कर्नाटक कांग्रेस में जूतों में दाल बंट रही है । बंटती क्यों नहीं मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार से किया वादा जो तोड़ दिया है । ढाई साल पहले सरकार बनने पर सीएम के लिए दोनों के बीच जंग मची तो दिल्ली आलाकमान ने तय कराया था कि ढाई साल बाद सिद्धारमैया कुर्सी छोड़ देंगे और शिवकुमार सीएम बन जाएंगे ।
सिद्धारमैया चाहें तो डिप्टी सीएम बन सकते हैं । शिवकुमार समर्थक दो दर्जन कांग्रेस विधायक इस समय दिल्ली में हैं । आलाकमान उन्हें मिलने का समय तक नहीं दे रही । लेकिन सच है जनाब ! छुटती कहां है ज़ालिम मुँह से लगी हुई । सिद्धारमैया पद से हटने को तैयार नहीं ।
वैसे देखिए न महाराष्ट्र में तो यह फॉर्मूला कामयाब रहा । शिवसेना के एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने और देवेंद्र फडणवीस उप मुख्यमंत्री । नया चुनाव हुआ हुआ तो सीटें बदल गई । अब देवेंद्र फडणवीस सीएम हैं और शिन्दे व अजित डिप्टी सीएम । मजे से सरकार चल रही है । आज बीजेपी की आलाकमान में खासा दम है सो महाराष्ट्र सरकार में नो प्रॉब्लम में चल रही है ।
लेकिन विगत शताब्दी के अंतिम दशक में ऐसा बिल्कुल नहीं था । याद कीजिए यूपी में जब बीजेपी और मायावती ने मिलकर सरकार बनाई तब भी ढाई ढाई साल का फॉर्मूला निकाला गया था । पहले ढाई साल के लिए मायावती सीएम बनीं । ढाई साल बाद जब बीजेपी की बारी आई तब मायावती ने कुर्सी छोड़ने से इनकार कर दिया । जाहिर है सरकार गिर गई ।
आपको फिर से महाराष्ट्र की ओर ले चलें । बीजेपी और शिवसेना ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़े और जीते । यहां भी ढाई ढाई साल सीएम पद की बात तय हुई । लेकिन उद्धव अड गए कि पहले सीएम वे बनेंगे । सत्ता के लिए उद्धव ने बालासाहब के सिद्धांत छोड़कर कांग्रेस से हाथ मिला लिया । नतीजा यह निकला कि शिवसेना बीजेपी का दशकों पुराना तालमेल टूट गया । कालांतर में में शिवसेना टूटी और बीजेपी ने शिन्दे को सीएम बनाकर उद्धव शिवसेना को समाप्त कर दिया ।
तो बात कर्नाटक से शुरू हुई , वहीं खत्म होगी । हमें याद है ढाई साल पहले का वह दौर जब एस शिवकुमार मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार ही नहीं थे । दरअसल कर्नाटक की जीत के पीछे शिवकुमार की ही मेहनत थी । लेकिन सिद्धारमैया बीच में कूद पड़े और आलाकमान ने 50/50 यानि ढाई ढाई साल का समझौता करा दिया । अब सिद्धारमैया पलटी मार रहे हैं , आलाकमान चुप है । खबर है कि शिवकुमार के इशारे पर अनेक विधायक गायब हो गए हैं । मतलब कर्नाटक में खेला होगा और जरूर होगा ।
सुरक्षा, कानून और नागरिक चेतना—तीनों मोर्चों पर एक साथ बड़े बदलाव की आवश्यकता
भारत को आतंकवाद से निर्णायक रूप से निपटने के लिए तकनीक, क़ानून और नागरिक सहभागिता—तीनों स्तरों पर तेज़ बदलाव की आवश्यकता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित राष्ट्रीय निगरानी तंत्र और आधुनिक डिजिटल जाँच प्रयोगशालाएँ सुरक्षा की मजबूत आधारशिला बन सकती हैं। त्वरित न्यायालय और कठोर दंड व्यवस्था न्याय प्रक्रिया को गति देंगे। गुप्त इंटरनेट, आभासी मुद्राओं और संदिग्ध धन-प्रवाह पर विशेष निगरानी भविष्य के खतरों को रोकने के लिए आवश्यक है। साथ ही नागरिक सहायता-सेवा, शीघ्र प्रतिक्रिया दल और दलगत राजनीति से ऊपर उठी साझा राष्ट्रीय सुरक्षा नीति ही एक सुरक्षित और सक्षम भारत का मार्ग प्रशस्त करेगी।
– डॉ प्रियंका सौरभ
भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहाँ आतंकवाद का स्वरूप बदलकर और भी जटिल और खतरनाक हो चुका है। राजधानी दिल्ली से लेकर देश के विभिन्न शहरों में हाल की घटनाएँ केवल हिंसक वारदातें नहीं, बल्कि यह चेतावनी हैं कि हमारी सुरक्षा संरचनाओं में अभी भी जितनी मजबूती और तत्परता होनी चाहिए, वह नहीं है। हर विस्फोट केवल एक दुर्घटना नहीं, बल्कि यह प्रश्न भी है कि एक उभरती वैश्विक शक्ति के रूप में भारत क्या अपनी आंतरिक सुरक्षा को उसी गंभीरता से देख रहा है, जैसी दुनिया के विकसित राष्ट्र देखते हैं? अमेरिका ने 9/11 की भयावहता के बाद आतंकवाद को एक ऐसे खतरे के रूप में लिया, जिसने उसके पूरे सुरक्षा तंत्र, कानून व्यवस्था और राजनीतिक दृष्टिकोण को बदलकर रख दिया। भारत को भी अब उसी स्तर की संवेदनशीलता और निर्णायकता की आवश्यकता है।
यह स्वीकार करना होगा कि आतंकवाद अब पुरानी सीमाओं से निकलकर नई तकनीकी दुनिया में प्रवेश कर चुका है। पहले जहाँ उसका संबंध बंदूक, प्रशिक्षण शिविर और सीमा पार से आने वाले गुरिल्ला नेटवर्क से होता था, वहीं अब उसका संचालन सोशल मीडिया, डार्क वेब, एन्क्रिप्टेड चैट, क्रिप्टो करेंसी और फर्जी पहचान के माध्यम से हो रहा है। आज एक अकेला व्यक्ति, जिसे ‘लोन-वुल्फ’ कहा जाता है, दुनिया में बैठे किसी भी संगठन से निर्देश पा सकता है और मिनटों में घटना को अंजाम दे सकता है। क्राउड-रैडिकलाइज़ेशन की प्रक्रिया इतनी तेज़ और गहरी हो चुकी है कि एक वीडियो, एक पोस्ट, या एक उग्र भाषण ही कई युवाओं को गलत दिशा में धकेल सकता है। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि आतंकवाद को केवल सीमापार से आने वाला खतरा माना जाए, वास्तविकता से आँख मूँद लेने जैसा है।
दिल्ली के नेहरू प्लेस जैसी घटनाओं ने फिर यह सामने ला दिया कि आतंक की तकनीक चाहे बदल जाए, पर हमारी कमियाँ वही पुरानी हैं। निगरानी कैमरों की संख्या सीमित है, उनकी गुणवत्ता अपर्याप्त है, और उनमे से भी कई खराब रहते हैं। कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में AI-आधारित निगरानी की व्यवस्था अब तक लागू नहीं है। यह भी एक कटु सत्य है कि जाँच एजेंसियों की क्षमता के मुकाबले घटनाओं की जटिलता कई गुना बढ़ गई है। आधुनिक दुनिया में जहाँ एक छोटे से डिवाइस में असंख्य डिजिटल प्रमाण छिपे हो सकते हैं, वहाँ हमारी फॉरेंसिक लैब्स की संख्या और आधुनिकता अभी भी सीमित है। सवाल यह भी है कि हम कब तक इन पुरानी कमजोरियों के साथ एक बदलती हुई दुनिया का सामना करेंगे?
