भारतीय सिनेमा में स्मिता पाटिल का नाम उन अभिनेत्रियों में लिया जाता है जिन्होंने अभिनय को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदनाओं और स्त्री अस्मिता की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। स्मिता पाटिल भारतीय समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) की सबसे प्रभावशाली हस्तियों में से एक थीं। उन्होंने बहुत कम समय में जो ऊँचाई हासिल की, वह आज भी अभिनेत्रियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर 1955 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। उनके पिता शिवाजी गणपतराव पाटिल एक प्रतिष्ठित राजनेता थे और माता विद्या पाटिल समाजसेवी। इस परिवेश ने स्मिता में बचपन से ही सामाजिक चेतना और संवेदनशीलता का भाव भरा। उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा ली और प्रारंभ में टेलीविजन समाचार वाचक के रूप में करियर की शुरुआत की।
फिल्मी करियर की शुरुआत
स्मिता पाटिल की फिल्मी यात्रा की शुरुआत श्याम बेनेगल की फिल्म चरम (1974) से हुई। बेनेगल जैसे निर्देशक के साथ काम करने से उन्हें “न्यू सिनेमा” या “आर्ट सिनेमा” आंदोलन का हिस्सा बनने का अवसर मिला। इसके बाद उन्होंने भूमिका (1977), मंथन (1976), निशांत (1975) और आक्रोश (1980) जैसी फिल्मों में अपने अभिनय से सबको प्रभावित किया।
समानांतर सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री
स्मिता पाटिल उन गिनी-चुनी अभिनेत्रियों में थीं जिन्होंने व्यावसायिक और समानांतर दोनों प्रकार के सिनेमा में सफलता पाई। समानांतर सिनेमा में उन्होंने महिलाओं की व्यथा, संघर्ष, और आत्मसम्मान को इतनी गहराई से दिखाया कि वे भारतीय स्त्री चेतना की प्रतीक बन गईं।
फिल्म भूमिका में उन्होंने एक ऐसी अभिनेत्री का किरदार निभाया जो अपने करियर और निजी जीवन के बीच जूझती रहती है। इस भूमिका के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मंथन में उन्होंने ग्रामीण भारत की एक सशक्त महिला की भूमिका निभाई, जो दूध आंदोलन में शामिल होती है। आक्रोश और अर्धसत्य में उन्होंने शहरी समाज की जटिलताओं और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली स्त्री के रूप में यादगार अभिनय किया।
व्यावसायिक फिल्मों में योगदान
स्मिता पाटिल ने केवल गंभीर फिल्मों तक अपने आप को सीमित नहीं रखा। उन्होंने व्यावसायिक सिनेमा में भी उल्लेखनीय भूमिकाएँ निभाईं। नमक हलाल, शक्ति, चक्र, आज की आवाज़ और दर्द का रिश्ता जैसी फिल्मों में उन्होंने यह सिद्ध किया कि वह किसी भी प्रकार के किरदार को सहजता से निभा सकती हैं। चक्र (1981) में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें दूसरी बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
अभिनय की विशेषताएँ
स्मिता पाटिल के अभिनय की सबसे बड़ी विशेषता थी — सहजता और गहराई। उनकी आँखों की अभिव्यक्ति में भावनाओं का पूरा संसार झलकता था। वह संवाद से अधिक अपनी मौन अभिव्यक्ति से दर्शकों पर प्रभाव डालती थीं। उनके अभिनय में नाटकीयता नहीं, बल्कि जीवन की सच्चाई दिखाई देती थी।
वे चरित्र में पूरी तरह समा जाती थीं — चाहे वह गाँव की साधारण स्त्री हो या शहर की आधुनिक महिला। उनके किरदारों में एक आत्मविश्वास और स्वाभिमान झलकता था। यही कारण है कि वे महिलाओं के अधिकारों और आत्मनिर्भरता की प्रतीक बन गईं।
निजी जीवन और असमय मृत्यु
स्मिता पाटिल का निजी जीवन भी चर्चा में रहा। अभिनेता राज बब्बर के साथ उनके संबंधों ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया। विवाह के बाद उन्होंने 1986 में बेटे प्रतीक बब्बर को जन्म दिया, लेकिन प्रसव के कुछ ही दिनों बाद 13 दिसंबर 1986 को मात्र 31 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। यह भारतीय सिनेमा के लिए एक गहरा आघात था।
विरासत और सम्मान
स्मिता पाटिल के निधन के बाद भी उनका योगदान अमर है। भारतीय सिनेमा में उनके नाम से स्मृति पुरस्कार दिए जाते हैं। कई फिल्म संस्थान आज भी उनके अभिनय को अध्ययन का विषय मानते हैं। उनके नाम पर महाराष्ट्र सरकार द्वारा “स्मिता पाटिल पुरस्कार” स्थापित किया गया, जो श्रेष्ठ महिला कलाकारों को दिया जाता है।
निष्कर्ष
स्मिता पाटिल का जीवन भले ही छोटा रहा, लेकिन उन्होंने अपने अभिनय से भारतीय सिनेमा को एक नई दिशा दी। उन्होंने दिखाया कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं, समाज के परिवर्तन का माध्यम भी हो सकता है। उनकी फिल्में आज भी सामाजिक यथार्थ का आईना हैं और नई पीढ़ी की अभिनेत्रियों को प्रेरित करती हैं।
भारत के पुनर्जागरण काल में जिन व्यक्तित्वों ने समाज में ज्ञान, शिक्षा और आधुनिकता की अलख जगाई, उनमें सर सैयद अहमद ख़ान का नाम अत्यंत आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने भारतीय मुसलमानों को अंधविश्वास, धार्मिक जड़ता और शैक्षणिक पिछड़ेपन से निकालकर आधुनिक शिक्षा की ओर अग्रसर किया। वे न केवल एक विद्वान थे बल्कि समाज सुधारक, शिक्षाविद्, इतिहासकार और विचारक भी थे। उनका सबसे बड़ा योगदान था — अलीगढ़ आंदोलन और मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना, जिसने आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) का रूप लिया।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
सर सैयद अहमद ख़ान का जन्म 17 अक्टूबर 1817 को दिल्ली में एक सम्मानित मुगल परिवार में हुआ। उनके पिता मिर्ज़ा मुहम्मद मुतक्की मुगल दरबार से जुड़े हुए थे और माँ अज़ीज़ुन्निसा बेगम धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। घर का वातावरण विद्वत्ता और संस्कृति से ओतप्रोत था। बचपन में ही सैयद अहमद ख़ान को अरबी, फारसी और इस्लामी शिक्षा दी गई। साथ ही उन्होंने गणित, तर्कशास्त्र और प्राकृतिक विज्ञान की भी शिक्षा प्राप्त की।
मुगल साम्राज्य के पतन और अंग्रेजी शासन की बढ़ती पकड़ के बीच उनका युवाकाल गुज़रा, जिसने उनके दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित किया।
नौकरी और प्रारंभिक योगदान
सर सैयद ने 1838 में ईस्ट इंडिया कंपनी की न्यायिक सेवा में नौकरी शुरू की और कई स्थानों पर सरेस्तेदार और सदर आमीन के रूप में कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने ब्रिटिश शासन की कार्यप्रणाली, प्रशासन और समाज का गहराई से अध्ययन किया। वे समझ गए कि अंग्रेज़ों की प्रगति का मूल कारण शिक्षा और विज्ञान है, जबकि भारतीय, विशेषकर मुसलमान, शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं।
उन्होंने अपनी सरकारी सेवाओं के दौरान कई किताबें लिखीं, जिनमें इतिहास, धर्म और समाज सुधार से संबंधित विषय शामिल थे। उनकी आरंभिक कृतियों में आसार-उस-सनादीद (दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों पर) विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
1857 का विद्रोह और दृष्टिकोण में परिवर्तन
1857 के स्वतंत्रता संग्राम ने सर सैयद के जीवन की दिशा बदल दी। उस समय वे बिजनौर में कार्यरत थे। उन्होंने देखा कि यह विद्रोह अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच एक गहरी खाई का कारण बन गया। अंग्रेज़ों ने मुसलमानों को विद्रोह का मुख्य दोषी ठहराया, जिससे उनकी स्थिति और बिगड़ गई।
सर सैयद ने इस स्थिति को सुधारने के लिए 1858 में “आसार-उस-सनादीद” के बाद “असबाब-ए-बगावत-ए-हिंद” नामक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने बड़े साहस के साथ कहा कि विद्रोह का कारण केवल भारतीयों की बगावत नहीं थी, बल्कि अंग्रेज़ प्रशासन की गलत नीतियाँ और जनता से दूरी भी इसके लिए जिम्मेदार थीं। इस पुस्तक ने अंग्रेज़ी शासन को भी सोचने पर मजबूर कर दिया और मुसलमानों में शिक्षा के प्रति नई सोच जागी।
शैक्षिक जागरण और अलीगढ़ आंदोलन
1857 के बाद सर सैयद ने यह निश्चय कर लिया कि मुसलमानों की उन्नति का एकमात्र रास्ता आधुनिक शिक्षा है। उन्होंने साइंटिफिक सोसाइटी ऑफ ग़ाज़ीपुर (1864) की स्थापना की, जहाँ अंग्रेज़ी वैज्ञानिक और सामाजिक पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया जाता था ताकि आम मुसलमान उन्हें पढ़ सकें।
बाद में उन्होंने अलीगढ़ आंदोलन की शुरुआत की — एक ऐसा सामाजिक और शैक्षिक आंदोलन जिसने भारतीय मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा, आधुनिक सोच और विज्ञान की ओर अग्रसर किया। 1875 में उन्होंने मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (MAO College) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था अंग्रेज़ी और आधुनिक शिक्षा को इस्लामी संस्कारों के साथ जोड़ना। यही कॉलेज आगे चलकर 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) बन गया।
शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण
सर सैयद का मानना था कि किसी भी समाज की उन्नति का आधार शिक्षा है। वे धार्मिक और आधुनिक दोनों प्रकार की शिक्षा को आवश्यक मानते थे। उनका प्रसिद्ध कथन था —
“Without education, a nation remains in darkness.” (“शिक्षा के बिना कोई भी कौम अंधकार में रहती है।”)
उन्होंने मुसलमानों को चेताया कि वे अंग्रेज़ों से घृणा न करें, बल्कि उनकी भाषा और विज्ञान सीखें ताकि वे प्रतिस्पर्धा में पीछे न रहें। उन्होंने कहा कि कुरान विज्ञान और तर्क के विरोध में नहीं है, बल्कि ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है।
धर्म और विज्ञान का संतुलन
सर सैयद इस्लाम के एक ऐसे व्याख्याकार थे जिन्होंने धर्म और आधुनिकता के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने कुरान की व्याख्या करते समय वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि “धर्म का उद्देश्य मानवता, नैतिकता और तर्क का पालन है।”
उनकी व्याख्या को कई कट्टरपंथी मौलवियों ने विरोध भी किया और उन्हें “काफ़िर” तक कहा गया, परंतु सर सैयद अपने विचारों पर अडिग रहे। उनका मानना था कि इस्लाम और विज्ञान में कोई विरोध नहीं है; दोनों का लक्ष्य सत्य की खोज है।
अलीगढ़ आंदोलन का प्रभाव
अलीगढ़ आंदोलन केवल एक शैक्षणिक सुधार आंदोलन नहीं था, बल्कि यह भारतीय मुसलमानों की सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक था। इस आंदोलन से प्रेरित होकर मुसलमानों ने पत्रकारिता, साहित्य, राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की। इस आंदोलन से निकले कई छात्र आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार के अग्रणी बने।
अलीगढ़ आंदोलन ने मुस्लिम राष्ट्रीयता की भावना को भी जन्म दिया, जिसने बाद में भारत-पाक विभाजन के राजनीतिक आधारों को प्रभावित किया। हालांकि सर सैयद का उद्देश्य विभाजन नहीं, बल्कि मुसलमानों का शैक्षिक और सामाजिक उत्थान था।
राजनीतिक विचारधारा
सर सैयद की राजनीति “वफादारी के बदले अधिकार” की नीति पर आधारित थी। वे ब्रिटिश शासन से टकराव के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि जब तक मुसलमान शिक्षित नहीं होंगे, वे शासन में भागीदारी के योग्य नहीं बन सकते। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का भी समर्थन किया, लेकिन समय के साथ वे यह समझने लगे कि दोनों समुदायों के सामाजिक और राजनीतिक हित अलग-अलग हैं।
उनका यह कथन प्रसिद्ध है —
“हिंदू और मुसलमान एक ही मिट्टी के दो फूल हैं, जो एक ही बाग़ में खिले हैं, लेकिन उनकी खुशबू अलग-अलग है।”
सम्मान और उपाधियाँ
ब्रिटिश सरकार ने सर सैयद अहमद खान की सेवाओं को देखते हुए उन्हें 1869 में “सर” की उपाधि और Knight Commander of the Star of India (KCSI) से सम्मानित किया। वे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य भी रहे। उन्होंने अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट नामक पत्रिका शुरू की, जिसमें समाज सुधार और शिक्षा से जुड़ी बातें प्रकाशित होती थीं।
अंतिम जीवन और निधन
अपने अंतिम वर्षों में सर सैयद ने अलीगढ़ में ही रहकर कॉलेज के विकास और विद्यार्थियों के मार्गदर्शन में जीवन व्यतीत किया। वे कमजोर मुसलमान समाज को आत्मनिर्भर, शिक्षित और आधुनिक बनाना चाहते थे। 27 मार्च 1898 को अलीगढ़ में 80 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर में ही दफ़नाया गया। आज भी उनका मकबरा अलीगढ़ की भूमि पर प्रेरणा का प्रतीक है।
निष्कर्ष
सर सैयद अहमद खान आधुनिक भारत के उन विरल व्यक्तित्वों में से हैं जिन्होंने परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सेतु का निर्माण किया। उन्होंने भारतीय मुसलमानों को आत्ममंथन, शिक्षा और तर्क की दिशा में अग्रसर किया।
उनकी सोच आज भी प्रासंगिक है — जब समाज धर्म, भाषा और जाति के नाम पर बँटता जा रहा है, तब सर सैयद का संदेश याद दिलाता है कि सच्ची प्रगति केवल शिक्षा, सहिष्णुता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही संभव है। वास्तव में, वे न केवल मुसलमानों के बल्कि पूरे भारतवर्ष के आधुनिकता के अग्रदूत थे।
17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद में एक बैठक हुई, जिसमें कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सिद्धांतों के आधार पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया गया। इसमें सात व्यक्ति उपस्थित थे; रॉय, अबानी मुखर्जी, आचार्य, मोहम्मद शफीक सिद्दीकी, मोहम्मद अली (अहमद हसन), एवलिन ट्रेंट-रॉय और रोजा फिटिंगोव।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दलों में से एक है । हालाँकि, भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर इस बात पर विवाद है कि पार्टी की स्थापना की तिथि क्या मानी जाए। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रारंभिक इतिहास उथल-पुथल भरा और जटिल था। 1920 में ताशकंद में एमएन रॉय के नेतृत्व में एक भारतीय कम्युनिस्ट समूह का उदय हुआ। 1921 के बाद से भारत के अंदर छोटे-छोटे स्थानीय कम्युनिस्ट समूह उभरने लगे। 1925 में कानपुर में एक राष्ट्रीय कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित किया गया । भारत के अंदर एक कम्युनिस्ट पार्टी संगठन बनाने के प्रयासों में पार्टी के प्रमुख सदस्यों की गिरफ़्तारियों और अदालती मुकदमों के कारण बाधाएँ आईं।
1964 में पार्टी विभाजन के बाद , भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की दो प्रमुख इकाइयाँ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीआई(एम)) और समकालीन सीपीआई, पार्टी के प्रारंभिक इतिहास की अलग-अलग व्याख्या करने लगीं। सीपीआई(एम) का कहना है कि पार्टी की स्थापना अक्टूबर 1920 में ताशकंद में हुई थी, जबकि सीपीआई का तर्क है कि पार्टी की स्थापना दिसंबर 1925 में कानपुर में हुई थी।
1917 की अक्टूबर क्रांति से पहले भारतीय राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन पर मार्क्सवाद का कुछ प्रभाव था । प्रवासी क्रांतिकारी लाला हरदयाल ने मार्च 1912 में कार्ल मार्क्स पर एक जीवनी लिखी । स्वदेशी मणि रामकृष्ण पिल्लई ने मलयालम भाषा में मार्क्स पर एक जीवनी लिखी । हालाँकि, ऐसा प्रतीत नहीं होता कि 1921 से पहले भारत में कोई संगठित कम्युनिस्ट गतिविधि मौजूद थी।
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत में उग्र राष्ट्रवादियों का एक वर्ग यह उम्मीद लगाए बैठा था कि युद्ध में ब्रिटिश की हार भारतीय स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करेगी। हालांकि, जब यूनाइटेड किंगडम विश्व युद्ध में विजयी शक्तियों में से एक के रूप में उभरा, तो इस वर्ग ने अपनी स्थिति को संशोधित किया कि स्वतंत्रता बाहरी सहायता से हासिल की जाएगी। उग्र राष्ट्रवादियों के बीच छिटपुट आतंकवाद की अस्वीकृति भी बढ़ गई थी। 7 मई 1919 को लेनिन और कई भारतीय क्रांतिकारियों के बीच एक बैठक हुई। उपस्थित लोगों में राजा महेंद्र प्रताप ( 1915 में काबुल में जर्मन समर्थन से स्थापित भारत की अनंतिम सरकार के अध्यक्ष ), मोहम्मद बरकतुल्लाह भोपाली (उक्त अनंतिम सरकार के प्रधान मंत्री), अब्दुल रब और एमपीटी आचार्य शामिल थे। आचार्य बाद में अक्टूबर 1920 में ताशकंद में प्रवासी कम्युनिस्ट संगठन के गठन में भाग लेंगे।
जनवरी और अप्रैल 1920 के बीच कुछ उग्र भारतीय राष्ट्रवादी सोवियत तुर्किस्तान के ताशकंद में स्थानांतरित हो गए । 17 अप्रैल 1920 को ताशकंद में सोविन्टरप्रॉप का एक भारतीय कम्युनिस्ट सेक्शन बनाया गया, जिसके सात सदस्यों में अब्दुल मजीद, अब्दुल फाज़िल, मोहम्मद शफीक और मोहम्मद अली थे (बाद के दो को भारत की अनंतिम सरकार द्वारा ताशकंद भेजा गया था)। भारतीय सोविन्टरप्रॉप सेक्शन ने ज़मींदार नामक एक एकल-अंकीय उर्दू प्रकाशन और बोल्शेविज़्म एंड द इस्लामिक नेशंस (एम. बरकतुल्लाह द्वारा लिखित) और व्हाट सोवियत पावर इज़ लाइक नामक पुस्तिकाएँ प्रकाशित कीं। इसने “भारतीय भाइयों के नाम ” शीर्षक से एक अपील जारी की।
