिए।

हर लोकतंत्र की आत्मा उसकी स्वतंत्र नौकरशाही होती है। लेकिन जब नौकरशाही सत्ता की छाया में पलने लगे, तो वह लोकसेवा नहीं, राजसेवा बन जाती है। अफसरों के बीच यह धारणा मजबूत हो रही है कि सच बोलने से करियर खतरे में पड़ सकता है, जबकि हां में हां मिलाने से एक्सटेंशन और पोस्टिंग सुरक्षित रहती है। यह प्रवृत्ति केवल हरियाणा में नहीं, बल्कि लगभग हर राज्य में दिखने लगी है, जहां फाइलें अब नियमों से नहीं, बल्कि रिश्तों और राजनीतिक हाजिरी से चलती हैं।

पूरन कुमार जैसे मामलों में केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि संस्थागत सुधार की आवश्यकता है। एक्सटेंशन की नीति पारदर्शी होनी चाहिए और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही विस्तार दिया जाना चाहिए। मानसिक उत्पीड़न और भेदभाव की शिकायतों पर स्वतंत्र जांच व्यवस्था होनी चाहिए। वरिष्ठ अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित हो, ताकि पद केवल शक्ति का प्रतीक न रहे, बल्कि उत्तरदायित्व का दायरा भी बने। राजनीतिक और प्रशासनिक संतुलन को पुनः परिभाषित किया जाए, ताकि अधिकारी भयमुक्त होकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकें।

पूरन कुमार की दुखद मौत एक चेतावनी है कि यदि सच्चाई और ईमानदारी के लिए खड़ा होना जोखिम भरा हो जाए, तो प्रशासनिक प्रणाली का मूल उद्देश्य खतरे में पड़ जाता है। एक्सटेंशन पर टिके अधिकारी और चुपचाप देखती संस्थाएं इस बात का प्रतीक हैं कि सत्ता ने प्रशासनिक तंत्र को धीरे-धीरे अपने अधीन कर लिया है।

देश के नागरिकों को यह समझना चाहिए कि नौकरशाही की मजबूती व्यक्ति के साहस से नहीं, बल्कि संस्थाओं की पारदर्शिता और जवाबदेही से आती है। जब कोई अधिकारी अपनी नौकरी, सम्मान और अंततः जीवन तक गंवा देता है, तो यह केवल उसकी हार नहीं, बल्कि शासन की नैतिक पराजय है। अब सवाल यह नहीं कि कौन डीजीपी रहेगा, बल्कि यह है कि क्या कोई ऐसा अधिकारी बचेगा जो सच के लिए खड़ा हो सके। यदि ऐसे लोग नहीं बचे, तो देश में केवल राजनीतिक हुकूमत बचेगी और प्रशासनिक व्यवस्था समाप्त हो जाएगी।

हरियाणा का यह मामला पूरे देश के लिए आईना है। यह हमें याद दिलाता है कि सत्ता के दबाव और राजनीतिक स्वार्थ के बीच सच बोलने वाले अफसरों का अस्तित्व किस हद तक संकट में है। अगर प्रशासनिक तंत्र को बचाना है, तो पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्षता ही उसके आधार होना चाहिए। वरना केवल पद और सत्ता का खेल बच जाएगा, और जनता का भरोसा पूरी तरह टूट जाएगा। 

– डॉ. सत्यवान सौरभ

आज जिनका जन्म दिन है लोक नायक जेपी

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​लोकनायक जयप्रकाश नारायण: परिचय और भारतीय राजनीति में योगदान

​जयप्रकाश नारायण (11 अक्टूबर, 1902 – 8 अक्टूबर, 1979), जिन्हें संक्षेप में जे.पी. और प्यार से ‘लोकनायक’ कहा जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख सेनानी, समाजवादी विचारक और स्वतंत्रता के बाद की भारतीय राजनीति के एक महान स्तंभ थे। उनका जीवन सत्यनिष्ठा, त्याग और जनसेवा का प्रतीक था। उनका राजनीतिक सफर मार्क्सवादी रुझान से लेकर लोकतांत्रिक समाजवाद, सर्वोदय आंदोलन और अंततः ‘संपूर्ण क्रांति’ के आह्वान तक विस्तृत रहा। 1999 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था।

​प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

​जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के सिताबदियारा गाँव में हुआ था। उनके पिता हरसू दयाल एक सरकारी कर्मचारी थे और माता फूल रानी देवी थीं।इन्हें चार वर्ष तक दाँत नहीं आया, जिससे इनकी माताजी इन्हें ‘बऊल जी’ कहती थीं। इन्होंने जब बोलना आरम्भ किया तो वाणी में ओज झलकने लगा। 1920 में जयप्रकाश का विवाह ‘प्रभा’ नामक लड़की से हुआ। प्रभावती स्वभाव से अत्यन्त मृदुल थीं। गांधी जी का उनके प्रति अपार स्नेह था। प्रभा से शादी होने के समय और शादी के बाद में भी गांधी जी से उनके पिता का सम्बन्ध था, क्योंकि प्रभावती के पिता श्री ‘ब्रजकिशोर बापू’ चम्पारन में जहाँ गांधी जी ठहरे थे, प्रभा को साथ लेकर गये थे। प्रभा विभिन्न राष्ट्रीय उत्सवों और कार्यक्रमों में भाग लेती थीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई। उच्च शिक्षा के लिए, वे पटना कॉलेज गए, जहाँ उन्होंने अध्ययन किया।
​गांधीवादी विचारों से प्रभावित होकर, उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। बाद में, उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की, जहाँ उन्होंने बर्कले, आयोवा और विस्कॉन्सिन जैसे विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया। अमेरिका में रहने के दौरान ही वे मार्क्सवाद और समाजवाद के विचारों से गहराई से परिचित हुए। 1929 में भारत लौटने पर, वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए।

​स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका

​जयप्रकाश नारायण ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक सक्रिय और क्रांतिकारी भूमिका निभाई:

​सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930): उन्होंने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जेल गए।

​कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (1934): उन्होंने कांग्रेस के भीतर वामपंथी विचारधारा को संगठित करने के लिए आचार्य नरेंद्र देव और मीनू मसानी जैसे नेताओं के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) की स्थापना की। वे इसके पहले महासचिव बने।

​भारत छोड़ो आंदोलन (1942): यह उनके जीवन का सबसे क्रांतिकारी दौर था। आंदोलन के शुरुआती चरण में ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन वे हजारीबाग केंद्रीय कारागार से भाग निकले और भूमिगत रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया। उनकी वीरतापूर्ण गतिविधियों ने उन्हें जनता के बीच एक “राष्ट्रीय संघर्षकर्ता” के रूप में ख्याति दिलाई।

​स्वतंत्रता के बाद का योगदान

​स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, जयप्रकाश नारायण ने सत्ता की राजनीति से परे रहकर देश की सेवा करने का मार्ग चुना और भारतीय राजनीति को कई मायनों में प्रभावित किया।

​1. लोकतांत्रिक समाजवाद और दलगत राजनीति से दूरी

​समाजवाद के प्रवक्ता: वे भारतीय समाजवाद के प्रमुख विचारक और प्रवक्ता रहे। उनका मानना था कि समाजवाद को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल ढालना चाहिए।

​राजनीति से संन्यास: 1950 के दशक की शुरुआत में, उन्होंने दलगत राजनीति से दूरी बना ली। उन्होंने सत्ता की राजनीति को छोड़कर जन सेवा और रचनात्मक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया। उनका मानना था कि लोगों की सच्ची शक्ति नीचे के स्तर पर होनी चाहिए, न कि केवल केंद्र में।

