प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 75वें जन्मदिन पर मध्य प्रदेश के बदनावर तहसील के भैंसोला गांव में पीएम मित्र पार्क की आधारशिला रखते हुए यह संदेश दिया कि “स्वदेशी ही खरीदो, स्वदेशी ही बेचो”। यह नारा सुनने में जितना आकर्षक लगता है, उतना ही व्यवहार में कठिन भी है। वजह साफ है कि आज भारत का बाजार विदेशी कंपनियों से भरा पड़ा है। चाहे ऑनलाइन व्यापार हो या दूरसंचार सेवा, विदेशी और निजी कंपनियों ने उपभोक्ता को सस्ती दरों, आकर्षक छूट और बेहतर सुविधाओं का आदी बना दिया है। ऐसे में केवल स्वदेशी खरीदने का मतलब आम आदमी के लिए अपनी जेब पर अतिरिक्त बोझ डालना है। बीएसएनएल की स्थिति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कभी देश की शान रही यह स्वदेशी दूरसंचार कंपनी आज अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में है। जबकि जियो और एयरटेल जैसी कंपनियां न सिर्फ आधुनिक सेवाएं दे रही हैं, बल्कि भारी मुनाफा भी कमा रही हैं। उपभोक्ता भी जानता है कि बीएसएनएल का नेटवर्क कमजोर है, सेवाएं धीमी हैं और सुविधाएं सीमित। अब ऐसे में वह केवल स्वदेशी के नाम पर खराब सेवा क्यों खरीदे? यही समस्या लगभग हर क्षेत्र में दिखती है।ऑनलाइन बाजार में अमेज़न, मीशो और फ्लिपकार्ट जैसी विदेशी कंपनियों का बोलबाला है। वे ग्राहक को आकर्षक छूट, कैशबैक और सुविधाजनक डिलीवरी का लालच देती हैं। वहीं स्थानीय दुकानदार या स्वदेशी कंपनियां इतनी सुविधा नहीं दे पातीं। नतीजा यह होता है कि उपभोक्ता अपनी जेब और सुविधा को देखकर विदेशी कंपनियों की ओर खिंच जाता है। आखिर जब वही सामान विदेशी मंचों से सस्ता और आसानी से मिल रहा हो तो कोई क्यों महंगा स्वदेशी खरीदे? यही कारण है कि मोदी जी का नारा व्यवहार में मुश्किल साबित होता है। फिर भी यह बात भी उतनी ही सही है कि स्वदेशी के बिना आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना अधूरी है। यदि हम अपने देश के उद्योग, रोजगार और पूंजी को मजबूत करना चाहते हैं तो स्वदेशी को बढ़ावा देना ही होगा, लेकिन इसके लिए केवल भाषण और नारे काफी नहीं हैं। सरकार को विदेशी कंपनियों की मनमानी पर अंकुश लगाना होगा। स्वदेशी कंपनियों को आधुनिक तकनीक और वित्तीय सहयोग देना होगा, छोटे व्यापारियों को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने होंगे और उपभोक्ताओं को यह भरोसा दिलाना होगा कि स्वदेशी भी गुणवत्ता और कीमत के मामले में किसी से कम नहीं। असल चुनौती यही है कि उपभोक्ता को विकल्प देते समय उसकी जेब और सुविधा का ध्यान रखा जाए। यदि स्वदेशी सामान महंगा और साधारण गुणवत्ता वाला होगा तो वह विदेशी विकल्पों के आगे टिक नहीं पाएगा, लेकिन यदि स्वदेशी उत्पाद गुणवत्ता में बेहतर और कीमत में प्रतिस्पर्धी होंगे। तभी “स्वदेशी खरीदो, स्वदेशी बेचो” का सपना साकार होगा। इसलिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस आह्वान को केवल भावनात्मक नारा न समझकर, इसे व्यवहारिक बनाने के लिए ठोस नीति बनाई जाए। स्वदेशी कंपनियों को सहारा मिले, विदेशी कंपनियों की छूट और प्रभुत्व पर नियंत्रण हो और आम आदमी के लिए स्वदेशी चुनना बोझ नहीं, बल्कि गर्व और लाभ का सौदा बने। तभी यह नारा जन-आंदोलन का रूप ले सकेगा और आत्मनिर्भर भारत की राह मजबूत होगी।
हाल ही में, झारखंड में माओवादी संगठन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने एक शांति प्रस्ताव जारी कर केंद्र और राज्य सरकारों को चौंका दिया है। इस प्रस्ताव में उन्होंने एक महीने के लिए संघर्ष विराम और शांति वार्ता की मांग की है। यह पहली बार नहीं है कि माओवादियों ने शांति की बात की है, लेकिन जिस समय यह प्रस्ताव आया है, वह इसके पीछे के निहितार्थों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। यह प्रस्ताव ऐसे समय में आया है जब झारखंड सहित पूरे देश में सुरक्षाबलों द्वारा चलाए जा रहे आक्रामक अभियानों में माओवादियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा
माओवादियों का शांति प्रस्ताव दो पृष्ठों का एक पत्र है, जिसे उनके केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय द्वारा जारी किया गया है। इस पत्र में उन्होंने सरकार से एक महीने के लिए संघर्ष विराम घोषित करने, तलाशी अभियान बंद करने और शांति वार्ता के लिए एक अनुकूल माहौल बनाने की अपील की है। उन्होंने यह भी कहा है कि वे वीडियो कॉल के माध्यम से भी सरकार से बात करने को तैयार हैं। इस प्रस्ताव के पीछे के कारणों को लेकर कई अटकलें लगाई जा रही हैं। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि माओवादी लगातार हो रही मुठभेड़ों से बुरी तरह से घिर गए हैं। पिछले कुछ महीनों में, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सुरक्षाबलों को बड़ी सफलताएं मिली हैं। करोड़ों रुपये का इनामी कई शीर्ष माओवादी कमांडर मुठभेड़ों में मारे गए हैं। झारखंड के हजारीबाग में सुरक्षाबलों ने एक करोड़ रुपये के इनामी माओवादी कमांडर सहदेव सोरेन और दो अन्य नक्सलियों को मार गिराया है। यह एक बड़ी सफलता है क्योंकि सहदेव सोरेन बिहार-झारखंड के विशेष क्षेत्र समिति का सदस्य था। इसी तरह, छत्तीसगढ़ में भी सुरक्षाबलों ने एक करोड़ के इनामी मोडेम बालकृष्ण सहित कई नक्सलियों को ढेर किया है। ये ऑपरेशन सरकार द्वारा 2026 तक देश को नक्सल मुक्त बनाने के लक्ष्य का हिस्सा हैं। लगातार मुठभेड़ों और शीर्ष कमांडरों के मारे जाने से माओवादी संगठन की कमर टूट रही है। उनके कैडर हताश हो रहे हैं और नए लड़ाकों की भर्ती भी मुश्किल हो रही है। उनके हथियार और गोला-बारूद भी लगातार जब्त हो रहे हैं। ऐसे में, यह शांति प्रस्ताव उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ताकि वे कुछ समय के लिए राहत पा सकें। अपने बिखरे हुए कैडरों को फिर से संगठित कर सकें और अपनी ताकत को फिर से बढ़ा सकें।
यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या माओवादी लगातार हो रही मुठभेड़ों से डर गए हैं। इसका सीधा जवाब देना मुश्किल है, लेकिन कई संकेत इस ओर इशारा करते हैं। माओवादी आंदोलन का नेतृत्व आमतौर पर बेहद अनुभवी और कट्टर कैडरों के हाथ में होता है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में, सुरक्षाबलों ने लक्षित अभियानों के माध्यम से उनके शीर्ष नेतृत्व को निशाना बनाया है। जब संगठन के रणनीतिकार और कमांडर मारे जाते हैं, तो निचले स्तर के कैडर हताश हो जाते हैं और उनका मनोबल गिर जाता है। सरकार की विकास नीतियों और पुनर्वास कार्यक्रमों के कारण माओवादियों का जन समर्थन भी कम हुआ है। पहले, उन्हें आदिवासी समुदायों से काफी समर्थन मिलता था, लेकिन अब कई आदिवासी समुदाय मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं। सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें, स्कूल, अस्पताल और संचार सेवाएं पहुंचाई हैं, जिससे लोगों का माओवादियों पर भरोसा कम हुआ है। सुरक्षाबलों ने माओवादियों के खिलाफ अपनी रणनीति में काफी सुधार किया है। अब वे केवल जवाबी कार्रवाई नहीं करते, बल्कि खुफिया जानकारी के आधार पर लक्षित और आक्रामक अभियान चलाते हैं। ड्रोन, बेहतर संचार तकनीक और स्थानीय पुलिस के साथ तालमेल ने सुरक्षाबलों को माओवादियों पर भारी पड़ने में मदद की है। यह भी संभव है कि माओवादी अपनी पारंपरिक युद्ध रणनीति, जिसे “गुरिल्ला युद्ध” कहा जाता है, में बदलाव लाना चाहते हों। जब वे सीधे टकराव में हार रहे हैं, तो वे वार्ता की मेज पर आकर अपनी शर्तों को मनवाने की कोशिश कर सकते हैं।