एक आधुनिक राजधानी में 24×7 इंटेलिजेंट सर्विलांस सिस्टम होना चाहिए, जहाँ हर भीड़भाड़ वाला इलाका, हर बाजार, हर सार्वजनिक स्टेशन और हर संवेदनशील संस्थान AI से जुड़े कैमरों की निगरानी में हो। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल ने वर्षों पहले यह सुनिश्चित कर लिया कि आतंकियों के लिए कोई अंधेरा कोना न बचे। भारत को भी अब निगरानी को प्राथमिकता देनी चाहिए। कानून व्यवस्था की मजबूती केवल पुलिस की संख्या बढ़ाने से नहीं आएगी, बल्कि यह तकनीक, डेटा और तेजी से काम करने वाले नेटवर्क से आएगी।
यह भी एक गंभीर पहलू है कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में हमारी न्यायिक प्रक्रिया उतनी तेज़ नहीं है जितनी होनी चाहिए। वर्षों तक चलने वाली सुनवाई, गवाहों का मुकर जाना, कमजोर अभियोजन और डिजिटल साक्ष्यों की जटिलता—ये सब आतंकियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुँचाते हैं। जबकि अमेरिका ने 9/11 के बाद स्पष्ट कर दिया कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में न देरी स्वीकार्य है, न ढिलाई। भारत को भी यह संदेश देना चाहिए कि आतंकवाद के मामलों में न्याय शीघ्र और दृढ़ होना चाहिए। यह केवल कानूनी आवश्यकता नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की अनिवार्यता है।
आतंकवाद को रोकने में नागरिक चेतना की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी एजेंसियों की। एक साधारण नागरिक की एक छोटी-सी सूचना कई बड़े हमलों को रोक सकती है। लेकिन अक्सर लोग पुलिस से संपर्क करने में संकोच करते हैं, उन्हें प्रक्रिया लंबी और जटिल लगती है, या वे यह सोचते हैं कि “यह मेरा काम नहीं।” यह मानसिकता बदलनी होगी। सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जहाँ नागरिक आसानी से सूचना दे सकें, और तत्काल प्रतिक्रिया तंत्र मौजूद हो। मोहल्ला-स्तर तक चौकसी को मजबूत किया जाना चाहिए। नागरिक जब जागरूक होते हैं, तब आतंक के लिए जगह अपने आप कम होती जाती है।
दुर्भाग्य यह है कि भारत में सुरक्षा नीति अक्सर राजनीतिक बहसों में उलझ जाती है। किसी घटना को विपक्ष सत्ताधारी दल की विफलता बताता है, और सत्ता दल उसे सिर्फ ‘आतंकी षड्यंत्र’ कहकर जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करता है। लेकिन आतंकवाद का कोई राजनीतिक रंग नहीं होता। वह न किसी विचारधारा का मित्र है, न शत्रु; वह सिर्फ राष्ट्र और उसके नागरिकों को नुकसान पहुँचाता है। इसलिए यह अनिवार्य है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को राजनीति से ऊपर रखा जाए। अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर दोनों दल एकजुट रहते हैं; भारत में भी यह संस्कृति विकसित होनी चाहिए।
तकनीक इस युग की नई सुरक्षा दीवार है। भारत को अगले कुछ वर्षों में एक व्यापक तकनीक-आधारित सुरक्षा मॉडल बनाना होगा। AI आधारित CCTV नेटवर्क, चेहरे की पहचान प्रणाली, रीयल-टाइम डेटा इंटरलिंकिंग, आधुनिक डिजिटल फॉरेंसिक लैब, साइबर विशेषज्ञों की नियुक्ति, संदिग्ध वित्तीय लेनदेन की निगरानी और डार्क वेब पर नज़र रखने वाली विशेष टास्क फोर्स—ये सभी कदम अत्यंत आवश्यक हैं। यह समझना होगा कि आतंकवाद को केवल बंदूक और बम से ही नहीं, बल्कि डेटा और तकनीक से भी हराया जा सकता है।
आतंकवाद केवल मानव जनहानि का कारण नहीं बनता, बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरे घाव देता है। हर विस्फोट निवेश को डराता है, पर्यटन को कमजोर करता है और व्यापार पर सीधा असर डालता है। एक असुरक्षित राजधानी विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की भूमिका को नुकसान पहुँचा सकती है। इस कारण सुरक्षा केवल नागरिक जीवन का ही नहीं, बल्कि भारत के आर्थिक भविष्य का भी प्रश्न है।
भारत अब एक निर्णयकारी मोड़ पर है। समय आ गया है कि हम आतंकवाद के खिलाफ एक स्पष्ट, कठोर और आधुनिक नीति बनाएं—जिसमें कानून की ताकत, तकनीक की सटीकता, नागरिकों की जागरूकता और सरकार की इच्छाशक्ति—सभी एक साथ कार्य करें। 9/11 के बाद अमेरिका ने जो उदाहरण रखा, वह बताता है कि निर्णायक कदम लेने पर परिणाम बदलते हैं। भारत को भी यही सख़्ती दिखानी होगी। क्योंकि राष्ट्र की सुरक्षा किसी भी प्रकार के समझौते की वस्तु नहीं हो सकती। यह एक ऐसी जिम्मेदारी है, जिसमें देरी की कोई गुंजाइश नहीं है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वीरता, त्याग और राष्ट्रभक्ति की अनगिनत गाथाओं से भरा हुआ है। इन गाथाओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम अद्वितीय है, परंतु उनके संघर्ष को विजय और गौरव की ऊँचाइयों तक ले जाने में जिन वीरों और वीरांगनाओं ने योगदान दिया, उनमें झलकारी बाई का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। झलकारी बाई केवल लक्ष्मीबाई की सहचरी नहीं थीं, बल्कि वे उनकी परछाईं, रण-सहयोगी और अनेक मौकों पर जान बचाने वाली रणनीतिक सहयोगी बनकर उभरीं। उनकी वीरता, बुद्धिमत्ता और बलिदान स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम चरण की अमर धरोहर है।
झलकारी बाई का जन्म बुंदेलखंड क्षेत्र में झांसी के समीप स्थित एक साधारण कोली परिवार में लगभग 1830–1831 के आसपास हुआ माना जाता है। उनका बचपन गरीबी और संघर्ष भरे परिवेश में बीता, परंतु इसी परिवेश ने उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से दृढ़ बनाया। बचपन में ही उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, धनुर्विद्या और युद्ध-कौशल सीख लिया था। उनके पिता सदैव उन्हें निडर, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करते थे।झलकारी बाई का स्वभाव बचपन से ही साहसी था। स्थानीय कथाओं में वर्णित है कि उन्होंने एक बार अकेले ही एक जंगली तेंदुए का सामना कर उसे मार गिराया था। इस घटना ने उनके साहस को और अधिक उजागर किया। बुंदेलखंड की संस्कृतियाँ—कुश्ती, दंगल, तलवार-कला और घुड़सवारी—उनके व्यक्तित्व में रच-बस गईं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई न्यायप्रिय, प्रजावत्सल और सैन्य प्रतिभा से सम्पन्न शासिका थीं। 1857 के विद्रोह के बाद जब झांसी अंग्रेजों के निशाने पर आ गया, तब सभी क्षेत्रों से वीरों का रानी के साथ जुड़ना प्रारंभ हुआ। झलकारी बाई की प्रसिद्धि रानी तक पहुँची और उन्हें रानी से मिलने का अवसर मिला।जब लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई की युद्ध-विद्या और साहस देखा तो वे अत्यंत प्रभावित हुईं। इसके अलावा, झलकारी बाई का व्यक्तित्व रानी से आश्चर्यजनक रूप से मिलता-जुलता था—दिखावट, कद-काठी और चेहरे की समानता ने उन्हें रानी की रणनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका के लिए उपयुक्त बना दिया।