​2. सर्वोदय और भूदान आंदोलन

​सर्वोदय में भागीदारी: वे महात्मा गांधी और विनोबा भावे के सर्वोदय (सबका उदय/कल्याण) दर्शन से प्रभावित हुए।

​भूदान आंदोलन (1950 और 1960 के दशक): जे.पी. ने लगभग दस वर्षों तक विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इस आंदोलन का उद्देश्य बड़े भूस्वामियों को हृदय परिवर्तन के माध्यम से अपनी भूमि गरीबों के लिए दान करने हेतु प्रेरित करना था। जे.पी. ने ग्रामदान की अवधारणा को आगे बढ़ाया, जिसमें गाँव के लोग गाँव की भूमि का सामूहिक स्वामित्व लेते थे।

​3. सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान और आपातकाल

​बिहार आंदोलन (1974): 1970 के दशक की शुरुआत में, देश में आर्थिक संकट, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम पर था। 1974 में, छात्रों ने बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद, जयप्रकाश नारायण ने इस युवा नेतृत्व वाले आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया। उन्होंने तत्कालीन राज्य सरकार से इस्तीफे की मांग की।

​सम्पूर्ण क्रांति: 5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए, जे.पी. ने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का ऐतिहासिक नारा दिया। यह क्रांति किसी एक राजनीतिक परिवर्तन तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसका उद्देश्य था: सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैचारिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में पूर्ण परिवर्तन लाना। उनका उद्देश्य था- भ्रष्टाचार मुक्त, समतामूलक और लोकतांत्रिक समाज की स्थापना।

​विपक्ष का नेतृत्व: उन्होंने इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों और कथित अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व किया और देश की जनता को एकजुट किया।

​आपातकाल (1975): जब 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया गया, तो इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जे.पी. आपातकाल के दौरान लोकतंत्र के दमन के खिलाफ लड़ने वाले प्रमुख व्यक्ति थे। जेल में ही उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया।

​जनता पार्टी का गठन: आपातकाल समाप्त होने के बाद, जे.पी. ने विपक्ष के विभिन्न धड़ों को एकजुट कर जनता पार्टी का गठन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने 1977 के आम चुनावों में कांग्रेस को हरा कर केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई। यह भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ था।

​4. लोक समाजवाद और विकेन्द्रीकरण का दर्शन

​जयप्रकाश नारायण राजनीतिक शक्ति के पूर्ण विकेन्द्रीकरण में विश्वास करते थे। उन्होंने राज्य के समाजवाद के विकल्प के रूप में लोक समाजवाद को प्रस्तुत किया।

​सहभागी लोकतंत्र: उनका मानना था कि शक्ति और निर्णय लेने की प्रक्रिया का आधार सबसे निचला स्तर यानी गाँव होना चाहिए। उन्होंने “सहभागी लोकतंत्र” (Participatory Democracy) की कल्पना की, जहाँ नागरिक अधिक से अधिक सक्रिय हों और सरकार के कार्यों पर कड़ी निगरानी रखें।

​भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था: जे.पी. का विश्वास मूल्य की राजनीति में था। वे भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था और राजनीतिक शुद्धता के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे।

​विरासत और प्रभाव

​जयप्रकाश नारायण ने भारतीय जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

​लोकतंत्र के रक्षक: उन्हें भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े रक्षकों में से एक माना जाता है, जिन्होंने संकट के समय में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष किया।

​युवा पीढ़ी का प्रेरणास्रोत: उन्होंने युवा पीढ़ी को रचनात्मक ऊर्जा और संघर्ष की भावना से प्रेरित किया और उन्हें राष्ट्र पुनर्निर्माण के लिए समर्पित होने का आह्वान किया।

​सामाजिक न्याय के सूत्रधार: उनके विचारों और आंदोलनों ने भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय और राजनीतिक शुद्धता की माँगों को केंद्र में ला दिया।

​अहिंसक क्रांति: महात्मा गांधी के बाद, जे.पी. को दूसरे ऐसे नेता के रूप में देखा जाता है, जिन्होंने अहिंसक आंदोलन के माध्यम से देश की सत्ता को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

​जयप्रकाश नारायण का निधन 8 अक्टूबर, 1979 को पटना में हुआ। उनका जीवन और कार्य हमें सिखाता है कि सच्ची राजनीति सत्ता का खेल नहीं, बल्कि जनसेवा, त्याग और नैतिक मूल्यों की स्थापना का माध्यम है। उनका ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का आह्वान आज भी भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नैतिक मार्गदर्शन का काम करता है।

जयप्रकाश नारायण एक निष्ठावान राष्ट्रवादी थे और सिर्फ़ खादी पहनते थे। जयप्रकाश ने रॉलेट एक्ट जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के विरोध में ब्रिटिश शैली के स्कूलों को छोड़कर बिहार विद्यापीठ से अपनी उच्चशिक्षा पूरी की, जिसे युवा प्रतिभाशाली युवाओं को प्रेरित करने के लिए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और सुप्रसिद्ध गांधीवादी डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा, जो गांधी जी के एक निकट सहयोगी रहे द्वारा स्थापित किया गया था।। जयप्रकाश जी ने एम. ए. समाजशास्त्र से किया। जयप्रकाश ने अमेरिकी विश्वविद्यालय से आठ वर्ष तक अध्ययन किया और वहाँ वह मार्क्सवादी दर्शन से गहरे प्रभावित हुए।

जयप्रकाश जी के योगदानों के बारे में जितना कहा जाए वह कम है। ये अत्यन्त परिश्रमी व्यक्ति थे। इनकी विलक्षणता की तारीफ़ स्वयं गांधीजी और नेहरू जैसे लोग किया करते थे। भारत माता को आज़ाद कराने हेतु इन्होंने तरह-तरह की परेशानियों को झेला किन्तु इन्होंने अंग्रेज़ों के सामने घुटने नहीं टेके। क्योंकि ये दृढ़निश्चयी व्यक्ति थे। संघर्ष के इसी दौर में उनकी पत्नी भी गिरफ़्तार कर ली गईं और उन्हें दो वर्ष की सज़ा हुई। क्योंकि वह भी स्वतंत्रता आंदोलन में कूदी थीं और जनप्रिय नेता बन चुकी थीं। जयप्रकाश जी अपनी निष्ठा और चतुराई के लिए प्रसिद्ध थे। वे सच्चे देशभक्त एवं ईमानदार नेता थे। वे ब्रिटिश प्रशासन का समूल नष्ट करने पर तुले हुए थे।

उन्होंने विश्व स्तर पर अपनी आवाज़ बुलन्द करते हुए कहा है कि विश्व के संकट को मद्देनज़र रखते हुए भारत को आज़ादी प्राप्त होना अति आवश्यक है। जब तक हम आज़ाद न होंगे, हमारा स्वतंत्र अस्तित्व क़ायम न होगा और हम विकास के पथ पर अग्रसर न हो सकेंगे।

महात्मा गांधी ने अपने सारवान भाषण में कहा था– करो या मरो” “Do or die”

