नारायण दत्त तिवारी, जन्म के दिन ही मरे

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1 8 अक्टूबर — तारीख वही थी, जिस दिन उनका जन्म हुआ था, और संयोग देखिए, उसी दिन उन्होंने दुनिया को अलविदा भी कह दिया। 1925 में नैनीताल में जन्मे नारायण दत्त तिवारी भारतीय राजनीति के ऐसे अध्याय हैं, जिन्हें जितना पढ़िए, उतना नया मोड़ सामने आता है। उनके जीवन में सत्ता, संघर्ष, दोस्ती, विवाद — सब कुछ था, जो एक फिल्मी कहानी को भी मात दे सके।

मिट्टी से उठे, मुख्यमंत्री तक पहुंचे

एन.डी. तिवारी का राजनीतिक सफर किसी रोलरकोस्टर से कम नहीं रहा। 1952 में महज़ 26 साल की उम्र में वो उत्तर प्रदेश विधानसभा के सबसे युवा विधायक बने। उनके पहले भाषण ने सत्ता और विपक्ष — दोनों को चौंका दिया। वो नेता नहीं, वक्ता थे, और वक्ता नहीं, सोचने वाला मस्तिष्क। यहीं से शुरू हुआ वो सफर, जो उन्हें दो राज्यों का मुख्यमंत्री बनाने वाला था — पहले उत्तर प्रदेश, फिर उत्तराखंड। भारतीय राजनीति में यह कारनामा आज तक किसी और के नाम नहीं हुआ।

‘नथिंग डूइंग तिवारी’ और ‘ना नर, ना नारी’ — फिर भी सबके प्रिय

उनके विरोधी मज़ाक उड़ाते थे — “ये न नर हैं, ना नारी, ये हैं नारायण दत्त तिवारी।”
अपनी ही पार्टी के लोग उन्हें कहते थे — “नथिंग डूइंग तिवारी।”
लेकिन तिवारी मुस्कुरा देते थे। शायद यही उनकी ताकत थी — मुस्कराहट। वो जानते थे, राजनीति में सबसे बड़ा हथियार क्रोध नहीं, संयम है।

हर नाम याद रखने वाला मुख्यमंत्री

तिवारी की एक अद्भुत खासियत थी — उन्हें हर व्यक्ति का नाम याद रहता था। चाहे वो सचिवालय का क्लर्क हो या चपरासी, वो उसे नाम से पुकारते थे। यही वजह थी कि अफसर से लेकर आम जनता तक, हर कोई उनसे जुड़ा महसूस करता था। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप अवस्थी ने कहा था — “उनके दिमाग में मानो एक कंप्यूटर फिट था, जो हर व्यक्ति की कहानी याद रखता था।”

ओलोफ पाम की ‘टूटी चिड़िया’ और एक यादगार मुलाकात

बहुत कम लोग जानते हैं कि तिवारी स्वीडिश भाषा में निपुण थे। 1959 में वो स्वीडन गए थे और वहां के प्रधानमंत्री ओलोफ पाम से उनकी गहरी दोस्ती हो गई थी। 25 साल बाद जब वो फिर मिले, तो पाम ने एक टूटी हुई सीप की बनी चिड़िया दिखाते हुए कहा — “तुम्हें याद है, ये वही है जो तुमने मुझे 1959 में दी थी।”
इतनी बारीकी से दोस्ती निभाना, शायद आज के नेताओं में दुर्लभ है।

प्रधानमंत्री बनने का मौका, जो हाथ से निकल गया

1987 में राजीव गांधी बोफोर्स मामले में घिर गए। कांग्रेस में चर्चा हुई कि कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री पद किसी और को सौंप दिया जाए। दो नाम सामने आए — नरसिम्हा राव और नारायण दत्त तिवारी। उत्तर भारत के समीकरण देखते हुए तिवारी आगे थे। लेकिन जब प्रस्ताव उनके सामने आया, तो उन्होंने मना कर दिया।
उन्होंने कहा — “अगर मैं ये पद ले लूं, तो जनता सोचेगी कि राजीव गांधी भाग रहे हैं।”
राजनीति में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले — जब कोई सत्ता से ऊपर उठकर सोचता हो।

18 घंटे काम, मुस्कान से फैसले

तिवारी अपने अनुशासन और ऊर्जा के लिए जाने जाते थे। रोज़ 18 घंटे काम करते, रात में दो बजे सोते और सुबह छह बजे फिर सक्रिय हो जाते।
उनके प्रधान सचिव योगेंद्र नारायण कहते हैं — “वो किसी भी वक्त दिल्ली के लिए उड़ान भर लेते थे, चाहे हम फिल्म देख रहे हों या खाना खा रहे हों।”
उनकी गंभीरता का आलम ये था कि वो हर फाइल का एक-एक शब्द खुद पढ़ते थे और लाल निशान खुद लगाते थे।

राजभवन का सबसे बड़ा विवाद

जब वो आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने, तब एक टेलीविज़न चैनल ने ऐसा वीडियो दिखाया जिसने उनकी छवि हिला दी — उन पर महिलाओं के साथ संबंधों के आरोप लगे। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
फिर 2008 में रोहित शेखर नामक युवक ने अदालत में दावा किया कि तिवारी उसके पिता हैं। DNA टेस्ट ने यह सच साबित किया।
लोगों ने कहा — “89 की उम्र में भी तिवारी ने अपनी ज़िंदगी को अधूरा नहीं छोड़ा।”
2014 में उन्होंने रोहित की मां उज्ज्वला तिवारी से शादी कर ली — एक ऐसा अंत, जो किसी उपन्यास से कम नहीं।

अगर 1991 में जीत जाते…

राजीव गांधी की हत्या के बाद अगर तिवारी चुनाव जीत जाते, तो शायद भारत के प्रधानमंत्री वही होते। लेकिन वो 5,000 वोटों से हार गए — और इतिहास ने करवट बदल ली।
नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, और तिवारी हमेशा के लिए “सबसे योग्य, पर कभी प्रधानमंत्री न बने” नेता बन गए।

राजनीति का वो दौर, जो अब नहीं लौटेगा

एन.डी. तिवारी का जीवन भारतीय राजनीति की वो किताब है, जिसमें हर पन्ने पर एक सबक है —
कैसे संयम से संकट को संभाला जा सकता है,
कैसे विरोध को मुस्कान से हराया जा सकता है,
और कैसे सत्ता पाने के बजाय, गरिमा से जिया जा सकता है।

18 अक्टूबर 2018 को उन्होंने उसी दिन विदा ली, जिस दिन 93 साल पहले उन्होंने जन्म लिया था।
शायद इसलिए कहा जाता है — कुछ लोग जन्म और मृत्यु दोनों में अपने समय को चुनते हैं।
नारायण दत्त तिवारी — ऐसे ही विरले इंसान थे।

किस्सा18 अक्टूबर — तारीख वही थी, जिस दिन उनका जन्म हुआ था, और संयोग देखिए, उसी दिन उन्होंने दुनिया को अलविदा भी कह दिया। 1925 में नैनीताल में जन्मे नारायण दत्त तिवारी भारतीय राजनीति के ऐसे अध्याय हैं, जिन्हें जितना पढ़िए, उतना नया मोड़ सामने आता है। उनके जीवन में सत्ता, संघर्ष, दोस्ती, विवाद — सब कुछ था, जो एक फिल्मी कहानी को भी मात दे सके।

मिट्टी से उठे, मुख्यमंत्री तक पहुंचे

एन.डी. तिवारी का राजनीतिक सफर किसी रोलरकोस्टर से कम नहीं रहा। 1952 में महज़ 26 साल की उम्र में वो उत्तर प्रदेश विधानसभा के सबसे युवा विधायक बने। उनके पहले भाषण ने सत्ता और विपक्ष — दोनों को चौंका दिया। वो नेता नहीं, वक्ता थे, और वक्ता नहीं, सोचने वाला मस्तिष्क। यहीं से शुरू हुआ वो सफर, जो उन्हें दो राज्यों का मुख्यमंत्री बनाने वाला था — पहले उत्तर प्रदेश, फिर उत्तराखंड। भारतीय राजनीति में यह कारनामा आज तक किसी और के नाम नहीं हुआ।