माओवादियों के शांति प्रस्ताव पर सरकार का रुख सतर्क और स्पष्ट है। सरकार ने उनकी सशर्त पेशकश को नकार दिया है और कहा है कि अगर माओवादी बिना शर्त शांति वार्ता चाहते हैं, तो सरकार तैयार है। गृह मंत्री अमित शाह ने बार-बार कहा है कि सरकार का लक्ष्य 2026 तक देश को नक्सल मुक्त बनाना है, और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए अभियान जारी रहेगा।सरकार की सशर्त पेशकश को नकारने का कारण यह है कि माओवादियों ने पहले भी शांति प्रस्ताव का उपयोग अपनी ताकत को फिर से संगठित करने के लिए किया है। सरकार जानती है कि अगर वे तलाशी अभियान बंद करते हैं, तो माओवादियों को फिर से पैर जमाने का मौका मिलेगा। इसलिए, सरकार का रुख स्पष्ट है: या तो आत्मसमर्पण करो या फिर परिणाम भुगतो। यह शांति प्रस्ताव माओवादी आंदोलन के अंत की शुरुआत का संकेत हो सकता है। लगातार हो रहे नुकसान, जन समर्थन की कमी और सरकार की सख्त नीतियों ने उन्हें एक ऐसे मोड़ पर ला दिया है, जहां उनके पास बहुत कम विकल्प बचे हैं। अब, उन्हें यह तय करना है कि वे बंदूकें छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होते हैं या फिर अपने खात्मे की राह पर आगे बढ़ते हैं। यह भी संभव है कि माओवादी संगठन के अंदर ही अलग-अलग गुटों में मतभेद हों। कुछ गुट शांति वार्ता के पक्ष में हों, जबकि कुछ गुट अभी भी सशस्त्र संघर्ष जारी रखना चाहते हों। इस तरह के मतभेद संगठन की आंतरिक कमजोरी को दर्शाते हैं। झारखंड के माओवादियों का शांति प्रस्ताव उनकी मजबूरी और हताशा का परिणाम प्रतीत होता है। लगातार हो रही मुठभेड़ों और शीर्ष कमांडरों के मारे जाने से उनका संगठन कमजोर हुआ है और उनके पास संघर्ष को जारी रखने के लिए पर्याप्त ताकत नहीं बची है। सरकार का सख्त रुख और पुनर्वास की नीतियां उन्हें आत्मसमर्पण करने या बातचीत के लिए मजबूर कर रही हैं। हालांकि, यह देखना बाकी है कि यह प्रस्ताव वास्तव में शांति की दिशा में एक कदम है या केवल एक रणनीतिक चाल। लेकिन एक बात निश्चित है कि माओवादी आंदोलन अपने सबसे कमजोर दौर से गुजर रहा है, और यह संभवतः भारत में वामपंथी उग्रवाद के अंत की शुरुआत है। हाल ही में, एक वरिष्ठ माओवादी महिला लीडर पद्मावती उर्फ सुजाता उर्फ कल्पना ने तेलंगाना पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। सुजाता माओवादी पार्टी की केंद्रीय समिति की एकमात्र महिला सदस्य थी और उस पर 65 लाख से एक करोड़ रुपये तक का इनाम घोषित था। वह छत्तीसगढ़ में दंडकारण्य क्षेत्र की प्रभारी थी और उसके खिलाफ 70 से अधिक मामले दर्ज थे। उसका आत्मसमर्पण माओवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है।
“जहाँ विज्ञान चूक जाता है, वहाँ टिटहरी पहले चेताती है”
टिटहरी कोई साधारण पक्षी नहीं, बल्कि प्रकृति का मौन प्रहरी है। किसान उसके अंडों की संख्या, स्थान और समय देखकर बारिश, बाढ़ या अकाल का अनुमान लगाते रहे हैं। विज्ञान भी मानता है कि ऐसे पक्षी “इकोसिस्टम इंडिकेटर” होते हैं, जो पर्यावरणीय बदलावों का पहले से संकेत दे देते हैं। आज शहरीकरण और रसायनों के प्रयोग से इनका आवास खतरे में है। यदि हम टिटहरी जैसे पक्षियों की चेतावनी अनसुनी कर देंगे, तो भविष्य में आपदाओं के प्रति हमारी संवेदनशीलता और भी घट जाएगी। इसलिए ज़रूरी है कि हम इन्हें बचाएँ और इनके संदेश को गंभीरता से सुनें।
– डॉ सत्यवान सौरभ
भारत का ग्रामीण जीवन सदियों से प्रकृति के साथ गहरे संवाद में रहा है। खेत, मौसम और जीव-जंतु मिलकर किसान की दिनचर्या और भविष्य दोनों को प्रभावित करते हैं। इन सबके बीच टिटहरी एक ऐसा छोटा-सा पक्षी है, जो सामान्य आँखों से मामूली दिखता है, लेकिन किसानों और लोकजीवन की स्मृतियों में यह मौसम की सटीक भविष्यवाणी करने वाला प्रहरी माना जाता है। यह केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि धरती और आकाश के बीच संवाद का माध्यम है, एक मौन दूत है जो संकट और समृद्धि दोनों की आहट पहले ही दे देता है।
ग्रामीण अनुभव बताते हैं कि टिटहरी का व्यवहार मौसम और कृषि की दिशा तय करने में अहम संकेत देता है। यदि वह चार अंडे देती है तो चार महीने अच्छी वर्षा होने का विश्वास किया जाता है। जब वह ऊँचाई पर अंडे देती है, तो लोग मानते हैं कि सामान्य से अधिक वर्षा होगी। यदि कभी वह मजबूरी में छत या पेड़ पर अंडे दे, तो यह भीषण बाढ़ का संकेत माना जाता है। वहीं, यदि वह अंडे न दे तो यह सबसे डरावनी स्थिति होती है, क्योंकि लोग इसे अकाल का दूत मानते हैं। किसान कहते हैं कि जिस खेत में टिटहरी अंडे देती है, वह खेत खाली नहीं रहता। वहाँ फसल ज़रूर होती है। इस तरह यह पक्षी न केवल वर्षा और मौसम से जुड़े संकेत देता है बल्कि उपजाऊपन और अकाल जैसी चरम स्थितियों की चेतावनी भी बन जाता है।
लोकजीवन में एक और मान्यता है कि टिटहरी का मृत शरीर कुरुक्षेत्र के अलावा कहीं दिखाई नहीं देता। चाहे यह तथ्य हो या प्रतीकात्मक कल्पना, लेकिन यह विश्वास उसे जीवन और अस्तित्व की रक्षा का प्रतीक बना देता है। टिटहरी को देखने वाला किसान समझ जाता है कि यह पक्षी उसकी मिट्टी, फसल और भविष्य का पहरेदार है। यही कारण है कि ग्रामीण लोकगीतों और कहावतों में भी टिटहरी का उल्लेख मिलता है। यह उन जीवों में से है जिनकी गतिविधियों पर पीढ़ियाँ भरोसा करती रही हैं।
अब सवाल उठता है कि जब विज्ञान मौसम की भविष्यवाणी के लिए उपग्रह, राडार और कंप्यूटर मॉडल जैसे अत्याधुनिक साधन लेकर आया है, तब टिटहरी जैसे पक्षियों की भूमिका क्या रह जाती है। वास्तव में इसका उत्तर यही है कि विज्ञान और लोकअनुभव एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो टिटहरी जैसे पक्षी पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। हवा की नमी, तापमान का उतार-चढ़ाव, भूमि की नमी, जल स्तर का बढ़ना या घटना – इन सबका असर उनके व्यवहार पर पड़ता है। यही कारण है कि वैज्ञानिक भाषा में इन्हें “इकोसिस्टम इंडिकेटर” कहा जाता है। यानी ऐसे जीव जो अपने आचरण के माध्यम से हमें पर्यावरणीय बदलावों की समय रहते जानकारी दे देते हैं।
हमारे पूर्वजों ने विज्ञान के औज़ारों का सहारा लिए बिना ही इन संकेतों को अनुभव के आधार पर समझा और उनका लाभ उठाया। सदियों से किसान टिटहरी की गतिविधियों पर नज़र रखते आए हैं। अगर वह अंडे देने का समय टाल दे तो किसान पहले से ही सतर्क हो जाते थे। यदि वह ज़मीन छोड़कर ऊँचाई पर चली जाए, तो वे अधिक वर्षा और संभावित जलभराव को लेकर चौकन्ने हो जाते थे। इस प्रकार लोकानुभव ने जो बातें कही हैं, वे वास्तव में वैज्ञानिक कारणों से जुड़ी हुई हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि किसानों ने इन्हें अपनी भाषा और प्रतीकों में व्यक्त किया।
आज जब हम शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की चमक में डूबे हैं, तब सबसे बड़ा संकट यही है कि हमने प्रकृति की इस मौन भाषा को सुनना लगभग छोड़ दिया है। शहरों में रहने वाला इंसान यह नहीं जानता कि कब कोई पक्षी अपनी आदत बदल रहा है, कब उसकी संख्या घट रही है या कब उसका स्वर बदल रहा है। यही लापरवाही हमें अचानक आने वाली आपदाओं के सामने असहाय बना देती है। यदि हम टिटहरी और अन्य पक्षियों के संदेशों को गंभीरता से लें तो आपदा प्रबंधन की हमारी क्षमता कई गुना बढ़ सकती है।
टिटहरी के बारे में यह भी कहा जाता है कि यह पक्षी खेत को कभी खाली नहीं छोड़ता। उसका वहाँ अंडे देना किसानों के लिए आश्वासन का प्रतीक है। यह विश्वास अपने आप में गहरा संदेश है कि प्रकृति मनुष्य को निराश नहीं करती, बशर्ते हम उसका सम्मान करें। लेकिन जब हम प्रकृति के नियम तोड़ते हैं, उसके साथ छेड़छाड़ करते हैं, तब उसके प्रहरी पक्षी भी अपने संकेत बदलने को मजबूर हो जाते हैं। यही वजह है कि कई बार बाढ़ या अकाल जैसी स्थिति का पूर्वाभास हमें टिटहरी के व्यवहार से पहले ही मिल जाता है।
इस पक्षी का महत्व केवल ग्रामीण जीवन तक सीमित नहीं है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन का हर रूप पर्यावरण के विशाल ताने-बाने से जुड़ा है। जब एक छोटा-सा पक्षी अपने अंडों के ज़रिए भविष्य की तस्वीर दिखा सकता है, तब यह हमारे लिए चेतावनी भी है कि हम इस तंत्र के साथ खिलवाड़ न करें। विज्ञान भी यही कहता है कि पर्यावरण में सूक्ष्मतम बदलाव का सबसे पहले असर पक्षियों और छोटे जीवों पर दिखाई देता है। यदि हम समय रहते उन्हें सुन लें, तो बड़ी त्रासदियों से बच सकते हैं।
संपादकीय दृष्टि से यह कहना उचित है कि टिटहरी कोई साधारण पक्षी नहीं है। यह हमें यह समझाती है कि ज्ञान केवल प्रयोगशालाओं और उपग्रहों से नहीं आता, बल्कि खेत-खलिहानों और जीव-जंतुओं के आचरण से भी आता है। आधुनिक विज्ञान जहाँ आँकड़ों और तकनीक पर आधारित है, वहीं टिटहरी सहज संवेदना और प्राकृतिक जुड़ाव पर आधारित चेतावनी देती है। दोनों के बीच पुल बनाना ही आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