रानी ने झलकारी बाई को अपने दुर्गा दल में शामिल किया। यह दल महिलाओं का विशेष सैन्य दल था, जिसमें प्रमुख कमांडर के रूप में झलकारी बाई ने ख्याति प्राप्त की। यह दल रानी की सुरक्षा, सैन्य संचालन और आपातकालीन रणनीति तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।
रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई के संबंध साधारण शासक–सेविका के नहीं थे। वे दोनों एक-दूसरे की शक्ति थीं। रानी उनकी सलाह पर भरोसा करती थीं, और झलकारी बाई रानी के प्रति पूर्ण निष्ठा और समर्पण से सेवा करती थीं।
झलकारी बाई के लिए रानी केवल शासक नहीं, एक आदर्श, प्रेरणा और मातृस्वरूप थीं। वहीं रानी लक्ष्मीबाई के लिए झलकारी बाई उनके संघर्ष की साथी, उनकी रक्षा कवच और विपरीत परिस्थितियों में भरोसे की दृढ़ चट्टान थीं।
1857 के विद्रोह में झांसी अंग्रेजों के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र था। जब अंग्रेजी सेना झांसी पर आक्रमण करने लगी, तब रानी ने सेना का नेतृत्व किया और झलकारी बाई दुर्गा दल की कमांडर के रूप में मोर्चे पर डटी रहीं। लड़ाई के दौरान झलकारी बाई ने कई महत्वपूर्ण अभियानों का नेतृत्व किया। उन्होंने महिलाओं और पुरुषों दोनों को युद्ध-प्रशिक्षण दिया। कई बार उन्होंने अग्रिम पंक्ति में रहकर अंग्रेजी सेना के विरुद्ध तलवार उठाई।अंग्रेजों को यह समझ आ गया था कि झांसी की मजबूती केवल रानी लक्ष्मीबाई की सैन्य समझ ही नहीं, बल्कि उनके सहयोगियों की वीरता से भी है। इन सहयोगियों में सबसे उल्लेखनीय नाम झलकारी बाई का था, जो युद्ध के मैदान में अपराजेय साहस का प्रदर्शन कर रही थीं।झांसी की लड़ाई का सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया, जब अंग्रेजी सेना ने किला लगभग घेर लिया था। रानी को सुरक्षित निकालना अनिवार्य था, ताकि वे आगे ग्वालियर जाकर पुनः संगठित होकर संघर्ष जारी रख सकें।
रानी से अत्यधिक मिलते-जुलते चेहरे और समान शारीरिक बनावट के कारण यह निर्णय लिया गया कि झलकारी बाई स्वयं रानी के वेश में दुश्मन के सामने प्रकट होंगी, ताकि अंग्रेज भ्रमित होकर मुख्य सेना का ध्यान उस ओर लगा दे, और इसी बीच रानी झांसी से बाहर निकलकर आगे की योजना बना सकें। यह योजना अत्यंत जोखिमपूर्ण थी, क्योंकि इसका अर्थ था कि झलकारी बाई को लगभग निश्चित मृत्यु का सामना करना पड़ेगा। लेकिन झलकारी बाई किसी भी हिचकिचाहट के बिना इस निर्णय पर सहमत हो गईं। उनके लिए रानी की सुरक्षा और झांसी की प्रतिष्ठा सर्वोपरि थी। वेश बदलकर झलकारी बाई अंग्रेजों के सामने प्रकट हुईं। अंग्रेजी सेना उन्हें ही रानी समझकर अपनी पूरी ताकत उन पर केंद्रित कर दी। उन्होंने अत्यंत वीरता से युद्ध किया, कई अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया और रणभूमि में अनोखी रणनीति से उन्हें उलझाए रखा।इस बीच रानी सुरक्षित मार्ग से झांसी से बाहर निकलने में सफल हो गईं। झलकारी बाई की इस असाधारण कुर्बानी ने रानी को आगे के संघर्ष के लिए सुरक्षित रखा।
कुछ कथाओं के अनुसार झलकारी बाई अंत तक लड़ती रहीं और शहीद हो गईं, जबकि कुछ में उनका जीवित बच जाना और बाद में शांतिपूर्ण जीवन बिताना बताया गया है। चाहे जो भी ऐतिहासिक सत्य हो, उनकी देशभक्ति और बलिदान की चमक भारत के स्वतंत्रता इतिहास में हमेशा अमर है।
लंबे समय तक झलकारी बाई का योगदान मुख्यधारा इतिहास में उपेक्षित रहा। इसका एक बड़ा कारण यह था कि झलकारी बाई एक दलित समुदाय से आती थीं। परंतु आज इतिहास पुनर्पाठ हो रहा है और उन्हें योग्य सम्मान मिल रहा है।आज झलकारी बाई भारत की बहादुर महिलाओं के प्रतीक के रूप में मान्य हैं। उनके नाम पर संस्थान, संग्रहालय और मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। झांसी में उनके सम्मान में झलकारी बाई स्मारक बनाया गया है। कई शोध-ग्रंथ, नाटक और काव्य उनकी वीरता को समर्पित हैं।
झलकारी बाई का व्यक्तित्व भारत की स्त्री–शक्ति का अद्वितीय उदाहरण है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वीरता किसी जाति, वर्ग या लिंग की मोहताज नहीं होती। साहस, समर्पण और राष्ट्रप्रेम किसी भी साधारण मानव को असाधारण बना सकते हैं।
सुधीर कक्कड़ भारतीय समाज और मनोविज्ञान के विलक्षण अध्येता माने जाते हैं। उनकी पुस्तक “मीरा एंड द महात्मा” महात्मा गांधी और उनकी विदेशी अनुयायी मैडेलीन स्लेड—जो बाद में “मीरा बेन” के नाम से जानी गईं—के जटिल, आत्मिक और गहरे मानव संबंध पर प्रकाश डालती है। यह पुस्तक केवल एक ऐतिहासिक प्रसंग का विवरण नहीं, बल्कि दो असाधारण व्यक्तित्वों के मध्य विकसित एक आध्यात्मिक मैत्री, विश्वास और भावनात्मक निर्भरता की मनोवैज्ञानिक पड़ताल भी है। कक्कड़ इस संबंध को अत्यंत संवेदनशीलता और विश्लेषणात्मक दृष्टि से समझने का प्रयास करते हैं।
लेखक के अनुसार मीरा का गांधी से प्रथम परिचय उनके लेखन के माध्यम से हुआ। रस्किन और टॉल्स्टॉय के विचारों से प्रेरित मीरा को गांधी के लेखों में वही आध्यात्मिक धारा मिली, जिसकी तलाश उन्हें लंबे समय से थी। गांधी के जीवन की सरलता, सत्य के प्रति अडिगता और आत्मसंयम की साधना मीरा को गहरे तक प्रभावित करती है। कक्कड़ लिखते हैं कि मीरा अपने भीतर एक ऐसे “गुरु” की खोज कर रही थीं, जिनके माध्यम से वह आत्मिक शांति पा सकें। गांधी का व्यक्तित्व उन्हें इस खोज का उत्तर प्रतीत हुआ। 1925 में जब वह गांधी से मिलीं तो पहली ही भेंट में उनका मन दृढ़ हो गया कि वह अपना जीवन गांधी और उनके मिशन को समर्पित करेंगी।