एमएन रॉय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी विश्व कांग्रेस की शुरुआत से पहले मास्को पहुंचे , जो जुलाई-अगस्त 1920 में आयोजित की गई थी। उन्होंने कांग्रेस में मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए मतदान के अधिकार वाले प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया । अबानी मुखर्जी (कांग्रेस आयोजकों द्वारा ‘वामपंथी समाजवादी’ के रूप में वर्गीकृत, गैर-मतदान प्रतिनिधि), एवलिन ट्रेंट-रॉय (गैर-मतदान प्रतिनिधि, एमएन रॉय की पत्नी), एमपीटी आचार्य (ताशकंद में भारतीय क्रांतिकारी संघ का प्रतिनिधित्व, गैर-मतदान प्रतिनिधि) और मोहम्मद शफीक (पर्यवेक्षक) ने भी कांग्रेस में भाग लिया। कांग्रेस के दौरान रॉय और अन्य लोगों द्वारा भारतीय क्रांति के लिए सामान्य योजना और कार्य कार्यक्रम नामक एक दस्तावेज का मसौदा तैयार किया गया था।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस ने भारत की एक प्रवासी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की रूपरेखा तैयार की। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कार्यकारी समिति ( ईसीसीआई) ने एक छोटा ब्यूरो स्थापित किया जिसने सितंबर 1920 में बाकू में पूर्व के लोगों की पहली कांग्रेस का आयोजन किया और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की तैयारियों की देखरेख की।
17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद में एक बैठक हुई, जिसमें कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सिद्धांतों के आधार पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया गया। इसमें सात व्यक्ति उपस्थित थे; रॉय, अबानी मुखर्जी, आचार्य, मोहम्मद शफीक सिद्दीकी, मोहम्मद अली (अहमद हसन), एवलिन ट्रेंट-रॉय और रोजा फिटिंगोव। बैठक में यह संकल्प लिया गया कि पार्टी भारतीय संदर्भ में क्रांतिकारी संघर्ष के लिए एक कार्यक्रम तैयार करेगी। बैठक इंटरनेशनेल पर हस्ताक्षर के साथ समाप्त हुई । पार्टी ब्यूरो कुछ समय के लिए ताशकंद में रहा। पार्टी ने प्रचार और वैचारिक गतिविधियों का संचालन किया और भारत के अंदर कम्युनिस्ट समूहों के प्रयासों का समन्वय करने की कोशिश की। इंडिया हाउस में एक राजनीतिक स्कूल चल रहा था, 1920 के अंत तक मुखर्जी ने पार्टी कार्यक्रम का एक मसौदा साझा किया, लेकिन इस दस्तावेज़ को रॉय ने अस्वीकार कर दिया और इस प्रकार इसे अपनाया नहीं गया।
इंडिया हाउस में ‘मुहाजिरों’ का एक समूह रहता था। ‘मुहाजिर’ भारतीय मुसलमानों का एक समूह था जो खिलाफत की रक्षा के लिए लड़ने के लिए तुर्की पहुँचने का प्रयास कर रहा था, लेकिन रास्ते में उन्हें मध्य एशियाई विद्रोहियों ने बंदी बना लिया और काफिर करार दे दिया। जब लाल सेना ने मुहाजिरों को बचाया , तो उनमें से 36 बोल्शेविक सैन्य टुकड़ियों में शामिल हो गए। मुहाजिरों के लिए युवा बुखारन (जो ताशकंद में एक कम्युनिस्ट पार्टी बना रहे थे) एक उदाहरण के रूप में कार्य करते थे। सोवियत भूमि सुधारों ने मुहाजिरों के राजनीतिक विचारों को भी प्रभावित किया। रॉय ताशकंद के भारतीय सैन्य स्कूल में लगभग 50 मुहाजिरों का दाखिला कराने में सफल रहे, जिससे उन्हें भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष में भाग लेने के लिए तैयार किया गया। इंडिया हाउस में अखिल-इस्लामी मुहाजिर और रॉय का कम्युनिस्ट समूह एक साथ रहते थे। कम्युनिस्ट अक्सर राजनीतिक व्याख्यान देते थे, जिनमें वे ब्रिटिश शासन का सामना करने के लिए एक क्रांतिकारी जन आंदोलन बनाने पर ज़ोर देते थे (खासकर कम्युनिस्ट व्याख्यानों में धर्म पर सीधे हमले से परहेज़ किया जाता था)। इंडिया हाउस के मुहाजिर शौकत उस्मानी अंततः कम्युनिस्ट समूह में शामिल हो गए।
प्रवासी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 15 दिसंबर 1920 को ताशकंद में एक पार्टी बैठक आयोजित की। एक तीन-सदस्यीय कार्यकारी समिति चुनी गई, जिसमें आचार्य (अध्यक्ष), शफीक (सचिव) और रॉय शामिल थे। बैठक में तीन लोगों को पार्टी के उम्मीदवार सदस्य के रूप में शामिल किया गया – अब्दुल कादिर सेहराई, मसूद अली शाह काजी और अकबर शाह (सलीम)। पाँच दिन बाद पार्टी ने तुर्किस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के तुर्किस्तान ब्यूरो को एक संक्षिप्त संदेश भेजा, जिसमें पुष्टि की गई कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सिद्धांतों के अनुसार की गई है और पार्टी तुर्किस्तान ब्यूरो के राजनीतिक मार्गदर्शन में काम कर रही है।
1921 की शुरुआत में रॉय मास्को चले गए और अपने साथ तीन छात्रों (उस्मानी, अब्दुल मजीद, अब्दुल कादिर सेहराई) को आगे की राजनीतिक ट्रेनिंग के लिए ले गए। मुखर्जी को ताशकंद में पार्टी ब्यूरो का प्रभारी बना दिया गया। [ 9 ] मार्च 1921 में एंग्लो-सोवियत व्यापार समझौते के बाद , जिसने रूसी गृहयुद्ध को काफी हद तक समाप्त कर दिया, कुछ 36-40 मुहाजिरों ने आगे की ट्रेनिंग प्राप्त करने की इच्छा जताई और 1921 के मध्य तक उन्हें मास्को में कम्युनिस्ट यूनिवर्सिटी ऑफ द टॉयलर्स ऑफ द ईस्ट में स्थानांतरित कर दिया गया। कुछ मुहाजिरों ने सोवियत रूस से लौटना शुरू कर दिया, जैसे उस्मानी। उनमें से कई को पेशावर षडयंत्र मामले में ब्रिटिश अधिकारियों ने आरोपी बनाया और दोषी ठहराया।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने ईसीसीआई और तुर्केस्तान ब्यूरो के माध्यम से भारतीय क्रांतिकारियों के संगठनात्मक और राजनीतिक मुद्दों को हल करने की मांग की। 1921 की पहली छमाही में दो समूहों ने मास्को में प्रतिनिधिमंडल भेजे। प्रतिनिधिमंडलों में से एक ताशकंद स्थित भारतीय क्रांतिकारी संघ द्वारा भेजा गया था जिसका नेतृत्व अब्दुर रब बर्क कर रहे थे। सोवियत की राजधानी का दौरा करने वाला दूसरा समूह बर्लिन से आया था, और इसमें वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय , जीएके लोहानी , भूपेंद्रनाथ दत्ता , पांडुरंग सदाशिव खानखोजे , नलिनी गुप्ता और एग्नेस स्मेडली शामिल थे। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के पूर्वी आयोग और भारत आयोग ने रॉय, अब्दुल रब समूह और चट्टोपाध्याय समूह के नेतृत्व वाले ताशकंद प्रवासी सीपीआई का विलय करने की मांग की, लेकिन इन प्रयासों से कोई संगठनात्मक एकता हासिल नहीं हुई। जबकि चट्टोपाध्याय प्रतिनिधिमंडल के 14 सदस्यों में से अधिकांश ने अविश्वास में मास्को छोड़ दिया, दो व्यक्ति बने रहे (एक ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल मुख्यालय में काम किया जबकि दूसरी, नलिनी गुप्ता, रॉय की प्रमुख सहायक बन गईं)।
कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की तीसरी विश्व कांग्रेस से पहले ईसीसीआई के लघु ब्यूरो ने परामर्शदात्री वोट के साथ प्रतिनिधिमंडल भेजने के लिए आमंत्रित संगठनों की सूची में भारत के ‘कम्युनिस्ट समूहों’ को सूचीबद्ध किया। भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले चार प्रतिनिधियों ने कार्यवाही में भाग लिया, लेकिन कांग्रेस के दस्तावेजों में केवल रॉय का नाम था।
रॉय ने 36वीं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए अहमदाबाद, 1921 में घोषणापत्र लिखा । यह पाठ गुप्त रूप से भारत पहुँचा और दिसंबर 1921 में अहमदाबाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में वितरित किया गया।
राहुल गांधी कैसे नेता हैं ? जब तक चुनाव आयोग ने चुनाव की घोषणा नहीं की , राहुल गांधी बिहार में दर दर भटक रहे थे , तेजस्वी के साथ वोट चोरी वोट चोरी करते शहर शहर घूम रहे थे । जब कार्यक्रम की घोषणा होने वाली थी तब तेजस्वी के साथ बैठकर रणनीति बनाने के लिए की बजाय 15 दिनों के लिए चार देशों की विदेश यात्रा पर निकल लिए । वापस लौटने के बाद भी बिहार नहीं गए । तेजस्वी दिल्ली आए तो तेजस्वी को मिलने का समय नहीं दिया । बिहार जाने की बजाय चंडीगढ़ चले गए । चंडीगढ़ से शिमला निकल गए । शिमला से दिल्ली लौटे और आज यूपी के फतहपुर जाएंगे और वहीं से जुबिन गर्ग के घरवालों से मिलने असम चले जाएंगे ।
बिहार में आज पहले चरण के लिए नामांकन का आखिरी दिन है । कांग्रेस और राजद के बीच सीटों का बंटवारा अब तक नहीं हुआ । सीधा मतलब भाड़ में जाए चुनाव और गड्ढे में गिरे बिहार ? अपनी मस्ती में कोई खलल नहीं होनी चाहिए । एटम बम का तो कोई असर हुआ नहीं , हाइड्रोजन बम मिला नहीं , नाइट्रोजन बम और बम्बर्स पित्रोदा ने दिए नहीं । चुनाव आयोग की पीसी होते ही वोट चोरी नारा मटियामेट हो गया । देखा इंडी महागठबंधन का क्या हाल है ? किसी को पता ही नहीं कि सीट तालमेल कौन करेगा ? कब करेगा ? पहले चरण की वोटिंग के लिए केवल 20 दिन ही बाकी बचे हैं ।
दूसरी तरफ एनडीए को देखिए ? सीट बंटवारा हो चुका है , नामांकन पूरे हो गए । परसों दिल्ली की सीएम रेखा गुप्ता बिहार में तीन रेलियां कर आईं । कल बटोगे तो कटोगे का नारा लेकर योगी आदित्यनाथ ने बिहार में दो जनसभाएं की । अभी 18 जनसभाएं करेंगे । कल ही नीतीश कुमार ने भी दो रेलियां कर डाली । अमित शाह दो दिनों के लिए बिहार में हैं । उधर राहुल गाँधी ने अभी तक भी तेजस्वी को गठबंधन का चेहरा नहीं माना , जबकि एनडीए छह महीने पहले ही नीतीश कुमार को भावी मुख्यमंत्री घोषित कर चुके हैं । तो इंडी में यह क्या चल रहा है ?