आज की स्थिति में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न संरक्षण का है। यदि टिटहरी जैसे पक्षी हमारे बीच से लुप्त हो जाएँगे तो न केवल लोकविश्वास टूट जाएगा, बल्कि पर्यावरणीय चेतावनी प्रणाली का एक अहम हिस्सा भी खो जाएगा। इसके संरक्षण के लिए हमें खेतों में अत्यधिक कीटनाशकों का उपयोग कम करना होगा, प्राकृतिक आवासों को सुरक्षित रखना होगा और जलस्रोतों को बचाना होगा। यह केवल एक पक्षी का संरक्षण नहीं होगा, बल्कि अपने भविष्य और अस्तित्व की रक्षा भी होगी।
निष्कर्ष यही है कि जहाँ विज्ञान आँकड़ों और मशीनों पर भरोसा करता है, वहीं टिटहरी जैसी पक्षियाँ सहज चेतावनी देती हैं। विज्ञान देर से अलर्ट करता है, लेकिन टिटहरी पहले से सावधान कर देती है। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि हम इस मौन संवाद को सुनें और उसके अनुसार कदम उठाएँ। यदि हमने इस आवाज़ को नज़रअंदाज़ किया, तो आने वाले समय में न केवल टिटहरी गायब हो जाएगी, बल्कि उसका दिया हुआ संदेश भी हमारे जीवन से खो जाएगा।
आजकल दुनिया भर में राजनीति बड़ी अजीब राह पकड़ रही है। कभी बांग्लादेश से तख्तापलट की खबर आती है, कभी नेपाल में उथल-पुथल की। अब ऐसे में कई लोग सोचते हैं कि कहीं भारत में भी वैसा हाल न हो जाए। कुछ तो यहां तक उम्मीद लगाए बैठे हैं कि काश हमारे यहां भी सत्ता छीनने का खेल शुरू हो जाए, लेकिन उन्हें साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि भारत कोई कमजोर मुल्क नहीं है।
भारत का लोकतंत्र सिर्फ किताबों और भाषणों में नहीं, बल्कि आम जनता की सांसों में बसा है। यहां हर आदमी जानता है कि उसका वोट ही असली ताक़त है। आज देश की बागडोर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे मज़बूत नेता के हाथ में है। चाहे कोई पसंद करे या न करे, लेकिन यह सच्चाई है कि मोदी जी ने भारत को एक अलग पहचान दी है। दुश्मन देश भी मानते हैं कि अब भारत पहले से कहीं ज्यादा ताक़तवर और चौकस है। हमारी सेना हमेशा सजग रहती है और जनता देशभक्ति से भरी पड़ी है।अब सवाल यह है कि जब इतना सब मज़बूत आधार मौजूद है तो यहां तख्तापलट की गुंजाइश ही कहां बचती है? हां, राजनीति में गन्दे खेल खूब होते हैं। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, तो कभी भाषा के नाम पर लोग बांटने की कोशिश करते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में कुछ चेहरे ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ कुर्सी की फिक्र है, देश की नहीं। लेकिन देश अगर सिर्फ कुर्सी की राजनीति में फंसकर रह जाए तो तरक्की का सपना अधूरा रह जाएगा। आज पंजाब समेत कई हिस्से बाढ़ की मार झेल रहे हैं। खेत डूब गए, फसलें बर्बाद हो गईं, गरीबों के घर उजड़ गए। ऐसे वक्त में नेताओं को राजनीति छोड़कर जनता के साथ खड़ा होना चाहिए। सत्ता और विपक्ष दोनों को मिलकर राहत का काम करना चाहिए। अगर इस मौके पर भी सिर्फ बयानबाज़ी होगी तो जनता का भरोसा उठ जाएगा।भारत का लोकतंत्र वोट की ताक़त से चलता है, गोली-बारूद से नहीं। यहां जनता जब चाहे तो सरकार बदल देती है। यही लोकतंत्र की असली ताक़त है। कोई सोचता है कि यहां तख्तापलट होगा तो वो भूल जाए। यहां जनता ही असली मालिक है और वही तय करती है कि कौन राज करेगा और कौन बाहर जाएगा। हमारी सेना दुनिया की सबसे मज़बूत सेनाओं में गिनी जाती है। हमारे जवान चौबीसों घंटे सीमा पर तैनात रहते हैं। अगर कोई साज़िश भी होती है तो जनता और सेना मिलकर उसे धूल चटा देती है। यही फर्क है भारत और हमारे पड़ोसी मुल्कों में। जहां वहां अस्थिरता हावी रहती है, वहीं भारत एकता और लोकतंत्र से मज़बूत खड़ा है। अब जब हम “विकसित भारत” का नारा लगाते हैं तो इसका मतलब यही होना चाहिए कि हम राजनीति के छोटे-मोटे झगड़ों से ऊपर उठकर देश की तरक्की में लगें। बेरोजगारी, महंगाई, किसानों की दिक्कतें और आपदाओं से निपटने में अगर हर पार्टी और हर नागरिक मिलकर काम करेगा, तभी भारत सच्चे मायनों में आगे बढ़ पाएगा। भारत की असली पहचान उसकी एकता है। धर्म, जाति, भाषा चाहे कितनी भी अलग हों, लेकिन जब बात देश की आती है तो हर भारतीय एक साथ खड़ा हो जाता है। यही वजह है कि यहां तख्तापलट जैसी हरकतों का कोई सवाल ही नहीं उठता।
“प्रसवोत्तर देखभाल: माँ का साथ सास से ज्यादा कारगर”
“माँ की गोद में मिलती सुरक्षा, सास की भूमिका पर उठे सवाल”
अध्ययन बताते हैं कि प्रसव के बाद महिलाओं की देखभाल करने में सास की तुलना में उनकी अपनी माँ कहीं अधिक सक्रिय और संवेदनशील रहती हैं। लगभग 70 प्रतिशत प्रसूताओं को नानी से बेहतर सहयोग मिला, जबकि मात्र 16 प्रतिशत को सास से सहायता मिली। यह बदलाव संयुक्त परिवारों के टूटने और आधुनिक सोच का परिणाम है। नानी का भावनात्मक जुड़ाव और मातृत्व का अनुभव बेटी के लिए सहारा बनता है। हालांकि सास की भूमिका कमजोर पड़ना पारिवारिक संतुलन के लिए चुनौती है। ज़रूरी है कि माँ और सास दोनों मिलकर जिम्मेदारी निभाएँ।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
भारतीय समाज में परिवार की भूमिका जीवन के हर पड़ाव पर महत्वपूर्ण होती है। जब घर में नया जीवन जन्म लेता है, तब यह जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। प्रसव एक ऐसा समय है जब महिला शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर होती है। उसे सिर्फ चिकित्सकीय सहायता ही नहीं, बल्कि गहरे स्तर पर देखभाल, सहारा और संवेदनशीलता की ज़रूरत होती है। परंपरागत रूप से यह जिम्मेदारी संयुक्त परिवारों में सास की मानी जाती थी, लेकिन बदलते दौर और सामाजिक संरचना के कारण यह भूमिका अब धीरे-धीरे माँ यानी नानी की ओर स्थानांतरित हो रही है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि प्रसव के बाद महिलाओं को अपनी सास की तुलना में अपनी माँ से कहीं अधिक देखभाल और सहयोग मिलता है।
यह तथ्य कई स्तरों पर सोचने को मजबूर करता है। एक ओर यह माँ और बेटी के रिश्ते की गहराई और भावनात्मक मजबूती को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर यह सवाल भी उठाता है कि सास जैसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिला इस प्रक्रिया में पीछे क्यों रह गई है। अध्ययन में पाया गया कि प्रसवोत्तर देखभाल में लगभग 70 प्रतिशत महिलाओं को उनकी अपनी माँ से सहयोग मिला, जबकि मात्र 16 प्रतिशत महिलाओं की देखभाल उनकी सास ने की। यह आँकड़ा अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है।
बेटी और माँ का रिश्ता हमेशा से भरोसे और आत्मीयता पर आधारित रहा है। प्रसव के बाद महिला अपने जीवन के सबसे नाजुक दौर से गुजरती है। उसका शरीर थका हुआ और कमजोर होता है, मानसिक रूप से वह असुरक्षा और चिंता का सामना करती है। ऐसे समय में वह सबसे पहले अपनी माँ के पास सहजता से जाती है। माँ न केवल उसकी तकलीफ को तुरंत समझती है बल्कि धैर्य और प्यार से उसका मनोबल भी बढ़ाती है। हर माँ ने मातृत्व का अनुभव किया होता है, इसलिए उसे पता होता है कि उसकी बेटी किन शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं से गुजर रही है। यही वजह है कि बेटी अपनी असली माँ की देखभाल को सबसे भरोसेमंद मानती है।
इसके विपरीत सास-बहू का रिश्ता भारतीय समाज में अक्सर औपचारिकताओं और अपेक्षाओं से घिरा होता है। बहू अपनी सास के सामने उतनी सहजता महसूस नहीं कर पाती। कई बार पीढ़ियों का अंतर भी इस दूरी को और बढ़ा देता है। सास का सोचने का तरीका पुराने अनुभवों पर आधारित होता है, जबकि आज की पीढ़ी की महिलाएँ आधुनिक चिकित्सा और नई जानकारी पर अधिक भरोसा करती हैं। जब बहू को लगे कि उसकी ज़रूरतों को पूरी तरह समझा नहीं जा रहा है, तो वह अपनी माँ की ओर झुक जाती है। यही वजह है कि प्रसव के समय सास की तुलना में नानी की भूमिका अधिक अहम दिखाई देती है।