ये वाक्यांश जयप्रकाश बाबू के मन में सदैव गूँजता रहता था। फलत: उन्होंने देश को आज़ाद करने हेतु ‘करो या मरो’ का निर्णय लिया। गांधीजी के इस महामंत्र का उन्होंने जमकर प्रचार व प्रसार भी किया। गांधीजी से प्रेरणा लेकर जयप्रकाश आगे बढ़ते गये और स्वतंत्रता का बिगुल बज उठा। जब जयप्रकाश की गिरफ़्तारी हुई तो ठीक दूसरे दिन महात्मा गांधी की भी गिरफ़्तारी हुई। सैकड़ों हज़ारों की संख्या में लोग अपने नेताओं की रिहाई की माँग करने लगे। अंग्रेज़ स्तब्ध रह गये। देश के कोने-कोने के कार्यकर्ता बन्दी बनाये गये। क्रान्ति की स्थिति सम्पूर्ण देश के सम्मुख आयी हज़ारों की संख्या में लोगों ने गिरफ़्तारियाँ दीं।

जयप्रकाश 1929 में भारत लौटने पर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। भारत में ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण 1932 में उन्हें एक वर्ष की क़ैद हुई। रिहा होने पर जयप्रकाश ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन में अग्रणी भूमिका निभाई, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृव्य करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर एक वामपंथी समूह था। द्वितीय विश्व युद्ध में ग्रेट ब्रिटेन के पक्ष में भारत की भागीदारी का विरोध करने के कारण 1939 में जयप्रकाश को दुबारा गिरफ़्तार कर लिया गया, जयप्रकाश नारायण जी को हज़ारी बाग़ जेल में क़ैद किया गया था। बापू जयप्रकाश जी के जेल से भागने की योजना बनाने लगे। इसी बीच दीपावली का त्योहार आया और जेलर साहब ने जश्न मनाने हेतु नाच-गाने का भव्य प्रोग्राम तैयार किया था, लोग मस्ती में झूम रहे थे। इसी बीच जब नाच-गाने का कार्यक्रम हुआ तो 9 नवम्बर, 1942 ई. को जयप्रकाश अपने छ: सहयोगियों के साथ धोती बांधकर जेल परिसर को लांघ गये। इसकी सूचना लन्दन तक पहुँची।

जयप्रकाश नारयण ने आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर 1948 में ऑल इंडिया कांग्रेस सोशलिस्ट की स्थापना की। 1953 में कृषक मज़दूर प्रजा पार्टियों के विलय में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। भारत के स्वतंत्र होने के बाद उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया और चुनावी राजनीति से अलग होकर भूमि सुधार के लिए विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ गए।

जयप्रकाश जी 1974 में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक कटु आलोचक के रूप में प्रभावी ढंग से उभरे। जयप्रकाश जी की निगाह में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार भ्रष्ट व अलोकतांत्रिक होती जा रही थी। 1975 में निचली अदालत में गांधी पर चुनावों में भ्रष्टाचार का आरोप साबित हो गया और जयप्रकाश ने उनके इस्तीफ़े की माँग की। इसके बदले में इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी और नारायण तथा अन्य विपक्षी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया। पाँच महीने बाद जयप्रकाश जी गिरफ़्तार किए गए। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जेपी आंदोलन व्यापक हो गया और इसमें जनसंघ, समाजवादी, कांग्रेस (ओ) तथा भारतीय लोकदल जैसी कई पार्टियाँ कांग्रेस सरकार को गिराने एवं नागरिक स्वतंत्रताओं की बहाली के लिए एकत्र हो गईं। इस प्रकार जयप्रकाश ने ग़ैर साम्यवादी विपक्षी पार्टियों को एकजुट करके जनता पार्टी का निर्माण किया। जिसने भारत के 1977 के आम चुनाव में भारी सफलता प्राप्त करके आज़ादी के बाद की पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनाई। जयप्रकाश ने स्वयं राजनीतिक पद से दूर रहकर मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री मनोनीत किया।

लोकनायक बाबू जयप्रकाश नारायण ने स्वार्थलोलुपता में कोई कार्य नहीं किया। वे देश के सच्चे सपूत थे और उन्होंने निष्ठा की भावना से देश की सेवा की है। देश को आज़ाद करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वे कर्मयोगी थे। वे अन्त: प्रेरणा के पुरुष थे। उन्होंने अनेक यूरोपीय यात्राएँ करके सर्वोदय के सिद्धान्त को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित किया। उन्होंने संस्कृत के निम्न श्लोक से सम्पूर्ण विश्व को प्रेरणा लेने को कहा है–

सर्वे भवन्तु सुखिन:

सर्वेसन्तु निरामया

सर्वे भद्राणी पश्यन्तु

मां कश्चिद दुखभागवेत्।।

बाबू जयप्रकाश नारायण सभी से उन्नति की बात करते थे। वे ऊँच-नीच की भेद भावना से परे थे। उनका विचार अच्छी बातों से युक्त था। वे सच्चे अर्थों में आदर्श पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में अदभुत ओज और तेज़ था। जयप्रकाश ने बिहार आंदोलन में भी भाग लिया है। जयप्रकाश की धर्म पत्नी श्रीमती प्रभा के 13 अगस्त सन् 1973 में मृत हो जाने के पश्चात् उनको गहरा झटका लगा। किन्तु इसके बावज़ूद भी वे देश की सेवा में लगे रहे और एक बहादुर सिपाही की तरह कार्य करते रहे। भारत का यह अमर सपूत 8 अक्टूबर सन् 1979 ई. को पटना, बिहार में चिर निन्द्रा में सो गया।

दिनकर ने लोकनायक के विषय में लिखा है–

है जयप्रकाश वह नाम

जिसे इतिहास आदर देता है।

बढ़कर जिसके पद चिह्नों की

उन पर अंकित कर देता है।

कहते हैं जो यह प्रकाश को,

नहीं मरण से जो डरता है।

ज्वाला को बुझते देख

कुंड में कूद स्वयं जो पड़ता है।।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिये 1998 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण को मरणोपरान्त भारत सरकार ने देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया।

बिहार में रेवड़ी सरकार का बोलबाला

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बाल मुकुन्द ओझा

                                                                                                                    बिहार में चहुंओर मुफ्त की बारिश हो रही है, जिसे देखकर लगता है चाहे किसी पार्टी की सरकार बने मगर बनेगी तो रेवड़ी सरकार ही। राजनैतिक पार्टियों द्वारा मत हासिल करने के लिए राजकीय कोष से मुफ्त सुविधाएं देने की लगातार घोषणाओं से चुनावी माहौल गरमाने लगा है। चुनाव का सियासी बिगुल बज चुका है। मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन में है। सभी पार्टियों के नेता लोक लुभावन वादों की बौछार कर रहे। आरजेडी के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव ने प्रदेश के हर घर में सरकारी नौकरी का वादा कर फ्री बीज का छक्का जड़ दिया है। इसी के साथ आरोप प्रत्यारोप की सियासत शुरू हो गई है। सच तो यह है रेवड़ी संस्कृति के कारण हमारे देश की अनेक राज्य सरकारें लगभग दीवालिया होने की कगार पर हैं। उनका बजट घाटा बढ़ता जा रहा है, लेकिन वे मुफ्तखोरी की सियासत को छोड़ने को तैयार नहीं है। क्योंकि चुनाव जो जीतना है। कहा जाता हैं चुनाव जीतने के लिए सब कुछ जायज है। इस कार्य में कोई भी सियासी पार्टी पीछे नहीं रहती। बिहार में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की होड़ शुरू हो गई है। बिहार पर पहले से ही 4 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज है, ऊपर से चुनावी सीजन में मुफ्त योजनाओं के लिए बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं।