गांधी ने मीरा को अपने आश्रम में स्वीकार किया, पर यह स्वीकार्यता केवल एक अनुयायी की नहीं थी। कक्कड़ बताते हैं कि गांधी मीरा में एक अत्यंत गंभीर, अनुशासित और तपस्विनी आत्मा देखते थे। उनके भीतर की निष्ठा और समर्पण गांधी को प्रभावित करते थे। मीरा ने स्वयं को पूरी तरह से गांधी के मार्ग में लगा दिया—चरखा, स्वच्छता, सेवा, सत्य और ब्रह्मचर्य—उन्होंने आश्रम जीवन की सारी कठिनाइयाँ अत्यंत सहजता से अपनाई।
सुधीर कक्कड़ इस संबंध का विश्लेषण मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ में करते हुए बताते हैं कि मीरा के लिए गांधी “मास्टर” से अधिक एक आध्यात्मिक पिता-तुल्य थे। वह अपने जीवन के हर निर्णय, हर भाव, हर उलझन में गांधी से मार्गदर्शन चाहती थीं। उनके लिए गांधी का सान्निध्य किसी भक्ति की चरम अनुभूति जैसा था। गांधी ने भी मीरा के इस विश्वास को स्नेह और सहानुभूति के साथ ग्रहण किया। वह मीरा की आध्यात्मिक खोज को सम्मानित करते थे और उन्हें एक तपस्विनी साधक के रूप में देखते थे।
कक्कड़ यह भी बताते हैं कि मीरा का यह समर्पण अक्सर आश्रमवासियों के लिए उलझन का कारण बना। कई लोगों को ऐसा लगता था कि मीरा की गांधी से अत्यधिक निकटता अनुचित है। परंतु गांधी हमेशा इस संबंध को पूर्ण पारदर्शिता और आत्मिकता के स्तर पर ही देखते थे। उन्होंने मीरा के प्रति अपने स्नेह को कभी भी व्यक्तिगत मोह में बदलने नहीं दिया। गांधी का जीवन ब्रह्मचर्य-व्रत से बँधा हुआ था और वह हर संबंध को आत्मिक शुचिता के दायरे में ही रखते थे।
इस पुस्तक की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि कक्कड़ गांधी और मीरा के संबंध को किसी भी सनसनीखेज ढंग से प्रस्तुत नहीं करते। वह इसे एक गहरे मानवीय और आध्यात्मिक संबंध के रूप में देखते हैं, जहाँ दो व्यक्तित्व एक-दूसरे के भीतर के प्रकाश को पहचानते हैं। गांधी के लिए मीरा सत्य और तप की साधना में एक विश्वसनीय सहयोगी थीं। वहीं मीरा के लिए गांधी उनकी आध्यात्मिक यात्रा के अंतिम पूर्वज—एक ऐसे व्यक्ति—जिसके माध्यम से वह स्वयं को पहचान पा रही थीं।
कक्कड़ यह भी बताते हैं कि इस संबंध में एक प्रकार का भावनात्मक तनाव भी था। मीरा अक्सर गांधी से बेहद निकट रहने की इच्छा रखती थीं। वह चाहती थीं कि गांधी उनके समर्पण को उसी तीव्रता से समझें। गांधी कई बार उन्हें संयम और दूरी की सीख देते थे। यह दूरी गांधी की आत्मिक साधना का अंग थी। मीरा इस दूरी को कभी-कभी भावनात्मक वेदना के रूप में अनुभव करती थीं। पुस्तक में मीरा के पत्रों और गांधी की प्रतिक्रियाओं के माध्यम से इस भावनात्मक द्वंद्व को संवेदनशीलता से उकेरा गया है।
मीरा का गांधी के जीवन पर प्रभाव भी कम नहीं था। उनकी दृढ़ निष्ठा, शुचिता और कार्य के प्रति समर्पण ने आश्रम के कई कामों को दिशा दी। स्पिनिंग, संगीत, अहिंसा के प्रचार और पर्यावरण संरक्षण जैसे विषयों में मीरा का योगदान उल्लेखनीय रहा। वह गांधी की यात्राओं में साथ रहीं और कई कठिन चरणों में उनका समर्थन करती रहीं।
कक्कड़ यह भी दर्शाते हैं कि गांधी के प्रति मीरा की निष्ठा केवल व्यक्ति-पूजा नहीं थी। यह एक विचार के प्रति समर्पण था—एक ऐसे भारत के प्रति, जिसे गांधी सत्य, अहिंसा और स्वावलंबन के आधार पर गढ़ना चाहते थे। मीरा ने न केवल इस विचार को समझा, बल्कि उसे अपने जीवन का ध्येय बना लिया।
अंततः, गांधी और मीरा का संबंध गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, मित्र और साधक-साधिका—इन सभी रूपों का एक अनोखा संगम था। कक्कड़ की व्याख्या यह समझने में सहायता करती है कि यह संबंध मनुष्य के भीतर की गहन आध्यात्मिक आकांक्षाओं और भावनात्मक आवश्यकताओं से कैसे आकार लेता है। यह संबंध इतिहास का हिस्सा भर नहीं, दो आत्माओं का संवाद था—जहाँ मीरा ने गांधी के माध्यम से स्वयं को पहचाना, और गांधी ने मीरा में एक सच्चे साधक का चेहरा देखा।
इस प्रकार सुधीर कक्कड़ की “मीरा एंड द महात्मा” मीरा और गांधी के संबंधों को किसी सरल परिभाषा में सीमित न करके, उसे एक मानवीय, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक गहराई से परिचित कराती है—जो भारतीय इतिहास की सबसे अनूठी और प्रेरक कहानियों में से एक है।
मैडलिन स्लैड उर्फ मीरा बेन का जन्म 22 नवम्बर 1892 में इंग्लैंण्ड में हुआ था। वे एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी की बेटी थीं। इन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी जी के सिद्धांतों से प्रभावित होकर खादी का प्रचार किया था। नि:स्वार्थ उनके आदर्शों पर चलकर खादी अपनाना, पहनना और उसका प्रचार-प्रसार करना किसी विदेशी द्वारा हो तो निश्चित ही सराहनीय है। गांधीजी को मीरा बेन एक बहन, एक बेटी, एक मित्र से भी बढ़कर मिलीं, उनका हर कदम पर साथ दिया और सहारा बनीं।
इनके पिता का नाम ‘ऐडमिरल सर ऐडमंड स्लेड’ था, जो मुम्बई में ‘ईस्ट इण्डिया स्क्वैड्रन’ में कार्यरत थे। मीरा बेन ने गाँधी जी के सिद्धांतों से प्रभावित होकर भारत में विभिन्न स्थानों पर जाकर खादी का प्रचार किया। मीरा बेन ने मानव विकास, गांधी जी के सिद्धांतों की उन्नति और स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। ऐसा करते देख गाँधी जी ने उन्हें मीरा बेन नाम दिया। यह नाम भगवान कृष्ण की भक्त मीरा बाई से मेल खाता था। गांधीजी के विचारों को मानने वाली मीरा बेन सादी धोती पहनती थीं, सूत कातती, गांव-गांव घूमतीं।
वह अंग्रेज़ थीं लेकिन हिंदुस्तान की आजादी के पक्ष में थीं। गांधी का अपनी इस विदेशी पुत्री पर विशेष अनुराग था। मैडलिन स्लैड जब साबरमती आश्रम में बापू से मिलीं तो उन्हें लगा कि जीवन की सार्थकता दूसरों के लिए जीने में ही है। वह गुजरात के साबरमती आश्रम में रहने लगीं।
बचपन से ही सादे जीवन से उन्हें प्यार था। वह प्रकृति से प्रेम करती थीं तथा संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। ‘बिथोवेन’ का संगीत उन्हें बहुत पसंद था। मैडलिन स्लैड बचपन में एकाकी स्वभाव की थीं, स्कूल जाना तो पसंद नहीं था लेकिन अलग-अलग भाषा सीखने में रुचि थी। उन्होंने फ्रेंच, जर्मन और हिंदी समेत अन्य भाषाएं सीखीं। गांधी पर लिखी गयी रोम्या रोलां की पुस्तक पढ़कर स्लैड को गांधी के विराट व्यक्तित्व के बारे में पता चला।