‘नथिंग डूइंग तिवारी’ और ‘ना नर, ना नारी’ — फिर भी सबके प्रिय

उनके विरोधी मज़ाक उड़ाते थे — “ये न नर हैं, ना नारी, ये हैं नारायण दत्त तिवारी।”
अपनी ही पार्टी के लोग उन्हें कहते थे — “नथिंग डूइंग तिवारी।”
लेकिन तिवारी मुस्कुरा देते थे। शायद यही उनकी ताकत थी — मुस्कराहट। वो जानते थे, राजनीति में सबसे बड़ा हथियार क्रोध नहीं, संयम है।

हर नाम याद रखने वाला मुख्यमंत्री

तिवारी की एक अद्भुत खासियत थी — उन्हें हर व्यक्ति का नाम याद रहता था। चाहे वो सचिवालय का क्लर्क हो या चपरासी, वो उसे नाम से पुकारते थे। यही वजह थी कि अफसर से लेकर आम जनता तक, हर कोई उनसे जुड़ा महसूस करता था। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप अवस्थी ने कहा था — “उनके दिमाग में मानो एक कंप्यूटर फिट था, जो हर व्यक्ति की कहानी याद रखता था।”

ओलोफ पाम की ‘टूटी चिड़िया’ और एक यादगार मुलाकात

बहुत कम लोग जानते हैं कि तिवारी स्वीडिश भाषा में निपुण थे। 1959 में वो स्वीडन गए थे और वहां के प्रधानमंत्री ओलोफ पाम से उनकी गहरी दोस्ती हो गई थी। 25 साल बाद जब वो फिर मिले, तो पाम ने एक टूटी हुई सीप की बनी चिड़िया दिखाते हुए कहा — “तुम्हें याद है, ये वही है जो तुमने मुझे 1959 में दी थी।”
इतनी बारीकी से दोस्ती निभाना, शायद आज के नेताओं में दुर्लभ है।

प्रधानमंत्री बनने का मौका, जो हाथ से निकल गया

1987 में राजीव गांधी बोफोर्स मामले में घिर गए। कांग्रेस में चर्चा हुई कि कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री पद किसी और को सौंप दिया जाए। दो नाम सामने आए — नरसिम्हा राव और नारायण दत्त तिवारी। उत्तर भारत के समीकरण देखते हुए तिवारी आगे थे। लेकिन जब प्रस्ताव उनके सामने आया, तो उन्होंने मना कर दिया।
उन्होंने कहा — “अगर मैं ये पद ले लूं, तो जनता सोचेगी कि राजीव गांधी भाग रहे हैं।”
राजनीति में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले — जब कोई सत्ता से ऊपर उठकर सोचता हो।

18 घंटे काम, मुस्कान से फैसले

तिवारी अपने अनुशासन और ऊर्जा के लिए जाने जाते थे। रोज़ 18 घंटे काम करते, रात में दो बजे सोते और सुबह छह बजे फिर सक्रिय हो जाते।
उनके प्रधान सचिव योगेंद्र नारायण कहते हैं — “वो किसी भी वक्त दिल्ली के लिए उड़ान भर लेते थे, चाहे हम फिल्म देख रहे हों या खाना खा रहे हों।”
उनकी गंभीरता का आलम ये था कि वो हर फाइल का एक-एक शब्द खुद पढ़ते थे और लाल निशान खुद लगाते थे।

राजभवन का सबसे बड़ा विवाद

जब वो आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने, तब एक टेलीविज़न चैनल ने ऐसा वीडियो दिखाया जिसने उनकी छवि हिला दी — उन पर महिलाओं के साथ संबंधों के आरोप लगे। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।
फिर 2008 में रोहित शेखर नामक युवक ने अदालत में दावा किया कि तिवारी उसके पिता हैं। DNA टेस्ट ने यह सच साबित किया।
लोगों ने कहा — “89 की उम्र में भी तिवारी ने अपनी ज़िंदगी को अधूरा नहीं छोड़ा।”
2014 में उन्होंने रोहित की मां उज्ज्वला तिवारी से शादी कर ली — एक ऐसा अंत, जो किसी उपन्यास से कम नहीं।

अगर 1991 में जीत जाते…

राजीव गांधी की हत्या के बाद अगर तिवारी चुनाव जीत जाते, तो शायद भारत के प्रधानमंत्री वही होते। लेकिन वो 5,000 वोटों से हार गए — और इतिहास ने करवट बदल ली।
नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, और तिवारी हमेशा के लिए “सबसे योग्य, पर कभी प्रधानमंत्री न बने” नेता बन गए।

राजनीति का वो दौर, जो अब नहीं लौटेगा

एन.डी. तिवारी का जीवन भारतीय राजनीति की वो किताब है, जिसमें हर पन्ने पर एक सबक है —
कैसे संयम से संकट को संभाला जा सकता है,
कैसे विरोध को मुस्कान से हराया जा सकता है,
और कैसे सत्ता पाने के बजाय, गरिमा से जिया जा सकता है।

18 अक्टूबर 2018 को उन्होंने उसी दिन विदा ली, जिस दिन 93 साल पहले उन्होंने जन्म लिया था।
शायद इसलिए कहा जाता है — कुछ लोग जन्म और मृत्यु दोनों में अपने समय को चुनते हैं।
नारायण दत्त तिवारी — ऐसे ही विरले इंसान थे

ओल्ड इज गोल्ड से साभार

पापों से मुक्ति और आत्मिक शुद्धि का पर्व है नरक चतुर्दशी

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बाल मुकुन्द ओझा

सनातन धर्म में नरक चतुर्दशी का त्योहार बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। दीपावली से एक दिन पहले  नरक चतुर्दशी का त्योहार मनाया जाता है। इस साल यह त्योहार 19 अक्टूबर को मनाया जाएगा। नरक चतुर्दशी कई नामों से जानी जाती है। प्रत्येक नाम एक विशेष अनुष्ठान तथा महत्व को दर्शाता है। यथा छोटी दीपावली, रूप चौदस, रूप चतुर्दशी, यम चतुर्दशी, और काली चौदस। यह दिन हमें नरक के भय से मुक्ति, पापों के निवारण और आत्मिक शुद्धता का मार्ग दिखाता है। चतुर्दशी तिथि 19 अक्टूबर को दोपहर 1:51 बजे से शुरू होकर 20 अक्टूबर को दोपहर 3:44 बजे तक रहेगी। इस शुभ अवसर पर ऐन्द्र योग, सर्वार्थसिद्धि योग और सर्वाअमृत योग का विशेष संयोग भी बन रहा है, जो इसे और भी फलदायी बनाता है। इस दिन रूप निखारा जाता है। इसलिए इसे रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है। इसके लिए सुबह ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने की परंपरा है।

देश में पंच दिवसीय दीपावली पर्व की श्रृंखला में नरक चतुर्दशी का त्योहार लोग बड़े धूमधाम और श्रद्धा के साथ मनाते है। नरक चतुर्दशी बुराई पर अच्छाई की जीत के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। पौराणिक मान्यता है नरक चतुर्दशी के दिन घरों में माता लक्ष्मी का आगमन होता है और दरिद्रता दूर होती है। नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव कम होता है और सकारात्मकता ऊर्जा  का संचार होता है। विद्वानों के अनुसार इस दिन पर भगवान कृष्ण की पूजा- अर्चना करनी चाहिए। इस दिन को हमारे देश में  छोटी दिवाली के रूप में भी मनाते हैं। मान्यता है नरक चतुर्दर्शी पर घर को रोशनी, फूलों और अन्य सजावटी सामग्री से सजाना चाहिए।  इस अवसर पर भगवान कृष्ण का आशीर्वाद और शाम के समय अपने घर में 11 मिट्टी के दीपक जलाएं। नरक चतुर्दशी के दिन घरों में दीपक जलाने की परंपरा है। नरक चतुर्दशी पर मिट्टी का चौमुखी दीपक जलाने का विशेष महत्व बताया गया है। इस दीपक में सरसों का तेल डालकर चारों दिशाओं की ओर मुख करके चार बत्तियां लगाई जाती हैं। इसे ‘यम दीपक’ कहा जाता है, जो मृत्यु के देवता यमराज को प्रसन्न करता है। दीपक को घर के बाहर मुख्य द्वार पर दक्षिण दिशा की ओर रखकर जलाएं, क्योंकि दक्षिण दिशा यमराज की मानी जाती है। पंचांग के अनुसार इस दिन यमराज के नाम का दीया जलाया जाता है। बताया जाता है।  इस दिन यम देव की पूजा करने से अकाल मृत्यु का डर खत्म होता है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करके यम तर्पण एवं शाम के समय दीप दान का बड़ा महत्व है।