इस बदलाव के पीछे एक और बड़ा कारण है संयुक्त परिवारों का टूटना और एकल परिवारों का बढ़ना। पहले प्रसव के समय बहू अपने ससुराल में ही रहती थी और पूरे परिवार की महिलाएँ उसकी देखभाल करती थीं। सास इस देखभाल की मुख्य जिम्मेदार मानी जाती थी। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। अधिकतर बेटियाँ प्रसव के समय मायके चली जाती हैं। वहाँ नानी स्वाभाविक रूप से जिम्मेदारी संभाल लेती है। यह प्रथा समाज में इतनी गहराई से जड़ पकड़ चुकी है कि अब यह लगभग सामान्य मान ली जाती है।
यह बदलाव कई दृष्टियों से सकारात्मक भी है। प्रसव के बाद महिला को भावनात्मक सुरक्षा मिलना बहुत ज़रूरी है। जब उसके पास उसकी अपनी माँ होती है, तो उसे मानसिक सुकून मिलता है। कई शोध बताते हैं कि प्रसवोत्तर अवसाद का खतरा उन महिलाओं में कम होता है जिन्हें अपनी माँ से पर्याप्त सहयोग मिलता है। नानी के अनुभव का लाभ शिशु को भी मिलता है। शिशु को समय पर स्तनपान कराना, उसकी सफाई और टीकाकरण जैसे छोटे-छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कामों में नानी की भूमिका बहुत कारगर साबित होती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रवृत्ति माँ और शिशु दोनों के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।
लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। जब सास की भूमिका कमजोर पड़ती है तो परिवारिक संतुलन प्रभावित होता है। बहू और सास के रिश्ते में दूरी और बढ़ सकती है। यह दूरी सिर्फ देखभाल तक सीमित नहीं रहती बल्कि परिवार की सामंजस्यपूर्ण संस्कृति पर भी असर डाल सकती है। आखिरकार सास भी खुद कभी इस प्रक्रिया से गुज़री होती है और उसके अनुभव की अहमियत को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। अगर उसका अनुभव और स्नेह इस प्रक्रिया में शामिल न हो, तो यह न केवल उसके लिए निराशाजनक होता है बल्कि बहू और शिशु दोनों उस सहयोग से वंचित रह जाते हैं जो उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा दे सकता है।
यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि प्रसवोत्तर देखभाल किसी एक व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है। यह पूरे परिवार की सामूहिक जिम्मेदारी है। अगर माँ और सास दोनों मिलकर इस दायित्व को निभाएँ, तो महिला को दोगुना सहयोग मिलेगा। यह स्थिति न केवल प्रसूता महिला के लिए बेहतर होगी बल्कि शिशु के लिए भी अधिक लाभकारी होगी। इसके अलावा, परिवार के भीतर रिश्तों की मिठास और विश्वास भी बढ़ेगा।
समाज को भी यह समझना होगा कि प्रसव जैसे समय में महिला को सिर्फ शारीरिक मदद ही नहीं बल्कि मानसिक सहारा और भावनात्मक सहयोग भी चाहिए। अगर महिला को लगे कि उसकी सास भी उसके दर्द और ज़रूरतों को समझती है, तो उसका आत्मविश्वास और बढ़ेगा। इसी तरह, अगर सास-बहू के बीच संवाद और विश्वास का रिश्ता मजबूत हो, तो देखभाल का संतुलन अपने आप स्थापित हो जाएगा।
आज जब स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारी योजनाओं की पहुँच बढ़ रही है, तब परिवार की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। अस्पताल और डॉक्टर अपना काम कर सकते हैं, लेकिन प्रसवोत्तर देखभाल का असली दायित्व घर और परिवार पर ही रहता है। परिवार के भीतर यह जिम्मेदारी अगर संतुलित ढंग से बाँटी जाए तो इसका लाभ सीधा माँ और शिशु दोनों को मिलेगा।
इसलिए यह आवश्यक है कि इस विषय पर जागरूकता बढ़ाई जाए। परिवारों को समझाया जाए कि प्रसवोत्तर देखभाल किसी प्रतिस्पर्धा का विषय नहीं है—यह माँ बनाम सास की लड़ाई नहीं है। बल्कि यह माँ और सास दोनों का संयुक्त दायित्व है। दोनों का अनुभव और स्नेह मिलकर प्रसूता महिला को वह सुरक्षा प्रदान कर सकता है, जिसकी उसे सबसे अधिक आवश्यकता होती है।
“सास से ज्यादा माँ की देखभाल बेहतर” यह शीर्षक समाज में एक बदलते रुझान का दर्पण है। यह रुझान बताता है कि प्रसव जैसे संवेदनशील समय में महिला अपनी असली माँ को ज़्यादा भरोसेमंद और सहयोगी मानती है। लेकिन आदर्श स्थिति वही होगी जब सास और माँ दोनों मिलकर यह जिम्मेदारी निभाएँ। यह न केवल प्रसूता महिला के स्वास्थ्य और मानसिक शांति के लिए अच्छा होगा, बल्कि शिशु की परवरिश और परिवारिक रिश्तों के सामंजस्य के लिए भी लाभकारी सिद्ध होगा। आखिरकार, स्वस्थ माँ और स्वस्थ शिशु ही स्वस्थ समाज की नींव रखते हैं।
“डिजिटलीकरण से सुरक्षित होगी धरोहर, रुकेगी बौद्धिक चोरी, और खुलेगा राष्ट्रीय पुनर्जागरण का मार्ग”
भारत की प्राचीन पांडुलिपियाँ केवल कागज़ पर लिखे शब्द नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की आत्मा हैं। इनमें विज्ञान, चिकित्सा, दर्शन और कला का अनमोल खजाना है। उपेक्षा और उपनिवेशकाल की लूट ने इन्हें खतरे में डाल दिया। प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान कि पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, समयानुकूल है। डिजिटलीकरण से संरक्षण, शोध और वैश्विक स्तर पर भारत की बौद्धिक अस्मिता सुनिश्चित होगी। यह केवल सांस्कृतिक परियोजना नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभियान है।
– डॉ सत्यवान सौरभ
भारत एक ऐसा देश है जिसकी पहचान उसकी सभ्यता और सांस्कृतिक परंपरा से होती है। यहाँ हजारों वर्षों से ज्ञान की धारा निरंतर बहती रही है। वेदों और उपनिषदों से लेकर आयुर्वेद, गणित, खगोल, साहित्य और संगीत तक, हमारी पांडुलिपियों ने विश्व को वह दिया है जो आज भी अद्वितीय और अनुपम है। किंतु इस धरोहर को व्यवस्थित ढंग से सुरक्षित करने और दुनिया तक पहुँचाने में हम बार-बार चूकते रहे। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हालिया कथन कि पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, अत्यंत प्रासंगिक और दूरदर्शी है। यह कथन केवल तकनीकी समाधान की ओर इशारा नहीं करता, बल्कि हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का संकल्प भी है।
भारतीय पांडुलिपियाँ केवल कागज़ या ताड़पत्र पर लिखे शब्द नहीं हैं। वे समाज की स्मृति हैं, परंपराओं की कहानी हैं और ज्ञान की धरोहर हैं। इनमें विज्ञान, चिकित्सा, खगोल, दर्शन और कला से लेकर जीवनशैली तक का संपूर्ण अनुभव सुरक्षित है। आयुर्वेद की पांडुलिपियों में आज भी ऐसी औषधियों और चिकित्सा विधियों का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रासंगिकता आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मानता है। गणित और खगोल से संबंधित पांडुलिपियों में शून्य, दशमलव और ग्रह-नक्षत्रों की गति का इतना विस्तृत विवरण है कि पश्चिमी जगत ने उनसे प्रेरणा लेकर अपने वैज्ञानिक शोध को दिशा दी। संगीत और नृत्य की पांडुलिपियाँ हमारी कलात्मक परंपरा को जीवित रखने का आधार हैं।
दुर्भाग्य यह रहा कि इन पांडुलिपियों की रक्षा के मामले में हम लापरवाह साबित हुए। उपनिवेशकाल में अंग्रेज और अन्य यूरोपीय विद्वान यहाँ से अनगिनत ग्रंथ ले गए। उन्होंने उनका अध्ययन किया और कई बार उनके अनुवाद अपने नाम से प्रकाशित कर दिए। योग और ध्यान की पद्धतियाँ, जो भारत की आत्मा हैं, विदेशों में अलग रूप में प्रस्तुत की गईं और उनसे भारी व्यावसायिक लाभ उठाया गया। आयुर्वेदिक नुस्खों और औषधीय पौधों पर विदेशी पेटेंट दर्ज हुए। हल्दी और नीम जैसे सामान्य ज्ञान पर भी कंपनियों ने अपना अधिकार जताने का प्रयास किया। यह सब हमारे लिए चेतावनी है कि यदि हम अपने ज्ञान की रक्षा नहीं करेंगे, तो दुनिया उसे हड़प लेगी।
यही वह संदर्भ है जिसमें डिजिटलीकरण का महत्व बढ़ जाता है। जब कोई पांडुलिपि डिजिटल रूप में दर्ज होगी तो उसका स्रोत और स्वामित्व स्थायी रूप से भारत के नाम पर रहेगा। यह बौद्धिक चोरी को रोकने का सबसे प्रभावी साधन होगा। इसके अतिरिक्त, डिजिटलीकरण से पांडुलिपियाँ सुरक्षित रहेंगी। समय, नमी, कीड़े और तापमान परिवर्तन से कागज़ व ताड़पत्र पर लिखी पांडुलिपियाँ क्षरण का शिकार होती हैं। डिजिटलीकरण उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षित रखेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि डिजिटलीकृत सामग्री दुनिया भर के शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों को उपलब्ध होगी। भारत का ज्ञान केवल संग्रहालयों की अलमारियों में बंद न रहकर वैश्विक मंच पर जीवंत रूप में सामने आएगा।