मीरा गांधी के नेतृत्व में लड़ी जा रही आजादी की लड़ाई में अंत तक उनकी सहयोगी रहीं। इस दौरान नौ अगस्त, 1942 को गांधी जी के साथ उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। आगा खां हिरासत केंद्र में मई, 1944 तक रखा गया। परंतु उन्होंने गांधी जी का साथ नहीं छोड़ा। 1932 के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में वह महात्मा गांधी के साथ थीं। महात्मा गांधी के राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में किये सुधारात्मक और रचनात्मक कार्यों में मीरा की अहम भूमिका थी। वे सेवा बस्तियों और पिछड़े वर्ग के लोगों में जाकर नि:संकोच स्वयं सफाई कार्य करतीं।
सेवाग्राम की ‘बापू कुटी’ देश की धरोहर है। देश-विदेश के सैकड़ों दर्शनार्थी यहां आते हैं। वे बापू के जीवन-दर्शन को समझते हैं। सेवाग्राम स्थित बापू की कुटी में महात्मा गांधी 1936 से 1946 तक रहे। शेगांव यानी सेवाग्राम में बापू कुटी का निर्माण मीराबेन ने किया। सेवाग्राम स्थित बापू की कुटी स्थापना के समय महात्मा गांधी का आसन, दफ्तर, भोजन कक्ष आदि कहां होना चाहिए इसी तरह की दिनचर्या के कामकाज की बातों को ध्यान में रखकर बापू की कुटी को वर्ष 1936 में साकार किया गया।
बुनियादी शिक्षा, अस्पृश्यता निवारण जैसे कार्यों में गांधी के साथ मीरा की अहम भूमिका रही।
बापू के निधन के बाद भी मीरा उनके विचार और कार्यों के प्रसार में जुटी रहीं, जिसके चलते 1982 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। भारत के प्रति मीरा बेन का लगाव इतना था कि वह भारत को अपना देश और इंगलैंड को विदेश मानती थीं। मीरा बेन के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए ‘इंडियन कोस्ट गार्ड’ ने नए गश्ती पोत का नाम उनके नाम पर रखा है।
गांधी जी की हत्या के बाद 18 जनवरी 1959 को मीराबेन भारत छोड़कर विएना चली गयीं। 20 जुलाई 1982 को उनका निधन हो गया।
अंतरबैंक विदेशी मुद्रा बाजार में आज रुपया 88.67 पर खुला और 82 पैसे गिरकर 89.50 के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। बाजार बंद होने के दौरान यह अमेरिकी मुद्रा के मुकाबले 89.40 पर कारोबार करता दिखा। गुरुवार को रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 20 पैसे गिरकर 88.68 पर बंद हुआ ।
घरेलू और वैश्विक शेयर बाजारों से नकारात्मक संकेतों के बीच शुक्रवार को कारोबार के दौरान रुपये में तीन महीने से अधिक समय में सबसे बड़ी एक दिन की गिरावट देखी गई। इस गिरावट के बाद रुपया पहली बार 89 रुपये प्रति डॉलर के स्तर को पार कर गया। रुपये में 78 पैसे की गिरावट आई और यह 89.46 रुपये प्रति डॉलर पर कारोबार करता दिखा।
अंतरबैंक विदेशी मुद्रा बाजार में रुपया 88.67 पर खुला और 82 पैसे गिरकर 89.50 के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। बाजार बंद होने के दौरान यह अमेरिकी मुद्रा के मुकाबले 89.40 पर कारोबार करता दिखा। गुरुवार को रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 20 पैसे गिरकर 88.68 पर बंद हुआ था।
दिल्ली। दुबई एयर शो में प्रदर्शन के दौरान शुक्रवार को एक विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। भारतीय तेजस विमान स्थानीय समयानुसार दोपहर करीब 2:10 बजे एक प्रदर्शन उड़ान के दौरान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ।
स्थानीय समय अनुसार दोपहर 2:10 बजे तेजस एम के-1 प्रदर्शन के दौरान डेमो उड़ान भर रहा था, तभी अचानक विमान अनियंत्रित हो गया और नीचे गिर कर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान के जमीन से टकराते ही जोरदार धमाका हुआ और कुछ ही पलों में काले धुएं का गुबार हवा में फैल गया। विमान के चालक के भी शहीद होने की सूचना है।
वहां मौजूद सुरक्षा एजेंसियों ने तुरंत रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में लोग दुबई एयर शो देखने आए थे।भीड़ ने विमान को नीचे गिरते देखा और फिर अचानक उठते धुएं के कारण अफरा-तफरी का माहौल बन गया।
दुबई की स्थानीय मीडिया के मुताबिक प्र हादसे के तुरंत बाद हेलिकॉप्टर्स और फायर ब्रिगेड मौके पर पहुंच गए और आग पर काबू पाया गया। करीब 45 मिनट में पूरे घटनाक्रम को संभाल लिया गया। कार्यक्रम दोबारा शुरू होगा या नहीं, इस पर अभी स्पष्ट जानकारी नहीं है।
एयर शो अधिकारियों ने दुर्घटना वाले क्षेत्र को तुरंत सील कर दिया । सभी उड़ान कार्यक्रम अस्थायी रूप से रोक दिए। विमान दुर्घटना के कारणों का पता लगाने के लिए जांच शुरू कर दी गई है। भारतीय पक्ष की ओर से भी संपर्क और जानकारी जुटाने की प्रक्रिया जारी है।
‘द फ्यूचर इज हियर’ थीम के तहत यह एयर शो 17 से 21 नवंबर तक दुबई वर्ल्ड सेंट्रल में आयोजित हो रहा है। यह दुबई एयर शो का 19वां संस्करण है। इस बार 200 से अधिक विमानों का रिकॉर्ड प्रदर्शन किया जा रहा। इसमें कमर्शियल, मिलिट्री, प्राइवेट जेट, यूएवी और नई पीढ़ी की एयरोस्पेस तकनीकें शामिल हैं। यह अब तक का सबसे बड़ा फ्लाइंग और स्टैटिक डिस्प्ले है। आयोजन में 148,000 ट्रेड विजिटर्स और 115 देशों से आए 490 सैन्य और नागरिक प्रतिनिधिमंडल भाग ले रहे हैं।
पूरी तरह स्वदेशी है ताकतवर तेजस हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) द्वारा विकसित भारतीय वायुसेना का तेजस एम के-1 लड़ाकू विमान पूरी तरह भारत में निर्मित एक आधुनिक फाइटर जेट है। इसे हल्का, तेज और अधिक फुर्तीला बनाने के लिए डिजाइन किया गया है। यह देश की स्वदेशी रक्षा क्षमता का एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है। इसके डिजाइन और संरचना में कई उन्नत तकनीकों का समावेश किया गया है।
तेजस 4.5 जनरेशन श्रेणी का विमान है।इसमें आधुनिक एवियोनिक्स, बेहतर हथियार प्रणाली और उत्कृष्ट मैनूवरिंग क्षमताएं शामिल हैं। यह छोटा और हल्का होने के बावजूद सुपरसोनिक गति से उड़ान भरने की क्षमता रखता है। इसकी गति, फुर्ती और तकनीकी विशेषताएं इसे भारतीय वायुसेना के बेड़े में एक शक्तिशाली और भरोसेमंद लड़ाकू विमान बनाती हैं।