लगता है कांग्रेस की नजर 13 अक्टूबर के न्यायालय निर्णय पर लगी थी । राउज एवेन्यू कोर्ट ने लालू , राबड़ी और तेजस्वी को भ्रष्टाचार के मामलों में धारा 120 बी और धारा 420 सहित 10 धाराओं में दोषी करार दिया है । तो क्या एक आरोपी को सीएम पद पर नहीं देखना चाहते राहुल जो बिहार तो टाटा बाय बाय कह दिया ? क्या कांग्रेस बैकफुट पर चली गई है । वैसे देश जानता है लालू खानदान ही क्या , सोनिया और राहुल भी तो जमानत पर ही चल रहे हैं ? जब राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद का ख्वाब पाले हुए हैं तो तेजस्वी ने मुख्यमंत्री का ख्वाब देख लिया तो गिला कैसा ? एक ही डाल के दो फूल हैं दोनों लड़के ?
(आभूषणों से ज़्यादा मन का सौंदर्य जरूरी, मन की गरीबी है सबसे बड़ी दरिद्रता।)
धनतेरस का अर्थ केवल ‘धन’ नहीं बल्कि ‘ध्यान’ भी है — ध्यान उस पर जो हमारे जीवन को सार्थक बनाता है। यह त्योहार हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि समृद्धि का असली अर्थ क्या है। अगर घर में प्रेम है, परिवार में एकता है, मन में शांति है, और समाज में करुणा है—तो यही सबसे बड़ा धन है। इसलिए इस धनतेरस पर केवल चाँदी की चमक नहीं, अपने मन की उजास बढ़ाइए। अपने भीतर के अंधकार को पहचानिए और प्रेम, संयम और सेवा का दीप जलाइए। यही होगी असली पूजा—जहाँ लक्ष्मी केवल तिजोरी में नहीं, व्यवहार में भी बसती है।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
धनतेरस का नाम लेते ही आंखों के सामने दीपों की उजास, सोने-चांदी की झिलमिलाहट, बाज़ारों का रौनकभरा शोर और पूजा की तैयारियों में जुटे घर-घर के दृश्य उभर आते हैं। यह दिन न केवल खरीदारी का त्योहार है, बल्कि भारतीय संस्कृति के गहरे दर्शन का प्रतीक भी है। यह वह दिन है जब लोग मानते हैं कि लक्ष्मी माता घर आएंगी, समृद्धि का आशीर्वाद देंगी, और दुर्भाग्य के अंधकार को मिटा देंगी। परंतु अगर हम इस पर्व के पीछे के दर्शन को गहराई से देखें, तो पाएंगे कि धनतेरस का अर्थ केवल सोना-चांदी खरीदना नहीं, बल्कि ‘धन’ की सही परिभाषा को समझना है।
‘धन’ शब्द संस्कृत के ‘धना’ से बना है, जिसका अर्थ केवल संपत्ति या पैसा नहीं बल्कि समृद्धि, सुख और संतोष का संगम है। प्राचीन ग्रंथों में धनतेरस को ‘धनत्रयोदशी’ कहा गया है — अर्थात धन और स्वास्थ्य दोनों की कामना का दिन। इसी दिन समुद्र मंथन से धनवंतरि देवता अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, जिन्होंने मानवता को स्वास्थ्य का वरदान दिया। यही कारण है कि इस दिन को आयुर्वेद दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। जब दुनिया धन को केवल भौतिक संपत्ति के रूप में देखती है, तब भारतीय दर्शन इसे शरीर, मन और आत्मा की समृद्धि के रूप में देखता है।
आज के समय में धनतेरस का रूप काफी बदल गया है। पहले जहां यह दिन दीप जलाने, घर साफ़ करने और देवी-देवताओं की पूजा का होता था, अब यह दिन शॉपिंग मॉल और ऑनलाइन सेल का प्रतीक बन गया है। धनतेरस आते ही लोग सोना, चांदी, कार, बाइक, फ्रिज, टीवी, मोबाइल—सब कुछ खरीदने की होड़ में लग जाते हैं। लेकिन क्या यही असली ‘धन’ है? क्या केवल महंगी वस्तुएं खरीदकर हम सच में समृद्ध हो जाते हैं? शायद नहीं। असली समृद्धि तो उस मन में है जो संतोष जानता है, उस घर में है जहाँ प्रेम की दीवारें मजबूत हैं, और उस समाज में है जहाँ सभी के पास रोटी, कपड़ा और सम्मान हो।
धनतेरस हमें यह भी सिखाता है कि धन का उपयोग कैसा हो। जब धन भगवान धनवंतरि से जुड़ा हुआ है, तो इसका अर्थ यह भी है कि धन स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा के लिए होना चाहिए, न कि दिखावे और व्यर्थ विलासिता के लिए। लेकिन आज की हकीकत यह है कि लोग धनतेरस पर नई चीज़ें खरीदने के लिए कर्ज़ तक ले लेते हैं। त्योहार खुशियों का होना चाहिए, पर वह तनाव और तुलना का माध्यम बन जाता है। सोशल मीडिया पर कौन कितना खरीद रहा है, किसने कौन-सी गाड़ी ली—यह तुलना हमें भीतर से खोखला कर देती है। असली पूजा तो तब है जब हम अपने जीवन में संतुलन और संयम को जगह दें।
एक समय था जब धनतेरस के अवसर पर लोग मिट्टी के दीप, तांबे या पीतल के बर्तन खरीदते थे। यह परंपरा केवल प्रतीकात्मक नहीं थी, बल्कि वैज्ञानिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। मिट्टी के दीप अंधकार मिटाने का प्रतीक हैं, और धातु के बर्तन स्वास्थ्य व सकारात्मक ऊर्जा का। लेकिन अब इन बर्तनों की जगह चमकदार चाइनीज़ लाइट्स और प्लास्टिक के सजावटी सामान ने ले ली है। पहले जहां घरों में ‘शुभ-लाभ’ लिखकर दीवारें सजी होती थीं, अब ‘डिस्काउंट’ और ‘कैशबैक’ के बोर्ड झिलमिला रहे हैं। यह बदलाव केवल बाहरी नहीं, बल्कि हमारे भीतर के मूल्यबोध में भी आया है।
धनतेरस का एक और गहरा संदेश है—‘धन’ और ‘धर्म’ के संतुलन का। यदि धन अधर्म के मार्ग से अर्जित किया गया है, तो वह कभी सुख नहीं दे सकता। महाभारत में कहा गया है—“धनं धर्मेण सञ्चयेत्” यानी धन को धर्म के मार्ग से अर्जित करो। आज जब समाज में भ्रष्टाचार, लालच और अनैतिक कमाई बढ़ रही है, तब धनतेरस हमें याद दिलाता है कि असली पूजा वह नहीं जो सोने के दीपक से हो, बल्कि वह है जो ईमानदारी और परिश्रम से कमाए धन से की जाए। इस दिन जब हम दीप जलाते हैं, तो वह केवल बाहर का अंधकार नहीं मिटाता, बल्कि भीतर के लालच, ईर्ष्या और मोह के अंधकार को भी दूर करने का संदेश देता है।
इस पर्व का एक आयुर्वेदिक और वैज्ञानिक पक्ष भी है। कार्तिक मास की त्रयोदशी के दिन मौसम बदलता है, सर्दी की शुरुआत होती है, और शरीर में रोगों की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे समय में भगवान धनवंतरि की पूजा करना इस बात का प्रतीक है कि हमें अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। धनतेरस का अर्थ केवल धन प्राप्ति नहीं, बल्कि दीर्घायु, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन की प्राप्ति भी है। जब शरीर स्वस्थ होगा, तभी जीवन में वास्तविक सुख और समृद्धि होगी।
अगर हम अपने पुरखों की जीवनशैली देखें, तो वे त्योहारों को केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं मानते थे, बल्कि सामाजिक समरसता और पर्यावरण संतुलन का अवसर भी समझते थे। धनतेरस के दिन घरों की सफाई का चलन केवल देवी लक्ष्मी के स्वागत के लिए नहीं, बल्कि स्वच्छता के प्रतीक के रूप में भी था। दीप जलाना केवल अंधकार हटाने के लिए नहीं, बल्कि प्रदूषण कम करने और वातावरण को पवित्र करने का एक उपाय भी था। लेकिन आज सफाई की जगह सजावट ने ले ली है, और पवित्रता की जगह दिखावे ने।
धनतेरस समाज में समानता का भी प्रतीक रहा है। पुराने समय में अमीर-गरीब सभी इस दिन अपने घरों में दीप जलाते थे। किसी के पास सोना-चांदी न हो तो वह मिट्टी का दीपक जलाकर भी अपनी श्रद्धा प्रकट करता था। आज यह भाव कम होता जा रहा है। त्योहार जो कभी सबको जोड़ता था, अब वर्गों में बाँट रहा है। मॉलों की चकाचौंध में झुग्गियों की अंधेरी रातें दब जाती हैं। यह सोचने की बात है कि अगर लक्ष्मी सच्चे मन से हर घर में आती हैं, तो इतने लोग भूखे क्यों हैं? इतने किसान कर्ज़ में क्यों मर रहे हैं? क्या हमने लक्ष्मी को केवल अमीरों की देवी बना दिया है?