यह कार्य आसान नहीं है। भारत में अनुमानतः पचास लाख से अधिक पांडुलिपियाँ हैं। वे अलग-अलग भाषाओं और लिपियों में लिखी गई हैं—संस्कृत, पाली, प्राकृत, तमिल, तेलुगु, मलयालम, उर्दू, अरबी, फ़ारसी और अन्य भाषाओं में। कई लिपियाँ अब प्रचलन से बाहर हैं। उन्हें पढ़ना, समझना और डिजिटलीकरण करना विशेषज्ञता की मांग करता है। प्रामाणिकता बनाए रखना भी चुनौती है। अनुवाद या डिजिटल स्कैनिंग के दौरान यदि त्रुटियाँ रह गईं तो मूल ज्ञान विकृत हो सकता है। इसके अतिरिक्त, इतने बड़े कार्य के लिए वित्तीय संसाधन, प्रशिक्षित विशेषज्ञ और आधुनिक तकनीक की भी भारी आवश्यकता होगी।
सरकार ने राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन जैसी पहल की है, जो सराहनीय कदम है। परंतु यह कार्य केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, निजी संगठनों और तकनीकी विशेषज्ञों को भी इसमें भागीदारी करनी होगी। आधुनिक तकनीक का पूरा उपयोग करना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकें न केवल डिजिटलीकरण को आसान बना सकती हैं, बल्कि डेटा की सुरक्षा और खोजने की प्रक्रिया को भी विश्वसनीय बना सकती हैं।
यहाँ हमें वैश्विक अनुभव से भी सीखना चाहिए। यूरोप में “Europeana” परियोजना के तहत लाखों दस्तावेज और कला कृतियाँ ऑनलाइन उपलब्ध कराई गईं। अमेरिका और जापान ने भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर का डिजिटलीकरण कर उसे वैश्विक स्तर पर साझा किया। इन प्रयासों ने उन देशों की बौद्धिक और सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया। भारत यदि इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाता है, तो वह न केवल अपनी धरोहर को बचा सकेगा बल्कि विश्व को यह दिखा सकेगा कि ज्ञान की वास्तविक जन्मभूमि कहाँ है।
प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर भूपेन हजारिका का भी स्मरण किया। यह स्मरण केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि गहरी प्रतीकात्मकता रखता है। हजारिका ने अपने गीतों और संगीत के माध्यम से असम और भारत की आत्मा को स्वर दिया। उनकी रचनाएँ केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का स्रोत थीं। वे हमें यह बताते हैं कि संस्कृति जीवित रहे तो समाज जीवित रहता है। जिस प्रकार हजारिका की रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देंगी, उसी प्रकार पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण हमारी बौद्धिक स्मृतियों को अमर बनाएगा।
इस संदर्भ में यह भी समझना होगा कि डिजिटलीकरण केवल संरक्षण का कार्य नहीं है। यह राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभियान है। जब हम अपने ज्ञान को आधुनिक तकनीक से जोड़ेंगे, तब हम आत्मनिर्भर भारत के उस स्वप्न को साकार करेंगे, जिसमें परंपरा और नवाचार दोनों साथ चलते हैं। यह न केवल हमारी पहचान को सुदृढ़ करेगा बल्कि हमें वैश्विक मंच पर ज्ञान के वास्तविक स्वामी के रूप में स्थापित करेगा। यह ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की ओर भी बड़ा कदम होगा।
आज की दुनिया में प्रतिस्पर्धा केवल आर्थिक संसाधनों या सैन्य शक्ति की नहीं है। प्रतिस्पर्धा इस बात की भी है कि किसके पास अधिक मौलिक ज्ञान और बौद्धिक संपदा है। यदि भारत अपनी पांडुलिपियों को डिजिटलीकृत कर उनका पेटेंट और स्वामित्व सुरक्षित कर लेता है, तो वह बौद्धिक संपदा की इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अग्रणी बन सकता है। इसके अलावा, यह हमारी युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का भी साधन बनेगा। जो पीढ़ी आज इंटरनेट और मोबाइल की दुनिया में पल रही है, उसे तभी अपनी परंपरा से वास्तविक परिचय मिलेगा जब वह उसे डिजिटल रूप में देखेगी, पढ़ेगी और समझेगी।
पांडुलिपियाँ केवल अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शन हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि ज्ञान कभी स्थिर नहीं रहता। उसे समयानुकूल सुरक्षित, संरक्षित और साझा करना आवश्यक है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारी धरोहर केवल संग्रहालयों में बंद रह जाएगी और दुनिया उससे वंचित रह जाएगी। डिजिटलीकरण उस सेतु का काम करेगा जो अतीत की गहराई को भविष्य की संभावनाओं से जोड़ता है।
निस्संदेह, पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण एक लंबा और कठिन कार्य है। परंतु यह वही कार्य है जिससे हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और बौद्धिक स्वाभिमान जुड़ा हुआ है। यह केवल किताबों और कागज़ों को सुरक्षित रखने का प्रश्न नहीं है, बल्कि हमारी आत्मा और पहचान को बचाने का संकल्प है। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन कि डिजिटलीकरण “बौद्धिक चोरी” को रोकेगा, समय की पुकार है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार, समाज और तकनीकी विशेषज्ञ मिलकर इसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दें।
पांडुलिपियाँ हमारी स्मृति हैं। उनका डिजिटलीकरण हमें यह विश्वास दिलाता है कि भारत केवल अतीत की भूमि नहीं है, बल्कि भविष्य की दिशा भी है। जब हम अपने ज्ञान को संरक्षित करेंगे और उसे आधुनिक तकनीक से दुनिया तक पहुँचाएँगे, तब सचमुच भारत उस स्थान पर पहुँचेगा जहाँ वह सदियों से होना चाहिए था—ज्ञान का वैश्विक नेतृत्वकर्ता।
(सरलता और संघर्ष की आयरन लेडी, जहाँ माँ का स्नेह, समाज की चेतना और स्त्री-संकल्प की प्रतिमूर्ति साथ-साथ चलती रह
संतोष वशिष्ठ जी का जीवन संघर्ष और सरलता की अनोखी मिसाल है। उन्होंने रसोई से अपनी यात्रा शुरू की और दैनिक चेतना की संपादक बनकर समाज को दिशा दी।
मृदुभाषी, सौम्य और आत्मीय, फिर भी सिद्धांतों पर अडिग—यही उनकी असली पहचान थी। वशिष्ठ सदन को उन्होंने राजनीति और समाज का केंद्र बनाया और चेतना परिवार को माँ की तरह सँभाला। वे सचमुच हरियाणा की ‘आयरन लेडी’ थीं, जिनकी स्मृतियाँ और शिक्षाएँ हमें सदैव प्रेरित करती रहेंगी।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
कभी-कभी जीवन हमें ऐसे व्यक्तित्वों से मिलाता है, जो साधारण दिखाई देते हैं, परंतु भीतर से असाधारण ऊर्जा और सामर्थ्य से भरे होते हैं। वे लोग किसी मंच या रोशनी के सहारे नहीं चमकते, बल्कि अपने कर्मों की गरिमा से स्वयं दीप्त हो उठते हैं। हरियाणा की धरती पर जन्मी संतोष वशिष्ठ जी ऐसा ही एक नाम थीं। लोग उन्हें स्नेह और श्रद्धा से आयरन लेडी कहते थे। लेकिन यह उपाधि उनके कठोर स्वभाव की नहीं, बल्कि उनके अदम्य साहस और अटल सिद्धांतों की पहचान थी।
संतोष जी का जीवन जितना सरल दिखता है, उतना ही गहन और प्रेरणादायी है। वे उन दुर्लभ स्त्रियों में से थीं जिन्होंने गृहस्थी की जिम्मेदारियों और सामाजिक कर्तव्यों को एक साथ निभाया। उनकी वाणी मधुर, व्यवहार विनम्र और स्वभाव सौम्य था, लेकिन जब सिद्धांतों की बात आती तो वे चट्टान की तरह अडिग हो जातीं। उनके व्यक्तित्व का यही द्वंद्व उन्हें असाधारण बनाता था।
उनका जीवन इस सत्य की गवाही देता है कि महानता का आधार भव्य मंच या ऊँचे पद नहीं होते, बल्कि आत्मबल और निष्ठा होती है। उन्होंने अपने परिवार, समाज और पत्रकारिता—तीनों क्षेत्रों को समान महत्व दिया और हर जगह अपनी छाप छोड़ी।
रसोई से संपादक तक की यात्रा
संतोष जी की जीवन यात्रा साधारण नारी की तरह ही रसोई से प्रारंभ हुई। वे भोजन बनातीं, घर सँभालतीं, परिवार की जिम्मेदारियाँ निभातीं। लेकिन नियति ने उन्हें केवल गृहस्थी तक सीमित रहने नहीं दिया। परिस्थितियों ने, समय ने और उनके भीतर के संकल्प ने उन्हें उस राह पर खड़ा कर दिया जहाँ उन्हें समाज के लिए लिखना और बोलना पड़ा।
दैनिक चेतना के माध्यम से उन्होंने पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। इस अख़बार की नींव उनके पति, स्व. देवव्रत वशिष्ठ ने रखी थी। परंतु इसकी निरंतरता और मजबूती के पीछे संतोष जी का योगदान किसी स्तंभ से कम नहीं था। वे रसोई के काम से उठकर संपादकीय मेज़ पर बैठतीं और समाज की धड़कनों को शब्दों में ढाल देतीं। यही वह सफर था जिसे लोग सम्मानपूर्वक “रसोई से संपादक तक” कहते हैं।