आजकल देशभर में प्री-वेडिंग शूट का एक चलन बढ़ता ही जा रहा है। पिछले कुछ सालों में प्री वेडिंग शूट शादी की फोटो एल्बम बनाने से ज्यादा ज़रुरी बन चुके हैं। प्री वेडिंग देश में एक लक्जरी इंडस्ट्री के रूप में उभर रहा है जो अपने बजट के हिसाब से किसी पार्क, रमणिक स्थल या किसी खूबसूरत स्थान पर ये शूट किए जाने लगे हैं। इसके तहत भावी दूल्हा- दुल्हन अपने परिवारजनो की सहमति से शादी से पूर्व फ़ोटो ग्राफर के साथ देश के अलग-अलग स्थानों पर सैर सपाटा करते हैं, बड़े होटलो, हेरिटेज बिल्डिंगों, समुद्री बीच व अन्य ऐसी जगहों पर जहाँ सामान्यतः पति पत्नी शादी के बाद हनीमून मनाने जाते है, जाकर अलग- अलग और कम से कम परिधानों में एक दूसरे की बाहो में समाते हुए वीडियो शूट करवाते है। विवाह से पहले किया जाने वाला वह फोटो/वीडियो ग्राफी जिसमें होने वाले भावी दंपति अपने विवाह से पहले, एक प्रेमी जोड़े की भांति फोटो और वीडियो शूट करवाते हैं। जिसे वे मुख्य शादी वाले दिन बड़ी स्क्रीन पर एक शॉर्ट फिल्म के रूप में पेश करते हैं और सोशल मीडिया पर भी बड़े ही उत्साह के साथ पोस्ट करते हैं। इसे ही वीडियो शूट की संज्ञा दी जा रही है। इस प्रकार के आयोजन पर हजारों लाखों का खर्चा भी किया जाने लगा है। मीडिया ख़बरों के अनुसार विवाह से पहले इस प्रकार के प्रचलन से समाज में कई प्रकार की समस्याएं उभरने लगी हैं। बहुत से परिवार इस खर्चे को सहन करने की स्थिति में नहीं होते है मगर आपसी दवाब के आगे झुक जाते है। विभिन्न रिपोर्टों में प्री-वेडिंग शूट को निजता का उल्लंघन बताते हुए इसे अनावश्यक खर्च और पारिवारिक तनाव का कारण बताया जाकर लोगों को सावचेत किया जा रहा है। समाज इसे स्टेटस सिंबल के रूप में देखता है, जो मर्यादा को कम करता है। शादी को सादगी और भारतीय परंपराओं के अनुरूप मनाना चाहिए। कुछ जागरूक संगठनों ने प्री-वेडिंग शूट जैसी कुरीतियों को रोकने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा कि विवाह एक पवित्र बंधन है, जो दो परिवारों और आत्माओं का मिलन है न कि दिखावे का जरिया।
शादी से पहले प्री वेडिंग को लेकर हमारे समाज में तरह तरह की बातें सुनने को मिल रही है। वह भी एक समय था जब विवाह के दौरान फोटो खिंचवाकर उसे एल्बम में संजो कर रखते थे। इस एल्बम का क्रेज कुछ दिनों तक रहता और बाद में कहीं रखकर इसे भुला दिया जाता। समय बदला और अब हम डिजिटल युग में प्रवेश कर चुके है। कुछ समय पहले तक हम एल्बम के साथ वीडियो बनाकर अपने पास रख लेते थे। इस वीडियो को यदा कदा देख लेते थे। मगर अब हमारा डिजिटलीकरण हो चुका है और इसी के साथ प्री वेडिंग के नाम से एक नई प्रथा शुरू हो गई है। अब जमाना सोशल मीडिया का है। युवा अपनी हर घटना को सोशल मीडिया पर परोसने लगा है तो प्री वेडिंग कैसे पीछे रहता। अब प्री वेडिंग भी सोशल मीडिया पर देखी जाने लगी है। प्री वेडिंग के वीडियो और फोटो देखकर सामान्य परिवारों में काफी हलचल देखने को मिल रही है। कुछ लोग इसे पसंद कर रहे है तो कुछ ना पसंद कर रहे है। यहीं से इसके समर्थन और विरोध में आवाजें बुलंद होने लगी है। कुछ सामाजिक संगठन इसे देश की संस्कृति के खिलाफ बता कर विरोध जता रहे है।
बताया जाता है प्री-वेडिंग शूट एक पाश्चात्य संस्कृति है। जो पिछले कुछ दशक से भारत में भी घर घर जगह बना रही है। प्री-वेडिंग शूट की कहानी भी बड़ी अजब गजब है। कई परिवारों में तनाव का एक कारण भी इसे बताया जा रहा है। शादी के पहले ही भावी दुल्हन और दूल्हा फिल्मी अंदाज में एक-दूसरे के साथ नजर आते हैं। वे स्वयं को एक अभिनेता और अभिनेत्री की भांति दिखाने की हर संभव कोशिश करते हैं। चाहे उन्हें अर्धनग्न वस्त्र ही क्यों ना पहनने पड़े। हालांकि कुछ जोड़ों ने अपने प्री-वेडिंग शूट को नया रूप देने के लिए धार्मिकता से भी जोड़कर बनाया है। यह भी देखा जाता है कि कुछ जोड़े प्री-वेडिंग शूट के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर भी शूट करवाते हैं। ऐसे दो मामलों में उनकी जान भी जा चुकी है। अपनी शादी को यादगार बनाने और उसे कैमरे में कैद कर सार्वजनिक स्थल में परोसने की प्रवृत्ति कहीं न कहीं भारतीय समाज में पारिवारिक रिश्तों को तार तार कर रही है। इस परंपरा को रोकना आवश्यक है ताकि विवाह के नाम पर युवक युवती द्वारा फूहड़ प्रदर्शन का विपरीत असर सभ्य समाज पर न पड़े। कुछेक मामलों में ये उल्टा पड़ जाता है जब किसी वजह से शादी ही टूट जाए, लेकिन आज की जेनरेशन ये रिस्क लेने के लिए तैयार लगती है। भारतीय परपराओं के अनुसार प्री वेडिंग शूट गलत है। विवाह से पहले प्री वेडिंग शूट के बहाने इस प्रकार युवक युवती का मिलना समाज के लिए कतई शोभनीय है।
विश्व हैपीनेस रिपोर्ट की सीमाएँ और भारत में सहानुभूति–ढाँचे की अनिवार्यता
विश्व हैपीनेस रिपोर्ट में भारत की निम्न रैंकिंग अक्सर वास्तविक कल्याण स्थिति से अधिक सांस्कृतिक तथा धारणा-आधारित पूर्वाग्रहों को दर्शाती है। सुख मापने की पद्धति में निहित सीमाओं को समझते हुए भारत को अपने सामाजिक, संवेदनात्मक और सामुदायिक ढाँचे में सहानुभूति-आधारित सुधारों को बढ़ाना चाहिए।
— डॉ. सत्यवान सौरभ
विश्व हैपीनेस रिपोर्ट हर वर्ष किसी देश की सुख-संतुष्टि का आकलन प्रस्तुत करती है। किंतु भारत जैसे विशाल, विविध और सांस्कृतिक रूप से जटिल देश के लिए यह रिपोर्ट कई बार उस यथार्थ को उजागर नहीं कर पाती जो समाज के भीतर गहरे स्तर पर मौजूद है। भारत की रैंकिंग अक्सर सौ से ऊपर दिखाई देती है, जबकि इसी अवधि में भारत ने स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक सुरक्षा, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, संरचनात्मक सुधारों और गरीबी कमी जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ दर्ज की हैं। यह विरोधाभास एक नैसर्गिक प्रश्न खड़ा करता है—क्या किसी देश के “सुख” को केवल सर्वेक्षण-आधारित दृष्टिकोण से समझा जा सकता है? और क्या यह मापन भारतीय जीवन-मूल्यों और सामाजिक वास्तविकताओं को पकड़ने में सक्षम है?