धनतेरस का वास्तविक संदेश यही है कि हमें धन का सही उपयोग करना सीखना चाहिए। यह दिन हमें यह सोचने का अवसर देता है कि हमारा धन कितने लोगों के जीवन में रोशनी लाता है। अगर हम अपने धन से किसी गरीब की मदद करें, किसी बीमार के इलाज में सहयोग दें, किसी जरूरतमंद बच्चे की पढ़ाई में योगदान दें—तो वही असली धनतेरस होगी। लक्ष्मी तभी स्थायी होती हैं जब उनका उपयोग दूसरों की भलाई में होता है। वरना वह केवल कुछ समय की झिलमिलाहट बनकर रह जाती हैं।
आज के युग में जब हम डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन शॉपिंग और कृत्रिम रोशनी के बीच धनतेरस मना रहे हैं, तब यह और भी ज़रूरी है कि हम इस पर्व की आत्मा को पहचानें। यह पर्व हमें अपने घर के साथ-साथ अपने मन का भी ‘क्लीनिंग डे’ बनाने का अवसर देता है। अपने भीतर के लोभ, ईर्ष्या, स्वार्थ और दिखावे की धूल झाड़कर अगर हम मन में करुणा, ईमानदारी और प्रेम के दीप जला सकें, तो वही सच्चा धनतेरस होगा।
धनतेरस केवल एक दिन नहीं, एक दृष्टिकोण है—जीवन को संतुलित, स्वास्थ्यपूर्ण और अर्थपूर्ण बनाने का दृष्टिकोण। यह हमें सिखाता है कि धन का मूल्य उसकी मात्रा में नहीं, बल्कि उसके प्रयोग में है। अगर हम धन को साधन बनाएँ, साध्य नहीं, तो वह जीवन में सौंदर्य और संतोष दोनों लाता है। लेकिन अगर वही धन हमें दूसरों से श्रेष्ठ दिखने की दौड़ में ले जाए, तो वह वरदान नहीं, अभिशाप बन जाता है।
आज के समय में शायद सबसे बड़ा ‘धन’ यह है कि हम अपनी मानसिक शांति को बचा पाएँ। परिवार के साथ बैठकर मुस्कुरा सकें, कुछ समय अपनों को दे सकें, बुजुर्गों के चरण छूकर आशीर्वाद ले सकें—यह भी धनतेरस का ही भाव है। क्योंकि जो घर प्रेम और सम्मान से भरा हो, वहाँ लक्ष्मी अपने आप आ जाती हैं।
त्योहारों की असली चमक सोने या चांदी की नहीं होती, वह मन की निर्मलता में होती है। दीपों की रोशनी बाहर तभी फैलेगी जब भीतर के दीप प्रज्वलित हों। इसलिए इस धनतेरस पर अगर आप कुछ खरीदना ही चाहें, तो अपने लिए संयम, करुणा और संतोष खरीदिए। यह वे अमूल्य वस्तुएं हैं जो कभी पुरानी नहीं पड़तीं, कभी चोरी नहीं होतीं, और जीवनभर समृद्धि देती हैं।
धनतेरस का यह पर्व हमें हर वर्ष यह याद दिलाता है कि समृद्धि केवल धनवान बनने में नहीं, बल्कि मनवान बनने में है। जब हम अपने कर्मों से दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाते हैं, जब हम अपनी कमाई से किसी का अंधकार मिटाते हैं—तभी सच्चे अर्थों में ‘धनतेरस’ होती है। इसलिए दीप जलाइए, पर साथ ही किसी और के जीवन में भी उम्मीद का दीप जलाइए। यही इस पर्व का सबसे सुंदर संदेश है।
– डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
दीवाली के मौके पर हर साल पटाखे छोड़कर खुशी का इजहार किया जाता है, लेकिन दीवाली पर दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की सांसों पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं। वायु प्रदूषण बढ़ने से सांस लेना दूभर हो जाता है। सामान्य पटाखे कितनी खतरनाक और हानिकारक हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मुल्क की सबसे बड़ी अदालत को पटाखे फोड़ने का समय और तारीखें निर्धारित करने का आदेश देने पर मजबूर होना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की पीठ ने दिल्ली और एनसीआर में 18 से 20 अक्तूबर के बीच ग्रीन पटाखों की बिक्री केवल उन निर्धारित स्थानों से करने की अनुमति दी है, जिनकी पहचान जिलाधिकारी के माध्यम से की गई है। पटाखों को दीवाली से एक दिन पहले और दीवाली वाले दिन सुबह छह से सात बजे और रात में आठ से 10 बजे तक फोड़ने की इजाज़त है। अदालत के फैसले का व्यापक प्रचार-प्रसार करने के अलावा पुलिस प्रशासन, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों के साथ बिक्री वाले स्थलों पर निगरानी के लिए गश्ती दल का गठन करेगा। दल की जिम्मेदारी केवल क्यूआर कोड वाले उत्पाद की बिक्री सुनिश्चित कराने की है। पीठ के निर्णय के मुताबिक प्रतिबंधित उत्पादों के निर्माण या बिक्री में शामिल लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। उल्लंघन करने वाले उत्पादकों के लाइसेंस रद्द किए जाएंगे। ई-कॉमर्स वेबसाइटों से पटाखों की बिक्री नहीं की जाएगी। पटाखे बेचने की इजाज़त सिर्फ राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (नीरी) से पंजीकृत लाइसेंस प्राप्त विक्रेता को ही है। गैर पंजीकृत निर्माताओं के बने पटाखों को जब्त किया जाएगा। बाहर से लाए पटाखे दिल्ली व एनसीआर में नहीं बेचे जाएंगे। गश्ती दल पटाखा निर्माताओं की नियमित जांच करेंगे तथा उनके क्यूआर कोड वेबसाइटों पर अपलोड किए जाएंगे। बेरियम वाले और नीरी द्वारा अस्वीकृत पटाखें के उपयोग की अनुमति नहीं होगी। लड़ियों और सीरीज पटाखों का निर्माण और बिक्री नहीं की जाएगी। सवाल यह है कि जब पटाखों का इस्तेमाल खुशी की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है, तो फिर हर साल दिल्ली और एनसीआर में इनके उपयोग पर प्रतिबंध लगाने की नौबत क्यों आती है? क्या सामान्य पटाखें के स्थान पर हरित पटाखों के इस्तेमाल से गंभीर वतावरण की समस्या का समाधान मुमकिन है? दरअसल, पटाखों में पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्युमीनियम, मैग्नीशियम और चारकोल जैसे बारूद बनाने वाले रासायनिक तत्व शामिल किए जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। रंगों के लिए अन्य रासायनिक पदार्थों का प्रयोग किया जाता है। हरे रंग के लिए बेरियम क्लोराइड, लाल रंग के लिए स्ट्रोंटियम कार्बोनेट, नीले रंग के लिए कॉपर क्लोराइड, पीले रंग के लिए सोडियम नाइट्रेट, नारंगी रंग के लिए स्ट्रोंटियम व सोडियम का मिश्रण और चांदी जैसे सफेद रंग के लिए टाइटेनियम, जिरकोनियम और मैग्नीशियम का मिश्रण प्रयोग में लाया जाता है। पटाखे फूटने व जलने के बाद इनमें से सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, कार्बन मोनॉक्साइड जैसी हानिकारक गैसों के अलावा हेवी मेटल्स सल्फर, लेड, क्रोमियम, कोबाल्ट, मरकरी मैग्नीशियम भी निकलते हैं। ये सभी हवा में घुलकर आंखों में जलन, सांस लेने में तकलीफ और बीमारी का कारण बनते हैं। पोटेशियम नाइट्रेट, एल्युमीनियम पावडर और सल्फर मिक्सचर के कारण पटाखों में तेज आवाज पैदा होती है। 2023 में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बेरियम वाले पटाखों को रोकने संबंधी आदेश सिर्फ दिल्ली और एनसीआर तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि हर राज्य में लागू करने के लिए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में पारंपरिक पटाखों पर प्रतिबंध लगाते हुए केवल हरित पटाखों के उपयोग की अनुमति प्रदान की थी। सवाल यह भी है कि क्या ग्रीन क्रेकर्स से प्रदूषण नहीं होगा? हरित पटाखों में जिओलाइट और आयरन ऑक्साइड का इस्तेमाल किया जाता है। ये पदार्थ कम रसायन का उपयोग करने के कारण पर्यावरण के लिए कम हानिकारक होते हैं। ये पटाखे पूरी तरह प्रदूषणमुक्त और हानिरहित नहीं होते, बल्कि सामान्य पटाखों की की अपेक्षा 30 प्रतिशत कम वायु प्रदूषण या पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) फैलाते हैं। पीएम हवा में पाए जाने वाले छोट-छोटे कण होते हैं, जिन्हें उनके आकार के हिसाब से पीएम-10, पीएम-2.5, पीएम-1 और अल्ट्रा-फाइन पार्टिकुलेट मैटर में विभाजित किया जाता है। ये छोटे कण शरीर में गहराई तक पहुंचकर स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। ग्रीन पटाखे सेफ वाटर एंड एयर रिलीजर, सेफ मिनीमल एल्युमीनियम और सेफ थर्माइट क्रेकर तीन प्रकार के होते हैं। पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाने को ध्यान में रखते हुए इनमें रसायन मिलाया जाता है। ये पटाखे धूल को सोखने वाली पानी की बूंदें छोड़ते हैं और कम धुआं पैदा करते हैं। दीवाली, दशहरा, शब-ए-बरात और शादी-विवाह के मौकों पर पटाखे फोड़ने का रिवाज सदियों से चला आ रहा है। ग्रीन पटाखों तक सीमित रहना आसान नहीं है। वातावरण को प्रदूषणमुक्त बनाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार को सौंपकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। स्वस्थ समाज का निर्माण करने के लिए हर व्यक्ति को जागरूक होने की जरूरत है, ताकि त्योहार का उल्लास बना रहे और वायु एवं घ्वनि प्रदूषण के खतरों से भी बचा जा सके।