बिहार में महिलाओं को साधने के लिए मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत प्रधानमंत्री ने 75 लाख ग्रामीण महिलाओं को पहली किस्त के तौर पर 10,000- 10,000 रुपये की राशि ट्रांसफर की। योजना के तहत आगे चलकर प्रत्येक महिला को कुल 2 लाख तक की आर्थिक सहायता मिलेगी। इसे महिलाओं के लिए चुनावी सौगात भी कहा जा रहा है। यानि अभी तो फ्री बीज की यह शुरुआत है, पिक्चर अभी बाकी है। आरजेडी और इंडिया ब्लॉक का आरोप है कि मुख्यमंत्री ने दरअसल उन्हीं वादों की नकल की है, जिन्हें विपक्ष ने जनता से करने का दावा किया था।  

मुख्यमंत्री नीतिश कुमार फ्री बीज की योजनाओं के विरुद्ध रहे है है। उन्होंने दिल्ली चुनाव के दौरान अरविन्द केजरी वाल की मुफ्त बिजली की अवधारणा को ‘गलत काम’ करार देते हुए कहा था कि यह दीर्घकालिक विकास के लिए हानिकारक है और आज वे खुद ही फ्री बीज के रास्ते पर चल निकले है। नीतीश कुमार ने 2022 में केजरीवाल की मुफ्त बिजली योजना को अव्यवहारिक और गलत बताकर तंज कसा था, आज तीन साल बाद खुद ऐसी ही फ्री बिजली योजना लागू कर अपनी सियासी रणनीति बदल ली है। उनका यह कदम न केवल उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है, बल्कि नीतिगत निर्णयों और सिद्धांतों की राजनीति से किनारा करने की स्थिति को भी बताता है। इसीलिए कहा जाता है हाथी के दांत दिखाने के कुछ और होते है। इससे पूर्व आरजेडी नेता तेजस्वी मुफ्तखोरी की अनेक घोषणाएं की घोषणा कर दी थी। चुनावों के दौरान सियासी पार्टियां वोटरों को लुभाने के लिए तरह तरह के वादे और प्रतिवादे करती है। सरकार बनने के बाद चुनावी वादे पूरा करने में पार्टियों के पसीने छुट जाते है। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था तो चौपट तक हो जाती है जिसके कारण सम्बध सरकारों को अपने कर्मचारियों के वेतन आदि  चुकाने के लाले पड़ जाते है। राजनैतिक पार्टियों द्वारा मत हासिल करने के लिए राजकीय कोष से मुफ्त सुविधाएं देने का प्रकरण सियासी हलकों में गर्माने लगा है। देश की प्रबुद्ध जमात का मानना है इससे हमारे लोकतंत्र की बुनियाद हिलने लगी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस प्रकार की योजनाओं की आलोचना की थी। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान इस तरह के वादे करने का चलन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक पार्टियां आम लोगों से अधिक से अधिक वायदे करती हैं। इसमें से कुछ वादे मुफ्त में सुविधाएं या अन्य चीजें बांटने को लेकर होती हैं। यह देखा गया है कुछ सालों से देश की चुनावी राजनीति में मुफ्त बिजली—पानी, मुफ्त राशन, महिलाओं को नकद राशि, सस्ते गैस सिलेंडर आदि आदि अनेक तरह की घोषणाओं का चलन बढ़ गया है। विशेषकर चुनाव आते ही वोटर्स को लुभाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिल्ली, महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू कशमीर के चुनाव इसके ज्वलंत उदाहरण है। मुफ्त का मिल जाये तो उसका जी भर उपयोग करना। ये मुफ्त की नहीं है अपितु जनता के खून पसीनें की कमाई है जो राजनीतिक दलों और सरकारों द्वारा दी जा रही है ताकि चुनाव की बेतरणी आसानी से पार की जा सके। देश के प्रधानमंत्री रेवड़ी कल्चर का विरोध कर चुके है मगर चुनावों में उनकी पार्टी भाजपा सहित कांग्रेस और आप सहित सभी पार्टियां रेवड़ी कल्चर में डुबकियां लगा रही है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

तेजस्वी ने एक बहुत ऊंची फेंकी

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तेजस्वी ने एक बहुत ऊंची फेंकी । बोले वे सीएम बने तो बिहार में तीन करोड़ रोजगार देंगे ! वह भी सरकारी ? हर महीने 20 लाख नौकरियों का दावा किया है । अच्छी बात है , बेरोजगारों का कल्याण होना चाहिए । आपको मुख्यमंत्री जरूर बनना चाहिए । मोदी तो 2 करोड़ नहीं दे पाए , यह आरोप विपक्ष का ही है ।

आप जरूर दे देंगे क्योंकि देश ने आपके पिता को जमीन के बदले नौकरी देते हुए और पशुओं का चारा खाते हुए देखा है । और हां , आपके खटाखट खटाखट वाले साथी दो हफ्तों से विदेश में हैं । कोई नई बात नहीं , जब भी चुनाव आता है या सीट बंटवारे का दौर चलता है , वे देश में होते कहां हैं ? आएंगे , प्रचार अभियान के वीआईपी प्रचारक बनेंगे और विदेश यात्रा से जितनी टिप्स लाए हैं , उड़ेल देंगे , लम्बी लम्बी हॉक देंगे ? 3 करोड़ नौकरियां कैसे दें , यह भी उन्हीं से सीख लेना । अरे भाई खटाखट की तरह ? तेजस्वी बाबू ! बड़ा मजा आए जब मिल बैठेंगे दीवाने दो ?

हवाई किले बांधने के दिन हैं । नाश हो इन टीवी वालों का । एक सबसे बड़े और उससे छोटे न्यूज चैनल्स ने अभी से एनडीए की सरकार बनती दिखा दी ? बताइए ! अभी तो नामांकन करने के दिन हैं , उन्होंने सर्वे दिखा दिया ? हाय हाय ! यह क्या कर डाला नामर्दूदों ने ? खैर ! चुनाव है भैया यह सब तो चलेगा ही । टिकट बंटवारे में महागठबंधन के भी पसीने छूटते रहे और एनडीए भी हांफता रहा । बिहार में कभी कांग्रेस का एकछत्र राज था ।

जब से क्षेत्रीय दल आए तब से बिहार इस देश का सबसे अधिक खिचड़ी दलों वाला राज्य बन गया । छोटे छोटे दलों ने बड़े दलों की नींद उड़ा दी है । सच कहा किसी ने । बिहार में इतने दल हैं कि उनको दिलखुश करना मेढ़कों को तौलने के समान है । झटका लगते ही जालिम दूसरे पलड़े में जा बैठते हैं । क्या करें ? चुनाव बिहार में हो तो सबसे बड़ा काम जातियों को साधना होता है । ये छोटे छोटे दल यही काम तो करते हैं । तो खेलेंगे भी और खूब खिलाएंगे भी ?