विश्व हैपीनेस रिपोर्ट का आधार मुख्यतः स्व-आकलन है। सर्वेक्षणकर्ता उत्तरदाताओं से पूछते हैं कि वे जीवन को दस-स्तरीय सीढ़ी में कहाँ रखते हैं। यह “सीढ़ी-संबंधी मूल्यांकन” पश्चिमी मनोविज्ञान में प्रयुक्त उस विचार पर आधारित है जिसमें सुख को व्यक्तिगत प्राप्तियों और परिस्थितियों के आधार पर मापा जाता है। परन्तु भारतीय समाज में सुख की अवधारणा केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामुदायिक, आध्यात्मिक और पारिवारिक आयामों से भी गहराई से जुड़ी होती है। भारतीय संस्कृति में संतोष, कर्तव्य, परस्पर सहायता, संबंधों की स्थिरता और आध्यात्मिक संतुलन भी सुख का महत्वपूर्ण आधार माने जाते हैं। इसलिए जब एक भारतीय उत्तरदाता से पूछा जाता है कि वह दस में से अपने जीवन को कितने अंक देगा, तो उसके भीतर कई सांस्कृतिक कारक सक्रिय होते हैं—विनम्रता, शांत-स्वीकृति, परिस्थिति को भाग्य-नियति से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति, या समाज में शिकायत दिखाने से बचना। इसके परिणामस्वरूप अनेक भारतीय अपने जीवन को कम अंक दे सकते हैं, भले ही वे वस्तुतः अनेक स्तरों पर बेहतर स्थिति में हों।
सर्वेक्षण का नमूना आकार भी भारत के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता। एक अरब से अधिक जनसंख्या वाले, शहरी और ग्रामीण विविधताओं से भरे देश के लिए मात्र लगभग एक हज़ार लोगों के उत्तर पर आधारित निष्कर्ष असंतुलित हो सकते हैं। भारतीय समाज क्षेत्रीय, भाषायी, आर्थिक तथा सामाजिक स्तरों पर अत्यंत विषम है; एक छोटे नमूने का उपयोग करके उस विविधता का प्रतिनिधित्व संभव नहीं। एक जिले के ग्रामीण किसान की जीवन-संतुष्टि की अवधारणा दिल्ली के शहरी पेशेवर व्यक्ति से भिन्न हो सकती है। फिर भी, दोनों को समान पैमाने पर रखकर किसी राष्ट्रीय “सुख-अंक” की व्याख्या करना वैज्ञानिक रूप से सीमित प्रतीत होता है।
इसके अतिरिक्त रिपोर्ट में प्रयुक्त सुख की अवधारणा भी सांस्कृतिक पक्षपात से प्रभावित है। पश्चिमी ढाँचा सुख को भौतिक उपलब्धियों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रत्यक्ष संतुष्टि से जोड़ता है, जबकि भारतीय समाज में अनेक बार सुख का अर्थ कठिनाइयों के बीच संतुलन बनाए रखना, भावनात्मक सहारा, सामुदायिक सहयोग या आध्यात्मिक शांति से भी जुड़ा होता है। यह अंतर सर्वेक्षणकर्ता की भाषा, शैली, शब्दों और उत्तरदाता के मनोभाव को प्रभावित करता है। अक्सर यह देखा गया है कि भारत के ग्रामीण या अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों में उत्तरदाता “जीवन के अंक” को किसी ऐसे प्रश्न की तरह स्वीकार करते हैं जिसमें शिकायत या असंतोष दिखाना उचित नहीं लगता। इसी वजह से कई भारतीय वास्तविक अनुभव होने के बावजूद संतुष्टि को अपेक्षाकृत कम आंकते हैं, जिससे परिणाम और अधिक विकृत होते हैं।
इसके विपरीत, भारत ने बीते वर्षों में सामाजिक कल्याण में कई बड़े परिवर्तन किए हैं। करोड़ों लोगों तक निःशुल्क खाद्यान्न पहुँचाना, सर्वजन स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाओं के माध्यम से आधारभूत सुरक्षा सुनिश्चित करना, ग्रामीण आजीविका कार्यक्रमों में विस्तार, शिक्षा तथा महिला-शिशु पोषण कार्यक्रमों में बढोत्तरी—ये सब समग्र जीवन-गुणवत्ता को बढ़ाने वाले उपाय रहे हैं। किन्तु अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें इन संकेतकों को केवल सीमित रूप से जोड़ती हैं, क्योंकि उनका मूल केंद्र “अनुभूत संतुष्टि” पर आधारित है, न कि “वस्तुनिष्ठ कल्याण” पर। यही कारण है कि वस्तुनिष्ठ रूप से बेहतर होती सुविधाएँ भी रिपोर्ट में पर्याप्त रूप से उजागर नहीं हो पातीं। भारत में गरीबी में कमी और स्वास्थ्य-सेवाओं की पहुँच में वृद्धि ने जीवन को अधिक सुरक्षित और स्थिर बनाया है, परन्तु सुख-सर्वेक्षण इस सकारात्मक परिवर्तन को मापने में अक्षम रहते हैं।
ऐसे में, प्रश्न यह उठता है कि भारत को अपने भीतर ऐसा क्या बदलना चाहिए जिससे समाज अधिक भावनात्मक रूप से सुरक्षित, सहानुभूतिपूर्ण और संतुलित बन सके। इसका उत्तर “सहानुभूति संरचना”—एक व्यापक सामाजिक ढाँचा है जिसमें राज्य, समाज, संस्थान और समुदाय मिलकर नागरिकों को भावनात्मक सुरक्षा, मानसिक सहारा, संवाद और सहायता प्रदान करें। इस ढाँचे का पहला स्तंभ मानसिक-स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार है। भारत में मानसिक-स्वास्थ्य को लेकर अभी भी कई भ्रम और कलंक मौजूद हैं। लोग सहायता लेने में संकोच करते हैं, और प्राथमिक चिकित्सा ढाँचे में मानसिक स्वास्थ्य की अनुपस्थिति समस्या को बढ़ाती है। यदि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रशिक्षित परामर्शदाता हों, दूरभाष-आधारित सेवाएँ व्यापक हों और विद्यालयों-कॉलेजों में मनोवैज्ञानिक सहायता उपलब्ध हो, तो समाज में भावनात्मक असुरक्षा घट सकती है।
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू समुदाय-आधारित सहयोग है। भारतीय संस्कृति में पड़ोस, परिवार और सामाजिक संबंधों की शक्ति अत्यधिक रही है, परन्तु शहरीकरण और व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा के कारण यह संरचना कमजोर हो रही है। यदि स्थानीय समुदायों में संवाद-चक्र, सहारा-समूह, वरिष्ठ नागरिक सहायता-केंद्र, महिलाओं के लिए सुरक्षित समुदाय-स्थल और युवाओं के लिए साझा सहयोग मंच विकसित किए जाएँ, तो सामाजिक एकांत कम हो सकता है। सहानुभूति तभी विकसित होती है जब लोग एक-दूसरे के जीवन में उपस्थिति का अनुभव करें।
सहानुभूति संरचना का तीसरा स्तंभ कार्यस्थल है। कार्यस्थलों पर तनाव, प्रतिस्पर्धा, लक्ष्य-दबाव और असुरक्षा बढ़ रही है, जिसके चलते कर्मचारियों का मानसिक संतुलन प्रभावित होता है। यदि संस्थान संवेदनशील नीति अपनाएँ—कार्य अवधि में लचीलापन, परामर्श सेवाएँ, साथी-सहयोग कार्यक्रम, नेतृत्व प्रशिक्षण में सहानुभूति-आधारित व्यवहार—तो यह वातावरण को स्वस्थ बना सकता है। एक सहानुभूतिपूर्ण संस्थागत संस्कृति न केवल कर्मचारी के मनोबल को बढ़ाती है बल्कि उत्पादकता भी बढ़ाती है।
चौथा आयाम विद्यालयों में भावनात्मक शिक्षा का है। बच्चों में सहानुभूति, अहिंसक संवाद, भावनात्मक बुद्धिमत्ता और सहयोगात्मक गतिविधियों को प्राथमिकता देना आवश्यक है। यदि बच्चे अपनी भावनाएँ समझना, व्यक्त करना और दूसरों की भावनाओं को पहचानना सीखें, तो समाज भविष्य में अधिक संवेदनशील बनेगा। शैक्षणिक ढाँचा केवल परीक्षा-आधारित न रहकर जीवन-आधारित होना चाहिए।
पाँचवाँ पक्ष तकनीकी सहारा है। यदि तकनीक का उपयोग मानसिक-स्वास्थ्य और भावनात्मक सहयोग के लिए किया जाए—जैसे परामर्श ऐप, संकट में सहायता, छात्रों और युवाओं के लिए डिजिटल संवाद केंद्र—तो यह सहानुभूति संरचना को व्यापक बना सकता है। तकनीक का जिम्मेदार उपयोग सामाजिक संवेदनशीलता को बढ़ावा दे सकता है, बशर्ते उसकी निगरानी और नैतिकता मजबूत हो।
अंततः, राज्य के प्रशासनिक ढाँचे में भी सहानुभूति की आवश्यकता है। जब सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों, परिवहन, सुरक्षा और न्याय-प्रणाली में कार्यरत लोग नागरिकों के प्रति अधिक करुणामय व्यवहार अपनाएँ, तो नागरिक-राज्य संबंध और भी मजबूत होते हैं। जनता की समस्याओं को सुनना, सम्मान देना और समाधान में मानवीय दृष्टिकोण अपनाना किसी भी लोकतंत्र की मजबूती का आधार है।