हर साल की भांति आज भी यानि 17 अक्टूबर को हम अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस मनाने जा रहे है। इस बीच कई बार गरीब की परिभाषा बदली मगर गरीबी उन्मूलन को पूरी तरह अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। इसके विपरीत भारत ने 80 करोड़ से अधिक की अपनी आबादी को मुफ्त अनाज सहायता और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराकर अपनी सरकार का मंतव्य जाहिर कर दिया। साथ ही 25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकालने का दावा कर दिया। साल दर साल दी जा रही यह खाद्य सहायता कब तक जारी रहेगी, कोई बताने वाला नहीं है। संयुक्त राष्ट्र ने भी गरीबी घटने के भारत के इस दावे को स्वीकार कर लिया। विख्यात कृषि अर्थशास्त्री डॉ. गुलाटी की माने तो, जब देश में अत्यधिक गरीबी सिर्फ 5 प्रतिशत है तो 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन क्यों दिया जा रहा है? क्या वे अपना भोजन खरीदने में सक्षम नहीं हैं। दावों प्रतिदावों के बीच गरीबी के खिलाफ संघर्ष आज भी जारी है। विचारणीय बात तो यह है मुफ्त अनाज का यह मायाजाल कब तक जारी रहेगा और आखिर यह गरीबी कब ख़त्म होगी। पैसा फेंक तमाशा देख के इस चक्रव्यूह से आज़ादी कब मिलेगी।
संयुक्त राष्ट्र की गरीबी के खिलाफ संघर्ष की विभिन्न रिपोर्टों का गहन अधय्यन करें तो पाएंगे आज भी दुनियाभर में लोग रोटी कपड़ा और मकान के लिए जूझ रहे है। इस दिन का उद्देश्य दुनिया भर में विशेष रूप से विकासशील देशों में गरीबी और गरीबी उन्मूलन की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। संयुक्त राष्ट्र ने अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस को मनाने की पहल 22 दिसम्बर 1992 को की थी। यह लोगों के दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं को उजागर करने और उन्हें आवश्यक सहायता प्रदान करने का एक वैश्विक मंच है। यह दिन गरीबी के खिलाफ लड़ाई में सहयोग, मानवाधिकार और सामाजिक न्याय के महत्व को उजागर करता है।
दुनिया भर में गरीबी की स्थिति आज भी बेहद चिंताजनक है। विश्व बैंक के मुताबिक लगभग 700 मिलियन लोग आज भी अत्यधिक गरीबी में जीवनयापन कर रहे हैं। रिपोर्ट से साफ़ होता है, दुनिया की एक बड़ी आबादी आज भी बुनियादी आवश्यकताओं, जैसे भोजन, स्वच्छ पानी, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा तक पहुंच नहीं पाई है। हमारे देश की बात करें तो आजादी के 78 सालों के बाद भारत में गरीब और गरीबी पर लगातार अध्ययन और खुलासा हो रहा है। भारत की गरीबी आज भी आंकड़ों के भ्रम जाल में उलझी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुताबिक पिछले 10 सालों में 25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में सरकार सफल रही है। वहीं 16 करोड़ घरों में नल का पानी पहुंचाया है और गरीब परिवारों के लिए 5 करोड़ घर बनाए हैं। इसके अलावा 12 करोड़ से अधिक शौचालय उपलब्ध कराए हैं, जिन्हें इन सुविधाओं की कमी के कारण सबसे अधिक परेशानी उठानी पड़ती थी।
विश्व बैंक ने इस वर्ष जारी रिपोर्ट में अपनी गरीबी रेखा की सीमा को संशोधित करते हुए इसे 2.15 डॉलर प्रतिदिन से बढ़ाकर 3 डॉलर प्रतिदिन कर दिया है। इस नए मानक के अनुसार, भारत में अत्यधिक गरीबी की दर में उल्लेखनीय कमी देखी गई है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2011-12 में 27.1 प्रतिशत की अत्यधिक गरीबी दर 2022-23 में घटकर मात्र 5.3 प्रतिशत रह गई है। इसका अर्थ है कि अत्यधिक गरीबी में रहने वाली जनसंख्या 344.47 मिलियन से घटकर 75.24 मिलियन हो गई है।
भारत सरकार ने हर प्रकार की गरीबी को कम करने के लक्ष्य के साथ लोगों के जीवन को बेहतर बनाने में उल्लेखनीय प्रगति की है। पोषण अभियान और एनीमिया मुक्त भारत जैसी उल्लेखनीय पहलों ने स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच में उल्लेखनीय वृद्धि की है, जिससे वंचित रहने में काफी कमी आई है। दुनिया के सबसे बड़े खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों में से एक का संचालन करते हुए, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली 81.35 करोड़ लाभार्थियों को कवर करती है, जो ग्रामीण और शहरी आबादी को खाद्यान्न प्रदान करती है। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत मुफ्त खाद्यान्न वितरण को अगले पांच वर्षों के लिए बढ़ाना, सरकार की प्रतिबद्धता का उदाहरण है। मातृ स्वास्थ्य का समाधान करने वाले विभिन्न कार्यक्रम, उज्ज्वला योजना के माध्यम से स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन वितरण, सौभाग्य के माध्यम से बिजली कवरेज में सुधार, और स्वच्छ भारत मिशन और जल जीवन मिशन जैसे परिवर्तनकारी अभियानों ने सामूहिक रूप से लोगों की रहने की स्थिति और समग्र कल्याण की स्थिति में सुधार किया है। इसके अतिरिक्त, प्रधानमंत्री जन धन योजना और पीएम आवास योजना जैसे प्रमुख कार्यक्रमों ने वित्तीय समावेशन और वंचितों के लिए सुरक्षित आवास प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे बुनियादी सेवाओं तक पहुंच में आने वाली मूलभूत समस्याओं का तेजी से समाधान हो रहा है ताकि देश एक विकसित राष्ट्र यानी विकसित भारत @2047 बनने की ओर अग्रसर हो सके। सरकारी स्तर पर यदि ईमानदारी से प्रयास किये जाये और जन धन का दुरूपयोग नहीं हो तो भारत शीघ्र गरीबी के अभिशाप से मुक्त हो सकता है।
एक उभरती या फिर यह कहें कि उभर चुकी गायिका का मात्र 25 वर्ष की उम्र में अचानक राजनीति में आना और आते ही चुनाव लड़ना अटपटा लग रहा है।मैथिली बेहद प्रतिभाशाली लोकगायिका हैं। वे बचपन से गा रहीं हैं अभी बहुत लम्बा कैरियर सामने है।सच कहें तो भजन और लोक गायकी में जो मुकाम शारदा सिन्हा और मालिनी अवस्थी ने हासिल किया है , मैथिली भी उसी ओर बढ़ रही हैं। अविवाहित और बच्ची सी दिखती मैथिली की आवाज का बिहार ही नहीं पूरा देश दीवाना है।पूरी दुनिया से जुड़ने की सामर्थ्यवान मैथिली एक पार्टी में सिमटकर क्या हासिल करेंगी , वे जानें।चुनाव तो जीत जाएंगी लेकिन कितना आगे बढ़ पाएंगी कहना मुश्किल है