उनके लिए पत्रकारिता केवल एक पेशा नहीं, बल्कि समाज की आत्मा को अभिव्यक्त करने का माध्यम थी। उन्होंने कभी सनसनीख़ेज़ ख़बरों की लालसा नहीं की, बल्कि हमेशा सच, नैतिकता और समाजहित को प्राथमिकता दी। यही कारण था कि दैनिक चेतना को पाठकों ने परिवार की तरह अपनाया और उस पर विश्वास किया।
वशिष्ठ सदन : विचारों का संगम
संतोष जी का घर, वशिष्ठ सदन, वर्षों तक हरियाणा की राजनीति और समाज का केंद्र बना रहा। यह घर नेताओं, विचारकों और समाजसेवियों के लिए किसी खुले मंच जैसा था। यहाँ हर विचारधारा के लोग आते, बैठते, चर्चा करते और दिशा पाते।
इस पूरे वातावरण को संतुलन में रखने वाली शक्ति थीं—संतोष जी। वे सभी का आदर करतीं, सबकी सुनतीं, परंतु स्वयं निष्पक्ष और सिद्धांतनिष्ठ बनी रहतीं। उनके सहज स्वभाव और मृदु व्यवहार के कारण हर आगंतुक उनसे आत्मीयता का अनुभव करता। उन्होंने यह साबित कर दिया कि घर केवल चार दीवारों का नाम नहीं, बल्कि समाज का आईना भी बन सकता है।
चेतना परिवार की माँ
संतोष जी केवल अपने बच्चों की माँ नहीं थीं। दैनिक चेतना के हर सहयोगी, हर पत्रकार, हर कर्मचारी को वे अपने परिवार का हिस्सा मानतीं। उन्हें प्रोत्साहित करना, उनकी कठिनाइयों में साथ खड़ा होना और उनके लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराना—ये सब उनके स्वभाव का हिस्सा था।
वे पत्रकारिता को एक सेवा मानती थीं, और इसी दृष्टि से हर कार्यकर्ता को प्रेरित करती थीं। यही कारण था कि चेतना परिवार उन्हें माँ की तरह मानता रहा।
आयरन लेडी की छवि
‘आयरन लेडी’ कहना आसान है, परंतु इसका अर्थ समझना कठिन। संतोष वशिष्ठ ने यह उपाधि अपने कठोर हृदय से नहीं, बल्कि अपने अडिग इरादों से अर्जित की। वे भीतर से कोमल थीं, रिश्तों को सँभालना जानती थीं, लेकिन जब समय आया तो किसी दबाव के आगे झुकीं नहीं।
पत्रकारिता की दुनिया में आर्थिक संकट, सामाजिक विरोध और राजनीतिक दबाव सामान्य बात है। परंतु संतोष जी ने हर परिस्थिति का सामना साहस के साथ किया। वे जानती थीं कि सच बोलना कभी आसान नहीं होता, लेकिन वे सच से पीछे नहीं हटीं। यही साहस उन्हें औरों से अलग करता है।
सरलता की शक्ति
उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी—उनकी सरलता। जीवन में चाहे कितने भी उतार-चढ़ाव आएँ, वे मुस्कान के साथ हर परिस्थिति को स्वीकार करतीं। वे मानती थीं कि सरलता ही सबसे बड़ा हथियार है। उनके जीवन का यही गुण लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करता था।
वे कहा करती थीं—“रिश्तों की असली शिक्षा किताबों से नहीं, घर के आँगन से मिलती है। पहले अपने खून के रिश्तों को सँभालो, तभी समाज को भाईचारे की सीख देने का हक़ बनता है।”
यह वाक्य उनके जीवन का सार है। उन्होंने इसे केवल कहा ही नहीं, बल्कि जिया भी।
एक विरासत
आज जब संतोष वशिष्ठ हमारे बीच नहीं हैं, तो उनकी स्मृतियाँ और शिक्षाएँ हमारे पास धरोहर की तरह हैं। वे हमें यह सिखाकर गईं कि स्त्री यदि ठान ले तो घर की दीवारों से बाहर निकलकर पूरे समाज को दिशा दे सकती है। उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि पत्रकारिता केवल कागज़ पर छपने वाली ख़बरों का नाम नहीं, बल्कि समाज के विचार और भविष्य की धड़कन है।
उनकी विरासत केवल अख़बार तक सीमित नहीं है। उनकी विरासत है—सत्यनिष्ठा, साहस, सरलता और सेवा। यह ऐसी धरोहर है जिसे कोई समय नहीं मिटा सकता।
अमर स्मृतियाँ
संतोष वशिष्ठ का जीवन हमें यह समझाता है कि महानता पद या संपत्ति से नहीं, बल्कि त्याग और निष्ठा से आती है। उन्होंने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि संघर्ष और सेवा ही सच्ची शक्ति है।
वे केवल एक स्त्री, पत्नी या माँ नहीं थीं। वे एक आंदोलन थीं, एक विचार थीं, एक चेतना थीं। उनका जाना एक युग का अंत है, पर उनकी स्मृतियाँ अमर हैं।
सचमुच, संतोष वशिष्ठ जैसी महिलाएँ कभी जाती नहींं। वे समाज की चेतना में सदा जीवित रहती हैं, प्रेरणा देती रहती हैं और हमें बार-बार याद दिलाती हैं कि—
“आयरन लेडी वही होती है,जो मुस्कान के साथ संघर्ष झेलकर भी समाज को रोशनी देती है।”
किसने की पता नहीं पर ताश के बावन पत्ते और दो जोकर पर जो खोज हुई है वह देखिए,ताश के पत्तों में कुछ महानुभाव ज्योतिष्य ज्ञान का प्रतिफल युक्त गणित आजमाते है, आप भी देखें: अपने पूर्वजों का ज्ञानार्जन।ये है ताश का मर्म।इसे देहात में पत्ती का खेल भी कहते है।हम ताश खेलते है, अपना मनोरंजन करते है। पर शायद कुछ ही लोग जानते होंगे कि ताश का आधार वैज्ञानिक है व साथ साथ ही प्रकृति से भी जुड़ा हुआ है।आयताकार मोंटे कागज़ से बने पत्ते चार प्रकार के ईंट, पान, चिड़ी, और हुक्म, प्रत्येक तेरह पत्तों को मिलाकर कुल बावन पत्ते होते हैं।पत्ते एक्का से दस्सा, गुलाम, रानी एवं राजा।बावन पत्ते याने साल के बावन सप्ताह।चार प्रकार के पत्ते मतलब चारऋतु का संकेत।प्रत्येक रंग के तेरह पत्ते,बताते हैं कि प्रत्येक ऋतु में तेरह सप्ताह होते है।सभी पत्तों का जोड़ एक से तेरह, बराबर,गुणा चार,तो हुए साल के तीन सौ चौसठ दिन।एक जोकर,और जोड़ा तो हो गए वर्ष के पूरे तीन सौ पैसठ दिन।दूसरा जोकर गिने तो तीन सौ पैसठ धन एक बराबर तीन सौ छाछठ दिन,मतलब लीप वर्ष!इन बावन पत्तों में बारह चित्र वाले पत्ते है बारह ये हुए बारह महिने।लाल और काला रंग, दिन और रात का संकेतक। ताश के पत्तों का अर्थ भी गूढार्थ में देखें,जरा ईक्का- एक ही आत्मा दुक्की,जीव और ईश्वर पुद्गल,तिक्की सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र।चौकी चारअनुयोग(प्रथमानुयोग,चरणानुयोग,करनानुयोग,द्रव्यानुयोग।पंजी – पंच पाप से बचना हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील,परिग्रह।छक्की षड आवश्यक कार्य करना (देव पूजा, गुरु उपासना,स्वाध्याय,संयम,तप,दान)सत्ती सात तत्व को जानो (जीव, अजीव, आश्रव,संवर, निर्जरा,मोक्ष)अटठी सिद्ध के आठ गुण प्रकट करो (अनंत दर्शन,अनंत ज्ञान,अनंत सुख, अनंत वीर्य, अव्यबाधत्व, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व)।नव्वा नौ कषाय को भी त्यागो (हास्य,रति, अरति,शोक,भय, जुगुप्सा,स्त्रीवेद पुरुष वेद, नपुंसक वेद,) दस्सी दस धर्म प्रकट करो (उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव,सत्य, शौच,संयम,तप,त्याग, आकिंचन,ब्रह्मचर्य)दस दिशाओं का भी संकेत। गुलाम,मन की वासना के गुलाम मत बनो।रानी,मोह रूपी माया को त्यागो।राजा आत्म गुणों पर शासन करो। यह आनंद के साथ साथ ज्ञान भी है।भारतीय संस्कार और परंपरा को नमन जो हर कार्य में अच्छाई ढूंढ लेती हुई। दृष्टिकोण दृष्टि बदल देता है।ताश का दूजा दृष्टिकोण ,नकारात्मक भी है तभी बुजुर्ग इसे अच्छा नहीं मानते?ताश के इन्ही पत्तो से लोग जुआ,किटी, रम्मी,रंग मिलावनी का खेल पैसों से खेलते हैं।जुआ सदैव ही बुरी चीज रहा है।धर्मराज युधिष्ठिर इतने ज्ञानवान होकर भी जुआ खेलने बैठे और अपनी पत्नी तक को हार गए।यह शर्मनाक करतूत हुई,जिससे उनकी छवि खराब हुई।जुएं में लाखों घर उजड़ जाते है।समय भी खूब बर्बाद होता हैं।