इस प्रकार विश्व हैपीनेस रिपोर्ट में भारत की रैंकिंग उसे केवल नकारात्मक दृष्टिकोण से देखने के बजाय एक अवसर के रूप में समझा जाना चाहिए। यह अवसर भारतीय समाज को यह विचार करने का मार्ग देता है कि कैसे हम “सुख” को केवल व्यक्तिगत संतुष्टि के रूप में नहीं, बल्कि सामूहिक भावनात्मक सुरक्षा, सामाजिक भरोसा, संवेदनशील संवाद और मानसिक-स्वास्थ्य संरचना के रूप में विकसित कर सकते हैं। रिपोर्ट की पद्धति में चाहे जितनी सीमाएँ हों, यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि समाज किस दिशा में जाए। भारत यदि अपनी पारंपरिक सामुदायिक शक्ति को आधुनिक सामाजिक-कल्याण ढाँचे के साथ जोड़ दे, तो सहानुभूति-आधारित विकास की एक नई धारा स्थापित हो सकती है, जो वास्तविक सुख को और अधिक सुदृढ़ बनाएगी।
– डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालि
— स्थानीय मुद्रा निपटान प्रणाली और भारतीय रिज़र्व बैंक की नई पहलें
रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण भारत को आर्थिक स्वायत्तता, भुगतान सुरक्षा और रणनीतिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। इससे डॉलर पर निर्भरता घटती है, भुगतान बाधाएँ कम होती हैं और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव घटता है। निर्यातकों को विनिमय दर से जुड़े जोखिम कम होते हैं, जबकि व्यापारिक साझेदारों के लिए भी स्थानीय मुद्रा में निपटान अधिक सरल व स्थिर होता है। स्थानीय मुद्रा निपटान प्रणाली, त्वरित भुगतान तंत्र की वैश्विक पहुँच, तथा रुपये आधारित ऋण व्यवस्था जैसे कदम भारत को वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में अधिक प्रभावशाली भूमिका की ओर अग्रसर करते हैं।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
भारत आज उभरती वैशिक अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण केंद्र बन रहा है और इसी आकांक्षा के साथ वह अपनी मुद्रा—भारतीय रुपये—को अंतरराष्ट्रीय लेनदेन में अधिक स्वीकार्य बनाने की दिशा में गंभीर प्रयास कर रहा है। बदलते भू-राजनीतिक वातावरण, डॉलर-निर्भरता से जुड़ी अनिश्चितताओं तथा बहुध्रुवीय आर्थिक व्यवस्था के उभार ने यह अवसर प्रदान किया है कि भारत क्षेत्रीय और वैशिक व्यापार में रुपये के उपयोग को बढ़ाए। इसी संदर्भ में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा स्थानीय मुद्रा निपटान प्रणाली की शुरुआत और इसे अनेक देशों के साथ लागू करने की कोशिश रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत बनाने वाली निर्णायक पहल बनकर उभरी है।
रुपये के प्रसार के पीछे कई प्रेरक कारण हैं। सबसे प्रमुख कारण अमेरिकी डॉलर पर अत्यधिक निर्भरता को कम करना है, क्योंकि डॉलर आधारित भुगतान तंत्र अनेक बार राजनीतिक तनाव, प्रतिबंधों और वैशिक वित्तीय अस्थिरता के समय जोखिम पैदा करता है। रूस–यूक्रेन संघर्ष के बाद भारत ने अनुभव किया कि डॉलर आधारित तंत्र के कारण कई लेनदेन बाधित हो जाते हैं और व्यापार प्रभावित होता है। यदि व्यापार सीधे स्थानीय मुद्राओं में हो, तो भुगतान अधिक सुगम और सुरक्षित हो सकता है तथा विदेशी मुद्रा भंडार पर भी अनावश्यक दबाव नहीं पड़ता। साथ ही, कई देश अब अपने व्यापार में स्थानीय मुद्राओं के प्रयोग की ओर बढ़ रहे हैं, जिससे डॉलर-केंद्रित व्यवस्था धीरे-धीरे परिवर्तित हो रही है। भारत भी इस परिवर्तनशील प्रवृत्ति का स्वाभाविक हिस्सा है।
भारत की तीव्र आर्थिक वृद्धि और बढ़ते व्यापारिक संबंध भी रुपये-आधारित निपटान की आवश्यकता को बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए, भारत–रूस व्यापार पिछले दो दशकों में कई गुना बढ़ा है, परन्तु इस व्यापार में रुपये का उपयोग सीमित है। मुद्रा-आधारित विकल्प बढ़ने से न केवल व्यापार गति पकड़ता है बल्कि भारतीय निर्यातकों को विनिमय दर के उतार–चढ़ाव और हेजिंग लागत से भी राहत मिलती है। दीर्घकाल में वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य मुद्रा भारत की आर्थिक शक्ति और राजनीतिक प्रभाव का संकेत भी बनती है। भारत के 30 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था और 1 खरब डॉलर के निर्यात लक्ष्य की दिशा में यह एक अनिवार्य कदम माना जा रहा है।
हालाँकि, रुपये के वैश्वीकरण के मार्ग में कई चुनौतियाँ भी हैं। अनेक देशों को अभी भी डॉलर या अपनी स्थानीय मुद्रा अधिक स्थिर विकल्प लगती है। कुछ देशों को रुपये की विनिमय दर की स्थिरता पर भरोसा कम है। व्यापारिक साझेदारों के साथ मूल्य-वृद्धि आधारित वस्तुओं का आदान–प्रदान सीमित होने से भी रुपये के व्यापक प्रयोग की संभावना घटती है। भारतीय निर्यातकों में भी रुपये आधारित निपटान के प्रति जागरूकता कम है, जिसके कारण वे इस विकल्प का पूरा लाभ नहीं उठा पाते। अंतरराष्ट्रीय भुगतान और संदेश प्रणाली की सीमित परस्पर संपर्कता भी रुपये की स्वीकार्यता को धीमा करती है, क्योंकि अभी भी बड़ी संख्या में देश पारंपरिक वैश्वीकरण संदेश तंत्र पर निर्भर हैं।
इन चुनौतियों के बीच भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थानीय मुद्रा निपटान प्रणाली रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की दिशा में बड़ा बदलाव लेकर आई है। इस प्रणाली के अंतर्गत भारत अब संयुक्त रूप से सहमत देशों के साथ सीधे रुपये में व्यापार कर सकता है। संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया, मॉरीशस और मालदीव के साथ हुए समझौते इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। इससे न केवल दोनों देशों के बीच व्यापार सुगम होगा बल्कि बैंकिंग लागत और भुगतान समय में भी कमी आएगी। इसके अतिरिक्त भारतीय रिज़र्व बैंक ने पड़ोसी देशों के बैंक एवं नागरिकों को रुपये में ऋण देने की अनुमति देकर नेपाल, भूटान और श्रीलंका जैसे देशों में रुपये के उपयोग को बढ़ावा दिया है।
भारत ने अपने त्वरित भुगतान तंत्र को कई देशों से जोड़कर एक नई वित्तीय संपर्क व्यवस्था विकसित की है। संयुक्त अरब अमीरात के साथ त्वरित भुगतान तंत्र का जुड़ना छोटे व्यापारियों, पर्यटकों और प्रवासी भारतीयों के लिए तत्काल भुगतान को सरल बनाता है, जिससे रुपये की उपयोगिता और स्वीकार्यता दोनों बढ़ती हैं। इसके साथ ही भारत अपनी वित्तीय संदेश प्रणाली को भी साझेदार देशों की प्रणालियों से जोड़ने की दिशा में कार्य कर रहा है, जिससे परंपरागत वैश्विक संदेश तंत्र पर निर्भरता कम होगी। यह व्यवस्था भुगतान प्रक्रिया को राजनीतिक तनावों से सुरक्षित रखेगी और रुपये की विश्वसनीयता बढ़ाएगी।
समग्र रूप से रुपये का अंतरराष्ट्रीयकरण भारत की दीर्घकालिक रणनीतिक और आर्थिक आकांक्षा का आधार है। स्थानीय मुद्रा निपटान प्रणाली, डिजिटल भुगतान संपर्क, द्विपक्षीय वित्तीय संवाद और निर्यातकों की जागरूकता—ये सभी घटक मिलकर रुपये को वैश्विक व्यापार में अधिक उपयोगी और स्वीकृत मुद्रा बना सकते हैं। चुनौतियाँ अवश्य हैं, परंतु बदलते वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में भारत के पास अवसर भी विशाल है। यदि भारत अपने व्यापारिक साझेदारों के साथ आपूर्ति श्रृंखला को गहरा करे, भुगतान तंत्र को सरल बनाए और रुपये की स्थिरता को मजबूत करे, तो आने वाले वर्षों में रुपये की वैश्विक भूमिका निश्चित रूप से विस्तार पाएगी।