 नरक चतुर्दशी के पर्व को मनाए जाने के पीछे एक बड़ी ही रोचक कथा जुड़ी हुई है। पौराणिक मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में नरकासुर नाम के राक्षस ने अपनी शक्तियों से देवताओं और ऋषि-मुनियों के साथ 16 हजार एक सौ सुंदर राजकुमारियों को भी बंधक बना लिया था। इसके बाद नरकासुर के अत्याचारों से त्रस्त देवता और साधु-संत भगवान श्री कृष्ण की शरण में गए। नरकासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था, इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की मदद से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध किया और उसकी कैद से 16 हजार एक सौ कन्याओं को आजाद कराया। कैद से आजाद करने के बाद समाज में इन कन्याओं को सम्मान दिलाने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने इन सभी कन्याओं से विवाह कर लिया। एक अन्य कथा के अनुसार, इस दिन यमराज की पूजा इसलिए की जाती है, क्योंकि वे मृत्यु के देवता हैं और सभी प्राणियों के कर्मों का हिसाब रखते हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि यमराज की पूजा करने से व्यक्ति को अकाल मृत्यु का भय नहीं सताता और वह अपने पापों से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। नरकासुर से मुक्ति पाने की खुशी में देवगण व पृथ्वीवासी बहुत आनंदित हुए। कहा जाता है कि तभी से इस पर्व को मनाए जाने की परंपरा शुरू हुई।

(

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32, मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर

आज के दिन शुरू हुई हिमालयन कार रैली

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हिमालयन कार रैली की शुरुआत साल 1980 के 18 अक्टूबर को नज़ीर हुसैन ने की थी। मुम्बई के स्टेडियम से झंडी दिखाकर इसकी शुरुआत हुई। हुसैन को भारतीय मोटरस्पोर्ट को विश्व मंच पर लाने का श्रेय दिया जाता है। वह भारतीय रेसिंग ड्राइवर होने के साथ-साथ मोटर स्पोर्ट्स के प्रशासक भी थे। वह विश्व रैली चैम्पियनशिप के मुख्य प्रबंधक और विश्व मोटर स्पोर्ट्स काउंसिल के सदस्य रहे। उनका निधन 78 वर्ष की आयु में साल 2019 में हुआ था।

1980 से 1990 तक इस रैली का आयोजन हर साल किया गया। इन वर्षों में हिमालयन रैली संभवतः दुनिया की सबसे दिलचस्प और आकर्षक रैली थी। पहली हिमालयन कार रैली बॉम्बे (अब मुंबई) से शुरू होकर हिमालय के रास्तों से गुजरते हुए दिल्ली में समाप्त हुई थी। दूसरी हिमालयन रैली की शुरुआत भी मुंबई से हुई थी। लेकिन तीसरी और उसके बाद की सभी रैलियों का आगाज दिल्ली से हुआ।

पहले हिमालयन रैली का उद्घाटन भारतीय मूल के प्रसिद्ध युगांडावासी रैली ड्राइवर चंद्रशेखर मेहता ने की थी। मेहता ने अपने करियर में कई खिताब जीते थे। उनके अलावा उद्घाटन समारोह में अचिम वार्मबोल्ड जैसे विश्व प्रसिद्ध ड्राइवर भी आए थे। ओपल, टोयोटा आदि सहित कई टीमों ने रैली में भाग लिया था।

हिमालयन कार रैली में विदेशी ड्राइवर और टीमें आती रहीं। खासकर केन्या से एक बड़ा दल इस आयोजन में हमेशा देखा गया। भारतीय मूल के केन्याई जयंत शाह ने कई बार जीत भी हासिल की थी। हिमालयन रैली में भाग लेने वाले अन्य बड़े नामों में रॉस डंकर्टन, फ्लोरी रूटहार्ट, रॉड मिलन, गाइ कोलसोल, फिलिप यंग, रमेश खोड़ा, रुडोल्फ स्टोहल, स्टिग एंडरवांग आदि शामिल हैं। यहां तक कि शीर्ष WRC ड्राइवर पेर एकलुंड ने भी हिमालयन रैली में भाग लिया था।

ये सभी ड्राइवर और कंपनियों की टीमें हिमालय की घुमावदार और संकरी सड़कों पर गाड़ी चलाने की चुनौती से आकर्षित थीं। हिमालयन कार रैली के रूट की अधिकांश सड़कें मिट्टी या बजरी वाली थीं। ऐसे में इंसान और मशीन दोनों की परीक्षा और भी अधिक कठिन हो जाती थी।

हिमालयन रैली में भाग लेने वाली कारों की विविधता देखने लायक होती थीं। रैली के प्रतिभागियों को अक्सर मसूरी के सेवॉय में ठहराया जाता था। इस आयोजन में हर साल 100 से अधिक प्रतिभागी शामिल होते थे। इस रैली ने इंडियन सिक्योरिटी फोर्स की टीमों को भी आकर्षित किया।

रैली के दौरान हजारों लोग कारों को देखने आते थे। कुछ क्षेत्रों में तो बच्चों को रैली दिखाने और प्रतिभागियों का उत्साह बढ़ाने के लिए स्कूल बंद कर दिए जाते थे। आलम यह था कि हिमालयन कार रैली का हिस्सा बनने की दावेदार हो गई थी।

आगे के वर्षों में हिमालयन कार रैली राजनीतिक लड़ाई का शिकार हो गई। सबसे पहले जॉर्ज फर्नांडीस ने इसका विरोध किया। बाद में उत्तर प्रदेश के पहाड़ी लोग, जो तब अलग पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के लिए आंदोलन कर रहे थे, उन्होंने रैली की कारों पर हमला किया। कुछ मौकों पर रैली को बाधित करने की भी कोशिश की।

जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई और दंगे भड़क उठे तो हिमालयन रैली को रोकना पड़ा। प्रतिभागियों की सुरक्षा के लिए सेना बुलानी पड़ी। अफसोस की बात है कि हिमालयन रैली कभी भी WRC का हिस्सा नहीं बनी और 1990 में आखिरी रैली के आयोजन के बाद यह लुप्त हो गई।

रजनी कांत शुक्ला

अमीश त्रिपाठी, आज जिनका जन्मदिन है

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अमीश त्रिपाठी का जन्म 18 अक्टूबर, 1974 को मुंबई (महाराष्ट्र, भारत) में हुआ था। वे एक भारतीय लेखक हैं जो अपने उपन्यासों, विशेषकर अंग्रेजी भाषा में पौराणिक कथा शैली के उपन्यासों के लिए जाने जाते हैं। अमीश त्रिपाठी वैश्विक साहित्यिक मंच पर एक विपुल और प्रभावशाली लेखक के रूप में उभरे हैं।

उन्होंने पौराणिक कथा शैली को फिर से परिभाषित करने का प्रयास किया है, ऐसी कहानियाँ बुनी हैं जो दुनियाभर के पाठकों को प्रभावित करती हैं। अपनी मनमोहक कहानियों के माध्यम से, अमीश ने भारतीय पौराणिक कथाओं को समकालीन दुनिया में सफलतापूर्वक पहुँचाया है, प्राचीन किंवदंतियों में नई जान फूंकी है। इस लेख में, हम इस साहित्यिक वास्तुकार के जीवन, कार्यों और प्रभाव के बारे में जानेंगे, जिन्होंने भारत के साहित्यिक पटल पर एक अमिट छाप छोड़ी है।

उन्होंने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से विज्ञान में स्नातक होने के बाद, त्रिपाठी ने बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई की। उन्होंने भारतीय प्रबंधन संस्थान, कलकत्ता (IIM-C) से एमबीए की डिग्री प्राप्त की।

साहित्यिक प्रसिद्धि हासिल करने से पहले, अमीश ने बैंकिंग और बीमा क्षेत्रों में काम करते हुए वित्तीय सेवा उद्योग में एक सफल करियर बनाया। उन्होंने स्टैंडर्ड चार्टर्ड, डीबीएस बैंक और आईडीबीआई फेडरल लाइफ इंश्योरेंस सहित कई कंपनियों में विपणन और उत्पाद प्रबंधक के रूप में वित्त के क्षेत्र में काम किया।