इसे में याद आती हैं मशहूर और विश्वविख्यात पंडवानी गायिका तीजन बाई। लोकगायन में भूपेन हजारिका और नरेन्द्र सिंह नेगी ने बड़ा नाम कमाया।वैसे गायन , लोक गायन , शास्त्रीय गायन , सुगम गायन और फिल्म संगीत के क्षेत्र में असंख्य नाम हैं जिन्होंने देश विदेश में बेहद ऊंचे मकाम हासिल किए।वाद्य यंत्रों के क्षेत्र में भी कईं बड़े बड़े नाम हैं।उन सभी स्वनामधन्य महापुरुषों की बाबत सभी जानते हैं।राजनीति बड़ी छलिया है। इसने खिलाड़ियों , फिल्मों , न्याय पालिकाओं , ब्यूरोक्रेसी , नौकरी पेशाओं , संतई आदि क्षेत्रों की बहुत से प्रतिभाओं को विचलित किया है।क्या करें राजनीति में ग्लैमर ही इस कदर है।।कौन कौन रहे नाम बताने की जरूरत नहीं सब जानते हैं।कल भी थे ,आज भी हैं और कल भी रहेंगे।हमने कहा न कि राजनीति बड़ी छलिया है , अपने इशारों पर नचाती भी है , रुलाती भी है , खिलाती भी है।
राजनीति को इस्तेमाल करना आता है , खूब आता है।कोई आम आदमी हो या कलाकार , राजनीति के रंग हजार।तो क्या हुआ जो मैथिली चली गईं।जो जनता उन्हें सुनती है , फर्श से अर्श पर पहुंचाती है , उसी की सेवा का अवसर मिले तो अच्छा है।
राजनीति भी एक कशिश है साहब , जब चुनावी ढोल बजते हैं , दिल मचल ही जाता है और फिर वर्तमान राजनीति में भी जब हेमामालिनी , कंगना , जया , रेखा आदि ने दखल दी तो सभी का दिल मचल ही जाता है।ये तो फिर भी बिहार से एक छोटी उम्र की गायिका हैं।अब मैथिली ठाकुर चुनावी फेज में राजनीति में आई तो राजनीति तो उन्हें भुनाएगी ही
तो गाए जाओ , सुनाए जाओ मैथिली। बस इतना याद रखना कि बड़ी कठिन है डगर पनघट की …
मावे को देखो। कंचन काया। बुलडोजर आया। ले गया पकड़ कर। दबा दिया जमीन में। बात कुछ जमी नहीं। मावे का दाह संस्कार क्यों नहीं किया? अवसर तो देखते। मावा क्यों बना? किसके लिए बना? अवसर क्या है?
अपनी देह पर रसगुल्ला भी बहुत इतराता है। वो भी पकड़ा गया। दोनों को नकली साबित किया गया। दोनों क्या सफाई देते। रसगुल्ला स्पंज था। टूट गया। बिखर गया। उसका रस आंसुओं में ढल गया।
आजकल एक टीम वार्षिकोत्सव मना रही है। यह हर साल इसी अवसर पर आती है। यह सीजन मच्छरों और डेंगू का होता है। चुनाव भी इसी समय होते हैं। गुलाबी ठंड शुरू हो जाती है। सब अपने दीप में उलझे रहते हैं। जलाएं तो कैसे जलाएं? घी से जलाएं? या तेल से जलाएं?
मावे ने तय किया, वह अब नहीं बनेगा। रसगुल्ला भी हताश था। दोनों ने हड़ताल कर दी। हमारे भी बुनियादी हक हैं। हम खाने के लिए बने हैं। जमीन में दबने के लिए नहीं। अपने देश में अजूबे की कमी नहीं। टीम फट से सूंघ लेती है, कहां मावा नकली है? कहां रसगुल्ले घटिया? कायदे में, दिवाली आते ही मावा और रसगुल्ले सही जगह पहुंचा देना चाहिए। साहब खा कर देख लें। कोई कमी हो तो बता दें। व्यापारी है। दुकान चलानी है। वह सब इंतजाम करा देगा।
कुछ विभाग पारलौकिक हैं। बिजली कनेक्शन दिवाली पर कटते हैं। अवैध निर्माण दिवाली पर ध्वस्त होते हैं। दवाइयों के नमूने लेने का यह उचित अवसर है। खायेंगे। बीमार पड़ेंगे। दवाई की जरूरत पड़ेगी। जब रोशनी चाहोगे। बिजली कटेगी। तभी दीपक जलेंगे। दिवाली होगी। इसी बात के पैसे हैं।
अमावस्या इनकी डायरी में नोट होती है। हर अमावस्या पर ये नहीं निकलते। त्यौहार आए नहीं..इनका मिशन शुरू। ये पटा कर खाते हैं। यानी पटाखे पकड़ते हैं। ये मियां, हरफन मौला हैं। इनकी उंगलियां मावे में धंसी हुई हैं। अपने हलके के ये होनहार हैं। मावे या रसगुल्ले की क्या औकात..जो इनसे भिड़ जाए। दुनिया कमजोर को दबाती है। आपकी सेहत न बिगड़े, इसका हिसाब रखती है।
हर वर्ष अक्टूबर–नवंबर के महीनों में पंजाब और हरियाणा के खेतों से उठने वाला धुआँ दिल्ली सहित पूरे उत्तर भारत की साँसें रोक देता है। पराली जलाना किसानों की विवशता और नीतिनिर्माताओं की विफलता दोनों का परिणाम है। जब तक किसान के हित, कृषि की आवश्यकताएँ और पर्यावरण संरक्षण को एक साथ जोड़कर देखा नहीं जाएगा, तब तक न तो प्रदूषण घटेगा और न ही ग्रामीण भारत को स्थायी आजीविका का मार्ग मिलेगा।
— डॉ प्रियंका सौरभ
हर वर्ष जब धान की कटाई का मौसम आता है, तब पंजाब और हरियाणा के खेतों से उठने वाला धुआँ आसमान को धुंध से भर देता है। यह केवल खेतों की आग नहीं होती, बल्कि भारत की कृषि नीति, आर्थिक असमानता और पर्यावरणीय असंतुलन की जलती हुई तस्वीर होती है। दिल्ली तथा उसके आस-पास के क्षेत्र इस धुएँ से ढक जाते हैं और वायु गुणवत्ता अत्यंत गंभीर स्तर तक पहुँच जाती है।
कानूनी रूप से पराली जलाना प्रतिबंधित है, फिर भी किसान इसे हर साल दोहराते हैं क्योंकि इसके पीछे अनेक सामाजिक और आर्थिक कारण जुड़े हैं।
पराली जलाने का मूल कारण खेतों में बचा हुआ धान का ठूँठ होता है। जब धान की फसल कट जाती है, तब खेत में रह गए अवशेष को हटाने के लिए किसानों के पास न समय होता है न साधन। पंजाब और हरियाणा की कृषि व्यवस्था मुख्य रूप से धान और गेहूँ पर आधारित है। सन् 1960 के दशक की हरित क्रांति ने इन राज्यों को देश का अन्न भंडार तो बना दिया, परंतु कृषि को एकरूपी और जल–प्रधान भी बना दिया। भूजल के अत्यधिक दोहन को रोकने के लिए सन् 2009 में पंजाब में “उप–जल संरक्षण अधिनियम” लागू किया गया, जिसके अंतर्गत धान की रोपाई जून के अंत तक करने का निर्देश दिया गया ताकि मानसूनी वर्षा का लाभ लिया जा सके।
परिणामस्वरूप धान कटाई और गेहूँ की बुवाई के बीच केवल दस से बीस दिन का अंतर रह गया। इतने कम समय में किसान पराली को एकत्रित या सड़ाकर खेत तैयार नहीं कर सकते, इसलिए वे सबसे तेज़ और सस्ता उपाय—जलाना—चुन लेते हैं।
दूसरा बड़ा कारण आर्थिक है। पराली हटाने या निपटाने के लिए जो मशीनें चाहिए—जैसे सुपर स्ट्रॉ प्रबंधन प्रणाली, हैप्पी सीडर, बेलर या रोटावेटर—वे अत्यंत महँगी हैं। छोटे और सीमांत किसान जिनकी जोत तीन हेक्टेयर से भी कम है, वे इन मशीनों को खरीदने या किराए पर लेने में असमर्थ हैं। उदाहरण के लिए, हैप्पी सीडर का किराया लगभग दो से तीन हज़ार रुपये प्रति एकड़ पड़ता है, जबकि पराली जलाने में केवल माचिस और थोड़े डीज़ल का खर्च आता है। यही व्यावहारिकता इस समस्या को गहराई तक जकड़े हुए है।
तीसरा कारण पराली का कम उपयोग मूल्य है। पंजाब और हरियाणा में बोई जाने वाली अधिकतर धान की किस्में साधारण होती हैं, जिनमें सिलिका की मात्रा अधिक होती है। ऐसी पराली पशु चारे के रूप में प्रयोग योग्य नहीं होती और न ही इससे जैव ईंधन या खाद आसानी से बनाई जा सकती है। पूर्वी भारत के राज्यों में धान की पराली पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग में आती है, परंतु पंजाब–हरियाणा में यह उपयोग सीमित है। इसीलिए यहाँ पराली किसानों के लिए किसी आर्थिक लाभ का साधन नहीं बन पाती।
चौथा कारण है श्रम की कमी और जोत का विखंडन। प्रवासी मजदूरों की संख्या घट रही है, और छोटे खेतों में मशीनरी लगाने की क्षमता नहीं है। समय की कमी और श्रमिकों के अभाव में किसान अगली फसल बोने की जल्दी में पराली को जला देते हैं।
सामाजिक दृष्टि से भी पराली जलाना वर्षों से एक स्वीकृत प्रक्रिया बन चुकी है। किसानों को यह लगता है कि खेत की सफाई का यही सबसे आसान और पारंपरिक तरीका है। कानूनों और जुर्मानों के बावजूद यह प्रथा इसलिए जारी है क्योंकि प्रवर्तन ढीला है और राजनीतिक दबावों के कारण प्रशासन कठोर कार्रवाई नहीं कर पाता। वर्ष 2023 में पंजाब में लगभग साठ हज़ार पराली जलाने की घटनाएँ दर्ज की गईं, जबकि जुर्माना और निगरानी दोनों व्यवस्था में थे।
अब प्रश्न यह है कि इस समस्या का स्थायी समाधान क्या हो सकता है?