नगाड़ा बज चुका है । बिहार कांग्रेस गा रही है — आजा रे परदेसी आजा , तुझको पुकारे देश तेरा । सामने बुजुर्ग नीतीश हैं , युवा सम्राट हैं । चिराग और मांझी ने बड़े खेल दिखाए । केन्द्र से भेजे गए प्रभारियों के जब पसीने छूटे तो आखिर में शाह मोदी को फोन उठाना पड़ा । अब मोदी तो राम नहीं लेकिन चिराग खुद को मोदी के हनुमान कहते हैं , सो मान गए , नतीजा आज आएगा । चिराग पिछली बार तो नहीं माने थे पर अब तो मान गए । तो मजा खूब आएगा । लिट्टी चोखा की बहार है । छठ पूजा भी आ रही है । तो जाइए , कुछ दिन तो बिताइए बिहार में ?
……कौशल सिखौला

त्योहार अब दिल से नहीं, डिस्प्ले से मनाए जाते हैं

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त्योहारों का सेल्फ़ी ड्रामा

( हम अब त्योहारों से ज़्यादा अपनी तस्वीरें मना रहे हैं।) 

अब त्योहार पूजा, मिलन और आत्मिक उल्लास का नहीं, बल्कि ‘कंटेंट’ का मौसम बन गए हैं। दीपक की लौ से ज़्यादा रोशनी अब मोबाइल की फ्लैश में दिखती है। भक्ति, व्रत और परंपराएँ अब फ़िल्टर और फ्रेम में सिमट गई हैं। लोग ‘सेल्फ़ी विद गणेश’, ‘करवा चौथ वाइब्स’ और ‘भाई दूज मोमेंट्स’ जैसे टैग से उत्सव मनाते हैं। सच्ची आस्था और दिखावे के बीच की यह डिजिटल खाई हमारी आत्मा को धीरे-धीरे खोखला कर रही है। यह सवाल अब ज़रूरी है — क्या हम त्योहार मना रहे हैं या दिखा रहे हैं?

✍️ डॉ. प्रियंका सौरभ

त्योहार हमारे समाज की आत्मा होते हैं — वह समय जब इंसान ईश्वर, प्रकृति और अपने संबंधों के प्रति आभार व्यक्त करता है। लेकिन अब हर त्योहार के साथ एक नया किरदार जुड़ गया है — मोबाइल कैमरा। जैसे ही दीपक जलता है, आरती की थाली घूमती है या राखी बंधती है, पहला सवाल यही होता है — “फोटो ली क्या?”। पहले पूजा पूरी होती थी, फिर प्रसाद बाँटा जाता था; अब पहले स्टोरी लगती है, फिर पूजा होती है। यह वही भारत है जहाँ कभी ‘मन का उत्सव’ मनाया जाता था, आज वही ‘मीडिया का उत्सव’ बन गया है।

दीपावली अब दीपों की नहीं, सजावट की पोस्टों की रात है। घरों की सफ़ाई से ज़्यादा लोग कैमरे का कोण सुधारने में व्यस्त रहते हैं। माता लक्ष्मी की प्रतिमा की पूजा से पहले “बूमरैंग” बनता है, और पटाखों से पहले “कैप्शन” तय होता है — #दीवाली_की_वाइब्स #परिवार_का_प्यार। ऐसा लगता है मानो हर व्यक्ति का त्योहार सोशल मीडिया पर दिखना चाहिए, वरना वह अधूरा है। यह डिजिटल प्रतिस्पर्धा अब भक्ति से ज़्यादा ‘लाइक’ का खेल बन चुकी है।

करवा चौथ जैसे व्रतों का जो भाव था — प्रेम, समर्पण और आशीर्वाद — वह अब फोटो खिंचवाने और छूट वाले ऑफ़र में बँट गया है। “सेल्फ़ी विद सासू माँ”, “उपवास वाला चेहरा” और “चाँद के साथ तस्वीर” जैसी प्रवृत्तियाँ अब त्योहार की नई पहचान हैं। पहले चाँद देखने का रोमांच था, अब ‘क्लिक करने’ का जुनून है। एक जमाना था जब महिलाएँ साड़ी पहनती थीं पूजा के भाव से; आज वही साड़ी ब्रांड को टैग करने का साधन बन गई है। त्योहार अब प्रेम का नहीं, प्रदर्शन का पर्व बन गया है।

होली भी अब रंगों का नहीं, रंगीन दिखावे का खेल है। पहले जो चेहरे रंगों में डूबे होते थे, अब वे फ़िल्टर में धुल चुके हैं। लोग अब एक-दूसरे को रंग लगाने से ज़्यादा डरते हैं कि “कपड़े खराब हो जाएँगे, फोटो में अच्छा नहीं लगूँगा।”

“सेल्फ़ी विद गुलाल” में रंग तो हैं, पर अपनापन नहीं। यह होली अब मन की नहीं, मेकअप की होली बन गई है।

ईद, क्रिसमस, नवरात्र — हर धर्म का उत्सव अब एक ही रंग में रंग गया है — डिजिटल दिखावे का रंग। मस्जिद या गिरजाघर के सामने मुस्कुराती तस्वीरें, थाली में सजे पकवानों के फोटो, और शीर्षक — “प्यार और शांति बाँट रहे हैं।” पर क्या सचमुच प्यार और शांति फैल रही है, या बस दिखावा? त्योहार अब इंसान को जोड़ने की बजाय, तुलना और प्रतिस्पर्धा का कारण बनते जा रहे हैं। “उसकी लाइटिंग ज़्यादा सुंदर”, “उसका मंडप बड़ा”, “उसके पास महँगी सजावट”— यह सब उस आत्मीयता को निगल गया है जो कभी परिवारों की पहचान थी।

यह सेल्फ़ी नाटक इतना गहरा हो चुका है कि अब भक्ति का भी अभिनय होता है। मंदिर में जाते ही लोग पहले फोन निकालते हैं, फिर हाथ जोड़ते हैं। आरती लाइव होती है, पर मन ऑफ़लाइन। दान सोशल मीडिया पर दिखाया जाता है, ताकि दूसरों को पता चले कि ‘हम भी नेक हैं’। भक्ति निजी नहीं रही, सार्वजनिक प्रदर्शन बन गई है। आस्था अब आत्मा से नहीं, प्रसारण से चलती है।

मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह “डिजिटल आस्था” एक गहरी बेचैनी का परिणाम है। इंसान अब अपने हर अनुभव का प्रमाण सोशल मीडिया से चाहता है। उसे लगता है कि अगर कोई चीज़ कैमरे में नहीं आई तो वह हुई ही नहीं। यही कारण है कि अब त्योहारों में मुस्कान असली नहीं, अभ्यास की हुई होती है। बच्चे तक कैमरे के सामने “हैप्पी दिवाली” बोलना सीख चुके हैं। रिश्तों की गर्माहट अब कैमरे की ठंड में जम गई है।

त्योहारों का असली अर्थ था — रुकना, साँस लेना, जुड़ना।

अब अर्थ बदल गया है — सजना, पोस्ट करना, भूल जाना।

लोगों को यह भी याद नहीं रहता कि त्योहार का मूल कारण क्या था — बस इतना याद रहता है कि किस दिन क्या पोस्ट करना है। यह ‘सेल्फ़ी संस्कृति’ धीरे-धीरे उस आध्यात्मिक गहराई को खा रही है जो भारतीय समाज की पहचान थी।

अब त्यौहार आत्मा का नहीं, ‘छवि’ का दर्पण बन गए हैं।

बाज़ार ने भी इस प्रवृत्ति को भुनाने में देर नहीं लगाई।

हर त्यौहार से पहले ‘सेल्फ़ी पृष्ठभूमि’, ‘फोटो मंच’, ‘डिजिटल सजावट’ और ‘त्योहार संग्रह’ की बाढ़ आ जाती है।

पूजा की थाली से ज़्यादा महत्त्व अब पैकेजिंग का हो गया है। त्योहार अब आध्यात्मिक नहीं, ब्रांडेड अवसर बन चुके हैं। दीपावली अब “ऑनलाइन खरीदारी पर्व” है, नवरात्र “गरबा नाइट्स प्रायोजित कार्यक्रम” है, और होली “कलर ब्लास्ट आयोजन” बन चुकी है। जहाँ पहले त्योहार आत्मा को शुद्ध करते थे, अब वह जेब को खाली कर देते हैं।