हालाँकि, कहानी कहने के प्रति उनकी रुचि और भारतीय पौराणिक कथाओं के प्रति गहरे आकर्षण ने उन्हें एक लेखक के रूप में एक नया रास्ता अख़्तियार करने के लिए प्रेरित किया।

अमीश को सफलता उनके पहले उपन्यास, “द इम्मोर्टल्स ऑफ मेलुहा” से मिली, जो शिव त्रयी की पहली पुस्तक थी। दरअसल, शिव त्रयी तीन पुस्तकों की एक श्रृंखला है जो भगवान शिव के जीवन को पुनर्कल्पित करते हुए उनकों मानवीकृत करने का प्रयास करती है। त्रयी में शामिल हैं –

“द इम्मोर्टल्स ऑफ़ मेलुहा” (2010)

“द सीक्रेट ऑफ़ द नागाज़” (2011)

“द ओथ ऑफ़ द वायुपुत्राज़” (2013)

शिव त्रयी की शानदार सफलता के बाद, अमीश ने अपने साहित्यिक प्रयासों में भारतीय पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर अपना लेखन जारी रखा। उन्होंने राम चंद्र श्रृंखला की शुरुआत की, जो “इक्ष्वाकु के वंशज” (2015) से शुरू हुई।

इसके बाद, उन्होंने अपनी इम्मोर्टल इंडिया सीरीज़ के साथ नॉन-फिक्शन में भी कदम रखा है, जो देश के इतिहास और संस्कृति पर केंद्रित है।

अमीश त्रिपाठी का साहित्यिक कार्य भौगोलिक सीमाओं से परे है। भारतीय पौराणिक कथाओं को समसामयिक परिदृश्य में समाहित करने की उनकी असाधारण क्षमता ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक हलकों में पहचान दिलाई है। उनके उपन्यासों का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है, जिससे वे दुनिया भर के पाठकों के लिए सुलभ हो गए हैं।

अमीश त्रिपाठी का प्रभाव उनकी किताबों के पृष्ठों से कहीं आगे तक फैला हुआ है। इक्ष्वाकु के वंशज ने क्रॉसवर्ड बुक का “सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय पुरस्कार” जीता। 2019 में, त्रिपाठी को भारत सरकार द्वारा एक राजनयिक भूमिका में नेहरू सेंटर, लंदन के निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था।

अमीश ने परंपरा और आधुनिकता का सफलतापूर्वक विलय कर एक ऐसी साहित्यिक विरासत का निर्माण किया है जो समय की कसौटी पर खरी उतरती प्रतीत होती है। साहित्य की दुनिया में उनका योगदान आज भी निरंतर जारी है।

वर्ष 2022 में 13 अक्टूबर के दिन ‘लेखक से भेंट’ कार्यक्रम में साहित्य अकादेमी के सभागार में अमीश त्रिपाठी से मेरी भेंट हुई थी। कम समय में युवा पाठकों के बीच अपनी जगह बनाने वाले अमीश ने ज्यादातर समय श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए थे।

अपनी पुस्तकों की बिक्री का साठ लाख का जादुई आंकड़ा वे छू चुके थे। उनके प्रशंसकों में जाने माने फिल्मी सितारों से लेकर राजनेता और बुद्धिजीवी सहित युवा वर्ग हैं। शिव व राम पर लिखी गई उनकी श्रृंखलाएं बहुत लोकप्रिय हुई हैं।कांत शुक्ला

−रजनीकांत शुक्ला

चुनाव का मैदान सजा है , मुंछवा ” बढ़ाए ” डालो

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बिहार में तीन व्यंजन बड़े लोकप्रिय हैं । पहला है चौड़ा पोहा या चिवड़ा और दही , दूसरा लिट्टी चोखा और तीसरा सर्वाधिक लोकप्रिय सत्तू । हमारे नगर में अनेक बिहारी रहते हैं , भेल बनने पर आए उनमें से कईं मित्र भी हैं । 150 साल पहले जब कर्नल प्रॉबी काटले ने हरिद्वार से कानपुर तक नहर बनाने का काम कानपुर से हरिद्वार की ओर उल्टा शुरू किया था ।

नतीजा यह निकला कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से हजारों मजदूर हरिद्वार रुड़की आ बसे । नहर बन जाने के बाद ठेले चलाने लगे और अनाज मंडी , घास मंडी आदि में पल्लेदारी करने लगे । सावन भादों में दोपहर बाद ढोलक की थाप पर गीत गाते थे । एक लोकगीत बड़ा प्रचलित और पसंदीदा था । वह था —
आई सतुवन की बहार मुंछवा मुंडाए डालो … बरसात के मौसम में कटोरे भर भर सत्तू पियेंगे , मूंछें कटोरे में न डूब जाएं सो मुंडा डालो ।

आजकल बिहार में बड़ी रौनक है । लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व चुनाव जो आ गया त्यौहारों के मौसम में , तो रौनक तो होगी ही । आइए अब बिहार की उस खिचड़ी की बात करें जो इन दिनों चूल्हों पर चढ़ी है , राजनीति के गलियारों में खुदबुदा रही है । बेशक अभी तक पकी नहीं है । आपको पता है न , इंटरनेशनल लेबल पर भारत के सबसे लोकप्रिय दो डिशेज क्या हैं ? तो बता दें कि वे हैं कढ़ी और खिचड़ी । जी हां , ठीक सुना आपने खिचड़ी ! समझ जाइए कथित बिरयानी नहीं सीधी सादी खिचड़ी ।

भारत के फाइव स्टार होटलों में भी मिलती है । लेकिन हम बात उस राजनैतिक खिचड़ी की कर रहे हैं जिसे चंद्रगुप्त , अशोक और चाणक्य के बिहार में सत्तर पार्टियां मिलकर पकाना चाहती हैं । परन्तु अभी तक सलीके से पका नहीं पा रही । पक तो जाएगी एक दिन , अब किसकी पकेगी , बताना मुश्किल । लगाते रहिए गणित और फैलाते रहिए आंकड़े ? खिचड़ी पकेगी , किसी की तो पकेगी , जो पकेगी , वह सरकार बनने के बाद भी पकती रहेगी । कईं दालों ही नहीं , पतले , मोटे , लम्बे , छोटे ; कईं किस्म के दाल चावलों से बनीं मशहूर बिहारी खिचड़ी । कईं तरह के छौंके और तड़के वाली खिचड़ी ।

तो साहब ! लिट्टी चोखा खाइए , सत्तू पीजिए या पोहा दही खाइए , आपकी मर्जी । चुनाव का मैदान सजा है , मुंछवा ” बढ़ाए ” डालो ?
…..कौशल सिखौला

खुशियों की दीपावली : मन की अंधियारी दूर करने का समय

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(रोशनी बाहर नहीं, मन के भीतर जलाएं दीये, रिश्तों और सुकून से रौशन होती है असली दीपावली।) 

दीपावली केवल दीप जलाने का पर्व नहीं, बल्कि मन के अंधकार को मिटाने और आत्मा में उजाला भरने का अवसर है। आज यह जरूरी है कि हम इसे दिखावे या प्रदूषण का उत्सव न बनाएं, बल्कि सादगी, करुणा और प्रेम का पर्व बनाएं। जब हम दूसरों के जीवन में रोशनी बाँटते हैं, तभी सच्चा सुख और सुकून प्राप्त होता है। दीपावली का असली अर्थ है — हर मन में शांति, हर घर में प्रेम और हर समाज में समरसता का प्रकाश।

– डॉ प्रियंका सौरभ

दीपावली वर्ष का वह पर्व है जो केवल अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर के तमस को मिटाकर आत्मिक प्रकाश जगाने का संदेश देता है। यह वह दिन है जब लोग घरों को सजाते हैं, दीपक जलाते हैं, नए वस्त्र पहनते हैं और मिठाइयाँ बाँटते हैं। परंतु क्या हमने कभी ठहरकर सोचा है कि असली दीपावली क्या केवल घर की सफाई और रोशनी से पूरी हो जाती है? क्या वास्तव में वह अंधकार, जिसके नाश के लिए यह पर्व मनाया जाता है, केवल दीवारों और आँगन में होता है या हमारे मन और व्यवहार में भी कहीं छिपा है?