तनवीर जाफ़री गत नौ सितंबर को दोपहर बाद इस्राईल के 15 फ़ाइटर जेट्स और 10 से अधिक म्यूनिशन ने जिसमें स्टैंड-ऑफ़ मिसाइलें और स्टील्थ तकनीक शामिल थी, ने इस्राईल से 1800 किलोमीटर की उड़ान भरकर क़तर की राजधानी दोहा के कटारा और वेस्ट बे लैगून इलाक़ों में हमले करके उन सभी इमारतों को उड़ा दिया जहां हमास के कई शीर्ष नेता या तो रहा करते थे या उनके कार्यालय थे। इस हमले में 40 से ज़्यादा लोग मारे गए। हमास ने दावा किया कि इस्राईली हमले में उनकी मुख्य वार्ताकार टीम बच गई, लेकिन पांच सदस्य, जिसमें ख़लील अल-हय्या का बेटा और एक क़तरी सुरक्षा अधिकारी शामिल था, मारे गए। क़तर में हुआ यह हमला मध्य पूर्व में तनाव को और बढ़ाने वाला साबित हो सकता है। इस्राईल के इस क़दम को क्षेत्रीय स्थिरता के लिए बड़ा ख़तरा माना जा रहा है। यह पहला अवसर है जबकि इस्राईल ने अपने लक्ष्य को भेदने की ग़रज़ से क़तर में हमला किया है। इस हमले के तुरंत बाद क़तर ने अपने हवाई क्षेत्र की निगरानी बढ़ा दी। हालांकि, क़तर एयरवेज की उड़ानें सामान्य रूप से जारी रहीं। क़तर के प्रधानमंत्री शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल रहमान अल-थानी ने कहा कि यह हमला ग़ज़ा में युद्ध विराम की मध्यस्थता के लिए क़तर के प्रयासों को पटरी से उतार सकता है। क़तर ने इस हमले को “कायराना” और “अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का घोर उल्लंघन” क़रार दिया। क़तर के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता माजेद अल-अंसारी ने इस हमले को क़तर की संप्रभुता और नागरिकों की सुरक्षा के लिए ख़तरा बताया। उधर इस्राईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और इस्राईल सुरक्षा बलों ने इस हमले की पूरी ज़िम्मेदारी लेते हुये कहा कि यह हमला सटीक हथियारों से और पुख़्ता ख़ुफ़िया जानकारी के आधार पर किया गया, ताकि नागरिकों को नुक़्सान कम हो। इस्राईल के अनुसार हमास के नेता, जिन्हें दोहा में निशाना बनाया गया वही सात अक्टूबर 2023 के हमले के लिए ज़िम्मेदार थे और ग़ज़ा में युद्ध को संचालित कर रहे थे। अमेरिका में इस्राईली राजदूत ने यह भी कहा कि अगर इस हमले में हमास के कुछ नेता बच गए हैं तो अगले हमले में उन्हें भी निशाना बनाया जाएगा। इस क़दम को इस्राईल की आक्रामक रणनीति के उस हिस्से की शक्ल में देखा जा रहा है, जिसका उद्देश्य हमास को पूरी तरह समाप्त करना है, चाहे वह किसी भी देश में क्यों न हो। परन्तु हमास नेताओं को लक्षित कर क़तर पर किये गये इस्राईली हमले को एक अभूतपूर्व क़दम के रूप में इसलिये देखा जा रहा है क्योंकि क़तर अमेरिका का प्रमुख सहयोगी और ग़ज़ा युद्धविराम वार्ता का मध्यस्थ है। क़तर में ही अमेरिका का अल-उदईद एयरबेस भी है जहां क़रीब 10,000 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। यह एयरबेस इस्राईल द्वारा किये गये हमले की जगह से केवल 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस्राईल की इस आक्रामक कार्रवाई ने क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तनाव को और बढ़ा दिया है, और ग़ज़ा में शांति प्रक्रिया को और जटिल कर दिया है। इस हमले ने मध्य पूर्व में अमेरिकी प्रभाव को भी कमज़ोर किया है और तुर्की जैसे अन्य देशों के लिए भी ख़तरे की आशंका पैदा की है इस्राईल की इस आक्रामक व उकसाने वाली कार्रवाई की विश्व के अनेक देशों ने निंदा की है। क़तर सरकार ने हमले को “आपराधिक हमला” क़रार देते हुए इसकी कड़ी निंदा की और इसे अंतरराष्ट्रीय क़ानून तथा संयुक्त राष्ट्र चार्टर का स्पष्ट उल्लंघन बताया है । क़तर ने अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए सभी उपायों का समर्थन किया। जबकि जॉर्डन के किंगअब्दुल्ला द्वितीय ने फ़िलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास से मुलाक़ात के दौरान क़तर में हुये इस्राईली हमले की निंदा की। उन्होंने इज़राइल के ग़ज़ा पर नियंत्रण बढ़ाने और वेस्ट बैंक में बस्तियों के विस्तार को भी ख़ारिज किया साथ ही ग़ज़ा में युद्धविराम, मानवीय सहायता और द्वि -राष्ट्र समाधान पर ज़ोर दिया। वहीँ संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्री शेख़ अब्दुल्ला बिन ज़ायद ने मिस्र के विदेश मंत्री से मुलाक़ात में इस हमले को अंतरराष्ट्रीय क़ानून तथा यूएन चार्टर का उल्लंघन क़रार दिया। उन्होंने वैश्विक स्तर पर इस्राईल की “आक्रामकताओं” को रोकने की अपील भी की। इसी तरह मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फ़तह अल-सीसी ने कुवैत के अमीर से फ़ोन पर हुई बातचीत में क़तर के प्रति “पूर्ण एकजुटता” व्यक्त करते हुये इस हमले को क़तर की संप्रभुता पर अस्वीकार्य अतिक्रमण बताया और इसे अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन क़रार दिया। जबकि कुवैत के अमीर, शेख़ मिशाल अल-अहमद अल-जाबर अल-सबाह ने भी हमले को संप्रभुता पर अतिक्रमण बताया और अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन क़रार दिया। ईरान के विदेश मंत्री सैय्यद अब्बास अराघची ने इस हमले को “आतंकवादी आक्रामकता” बताते हुये क़तर के प्रति एकजुटता व्यक्त की और इज़राइल को क्षेत्रीय तथा वैश्विक शांति के लिए “तत्काल ख़तरा” बताया। ट्यूनीशिया के विदेश मंत्रालय ने भी हमले को “कुटिल और दुष्ट हमला” क़रार देते हुये क़तर के प्रति पूर्ण एकजुटता व्यक्त की और अरब सुरक्षा को इस्राईल के ख़तरों से बचाने पर ज़ोर दिया। दुनिया के कई देशों ने इस हमले को लेकर सुरक्षा परिषद् की आपात बैठक बुलाने की बात भी की। अभी क़तर के हमले को लेकर दुनिया के अनेक देश अपनी तीखी प्रतिक्रिया दे ही रहे थे कि इसी बीच नेतन्याहू ने यह घोषणा भी कर दी कि ग़ज़ा के 40 प्रतिशत हिस्से पर इस्राईली सुरक्षा बालों का नियंत्रण हो चुका है। साथ ही इस्राईली सुरक्षा बालों की ओर से ग़ज़ा में बचे शेष लोगों से भी ग़ज़ा छोड़ने को कहा गया है। और इसी के अगले दिन यानी 11 सितंबर को इस्राईली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने एक बार फिर फ़िलिस्तीनी राज्य के अस्तित्व को मानने से ही स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। उन्होंने वेस्ट बैंक के मा’अले अदुमिम निपटान में एक समारोह के दौरान कहा कि “फ़िलिस्तीनी राज्य नहीं बनेगा” और “यह जगह हमारी है।” यह बयान उस समय दिया गया जब वे एक विवादास्पद निपटान विस्तार समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे, जो फ़िलिस्तीनी क्षेत्र को विभाजित करने का प्रयास माना जा रहा है। दक्षिणपंथी नेतन्याहू पहले भी द्वि राष्ट्र का विरोध करते रहे हैं। उनका यह ताज़ा बयान भी फ़िलिस्तीनी राज्य की संभावना को नष्ट करने का प्रयास माना जा रहा है। नेतन्याहू उस फ़िलिस्तीनी राज्य के अस्तित्व को मानने से इंकार कर रहे हैं जिसने जर्मन से हिटलर द्वारा निष्कासित इन्हीं यहूदियों को मानवता के नाते अपनी धरती पर पनाह दी। अभी पिछले दिनों फ़िलिस्तीन को राज्य का दर्जा देने के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत सहित 142 देशों द्वारा एक बार फिर मतदान किया गया। फ़िलिस्तीन के समर्थन में आये इस प्रस्ताव में इस्राईल द्वारा की जा रही हिंसा की निंदा की गयी साथ ही ग़ज़ा में इस्राईली बस्ती बसाने की योजना को भी समाप्त करने की मांग की गई है। अमेरिका व इस्राईल सहित केवल 10 देशों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया जबकि शेष दुनिया फ़िलिस्तीन के साथ खड़ी दिखाई दी। परन्तु अतिवादी सोच के नेतन्याहू पूरी दुनिया को ठेंगा दिखाने की ठाने हुये हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि मानवता के दुश्मन व अंतर्राष्ट्रीय नियमों की धज्जियाँ उड़ाने वाले दक्षिणपंथी नेतन्याहू फ़िलिस्तीन में अपना जंगल राज स्थापित करना चाहते हैं। मानवता की रक्षा के लिये ऐसे कुत्सित इस्राईली प्रयासों को पूरे विश्व को मिलकर रोकना होगा।
समय और समाज के बदलते माहौल के साथ हर पीढ़ी की सोच, जीवनशैली और चुनौतियाँ बदलती हैं। ग्रेटेस्ट जनरेशन और साइलेंट जनरेशन ने युद्ध और कठिनाई का सामना किया। बेबी बूमर्स ने औद्योगिकीकरण देखा, जेन-एक्स ने तकनीकी शुरुआत अनुभव की, और मिलेनियल्स ने इंटरनेट और वैश्वीकरण के साथ युवा जीवन जिया। जेन-ज़ी डिजिटल नेटिव हैं, आत्मनिर्भर और तेज़ सोच वाले, जबकि जेन अल्फा पूरी तरह डिजिटल माहौल में पले-बढ़ रहे हैं। मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक जुड़ाव और रोजगार की अनिश्चितता इनकी प्रमुख चुनौतियाँ हैं। संतुलन, रचनात्मकता और अनुभव-साझा करके भविष्य संवेदनशील और प्रगतिशील बनाया जा सकता है।
– डॉ प्रियंका सौरभ
समाज में समय-समय पर होने वाले परिवर्तन केवल राजनीति या तकनीकी तक सीमित नहीं रहते, बल्कि इंसान की सोच, जीवनशैली और संस्कृति पर गहरा असर डालते हैं। यही कारण है कि अलग-अलग वर्षों में जन्म लेने वाले लोगों को अलग-अलग “जनरेशन” के रूप में पहचाना जाता है। आजकल स्कूलों, कॉलेजों और यहाँ तक कि कॉरपोरेट दुनिया में भी “जेन-जी” और “जेन अल्फा” जैसे शब्द आम हो गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि ये पीढ़ियाँ हैं क्या, इनकी सोच और चुनौतियाँ किन मायनों में अलग हैं और क्या यह फर्क समाज को मज़बूत बना रहा है या विभाजन पैदा कर रहा है?