सोशल मीडिया पर दिखावे की इस होड़ ने समाज में एक अजीब-सी भावनात्मक दूरी पैदा कर दी है। लोगों को लगता है कि उन्होंने दूसरों की फोटो देखकर उनसे जुड़ाव बना लिया — जबकि असल में वह जुड़ाव एक भ्रम है। त्योहार जो कभी सबको साथ लाते थे, अब लोगों को अकेला कर रहे हैं। हर कोई अपने फोन में बंद है, दूसरे की मौजूदगी सिर्फ स्क्रीन पर है। “परिवार की फोटो” तो पूरी है, लेकिन परिवार बिखरा हुआ है।

यह सब लिखते हुए एक प्रश्न चुभता है — क्या हम ईश्वर से जुड़ रहे हैं या नेटवर्क सिग्नल से? क्या हमें खुशी मिल रही है या बस ‘प्रतिक्रिया’? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे त्योहार अब आत्मा से नहीं, कैमरे की चमक से रोशन हो रहे हैं?

त्योहारों का असली अर्थ तब लौटेगा जब हम कैमरा नीचे रखकर, किसी के चेहरे पर सच्ची मुस्कान देखेंगे।

जब दीया सिर्फ़ फोटो के लिए नहीं, अंधेरे के लिए जलाया जाएगा। जब करवा चौथ पर फोटो नहीं, साथ बैठकर एक-दूसरे की आँखों में सुकून ढूँढा जाएगा। जब होली पर रंग लगाते वक्त डर नहीं, अपनापन होगा। त्योहार तब लौटेंगे, जब हम दिखाना बंद करेंगे — और महसूस करना शुरू करेंगे।

त्योहारों का यह सेल्फ़ी ड्रामा तभी खत्म होगा जब इंसान अपने अंदर झाँककर यह कह सके — “मुझे किसी की लाइक नहीं चाहिए, मुझे बस अपने अपनों की सच्ची मुस्कान चाहिए।”

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

*“घर का चाँद”*

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करवा चौथ की रात थी।

बाहर काले बादल छाए थे और हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। आसमान का चाँद जैसे रूठकर बादलों में छिपा बैठा था।

दरवाज़े पर दस्तक हुई।

माँ, कमला देवी, गुस्से से दरवाज़ा खोलते ही बोलीं—

“इतनी देर से आया है अमन! शर्म नहीं आती? तेरी पत्नी सुबह से भूखी-प्यासी बैठी है। दिल में ज़रा भी दया नहीं है क्या?”

अमन ने थके स्वर में कहा—

“क्या करूँ माँ? बॉस ने देर से छुट्टी दी, ऊपर से ट्रैफ़िक ने जान निकाल दी। अब आ गया हूँ न, अब तो व्रत खुलवा दीजिए।”

तभी प्रिया झल्लाई हुई बाहर आई—

“अब कैसे खोलूँ व्रत? चाँद तो बादलों में छुपा है। घंटों से इंतज़ार कर रही हूँ। भूख-प्यास से हालत खराब हो गई है।”

इसी बीच, छोटा बेटा मोहन भी बाहर से घर लौटा। बारिश में भीगा हुआ और कपड़े कीचड़ से सने हुए।

उसकी पत्नी रीना भी भूख से निढाल थी।

रीना धीरे से बोली—

“लगता है माँ, आज तो चाँद निकलेगा ही नहीं।”

कमला देवी परेशान होकर बोलीं—

“अरे! अब तुम दोनों बहुएँ कब तक भूखी रहोगी?”

अमन और मोहन ने एक-दूसरे की ओर देखा। दोनों के दिमाग में एक ही विचार आया।

अमन बोला—

“माँ, ज़रा हमारे साथ छत पर चलिए।”

कमला देवी चौंकीं—

“क्यों? वहाँ से चाँद दिख रहा है क्या?”

मोहन मुस्कुराया—

“नहीं माँ। आज चाँद धरती पर ही उतर आएगा।”

छत पर दोनों बहुएँ—प्रिया और रीना—पूजा की थाली लेकर तैयार खड़ी थीं। दीपक जल रहा था, पर आसमान अब भी अँधेरा था।

दोनों ने माँ को सामने खड़ा किया।

कमला देवी घबरा गईं—

“अरे, ये क्या कर रही हो बहुओं? मैं तो विधवा हूँ… मेरी पूजा करोगी तो पाप लगेगा!”

प्रिया ने माँ के चरण छूते हुए कहा—

“नहीं माँ, आज आप ही हमारा चाँद हैं। आसमान वाला चाँद तो जिद्दी हो गया है। पिताजी आपको हमेशा ‘मेरा चाँद’ कहते थे।”

रीना ने भी नम्र स्वर में कहा—

“अगर माँ की पूजा करने से पाप लगता है, तो सारे शास्त्र झूठे हैं। आप ही करवा माता हो।”

माँ यह सुनकर भाव-विभोर हो गईं। उनकी आँखों से आँसू निकल आए।

वे तनकर खड़ी हो गईं, मानो करवा माता का रूप।

दोनों बहुओं ने उनकी पूजा की, जल का अर्ध्य दिया, साड़ी भेंट की और माथे पर टीका लगाया।

फिर छलनी उठाकर पहले माँ का चेहरा देखा और फिर पति का।

उस क्षण, घर-आँगन में रोशनी फैल गई।

बादलों का चाँद चाहे न निकला हो, लेकिन रिश्तों का चाँद पूरे घर को रोशन कर गया।

उस रात करवा चौथ सिर्फ़ पति की लंबी उम्र का पर्व नहीं रहा,

बल्कि सास-बहू के रिश्ते का उत्सव बन गया।

👉 क्योंकि सच्चाई यही है—

घर का असली चाँद/असली पर्व वही है,

जो अपने आशीर्वाद और प्रेम से रिश्तों को जगमग कर दे।

:- डॉ भूपेंद्र सिंह, अमरोहा

न्यायाधीश अदालत में कम बोलेंः काटजू की सलाह

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पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने सलाह दी है कि “न्यायाधीश अदालत में कम बोलें”। जस्टिस काटजू ने कहा है कि “बहुत बोलने वाला न्यायाधीश बेसुरा बाजा होता है।” यह बात केवल तंज नहीं, बल्कि न्यायशास्त्र का वह मूलभूत सिद्धांत है, जिसे हम भूलते जा रहे हैं। जब अदालतों में वाक्पटुता न्याय से बड़ी हो जाती है, जब न्यायाधीश व्यंग्यात्मक टिप्पणी या ‘पब्लिक शो’ की मुद्रा में आने लगते हैं, तब अदालतों की गरिमा दरकने लगती है। काटजू का तर्क सीधा है— न्यायाधीश का काम बोलना नहीं, सुनना है।

देखा जाये तो अदालत वह जगह है जहाँ शब्द नहीं, तर्कों की मर्यादा तय होती है। लेकिन हाल के वर्षों में अदालतों का माहौल कुछ अलग दिशा में जाता दिख रहा है। जहां न्यायाधीश लगातार टिप्पणियाँ करते हैं, कभी समाज पर, कभी राजनीति पर, कभी याचिकाकर्ता पर। यह प्रवृत्ति न्याय की गंभीरता को न केवल हल्का करती है बल्कि उस न्यायिक तटस्थता को भी क्षीण करती है जिस पर इस संस्था की पूरी विश्वसनीयता टिकी है।

वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने भी अपने अनुभव साझा करते हुए कहा है कि उन्हें कभी-कभी न्यायालय में भेदभावपूर्ण व्यवहार का अनुभव हुआ है। यदि एक वरिष्ठ वकील तक यह कहने को विवश हैं तो सोचिए सामान्य नागरिक की क्या अपेक्षा रह जायेगी? न्याय केवल किया नहीं जाना चाहिए, उसे दिखाई भी देना चाहिए— यह सिद्धांत जितना पुराना है, उतना ही आज भी प्रासंगिक है।

यह सच है कि उच्चतम न्यायालय में घटे घटनाक्रम पर प्रधान न्यायाधीश गवई ने उत्तेजना नहीं दिखाई, बल्कि दोषी अधिवक्ता को चेतावनी देकर छोड़ देने का निर्देश दिया, यह उनके न्यायिक संतुलन का प्रमाण है। लेकिन सवाल फिर वही है कि क्या हमें ऐसी परिस्थितियाँ बनने से रोकना नहीं चाहिए? क्या अदालत को इतनी संवेदनशीलता नहीं रखनी चाहिए कि उसकी एक टिप्पणी भी समाज में विवाद का विषय न बने?

देखा जाये तो जस्टिस काटजू की यह नसीहत दरअसल अदालतों के चरित्र की पुनर्स्थापना की पुकार है। अदालतों का आदर्श वह होना चाहिए जहाँ गम्भीरता, शालीनता और संयम तीनों एक साथ झलकें। न्याय की ताकत उसकी भाषा की कोमलता में है, न कि तीखे व्यंग्य में। आज जब न्यायपालिका पर जनता की निगाह पहले से अधिक है, तब यह और भी ज़रूरी है कि न्यायाधीश अपने शब्दों की सीमा समझें। क्योंकि अदालत में बोला गया हर वाक्य आदेश से कम प्रभावशाली नहीं होता। काटजू की तल्ख बात का मर्म यही है कि न्याय की कुर्सी पर वाणी का नहीं, विवेक का शासन होना चाहिए।

व्यंग्य , लागूं…जी !!

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पुरुष को पैर छुआने की आदत कम होती है। वह छूने में विश्वास करता है। छुआने में नहीं। जब कोई उसके यदा कदा पैर छूता है तो आशीर्वाद का हाथ सकपका जाता है। अरे, यह क्या? मानो, शरीर में कोई दर्द हो। और किसी ने मरहम लगा दिया।

नज़र घुमाइए। आपने किस किस को आशीर्वाद दिया। अब तो वीडियो का जमाना है। वीडियो बनाइए। और बार बार देखिए। सोचिए। कहां चूक हो गई। पैर छूना और छुआना एक कला है। यह हर किसी को आती नहीं। पुरुष तो इस मामले में अनभिज्ञ हैं। उन्होंने अपने को कभी इसका पात्र ही नहीं समझा। बेटे ने पैर छुए तो

रौब से बोले..’ठीक है। ठीक है। मन लगाकर पढ़ो।”

संकट बहू के साथ आता है। जैसे तैसे एक हाथ धीरे-धीरे उठता है। नज़र पृथ्वी पर। पोजीशन स्टेट। स्टेच्यू की मुद्रा में हाथ। जैसे महादेव ने सिर पर हाथ रख दिया हो।

महिलाएं निपुण हैं। वह पैर छुआती ही नहीं, दबवाती भी है। शगुन लेती भी हैं। दिलवाती भी हैं। बहू जब आहिस्ता-आहिस्ता उनके पैर की “मालिश” करती है तो चंद्रमा उनकी आंखों में उतर जाता है। बहू को भी आनंद मिलता है। वह भी सास के पांव नहीं छोड़ती। ऐसे पांव कोई बार-बार थोड़े मिलते हैं। ठंडी सांसेंsss मन में उमंगsss। तरंगsss। एक बार। दो बार। पूरे पांच बार। या दस बार। “बहू 11 तो कर ले। 10 शुभ नहीं होता।”

पैर छूने की अपनी अलग अलग परम्परा है। हर समाज अपनी रीतियों से छूता है। टांग भले ही खींचो। मगर पैर छूते रहो। आपके यहां कोई आया। बच्चे ने उनके पैर छू लिए। “वाह। कितना प्यारा बच्चा है। संस्कारवान। ऐसे संस्कार देने चाहिए़। “( इसी चक्कर में आज बच्चे दूर से ही चरण स्पर्श का अहसास करते हैं)।

बच्चा बड़ा हुआ। चमचागीरी में बॉस के पैर छूने लगा। बॉस समझ गया, क्यों छू रहा है। बच्चा पॉलिटिक्स में आया। वहां सबके पांव छूने लगा। पता नहीं, कब कौन काम आ जाए। नेता तो नेता हैं। हजारों लोग उनके पांव छूते हैं। किस किस को टिकट दें। लोकतंत्र में इसको चरण वंदना कहते हैं। गणेश परिक्रमा कहते हैं।

पांव पर्व, गर्व, शर्म और धर्म में छुए जाते हैं। जब कोई आशीर्वाद देता है या देती है ..”सौभाग्यवती रहो। खुश रहो। फूलों फ्लो।” तो कश्मीर की वादियों से ठंडी ठंडी हवा चल पड़ती है। पश्चिमी विक्षोभ होने लगता है। जाहिर है। यह हेलो। हाय से अलग है।

सुनो पुरुषों! कुछ महिलाओं से सीखो। कैसे आशीर्वाद दिया जाता है। यह क्या स्टेच्यू बन जाते हो।

और आप बहन जी! “आशीर्वाद ट्रेनिंग सेंटर” खोल लीजिए। खूब चलेगा। चरण-वंदना और पांव छूने की सबको जरूरत है। यहां हर तरह से पांव छूने और आशीर्वाद देने की कला सिखाई जाती है… दरवाजे से ही हाथ उठाते आने की। घुटना छूने की। पैर पड़ाई की रस्म की। धीरेssss धीरे । मीठे-मीठे। पैर दबाने की।

सूर्यकांत

“फाइलों से फायर तक: अफसरशाही के भीतर सड़ता भेदभाव”

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(जातिगत अपमान, साइड पोस्टिंग और मानसिक उत्पीड़न — एक अफसर की चुप्पी जो अब चीख बन गई।) 

हरियाणा के सीनियर आईपीएस अफसर वाई पूरन कुमार की आत्महत्या ने प्रशासनिक जगत को झकझोर दिया है। उनके सुसाइड नोट में 15 आईएएस-आईपीएस अफसरों के नाम दर्ज हैं, जिन पर जातिगत अपमान और मानसिक उत्पीड़न के आरोप हैं। चंडीगढ़ पुलिस ने डीजीपी शत्रुजीत कपूर और रोहतक एसपी नरेंद्र बिजारणिया समेत 14 अधिकारियों पर एफआईआर नंबर 156 दर्ज की है। यह हरियाणा के इतिहास में पहला मौका है जब इतने सीनियर अफसरों पर एक साथ एससी/एसटी एक्ट और भारत न्याय संहिता की धाराओं के तहत मुकदमा चला है। यह मामला नौकरशाही के भीतर छिपे जातिगत भेदभाव पर गहरी चोट है।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा की प्रशासनिक मशीनरी में सात अक्टूबर की सुबह एक ऐसी गूंज उठी, जिसने नौकरशाही के चेहरे से शालीनता का मुखौटा उतार फेंका। सीनियर आईपीएस अफसर वाई पूरन कुमार ने चंडीगढ़ के सेक्टर-11 स्थित अपने सरकारी आवास पर खुद को गोली मार ली। पर यह आत्महत्या नहीं, व्यवस्था के भीतर पल रहे जातिगत भेदभाव, सत्ता संघर्ष और संस्थागत उत्पीड़न का परिणाम थी। अब चंडीगढ़ पुलिस ने जो एफआईआर दर्ज की है, उसने इस सन्नाटे को कानून के दस्तक में बदल दिया है।