आज का समाज बाहरी चमक में इतना उलझ गया है कि भीतर की रोशनी मद्धम पड़ती जा रही है। दीपावली अब अक्सर दिखावे, खर्च और प्रतिस्पर्धा का उत्सव बनती जा रही है। लोग इस दिन अपने घर को हजारों लाइटों से सजा देते हैं, लेकिन अपने मन के कोनों में बसे अंधकार — ईर्ष्या, अहंकार, असंतोष और असहनशीलता — को नजरअंदाज कर देते हैं। त्योहार का असली उद्देश्य यही था कि हम अपने भीतर झाँकें, संबंधों को सहेजें और अपने चारों ओर स्नेह की रोशनी फैलाएं। मगर आज यह भावना बाज़ार और भौतिकता के शोर में खोती जा रही है।

दीपावली केवल लक्ष्मी के आगमन का नहीं बल्कि आत्ममंथन का भी समय है। जब हम घर के हर कोने की धूल झाड़ते हैं, तो दरअसल हमें अपने मन की धूल भी झाड़नी चाहिए — पुरानी शिकायतें, मतभेद, कटुता और तनाव। हर दीपक यह याद दिलाता है कि अंधकार मिटाने के लिए केवल एक दीप ही काफी होता है, बशर्ते वह सच्चे मन से जलाया गया हो। परिवार में एक छोटी सी मुस्कान, एक क्षमा का भाव, एक प्रेमपूर्ण संवाद — यही वे दीप हैं जो रिश्तों के कोनों को रोशन करते हैं।

आज के दौर में यह पर्व मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में भी बहुत मायने रखता है। तेज़ भागदौड़, सामाजिक दबाव, कामकाजी तनाव और डिजिटल दुनिया की भागमभाग में इंसान भीतर से खाली होता जा रहा है। त्यौहारों को भी हमने एक “इवेंट” बना दिया है — फोटोशूट, सोशल मीडिया पोस्ट और महंगे तोहफों की परंपरा ने उसकी आत्मा को कमजोर कर दिया है। हमें यह याद रखना होगा कि दीपावली का आनंद केवल बाहरी सजावट में नहीं, बल्कि उस मानसिक सुकून में है जो हमें अपनेपन, संवाद और आत्मीयता से मिलता है।

आजकल के बच्चे और युवा पटाखों की चमक में खुशियाँ ढूंढते हैं। लेकिन क्या हमें यह अधिकार है कि अपनी खुशी के लिए पर्यावरण को प्रदूषित करें? धुएं और शोर से भरी हवा में सांस लेता हर जीव, हर बच्चा और हर बुज़ुर्ग इस खुशी की कीमत चुका रहा है। असली आनंद तो तब है जब हमारे दीपक किसी को कष्ट न दें। जब हम धरती माँ के प्रति भी उतने ही संवेदनशील हों जितने अपने घर के प्रति। पर्यावरण के अनुकूल दीपावली मनाना अब केवल विकल्प नहीं, जिम्मेदारी बन चुकी है। मिट्टी के दीप, प्राकृतिक रंगों की सजावट और स्थानीय उत्पादों का उपयोग करके भी हम इस पर्व को सुंदर बना सकते हैं — और यह सौंदर्य कृत्रिम रोशनी से कहीं अधिक स्थायी है।

दीपावली के अवसर पर एक और अंधकार मिटाने की आवश्यकता है — वह है अकेलेपन और मानसिक बेचैनी का अंधकार। त्योहार का मौसम बहुतों के लिए उत्सव का होता है, लेकिन कुछ लोगों के लिए यह यादों और उदासी का समय भी होता है। जिनके अपने दूर हैं, जो किसी प्रिय को खो चुके हैं, या जो आर्थिक और सामाजिक संघर्षों से जूझ रहे हैं — उनके लिए यह रोशनी कई बार चुभन का कारण बनती है। ऐसे में समाज का कर्तव्य है कि वह अपने आसपास के ऐसे लोगों को भी इस रोशनी में शामिल करे। दीपावली का असली अर्थ तभी पूर्ण होगा जब किसी के घर का अंधकार भी हमारे दीप से दूर हो।

हमारे शास्त्र कहते हैं — तमसो मा ज्योतिर्गमय — यानी हमें अंधकार से प्रकाश की ओर जाना चाहिए। यह प्रकाश केवल दीपक का नहीं बल्कि ज्ञान, विवेक और करुणा का है। जब मन में करुणा का प्रकाश जलता है, तो वह हजारों दीपकों से अधिक उजाला फैलाता है। दीपावली हमें यही सिखाती है कि जीवन में प्रकाश फैलाना केवल दिए जलाने का नहीं, बल्कि दया, सत्य और प्रेम की राह पर चलने का प्रतीक है।

त्योहारों का मकसद केवल परंपरा निभाना नहीं होता। वे हमें रुककर सोचने का अवसर देते हैं कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। दीपावली हमें याद दिलाती है कि जो प्रकाश बाहर है, वह तभी स्थायी होगा जब भीतर भी उजाला हो। जब हम अपने भीतर के राम को जगाते हैं और रावण रूपी अहंकार, द्वेष और लालच को जलाते हैं, तभी सच्ची दीपावली मनती है।

आज के समय में यह भी जरूरी है कि हम दीपावली को “समावेशिता का पर्व” बनाएं। समाज में विभाजन की दीवारें, जाति-धर्म के मतभेद, आर्थिक असमानता — ये सब हमारे युग के अंधकार हैं। अगर हर व्यक्ति अपने स्तर पर थोड़ा सा प्रकाश फैला सके — किसी गरीब को भोजन दे दे, किसी बच्चे की शिक्षा में सहयोग करे, किसी बीमार को सहारा दे — तो वही दीपावली सबसे उज्ज्वल होगी। असली लक्ष्मी वही है जो करुणा, दया और सेवा के रूप में घर में प्रवेश करे।

दीपावली व्यापार का भी पर्व मानी जाती है। यह समय होता है जब बाजारों में रौनक रहती है, कारोबारियों की आशाएं बढ़ती हैं। लेकिन व्यापारी समुदाय को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि सच्चा लाभ केवल आर्थिक नहीं, नैतिक भी होता है। ईमानदारी, पारदर्शिता और ग्राहक के प्रति सम्मान ही वह पूंजी है जो लंबे समय तक टिकती है। जब बाजार में विश्वास का दीप जलेगा, तभी समाज समृद्ध होगा।

हमारी संस्कृति में यह भी कहा गया है कि “दीपावली केवल संपन्नता का नहीं, संयम का भी प्रतीक है।” इसलिए अत्यधिक उपभोग, दिखावा और प्रतिस्पर्धा से बचना ही सच्ची श्रद्धा है। यह पर्व हमें सिखाता है कि “थोड़े में भी बहुत” कैसे पाया जा सकता है। जिस घर में प्रेम, संतोष और एकता है, वहाँ हर दिन दीपावली है।

आज जरूरत है कि हम दीपावली को एक आध्यात्मिक और सामाजिक आंदोलन के रूप में देखें। हर व्यक्ति अपने जीवन में एक संकल्प ले — कि वह किसी न किसी रूप में प्रकाश फैलाएगा। कोई ज्ञान के दीप जलाएगा, कोई सहायता का, कोई प्रेम का। जब हर व्यक्ति एक दीप बनेगा, तो समाज में ऐसा उजाला फैलेगा जिसे कोई अंधकार मिटा नहीं सकेगा।

कभी-कभी यह भी आवश्यक है कि हम इस पर्व को कुछ पल की शांति के साथ मनाएँ। आत्मचिंतन के कुछ क्षण, अपने प्रियजनों के साथ समय बिताना, और अपनी उपलब्धियों व कमियों पर विचार करना भी दीपावली का हिस्सा होना चाहिए। जब हम अपने भीतर के दीप से मार्ग रोशन करते हैं, तो जीवन में दिशा स्पष्ट होती है।

दीपावली का अर्थ केवल “दीप” नहीं, “आवली” अर्थात् श्रृंखला भी है। यह श्रृंखला बताती है कि प्रकाश एक से दूसरे तक पहुँचता है। यही मानवता का मूल संदेश है — एक दीप दूसरे को जलाए, एक दिल दूसरे को रोशन करे। तभी यह संसार अंधकार से मुक्त हो सकेगा।