जनरेशन दरअसल वह समूह है जो लगभग समान समयावधि में जन्म लेता है और अपने बचपन व युवावस्था में समान सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों का अनुभव करता है। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में जन्मे बच्चे और आज के डिजिटल युग में जन्मे बच्चों की सोच और जीवनशैली में ज़मीन-आसमान का फर्क है। यही फर्क हर पीढ़ी की पहचान बन जाता है। अमेरिका और यूरोप में बीसवीं सदी की शुरुआत में पीढ़ियों को वर्गीकृत करने का चलन शुरू हुआ और अब भारत सहित पूरी दुनिया में इसे अपनाया जा रहा है।
बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक कई पीढ़ियाँ सामने आई हैं। 1901 से 1927 के बीच जन्म लेने वाली “ग्रेटेस्ट जनरेशन” ने प्रथम विश्व युद्ध और महामंदी की कठिन परिस्थितियों का सामना किया। इनकी ज़िंदगी अनुशासन और त्याग से भरी रही। इसके बाद 1928 से 1945 तक जन्मे लोग “साइलेंट जनरेशन” कहलाए। यह वह पीढ़ी थी जिसने द्वितीय विश्व युद्ध, गरीबी और विस्थापन के बीच अपना बचपन गुज़ारा। भारत में यही पीढ़ी स्वतंत्रता और विभाजन दोनों की गवाह बनी। 1946 से 1964 के बीच जन्म लेने वाली पीढ़ी “बेबी बूमर्स” के नाम से जानी गई। युद्ध के बाद जन्म दर में तेज़ी से वृद्धि हुई और दुनिया पुनर्निर्माण की ओर बढ़ी। भारत में यह वही लोग थे जिन्होंने पहली बार स्वतंत्र नागरिक का दर्जा पाया और औद्योगिकीकरण तथा हरित क्रांति के दौर को देखा।
1965 से 1980 के बीच जन्म लेने वाली “जेनरेशन एक्स” तकनीकी क्रांति की आहट के साथ बड़ी हुई। टीवी और रेडियो इनके जीवन का हिस्सा बने। भारत में इस पीढ़ी ने आपातकाल और आर्थिक संकट का समय देखा, इसलिए यह व्यावहारिक और आत्मनिर्भर मानी जाती है। इसके बाद 1981 से 1996 तक जन्म लेने वाली पीढ़ी “मिलेनियल्स” या “जेन-वाई” कहलायी। इसने इंटरनेट और वैश्वीकरण का दौर देखा। नई महत्वाकांक्षाओं और सपनों से भरे इन युवाओं ने आईटी क्रांति और मोबाइल तकनीक का लाभ उठाया।
1997 से 2012 तक जन्म लेने वाली “जेनरेशन-ज़ी” डिजिटल नेटिव कहलाती है। इन बच्चों ने बचपन से ही इंटरनेट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। इनकी पहचान आत्मविश्वास, रचनात्मकता और तेज़ सोच है, लेकिन अधीरता और प्रतिस्पर्धा भी इनमें साफ़ दिखाई देती है। इसके बाद 2013 से 2025 के बीच जन्म लेने वाले बच्चे “जेनरेशन अल्फा” के नाम से पहचाने जाते हैं। ये बच्चे ऐसे माहौल में पले-बढ़ रहे हैं जहाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, वर्चुअल रियलिटी और रोबोटिक्स रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं। इनके खिलौने भी स्मार्ट डिवाइस हैं और शिक्षा पूरी तरह ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर आधारित होती जा रही है।
जेनरेशन-ज़ी की कुछ खास विशेषताएँ इन्हें औरों से अलग करती हैं। यह पहली पीढ़ी है जिसने बचपन से ही डिजिटल आईडी बनाई। किताबों और अख़बारों की जगह यूट्यूब, इंस्टाग्राम और नेटफ्लिक्स इनकी पसंद बन गए। ये मल्टीटास्किंग में माहिर हैं, आत्मनिर्भर और स्वतंत्र सोच रखते हैं, लेकिन इनकी सबसे बड़ी चुनौती ध्यान केंद्रित करने की क्षमता का कम होना है। सोशल मीडिया से होने वाली तुलना इनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है और कई बार चिंता व अवसाद जैसी समस्याएँ भी पैदा करती है।
जेनरेशन अल्फा का भविष्य और भी अनोखा होगा। यह मानव इतिहास की पहली पूरी तरह डिजिटल नेटिव पीढ़ी है। इनके खिलौने रोबोट हैं, शिक्षा वर्चुअल क्लासरूम में हो रही है और इनके खेल का मैदान मेटावर्स तथा ऑगमेंटेड रियलिटी है। ये वैश्विक स्तर पर सोचेंगे क्योंकि इन्हें बचपन से ही दुनिया से जुड़े प्लेटफ़ॉर्म मिल रहे हैं, लेकिन साथ ही यह खतरा भी रहेगा कि इनका वास्तविक दुनिया से जुड़ाव कमजोर हो जाए।
हर पीढ़ी पिछली से अलग रही है। बेबी बूमर्स नौकरी और स्थिरता को महत्व देते थे, जेन-एक्स ने संतुलन साधा, मिलेनियल्स ने उद्यमिता और सपनों पर ध्यान दिया, जबकि जेन-जी और अल्फा तेज़ी, सुविधा और त्वरित संतुष्टि को महत्व देते हैं। यही अंतर कभी-कभी संवाद की खाई भी पैदा कर देता है।
भारतीय संदर्भ में पीढ़ियों का असर और भी विविध है। गाँव और शहर में अनुभव अलग हैं। गाँव के बच्चे आज भी पारंपरिक खेलों और सामाजिक आयोजनों से जुड़े रहते हैं, जबकि शहरों के बच्चे मोबाइल और लैपटॉप की दुनिया में खोए रहते हैं। जेन अल्फा में यह अंतर और भी गहरा होगा। आर्थिक असमानता और शिक्षा का स्तर भी इस खाई को बढ़ाता है।
जेन-जी और अल्फा बच्चों के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी होंगी। सबसे पहली चुनौती मानसिक स्वास्थ्य है। लगातार स्क्रीन टाइम और सोशल मीडिया के दबाव ने चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं को जन्म दिया है। दूसरी चुनौती सामाजिक जुड़ाव की है। वर्चुअल दुनिया में रिश्ते तो बनते हैं, लेकिन असली संबंध कमजोर पड़ जाते हैं। तीसरी चुनौती रोज़गार की अनिश्चितता है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन पारंपरिक नौकरियों को खत्म कर रहे हैं। ऐसे में नई स्किल्स सीखना बच्चों के लिए अनिवार्य होगा।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए समाधान भी संभव हैं। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को डिजिटल और वास्तविक जीवन का संतुलन सिखाएँ। शिक्षा प्रणाली को केवल अंकों तक सीमित न रखकर रचनात्मकता, सहयोग और भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर जोर देना होगा। सबसे ज़रूरी यह है कि बच्चों को प्रकृति और समाज से जोड़ा जाए। अगर पुरानी पीढ़ियों का अनुभव और नई पीढ़ियों की ऊर्जा आपस में मिल जाए, तो यह पीढ़ियाँ न केवल तकनीकी रूप से सक्षम होंगी बल्कि मानवीय दृष्टि से भी संवेदनशील बनेंगी।
अंत में कहा जा सकता है कि जेनरेशन-जी और अल्फा केवल नाम नहीं बल्कि समाज और राष्ट्र का भविष्य हैं। पीढ़ियाँ बदलना स्वाभाविक है, लेकिन हर पीढ़ी की ताक़त और सीख को समझना ज़रूरी है। अगर हम अनुभव और ऊर्जा का मेल कर पाए, तो समाज संतुलित और प्रगतिशील बनेगा। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम आने वाली पीढ़ियों को तकनीकी रूप से दक्ष और मानवीय दृष्टि से संवेदनशील बनाकर सही दिशा दें।