स्पष्ट है कि केवल प्रतिबंध या दंड इस समस्या को समाप्त नहीं कर सकते। आवश्यक है कि ऐसी रणनीति अपनाई जाए जो किसान की आजीविका और पर्यावरण संरक्षण दोनों को साथ लेकर चले।
पहला समाधान है फसल विविधीकरण। पंजाब और हरियाणा की भूमि लगातार धान–गेहूँ चक्र से थक चुकी है। जल स्तर भी नीचे जा रहा है। अतः मक्का, दलहन, तिलहन और बागवानी फसलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इन फसलों के लिए यदि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य, बीमा सुरक्षा और निश्चित खरीद सुनिश्चित करे तो किसान धीरे-धीरे धान पर निर्भरता कम कर सकते हैं। हरियाणा की “भावांतर भरपाई योजना” इस दिशा में एक अच्छा उदाहरण है, जिसमें किसानों को मूल्य अंतर की भरपाई दी जाती है।
दूसरा समाधान है यंत्रीकरण और साझा संसाधन। किसानों को मशीनें साझा उपयोग के लिए उपलब्ध कराई जाएँ। पंचायत या सहकारी समितियों के स्तर पर “कस्टम हायरिंग केंद्र” स्थापित हों, जहाँ से किसान कम किराए पर हैप्पी सीडर या सुपर स्ट्रॉ प्रबंधन प्रणाली जैसी मशीनें ले सकें। केंद्र सरकार की “फसल अवशेष प्रबंधन योजना” के अंतर्गत पंजाब और हरियाणा में एक लाख से अधिक मशीनें बाँटी गई हैं, पर इनकी पहुँच सभी किसानों तक नहीं हो पाई है। यदि हर गाँव में सामुदायिक यांत्रिक केंद्र बने, तो किसान पराली जलाने से बचेंगे।
तीसरा उपाय है पराली का औद्योगिक उपयोग। पराली को कचरा न मानकर एक संसाधन के रूप में देखा जाए। इससे जैव ऊर्जा, एथेनॉल, कागज़, पैकेजिंग और निर्माण सामग्री तैयार की जा सकती है। उदाहरण के लिए, भारतीय तेल निगम की पानीपत जैव रिफाइनरी प्रतिवर्ष लगभग दो लाख टन पराली से एथेनॉल बनाती है। यदि इस प्रकार की परियोजनाएँ हर जिले में स्थापित हों तो पराली किसानों के लिए आय का स्रोत बनेगी और जलाने की आवश्यकता कम होगी। सरकार को परिवहन सहायता, खरीद अनुबंध और स्थायी बाज़ार उपलब्ध कराने की नीति बनानी चाहिए।
चौथा कदम होना चाहिए कृषि–पर्यावरणीय समय निर्धारण। धान की छोटी अवधि वाली किस्में जैसे पी.आर.–126 या डी.आर.आर. धान–44 अपनाने से किसानों को फसल कटाई और बुवाई के बीच कुछ अतिरिक्त दिन मिल सकते हैं। इस समय का उपयोग पराली प्रबंधन में किया जा सकता है।
इसके साथ–साथ परिशुद्ध कृषि यानी सटीक तकनीकी साधनों का प्रयोग, जल–सिंचाई प्रणाली में सुधार और जैविक खाद उपयोग से भी पर्यावरणीय लाभ मिलेगा।
पाँचवाँ, सामुदायिक प्रोत्साहन और जनजागरूकता। पराली न जलाने वाले किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाए, गाँव स्तर पर प्रतियोगिता आयोजित हो और “शून्य दहन ग्राम” घोषित किए जाएँ। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में “पुसा डीकंपोजर” नामक जैविक घोल के प्रयोग से पराली को खेत में ही खाद में बदला जा रहा है। यदि इस तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए तो पराली जलाने की आवश्यकता नहीं बचेगी।
छठा, प्रशासनिक तालमेल और नीति–समन्वय। केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच सामंजस्य होना चाहिए ताकि कृषि, पर्यावरण और ऊर्जा विभाग एक साझा योजना के अंतर्गत काम करें। पराली प्रबंधन को ग्रामीण रोजगार योजना, जैव ऊर्जा मिशन और जलवायु परिवर्तन कार्यक्रमों से जोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, मनरेगा के अंतर्गत पराली एकत्रीकरण या जैव खाद इकाइयों में कार्य को रोजगार से जोड़ा जा सकता है।
सातवाँ, शहरी–ग्रामीण सहभागिता भी इस दिशा में उपयोगी होगी। दिल्ली जैसे महानगर जहाँ प्रदूषण का सबसे अधिक प्रभाव होता है, उन्हें अपने सामाजिक उत्तरदायित्व निधि के माध्यम से पंजाब–हरियाणा के किसानों को आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिए। इससे प्रदूषण के स्रोत और पीड़ित क्षेत्र के बीच साझा जिम्मेदारी की भावना विकसित होगी।
इसके साथ-साथ तकनीकी निगरानी प्रणाली को भी सशक्त बनाना चाहिए। उपग्रह आधारित आँकड़ों से पराली जलाने की घटनाओं की त्वरित जानकारी मिल सकती है, जिससे स्थानीय प्रशासन समय रहते हस्तक्षेप कर सके। परंतु यह हस्तक्षेप केवल दंडात्मक न होकर सहयोगात्मक होना चाहिए।
इन सभी उपायों का उद्देश्य यह है कि किसान को दोषी नहीं बल्कि भागीदार बनाया जाए। किसान पराली इसलिए जलाते हैं क्योंकि उनके पास व्यावहारिक विकल्प नहीं हैं। जब उन्हें ऐसे विकल्प मिलेंगे जो सस्ते, लाभकारी और पर्यावरण के अनुकूल हों, तो वे स्वयं इस समस्या के समाधान का हिस्सा बनेंगे।
अंततः यह समझना होगा कि पराली जलाना केवल पर्यावरणीय संकट नहीं बल्कि सामाजिक–आर्थिक असंतुलन का परिणाम है। इसे रोकने के लिए किसानों के कल्याण, नीति सुधार और तकनीकी समर्थन का समन्वय आवश्यक है। यदि पराली को ऊर्जा, उद्योग और जैविक खाद के रूप में उपयोग में लाया जाए, तो यह प्रदूषण का कारण नहीं बल्कि विकास का साधन बन सकती है।
पराली जलाने की समस्या का समाधान केवल प्रतिबंधों और दंड से नहीं, बल्कि संवेदनशील नीति, किसानों की सहभागिता और तकनीकी नवाचार से निकलेगा। जब फसल विविधीकरण, यंत्रीकरण, पराली का औद्योगिक उपयोग और सामुदायिक प्रोत्साहन एक साथ काम करेंगे, तब ही स्वच्छ वायु और सुरक्षित कृषि दोनों संभव होंगी। यह संतुलन ही उत्तर भारत को पराली की आग से मुक्त करने और टिकाऊ कृषि विकास की दिशा में अग्रसर करने का एकमात्र मार्ग है।