अंततः, इस दीपावली पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम केवल अपने घर को नहीं, बल्कि अपने विचारों, व्यवहारों और समाज को भी प्रकाशित करेंगे। शोर और प्रदूषण से दूर, सरलता और स्नेह से भरी दीपावली ही सच्चे अर्थों में “खुशियों और सुकून की दीपावली” होगी। यही दीपक भारत की संस्कृति का प्रतीक बनेगा — जहाँ रोशनी केवल बिजली से नहीं, बल्कि इंसानियत से फैलती है।

-प्रियंका सौरभ 

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,

कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

चंदन तस्कर वीरप्पन : जंगलों का सम्राट और अपराध जगत का कुख्यात नाम

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18 अक्तूबर 2004 को मुठभेड़ में वीरप्पन की मौत

भारत के अपराध इतिहास में यदि किसी व्यक्ति का नाम रहस्य, रोमांच और खौफ के साथ लिया जाता है, तो वह है — कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन। उसका असली नाम कूसे मुनीसामी वीरप्पन था। दक्षिण भारत के जंगलों में लगभग तीन दशक तक उसका राज चला। वह पुलिस, वन विभाग और यहां तक कि सेना तक के लिए सिरदर्द बना रहा। 18 अक्टूबर 2004 को उसका अंत हुआ, जब तमिलनाडु स्पेशल टास्क फोर्स (STF) ने उसे एक मुठभेड़ (एनकाउंटर) में मार गिराया।


प्रारंभिक जीवन

वीरप्पन का जन्म 18 जनवरी 1952 को तमिलनाडु के गोपीनाथम गाँव में हुआ था, जो कर्नाटक की सीमा से लगा हुआ है। बचपन से ही वह जंगलों के संपर्क में रहा। उसके पिता वन विभाग में मामूली कर्मचारी थे, और यहीं से उसे जंगलों के रहस्य, रास्ते और वन्य जीवों की जानकारी मिली। किशोर अवस्था में ही उसने हथियारों और बंदूकों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था।

कहा जाता है कि जब वह 17 वर्ष का था, तब उसने पहली बार एक हाथी को मारा। यहीं से उसके अपराध जीवन की शुरुआत हुई। हाथीदांत और चंदन की तस्करी ने उसे जंगलों का बादशाह बना दिया।


अपराध की दुनिया में प्रवेश

वीरप्पन का अपराध जगत से रिश्ता 1970 के दशक में शुरू हुआ। उसने पहले एक छोटे शिकारिए के रूप में काम किया, लेकिन धीरे-धीरे वह तस्करी और लूटपाट की दिशा में बढ़ा।
कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर बसे सत्य अमंगलम के घने जंगल उसके साम्राज्य की तरह थे। वहां से वह चंदन की लकड़ी, हाथीदांत और वन्य जीवों की अवैध तस्करी करता था।

बताया जाता है कि उसने करीब 10,000 टन चंदन की लकड़ी और करीब 200 हाथियों के दांत की अवैध तस्करी की थी। इस अवैध व्यापार से उसने करोड़ों की संपत्ति अर्जित की, परंतु उसका जीवन हमेशा भाग-दौड़ और छिपने में बीता।


वीरप्पन और उसकी गैंग

वीरप्पन अकेला नहीं था। उसकी एक विशाल गैंग थी, जिसमें उसके कई रिश्तेदार और वफादार साथी शामिल थे। यह गैंग जंगलों में ही रहती थी और किसी को भी पास आने नहीं देती थी।
वीरप्पन की एक खास बात यह थी कि वह जंगल का गहरा जानकार था — कौन-सा रास्ता कहां जाता है, किस दिशा से पुलिस आ सकती है, कैसे छिपना है — यह सब उसे बखूबी पता था। यही वजह थी कि पुलिस और सेना उसे कई बार घेरने के बावजूद पकड़ नहीं पाई।


खूनी इतिहास और हत्याएं

वीरप्पन पर दर्जनों हत्याओं के आरोप थे। उसने कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के कई वन अधिकारियों, पुलिसकर्मियों और आम लोगों की हत्या की।
सबसे चर्चित घटना थी — आईपीएस अधिकारी टी. हर्षा और आईएफएस अधिकारी संजय कुमार की हत्या।
उसने 1990 के दशक में करीब 120 से अधिक लोगों की जान ली।

1993 में उसने प्रसिद्ध कन्नड़ अभिनेता और राजनेता राजकुमार का अपहरण किया। इस घटना ने पूरे दक्षिण भारत में हलचल मचा दी। सरकार को उसके साथ बातचीत करनी पड़ी और कई रियायतें देनी पड़ीं। हालांकि बाद में राजकुमार को सुरक्षित रिहा कर दिया गया।


वीरप्पन का आतंक और जनता का दृष्टिकोण

वीरप्पन के प्रति लोगों की राय दो ध्रुवों में बंटी थी।
एक ओर वह पुलिस और प्रशासन के लिए खूंखार अपराधी था,
दूसरी ओर कुछ ग्रामीण उसे ‘आधुनिक रॉबिन हुड’ मानते थे।
क्योंकि वह कभी-कभी गरीबों की मदद भी करता था, उन्हें पैसे देता और पुलिस से बचाव में उनकी मदद लेता।

ग्रामीण क्षेत्रों में उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि कोई भी उसके खिलाफ पुलिस को सूचना देने की हिम्मत नहीं करता था।


अंतिम मुठभेड़ : 18 अक्टूबर 2004

करीब तीन दशक तक पुलिस की आंखों में धूल झोंकने के बाद आखिरकार वीरप्पन का अंत हुआ।
तमिलनाडु की स्पेशल टास्क फोर्स (STF) ने एक ‘ऑपरेशन कोकून’ (Operation Cocoon) नामक योजना के तहत उसे मार गिराया।
18 अक्टूबर 2004 की रात, जब वह एक एंबुलेंस में वेश बदलकर जा रहा था, तभी पुलिस ने उसे धर्मपुरी जिले के पापरपट्टी गांव के पास घेर लिया।

मुठभेड़ में वीरप्पन और उसके तीन साथी मारे गए। इस प्रकार 33 वर्षों का आतंक समाप्त हुआ।


वीरप्पन की विरासत और चर्चा

वीरप्पन की मौत के बाद भी उसकी कहानी लोगों के बीच जिंदा है।
उस पर कई डॉक्यूमेंट्री, फिल्में और किताबें बन चुकी हैं —
जैसे “Veerappan: Chasing the Brigand”, “Killing Veerappan” (राम गोपाल वर्मा की फिल्म), और कई टीवी सीरीज़।

उसकी कहानी सिर्फ अपराध की नहीं, बल्कि प्रशासनिक असफलता और जंगल के समाज की वास्तविकता को भी उजागर करती है।


निष्कर्ष

वीरप्पन एक ऐसा नाम है जो भारतीय अपराध इतिहास में रहस्य, भय और रोमांच का प्रतीक बन गया।
वह न केवल एक तस्कर था बल्कि एक ऐसा व्यक्ति था जिसने वर्षों तक भारत की पुलिस और सरकार को चुनौती दी।
उसकी मौत के साथ एक युग का अंत हुआ, लेकिन उसकी कहानी आज भी यह सवाल छोड़ जाती है —
क्या व्यवस्था की कमज़ोरियों ने वीरप्पन जैसे अपराधियों को जन्म नहीं दिया?