एफआईआर नंबर 156, जिसमें डीजीपी शत्रुजीत कपूर, रोहतक एसपी नरेंद्र बिजारणिया सहित 14 अफसर आरोपी बनाए गए हैं, भारतीय प्रशासनिक इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है। भारत न्याय संहिता की धारा 108, 3(5) और एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(r) के तहत दर्ज यह मामला इस सच्चाई की गवाही देता है कि नौकरशाही की ऊँची दीवारों के भीतर भी जाति आज भी उतनी ही जीवित है जितनी गांवों की गलियों में।

पूरन कुमार के सुसाइड नोट में 15 आईएएस-आईपीएस अफसरों के नाम दर्ज हैं। हर नाम एक आरोप है, और हर आरोप यह सवाल है कि क्या एक सविधानिक पद पर बैठा अधिकारी भी इस देश में अपनी जाति की जंजीरों से मुक्त नहीं हो सकता? उन्होंने लिखा कि उन्हें लगातार “साइड पोस्टिंग” दी जाती रही, उनकी योग्यता को दबाया गया, और उन्हें जातिगत तंज और धमकियों से मानसिक रूप से तोड़ा गया।

पूरन कुमार का कैरियर रिकॉर्ड इस बात की पुष्टि करता है। मेहनत और ईमानदारी से उन्होंने पुलिस सेवा में पहचान बनाई, पर उन्हें बार-बार “कम प्रभावी” पदों पर भेजा गया — कभी आईजी होमगार्ड, कभी आईजी टेलीकम्युनिकेशन। जब अप्रैल 2025 में उन्हें रोहतक रेंज का आईजी बनाया गया, तब उन्होंने यह सोचा होगा कि अब मेहनत का फल मिला है। लेकिन मात्र पांच महीने बाद ही उन्हें सुनारिया पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज भेज दिया गया — और वहीं से उनकी मानसिक गिरावट की शुरुआत हुई।

यह कहानी सिर्फ एक अफसर की नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम की वह बीमार रग है जो ‘योग्यता’ के सामने ‘पहचान’ को रखती है। हमारे समाज में आरक्षण भले अवसर देता हो, लेकिन व्यवस्था अक्सर उसे स्वीकार नहीं करती। वह दलित अफसर को ‘काबिल अधिकारी’ की जगह ‘आरक्षण वाला अफसर’ कहकर छोटा करती है। पूरन कुमार की मौत ने यह दिखा दिया कि जाति का भूत सिर्फ समाज में नहीं, बल्कि सत्ता के गलियारों में भी घूमता है।

पूरन कुमार की पत्नी आईएएस अमनीत पी. कुमार ने दो अलग-अलग प्रतिवेदन दिए — एक में केवल डीजीपी और एसपी के खिलाफ कार्रवाई की मांग की, और दूसरे में सभी 15 अफसरों की गिरफ्तारी की। यह एक अधिकारी की नहीं, बल्कि एक संवेदनशील पत्नी और सहकर्मी की लड़ाई है जो व्यवस्था से इंसाफ मांग रही है। उन्होंने कहा कि “यह सिर्फ एक सुसाइड नहीं, बल्कि एक सिस्टमेटिक मर्डर है।”

एफआईआर दर्ज होने के बाद राज्य के एससी समुदाय से जुड़े कई आईएएस, आईपीएस और एचसीएस अफसर पूरन परिवार के समर्थन में खुलकर सामने आए हैं। यह अपने आप में ऐतिहासिक है, क्योंकि आमतौर पर नौकरशाही के भीतर एक ‘मौन संस्कृति’ चलती है — जहां अधिकारी अपने साथी पर टिप्पणी करने से भी कतराते हैं। लेकिन इस बार सन्नाटा टूटा है। अफसर कह रहे हैं कि पूरन कुमार का मामला एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उस मानसिकता की हत्या है जो समानता और सम्मान की उम्मीद करती थी।

मुख्यमंत्री नायब सैनी ने परिवार से मुलाकात की और निष्पक्ष जांच का भरोसा दिया है। पर सवाल यह है कि क्या यह भरोसा न्याय में बदलेगा? क्या राज्य सरकार इतनी हिम्मत दिखा पाएगी कि डीजीपी जैसे शीर्ष अधिकारी को छुट्टी पर भेजे और एसपी को हटाए? या यह भी किसी और “आंतरिक जांच” की तरह फाइलों में गुम हो जाएगा?

हरियाणा की ब्यूरोक्रेसी में वर्षों से यह चर्चा होती रही है कि जातिगत गुटबाजी अफसरों की नियुक्तियों, ट्रांसफरों और प्रमोशनों को प्रभावित करती है। “कौन किसका है” — यह बात यहां पद से बड़ी हो जाती है। और जब इस गुटबाजी में जाति का तड़का लग जाता है, तो योग्यता, सत्यनिष्ठा और संवेदनशीलता सब हाशिये पर चली जाती हैं।

पूरन कुमार की मौत इस झूठी प्रतिष्ठा वाली मशीनरी पर एक नैतिक प्रश्नचिह्न है। यह घटना सिर्फ एक आत्महत्या नहीं, बल्कि एक सिस्टम की आत्मा की हत्या है — जो अपने अफसरों को मानसिक और जातिगत रूप से इतना तोड़ देती है कि वे जीवन से हार मान लेते हैं।

इस घटना के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि अब नौकरशाही के भीतर जातिगत भेदभाव पर खुली चर्चा शुरू होगी। लेकिन डर यह भी है कि यह मामला किसी प्रशासनिक औपचारिकता में तब्दील कर दिया जाएगा — जैसे हर बार होता है। जांच कमेटी बनेगी, बयान होंगे, और अंत में रिपोर्ट यह कहेगी कि “व्यक्तिगत कारणों से आत्महत्या थी।”

पूरन कुमार का लिखा हर शब्द आज भी सवाल बनकर हवा में तैर रहा है —

> “जब न्याय देने वाले ही अन्याय करने लगें, तो शिकायत किससे करें?”

एक संवेदनशील अफसर ने अपनी जान देकर यह दिखा दिया कि जाति का दर्द कुर्सी की ऊंचाई से नहीं मिटता। आज यह जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं, बल्कि समाज की भी है कि वह यह स्वीकार करे — जातिवाद अब सिर्फ राजनीति नहीं, प्रशासन की आत्मा में भी जहर की तरह घुल चुका है।

पूरन कुमार चले गए, पर उनके सुसाइड नोट ने यह साफ कर दिया है कि अब नौकरशाही की चुप्पी भी एक अपराध है। उनकी मौत व्यवस्था से यह मांग करती है कि वह सिर्फ दोषियों को नहीं, बल्कि अपनी सोच को भी कटघरे में खड़ा करे। क्योंकि जब तक सिस्टम खुद को नहीं बदलेगा, तब तक हर पूरन कुमार के भीतर कोई न कोई गोली तनी रहेगी।

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 डॉ. सत्यवान सौरभ

(स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार)

(ये लेखक के अपने विचार हैं)