बेनजीर भुट्टो और मेरी पीढ़ी

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2007 में आज के ही दिन आठ साल के स्वनिर्वासन के बाद बेनजीर भुट्टों पाकिस्तान लौंटी। कुछ ही घंटो में उनके काफिले पर करांची में बमों से हमला किया गया। इस हमले से वह बच गईं किंतु इसी दिसंबर में उनकी हत्याकर दी गई। उनकी हत्या के समय लिखा गया मेरा लेख।

और मेरी पीढ़ी पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर अली भुट्टों के निधन से हुई क्षति के बारे लोगों की अलग-अलग राय होगी। कोई इसे जमहूरियत पर कुर्बानी करार दे रहा है तो कोई इसे पाकिस्तान में अमेरिकी पॉलिसी की हार बता रहा है । किसी का कहना है कि यह पाकिस्तान की बहुत बड़ी क्षति है तो कोई बेनजीर के पति और उनके बच्चों के लिए असहनीय हादसा मान रहा है। कुछ भी हो बेनजीर का निधन भारत में जन्मी मेरी पीढ़ी का बहुत बड़ा नुकसान है । और है उनके एक खूबसूरत सपने का अंतः। बेनजीर की मौत ने मेरी पीढ़ी के समय की धुंध में छिपे घाव को फिर कुरेद दिया। फिर से उन्हे एक नई हवा दे दी। 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ। इस जंग में पाकिस्तान को भारी पराजय का सामना करना पड़ा। दुनिया के नक्शे पर बांग्ला देश नाम से नया मुल्क उभरा। भारत से सात पीढ़ी तक युद्ध करने का दंभ भरने वाले पाकिस्तान के प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा। समझौता वार्ता भारत में होनी थी। वार्ता के लिए इंद्र की नगरी जैसे खूबसूरत पर्वतीय शाहर शिमला को चुना गया। जुल्फिकार अली भुट्टो वार्ता के लिए भारत आए। उनके साथ आई सतयुग काल की अप्सरा रंभा,उर्वषी और मेनका की खूबसूरती को याद दिलाती उनकी बेटी बेनजीर । बेनजीर वास्तव में बेनजीर थी। जब यह भारत आई तो उसकी उम्र 19 साल के आसपास रही होगी। उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा की मृगनयनी जैसी बेनजीर मेरी पीढ़ी के युवाओं को रांझा बना देने के लिए काफी थी।आज मेरी पीढ़ी बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी है। बेनजीर के शिमला आने के समय वह नौजवान थी। उसकी उम्र 18 से 21 साल के बीच रही होगी। प्रत्येक नौजवान की तरह इसके भी अपने – अपने सपने थे। सबकी अपनी अपनी हीर थी ,सबकी अपनी -अपनी राधा थी। मेरी जवानी के दौर की प्रसिद्ध हिरोइन थीं- मधुबाला,मीना कुमारी,आशा पारिख,वहीदा रहमान आदि- आदि।हरेक नौजवान की तमन्ना थी कि उसकी सपनों की रानी इनसे कुछ कम न हो। बेनजीर भारत आई तो समझौते की खबरों के साथ-साथ उसकी खूबसूरती,स्टाइल की खबरें मेरी पीढ़ी को मिली। इन खबरों ने उसकी सपनों की रानी की छवि ही बदल दी। उस समय के हर नौजवान की तमन्ना हुई कि उसके आंगन की तुलसी कोई और नही सिर्फ- और सिर्फ बेनजीर हो।उस समय समाचार सुनने के लिए रेडियो ही था। मेरी पीढ़ी ने शिमला समझौते के समाचार आकाशवाणी और बीबीसी से सुने। भारत युद्ध में जीत चुका था। देश भक्ति का जोश सबमें भरा था। हरेक जानना चाहता था कि शिमला में क्या हो रहा है, किंतु मेरी पीढ़ी की इच्छा यह जानने में रहती कि बेनजीर कैसी हैं। क्या पहने हैं,क्या कर रही है। परिवार से बचकर छुपकर या परिवार वालों के समाचार सुनने के दौरान बुलैटिन में बेनजीर के बारे में प्रसारित होने वाले समाचारो को सुनने की उत्सुक होती। अखबारों में छपे

बेनजीर के फोटो ,उसकी चर्चा में युवाओं की ज्यादा रूचि रहती। आपस में चर्चा का सबसे बड़ा मुद्दा उस समय बेनजीर ही रही।शिमला के बेनजीर के प्रवास के पांच दिन मेरी पीढ़ी के युवाओं में एक ऐसा अहसास और ऐसा नशा भर गए कि उनके सपनों की रानी ही बदल गई। बेनजीर के भारत से वापस जाने का बहुत अहसास रहा। उनकी तमन्ना यह थी कि यह परी भारत के आंगन को ही महकाए।पर ऐसा हुआ नहीं।शिमला वापसी के बहुत दिन बाद तक मेरी पीढ़ी के युवाओं ने जमकर आहें भरी। कुछ की यह दीवानगी तो काफी समय तक जारी रही।वख्त के साथ साथ जिंदगी की 35-36 साल की जददोजहद में बहुत कुछ पीछे छूट गया। बेनजीर की यादें भी धुंधला गईं । जीवन के इस सफर में क्या छूटा पता नहीं,किंतु जो मिल गया उसको मुकद्दर समझकर जीवन की जंग जारी रखी। जवानी के तेज से चमकने वाली आंखों पर कब चश्मा आ गया ,केशा?वदास के सफैद बालों को देख सोने के बदन वाली मृगलोचनी कब बाबा कहने लगी,पता नही चला। किंतु बेनजीर के निधन के समाचार ने मुझे आज 35-36 साल पीछे धकेल मेरी पीढ़ी की जवानी की, उसकी हीर , उसकी उर्वश की याद ताजा करा दी। जिंदगी की जंग में मेरी पीढ़ी ने हार नहीं मानी। बहुत कुछ खोने के बाद भी दुनिया के विकास में कोई कसर नही छोड़ी ,किंतु जवानी का बेनजीर जैसा खूबसूरत सपना टूट जाए ,तो बहुत ज्यादा मलाल होता है। पाकिस्तान , पाकिस्तान के आवाम को नुकसान हुआ हो या नही किंतु बेनजीर के निधन से हिंदुस्तान की मेरी पीढ़ी को तो बहुत नुकसान हुआ है।

अशोक मधुप

मैथिली ठाकुर से क्या दिक्कत है?

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मैथिली ठाकुर से क्या दिक्कत है?। आप कहेंगे कि मैथिली को राजनैतिक अनुभव नहीं है। सदन में होने के लिये आवश्यक बौद्धिकता नहीं होगी उसमें। यही न? बिहार में नीतीश जी को छोड़ दिया जाय तो दोनों पक्षों के शीर्ष पर दिख रहे नई पीढ़ी के अधिकांश नेताओं से अधिक बौद्धिक है वह लड़की। नाम ले कर बताएं क्या? तुलना कर के देख लीजियेगा।

आप कहेंगे कि उसकी आयु कम है। तेजस्वी जी, तेजप्रताप जी, सम्राट जी, चिराग जी आदि लोग जब राजनीति में आये तब क्या उम्र थी उनकी? जिस आयु में वह चुनाव लड़ने आई है, लगभग उसी आयु में हमने तेजस्वी जी को बिहार का उपमुख्यमंत्री बना दिया था। फिर उस लड़की के लिए अलग मापदंड क्यों है?

आप कह रहे हैं कि गीत संगीत के लोगों को टिकट देना गलत है। मैं इस बात का समर्थन करना चाहता हूं, लेकिन फिर पवन सिंह के पीछे चलती लाखों की भीड़ याद आती है। आज ही खेसारी लाल यादव का नॉमिनेशन है, उनके पीछे खड़ी भीड़ देख लीजिये। नाचने गाने वाले लोग एकतरफा जीत जाएंगे, राजनैतिक दलों को यह भरोसा तो हमीं ने दिया है न?

यूपी बिहार में कमसे कम आधा दर्जन नेता ऐसे हैं जो भोजपुरी फिल्मी दुनिया से आये हैं। आप उन सभी से मैथिली ठाकुर की तुलना कर के देखिये। इस लड़की ने कभी फूहड़ नहीं गाया, हिट होने के लिए अश्लीलता नहीं परोसी। यदि आपको वे लोग नापसंद नहीं हैं, फिर यह क्यों नापसंद है?

इसी चुनाव में लोजपा ने मढ़ौरा से सीमा सिंह को टिकट दिया है। वे “आईटम डांसर” हैं। 300 भोजपुरी फिल्मों में अश्लील गानों पर अर्धनग्न नाची हैं। हम आप उनका विरोध कर पा रहे हैं क्या? मैथिली क्या उनसे भी बुरी कैंडिडेट है?

कहा जा रहा है कि ‘वह स्टार है, जीतने के बाद भी लोगों से मिलेगी नहीं।’ सम्भव है कि सचमुच ऐसा ही हो। पर यह भी तो सम्भव है कि जीतने के बाद वह नेताओं से अधिक क्षेत्र में रहने लगे। हम पहले ही दावा कैसे कर लेते हैं?

मैथिली ठाकुर का राजनीति में कूद पड़ना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। वे जिस पैटर्न से राजनीति में आईं हैं, वह नया नहीं है। इसी पैटर्न से लोग आते रहे हैं और इस बार भी बहुत लोग आए हैं।

अब राजनीति का जो स्वरूप है उसमें किसी सामान्य कार्यकर्ता का चुनाव लड़ कर जीत जाना बहुत बड़ी बात है। पार्टियां राज्य भर में एक आध कार्यकर्ताओं को टिकट दे देती हैं ताकि कार्यकर्ताओं की उम्मीद बनी रहे। लोग दरी बिछाते रहें, नारा लगाते रहें। टिकट पर दावेदारी अब या तो पूंजीपतियों की है, या दूसरे फील्ड से आये चर्चित लोगों की… पैसा न हो तो आदमी पंचायत का चुनाव नहीं जीत पायेगा, विधायक बनना तो बहुत बड़ी बात है।

मैथिली को शुभकामनाएं। उम्मीद है कि इसके बाद भी वह अपने अंदर की गायिका को ही आगे रखेगी।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

त्योहारी सीजन में ई-कॉमर्स कंपनियों की बल्ले-बल्ले

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बाल मुकुन्द ओझा

त्योहारी सीजन में बाजार ने तूफानी तेजी पकड़ रहा है, लेकिन सबसे ज्यादा तेजी ऑनलाइन बाजार में ही दिखाई पड़ रही है। आज जिसे देखो वह ऑनलाइन बाजार से खरीददारी के लिए व्यस्त है। इसमें ग्राहक और कंपनियों दोनों का फायदा भी हो रहा है। ग्राहक को घर बैठे मनपसंद सामान मिल रहा है तो वहीं कंपनियों के सामने के लिए एक बहुत बड़ा मार्केट भी बन रहा है। एक लोकल सर्वे ने ऑनलाइन शॉपिंग को लेकर सर्वे किया था जिसमें अधिकांश लोगों ने बताया था कि उन्होंने ऑनलाइन शॉपिंग को चुना है। इससे बाजार की भीडभाड से भी राहत मिल रही और लोगों के सामने विकल्प चुनने के भी की ब्रॉड मौजूद थे। इसीलिए विदेशों की तर्ज पर भारत में भी ऑनलाइन शॉपिग तेजी से बढ़ रही है। देश में इ-कॉमर्स का बाजार इन दिनों अपनी बूम पर है।  यह सच है, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर कई प्रकार की मनभावक छूट, ऑफर और घर बैठे डिलीवरी की सुविधा मिलती है, यह भी सही है, ऑनलाइन खरीदारी में समय और ऊर्जा की बचत होती है, परंतु नकली प्रोडक्ट्स और डिलेवरी की दिक्कतें भी आम हैं। अब ग्राहकों को सावधानी तो रखनी ही होगी अन्यथा सावधानी हटी और दुर्घटना घटी।

त्योहार के सीजन में लगभग 70 करोड़ ग्राहक बाज़ारों में ख़रीदारी करते हैं और जहां 500 रुपये या उससे कम ख़रीदारी करने वाले लोग हैं वहीं हज़ारों और लाखों रुपये खर्च करने वालों की भी कमी नहीं है और इसीलिए देश में त्योहारी सीजन की महत्त्ता व्यापार की दृष्टि से बेहद ही महत्वपूर्ण है। त्योहारों पर जिस तरह से विभिन्न प्रकार की चीजों की बिक्री से बाजार गुलज़ार हो रहा है उससे साफ अंदाजा लगा सकते हैं कि आने वाले सभी त्योहारों पर खरीदारी के लिए ग्राहक मन बना चुके हैं। लोग खरीदारी के लिए बाजारों में पहुंच रहे हैं। दुकानें ग्राहकों से गुलजार होने लगी है। बाजारों में चहल पहल व भीड़-भाड़ देखने को मिल रही है। ऑनलाइन शॉपिंग की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा हुआ है। दुकानदारों का कहना है कि बाजार में खरीदारी करने वालों की भीड़ बढ़ रही है और आने वाले दिनों में कारोबार बढ़ने की उम्मीद है। त्योहारी सीजन से इलेक्ट्रॉनिक, कपड़ा, ऑटो मोबाइल, सराफा बाजार में ग्राहकों का रुझान बढ़ा है। पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों की बढ़ती संख्या से न केवल इन स्थलों की रौनक बड़ रही है बल्कि अच्छा कारोबार होने से कारोबारियों के चेहरों पर चमक देखने को मिल रही है। यह त्योहारी सीजन हालाँकि महंगाई की मार से उपभोक्ताओं को राहतभरा नहीं है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इस साल ऑनलाइन और ऑफलाइन प्लेटफॉर्म पर करीब छह लाख करोड़ रुपए का कारोबार होने का अनुमान है, जिसमें ऑनलाइन पर 1.20 लाख करोड़ रुपए के कारोबार का अनुमान लगाया जा रहा है, जो हमारे देश की जीडीपी का 3.2 प्रतिशत आंका गया है। नामी गिरामी ई-कॉमर्स कंपनियों ने त्योहारी सीज़न और जीएसटी में हालिया बदलाव का फायदा उठाना भी शुरू कर दिया है। उन्होंने पहले ही डिस्काउंट ऑफर देने शुरू कर दिए थे।  कई कंपनियों के विज्ञापन में 50 से 80 प्रतिशत  डिस्काउंट का  वादा किया है। अनुसंधान फर्म ‘डेटम इंटेलिजेंस’ की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2025 में जीएसटी दरों को आमजन के अनुकूल बनाने से इस साल त्योहारी बिक्री 27 प्रतिशत से बढ़कर 1.20 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकती है, क्योंकि टैक्स स्लैब को कम करने से कई जरूरी उत्पादों की कीमत में भारी कमी आई है, जिससे बिक्री में 15 से 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी की आशा है।

नई जीएसटी व्यवस्था में अब सिर्फ 5 और 18 प्रतिशत के 2 टैक्स स्लैब रखे गए हैं और कुछ दरों को पूरी तरह से हटा दिया गया है, जिससे ग्राहकों को 10 प्रतिशत तक की बचत होने का अनुमान है। नई जीएसटी व्यवस्था में टीवी, एसी, इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स पर विशेष तौर पर बचत होगी। रिपोर्ट के मुताबिक विगत तीन वर्षों में पहली बार शहरी उपभोक्ताओं के खर्च में वृद्धि देखी गई है। सिर्फ जुलाई महीने में 37.6 प्रतिशत उपभोक्ताओं ने अपने गैर-जरूरी खर्च में वृद्धि की है।

कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने बीते महीने एक सर्वे करवाया था, जिसके अनुसार इस साल सिर्फ रक्षा बंधन, गणेश पूजा, नवरात्रि और दिवाली के दौरान लगभग 4.80 लाख करोड़ रुपए के ऑफलाइन कारोबार होने का अनुमान है। दुकानदार और ऑनलाइन कम्पनियाँ जहां इन त्योहारों में आकर्षक ऑफर तथा डिस्काउंट की पेशकश कर ग्राहकों को रिझाने का प्रयास करते हैं, वहीं ग्राहक भी इन आकर्षक ऑफरों का लाभ उठाकर जमकर खरीदारी करते हैं। ऑनलाइन सेल में सामान सस्ता जरूर मिल रहा है मगर उपभोक्ता को सावधानी रखनी पड़ेगी क्योकि ठगी करने वाले गिरोह भी सक्रीय हो गए है। जो भोले भले लोगों को सस्ते माल के चक्कर में फंसा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे है। अधिकृत प्लेटफॉर्म का उपयोग करें। बैंक स्टेटमेंट और पासवर्ड सुरक्षा सुनिश्चित करें। कैश ऑन डिलीवरी अपनाएँ और फर्जी ऑफर्स से बचें। ऐसे में लोगों ने सतर्कता नहीं रखी तो सस्ते में माल खरीदना महंगा भी पड़ सकता है।

बाल मुकुन्द ओझा

वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार

डी 32 मॉडल टाउन, मालवीय नगर, जयपुर